Magazine - Year 1990 - Version 2
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Language: HINDI
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आक्रोश और प्रतिशोध का कुचक्र
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कीचड़ को कीचड़ से नहीं धोया जा सकता। मैल काटने के लिए कोयला नहीं साबुन चाहिए। दर्पण में चेहरा स्पष्ट देखना हो तो उसका स्वच्छ होना आवश्यक है। बुराई को बुराई से नहीं वरन् भलाई से ही दबाया जा सकता है। आग बुझाने के लिए उस पर ईंधन डालते रहने से उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती। उसे शांत करने के लिए पानी या बालू डालने की व्यवस्था करनी चाहिए। आक्रोश उत्पन्न होने पर प्रतिशोध की प्रतिक्रिया तो उभरती है। पर उत्तेजना से उत्तेजित होकर शान्ति करने की आशा नहीं ही करनी चाहिए।
यह हो सकता है कि किसी प्रतिद्वन्द्वी से रुष्ट होकर उसे नीचा दिखाने या मजा चखाने की योजना बनाई जाय। प्रतिपक्षी अधिक समर्थ हो तो उसके साथ अपने सामने ही टक्कर न लेकर कोई प्रपंच रखा जाय और छद्म प्रहार न लेकर कोई प्रपंच रचा जाय और छद्म प्रहार किया जाय। कई बार छापा मार लड़ाई की नीति अपनाकर विरोधी जोखिम उठावे बिना भी धराशायी किया जा सकता है। पर यह प्रत्यक्ष परिणाम की बात हुई। इसके पीछे भी एक बड़ी समस्या शेष रह जाती है, नई प्रतिशोध परम्परा चल पड़ने की। यह उतनी लंबी हो सकती है जो मुद्दतों तक, पीढ़ियों तक चलती रहे।
भिण्ड मुरेना क्षेत्र के चम्बल खंडहरों में डाकुओं की पीढ़ियाँ चम्बल के खाई खड्डों में छिपे रहने की घटनाएँ और किंवदन्तियाँ अनेकों को विदित हैं। इनमें असंख्य निरीहों की हत्याएँ हुई है। वह सिलसिला कब तक चलेगा, कब समाप्त होगा? कुछ ठीक से कहा नहीं जा सकता। कारण ढूँढ़ने पर आक्रोश और प्रतिशोध का सिलसिला चला आ रहा ही देखा जा सकता है। एक ने दूसरे पर प्रहार किया और अपनी छाती ठंडी कर ली, पर इतने भर से समस्या का समाधान कहाँ हुआ। उसे भी क्षति पहुँची, उसने यह नहीं विचार किया कि कारण क्या था, कैसे आक्रमण किया और पीछे प्रत्याक्रमण के लिए कितने कदम बढ़ाये? इतना सोचने विचारने की फुरसत मनःस्थिति में किसे होती है?
इस प्रकार एक ऐसी श्रृंखला बन जाती है जिसका लंबे समय तक कोई समाधान नहीं मिलता। इतिहास के अगणित पृष्ठ इसी कुचक्र के कारण रक्त रंजित भाषा में लिखे गये हैं। समुदाय सम्प्रदाय कबीले बिरादरियों इस प्रतिशोध के कुचक्र में एक के बाद दूसरी फँसती चली गई। हत्याकाण्डों से लेकर अनैतिकता का अनवरत सिलसिला चिरकाल तक चलता रहा है। दशाब्दियों और सहस्राब्दियों तक आक्रमण प्रतिक्रमण की आग ठंडी नहीं हुई। किसी ने यह नहीं विचारा कि अन्याय कहाँ से आरंभ हुआ। ऐसा अन्यायी कौन था जिसे प्रमाणित अपराधी कहा जा सके।
ऐसे प्रसंगों में प्रायः सभी अपने को पीड़ित और दूसरे पक्ष को अनीतिकर्ता ठहराते हैं और यह सिद्ध करने का प्रयत्न भी करते है कि उसने जो किया सो ठीक या गलती सामने वाले की ही थी। ऐसे किसी न्यायाधीश को बीच में आने की आवश्यकता नहीं समझी जाती। हर व्यक्ति स्वयं ही न्यायाधीश बनता है और अपनी बात सही होने के पक्ष में न केवल वकालत करता है, वरन् फैसला भी देता है। आश्चर्य इस बात का है कि हलका अपराध होने पर हलका दण्ड देने का औचित्य भी किसी को नहीं सूझता। कम से कम फैसले में मृत्युदण्ड देने की बात सूझती है, सो भी मात्र प्रतिद्वंद्वी को ही नहीं, उसके आश्रित या मित्र संबंधी को भी चपेट में ले लिया जाता है और ऐसे अनर्थों का सिलसिला चल पड़ता है जैसा कि कभी सामन्त या बादशाह नगर के नगरों में आग लगा कर किया करते थे। जिधर भी टेढ़ी नजर फिर उधर ही कत्लेआम का फैसला सुना देते थे। ऐसी घटनाओं की लंबी कहानी है जिनका स्मरण करने मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
किसी नेक आदमी की जिन्दगी को देखें तो उसमें दया, करुणा, उदारता, निरहंकारिता झलकती मिलेगी।
आक्रोश प्रति आक्रोश आक्रमण प्रत्याक्रमण की बातों में न कोई तर्क है न समाधान। मान्यता, मर्यादा आदि का कोई संयम नहीं। यह विशुद्धतः जंगल का कानून है। हिंस्र पशुओं जैसे बरताव इस मान्यता का, पुराने क्रम का अब तो अन्त होना ही चाहिए। इसी में सभी का कल्याण है।