Magazine - Year 1991 - Version 2
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Language: HINDI
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महाकाल अब उद्यत है परिवर्तन को
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वर्तमान समय को मानवी इतिहास का विशिष्ट काल कहा जा सकता है। यह इसलिए कि वर्तमान संधिकाल में मनुष्य ऐसे दोराहे पर खड़ा है, जहाँ से विकास और विनाश के दो मार्ग निकलते हैं। अब यह निर्णय मनुष्य को करना है कि वह विकास के पथ पर चलना पसंद करता है अथवा विनाश के। विकास के पथ पर चल कर वह हर प्रकार से न सिर्फ व्यक्तिगत रूप से फायदे में रहेगा, वरन् विश्व-वसुधा को भी देवत्व के मार्ग पर ले चल कर सतयुगी वातावरण विनिर्मित करेगा, पर यदि उसने विनाश के रास्ते का चयन किया तो, सृष्टि-संचालक सत्ता इसे किसी प्रकार सहन न करेगी और अपने वज्र दण्ड के प्रहार से अथवा प्रकृति प्रकोपों की विभीषिका के माध्यम से वैसे तत्वों को सही पथ पर लाने का, या उन्हें विनष्ट कर इस विश्व-उद्यान को सुरक्षित बचा लेने का अपना चिर−परिचित संकल्प दुहरायेगी। इस प्रक्रिया में यदि घुन के साथ गेहूँ पिस जाने का उल्टा उपक्रम भी देखने को मिले, तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए।
पर विश्व-पटल पर दृष्टिपात करने से ऐसा लगता है कि मनुष्य की सद्बुद्धि धीरे-धीरे जग रही है अथवा यह कहा जा सकता है कि महाकाल की सक्रियता ने उन्हें ऐसा करने पर विवश किया है। कुछ भी हो, पर अब ऐसा प्रतीत होने लगा है कि वर्षा पूर्व दिल दहलाने वाली भयंकर गड़गड़ाहट सुना कर इन दिनों महाकाल यह दिखा देना चाहता है कि विरासत में सौंपी धरित्री को मनुष्य ने यदि बरबाद करने के लिए ठान लिया, तो वह इसे मूक दर्शक बन कर देखता नहीं रह जायेगा वरन् इसकी भागीरथी मुहिम अपने मजबूत कंधों पर उठा कर उसे सजाने-सँवारने का प्रयास आरंभ करेगा, और तब की भयंकरता मनुष्य को कोढ़ में खाज की तरह भुगतनी पड़ेगी। अतः मनुष्य का कल्याण इसी में है कि महाकाल के रौद्र रूप धारण करने से पूर्व वह स्वयं को और इस संसार को सँभाल ले, ताकि नियामक सत्ता को अपराधी के प्रति कठोर कदम उठाने के लिए बाधित न होना पड़े।
नटखट बालक जब ऊधम मचाना आरंभ करता है और किसी प्रकार वश में नहीं आता, तो अभिभावक पहले भय दिखा कर उसे सन्मार्ग पर लाने की कोशिश करते हैं, पर जब यह प्रक्रिया भी कारगर साबित नहीं होती, तो अपनी प्रिय संतान के प्रति भी उन्हें कठोर रुख अपनाना पड़ता एवं दण्डित करना पड़ता है। भय दिखाने की लगभग ऐसी ही प्रक्रिया महाकाल ने इन दिनों अपनायी है और लगता है उसकी यह चाल सही पड़ गई। इसका अनुकूल उत्तर मनुष्यों की ओर से मिलना आरंभ हो गया है। इसका आभास विश्व घटनाक्रमों पर दृष्टि निक्षेप करने पर सहज ही मिलने लगता है। कॉलिन काउड्रे ने अपनी पुस्तक “गॉड एण्ड हिज मास्टरपीस क्रियेशन- दि वर्ल्ड” में इसी आशय का मन्तव्य प्रकट करते हुए कहा है कि भगवद् सत्ता भले ही अदृश्य और परोक्ष हो, पर वह इतनी निर्बल और असमर्थ भी नहीं है कि जिस मनुष्य को उसने बनाया, वही उसकी सर्वोत्तम कृति को धूलि में मिला देने का दुस्साहस करे। वह कहते हैं कि परमसत्ता चाहे तो मनुष्य को, जिसे उसने बुद्धि की विलक्षण सम्पदा दी है, और जिसका मानव को गर्व भी है एवं उसी अहंकार के वशीभूत हो उसने भस्मासुर जैसा दुस्साहस करने का प्रयत्न किया है, उसे क्षणमात्र में धूलि चटा दे, पर वह दयालु सत्ता सब कुछ तब तक सहती रहती है, जब तक सहिष्णुता की अन्तिम सीमा को पार न कर जाये। इसके बाद ही वह कोई कठोर कदम उठाती है।
यदि हम मनुष्य के मूल स्वरूप के बारे में विचार करें, तो ज्ञात होगा कि मनुष्य जैसा कि उसे माना जाता है कि वह उठा हुआ पशु है भ्रमपूर्ण प्रतीत होगा, भले ही आज उसकी स्थिति इससे और भी दयनीय हो गई हो, जिससे उसे विकसित पशु तो क्या बुद्धिहीन पशु कहने में भी संकोच नहीं किया जाता, पर यह मान्यता नितान्त भ्रमपूर्ण है। जब वन्य प्राणी घने जंगलों में दिग्भ्रान्त हो फँस जाते हैं, तो वह वहाँ से निकलने की लाख कोशिश करने के बावजूद भी असफल होकर वहीं मर-खप कर समाप्त हो जाते हैं। मनुष्य की आज की स्थिति लगभग ऐसी ही है। इतने पर भी उसके मूल स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आता। क्षणिक और सामयिक भटकाव से ही उसे पशु कह देना उचित नहीं है। वस्तुतः वह उठा हुआ पशु नहीं, अपितु गिरा हुआ देवता है। यह देवत्व आज भी उसमें मौजूद है, पर समस्या एक ही है कि देवासुर-संग्राम की तरह आज उसका असुरत्व उस पर हावी हो चला है, इसीलिए हमें वह पशु तुल्य जान दीख पड़ता है, किन्तु वास्तविकता ऐसी है नहीं। अब उसका देवत्व जगने का क्रम आरंभ हो गया है।
जैकब स्मिथ अपने बहुचर्चित ग्रन्थ मैन-डेविल और डीटी में इसी प्रकार की विचारधारा प्रकट करते हुए कहते हैं कि यदि मानवी असुरत्व को उसके वास्तविक सत्ता का उद्बोधन और दिग्दर्शन कराया जाय, तो कोई कारण नहीं कि उसके देवत्व में रूपांतरण न हो सके। इसके समर्थन में वह ढेर सारे पूर्वात्य और पाश्चात्य उदाहरण प्रस्तुत करते हैं तथा कहते हैं कि यह सारे प्रतिमान इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि मानवी सत्ता मूलतः देवत्व प्रधान है, देवत्व का ही वह प्रतिनिधित्व करती है। उनका यह कथन ऋषिकाल के प्राचीन भारतीय इतिहास का पर्यवेक्षण करने से भी सही साबित होता है और इन दिनों के विश्वस्तरीय चिन्तन-पद्धति में आये विलक्षण परिवर्तन से भी सत्य प्रमाणित हो रहा है, भले ही उसके पीछे महाकाल अथवा किसी उच्च स्तरीय सत्ता का परोक्ष हाथ हो, पर इनसे इतना तो निर्विवाद सिद्ध हो गया है कि जैसी मान्यता मानव के विषय में बना कर रखी गई थी, वस्तुतः वह भ्रामक है।
कहते हैं कि भटकता हुआ यदि देर से भी वापस आ जाये, तो हर्ज नहीं। अरबी की देर आयद दुरुस्त आयद कहावत प्रसिद्ध है। मनुष्य के लिए अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है और न विशेष विलम्ब हुआ है। यदि अभी भी वह देवत्व के अपने मूल स्वरूप में स्वयं को परिवर्तित कर लेता है, तो यह सृष्टि अभी सुरक्षित बच जायेगी और महाकाल को कोई कदम भी नहीं उठाना पड़ेगा, अन्यथा मनुष्य उसकी प्रताड़ना से किसी भी प्रकार बच न सकेगा।
पीटर टेलर ने अपनी पुस्तक “डिवाइन मैन” में ठीक ही कहा है कि मनुष्य यदि संकल्प कर ले, तो उसके लिए नेक इन्सान तो क्या देवता के समतुल्य बन सकना भी असंभव नहीं, पर इसके लिए पहाड़ को खोखला करने वाली दीमक जैसी दृढ़ता चाहिए। इस धैर्य व दृढ़ता के अभाव में ही आज वह दीन-दयनीय स्थिति में पड़ा पशुवत जान पड़ता है, किन्तु एक बार किसी प्रकार उसकी इस सामूहिक दृढ़ता का, जो उसे श्रेय पथ पर ले जाने में सक्षम होती है, उसका उद्दीपन-जागरण हो जाय, तो फिर वह असाधारण-अभूतपूर्व जैसा बन कर ही रहता है। अब मनुष्य के जागरण का अनुकूल समय आ पहुँचा है, जब एक बार फिर से वह देवत्व के अपने पुरातन इतिहास को दुहराने जा रहा है। इस क्रम में यदि आगामी शताब्दी के अन्त तक गोल्डन एज (स्वर्णिम युग) जैसा कुछ धरती पर अवतरित हो जाय, तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए।