Magazine - Year 1984 - Version 2
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Language: HINDI
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युग परिवर्तन (kavita)
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परिवर्तन के बिना न होता, विभीषिका का नाश।
मूर्धन्यो जागो मुरदों से, रही न कोई आश॥
मानव के चिन्तन चरित्र में, आज असुरता आई।
पाप पतन को कुण्ठा कुत्सा, भावों बीच समाई॥
है अभाव से ग्रसित राष्ट्र, जनसंख्या बढ़ती जाती।
अणु युद्धों की होड़ लग रही, मानवता अकुलाती।
प्रकृति क्षुब्ध हो उठी आज फिर, सहा न जाता त्रास।
परिवर्तन के बिना न होता, विभीषिका का नाश॥
ऋतु बसन्त आने से पहले, पतझर हो जाती है।
नव शिशु को पाने से पहिले, माँ पीड़ा पाती है॥
नये भवन के लिए पुराने, खण्डहर ढाये जाते।
ढाये खण्डहर की छाती पर, नये उठाये जाते॥
चन्द्रगुप्त चाणक्य बदलते, इसी तरह इतिहास।
परिवर्तन के बिना न होता, विभीषिका का नाश॥
अवतारों की परम्परा है, परिवर्तन लाने को।
दिव्य चेतना धारण करती, इस मानव बाने को॥
परिवर्तन हो गया जरूरी, युग की पीड़ा हरने।
प्रज्ञा का अवसर हो रहा नई चेतना भरने॥
हम भी शिवा समर्थ सरीखा भरे नया विश्वास।
परिवर्तन के बिना न होता, विभीषिका का नाश॥
जन मानस के दृष्टिकोण को फिर बदला जाना है।
परशुराम का और बुद्ध का क्रम फिर दोहराना है॥
मानव में देवत्व उदय कर, धरती स्वर्ग बनाना।
मानवता को पाप पतन से, अब है मुक्त कराना॥
रहे वहीं अब खिन्न मनुजता, मानव नहीं उदास।
परिवर्तन के बिना न होता, विभीषिका का नाश॥
*समाप्त*