Magazine - Year 1996 - Version 2
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Language: HINDI
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अंतःकरण ही वास्तविक भाग्य विधाता
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आधुनिक तकनीकी युग में व्यक्ति के मानसिक-बौद्धिक स्तर का विकास तो हुआ है, पर अंतःकरण के गई-गुजरी स्थिति में पड़े रहने के कारण व अनेकानेक प्रकार की समस्याओं में उलझा असहाय-अपंगों की तरह बेचैन दिखाई पड़ता है। जबकि मानवी अंतराल में शक्तियों का विपुल भाँडागार भर पड़ा है, पर मानसिक दुर्बलताओं के फलस्वरूप वह आत्मानुभव तथा अतिमानवी क्षमताओं का विकास नहीं कर पाता परिणाम स्वरूप तृप्ति, तुष्टि और शांति से वंचित रहता है। आत्मोत्कर्ष की उपलब्धि एवं वंचित रहता है। आत्मोत्कर्ष की उपलब्धि एवं आत्मिक क्षुधा की निवृत्ति के लिए ही ऋषि मनीषियों ने विविध विधि योग साधनाओं और तपश्चर्या का आविष्कार किया और परामर्श दिया है। कि अंतःकरण की भाव संवेदना को -उत्कृष्टता को जगाया-बढ़ाया जाय, कारण की गहराई में ही विद्यमान हैं। नगर से नारायण बनने का उद्गम स्थल यही है। ऋद्धि सिद्धियों के भंडार इसी की तिजोरी में बंद है। इसे ही विकसित करने का प्रयत्न किया जान चाहिए।
यों तो व्यक्तित्व के विकास में कई तथ्यों का समावेश रहता है। इनमें एक शरीर में जीवनी शक्ति का प्रकटीकरण भी है। जिससे वह हृष्ट-पुष्ट सुडौल-निरोग एवं सुन्दर आकर्षक बना रहे। आशा और उमंग मन में भरी रहे। उत्साह और साहस का स्वभाव में समावेश हो, हँसने-मुस्कराने की आदत हो तो व्यक्ति की आकृति-प्रकृति में उच्चस्तरीय आकर्षण का विकास होता है, भले ही उसकी बनावट में कुरूपता ही बाहुल्य क्यों न हों। भोले-भाले, सज्जन और चरित्रवान व्यक्ति की भाव भंगिमा, शिष्टता एवं कार्य-पद्धति को देखते ही यह ता लग सके कि वह कितने पानी में है।
अपने को प्रतिभावान बनाने के लिए शरीर और मन को इस प्रकार ढाला जाना चाहिए कि वह सौंदर्य, सज्जा, शिक्षा, कौशल, आदि के अभाव में भी अपनी विशिष्टता का परिचय दे सके। इसमें आदर्शवादी अवलंबनों को ग्रहण करना ही अधिक प्रतिभा को विकसित करने की भूमिका निभाता है।
शालीनता व्यक्तित्व को वजनदार बनाने की दूसरी शर्त है। इसी सत्प्रवृत्ति को सज्जनता शिष्टता, सभ्यता, सुसंस्कारिता आदि नामों से पुकारते हैं। यह गुण, कर्म, स्वभाव में रहती गहराई तक घुली रहती है कि किसी के पास कुछ समय बैठने उसे सुनने-समझने का अवसर मिलने, निकट से रहन-सहन का अवसर मिलने, निकट से रहन-सहन और स्वभाव व्यवहार पर थोड़ी सी दृष्टि डालने भर से पता चल जाता है कि बचकानापन किस मात्रा में घट गया और वजनदार व्यक्तियों में पायी जाने वाली विशेषताओं का कितना उद्भव-समावेश हो गया ।
व्यक्तित्व विकास की सबसे महत्वपूर्ण परत अपना अंतःकरण है। इसी महत्ता को पाश्चात्य मनीषियों जुँग ने अंतःकरण की ऊर्जा ‘लिविडो’ की महत्ता समझने-समझाने का भरपूर प्रयत्न-प्रतिपादित किया है। वे कहते हैं “कि न जाने क्यों यह तथ्य बुद्धिमानों के गले नहीं उतरता कि वे मस्तिष्कीय चमत्कारों की तुलना में कही अधिक विभूतियाँ अंतःकरण चीज की कमी नहीं रहेगी और तब अपने पराये का भेद भी समाप्त हो जायगा।”
अंतःकरण के व्यापक विकास में किन−किन साधनों की आवश्यकता पड़ेगी क्या साधन जुटाने पड़ेंगे यह सोचते समय का ध्यान रखना होगा कि श्रमिक क्षेत्र की सबसे बड़ी प्यास उस घनिष्ठता आत्मीयता की होती है, जिसे व्यवहार में सद्भाव संपन्न मैत्री कहते हैं, पुरातन भाषा में इसी का अमृत कहते थे। अंतरंग प्रेम की ईश्वर भक्ति और बहिरंग प्रेम की उदार सेवा साधना कहा जाता रहा है। बहिरंग प्रेम पारिवारिक और सामाजिक जीवन में उगाया-बढ़ाया जाता है तो ईश्वर भक्ति अर्थात् अंतःकरण के विकास के लिए अध्यात्म परक साधना उपचारों का सहारा लिया जाता है।
महर्षि अरविंद कहते हैं। कि सामान्य मनुष्य का व्यक्ति अनेकों जाल-जंजालों से बना हुआ अच्छा खासा तमाशा होता है। उसमें कुसंस्कारों, निकृष्ट अभिलाषाओं और उफनते उद्वेगों की भरमार होती है। ऐसे लोगों के लिए न तो एकाग्र होते बन पड़ता है और उफनते उद्वेगों की भरमार होती है। ऐसे लोगों के लिए न तो एकाग्र होते बन पड़ता है और न अंतर्मुखी होने की स्थिति आती है। ऐसे लोग वस्तुओं की माँग, परिस्थितियों की शिकायत और साथियों पर आक्षेप करते करते ही दिन गुजारते हैं। उन्हें यह सूझता ही नहीं कि अंतराल में विकृति भर जाने से ही अनेकानेक विपन्नताएं उत्पन्न होती हैं। इस विषम स्थिति से छूटना कठिन नहीं है। मकड़ी विषम स्थिति से छूटना कठिन नहीं है। मकड़ी की तरह स्वयं अपने हाथों बुने जाले का समेटने का साहस किया जा सके तो मुक्ति का आनंद ले सकना हर स्थिति के व्यक्ति को भी सरल हो सकता है।
मनःशास्त्री भी अब इस निष्कर्ष पर पहुँचे है। कि व्यक्तित्व की उत्कृष्टता-निकृष्टता का केंद्रबिंदु मनुष्य के अंतराल का स्तर ही है। मनः संस्थान के इस सबसे गहरी-अंतिम परत को ‘सुपरचेतन’ कहा गया है। ‘सुपर’ इसलिए कि उसकी मूल प्रवृत्ति मात्र उत्कृष्टता से ही भरपूर है। उसे यदि अपने वास्तविक स्वरूप में रहने दिया जाय, अवाँछनीयताओं के घेरे में जकड़ा न जाय, तो वहाँ ने अनायास ही ऊँचे उठने-आगे बढ़ने की ऐसी प्रेरणा मिलेगी जिन्हें आदर्श वादी उच्चस्तरीय ही देखा जा सके। प्रकाराँज येतन को ईश्वर के समतुल्य ही माना जा सकता है । वेदांत दर्शन में सगमाय