Magazine - Year 1990 - Version 2
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Language: HINDI
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निश्छल पुकार में हैं, अकूत शक्ति का भण्डार
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प्रार्थना की सृजनात्मक क्षमता अभूतपूर्व है। यह अन्तरात्मा की वह सच्ची पुकार है जो परमात्मा को अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति के लिए अपने अनुदान-वरदान बरसाने के लिए विवश कर देती है। भक्त की भावभरी करुण पुकार सुनकर भगवान चुपचाप बैठा रहे, ऐसी संभावना नहीं दीख पड़ती। अध्यात्मवेत्ताओं ने प्रार्थना को आत्मा की खुराक बताया है और कहा है इस माध्यम से मनुष्य अपने को विराट ब्रह्म से सघनतापूर्वक जोड़ लेता है और उत्कृष्टता की दिशा में निरन्तर विकास करता जाता है। इसकी अद्भुत सामर्थ्य को देखते हुए ही टेनीसन ने कहा था कि “संसार में प्रार्थना ही एक ऐसी शक्ति है जिसके द्वारा कठिन से कठिन संकटों को टाला और प्रकृति के नियमों को मोड़ा-मरोड़ा जा सकता है।
डॉ. रॉबर्ट एन्थोनी ने अपनी पुस्तक “द अल्टीमेट सीक्रेट्स ऑफ सेल्फ कान्फीडेन्स” में कहा है कि मनुष्य के अन्तराल में प्रसुप्त पड़ी शक्ति-सामर्थ्य अद्भुत एवं अपरिमित है जिसे सुविकसित करने एवं लोकोपयोगी बनाने के लिए प्रार्थना एवं ध्यान साधना का अवलम्बन ही एक मात्र सर्वोत्तम मार्ग हैं। शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक ऊर्जा के उन्नयन में इसका महत्वपूर्ण योगदान माना जाता हैं। इसकी परिणति सदैव विधेयात्मक दिशा में देखने को मिलती हैं। आरोग्य की प्राप्ति उत्साह की अभिवृद्धि तथा सफलता का मार्ग तो इससे प्रशस्त होता ही है, आन्तरिक विकास का मार्ग भी खुलता है। उनकी मान्यता हैं कि अनभिज्ञता के कारण जीवन के महत्वपूर्ण अवसर यों ही व्यर्थ निकल जाते हैं और मानव विशिष्ट उपलब्धियों से वंचित रह जाता है। यह भी पता नहीं चल पाता कि वह कहाँ से किस लिए आया और कहाँ जा रहा है। जब कि ब्रह्माण्डव्यापी दैवी चेतना निरन्तर आगाह करती रहती है। उन्होंने इसे “इन्टेलीजेंट फोर्स” के नाम से सम्बोधित करते हुए कहा है कि इसी के निर्देशन के अनुरूप समस्त ग्रह-नक्षत्र जीव-जन्तु वृक्ष-वनस्पति तक दिव्य व्यवस्था के अंतर्गत सतत् क्रियाशील रहकर अपनी सृजनात्मक एवं उपयोगी क्षमता का परिचय देते हैं। हममें से प्रत्येक व्यक्ति भी यदि उस दैवी-चेतना के अनुशासन का परिपालन को आसानी से प्राप्त किया जा सकता है। परमात्मा चेतना से जुड़ने और उसकी इच्छा-आकांक्षाओं को जानने समझने और तद्नुरूप आचरण करने के लिए उनने प्रार्थना का मार्ग सुझाया है।
सच्चे मन से की गई ईश्वर-प्रार्थना से बड़े से बड़े संकटों को निरस्त किया और जीवन को सुखद बनाया जा सकता है। इस संदर्भ में अमेरिका के विख्यात मनोविज्ञानी नॉर्मन विन्सेण्ट पील ने गहन खोजें की हैं और उपलब्ध प्रमाणों को “ट्रेजरी ऑफ करेज एण्ड कान्फीडेन्स" में प्रकाशित किया है। उसके अनुसार चीन की श्रीमती चिआँग काईशेक कई तरह की समस्याओं से घिरे होने पर बड़ा ही कष्टमय जीवन व्यतीत कर रही थीं। विषमता की इन कठिन परिस्थितियों में उन्हें भगवत् प्रार्थना सम्बन्धी एक पुस्तक कहीं से हाथ लग गई। पढ़ने के पश्चात् उनकी ईश्वर में आस्था जगी और संकट निवारण के लिए प्रार्थना करने लगीं और उससे जीवन का दैनिक उपक्रम बना लिया। कुछ ही दिनों में संकट के बादल छट गये और जीवन सुख-शान्तिमय व्यतीत होने लगा। ईश्वरीय सत्ता में उनकी आस्था इतनी प्रगाढ़ हो गई थी कि प्रतिदिन दो घण्टे का समय इसी उपक्रम के लिए सुरक्षित रखा।
मनोविज्ञानी पील के अनुसार प्रार्थना या ध्यान साधना को चिन्हपूजा भर नहीं कहा जा सकता। वह मानव चेतना से निस्सृत होने वाली वह जीवन्त ऊर्जा है जो हर व्यक्ति में समान रूप से विद्यमान रहती हैं और उच्च उद्देश्यों आदर्शों के साथ जुड़ जाने पर प्रभावकारी सत्परिणाम प्रस्तुत करती हैं। इसके प्रतिफल शारीरिक दृढ़ता, मनोगत उत्साह तथा नैतिक बल के रूप में सामने आते हैं, अध्यात्मवेत्ताओं ने इस शारीरिक ओजस, मानसिक तेजस् और आत्मिक वर्चस्व के नाम से पुकारा है और कहा है कि प्राणऊर्जा के सुविकसित एवं सशक्त होने पर ही यह उपलब्धियाँ हस्तगत होती हैं। रेडियम की भाँति प्रकाशन इस ऊर्जा को जिधर भी नियोजित किया जाता है वहीं सफलता प्रकट हो कर रहती हैं। परमचेतना से गुँथने पर मनुष्य उसके जैसा ही समर्थ बन जाता हैं।
स्मरण रखने योग्य तथ्य यह है कि प्रार्थना याचना नहीं हैं। उसका ढिंढोरा भी नहीं पीटा जाता है। सौम्य एवं शान्त भाव से निश्छल अन्तःकरण से की गई पुकार ही प्रार्थना है और यही हितकारी भी सिद्ध होती हैं। रणभेरियाँ की ध्वनियाँ अंकुरित बीजों की मंद आवाज से कहीं अधिक तीव्र तो होती हैं, पर परिणाम ठीक उलटा ही निकलता है। एक ही दिशा ध्वंसात्मक है तो दूसरे की नवजीवन प्रदान करने की इस संबंध में धर्मग्रंथ “ओल्ड हैबू” में सोडोम नामक पुरोहित की कहानी प्रसिद्ध है। प्रार्थना के बल पर यह न केवल शारीरिक, मानसिक रूप से पूर्ण स्वस्थ हो गया था, वरन् आत्मिक विभूतियाँ भी अर्जित कर ली थीं। उसके अनुसार प्राणऊर्जा के उन्नयन के लिए इससे बढ़कर उपाय-उपचार दूसरा कोई नहीं हो सकता।
प्रार्थना की प्रचंड शक्ति से कैंसर जैसी प्राण-घातक बीमारियों से रोग मुक्ति की चमत्कारिक घटनाओं के कितने ही उदाहरण सामने आये हैं। पिछले दिनों ‘साइंस डायजेस्ट’ नामक प्रसिद्ध पत्रिका में ‘यूमन हू सेड नो टू कैंसर” नामक शीर्षक से डॉ. विलियम एनोलेन का लेख प्रकाशित हुआ था। ब्रिटेन की ५२ वर्षीय महिला श्रीमती एलेन थाँयर कैंसर रो से पीड़ित थीं। विलियम एनोलेन ने स्वयं उसकी चिकित्सा की थी, परन्तु घटने के स्थान पर मर्ज बढ़ता ही गया। चिकित्सकों ने नियति के आगे हार मान ली और उसे उसके भाग्य पर मरने के लिये छोड़ दिया। एलेन की ईश्वर में गहरी आस्था, थी, अतः वह निराश नहीं हुई आरोग्य लाभ के लिए परमात्मा से प्रार्थना करने में निरत हो गई। कुछ दिनों में ही वह आत्मशक्ति के प्रभाव से सर्वथा रोगमुक्त हो गई।
इसी तरह की एक घटना ग्लासगों शहर के जान केनाली फगान नामक व्यक्ति के जीवन से संबंधित है। सन् १९६५ में वह एक सामान्य गोदी मजदूर था, तभी आँतों के कैंसर का शिकार हो गया। रोग इतना अधिक विकसित हो गया था कि रॉयल इन्फरमेरी अस्पताल के डॉ. आर्चीबाल्ड मैकडोनाल्ड, डॉ. जीन मैकडोनाल्ड, सर्जन डेविडमिलन जैसे प्रसिद्ध चिकित्सकों द्वारा क्षतिग्रस्त भाग को आपरेशन द्वारा बाहर निकालना पड़ा। कुछ समय के लिए अस्थायी राहत भी मिली, किन्तु कुछ ही हफ्तों पश्चात् दोबारा कैंसर का जहर पूरी आँख में फैल गया और उसे खून की उल्टियाँ होने लगीं। मरणासन्न स्थिति में देखकर डॉक्टरों के पास उसे क्लाइडबैंक स्थित रोगियों के सेवागृह में मरने के लिए भेज देने के अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय शेष न था। श्रीमती मेरी फगान को यही सलाह भी दी गयी। उसने ऐसा न कर पति को घर पर रखना ही उचित समझा और सेवा-सुश्रूषा करने लगी। यह प्रतिदिन १६ वीं शताब्दी के प्रख्यात संत ओजिलनी के गिरिजाघर में जाती और ईश्वर से वही प्रार्थना करती कि उसके पति का स्वास्थ्य सुधर जाये और वह जल्दी अपने काम पर लौट जाये। परमात्मा पर उसकी दृढ़ आस्था को देखकर अब तो परिवार के सदस्य निमंत्रण सभी उस प्रार्थना में सम्मिलित होने लगे। नित्य प्रति का यह क्रम बन गया।
एक दिन पत्नी ने तन्द्रावस्था में एक आवाज सुनी “मेरी मुझे भूख लगी है। यह जानी-पहचानी आवाज थी जिसे उसने महीनों से नहीं सुना था। वह उठ बैठी और पति की ओर देखा तो पाया कि वह स्वस्थ हो चुका था। आवाज उसी की थी। उसकी प्रार्थना भगवान ने सुन ली थी। प्रस्तुत घटनाक्रम का विस्तृत विवरण डेसहिकी और गुसस्मिथ ने अपनी पुस्तक “द मिरैकल” में प्रकाशित किया है।
प्रार्थना अनसुनी न रहे, इसके लिए आवश्यक है कि उसमें आत्मा की कसक हो। इसी स्थिति में प्रार्थना सामर्थ्यवान बन पाती हैं और भगवान को न सिर्फ उसकी पुकार सुनने वरन् भक्त तक खींच बुलाने में भी समर्थ हो पाती हैं।