Magazine - Year 1984 - Version 2
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Language: HINDI
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उत्थान की आकाँक्षा और दिशाधारा
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प्रगति पथ पर अग्रसर होने के लिए अनवरत प्रयत्नशील रहना जीवधारी की एक स्वाभाविक वृत्ति है। जीवन के प्रारम्भ से अब तक की प्रगति का यदि लेखा जोखा लिया जाय तो यही तथ्य अधिकाधिक उजागर होता है। अमीबा जीवन का आदि स्वरूप माना जाता रहा है। एक कोषीय जीवधारी इस प्रकृति के घटक ने क्रमिक विकास करते-करते कई-कई इन्द्रियाँ और काया की कई-कई इकाइयाँ विकसित की हैं। यह सब अनायास ही सम्भव नहीं हो गया। इसके लिए प्राणियों की इच्छा शक्ति ने अन्तःचेतना एवं स्फुरणा ने असाधारण भूमिका निभाई है। वस्तुतः अह उनका चेतनात्मक पुरुषार्थ है। जिससे उनकी जैविक क्षमताओं का विकास हुआ है।
प्रकृति ने जीवधारियों के निर्वाह की सुविधा स्वेच्छापूर्वक प्रदान की है। ऐसा न होता तो जीवन के लिए अपना अस्तित्व बनाये रहना अपनी प्रगति के साधन सामग्री उपलब्ध कर सकना ही सम्भव न होता। तब उन्नति करने और समर्थ सुयोग्य होने की बात ही कैसे बनती? इतने पर भी यह मानकर चलना होगा कि जीवधारी का अपना निजी स्वभाव अग्रगमन के लिए- अभ्युदय के लिए अनवरत पुरुषार्थ करना है। इसी को इच्छा, आकाँक्षा अभिलाषा कहते हैं। इसे अंतःप्रेरणा भी कहा जा सकता है। यही है जीवधारी की वह मौलिक विशेषता जिससे वह प्रगति पथ पर लाखों करोड़ों वर्षों तक चलते-चलते इस स्थिति पर पहुँचा है जिसमें जीव जगत के अगणित प्राणियों को पाया जाता है। यह सृष्टि के आरम्भ काल की तुलना में असंख्य गुनी अधिक परिष्कृत है। आदिमकाल की अनगढ़ स्थिति और आज की स्थिति का कोई मुकाबला नहीं है। उस समय के और आज के जीवधारियों की चेतना, कुशलता एवं क्षमता में आश्चर्यजनक अन्तर पाया जाता है। अनगढ़ जीव सत्ता में आज की सुगढ़ स्थिति प्राप्त करने में असाधारण प्रयास पुरुषार्थ का परिचय दिया है। इस प्रगति में प्रकृति एवं परिस्थितियों का योगदान न रहा हो सो बात नहीं किन्तु जिसे भौतिक पृष्ठभूमि कह सकते हैं वह अन्तराल की वह उमंग ही है जो आगे बढ़ने की निरन्तर प्रेरणा देती और उसके लिए पुरुषार्थ करने की बेचैनी बनाये रहती है।
इस संदर्भ में दो प्रवाह सामने आते हैं। एक चेतना पक्ष का ऊँचा उठना। दूसरा काय वैभव का आगे बढ़ना। ऊँचा उठने से तात्पर्य है चिन्तन और चरित्र में उत्कृष्टता का अभिवर्धन। आगे बढ़ने का अर्थ है- समर्थता और सम्पदा का उपार्जन। उपभोग से इन दोनों के समन्वय से जीवन की दिशाधारा बनती है। मान्यता और आकाँक्षाओं का स्तर श्रेष्ठ या निकृष्ट होना व्यक्ति का अपना चुनाव है। जो जिसे वरण करेगा वह उस दिशा में अग्रसर अवश्य होगा। जिनकी गति धीमी होती है उन्हें आलसी, प्रमादी आदि नामों से भर्त्सना की जाती है। ऐसे ही लोग पिछड़े वर्ग में गिने जाते हैं और अभाव उपहास के भाजन बनते हैं। जिनकी दिशाधारा सही होती है वे वैभव सम्मान पाते और श्रेय सन्तोष के अधिकारी बनते हैं। यह समस्त उपलब्धियाँ उस आकाँक्षा तत्व की हैं जो न्यूनाधिक मात्रा में सभी में पाई जाती हैं।
प्रगति की आकाँक्षा स्वाभाविक भी है और उचित उपयोगी भी। उसमें व्यक्ति का निजी लाभ भी है और समाज का समग्र हित साधन भी। इच्छा का त्याग वाली उक्ति जिन अध्यात्म ग्रन्थों में पाई जाती है वहाँ उसका प्रयोजन प्रतिफल का आतुरता का परित्याग करने भर से है। शब्दावली में जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है उससे किसी भ्रम में पड़ने की आवश्यकता नहीं है। बुरे कामों के परिणाम तो तत्काल भी मिल जाते हैं पर भले कामों का उपयुक्त प्रतिफल मिलने में क्षमता एवं पुरुषार्थ की निर्धारण एवं साधन की- परिस्थितिजन्य अनुकूलता की कमी रहने पर अभीष्ट सत्परिणामों की मात्रा तथा अवधि में व्यतिरेक हो सकता है। ऐसी दशा में कर्त्ता को जो खीज़, निराशा एवं अनास्था उत्पन्न होती है उसी की रोकथाम के लिए यह सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है कि सत्कर्म से मिलने वाले सन्तोष एवं सन्मार्ग पर चलने के गौरव को ही पर्याप्त प्रतिफल मान लिया जाय और समयानुसार जब भी सत्परिणाम उपलब्ध हो तब उसे अतिरिक्त उपहार भर माना जाय। इस मान्यता को अपनाने से सन्तुलन बना रहता है और मार्ग से विचलित होने में उद्विग्नताजन्य अवरोध बाधक नहीं बन पाता।
सृष्टि के आदि में सृष्टा ने इच्छा की कि “मैं एक से अनेक बन जाऊँ और अपने अनेक रूपों के साथ रमण की क्रीड़ा कल्लोल में निरत रहूँ” यह इच्छा ही परा और अपरा प्रकृति के रूप में प्रादुर्भूत हुई और सृष्टि क्रम चल पड़ा। प्राणियों में यह इच्छा प्रगति की अभिलाषा के रूप में पाई जाती है और पदार्थों में गतिशील रहने का पराक्रम अनुशासन बनकर रहती है। गति इसी का नाम है। यही सुनियोजित होने पर प्रगति कहलाती है। उद्भव, परिष्कार और परिवर्तन का नियति चक्र इसी धुरी पर घूमता है। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र इसी गोलाकार परिभ्रमण का नाम है। ब्रह्माण्ड के छोटे-बड़े सभी क्रियाकलाप इसी दैवी निर्धारण अनुशासन के अन्तर्गत चल रहे हैं।
प्रगति के लिए प्रेरणा देने वाली आकाँक्षा जीव सत्ता के साथ अनादिकाल से जुड़ी हुई है और अनन्तकाल तक जुड़ी रहेगी। उसे उपयुक्त दिशा देना ही मानवी बुद्धिमत्ता का चरम कौशल है। इसी को परम पुरुषार्थ कहते हैं। आत्म निरीक्षण, आत्म निर्माण, आत्मसुधार, आत्म विकास के नाम से जिस आत्मोत्कर्ष एवं आत्म-कल्याण का ऊहा-पोह होता रहता है उसमें करने योग्य पराक्रम एक ही है कि आकाँक्षाओं का चेतना को सुसंस्कृत बनाने वाली उत्कृष्टता अपनाने के लिए बाधित करने वाली मान्यताओं से जकड़ दिया जाये। इन मान्यताओं को ही श्रद्धा कहते हैं। यह आप्त कथन अक्षरशः सत्य है कि जीवात्मा का स्वरूप श्रद्धामय है। जो जैसी श्रद्धा रखता है वह वैसा ही बन जाता है।
प्रकृति प्रदत्त आकाँक्षाऐं शरीर पर छाई रहती हैं और भूख, प्रजनन, अस्तित्व रक्षा के रूप में तृष्णा, वासना, अहंता के विविध रूपों में प्रकट परिलक्षित होती रहती है। यह सामान्य प्रवाह की बात हुई जिसे समस्त जीवधारी अपनाते और सृष्टि का गतिचक्र चलाते रहने के लिए विभिन्न प्रकार की चेष्टाएँ करते हुए जीवन लीला समाप्त करते हैं। इससे आगे का पक्ष वह है जिसे आत्मा या चेतना को उच्चस्तरीय प्रगति की ओर ले चलने वाला निर्धारण कह सकते हैं। इसमें देवी प्रवाह को अपनाना पड़ता है। आस्थाओं को आस्तिकता के साथ- बुद्धि को अध्यात्मिकता के साथ और पौरुष को धार्मिकता के साथ नियोजित करना पड़ता है। यही अध्यात्म दर्शन एवं साधना का सारभूत सिद्धान्त है। आत्मा की चेतना की प्रगति इसी पर निर्भर है।
उपरोक्त कथन प्रतिपादन से यह निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए कि जीव सत्ता की मूलभूत प्रवृत्ति आकाँक्षा वर्तमान स्वरूप का पर्यवेक्षण किया जाय और देखा जाय कि वह शरीर को आगे बढ़ने और आत्मा के ऊँचे उठने की प्रवृत्ति को साथ-साथ लेकर चल रही है या नहीं? दोनों के बीच असन्तुलन तो नहीं बन रहा है। असन्तुलन से ही प्रगति अवगति या दुर्गति बनती देखी जाती है।
मनुष्य यदि सचमुच ही बुद्धिमान हो तो उसे समग्र प्रगति का दूरदर्शी निर्धारण करना चाहिए। यदि वह इतना कर सके तो समझना चाहिए कि वास्तविक ज्ञान चेतना का वह अधिष्ठाता अधिपति हो गया। उस सम्पदा का ही उपयोग जो भी कर सकता है वह प्रगति के उच्च शिखर पर पहुँचा है और हर दृष्टि से कृत-कृत्य बना है। हमें प्रगति और अवगति के अन्तर को समझना चाहिए और अपनी वर्तमान परिस्थिति का पर्यवेक्षण करते हुए औचित्य का अनौचित्य का विवेक सम्मत पर्यवेक्षण करना चाहिए। आत्मोत्कर्ष की परम श्रेयष्कर आकाँक्षा को सुनियोजित करने में ही व्यक्ति का अभ्युदय और समाज का कल्याण है जो इतना समझने, स्वीकारने में समर्थ हो सकेगा उसका भविष्य सुनिश्चित रूप से उज्ज्वल बनकर रहेगा।