Magazine - Year 1992 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
समत्वं योग उच्यते
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
जीवन और द्वन्द्व आज इस कदर घुल मिल गए हैं कि दोनों को एक दूसरे का पर्याय कह लें तो कोई अत्युक्ति नहीं। हर कहीं अनिश्चय है। एक निर्णय हो पाए, तब तक दूसरा विचार आ टपकता है। एक स्थिति बन पाए इसके पहले दूसरी आ जाती है। गरीब हो या अमीर इसी अन्तर्द्वंद्व के झूले में उलझते रहते हैं। गरीब की समस्याएं छोटी लगती हैं अमीर की बड़ी। पर तह तक पहुँचने पर बात एक हो जाती है। अन्तर झोंपड़ी और महल का है। मन की संरचना प्रायः एक जैसी है। प्रवृत्तियों, अभिलाषाओं, आकाँक्षाओं में कोई अन्तर नहीं।
इस तत्व की समानता के कारण समाजशास्त्री मार्क्स ने इसे मनुष्य व्यापी समस्या के रूप में लिया। उसे अपनी रचनाओं में कहना पड़ा-पूरे समाज में द्वन्द्व व्याप्त है। समाज है ही डायलेक्टिकल। इसमें तब तक सुधार नहीं लाया जा सकता जब तक विषम स्थिति समाप्त न हो, साम्य न उपस्थित हो जाए। मार्क्स के चिन्तन में कमी नहीं। तत्वतः व्यक्ति के प्रसार का नाम समाज है। व्यक्ति की समस्याएं प्रकारान्तर से समाज की समस्याएं हैं। समस्याओं की जड़ को उनने नाम दिया द्वन्द्व। जब तक इसकी समाप्ति नहीं हो जाती तब तक सुख शान्ति कुछ भी वह जो श्रेयस्कर है उपलब्ध नहीं हो सकता।
साम्यावस्था की प्राप्ति के लिए उनके लिए प्रेरणा स्रोत था ‘अर्थ’। आर्थिक बँटवारा बराबर हो जाय तो शायद साम्य आ सके। इस सोच ने आधी दुनिया में क्रान्ति मचा दी। पर यह प्रयोग असफल रहा। इसे असफल होना था ही। धनी आदमी कम अनिश्चय में नहीं रहते। निरन्तर एक गहरी जलन-किंकर्तव्य-विमूढ़ता उन्हें झुलसाती रहती है।
मान लें यह प्रयोग सफल हो भी जाता, धन का बराबर वितरण हो भी जाता तो भी परेशानी जाने वाली नहीं थी अधिक से अधिक रूप बदल जाते। कल अगर साम्यता आ जाए तो भी कोई सुन्दर होगा कोई असुन्दर होगा और किसी के सुन्दर होने पर उतनी ही ईर्ष्या जगेगी जितनी किसी के धनवान होने पर जगती है। एक आदमी बुद्धिमान होगा-एक बुद्धिहीन होगा। बदले हुए रूपों में समस्याएं बनी रहेंगी क्योंकि मन द्वन्द्वात्मक है। टकराहट जीवन की आंतरिक शक्तियों में है।
प्रख्यात तत्वेत्ता ए. एन. व्हाइटहेड ने अपने ग्रन्थ “एडवेन्चर आँव आइडियाज” में इन टकराहट के कारणों का खुलासा करते हुए कहा है कि हमारे जीवन का सामान्य व्यवहार दो परस्पर पूरक शक्तियों से नियंत्रित होता है। पहली जीवन में अन्तर्निहित इच्छा शक्ति है। दूसरी परिवर्तनकारी शक्ति जो इस जीवन को लक्ष्य प्रणाली प्रदान करने के लिए मन के किसी कोने में यदा-कदा उमंगती रहती है। इनमें से पहली शक्ति का संचालन सहज प्रेरित है। पशु पर्यन्त अब मानव जीवन की सुख-सुविधा, सहज ज्ञान सन्तुष्टि का कारण सहज और स्वचालित प्रेरणा के प्रति उसका पूर्ण आज्ञा पालन है। इसी एक को सब कुछ मान लेने की कोशिश ने अनेकों विचार उपजाए-विचारकों को प्रेरित किया। इन सभी विचारों में सामान्य दोष यह है कि इसकी पैठ मनुष्य के सच्चे स्वभाव तक नहीं हो पाती।
वास्तव में मनुष्य दोहरी प्रकृति का प्राणी है। एक तो पशु प्रवृत्ति है। जो अपनी सहज प्रवृत्तियों आवेगों, इच्छाओं, स्वचालित प्रेरणाओं के अनुसार जीवनयापन करती है। दूसरी एक अतिजागरुक, बौद्धिक, नैतिक, सौन्दर्यात्मक विवेक पूर्ण और गतिशील प्रकृति है। एक ऐसा चिन्तनशील मन है जो निम्न प्रकृति का परिशोधन चाहता है। एक ऐसा संकल्प है जो देवत्व को जीवन में उतारने के लिए हुलसता रहता है।
मनीषी क्षामस कुन के ग्रंथ “द इसेन्शियल टेन्शन” के अनुसार द्वन्द्व का कारण इन्हीं दोनों प्रकृतियों का टकराव है। इस टकराव के कारण अभी तक उच्चतर जीवन एक ऐसी वस्तु माना जाता रहा है, जो निम्न जीवन पर ऊपर से लादी जाती है। उसे एक अनाधिकारी हमलावर समझा जाता है, जो सदा हमारे सामान्य जीवन में हस्तक्षेप करता रहता है। जिसका काम डाँटना और आदेश करना है। ये दोनों तत्व एक सतत् और पारस्परिक झमेले में निवास करते हैं और सदा ही एक दूसरे के द्वारा व्याकुल, दुखित और प्रभावहीन किए जाते हैं। ये दोनों उस बेमेल पति-पत्नी के समान हैं जो सदा ही झगड़ते रहते हैं । मानव मन की समस्त व्याकुलता, असन्तुष्टि, श्रान्ति, उदासी और निराशा का स्रोत इंसान की उस व्यावहारिक, असफलता में है जो उसे अपनी दोहरी प्रकृति की पहेली हल करने पर मिलती है।
विनोबा ने इस संकेत करते हुए अपनी पुस्तक साम्य सत्र में एक सत्र का प्रतिपादन किया है “अभिधेयं परम साम्यम्” । उनके अनुसार सर्वोदय या जीवन में साम्यावस्था का उदय इस पहेली का सही हल खोजने पर ही हो सकेगा। पश्चिमी तत्ववेत्ता मेस्टर एकहार्ट ने इस तथ्य को अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है कि यद्यपि सभी किसी न किसी अंतर्द्वंद्व से ग्रसित हैं, पर उनके प्रकार अलग हैं। उन्होंने मोटे तौर पर तीन विभाजन किए हैं। एक वे जो इच्छाओं में जीते हैं। दूसरे जो विचारों में जीते हैं। इन दोनों के बीच एक पतला विभाजन है-जो भाव में जीते हैं।
बहुतायत इच्छाओं में जीने वालों की है। समुद्र की भाँति मन में इन्हीं के ज्वार-भाटे उठते रहते हैं। उच्च प्रकृति और निम्न प्रकृति परस्पर विरोधी इच्छाओं को उछालती रहती हैं, इनसे उबरने का रास्ता है-इच्छाओं के प्रति जागरुक होना। इच्छाओं के ढेर में किसी सद्इच्छा को चुनकर उसे संकल्प में बदल डालना। निरन्तर दिवास्वप्नों को देखने से उत्तम है, संकल्पबद्ध हो क्रियाशील हुआ जाय। संकल्प के क्रियाशील होते ही मन साम्यावस्था की ओर गतिशील होता लगेगा। इच्छाओं के बादल तिरोहित होने लगेंगे।
जो लोग इच्छाओं की जगह विचारों में जीते हैं, उनके लिए इस प्रक्रिया का ज्यादा अर्थ नहीं है। इनके लिए विचारों के प्रति सजग हो जाओ-इतना ही मूल्यवान है, लेकिन ऐसों की संख्या कम है। कोई एक आइन्स्टीन होता है विचार में जीने वाला। ऐसे आदमी इच्छा भी करते हैं तो विचार के लिए। जबकि औसत व्यक्ति विचार भी करता है तो इच्छा के लिए।
सामान्य व्यक्ति की चाहत होगी मकान हो जाए तब विचार होगा कैसे हो? क्या धन्धा करूं कहाँ से धन बटोरूं? लेकिन आइन्स्टीन जैसे व्यक्ति उन्हें मकान की खबर ही नहीं। कहते हैं एक बार वे एक मित्र के यहाँ भोजन करने गए। भोजन समाप्ति के बाद गप-शप होने लगी। रात बढ़ती देखकर वे घड़ी देखकर सिर खुजलाने लगते। आखिर मित्र को कहना पड़ा क्या आज आप सोयेंगे नहीं? वे बोल पड़े यही तो मैं सोच रहा हूँ। मित्र बोले अरे यह घर तो मेरा है। उनने कहा “माफ करना मुझे यह याद नहीं रहा कि घर किसका है?” अब ऐसा व्यक्ति घर बनाने की इच्छा नहीं कर सकता। यदि कभी घर का ख्याल आएगा भी तो इसलिए कि प्रयोगशाला छोटी पड़ गई है विचारों का ठीक से समायोजन हो इसलिए। इनके लिए आवश्यक है विचारों के प्रति सचेत रहना।
एक अलग प्रकार है-भाव में जीने का। वे जो भावना में जीतें हैं न तो इच्छा में जीतें हैं न विचारों में। उनके लिए न किसी प्रयोगशाला का कोई अर्थ है, न किसी गणित की खोज करनी है, न कोई दर्शन शास्त्र की पहेली हल करनी है। न कोई बड़ा राज्य बनाना है, न कहीं बड़े मकान खड़े करने हैं।
भाव है पारदर्शी ठीक काँच की तरह। जबकि इच्छाएँ पत्थर की तरह अपारदर्शी हैं। इनके आर पार कुछ नहीं दिखाई देता। ऐसे व्यक्ति को अंतर्द्वंद्व से उबरने के लिए महात्मा बुद्ध ने एक प्रक्रिया सुझाई है-
भाव है पारदर्शी ठीक काँच की तरह। जबकि इच्छाएँ पत्थर की तरह अपारदर्शी हैं। इनके आर पार कुछ नहीं दिखाई देता। ऐसे व्यक्ति को अंतर्द्वंद्व से उबरने के लिए महात्मा बुद्ध ने एक प्रक्रिया सुझाई है-