Magazine - Year 1992 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
यज्ञ मात्र श्रद्धा नहीं, अद्भुत विज्ञान भी
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
भौतिक ऊर्जा और प्राण ऊर्जा के समन्वय से एक तीसरी शक्ति के आविर्भाव में पुरातन वैज्ञानिकों ने एक अद्भुत सफलता प्राप्त की, उसे ‘यज्ञाग्नि’ नाम से पुकारा गया। इसकी वैज्ञानिकता को समझने के लिए पाँच क्रमों पर विचार किया जा सकता है। (1) यज्ञकुण्ड की आकृति की भिन्नता का कारण (2) समिधाओं का चुनाव और उनका विशेष दहन, (3) मंत्रों का शुद्ध उच्चारण (4) यज्ञ का समय विचार (5) सामग्री का कुण विश्लेषण।
भिन्न आकृतियों एवं परिणामों की वेदियों में समिधाओं एवं हवन सामग्री से जो ताप प्रकाश उत्पन्न होते हैं, इससे परिणाम के रूपों में भी विभिन्न परिवर्तन हो जाते है। यह बात आधुनिक प्रयोगों से भी सत्यापित की जा चुकी हैं। समा के चुनाव के कारण भी अग्नि के ताप की तीव्रता और गुणों में स्पष्ट भेद हो जाता है। उदाहरण के लिए पलाश और कीकर के काष्ठों में ताप गुण की मात्रा और भेद स्पष्ट किया जा सकता है।
यह सर्वविदित सत्य है कि ताप, पदार्थों में रासायनिक परिवर्तन किया करता है। इस परिवर्तन से मूल द्रव्यों के गुण धर्म भी बदल जाते है। द्रव्यों के ज्वलन से नए पदार्थों की उत्पत्ति का यही रहस्य है। हवन सामग्री में दो तरह के द्रव्य रहा करते है। एक वे जो प्रचण्ड ताप से भी नहीं चलते, यानि कि उनका प्रभावोत्पादक अंश नष्ट नहीं होता।
पदार्थों के रासायनिक गुण-धर्म, उनकी भौतिक अवस्था पर आश्रित है। पदार्थों की स्वाभाविक अवस्था में उनके पीछे रहने वाले मांत्रिक घटक-पदार्थों की मात्राओं के परस्पर सम्बन्ध द्वारा रासायनिक प्रभाव उत्पन्न करने की क्रियाओं में भाग लिया करते है। पदार्थों की ठोस अवस्था की अपेक्षा सूक्ष्म अवस्था में ये घटक अत्यधिक संख्या में परस्पर मिलते है। इसलिए पदार्थों की वाष्पीय अवस्था में इनका सम्बन्ध बढ़ जाता है।
यदि हम एक घन सेण्टीमीटर को सूक्ष्मकणों में विभक्त करें, जिनमें से प्रत्येक कण 1/10000 प्रणाम का हो तो उसका क्षेत्रफल छः लाख वर्ग सेण्टीमीटर हो जाता है। परंतु एक घन सेंटीमीटर जल में इतने कण होते है,जिनमें प्रत्येक का व्यास 1/108 दस करोड़वाँ भाग सेण्टीमीटर होता है। इसका पृष्ठफल इससे भी अधिक सूक्ष्म परिणाम वाला होता है। इस प्रकार हम उनकी पारस्परिक क्रिया बहुत अधिक बढ़ा सकते हैं, इस भाँति जो पदार्थ अपनी साधारण अवस्था में प्राण वायु से मिल सकने में असमर्थ होते है वही अपनी वाष्पीय अवस्था में मिलने के योग्य बन जाते है। लोहा सीसा आदि धातुओं को जब इस प्रकार सूक्ष्मता में परिणत कर वायु में छोड़ दिया जाता है, तो बड़ी चमक के साथ जल पड़ते है और सुन्दर, लाल चिनगारियाँ छूटती है। शक्कर, कोयला आदि जब बड़ी सूक्ष्म अवस्था में वायु से मिलते है तो बारूद के समान धड़ाके की आवाज पैदा करते है। इस भाँति यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी पदार्थ को सूक्ष्म अवस्था में परिणत कर उसके रासायनिक गुणों को अत्यधिक बढ़ाया जा सकता है।
ध्यान रखने की बात है कि सूक्ष्म कणों में वक्रता होती है। यह वक्रता जितनी कम होती जाती है, उतना ही उसका रासायनिक प्रभाव बढ़ता जाता है ओर सूक्ष्मता के बढ़ने के साथ ही इनकी वक्रता घटती जाती है। ऐसे पदार्थों में जायफल, जावित्री, बड़ी इलायची आदि बड़ी ही उत्तम कोटि और प्रथम श्रेणी की सामग्री है। हवन सामग्री में जो सुगन्धित तेल होता है, यह जल्दी ही ज्वाला पकड़ लेता है ओर वाष्पीय रूप में परिणत होकर बहुत ज्यादा विस्तार करता है। तदनुरूप उसका प्रभाव भी व्यापक हो जाता है। वाष्प अवस्था में उड़नशील उन तेलों के सूक्ष्मकणों का व्यास एक लाखवें भाग से दस करोड़वें भाग तक पाया जाता है। उन हवन सामग्रियों से निकाला हुआ अर्क उतना असरकारक नहीं होता, जितना असर सामग्रियों के हवन करने से होता है।
हवन सामग्री को जलाने से उसमें अनेक पदार्थ पाये जाते हैं कि अल्डीक्लाइड, अमाइन्स, पिलोनिलिक, साइक्लिक टरयेनिक श्रेणी के पदार्थों की तो पहचान भी हो चुकी है। इस सामग्री में नमकीन पदार्थों का निषेध है। क्योंकि नमक (सोडियम क्लोराइड) फटकर क्लोरीन गैस पैदा करता है। जो रोग कीटाणुओं के लिए जैसा हानिकारक है वैसा ही मनुष्यों के लिए भी है। हवन में घी को विशेष परिणाम में उपयोग किया जाता है। इसके दो लाभ है- पहला यह अग्नि को प्रज्वलित करके उसके तापमान को विविध मात्राओं में मर्यादित कर देता है। यथा 1200, 2000, 3000, आदि। दूसरा यह वाष्प में परिणत होकर सामग्रियों के सूक्ष्मकणों को चारों ओर से घेर लेता है और उस पर विद्युत शक्ति का ऋणात्मक प्रभाव उत्पन्न करता है।
हवन का पहला लाभ वायु की परिशुद्धि है अग्नि के उत्ताप से यज्ञ स्थान की वायु गर्म ओर हल्की होकर ऊपर को उठती है इससे चारों ओर से शुद्ध वायु खाली जगह को भरने के लिए खिंची चली आती है। तथा अग्नि के ताप से रोगों के कीटाणु मर जाते है।
सूर्य की किरणें में ‘प्रकाशिनी रश्मि’ होती है। समुद्र पृष्ठों पर उन तरंगों की लम्बाई 2960 ए. यू. घटती है। 2960 ए.यू. से कम लम्बाई की तरंगों वाली रश्मियाँ रोग कीटाणुओं को नाश करने के लिए विशेष उपयोगी होती है। 2950 ए. यू. लम्बाई की तरंगों वाली रश्मियाँ, वायु को ऋण-धनात्मक रूप में बदल देती है। इससे वायु में जीवन और स्वास्थ्य प्रद तत्वों की बढ़ोत्तरी हो जाती है।
सूर्य की किरणों में भिन्न-भिन्न रंगों वाली रश्मियाँ होती है और उनकी लम्बाइयाँ भी अलग-अलग होती है तथा रोग-कीटाणुओं पर उसका प्रभाव भी भिन्न-भिन्न होता है। इसके प्रभाव को देखने के लिए बहुत से टीन के कनस्तरों को अन्दर से भिन्न-भिन्न रंगों से रंग दिया गया और उसे एक ऐसे कमरे में रखा गया जहाँ असंख्य मच्छरों का निवास था। सूर्योदय के समय सभी कनस्तरों का मुख ढक दिया गया। एक-एक करके ढक्कन हटाकर देखने से पता चला कि नारंगी रंग के कनस्तरों में मच्छरों की संख्या सबसे कम थी। अग्नि का रंग भी नारंगी है। इससे अग्निहोत्र की उपयोगिता और उसका प्रभाव स्पष्ट होता है।
पश्चिमी वैज्ञानिकों ने रोग-कीटाणुओं के नाश के लिए दो पदार्थ खोज निकाले है। एण्टीसेश्टिक (विष विरोधी ) (1) डिस इनफैकट्स (छूत के प्रभाव को रोकने वाले)। प्रथम श्रेणी के पदार्थ रोग-कीटाणुओं से मनुष्य की रक्षा करते है मारते नहीं। इस श्रेणी में फिनायल, क्रियोजोट आदि की गणना की जाती है। दूसरी श्रेणी के पदार्थ-रोगाणुओं को सीधे मार देते है। कुछ पदार्थों में दोनों गुण उनकी घनता और विरलता की स्थिति के अनुसार पाये जाते है। पर इन तत्वों का सही उपयोग एक कुशल वैज्ञानिक द्वारा ही सम्भव है। साधारण लोग उसकी मात्रा का सही परिणाम न जान सकने के कारण लाभ के स्थान पर हानि हो उठा सकते है।
हवन गैस इस दोष से रहित है। कदाचित् कुछ विषैला अंश रहे भी तो धृत का वाष्पीय प्रभाव उसे भी नष्ट करके लाभकारी बना देता है। इसमें स्थित क्रियोजोट, एल्डीहाइड, फेनायल और दूसरे उड़नशील सुगन्धित पदार्थ वैसा ही लाभ देते है। इससे निर्विघ्न रूप से लाभ उठा सकना सभी के लिए सम्भव है। वायु शुद्धि के अतिरिक्त हवन गैस से स्थान, जल आदि अनेक तत्वों की शुद्धि भी हो जाती है। जिसमें पर्जन्य के द्वारा अन्न और औषधियाँ भी निर्मल और परिपुष्ट हो जाती है। इससे मानव शरीर रोगाणु निरोधक और विनाशक अणुओं से भरपूर हो जाता है। फिर उसे पर रोगों का आक्रमण हो जाय और कदाचित सफल भी हो जाय तो भी उसके शरीर में स्थित शक्तिशाली रोग विध्वंसक अणु उसे अधिक समय तक जीवित नहीं रहने देता। उसका जल्दी ही विनाश कर देता है। खरगोशों और चूहों पर परीक्षण करके हवन गैस की रोग निरोधक और रोगविनाशक शक्तियों को भली प्रकार सत्य पाया गया हैं
परीक्षण के लिए रोग कीटाणुओं का घोल तैयार किया गया। उसे सबल-स्वस्थ जानवरों के देह में प्रवेश कराने से वह उस रोग से आक्रान्त हो जाता है। उसी को या दूसरे स्वस्थ जानवरों के शरीर में जब उस घोल में हवन गैस मिरित कर प्रवेश करवाया जाता है, तब वह रोगी नहीं होता। बारम्बार यह प्रयोग सफल पाया गया है।
कृषि में भी हवन गैस लाभदायक सिद्ध हुई है। मिट्टी में दो तरह के कीटाणु होते है एक उर्वराशक्ति को बढ़ाने वाले तथा दूसरे उसे नष्ट करने वाले। पाश्चात्य विज्ञान ने उर्वराशक्ति को नष्ट करने वाले कीटाणुओं को नष्ट करने के लिए जो घातक द्रव्य तैयार किया है, उसे मिट्टी में मिला देने से उर्वराशक्ति विनाशक कीटाणु की प्रवृद्धि होकर उसकी उर्वराशक्ति विनाशक कीटाणु नष्ट हो जाते है, जिससे पोषक कीटाणुओं की प्रवृद्धि होकर उसकी उर्वराशक्ति बड़ जाती है। पर उसमें दोष यह है कि उसे शीघ्र ही मिट्टी से अलग नहीं करने पर वह उर्वरा वर्द्धक कीटाणुओं का भी विनाश कर डालती है।
यज्ञ से पैदा होने वाली गैस को कुछ समय तक मिट्टी पर डालकर देखा गया है कि इससे उसकी उर्वराशक्ति बहुत बढ़ जाती है और पोषक अणुओं को बढ़ाने वाले आवश्यक तत्व उसमें भर जाते है। इन्हीं तत्वों के कारण यज्ञीय गैसों से प्रेरित पर्जन्य और बादल अन्न और औषधियों को निर्मलता और पुष्टि प्रदान करते है।
आकाश मण्डल में वायु की दो सतह होती है। एक तो धरती से छः मील की दूरी तक और दूसरी 625 मील ऊपर की ओर। वर्षा का सम्बन्ध केवल पहली सतह से ही है। बादलों के निर्माण में जो बातें सहायक है। वे है (1) वायु में जलकणों की उपस्थिति (2) तापमान (3) वायु का फैलाव (4) धूलकणों की संख्या उनका अनुपात और आकार (5) धुएँ के अणु।
बादलों को सात्विक गुणों वाले एवं निर्मल -पुष्ट बनाने में यज्ञ धूम्र के अणुओं का उसमें प्रविष्ट कराना सर्वश्रेष्ठ है। इसीलिए पुरातनकाल में जब देश में अधिक अग्निहोत्र और यज्ञ कर्म सम्पन्न होते थे-उस समय की वृष्टि सत्वगुणों से भरी होने के कारण अन्न और औषधियों में भी वे गुण ओत-प्रोत हो जाते थे। अन्न का सूक्ष्म अंश ही मन को पुष्ट करता है। अतः पुरातन युगीय संस्कृति के निवासियों का मन भी सात्विक निर्मलता से अनुप्राणित रहा हो तो आश्चर्य क्या? यज्ञ के लिए समर्पित इन देव मानवों ने जिस पद्धति से स्वयं को देवता और धरती को स्वर्ग भूमि में बदल डाला वह आज भी उनकी विरासत के रूप में हम सभी के पास है। आवश्यकता उसके व्यापक उपयोग की है।
आज जब पर्यावरण में विसंगतियाँ फैल रही है। प्रदूषण की चीख पुकार मची है, हर कहीं विष भर रहा है। ऐसे में इसकी उपयोगिता पहले की अपेक्षा कहीं बढ़-चढ़ कर है। प्रदूषित भावनाएँ ही है-जिन्होंने वनस्पति, प्राणी और मनुष्यों में अपना आधिपत्य जमा रखा है। फलतः सर्वत्र रोग-पीड़ा पर लगे प्रश्न चिन्ह का एक मात्र वैज्ञानिक हल ही अश्वमेध महायज्ञ के अनुष्ठानों के रूप में प्रकट हुआ है।
इसमें प्राण और पदार्थ की संयुक्त ऊर्जा से जिस यज्ञाग्नि का आविर्भाव होना है, वह प्रत्यक्षतः एक धर्मानुष्ठान मात्र प्रतीत होते हुए भी उसकी सामर्थ्य एवं परिणति असाधारण है। इसे उन निष्कर्षों के व्यापक और सफल प्रयोग के रूप में भी समझा जाना चाहिए जिनकी प्राप्ति में ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान के वैज्ञानिक मनीषी पिछले एक दशक से अनुसंधान तप करते रहे है। सृष्टि और समाज के बिगड़ते सन्तुलन को सँभालने के लिए पहले भी समय-समय परराजसूय, अश्वमेध होते रहे है। वर्तमान-अश्वमेधों की श्रृंखला-यज्ञ विज्ञान के उन्हीं प्राचीन सूत्रों का नवीन प्रयोग है।
इस पुण्य कर्म की श्रृंखला चलते रहने से क्रमशः रज और तम का विषाँश दूर होकर दिनों दिन सात्त्विकता बढ़ती जाएगी। यह महायज्ञ विश्वकल्याण की प्रारम्भिक भूमि का नींव और बीज है। भूलोक में जिस स्वर्ग को बसाने की हम कल्पना करते है यह उसी का क्रियात्मक स्वरूप है।
हम से जो भी विश्वशांति, समुन्नति और समृद्धि की बात कहते है वे इन अश्वमेध अनुष्ठानों को सम्पन्न होने और करने में किस भाँति अपना कर्तव्य पूरा कर रहे है। इसी से उसकी पहचान कर सकते है। अभी भी हममें उसमें सहयोग करके अपने कर्तव्य की कमियों को पूरा कर सकते है। स्मरण रहे कि हमारे जीवन में ही नहीं, बल्कि लिखित इतिहास में केवल यही वह अवसर है, जब कि ऐसा महान यज्ञ हो रहा है। अपने जीवन में प्राप्त ऐसे अपूर्व अवसर को हाथ से किसी भी तरह न जाने दें।