Magazine - Year 1986 - Version 2
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Language: HINDI
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गाँधी जी विश्व वंद्य कैसे बने
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गाँधी जी के सभी परिवार वाले चाहते थे कि लड़का मोहन दास एक अच्छा वकील बने। स्वयं कमाये, खाये तथा घर वालों की इज्जत बढ़ाये, सहायता करे। हर एक से एक ही परामर्श सुनते रहने के बाद वे सहमत भी हो गये और पूरी मेहनत करके नियत पढ़ाई पढ़ने लगे।
वकील को बहुत पैसा और बड़ा सम्मान मिलता है, यह मान्यता उनने भी बना ली होगी, पर परिस्थितियों ने साथ न दिया। पढ़ाई पूरी करके वकालत के क्षेत्र में उतरे तो पहले ही मुकदमें में प्रतिभा लड़खड़ा गई। बहस ठीक तरह न हो सकी, फलतः मजिस्ट्रेट भी मुस्कराया और मुवक्किल ने झल्ला कर अपनी दी हुई फीस का पैसा वापस ले लिया। अगर ऐसी ही वकालत जिन्दगी भर भी चलती रहती और थोड़ा-थोड़ा सुधार अभ्यास भी होता रहता तो भी संभावना यह न थी कि वे घर वालों की इच्छा के अनुरूप कोई बड़े वकील बन सके होते, ढेर सारी इज्जत या दौलत कमा सके होते।
किन्तु नियति का दूसरा ही विधान था। गान्धी जी ने बचपन में एक जगह राजा हरिश्चन्द्र का ड्रामा देखा। सोचते रहे, यदि अपनी आदर्शवादिता की छाप पीढ़ियों तक लोगों पर छोड़ी जाय और बनाये हुये मार्ग पर दूसरों को चलने के लिए प्रोत्साहित किया जाय तो इसमें बुराई क्या है?
विश्वामित्र नव युग निर्माण की अनेक योजनाएँ कार्यान्वित करने के लिए व्याकुल थे, पर उनके पास साधन न थे। एक एक बूँद साधन इकट्ठे करने में वह शक्ति चुक जाती है जिसके द्वारा कोई बड़ा काम सम्पन्न किया जा सकता है। इसलिए उनने सोचा राजा हरिश्चन्द्र को ही यह काम क्यों न सौंपा जाय। उसकी श्रद्धा भी परीक्षा की कसौटी पर कस जायेगी। कीर्ति भी अमर हो जायेगी। उनका अनुसरण करने वालों में से असंख्यों महान बनेंगे। इतना ही क्यों, जो उनका धन और वैभव परमार्थ में लग जायेगा उसे वापस लौटाने के लिए स्वयं धर्मराज, बृहस्पति और इन्द्र उनके दरवाजे पहुँचेंगे। इतना बड़ा लाभ कमाने में यदि हरिश्चन्द्र को कुछ आरम्भिक कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती हैं तो यह घाटे का सौदा नहीं है। बीज को भी तो पल्लवित होने के लिए आरम्भ में गलने का साहस संजोना पड़ता है।
गान्धी जी ने नाटक को खेल तमाशे की तरह मनोविनोद के लिए नहीं देखा वरन् उस चरित्र के पीछे समाहित उद्देश्यों और परिणामों पर भी आदि से अन्त तक वे विचार करते रहे। बिना समय गँवाये उनने निश्चय कर लिया कि ऐसे ही आदर्शों के लिए जीवन समर्पित करना है। जीवन की सुनिश्चित रीति-नीति यही बनानी है। शरीर और दिमाग वकालत की पढ़ाई पढ़ता रहा और आत्मा हरिश्चन्द्र बनने के लिए किस कार्य पद्धति को अपनाना होगा? इसका ताना बाना बुनती रही। क्रम संतुलित ढंग से चलता रहा। अन्तःकरण में संकल्प परिपक्व होते रहे और शरीर उनका कहना मानता रहा, जिन अभिभावकों के ऊपर उनके शरीर का निर्वाह दायित्व था।