Magazine - Year 1984 - Version 2
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Language: HINDI
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स्थूल का सूक्ष्म में परिवर्तन
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युग परिवर्तन की यह ऐतिहासिक बेला है। इन बीस वर्षों में हमें जमकर काम करने की ड्यूटी सौंपी गई है। सन् 1980 से लेकर अब तक के चार वर्षों में जो काम हुआ है, वह पिछले 30 वर्षों की तुलना में कहीं अधिक है। समय की आवश्यकता के अनुरूप तत्परता बरती गई है और खपत को ध्यान में रखते हुए तद्नुरूप शक्ति उपार्जित की गई है। यह वर्ष कितनी जागरुकता, तन्मयता, एकाग्रता और पुरुषार्थ की चरम सीमा तक पहुंचकर व्यतीत करने पड़े हैं, उनका उल्लेख उचित न होगा। क्योंकि इस तत्परता का प्रतिफल 2400 प्रज्ञा पीठों और 7500 प्रज्ञा संस्थानों के निर्माण के अतिरिक्त और कुछ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता। एक कड़ी हर दिन एक फोल्डर लिखने की इसमें और जोड़ी जा सकती है। शेष सब कुछ परोक्ष है। परोक्ष का प्रत्यक्ष लेखा जोखा किस प्रकार सम्भव हो?
युग सन्धि की बेला में अभी 16 वर्ष और रह जाते हैं। इस अवधि में गतिचक्र और भी तेजी से भ्रमण करेगा। एक ओर उसकी गति बढ़ानी होगी, दूसरी ओर रोकनी। विनाश को रोकने और विकास को बढ़ाने की आवश्यकता पड़ेगी। दोनों ही गतियाँ इन दिनों मन्थर हैं। इस हिसाब से सन् 2000 तक उस लक्ष्य की उपलब्धि न हो सकेगी जो अभीष्ट है। इसलिए सृष्टि के प्रयास चक्र निश्चित रूप से तीव्र होंगे। उसमें हमारी भी गीध- गिलहरी जैसी भूमिका है। काम कौन, कब, क्या किस प्रकार करे- यह बात आगे की है। प्रश्न जिम्मेदारी का है। युद्ध काल में जो जिम्मेदारी सेनापति की होती है, वही खाना पकाने वाले की भी। आपत्ति काल में उपेक्षा कोई भी नहीं बरत सकता।
इस अवधि में एक साथ कई मोर्चों पर एक साथ लड़ाई लड़नी होगी। समय ऐसे भी आते हैं जब खेत की फसल काटना, जानवरों के चारा लाना, बीमार लड़के का इलाज कराना, मुकदमे की तारीख पर हाजिर होना घर आये मेहमान का स्वागत करना जैसे कई काम एक ही आदमी को एक ही समय पर करने होते हैं। युद्धकाल में तो यह बहुमुखी चिन्तन और उत्तरदायित्व और भी अधिक सघन तथा विरल हो जाता है। किस मोर्चे पर कितने सैनिक भेजना, जो लड़ रहे हैं, उनके लिए गोला बारूद कम न पड़ने देना, रसद का प्रबन्ध रखना, अस्पताल का दुरुस्त होना,मरे हुए सैनिकों को ठिकाने लगाना, अगले मोर्चे के लिए खाइयाँ खोदना जैसे काम बहुमुखी होते हैं। सभी पर समान ध्यान देना होता है। एक में भी चूक होने से बात बिगड़ जाती है। करा-धरा चौपट हो जाता है।
हमें अपनी प्रवृत्तियां बहुमुखी बढ़ा लेने के लिए कहा गया है। इसमें सबसे बड़ी कठिनाई स्थूल शरीर का सीमा बन्धन है। यह सीमित है, सीमित क्षेत्र में ही काम कर सकता है। सीमित ही वजन उठा सकता है। काम असीम क्षेत्र से सम्बन्धित हैं और ऐसे हैं जिनमें एक साथ कितनों से ही वास्ता पड़ना चाहिए। यह कैसे बने? इसके लिए एक तरीका यह है कि स्थूल शरीर को बिल्कुल ही छोड़ा दिया जाय और जो करना है उसे पूरी तरह एक या अनेक सूक्ष्म शरीरों से सम्पन्न करते रहा जाय। निर्देशक को यदि यही उचित लगेगा तो उसे निपटाने में पल भर की भी देर न लगेगी। स्थूल शरीरों का एक झंझट है कि उनके साथ कर्मफल के भोग विधान जुड़ जाते हैं। यदि लेन-देन बाकी रहे तो अगले जन्म तक वह भार लदा चला जाता है और फिर खींचतान करता है। ऐसी दशा में उसके भोग भुगतते हुए जाने में निश्चिन्तता रहती है।
रामकृष्ण परमहंस ने आशीर्वाद वरदान बहुत दिए थे। उपार्जित पुण्य भण्डार कम था। हिसाब चुकाने के लिए गले का कैन्सर बुलाया गया। बेबाकी तब हुई। आद्य शंकराचार्य को भी भगन्दर का फोड़ा ही जान लेकर गया था। महात्मा नारायण स्वामी को भी ऐसा ही रोग सहना पड़ा। गुरु गोलवलकर कैन्सर से पीड़ित होकर डडडडडस्सी हुए। ऐसे ही अन्य उदाहरण भी हैं जिनमें पुण्यात्माओं को अन्तिम समय व्यथा पूर्वक बिताना पड़ा। इसमें उनके पापों का दण्ड कारण नहीं होता वह पुण्य व्यतिरेक की भरपाई करना होता है। वे कइयों का कष्ट अपने ऊपर लेते रहते हैं। बीच में चुका सके तो ठीक अन्यथा अन्तिम समय हिसाब-किताब बराबर करते हैं, ताकि आगे के लिए कोई झंझट शेष न रहे और जीवन मुक्त स्थिति बने रहने में पीछे का कोई कर्मफल व्यवधान उत्पन्न न करे।
मूल प्रश्न जीव सत्ता के सूक्ष्मीकरण का है। सूक्ष्म व्यापक होता है। बहुमुखी भी। एक ही समय में कई जगह काम सकता है। कई उत्तरदायित्व एक साथ ओढ़ सकता है। जबकि स्थूल के लिए एक स्थान, एक सीमा के बन्धन हैं। स्थूल शरीरधारी अपने भाग-दौड़ क्षेत्र में ही काम करेगा। साथ ही भाषा ज्ञान के अनुरूप विचारों का आदान-प्रदान कर सकेगा। किन्तु सूक्ष्म में प्रवेश करने पर भाषा सम्बन्धी झंझट दूर हो जाते हैं विचारों का आदान-प्रदान चल पड़ता है। विचार सीधे मस्तिष्क या अन्तराल तक पहुँचाए जा सकते हैं। उनके लिए भाषा माध्यम आवश्यक नहीं। व्यापकता की दृष्टि से यह एक बहुत बड़ी सुविधा है। यातायात की व्यवस्था भी स्थूल- शरीरधारी को चाहिए। परों के सहारे तो वह घण्टे में प्रायः तीन मील ही चल पाता है।वाहन जिस गति का होगा, उसकी दौड़ भी उतनी ही रह जायगी। एक व्यक्ति की एक जीभ होती है। उसका उच्चारण उसी से होगा। किन्तु सूक्ष्म शरीर की इन्द्रियों पर इस प्रकार का बन्धन नहीं है। उनकी देखने की, सुनने की, बोलने की सामर्थ्य स्थूल शरीर की तुलना में अनेक गुनी हो जाती है। एक ही शरीर समयानुसार अनेक शरीरों में भी प्रतिभासित हो सकता है। रास के समय श्रीकृष्ण के अनेकों शरीर गोपियों को अपने साथ सहनृत्य करते दीखते थे। कंस वध के समय तथा सिया स्वयंवर के समय उपस्थित समुदाय को राम और कृष्ण की विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ दृष्टिगोचर हुई थीं। विराट् रूप दर्शन में भगवान् ने अर्जुन को, यशोदा को जो दर्शन कराया था, वह उनके सूक्ष्म एवं कारण शरीर का ही आभास था। अलंकार काव्य के रूप में उसकी व्याख्या की जाती है, सो भी किसी सीमा तक ठीक ही है।
यह स्थिति शरीर त्यागते ही हर किसी को उपलब्ध हो जाय हय सम्भव नहीं। भूत-प्रेत चले तो सूक्ष्म शरीर में जाते हैं पर वे बहुत ही अनगढ़ स्थिति में रहते हैं। मात्र संबंधित लोगों को ही अपनी आवश्यकताएँ बताने भर के कुछ दृश्य कठिनाई से दिखा सकते हैं। पितर स्तर की आत्माएँ उनसे कहीं अधिक सक्षम होती हैं। उनका विवेक एवं व्यवहार कहीं अधिक उदात्त होता है। इसके लिए उनका सूक्ष्म शरीर पहले से ही परिष्कृत हो चुका होता है। सूक्ष्म शरीरों को उच्चस्तरीय क्षमता सम्पन्न बनाने के लिए विशेष प्रयत्न करने पड़ते हैं। व तपस्वी स्तर के होते हैं। सामान्य काया को सिद्ध पुरुष स्तर की बनाने के लिए अनेक साधनाएँ करनी पड़ती हैं इससे अगला कदम सूक्ष्मीकरण का है सिद्ध पुरुष अपनी काया की सीमा में रहकर जो दिव्य क्षमता अर्जित कर सकते हैं, कर लेते हैं। उसी से दूसरों की सेवा सहायता करते हैं। किन्तु सूक्ष्म शरीर विकसित कर लेने वाले उन सिद्धियों के भी धनी देखे गए हैं जिन्हें योगशास्त्र में अणिमा, महिमा, लघिमा आदि कहा गया है। शरीर का हलका, भारी, दृश्य, अदृश्य हो जाना, यहाँ से वहाँ जा पहुँचना, प्रत्यक्ष शरीर के रहते हुए सम्भव नहीं। क्योंकि शरीरगत परमाणुओं की संरचना ही ऐसी नहीं है जो पदार्थ विज्ञान की सीमा मर्यादा से बाहर जा सके। कोई मनुष्य हवा में नहीं उड़ सकता और न पानी पर चल सकता है। यदि ऐसा कर सका होता तो उसने वैज्ञानिकों जूमेंकी चुनौती अवश्य स्वीकार की होती और प्रयोगशाला जाकर विज्ञान के प्रतिपादनों में एक नया अध्यात्म अवश्य ही जोड़ा हाता। किंवदंतियों के आधार पर कोई किसी से इस स्तर की सिद्धियों का बखान करने भी लगे, तो उसे अत्युक्ति ही माना जायेगा। अब प्रत्यक्ष को प्रामाणित किए बिना किसी की गति नहीं।
प्रश्न सूक्ष्मीकरण का है। यह एक विशेष साधना है, जो स्थूल शरीर में रहते हुए भी की जा सकती है और उसे त्यागने के उपरान्त भी करनी पड़ती है। दोनों ही परिस्थितियों में यह स्थिति बिना अतिरिक्त प्रयोग-पुरुषार्थ के- तप साधना के- सम्भव नहीं हो सकती। इसे योगाभ्यास तपश्चर्या का अगला चरण कहना चाहिए।
इसके लिए किसे क्या करना होगा, यह उसके वर्तमान स्तर एवं उच्चस्तरीय मार्गदर्शन पर निर्भर है। सबके लिए एक पाठ्यक्रम नहीं हो सकता। किन्तु इतना अवश्य है कि अपनी शक्तियों का बहिरंग अपव्यय रोकना पड़ता है। अण्डा जब तक पक नहीं जाता तब तक एक खोखले में बन्द रहता है। इसके बाद वह इस छिलके को तोड़कर चलने-फिरने और दौड़ने-उड़ने लगता है। लगभग यही अभ्यास सूक्ष्मीकरण के हैं। प्राचीन काल में गुफा सेवन, समाधि आदि का प्रयोग प्रायः इसी निमित्त होता था।
सूक्ष्म शरीर धारियों का वर्णन और विवरण पुरातन ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक मिलाता है। यक्ष और युधिष्ठिर के मध्य विग्रह तथा विवाद का महाभारत में विस्तार पूर्वक वर्णन है। यक्ष, गंधर्व, ब्रह्मराक्षस जैसे कई वर्ग सूक्ष्म शरीर धारियों के थे। विक्रमादित्य के साथ पाँच “वीर” रहते थे। शिवजी के गण “वीरभद्र’ कहलाते थे। भूत, प्रेत जिन्न, समानों की अलग ही बिरादरी थी। ‘अलाद्दीन का चिराग’ जिनने पढ़ा है। उन्हें इस समुदाय की गतिविधियों की जानकारी होगी। छाया पुरुष साधना में अपने निज के शरीर से ही एक अतिरिक्त सत्ता गढ़ ली जाती है और वह एक समर्थ अदृश्य साथी सहयोगी जैसा काम करती है।
इन सूक्ष्म शरीर धारियों में अधिकाँश का उल्लेख हानिकर या नैतिक दृष्टि से हेय स्तर पर हुआ है। सम्भव है उन दिनों अतृप्त विक्षुब्ध स्तर के योद्धा रणभूमि में मरने के उपरान्त ऐसे ही कुछ हो जाते रहे हों। उन दिनों युद्धों की मार-काट ही सर्वत्र संव्याप्त थी, पर साथ ही सूक्ष्म शरीरधारी देवर्षियों का भी कम उल्लेख नहीं है। राजर्षि और ब्रह्मर्षि तो स्थूल शरीरधारी ही होते थे पर जिनकी गति सूक्ष्म शरीर में भी काम करती थी वे देवर्षि कहलाते थे। वे वायुभूत होकर विचरण करते थे। लोक-लोकान्तरों में जा सकते थे। जहाँ आवश्यकता अनुभव करते थे वहाँ भक्त जनों का मार्गदर्शन करने के लिए अनायास ही जा पहुँचते थे।
ऋषियों में से अन्य कइयों के भी ऐसे उल्लेख मिलते हैं। वे समय-समय पर धैर्य देने, मार्गदर्शन करने या जहाँ आवश्यकता समझी है, वहाँ पहुंचे हैं, प्रकट हुए हैं। पैरों से चलकर उन्हें जाना नहीं पड़ा है। अभी भी हिमालय के कई यात्री ऐसा विवरण सुनाते हैं कि राह भटक जाने पर कोई उन्हें साथ ले गया और उपयुक्त स्थल तक छोड़कर चला गया। कइयों ने किन्हीं गुफाओं में, शिखरों पर अदृश्य योगियों को दृश्य तथा दृश्य को अदृश्य होते देखा है। तिब्बत के लामाओं की ऐसी कितनी ही कथा-गाथाएँ सुनी गई हैं। थियोसोफिकल सोसायटी की मान्यता है कि अभी भी हिमालय के ध्रुव केन्द्र पर एक ऐसी मण्डली है जो विश्व शान्ति में योगदान करती है। इसे उन्होंने ‘अदृश्य सहायक’ नाम दिया है।
यहाँ स्मरण रखने योग्य बात यह है कि यह देवर्षि समुदाय भी मनुष्यों का ही एक विकसित वर्ग है। योगियों सिद्ध पुरुषों और महामानवों की तरह वह सेवा-सहायता में दूसरों की अपेक्षा अधिक समर्थ पाया जाता है। पर यह मान बैठना गलती होगी कि वे सर्व समर्थ हैं और किसी की भी मनोकामना को तत्काल पूरी कर सकते हैं, या अमोघ वरदान दे सकते हैं। कर्मफल की वरिष्ठता सर्वोपरि है। उसे भगवान ही घटा या मिटा सकते हैं। मनुष्य की सामर्थ्य से वह बाहर है। जिस प्रकार बीमार की चिकित्सक, विपत्ति ग्रस्त की धनी सहायता कर सकता है ठीक उसी प्रकार सूक्ष्म शरीरधारी देवर्षि भी समय-समय पर सत्कर्मों के निमित्त बुलाने पर अथवा बिना बुलाये भी सहायता के लिए दौड़ते हैं। इससे बहुत लाभ भी मिलता है। इतने पर भी किसी को यह नहीं मान बैठना चाहिए कि पुरुषार्थ की आवश्यकता ही नहीं रही, या उनके आड़े आते ही निश्चित सफलता मिल गई। यदि ऐसा रहा होता तो लोग उन्हीं का आसरा लेकर निश्चिन्त हो जाते और फिर निजी पुरुषार्थ की आवश्यकता न समझते। निजी कर्मफल आड़े आने- परिस्थितियों के बाधक होने की बात को ध्यान में ही न रखते।
यहाँ एक अच्छा उदाहरण हमारे हिमालयवासी गुरुदेव का है। सूक्ष्म शरीरधारी होने के कारण ही वे उस प्रकार के वातावरण में रह पाते हैं, जहाँ जीवन निर्वाह के कोई साधन नहीं हैं। समय-समय पर हमारा मार्गदर्शन और सहायता करते रहते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें कुछ करना ही नहीं पड़ा, कोई कठिनाई मार्ग में आई ही नहीं, कभी असफलता मिली ही नहीं। यह भी होता रहा है। पर निश्चित है कि हम एकाकी जो कर सकते थे उसकी अपेक्षा उस दिव्य सहयोग से मनोबल बहुत बढ़ा-चढ़ा रहा है। उचित मार्गदर्शन मिला है। कठिनाई के दिनों में धैर्य और साहस यथावत् स्थिर रहा है। यह कम नहीं है। इतनी ही आशा दूसरों से करनी भी चाहिए। सब काम करके कोई और रख जाएगा ऐसी आशा तो भगवान् से भी नहीं करनी चाहिए। भूल यही होती रही कि दैवी सहायता का नाम लेते ही लोग समझते हैं कि वह जादू की छड़ी घूमा और मनचाहा काम बन गया। ऐसे ही अतिवादी लोग क्षण भर में आस्था खो बैठते देखे गए हैं। दैवी शक्तियों से, सूक्ष्म शरीरों से हमें सामयिक सहायता की आशा करना चाहिए। साथ ही अपनी जिम्मेदारियाँ आप वहन करने के लिए कटिबद्ध भी रहना चाहिए। असफलताओं तथा कठिनाइयों का अच्छा शिक्षक मानकर अगले कदम अधिक सावधानी के, अधिक बहादुरी के उठाने की तैयारी करनी चाहिए।
सूक्ष्म शरीरों की शक्ति सामान्यतः भी अधिक होती है। दूर दर्शन, दूर श्रवण, पूर्वाभास, विचार-सम्प्रेषण आदि में प्रायः सूक्ष्म शरीरों की ही भूमिका रहती है। उनकी सहायता से कितनों को ही विपत्तियों से उबरने का अवसर मिला है। कइयों को ऐसी सहायताएँ मिली हैं जिनके बिना उनका कार्य रुका ही पड़ा रहता। दो सच्चे मित्र मिलने से लोगों की हिम्मत कई गुना बढ़ जाती है। वैसा ही अनुभव अदृश्य सहायकों के साथ सम्बन्ध जुड़ने से भी करना चाहिए।
जिस प्रकार अपना दृश्य संसार है और उसमें दृश्य शरीर वाले जीवधारी रहते हैं। ठीक उसी प्रकार उससे जुड़ा हुआ एक अदृश्य लोक भी है। उसमें सूक्ष्म शरीरधारी निवास करते हैं। इनमें कुछ बिलकुल साधारण, कुछ दुरात्मा और कुछ अत्यन्त उच्चस्तर के होते हैं। वे मनुष्य लोक में समुचित दिलचस्पी लेते हैं। बिगड़ों को सुधारना और सुधरों को अधिक सफल बनाने में अयाचित सहायता करते रहते हैं। फिर सहयोग मांगने का प्रयोजन और मांगने वाले का स्तर उपयुक्त होने पर तो वह सहायता और भी अच्छी तरह और भी बढ़ी मात्रा में मिलती है।
यह सूक्ष्म शरीरों की, सूक्ष्म लोक की सामान्य चर्चा हुई। प्रसंग अपने आपे का है। यह विषम बेला है। इसमें प्रत्यक्ष शरीरों वाले, प्रत्यक्ष उपाय-उपचारों से जो कर सकते हैं सो तो कर ही रहे हैं। करना भी चाहिए। पर दीखता है कि उतने भर से काम चलेगा नहीं। सशक्त सूक्ष्म शरीरों को बिगड़ों को अधिक न बिगड़ने देने के लिए अपना जोर लगाना पड़ेगा। सँभालने के लिए जो प्रक्रिया चल रही है वह पर्याप्त न होगी। उसे और भी अधिक सरल-सफल बनाने के लिए अदृश्य सहायता की भी आवश्यकता पड़ेगी। यह सामूहिक समस्याओं के लिए भी आवश्यक होगा और व्यक्तिगत रूप से सत्प्रयोजनों में संलग्न व्यक्तित्वों को अग्रगामी- यशस्वी बनाने की दृष्टि से भी।