Magazine - Year 1984 - Version 2
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Language: HINDI
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सूर्य की क्षमता और आराधना
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सूर्य पृथ्वी से 3,30,000 गुना बड़ा है। सूर्य का सबसे निकटवर्ती और छोटा ग्रह बुध है। उसका व्यास मात्र 3010 मील है। मंगल कुछ बड़ा है अर्थात् 4200 मील। इनकी तुलना में पृथ्वी बड़ी है। उसका व्यास 7913 मील है। इसे शुक्र के समतुल्य कहा जा सकता है। प्राप्त जानकारी के अनुसार सौर मण्डल के सदस्यों में सबसे बड़ा बृहस्पति है। उसका व्यास 86,800 मील है। अर्थात् पृथ्वी से 11 गुना बड़ा। इसके बाद शनि का नम्बर आता हे। वह 715000 मील व्यास का है। शनिश्चर क दस गुना अधिक चन्द्रमा है। इनमें से टाइटन पृथ्वी के चन्द्रमा से भी बड़ा है।
नये खोजे गये तीन ग्रह यूरेनस, नेपच्यून और प्लूटो है। प्लूटो सूर्य से सर्वाधिक दूरी पर है। वह अपनी धुरी पर तो छह दिन में ही घूम जाता है पर सूर्य की एक परिक्रमा करने में 248 वर्ष लगते हैं।
अपना सूर्य जिस मन्दाकिनी के गर्भ में है उसमें रहते हुए भी प्रति सेकेण्ड 200 किलोमीटर गति से अपनी निर्धारित कक्षा में भी भ्रमण करता रहता है।
ब्रिटेन के बरमिंघम विश्व विद्यालय के भौतिकीविद डा. एच. वी. वानउर री के अनुसार सूर्य दिन में नौ बार काँपता है। यह कपकपी एक बार में 260 मिनट तक कभी-कभी चलती है। ऐसा माना जाता है कि सूर्य में हाइड्रोजन ईंधन की भट्टी धधक रही है। सूर्य इतना विशाल है कि इसमें 10 लाख अरब टन हाइड्रोजन ईंधन एक सेकेण्ड मात्रा में फुँक जाता है। यह खुराक खाकर भी उसका पेट नहीं भरता। कहा जाता है कि इतने पर भी कम आहार के कारण वह ठण्डा होता चला जा रहा रहा है।
सूर्य का भौतिक दृष्टि से ही नहीं, आध्यात्मिक दृष्टि से महत्व अपनी जगह अलग ही है। उसे सविता देवता प्राण ऊर्जा का महत् स्रोत कहा गया है। इन दिनों ब्रह्मा विष्णु, शिव, राम, कृष्ण, दुर्गा, हनुमान आदि देवताओं का बाहुल्य है। सूर्य मन्दिरों की संख्या इनकी तुलना में कम है। तो भी पुरातन काल के देवालयों पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि किसी समय सूर्य ही प्रमुख देवता था और उसी की उपासना की प्रमुखता प्राप्त थी। मन्दिर भी उन्हीं के बनते थे। पाँच सौ से पुराने मन्दिरों में उन्हीं की बहुलता है।
गोपाडि (ग्वालियर) क्षेत्र में एक पुरातन सूर्य मन्दिर था जिसके अब खण्डहर ही शेष हैं। शाकल (स्याल कोट) के सूर्य मन्दिर का उल्लेख ह्वेन सांग ने किया है। मोढेरा (गुजरात) कोणार्क (उड़ीसा), खजुराहो, तिरुपति बाला जी (दक्षिण) मडखेरा (उ. प्र.) के पुरातन सूर्य मन्दिर यद्यपि जराजीर्ण स्थिति में जा पहुँचें हैं तो भी यह साक्षी प्रस्तुत करते हैं कि कभी भारत में सूर्योपासना की प्रधानता रही है।
वृत्ताकार सूर्य को बालाजी कहते हैं। बालाजी के नाम से मध्यकाल में सूर्य की उपासना होती रही है। अब कोई-कोई इस शब्द का अर्थ हनुमानजी से भी लगाते हैं।
कुषाण काल में सूर्योपासना एशिया के अधिकाँश भाग में प्रचलित थी। मिश्र और ईरान में इस्लाम के आगमन से पूर्व सूर्य सम्प्रदाय का आधिपत्य था। उस समय की प्रतिमाओं और शिलालेखों से प्रकट है कि इन क्षेत्रों में उपासना के लिए सूर्य को ही प्रमुख आधार माना जाता रहा है।
ऋग्वेद 1।125।1 में सूर्य को जगत की आत्मा बताया गया है इसका अर्थ हुआ- इस पृथ्वी पर जो चेतना एवं हलचल है उसका उद्गम स्रोत सूर्य है। उसमें हमें गर्मी और रोशनी ही नहीं मिलती। इसके अतिरिक्त वह भी मिलता है जो चेतना से सम्बन्धित है।
प्रख्यात गायत्री मन्त्र सूर्य उपासना का मन्त्र है। उसका देवता सविता है। सविता के भर्ग की याचना की गई है। उस भर्ग को प्रगतिशील प्रेरणा में नियोजित करने का अनुरोध आग्रह है।
बारह महीनों के कारण सूर्य को द्वादश आदित्य भी कहा जाता है। षट ऋतुएँ उसकी पत्नियाँ मानी गई हैं। ऊषा को उसकी प्रेमिका और संज्ञा या सन्ध्या को पटरानी के रूप में निरूपित किया गया है। यह कथा प्रतिपादन सूर्य की मूलभूत क्षमता के अनेकानेक प्रयोजनों में प्रयुक्त होने की विधा पर प्रकाश डालते हैं।
भगवान राम को सूर्यवंशी माना जाता है। कुन्ती ने पाण्डवों को सूर्योपासना के आधार पर उत्पन्न किया था इसलिए वे भी प्रकारान्तर से सूर्यवंशी हुए। चन्द्रमा भी सूर्य से ही प्रकाश ग्रहण करता है इसलिए चन्द्रवंशी भी सूर्योपासना में वैसी ही अनुरक्ति प्रकट करते हैं।
हिन्दू देवताओं की संख्या विस्तार जितनी तेजी से हुआ है उसे देखते हुए आश्चर्य होता है। सभ्यता के आरम्भ में सूर्य ही एकमात्र उपास्य थे। प्रत्यक्ष देवता के सम्मुख वही सर्वसाधारण के सामने रहता है। उसके कारण मिलने वाली गर्मी रोशनी से न केवल देखने की सुविधा होती है वरन् जीवनचर्या के साथ जुड़े हुए अनेकानेक प्रयोजन भी पूरे होते हैं, इस तथ्य को जैसे-जैसे अधिक अच्छी तरह समझा गया वैसे-वैसे सूर्य का महत्व भी अधिक अच्छी तरह समझा गया। रात्रि के अन्धकार में होने वाली असुविधा ने इस तथ्य पर तुलनात्मक अध्ययन का अवसर प्रदान किया और लोग सूर्य की गरिमा के प्रति अधिकाधिक श्रद्धावान होते चले गये। अरुणोदय तथा अस्तकाल में उनकी पहुँचाई एवं विदाई के लिए सन्ध्या वन्दन का नियम बना। इसके लिए सूर्योपस्थान का सरल किन्तु भावभरा विधान अपनाया गया। अभ्यर्थना उपचार में सूर्यार्घ दान के रूप में जल चढ़ाने की परम्परा चली। सर्वसाधारण के लिए वह सर्वसुलभ जो थी।
अन्य देवताओं का उद्भव सम्भवतः सूर्य परिवार के रूप में ही हुआ है। सप्त वर्ण सप्त अश्व को जब सूर्य का अविच्छिन्न अंग माना गया तो फिर उनकी पृथक-पृथक स्थापना और अभ्यर्थना की उमंग उठी और व्यवस्था बनी होगी। वैदिक देवताओं में सात प्रमुख हैं। ऋषियों में भी मूर्धन्य सात ही थे। सात लोक- सात महाद्वीप की मान्यता भी सूर्य विज्ञान के भेद-प्रभेदों पर प्रकाश डालने के रूप में आविर्भूत हुई। सुविदित है कि शरीर में रस, रक्त, माँस, मेदा आदि सात धातुएँ हैं। सूक्ष्म शरीर में षटचक्रों और उनके अधिपति सहस्रार को मिलाकर सप्त धाराएँ बनती हैं। रत्नों में सात ही प्रमुख हैं। स्वर सप्तक की तरह इन सभी की संगति सूर्य के सप्त अश्वों के साथ बैठती है। अध्यात्म और विज्ञान की दोनों ही धाराएँ यह बताती हैं कि चेतना और प्रकृति के दोनों ही क्षेत्रों में जिन सप्त धाराओं के प्रवाहित होने की परिकल्पनाएँ की गई हैं वे सूर्य से सम्बन्धित हैं। पुराणों में इन्हें भगवान मन्दिर के सप्त सभासद भी बताया गया। कहीं-कहीं पत्नियाँ भी कहा गया है। योग विज्ञान में जिस प्रमुख सप्त नाड़ियों का वर्णन हैं वे रक्तवाहिनी धमनियाँ नहीं वरन् लोक-लोकान्तरों से आकर मानवी काया को गतिशील एवं समुन्नत बनाने वाली विभूतियाँ ही हैं। ऋद्धि-सिद्धियों का स्रोत इन्हीं को माना और स्थिरता तथा प्रगति के लिए इनके सहारे मिलने वाले अनुदानों को दैवी अनुग्रह के रूप में गिना गया है। काल गणना में सप्ताह का सर्वाधिक महत्व है। ज्योतिर्विज्ञान का गतिचक्र इन्हीं के आधार पर आगे बढ़ता है।
ऋग्वेद के 1।164।8 में कहा गया है। धरती, आकास्थ सूर्य की पत्नी है। वह उसके प्रति समर्पित है। बादलों के माध्यम से वह गर्भ धारण करती है। उस विवेचन के फल स्वरूप प्राणि वर्ग का प्रजनन करती है।
मन्दिर निर्माण के इतिहास में बाराह पुराण (177 + 59 - 72) के अनुसार राजा शाम्ब ने तीन सूर्य मन्दिरों की स्थापना उदयगिरि एवं शाम्बपुर क्षेत्रों में कराई। इनमें क्रमशः प्रातः मध्याह्न और अस्त कालक सूर्यों की प्रतिमाएँ हैं।
चीनी तीर्थयात्री ‘ह्वेन सांग’ ने अपने यात्रा वर्णन में शाम्बपुर के सूर्य मन्दिर में अवस्थित स्वर्ण प्रतिमा का वर्णन किया है। डानसन ने अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री आफ इण्डिया’ में इसी प्रतिमा को 230 मन सोने से बनी बताया है। और सन् 712 के मुस्लिम आक्रमण से उसके नष्ट होने का उल्लेख किया है।
वैदिक देवताओं में इन्द्र, अर्वमा, पूषा, मित्र, वरुण, विष्णु, त्वष्ट आदि नामों का वर्णन है। वे प्रकारान्तर से सूर्य के ही अर्थ बोध नाम हैं। इस प्रकार वेदों में पाया जाने वाला बहुदेववाद भी अन्ततः एक ही ब्रह्म को सद्विदों द्वारा ‘बहुधा वर्दान्त’ की मान्यता में समेट लेते हैं।
सविता की उपासना में सूर्योपस्थान और सूर्यार्घ दान की विशेष महत्ता है। हाथ ऊँचे करके सूर्योपस्थान में भी गायत्री जप किया जाता है और सूर्यार्घ के रूप में भी गायत्री मन्त्र का प्रयोग होता है। स्कन्द पुराण 4।9।46 में कहा गया है- “गायत्री मन्त्र द्वारा अभिमन्त्रित जल को जिसने तीन बार सूर्य के समक्ष अर्घ प्रदान किया उसने तीनों लोकों की भलाई के लिए बहुत कुछ किया। तीन अंजलियों का अर्थ दान तीन लोकों के कल्याण के लिए है। ऐसा अर्घदान गायत्री युक्त होना चाहिए।” यथा-
गायत्रीमन्त्रतोयाढ्य दत्तं येनान्जलित्रयम्।
काले सवित्रे किं न स्यात्तेन दत्तं जगत्त्रयम्॥
स्कन्द पुराण काशी खण्ड पूर्वार्ध 9154 में सूर्य और गायत्री को वाच्य वाचक की कत्थक और कथन की उपमा दी गई है। दोनों की एकात्मता सिद्ध की गई है। यथा-
वाच्यवाचकम्बन्धो गायत्र्याः सवितुर्द्वयीः।
वाच्योडसौसविता साक्षाद् गायत्री वाचिका परा॥
गायत्री उपासक की परम गति सूर्यलोक में पहुँचने के रूप में मानी गई है। पद्म पुराण में कहा गया है- जो जितेन्द्रिय ब्रह्म परायण गायत्री की उपासना करता है वह जीवन मुक्त होकर सूर्य लोक से परम पद प्राप्त करता है। यथा-
तां दैवीमुपतिष्ठन्ते ब्राह्मणा ये जितेन्द्रियाः।
सूर्यलोकं ते प्रयान्ति क्रमान्मुक्तिं च पार्थिव॥
श्रुति वचन है- “यः सन्ध्यामुपासते ब्रह्मैव तदुपासते।”
अर्थात्- जो सन्ध्योपासना करता है वह ब्रह्म की ही उपासना है।
यह परब्रह्म क्या है? इसका उत्तर देते हुए छान्दोग्य में कहा है- “आदित्यो ब्रह्म”- अर्थात् उस ब्रह्म का प्रतीक आदित्य है। तैत्तिरीय आरण्यक में भी इस मत की पुष्टि की है। उसके 2।2 में उल्लेख है- “असावदित्यो ब्रह्म।” अर्थात् यह आदित्य ब्रह्म ही है।
गायत्री विनियोग में उसका देवता- उद्गम स्रोत सविता माना गया है। यह सविता और आदित्य एक ही है। शतपथ ब्राह्मण 6।3।1।20 का कथन है- असौ वा आदित्यो देवः सविता।’ अर्थात्- यह आदित्य- सूर्य ही सविता है। इस मत की पुष्टि दैवत काण्ड 4।31 में भी मिलती है। कहा गया है- “आदित्याऽपि सवितैवोच्यते” अर्थात्- आदित्य को ही सविता कहते हैं।
सारे वैज्ञानिक प्रमाण एवं आप्त वचन सविता की महत्ता का ही प्रतिपादन करते हैं। महाप्रज्ञा गायत्री की उपासना में सविता को ही प्रकारान्तर से आराधना की जाती है एवं उस दिव्य प्रकाश से स्वयं को ही नहीं- सृष्टि के हर प्राणधारी को जीवन, चेतना, सत्प्रेरणा प्रदान किये जाने की प्रार्थना की जाती है। चिन्तन को बहिरंग से मोड़कर अन्तर्मुखी बनाकर हर कोई सूर्य की दिव्य सामर्थ्य का लाभ उठाता रहा रह सकता है।