Magazine - Year 1993 - Version 2
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Language: HINDI
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युगपुरुष पूज्य गुरुदेव पं. श्री राम शर्मा आचार्य
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हमें अगले दिनों विश्व को यह बताना है कि नयी दुनिया कैसी होगी, जमाना कैसे बदलेगा तथा देखते देखते व्यक्तियों के सोचने का तरीका कैसे बदलता चला जायेगा? जैसे ब्रह्माजी ने इच्छा प्रकट की “ एकोऽहं बहुस्यामि “ व देखते देखते साकार हो गयी, उनकी कल्पना, उसी तरह प्रसंग तब तक का है, जब वैज्ञानिक आध्यात्म का सारा ढांचा नये सिरे से गढ़ा जा रहा था। 1966-67 में अखण्ड ज्योति पत्रिका में आरंभ किये गये इस उपक्रम को सभी ने सराहा और बुद्धिजीवियों के मिशन की पैठ बड़ी गहरी बनी थी। 1977-78 में उन सभी विषयों पर पुनर्मन्थन का सृजनात्मक लेखन व एक साधारण साहित्य लेखन में यही सबसे भारी अंतर है।
लेखक पत्रकार मनीषी के रूप में परमपूज्य गुरु देव के जीवन वृत्त पर जब हम एक विहंगम दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि साहित्य लेखन उनकी साधना का एक अनिवार्य अंग था।
युग के व्यास, जिनकी लेखनी से छलकती हैं भाव संवेदना हमने भी इच्छा व्यक्त की है महाकाल के संकेतों पर कि हमें इस इस दुनिया को नयी बनाना है। इक्कीसवीं सदी का साहित्य हम इस लिए रच रहे है। तुम्हारे तथ्यों के संकलन हमारे अभी के लेखन तथा हमारे बाद कलम पकड़ने वाली उंगलियों के कलम पकड़ने के पीछे यही दैवीय प्रेरणा काम कर रही है। इस तथ्य को समझना, यह मानना कि तुम्हारे व्यक्तित्व का तिरस्कार कर तुम से एक गहन साधना कराना मेरा उद्देश्य है। यह समझ लोगे तो तुम लोग कभी लक्ष्य से भटकोगे नहीं। परमपूज्य गुरुदेव ने उपरोक्त भाव तब व्यक्त किये थे, जब हम सब उनके समक्ष गोष्ठी में बैठे उनका मार्गदर्शन ले रहे थे। इन दिनों कागज काले करने वाले ढेरों समाचार पत्र निकलते हैं। लाखों पत्रिकायें रोज प्रकाशित होती हैं किन्तु रचनात्मक लेखन, युग परिवर्तन साहित्य सर्जन कैसे किया, यह समझना हो तो हमें परम पूज्य गुरु देव की लेखन प्रक्रिया से जुड़े प्रसंगों व उन अंतरंग क्षणों की आपको झाँकी करनी होगी जिसे देखने समझने के बाद अखण्ड ज्योति का जाज्वल्यमान विराट रूप हमारे समक्ष होता चला जाता है। क्रम चला जिन्हें आध्यात्म और विज्ञान के समन्वयात्मक प्रतिपादनों की परिधि में लाना था, विशेषकर तब, जब प्रयोग परीक्षणों एक प्रयोग शाला व ग्रंथागार विनिर्मित होने जा रही था। कार्य की विशालता व उद्देश्य के विराट स्तर पर साहित्य सृजन हेतु राशि लेकर लिखने वाले साहित्यकारों से संपर्क करना चाहिए व उनके माध्यम से हिंदी भाषी ही नहीं, सभी भाषीय क्षेत्रों को पकड़ने की योजना बनानी चाहिए पूज्यवर बोले “ जो कार्य ऋषि मनीषियों के स्तर का हो इसे खरीदी हुई अक्ल नहीं कर सकती। हमेशा तपः पूत लेखनी के धनी मनीषी स्वयँ तैयार करने होंगे। वे ही नव सृजन का आधार खड़ा करेंगे। ” यही कारण हैं कि 3200 पुस्तकों के रूप में विराट परिणाम में साहित्य सृजन करने वाले पूज्य गुरु देव एक ऐसा ढांचा खड़ा कर सके कि बिना किसी बाहर के लौकिक स्तर के साहित्यकार के मदद के यह पत्रिका न केवल अनवरत चलती रह सकी, वरन् इसके भावी स्वरूप का प्रारूप भी निश्चित हो गया। मनीषा के विराट गायत्री परिवार का सृजन उनने इसी के माध्यम से किया केवल पत्रिका उच्चस्तरीय प्रेरणाओं व निर्देशों से युक्त रहती थी, अपितु उसके परिजनों को लिखे गये पत्र मनोबल बढ़ाने वाला मार्गदर्शन भी करते थे। प्रातः काल डेढ़ बजे उठ कर नित्य कर्म से निवृत्त हो चार घण्टे से छह घण्टे न्यूनतम लेखनी का साधना यह उनकी दिन चर्या का एक अनिवार्य अंग थी चाहें वे क्षेत्र के दौरे पर हो, राह में, ट्रेन में या सक्रिय कार्यक्रमों के केन्द्र में संलग्न, लेखनी कभी उनकी रुकी नहीं नियमित स्तर पर यह लेखन था जिसके माध्यम से चिंतन को उछालने वाले श्रेष्ठ स्तर के साहित्य का सृजन संभव हो सका। यही प्रेरणा उनने अपने पास कार्य करने वाले - सीखने वाले साधकों को भी दी। जिनने उस दिनचर्या को अपनाया, उनका निज का व्यक्तित्व तो परिष्कृत हुआ ही, उनके माध्यम से मार्ग दर्शन का एक तंत्र विकसित होता चला गया।
बड़ा आश्चर्य होता है जब हम देखते हैं कि बिना किसी उच्च स्तर की पढ़ाई शिक्षा के भारतीय संस्कृति, दर्शन, अध्यात्म, तत्त्व मीमाँसा आहार से लेकर चिकित्सा विज्ञान भौतिकी, समाज को नव निर्माण नैतिक, मनोवैज्ञानिक तथा राजनीति के दाँव पेंच भरे विषयों से लेकर मैनेजमेंट जैसी विद्या पर बहुमुखी एक्सपर्ट स्तर का लेखन किसी से कैसे बन पड़ा? उसका एक ही उत्तर है गहन स्वाध्याय। फकीरों की भाषा में कहें तो ऐसे कहेंगे “पढ़िबे की फल गुनब है” गुनबे का फल ज्ञान, ज्ञान का फल हरि नाम है, कहिश्रुति संत पुरान। अर्थात् पढ़ने का मर्म मनन चिंतन ज्ञानार्जन में है व ज्ञान की सार्थकता भगवद् भक्ति में है। जहाँ ये सभी मिल जायें व लेखनी इसकी सधी हुई दिशा में चले वहाँ जिस उच्चस्तरीय साहित्य का सृजन होगा, उसे पढ़कर कौन ऐसा होगा, जो प्रभावित न हों?
“कवयाः सत्य श्रुताः “ ऋषि कवि होता है व उसका काव्य फूट पड़ता है लेखनी से गद्य व पद्य के रूप में। गद्य भी उसका ऐसा सरस होता है कि पढ़कर लगता है कि शब्द कहाँ तक भीतर जा कर स्पर्श कर रहे हैं उनके मूल में संवेदना गहरे तक विराजमान है। जरा उनकी लेखनी का एक स्वरूप यहाँ देखे - “ भगवान किसी को धनी कुबेर भले ही न बनाये, पर उसकी करुणा बरसती ही हो तो उसे उस चिकित्सक की पदवी मिलें जिसने असंख्यों को अंध तमिस्रा से उबारा ओर आलोक की दुनिया में हाथ पकड़कर ला बिठाया। ” जहाँ ऊपर की पंक्तियों में गहरी संवेदना है तो अगले उद्धरण में प्रतिभाओं को दी गयी लताड़ भी ऐसी है जो गहरे तक चुभ कर दिखाने की दिशा में मचला देती है- “प्रतिभाएँ आगे बढ़ती है तो ही अनुगामियों की कतार पीछे चलती हैं। पतन और उत्थान का इतिहास इस एक ही पटरी पर आगे बढ़ता रहा है। प्रतिभाओं को दूसरे शब्दों में अंधड़ कहते हैं। इनका वेग जिस दिशा में तेजी से बढ़ता है, उसी अनुपात में तिनके पत्तों से लेकर छप्परों और वृक्षों तक को उड़ते लुढ़कते देखा गया है। गिरता उठता तो जमाना हैं पर उसके लिए वास्तविक पाप पुण्य का बोझ इस समय की अग्रगामी प्रतिभाओं के लिए सिर पर लदता है। अब केवल एक ही बात सोचनी चाहिए कि समय की जिस चुनौती ने जागृतात्माओं को कान पकड़ कर झकझोरा है, उसके उत्तर में उन्हें दाँत निपोरने हैं या सीना तानना है। ”
ऊपर पूज्यवर की लेखनी की एक साक्षी देकर यह बताने का प्रयास हम कर रहे हैं कि ऋषि स्तर के मनीषियों सूक्ष्म स्तर पर अपनी साधना की शक्ति से, अपनी सशक्त लेखनी व ओजस्वी वाणी से वह सब कुछ कर दिखाने की सामर्थ्य रखते हैं जिसे युग असंभव मानता रहा हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में उनके द्वारा किये गये कुछ व्यवहारिक निर्देश दृष्टि पटल पर आ जाते हैं, जिन्हें समय समय पर डायरी में नोट किया जाता रहा। (1) अब हमें भारती य दर्शन में समग्रता लाती है इसे नया स्वरूप विज्ञान का पुट देकर देना है। तत्त्व दर्शन ही किसी समाज की संस्कृति बनाता है। हमारी संस्कृति के अनिवार्य अंग हैं। दूरदर्शी, विवेकशीलता, तथा पुण्य परमार्थ। कठिनाइयाँ यही है कि इस भारतीय मान्यता को पाश्चात्य दर्शन सामर्थ्य नहीं देता। हमें भागीरथी पुरुषार्थ करना है कि जन जन के मन में ये दो आदर्श समा जाएँ। (1-4-83)
(2) प्राचीन युग देवताओं का युग था। सतयुग की संस्कृति देव युग की संस्कृति थी। हम आदिम मानव से नहीं, श्रेष्ठ नर रत्नों, ऋषियों से जन्में हैं। यही अब तक तर्क, तथ्य, प्रमाण के साथ पूरे विश्व में पहुँचानी है। (11-4-83)
(3) आदमी के विचारों की शक्ति असाधारण हैं। जिजीविषा जीवट मनोबल में अपनी एक अलग ही सामर्थ्य व मनुष्य की सबसे बड़ी विशेषता है। हमारे अंतः की विद्युत ताकत पर खड़ा है विचारों का ढांचा। साधना उपचारों द्वारा जब तक इसे सशक्त किया जाता रहेगा, मनुष्य का आँतरिक वैभव सतत् बढ़ता ही रहेगा। (3-6-83)
(4) हमें व तुम्हें अब भ्रष्ट चिंतन से जूझना है। यही इस युग का सबसे बड़ा संग्राम है। आज दर्शन को प्रत्यक्षवाद के विषाक्त कर दिया है। यदि यह दर्शन प्रवाह उलटा न गया तो मनुष्य को यह पशु बनाकर रहेगा। इस युग संकट से जूझना ही मनीषा का काम है वह काम अखण्ड ज्योति को ही करना है। (11-4-1986)
अंधा होकर किसी विचार से चिपके रहने की अपेक्षा शंकालु होकर धार्मिक सत्यों का शोध करना उत्तम है। राधाकृष्णन
(5) सृजन की अपनी लहर होती है। कभी सतयुग में सृजन परक प्रभावोत्पादन मानसून छाया रहता था तो धरती स्वर्ग जैसी थी। वैसा ही वातावरण लाने के लिए हमें जन जन के मनो को मथकर यह सोचने पर मजबूर कर देना है कि परिवर्तन अवश्यंभावी हैं व तो श्रेष्ठता की दिशा में ही हैं इसी उद्देश्य की सफलता में तुम्हारे समर्पण की सफलता है। (20-10-1988)
उपरोक्त उद्धरण उन डायरियों से लेकर पाठकों की जानकारी के लिए दिये गये जिनमें समय समय पर पूज्य वर के मुखर बिन्दु से निकले हर निर्देश को नोट किया जाता रहा। 1940 से 1990 तक चली पचास वर्ष की साहित्यिक जीवन यात्रा पर हम जब दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि अखण्ड ज्योति को एक पाती की तरह स्वजनों परिजनों तक भेजने वाले पूज्यवर गुरुदेव ने “ मैं क्या हूँ “
जैसी जटिल आत्म चिंतन प्रधान पुस्तक से आरंभ कर जीवन जीने की कला के व्यवहारिक अध्यात्म तथा धर्मतंत्र से लोक शिक्षण व लोक जन से लोक मंगल के स्वरूप से लेकर गायत्री के तत्वज्ञान के पुण्य परमार्थ प्रधान शिक्षण द्वारा एक व्यापक समुदाय को मथा जिसकी संख्या करोड़ों में आँकी जा सकती है। वे अखण्ड ज्योति के अपनी प्राण ऊर्जा का प्रवाह बताते रहें, मात्र तीन उँगलियों व कलम से लिखी जाने वाली एक पत्रिका मात्र नहीं। इस अखण्ड ज्योति का वस्तुतः मत्स्यावतार की तरह विस्तार न हुआ व संदेश नहीं मैं स्वर्ग लोक को लाओ वाला कैपशन लेकर प्रकाशित प्रारंभिक पत्रिका जो 250 मात्र थी बढ़ते बढ़ते आज चार लाख से अधिक हिंदी व इतनी ही अन्य भाषाओं में (गुजराती, उड़िया, बंगाली, मराठी, तमिल, तेलगू) प्रकाशित हो अस्सी लाख पाठकों तक पहुँच रही है। अध्यात्म प्रधान चिंतन में यदि इतने व्यक्ति आज के कलियुग माने जाने वाले युग में भी रुचि लेते हैं न उनका स्वाध्याय कर पाने पर कुछ अभाव सा महसूस करते हैं तो यह चिन्ह पूज्यवर के उस आशावादी दर्शन का द्योतक है। जिसमें वे कहते थे मूलतः मनुष्य आदर्शवादी हैं व उसे अंत में वही बना रहेगा। विचार की स्पष्टता, शैली में रोजमर्रा के प्रयोग किये जाने वाले शब्दों से लेकर शुद्ध संस्कृत के शब्द कई नयी संधियों के साथ नये शब्दों की संरचना, भावना का अविरल प्रवाह एक सुनियोजित उद्देश्य की और को मोड़ता प्रतिपादन यह पूज्यवर की जादू भरी लेखनी की विशेषता है। एक बार का प्रसंग है कि ब्रह्मवर्चस के कार्य कर रहे एक सज्जन अनगिनत तर्कों व प्रमाणों के साथ नास्तिक वाद का खण्डन करने वाला एक लेख पूज्यवर के पास लाए। उनकी दृष्टि ये यह उनका सर्वश्रेष्ठ लेख था। पूज्यवर ने पढ़ा व फिर कहा कि -बेटा तेरा मन रखने के लिये इसे पड़ता तो नहीं किन्तु एक बात बताता हूँ कि बिना संवेदना का समावेश किए बिना सही दिशा दिए लेखन नीरस बेजान है। हम खण्डनात्मक शास्त्रार्थ वादी परम्परा के नहीं हैं। हमें तर्क व तथ्यों के साथ संवेदना करुणा को ही उभारना है। इसे स्पष्टतः ध्यान में रखना।
“ सुनसान के सहचर “ जैसी छन्दात्मक भाव प्रधान शैली भाव प्रधान शैली का लेख करने वाले तथा प्रतिमाह अखण्ड ज्योति के अपनों से अपनी बात स्तम्भ द्वारा लाखों
व्यक्तियों के मर्मस्थल को हिला डालने वाले परमपूज्य गुरुदेव ने अपने मार्गदर्शन में जिस को रखा यदि उसने अलग से काम किया तो उसे उस विद्या में पारंगत बना दिया। उनने प्रमाणित किया कि बिना पैसे जीवन जियें बिना आदर्शवाद के जीवन में उतारें, बिना संवेदनशील बनें कोई भी व्यक्ति यदि लेखनी पकड़ता है तो वह मात्र कागज काले करता है, जनतप के विचारों का प्रदूषण बढ़ाता है, वह कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ रही साहित्यकारों की फसल में एक और जुड़ जाता है।
पूज्यवर के 10 नवम्बर 1981 को नोट करायें निर्देशों का हवाला देकर अपने इस अपूर्ण प्रसंग को समाप्त करते हैं। हमें अब नयी दुनिया गढ़नी हैं। इसका सारा आधार संवेदना पर टिका हैं। लोगों का भाव संवेदनाओं को, अंतःकरण को बदल देना ही हमारा मूल लक्ष्य है। मार्क्स ने अर्थ व्यवस्था को मूल आधार बनाया तो रूसो ने प्रजाताँत्रिक व्यवस्था को। हमने मानवीय अंतःकरण से नियंत्रित मनोविज्ञान व व्यवहार को अपने चिंतन की मूल धुरी बनाया है। हम आशावादी है। भविष्य निश्चित ही उज्ज्वल है। 21 वीं सदी का मतलब है आदर्शवाद पर विश्वास, आशावादी साहस। औरों का यूटोपिया काल्पनिक रहा होगा, हमार नहीं हैं। भावना विज्ञान पर लिखा बहुतों ने हैं पर भावनाओं को व्यवहार में उतार कर कैसे आदर्श मानव बनाया जाय व आदर्श समाज गढ़ा जाय, यह किसी ने नहीं लिखा है। हमने इसी विषय में अपना चिंतन नियोजित किया है व इसी धुरी पर युगान्तर कारी साहित्य सृजा है। तुम उसी धुरी पर चलते रहना, बस देखते ही देखते दस वर्षों में जमाना बदल जायेगा।
पाठकों को पूज्यवर की भाषा यथावत् उद्धृत कर हमने उनके उस स्वरूप की झलक दिखाने का प्रयास किया है, जिसमें वह युग पुरुष लेखनी की अविराम साधना कर असाधारण पुरुषार्थ संपन्न किया। जब साहित्य जगत इस विराट साहित्य संजीवनी का मूल्याँकन कर पाने में सक्षम होगा, तब वह भी युग के यास को समय पर न पहचान पाने की विडम्बना पर स्वयँ अपना सिर धुन रहा होगा