Magazine - Year 1993 - Version 2
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Language: HINDI
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परोक्ष जगत से मिलती अप्रत्याशित सहायताएँ
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जिस प्रकार अविज्ञात कारणों से कभी-कभी मनुष्य पर अप्रत्याशित विपत्तियाँ टूट पड़ती हैं और प्रत्यक्ष कोई कारण न होने पर भी दुर्घटना स्तर का संकट सहना पड़ता है। उसी प्रकार कभी-कभी विपत्तियों से उबारने वाली ऐसी अदृश्य सहायताएँ भी अनायास ही मिलती देखी गई हैं जिनकी कभी न कोई आशा थी न संभावना।
इन घटनाक्रमों के पीछे सन्निहित अविज्ञात कारणों को आमतौर से प्रारब्ध संयोग आदि कहकर किसी प्रकार समाधान कर लिया जाता है, फिर भी आस्तिक जन विपत्तियों को अपना कर्मफल और सुविधा-सफलताओं में ईश्वर का अनुग्रह देखते हैं। इस संदर्भ में परोक्षवादी किन्हीं अदृश्य आत्माओं का भी हाथ देखते हैं जो पूर्वकाल की घटनाओं को ध्यान में रखकर प्रतिशोध लेतीं और कष्ट पहुँचाती हैं। साथ ही उच्चस्तरीय आत्माएँ अपने सम्बद्ध आत्मीयजनों को समय-समय पर अपनी सामर्थ्यानुसार लाभान्वित भी करती रहती हैं। इस तरह की अविज्ञात और सूक्ष्म शरीरधारी दिव्य आत्माओं द्वारा लोगों को अदृश्य या प्रत्यक्ष सहायता पहुँचाये जाने की कितनी ही घटनायें हर देश और काल में घटित होती रहती हैं जिसे निष्पक्ष प्रत्यक्षदर्शियों एवं अनुभवियों ने ही नहीं, वरन् अब विज्ञानवेत्ताओं ने भी स्वीकारा है। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक मनीषी सर डब्ल्यू॰ एफ॰ बैरट ने अपनी पुस्तक “साइकिकल रिसर्च” में अमेरिका के एक सैनिक अधिकारी श्री गोवन और उनके दो पुत्रों का उल्लेख करते हुए बताया है कि उनकी प्राणरक्षा किस प्रकार हो सकी।
श्री मेक गोवन अपने दोनों पुत्रों को अवकाश के दिन नाट्य गृह में नाटक दिखाने जाना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने उसके टिकट भी एक दिन पूर्व ही मँगा लिए थे। किंतु जिस दिन उन्हें नाटक देखने जाना था। उस दिन सुबह से उन्हें बार-बार एक ही आवाज सुनाई देती रही कि-’नाटक देखने मत जाओ और लड़कों को वापस घर ले जाओ।’ जब बार-बार वही आवाज आती रही तो उन्होंने नाटक देखने का विचार बदल दिया। दूसरे दिन ज्ञात हुआ कि पिछली रात नाट्य गृह में भयंकर आग लग गयी और 300 से अधिक लोग उस अग्निकाँड में भस्मसात् हो गये।
न्यूयार्क की एक वयोवृद्ध महिला कैथेलिन मैक्को को एक ओर कोई आसुरी शक्ति मिटाने पर तुली हुई थी, तो दूसरी ओर रक्षक सत्ता उसे बचाने को तत्पर थीं। इस प्रकार उस पर सात बार मौत के आक्रमण हुए, फिर भी वह जीवित रही।
जब कैथेलिन सात वर्ष की थीं तब एक दिन वह स्कूल के अन्य बच्चों के साथ हडसन नदी में स्टीमर से सैर करने गयी। स्टीमर में आग लग गयी। उसे छोड़कर सभी बच्चे भस्मसात् हो मृत्यु के मुँह में समा गये। लड़की को स्टीमर के कोने पर पड़ा लकड़ी का बड़ा सा तख्ता दीखा जिसे उसने छाती से चिपकाया और नदी में कूद गयी। उधर से गुजरती नाव ने उसे पकड़ लिया तथा उसे सुरक्षित घर पहुँचा दिया।
दूसरी बार सन् 1954 में वह जिस वायुयान से हवाई यात्रा कर रही थी उसमें खराबी आ गई। पायलट ने जहाज को नीचे उतारना चाहा, पर उसमें आग लग गयी जिससे सभी यात्री झुलस गये। केवल कैथेलिन ही झुलसी हुई स्थिति में जीवित रही। अस्पताल जाकर वह गहन उपचार के पश्चात् स्वस्थ हो गयी।
सन् 1956 में बस से यात्रा करते समय बस का टायर फटा। बस गहरी खाई में जा गिरी और उसमें आग लग गयी। सभी यात्री आग की लपटों में घिर कर काल-कवलित हो गये। शीशा तोड़कर बाहर निकलने वाली अकेली कैथेलिन ही थी।
इसी तरह सन् 1961 में वह जिस रेल से यात्रा कर रही थी, रात्रि में दूसरी रेल से उसकी टक्कर हो गयी। इंजन चकनाचूर हो गया। कई डिब्बों के भी परखच्चे उड़ गये। कैथेलिन के डिब्बे में केवल यही जीवित बची।
सन् 1962 में वह एक होटल में छुट्टियाँ बिताने गयी। अचानक पहाड़ से एक भारी चट्टान लुढ़क कर उसी कमरे पर आ पड़ी जिसमें कैथेलिन ठहरी थी। सभी व्यक्ति मारे गये, किंतु वह कुछ मिनट पहले ही किसी अज्ञात प्रेरणावश कमरे से बाहर आ गयी थीं।
उन्हीं दिनों टैक्सी से यात्रा करते समय टैक्सी एक मोटर से टकरा गयी जिसमें टैक्सी चालक सहित तीन व्यक्ति मारे गये, अकेले कैथेलिन ही जीवित बची।
सातवीं बार सन् 1967 में वह एक दावत में गयी जहाँ नयी जाति की मछलियाँ तलकर परोसी गयीं। भोज खाने वाले सभी व्यक्ति मछलियों के जहरीले प्रभाव के कारण मारे गये, अकेली कैथेलिन ही बच पायी और उस शाश्वत सत्य को सिद्ध कर दिखाया कि मारने वाले से बचाने वाला बड़ा है।
न्यायालयों में कई बार बेगुनाह व्यक्तियों को फाँसी तक की सजा दे दी जाती है और वे निरपराध मारे जाते हैं। लेकिन कई बार ऐसी घटनाएँ भी घटित होती देखी गयी हैं जब किसी अदृश्य सत्ता ने हस्तक्षेप करके व्यक्ति को फाँसी के फंदे से कसकर मरने से बचा लिया हो। “मिस्ट्रीज ऑफ अनएक्सप्लेन्ड” नामक ग्रंथ में इस तरह की अनेकों घटनाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
बहाई धर्म के संस्थापक महात्मा बाव को प्राचीन परंपराओं से भिन्न स्थापनाएं करने के आरोप में तत्कालीन शासक द्वारा मृत्यु दंड दिया गया।
19 जुलाई 1853 को प्रातः 10 बजे तक रीज के मैदान में उन्हें सरेआम गोली से उड़ाया जाना था। इस दृश्य को देखने के लिए वहाँ दस हजार से भी अधिक लोग उपस्थित थे। उपयुक्त समय पर महात्मा बाव और उनके एक अंतरंग शिष्य को रस्सों से बाँधकर खंभों के सहारे अधर में टाँग दिया गया। तत्पश्चात् ढाई-ढाई सौ सैनिकों की तीन टुकड़ियों ने उन दोनों पर एक साथ निशाना साधकर गोलियाँ चलायीं। परंतु यह दृश्य देखकर सभी आश्चर्य चकित रह गये कि 750 गोलियों में से एक भी महात्मा बाव और उनके शिष्य को नहीं लगी। दोनों साफ बच गये। इस घटना के बाद उन्हें निर्दोष एवं महान पवित्र आत्मा जानकर मुक्त कर दिया गया।
वस्तुतः ऐसा नहीं है कि दैवी सहायता के अधिकारी मात्र महान पवित्र आत्मायें ही होती हों, वरन् उसकी अहैतुकी कृपा के द्वार प्रत्येक सच्चे, चरित्रवान और ईमानदार व्यक्ति के लिए हर पल खुले हैं। इतिहास के पन्ने ऐसे अनेकों उदाहरणों से भरे पड़े हैं जिनमें निरपराध व्यक्तियों को अपराधी घोषित करके उन्हें फाँसी के फंदे में लटकाया गया, परंतु वे मरे नहीं।
उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में इंग्लैंड के ‘जॉन ली’ नामक एक व्यक्ति को हत्या के अभियोग में मृत्युदंड की सजा सुनायी गयी। फाँसी देने से पहले ‘ली’ से उसकी अंतिम इच्छा पूछी गयी, तो उसने कहा-”मैं निरपराध हूँ।” परंतु उसके इस कथन को न्यायाधीश ने अनसुनी करते हुए फाँसी का फंदा गले में डालने का आदेश दिया। जल्लाद ने जैसे ही फाँसी लगाने के लिए बोल्ट खिसकाया कि रस्सा गर्दन से खुल गया। दूसरी बार अधिकारियों द्वारा अच्छी तरह फंदे और तख्ते का निरीक्षण करने के पश्चात् ‘ली’ को पुनः फाँसी के फंदे से लटकाया गया, परंतु इस बार रस्सा खिंचा ही नहीं उसकी गर्दन को कई बार फंदे से इसी प्रकार कसा जाता रहा, किंतु उसको मारने के प्रत्येक प्रयत्न निष्फल रहे।
तत्पश्चात् जॉन ली को फिर से कालकोठरी में डाल दिया गया और समस्त प्रकरण की बारीकी से जाँच-पड़ताल की गयी। जाँच में कहीं कोई गड़बड़ी नहीं पायी गयी। इस बार उसको हजारों लोगों की उपस्थिति में फाँसी के फंदे से लटकाया गया, पर फिर से वही पुनरावृत्ति हुई और रस्सा नहीं खुला। कई बार के प्रयास के बाद भी जब उसकी मृत्यु नहीं हुई, तो उसे मुक्त कर दिया गया। आश्चर्यचकित लोगों ने जब उससे इसका रहस्य पूछा तो उसने बताया कि-’मैं निर्दोष हूँ, मेरी पुकार परमात्मा ने सुन ली।’ बाद में असली हत्यारे का पता चल गया।
इसी प्रकार 7 फरवरी 1894 की सुबह को अमेरिका स्थित मिसी सिपी के 24 वर्षीय नवयुवक विल पर्विस को कोलंबिया के एक किसान की हत्या के आरोप में न्यायालय द्वारा प्राणदंड दिया गया। जल्लादों ने आदेश मिलते ही फाँसी का फंदा उसके गले में डाल दिया और नीचे के तख्ते को हटा लिया। पर जैसे ही तख्ता हटाया गया, विल के गले का रस्सा खुल गया और वह नीचे गिर पड़ा। हजारों दर्शक इस घटना को देखकर आश्चर्यचकित थे। कई बार के प्रयास से भी जब उसकी मृत्यु नहीं हुई तो उसे कारावास से मुक्त कर दिया गया।
वस्तुतः विलपर्विस निर्दोष था। उसे गलत फँसाया गया था। इस बात की सत्यता का पता लोगों को तब चला जब उपर्युक्त घटना के ठीक 19 वर्ष बाद जो सेफ बियर्ड नामक एक व्यक्ति ने उस किसान की हत्या करने का अपराध स्वयं स्वीकार कर लिया। अदृश्य एवं अप्रत्याशित सहायताओं से भरे इस समूचे घटनाक्रम का पूर्ण विवरण “नयुओरलियंस स्टेट मेगजीन” के 13 अप्रैल 1947 अंक में प्रकाशित हुआ था।
दैवी सत्तायें प्राणों की रक्षा ही नहीं करतीं, वरन् मनुष्य के कार्यों में अपना दिव्य सहयोग भी प्रदान करती हैं। उदाहरण के लिए प्रथम युद्ध में ब्रिटेन का टोही विमान मोर्चे का सर्वेक्षण कर रहा था। उसके चालक और सर्वेक्षणकर्ता शत्रु की मशीनगनों के शिकार हो गये। इतने पर भी वायुयान दुर्घटनाग्रस्त नहीं हुआ। वह घंटों आसमान में चक्कर काटता रहा और अंत में ईंधन चुक जाने पर शाँति के साथ समतल भूमि पर उतर आया।
इस संदर्भ में महर्षि अरविंद की सहयोगिनी श्री ‘माँ’ का कहना है कि दिव्य लोक की दैवी सत्तायें मानव मात्र को प्रेरणा देने, मार्गदर्शन करने एवं अपेक्षित या अनपेक्षित सहायता प्रदान करने के लिए सदैव तत्पर रहती हैं। किंतु हम हैं जो स्वयं उनके लिए अपने अंतराल के पट बंद रखते हैं। जैसे ही उनके प्रति हम अपने को उद्घाटित करते हैं तो न केवल उनकी सहायता मिलती है वरन् जीवन क्रम भी चमत्कारिक रूप से परिवर्तित होने लगता है। उन्होंने इस प्रकार की सहायता को स्पष्ट करते हुए कहा है कि इसी के बल पर साधारण किसान की बेटी जॉन आफ आर्क फ्राँस की जनक्राँति की अग्रदूत बनी और स्वतंत्रता की देवी नाम से प्रतिष्ठित हो सकी।
वे दिव्य आत्मायें जिन्होंने अपने जीवन को किसी महत्वपूर्ण कार्य में नियोजित किया है, शरीर त्याग देने पर भी उससे विरत नहीं होतीं, अपितु किसी सुयोग्य माध्यम को सहायता दे उसमें अपनी क्रियाशक्ति का स्थानाँतरण कर उद्देश्य की प्राप्ति करा लेती हैं। यह एक तथ्य है कि भारत को स्वतंत्रता दिलाने के उद्देश्य से स्वामी विवेकानंद की आत्मा, श्री अरविंद, सुभाषचंद्र बोस जैसे कितने ही देश भक्तों को मार्ग दर्शन देतीं और प्रेरणा प्रदान करती रहीं। सुप्रसिद्ध राजनीतिज्ञ कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने भारतीय विद्या भवन की पत्रिका में लिखा है कि श्री लोकमान्य तिलक की आत्मा ने उनसे संपर्क किया था और यह संदेश दिया था कि मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए संघर्ष करने वालों को वह सहायता प्रदान करते रहेंगे। दैवी सत्तायें, ऋषि आत्मायें हमें पग-पग पर प्रेरणा प्रदान करने और सहायता देने को तत्पर हैं, परंतु वे मदद कर सकें, इसके लिए भावनात्मक अनुकूलता अपेक्षित है। आवश्यकता उनके प्रति कृतज्ञता और श्रद्धा का भाव रखने और जीवन को पवित्र बनाने की है।