Magazine - Year 1989 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रतिभाएँ औरों के लिए जीती हैं।
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उपयोगिता अभिवृद्धि ही प्रतिभा है। जो अपनी आन्तरिक शक्तियों को जाग्रत कर स्वयं की उपयोगिता बढ़ाने में संलग्न है वह प्रतिभावान है। उसका सामान्य पक्ष ही सहज संपर्क में आता है। जो महान है वह छिपा रहता है। उसे प्रयत्नपूर्वक ढूँढ़ना पड़ता है। धातु खदानें ढूंढ़नी पड़ती है फिर उपलब्ध पदार्थ का परिशोधन करना होता है, तब उपयोगी वस्तु हाथ लगती है। ढूंढ़ खोज न की जाय तो पैरों तले की जमीन में ही सोने की खदान का अस्तित्व रहने पर भी पता न चलेगा और उसे भूमि पर पीढ़ियों से रहने वाला व्यक्ति दरिद्र ही बना रहेगा। ढूंढ़ने के बाद खुदाई के लिए गहरे उतरने साधन जुटाये और कठोर श्रम करने की आवश्यकता होती है। कच्चे माल को भट्ठियों में डालकर धातु से मिट्टी छुड़ानी पड़ती है। तब कहीं शुद्ध धातु के उपकरण औजार बनते हैं अपने व्यक्तित्व को उपयोगी बनाने के लिए लगभग इसी स्तर के प्रयास करने पड़ते हैं। इसे ही प्रतिभा जागरण कहते हैं।
अपना व्यक्तित्व सामान्यतया उतना ही दीख पड़ता है जितना कि खाने-कमाने के काम आता है, यह उसका बहुत छोटा सा अंश है। इसकी क्षमता इतनी ही है कि उससे जीवन यात्रा की गाड़ी घिसटती चले। धान की तरह उगने और कटने में ही जिन्दगी समाप्त हो जाती है। जिस-तिस तरह से जिन्दगी गुजार लेना मानव जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकता। इतना तो कृमि कीटक भी कुशलतापूर्वक कर लेते है। अन्तराल की गहराई में घुसा जाय-परिष्कृत दृष्टिकोण के बरमे से उसे खोदा जाये-तो पता चलेगा कि इसी भूमि में वह सब कुछ विद्यमान है जिसे जीवन सम्पदा का सार तत्व कहा जा सकता है और विश्व वसुधा का सारभूत वैभव।
हम अपनी प्रतिभा जगाएँ उपयोगिता बढ़ाएँ। अपने लिए उपयोगी बनें-साथ ही परमात्मा एवं विश्व की समष्टि आत्मा के लिए भी। अनुपयोगी किसी के लिए भी न रहें। जो अपने लिए उपयोगी होता है। वह दूसरों के लिए अनुपयोगी हो सकता हैं। दूसरों की सेवा सहायता करने के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने लिए अपने आप का उपयोगी बनाएँ।
उपयोगिता के घटने और प्रतिभा के सोई पड़ी रहने में सबसे बड़ा कारण अपनी ही बुरी आदतें हैं, जो सोचने और करने के दोनों ही यंत्रों पर अपना आधिपत्य जमाए बैठी हैं इन मलीनताओं को धो डालें, तो अन्तर की पवित्रता स्वतः निखर पड़ेगी। दूसरों का शोषण करके अपना वैभव बढ़ाना-उस मृगतृष्णा की तरह है जो देखने में सच मालूम पड़ते हुए भी नितान्त मिथ्या होती है। भलाई और बुराई का ऐसा वर्गीकरण नहीं हो सकता, जो अपने लिए एक तरह का और दूसरों के लिए दूसरी तरह का परिणाम उत्पन्न करें। आग औरों के लिए गरम और अपने लिए ठण्डी सिद्ध हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। दूसरों के लिए अनुपयोगी सिद्ध होने वाला व्यक्ति अपने लिए भी घाटे का निमित्त बनता है। अपने लिए लाभदायक केवल वे ही व्यक्ति सिद्ध होते हैं, जिन्हें दूसरों के लिए लाभदायक अनुभव किया जा सकें प्रतिभाशालियों की गणना में वे ही आते हैं, जिन्होंने देश, समाज के कल्याण में हाथ बँटाया हो। औरों को सुखी बनाए बिना कोई सुखी नहीं हो सकता। पेड़ लगाने पर औरों की तरह अपने को भी उसकी छाया में बैठने का अवसर मिलता है। औरों के लिए कुआँ जलाशय बनाने वाले उससे अपनी प्यास बुझाते है। इसी प्रकार स्वयं को मद्यपान का अभ्यासी बनाकर अपने शरीर, मन और धन की ही बरबादी नहीं होती, संपर्क में आने वाले दूसरे लोग भी उसी बुरी आदत से हानि उठाते है। निन्दा का भाजन तो उन्हीं को होना पड़ता है। संक्षेप में अपनी क्षमताओं को इस स्तर तक परिष्कृत कर लेना कि उससे स्वयं और दूसरे भी लाभान्वित हो सकें-प्रतिभा है। इसका विकास ही युग की माँग है। अतः इस ओर प्रत्येक को ध्यान देना चाहिए।