Magazine - Year 1989 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रतिभा संवर्धन हेतु निर्धारित विज्ञान सम्मत प्रयोग उपचार
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बुद्धि का विकास एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। उसके लिए अनेक आधार अवलम्बन अपनाये जा सकते हैं। कोई कटकर शान संवर्धन में बुद्धि का विकास समझता है। छोटी आयु से बच्चों को विभिन्न डिजाइनों के टुकड़ों को जोड़कर एक बनाने, लकड़ी के टुकड़ों को जोड़ जोड़ कर कुछ बनाते रहने, स्थापित आविष्कारों के मॉडल बनाकर उनमें कुछ जोड़-घटाकर नया बनाने, कोई रचनात्मक कार्य के द्वारा बुद्धिलब्धि के विभिन्न तरीके अपनाये जाते हैं। धार्मिक क्षेत्र में कतिपय कर्मकाण्ड भी इसी प्रयोजन के लिए प्रयुक्त किये जाते रहे हैं। शारीरिक बल-बुद्धि यों आहार-विहार और श्रमसंतुलन पर निर्भर है, फिर भी उस प्रयोजन के लिए अखाड़ों में डम्बल, मुद्गर जैसे उपकरण काम में लिए जाते हैं। हथियार की धार तेज करने के लिए घूमने वाले पत्थर पर उसे रगड़ा जाता है। यद्यपि धार निकलना हथियार के अपने ही निजी स्तर पर निर्भर है, फिर भी पत्थर का महत्व अपनी जगह है। स्नायु-तंत्र यों चमड़ी के भीतर है पर उन्हें मजबूत करने के लिए शरीर पर तेल मालिश करने का प्रावधान चिकित्सक बताते हैं व वह किसी सीमातक भी सिद्ध होता है।
प्रतिभा परिष्कार के लिए व्यक्ति की प्रमाणिकता और प्रखरता के दोनों पक्ष समान रूप से मजबूत बनाने पड़ते हैं। भावभरी, उमंग-उत्साहों से सनी एकाग्र तन्मयता उभारनी पड़ती है। साथ ही समय को श्रम के साथ अविछिन्न रूप से जोड़े रहने वाली तत्परता या श्रमशीलता कार्यान्वित करनी पड़ती है। संकीर्ण स्वार्थपरता के दायरे से आगे बढ़ना होता है ताकि सादा जीवन उच्च विचार की रीति-नीति अपनाने के साथ ही बचे समय, श्रम और साधनों को सत्प्रवृत्ति संवर्धन में-लोक सेवा में लगाया जा सके। उच्चस्तरीय प्रतिभा का संवर्धन इसी प्रकार होता है। यों दुस्साहसी आततायी भी भयानक संकट खड़े करते और उन विनाशकारी कार्यों को ही अपनी प्रतिभा के रूप में परिणत करते रहते हैं। पर इससे उचित का सत्परिणाम और अनुचित का दुष्परिणाम झुठलाया तो नहीं जा सकता।
यहाँ प्रतिभा से सदैव आशय आदर्शोन्मुख बुद्धि व भावना के समन्वित विकास से लिया जाना चाहिए ऐसे प्रतिभा सम्पन्न ही स्वयं को प्रेरणापुँज आदर्शों के प्रतीक के रूप में ही उभारते व स्वयं को ही नहीं, समय को भी निहाल करते हैं। चर्चा इसी प्रतिभा के विकास से संबंधित उपचारों की चल रही है।
क्या ऐसा भी संभव है कि बालकों को लिखने की पट्टी पर मनके सरका कर गिनती सिखाने एवं तीन पहिए की गाड़ी का सहारा लेकर चलना सिखाने की तरह किन्हीं अभ्यासों के माध्यम से जनसाधारण को भी प्रतिभा संपादित करने की दिशा में अग्रसर किया जा सकता है? उत्तर हाँ में भी दिया जा सकता है। जनसामान्य शारीरिक अप-अवयवों की पुष्टाई के लिए अखाड़े जाने की विधि व्यवस्था बताते हैं। अखाड़ों में निर्धारित अभ्यासों को अपनाना, शारीरिक अंगों को सशक्त बनाने के लिए व्यायामों का उपक्रम, बुलवर्कर का प्रयोग आदि, आहार में परिवर्तन अभीष्ट माना जाता है। ऐसे ही कतिपय साधना उपक्रम प्रतिभा परिष्कार के संदर्भ में भी निर्धारित हैं और वे बहुत हद तक सफल होते भी देखे गए हैं। ऐसे कुछ आधारों का जिनका ब्रह्मवर्चस् की शोधप्रक्रिया में प्रयोग किया जाता है अथवा जिन्हें वर्तमान या संशोधित रूप में प्रयुक्त किये जाने की संभावना है, का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है। (1) स्वसंकेत (आँटोसजेशन्)-शान्त वातावरण में स्थिर और एकाग्र मन से बैठा जाया। भावना की जाय कि अपने मस्तिष्क केन्द्र से निस्सृत केन्द्र से निस्सृत प्राण विद्युत का समुच्चय शरीर के अंग अवयवों में अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में प्रवाहित हो रहा है। उस आधार पर प्रत्येक अवयव पुष्ट हो रहे हैं। इन्द्रियों की क्षमता का अभिवर्धन हो रहा है। चेहरे पर चमक बढ़ रही है। बौद्धिक स्तर में ऐसा उभार आ रहा है जिसका अनुभव प्रतिभा परिवर्धन के रूप में अपने को तथा दूसरों को हो सके। वस्तुतः स्वसंकेतों में ही मानसिकता कायाकल्प का मर्म छिपा पड़ा है। श्रुति की मान्यता है कि “यो यच्छूद्ध स एव सः”। अर्थात् जो जैसा सोचता और अपने संबंध में भावना करता है, वह वैसा ही बन जाता है। विधेयात्मक चिन्तन, महापुरुषों के गुणों के अपने अन्दर समावेश होने की भावना से सजातीय विचार खिंचते चले आते हैं व वाँछित विद्युत्प्रवाहों को जन्म देने लगते हैं।
मनोवैज्ञानिक इसी आधार पर व्यक्तित्व में विचार प्रवाह में परिवर्तन लाने की बात कहते हैं। उनका मन है कि जैसे पृथ्वी के चारों ओर आयनोस्फियर है, इसी प्रकार मानवी मस्तिष्क के चारों ओर भी एक “आयडियो स्फियर” होता है। यह वैसा ही होता है जैसा मनुष्य का चिन्तन क्रम होता है। क्षणमात्र में यह बदल भी सकता है व पुनः वैसा ही सोचने पर पूर्ववत् भी हो सकता है। इसी चिन्तन प्रवाह के आदर्शोन्मुख, श्रेष्ठता की और गतिशील होने पर व्यक्ति का मुख मण्डल चमकने लगता है। दूसरों को आकर्षित करना है एवं ऐसे व्यक्ति के कथन प्रभावोत्पादक होते हैं, इस सीमा तक कि अन्य अनेकों में भी परिवर्तन ला सके। एक प्रकार से स्वसंकेतों द्वारा अपने आभामण्डल को एक सशक्त चुंबक में परिणत किया जाता है। मनोवैज्ञानिक कहते है-”चिंक एण्ड गा्रे रिच” अथवा “एडाँप्ट पॉजेटिव प्रिंसिपल टूडे”। आशय यह कि सोचिये, विधेयात्मक सोचिये एवं अभी इसी क्षण सोचिये ताकि आप स्वयं को श्रेष्ठ बना सकें। सारे महामानव स्वसंकेतों से ही महान बने हैं। गाँधीजी ने हरिश्चंद्र के नाटक को देखकर स्वयं संकेत दिया कि सत्य के प्रयोगों को जीवन में उतारो व उसके परिणाम देखो। उनके शिखर पर चढ़ने के मूल में इसकी कितनी महान भूमिका थी, यह सभी जानते हैं।
ब्रह्मवर्चस् की शोध प्रक्रिया में आडियो एवं वीडियो कैसेट का आश्रय लेकर ईयरफोन द्वारा संकेत दिये जाते हैं। कुछ विराम के बाद पुनः उन सभी प्रसंगों पर चिन्तन करते रहने को कहा जाता है। इससे प्रभावशाली विद्युतप्रवाह जन्म लेने लगता हे। इसकी प्रत्यक्ष परिणति जी.एस.आर. बायोफिडबैक के रूप में देखी जा सकती है जिसमें व्यक्ति चिन्तन द्वारा ही अपनी त्वचा प्रतिरोध घटाता-बढ़ाता व स्वयं भी उसे देखता है। इसी प्रकार श्वसनदर, हृदय की गति, रक्तचाप आदि को स्वसंकेतों से प्रभावित किया जा सकता है। विपश्यना ध्यान एवं जेन ध्यान पद्धति इसी स्वसंकेत पद्धति पर आधारित हैं। कोई कारण नहीं कि सही पद्धति का आश्रय लेने पर प्रतिभा में वाँछित परिवर्तन न उत्पन्न किया जा सकें। (2) दर्पण साधना-यह मूलतः आत्मावलोकन की, आत्मसुधार व आत्मपरिष्कार की साधना है। बड़े आकार के दर्पण को सामने रखकर बैठा जाय। सुखासन में जमीन पर या कुर्सी पर बैठा जा सकता है। खुले शरीर के प्रत्येक भाग पर विश्वास भरी दृष्टि से अवलोकन किया जाय। पहले अपने आपके बारे में चिन्तन कर अंतः के दोष-दुर्गुणों से मुक्त होते रहने की भावना की जाय। वह परमसत्ता बड़ी दयालु है। भूत को भुलाकर अब यह अनुभूति की जाय कि भीतरी संरचना में प्राणविद्युत बढ़ रही है और उसकी तेजस्विता त्वचा के ऊपरी भाग में चमक बढ़ाने से लेकर अंग अंग से फूटी पड़ रही है। पहले जो निस्तेज-क्षीण दुर्बल काय सत्ता थी, वह बदल गयी है एवं शरीर के रोम-रोम में विद्युतशक्ति की छायी हुई है। विकास क्रम में उभार आ रहा है। प्रतिभा-परिवर्धन के लक्षण निश्चित रूप से दीख पड़ रहे हैं एवं सामने बैठी आकृति में अपना अस्तित्व पूर्णतः विलीन हो रहा है। अब वह पहले जैसा नहीं रहा। वह ध्यान प्रक्रिया लययोग की ध्यान साधना कहलाती है और व्यक्ति का भावकल्प कर दिखाती है।
(3) रंगीन वातावरण का ध्यान-हर रंग में सूर्य किरणों के अपने-अपने स्तर के रसायन, धातुतत्व एवं विद्युतप्रवाह होते हैं। वे शरीर और मस्तिष्क पर अतिरिक्त प्रभाव छोड़ते हैं। इनमें से किसी का अनुपात घट-बढ़ जाता है अथवा विकृत असंतुलित हो जाता है तो कई प्रकार के रोग-उत्पात उठ खड़े होते हैं। इस हेतु रंगीन पारदर्शी काँच के माध्यम से अथवा विभिन्न रंगों के बल्बों द्वारा पीड़ित अंग पर अथवा अंग विशेष पर उसकी सक्रियता बढ़ाने के लिए रंगीन किरणों को आवश्यकतानुसार निर्धारित अवधि तक लेने का विधान है। प्रतिभा परिवर्धन हेतु उचितरंग विशेष का आंखें बन्द करके ध्यान भी किया जाता है। कुछ देर तक सप्तवर्णों के क्रम में से निर्धारित रंग (बैंगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी, लाल) के फ्लेशेज-स्ट्रोबोस्कोप यंत्र द्वारा चमकाये जाते हैं एवं आँख पर, पहने चश्मे में वही वर्ण विशेष सतत दीखता रहता है। इसका प्रभाव मस्तिष्क के सूक्ष्म केन्द्रों-चक्र संस्थानों आदि पर पड़ता है। नियमित रूप से कुछ देर के ध्यान के क्रमशः अभ्यास करने, करते रहने पर वाँछित परिवर्तन प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। ध्यान यह किया जाता है कि संसार भर में सर्वत्र उसी एक रंग की सत्ता है, जो अपने शरीर में प्रवेश करके अभीष्ट विशेषताओं की ऊर्जा शरीर में प्रवाहित करती हे। यह ध्यान पाँच से दस मिनट तक किया जाता है। विशेषज्ञों के द्वारा भिन्न भिन्न प्रकृति के साधकों के लिए भिन्न भिन्न वर्णों का निर्धारण करके ही वह प्रक्रिया आरंभ की जाती है।
(4) प्राणाकर्षण प्राणायाम-इस समस्त ब्रह्माण्ड में प्राणतत्व भरा पड़ा है। उसमें से साधारणतया प्राणी को उतनी ही मात्रा मिलती है जिससे वह अपना जीवन निर्वाह चलाता रहे। इससे अधिक मात्रा खींचने की आवश्यकता तब पड़ती है, जब किन्हीं उच्च उद्देश्यों के लिए प्राण चेतना का अधिक अंश आवश्यक हो। शरीरयतः प्राण एवं समष्टिगत महाप्राण का संयोग शरीर स्थित प्राण का नवीनीकरण ही नहीं करता, प्राणधारण कर उसे प्रयुक्त करने की क्षमता को भी बढ़ाता है। चेतन जगत में प्राण ही एक ऐसी शक्ति है जो विद्युत्ऊर्जा के रूप में, “नेगेटिव आयन्स” के रूप में विद्यमान है इनकी कमी व्यक्ति को रोगी, निस्तेज, प्राणहीन बनाती है, उसकी प्रभावोत्पादकता को कम करती है एवं प्रचुर मात्रा उसे निरोग, तेजस्वी, प्राणसंपन्न बनाकर उसकी प्रभाव क्षमता में अभिवर्धन करती है प्रतिभा परिवर्धन के लिए एक विधान प्राणाकर्षण प्राणायाम का है। इसकी विधि यह है कि कमर सीधी, सरल पालथी, हाथ गोदी में, मेरुदण्ड सीधा रखकर बैठा जाय। ध्यान यह किया जाय कि बादलों जैसी शक्ल के प्राण का उफान हमारे चारों और उमड़ता चला आ रहा है और हम उसके बीच निश्चित प्रसन्न मुद्रा में बैठे है। नासिका के दोनों छिद्रों से धीरे धीरे साँस खीचते हुए भावना की जाय कि साँस के साथ ही प्रखर प्राण की मात्रा भी धुली हुई है और वह शरीर में प्रवेश कर रही है। अंग अवयवों द्वारा वह धारण की जा रही है। खींचते समय प्राण के प्रवेश करने की व साँस रोकते समय अवधारण की भावना की जाय। धीरे धीरे साँस बाहर निकालने के साथ यह विश्वास किया जा य कि जो भी अवांछनियताओं के दुर्बलता के तत्व भीतर थे, वे साँस के साथ घुलकर बाहर जा रहे हैं, फिर लौटने वाले नहीं है। इस प्राणायाम को आरंभ में पाँच से दस मिनट करना ही पर्याप्त हैं क्रमशः यह अवधि बढ़ाई जा सकती है। शोध संस्थान द्वारा यह जाँचा जाता है कि प्राण धारण क्षमता कितनी बढ़ी व रक्त में से दूषित तत्व कितनी मात्रा में निकले तथा रक्त आक्सीजन का अनुपात कितना बढ़ा। यही निरोगता का, प्रतिभाशीलता का चिन्ह है।
(5) सूर्य वेधन प्राणायाम-ध्यान मुद्रा में बैठा जायं कपड़े शरीर पर कम से कम रहें। मुख पूर्व की ओर हो। समय अरुणोदय का हो। ध्यान किया जाय कि आत्मसत्ता शरीर में से निकलकर सीधे सूर्य लोक तक पहुंच रही है। जिस प्रकार सुई में पिरोया हुआ धागा कपड़े से होकर जाता है, जलती अग्नि में से छड़ आर-पार निकल जाती है, उसी प्रकार आत्मचेतना प्रातःकालीन सूर्य का वेधन करती हुई आर-पार जा रही है। सूर्य ऊर्जा से अपनी चेतना भर रही है। दायीं नासिका से खींचा श्वास अंदर तक जाकर सूर्य चक्र को आन्दोलित-उत्तेजित कर रहा है। ओजस्-तेजस् वर्चस् की बड़ी मात्रा अपने में धारण करके वापस बायीं नासिका से सारे कल्मष निकल रहे हैं। पहले की अपेक्षा अब अपने में प्राणऊर्जा की मात्रा भी अधिक बढ़ गई है, जो प्रतिभा परिवर्धन के रूप में अनुभव में आती है। क्रिया को गौण व भावना को प्रधान मानते हुए यह अभ्यास नियमित रूप से किया जाय तो निश्चित ही फलदायी होता है,
(6) चुम्बक स्पर्श- चुम्बक का चिकित्सा में बड़ा योगदान माना गया है। एक्युपंचर, एक्युप्रेशर, शरीरके सूक्ष्म संस्थानों को मुद्रा-बंध द्वारा प्रभावित करना एवं चुम्बक चिकित्सा में अद्भुत साम्य है। हमारी धरती एक विराट चुम्बक है व निश्चित मात्रा में प्राण उत्तरीध्रुव से खींचती व अनावश्यक कल्मषों को दक्षिण ध्रुव से फेंक देती हैं। चुम्बक स्पर्श में भी यही सिद्धान्त प्रयुक्त होता है। लौह चुम्बक का सहज क्षमता वाला पिण्ड लेकर धीरे धीरे मस्तिष्क, रीढ़ और हृदय पर बायें से दायीं और गोलाई में घुमाया जाता है। गति धीमी रहे। कण्ठ से लेकर नाभिछिद्रों से ऊपर होते हुए जननेन्द्रियों तक उस चुम्बक को पहुँचाया जाय। स्पर्श कराने-घुमाने के उपरान्त उसे धो दिया जाय ताकि उसके साथ कोई प्रभाव न जुड़ा रहे। चुम्बक से प्रभावित जल तथा विद्युतचुंबक का प्रयोग भी इसी क्रम में किया जाता है व किसी कमी के लिए किस रूप में किस प्रकार किया जाना है, इसका निर्धारण विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है।
(7) प्राणवानों का सान्निध्य-शक्तिपात की तांत्रिक क्रिया तो करने कराने में कठिन है व जोखिम भरी भी। किन्तु यह सरल है कि किन्हीं वरिष्ठों-प्राण चेतना सम्पन्न व्यक्ति के यथा संभव निकट पहुँचने का प्रयत्न किया जाय। चरणस्पर्श जैसे समीपता वाले उपक्रमों से लाभ उठाया जाय। अप्रत्यक्ष रूप से यह ध्यान किया जा सकता हे कि हनुमान भागीरथ, जैसे किसी प्राणवान के साथ अपनी भावनात्मक एकता बन रही है और पारस्परिक आदान-प्रदान का सिलसिला चल रहा है। साबुन जिस प्रकार अपनी सफेदी प्रदान करता है और कपड़े का मैल हटा देता है, उसी प्रकार की भावना इस सघन संपर्क की ध्यान धारणा में करते रही जा सकती है। दृश्य चित्र व उन महामानव के कर्तृत्वों के गुणों का चिन्तन इसमें सहायक होता है। इस आधार पर भी प्राण चेतना बढ़ती है, उसी प्रकार जिस प्रकार माँ के स्तनपान से बालक एवं गुरु की शक्ति से शिष्य लाभान्वित होता हैं
(8) नादयोग-वाद्ययंत्रों और उनकी ध्यान लहरियों के अपने अपने प्रभाव हैं। उन्हें कोलाहल रहित स्थान में सुनने का अभ्यास भी प्रतिभा परिवर्धन में सहायक होता है। यह कार्य शब्दशक्ति जो चेतना का ईंधन है, कि श्रवण से अंतः के ऊर्जा केन्द्रों को उत्तेजित व जगाकर संभव है। टेपरिकार्डर से संगीत की धुन सुनकर भी यह कार्य संभव हैं एवं स्वयं उच्चारित मंत्रों या संगीत पर ध्यान लगाकर भी। सुनकर ध्यान लगाना उचित रहता है। अपने लिए उपयुक्त संगीत का चयन भी इस विषय के विशेषज्ञों द्वारा ही निर्धारित कराना चाहिए। एक ही वाद्य व समयानुकूल राग का चयन किया जाना चाहिए। यह श्रवण आरंभ में पाँच से दस मिनट तक ही किया जाय। क्रमशः अभ्यास के साथ बढ़ाया जा सकता है। इस विषय पर विभिन्न स्तर के व्यक्तियों के लिए धुनों का चयन कर संगीत कैसेट बनाने का कार्य शांतिकुंज द्वारा संपन्न हो रहा है।
(9) प्रायश्चित-अभिचार, छल, धन, अपहरण जैसे दुष्कर्मों से भी प्राण शक्ति क्षीण होती है। और प्रतिभा का अनुपात घट जाता है। इसके लिए दुष्कर्मों के अनुरूप प्रायश्चित किया जाय। क्रिश्चियन धर्म में कन्फेशन की बड़ी महत्ता बतायी गयी है। दुष्कर्मों की भरपाई कर सकने जैसे कोई सत्कर्म किये जायँ। चान्द्रायण जैसे वृत उपवास भी उस भार को उतारने में सहायक होते हैं। कौन किन दोषों के बदले क्या प्रायश्चित करे, इसके लिए गुरु सत्ता जैसे विशेषज्ञों से अपनी पूरी बात कहकर परामर्श कर लेना चाहिए। इससे काफी हल्कापन आ जाता है। व आगे कुछ नया करने की दिशा मिलती है। प्रायश्चित धुलाई की मनोवैज्ञानिक आवश्यकता पूरी करता है। प्रतिभा संवर्धन हेतु अंतरंग की धुलाई उतनी ही जरूरी भी है।
(10) अंकुरों का कल्क एवं वनौषधि सेवन-अन्न और जड़ी-बूटी, वनस्पतियों के अपने प्रभाव हैं। वे जब अंकुर स्थिति युग होता है। जो अपनी आवश्यकता के अनुकूल निर्धारित हो, उसके सात गमले एक-एक दिन के अंतर से लगाये जायँ। सातवें दिन अंकुरों को पीसकर कल्क बनाकर तीन माशे व पानी एक तोला लेकर छानलें व प्रातःकाल खाली पेट मधु या उचित अनुपान के साथ लें। ये टॉनिक तेजस् की अभिवृद्धि, मेधाबुद्धि जीवनीशक्ति संवर्धन में सहायक होते हैं। अंकुरित न मिलने पर सूखे चूर्णों का भी कल्क बनाकर ग्रहण किया जा सकता है। निर्धारण विशेषज्ञ करते हैं। किन्हीं स्थितियों में वाष्पी भूत रूप में अग्निहोत्र प्रक्रिया से नासिका मार्ग द्वारा ग्रहण किये जाने का भी प्रावधान है।
यहाँ संक्षेप में प्रतिभा संवर्धन के निर्धारित दस उपचारों की चर्चा की गयी है। विस्तार से इन्हें अगले अंकों में व प्रत्यक्ष शांतिकुंज आने पर समझाया जाता रहेगा।