Magazine - Year 1997 - Version 2
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Language: HINDI
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पुष्पों की निर्मम बलि रोकिए
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भारतीयों संस्कृति में पुष्पों का बड़ा महत्व बताया गया है। खिले हुए फूल उल्लास के प्रतीक रूप में अपनी आराध्यसत्ता को समर्पित किए जाते हैं। पुष्प या पुष्पदल के समर्पण के पीछे मूल भाव यहीं रहता है कि हम भी इन्हीं की तरह बने। हम भी सुगन्धि बाँटे, पराग कणों की विस्तृतीकरण प्रक्रिया द्वारा हमारी प्रतिभा-पुरुषार्थ बहुगुणित होकर अनेकों तक पहुँचे-अनेकों पुष्पों में बदल जाय। स्वागत-सत्कार की परम्परा में भी हमारे यहाँ अतिथिगणों को पुष्पमाला, पुष्प गुच्छक, बुके या गुलदस्ते द्वारा अपने स्नेह व सम्मान का प्रदर्शन किया जाता है। यही नहीं उल्लास के प्रतीक के अतिरिक्त शोक या अवसाद प्रकट करने के लिए भी बड़े-बड़े पुष्पों से सजे बुके जो अनेकानेक आकारों के रूप में होते हैं, मृत शरीर पर अथवा उनकी अन्त्येष्टि पर समर्पित किए जाते हैं।
पुष्पों का महत्व अपनी जगह है, रहेगा। उनकी बढ़ती माँग के कारण ही तो आज पुष्पोद्यान लगाना (फ्लोरीकल्चर) एक उद्योग के रूप में परिणत होता चला गया है एवं आजीविका का महत्वपूर्ण स्रोत बनता चला गया है। 1990-91 में जहाँ प्रायः साढ़े पाँच करोड़ रुपयों के पुष्पों का निर्यात होता था, वहीं अब 1996-97 में यह लक्ष्य बढ़ाकर 110 करोड़ रुपये कर दिया गया है। विश्व के विभिन्न राष्ट्रों में भारतीय पुष्पों की माँग तेजी से बढ़ती चली जा रही है।
यहाँ तक तो ठीक है कि हम पुष्पोद्यानों में उनकी भाँति-भाँति की प्रजातियाँ विकसित करें एवं निर्यात द्वारा अपनी विदेशी पूँजी के कोष को बढ़ाते चले। किंतु जब हम उनके सर्वनाश पर उतर आते हैं एवं उन्हें व्यर्थ नष्ट कर पर्यावरण एवं जैविक संतुलन से खिलवाड़ करने लगते हैं तो लगता है कि कहीं कोई गड़बड़ी अवश्य है, जिसे रोका जाना चाहिए। हमारे देश में सामाजिक, राजनैतिक एवं धार्मिक परिवेश जिस प्रकार है, पुष्पों का अनावश्यक दुरुपयोग होता देखा जाता है। यह प्रचलन पिछले कुछ वर्षों में तेजी से बढ़ा है। आज कोई भी छोटा या बड़ा गाँव, कस्बे या शहर का समारोह हजारों , पुष्पों की बलि लिए समाप्त नहीं होता। जिन अतिथि महोदय को आमंत्रित किया गया है, उन्हीं के सम्मान में माला पहनाने की होड़ लग जाती है एवं देखते-देखते कई पुष्प बलि चढ़ जाते हैं। यही स्थिति शादी-ब्याह एवं सार्वजनिक समारोहों में की जाने वाली सजावट के दौरान देखी जाती है, जब पैरों तले फूल कुचले देखे जाते हैं। धार्मिक उत्सव समारोहों में भी अनावश्यक रूप से उत्साह अतिरेक में आकर लोग ढेरों फूल नाली में, सरोवरों-सरिताओं में बहा देते हैं। कुछ आँकड़े बड़े चौंक देने वाले है।
भारत की प्रमुख नदियों में प्रति वर्ष लगभग छह हजार टन पुष्पों को प्रवाहित कर न केवल पर्यावरण संतुलन को अव्यवस्थित किया जा रहा हैं, नदियाँ भी प्रदूषित की जा रही हैं क्योंकि ये सभी बासी, सड़ी-गली स्थिति में बहा दिए जाते हैं। इनके अतिरिक्त चार हजार टन फूल प्रतिवर्ष राजनैतिक-सामाजिक कारणों से नष्ट होते चले आ रहे है। पुष्पों से जुड़ा एक समुदाय मधुमक्खियों का भी है, जो परागण द्वारा बहुमूल्य औषधि ‘मधा’ का निर्माण ही नहीं करती अपितु पुष्पों की प्रजातियाँ बढ़ाने, उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। वर्तमान में भारतवर्ष में बीस हजार प्रजाति की मधुमक्खियाँ हैं, जो पुष्पों के अनैतिक स्तर पर किये जा रहे दोहन के कारण निरन्तर घटती जा रही है। एक मधुमक्खी एक ग्राम शहद बनाने के लिए लगभग पाँच हजार विभिन्न प्रकार के पुष्पों का रसास्वादन करती है। आज हो रही पुष्प बलि से प्रतिदिन 13000 किलोग्राम शहद की हानि हो रही है, जिसकी लागत लगभग 20 लाख रुपया प्रतिदिन कूती जाती है।
दो लाख हेक्टेयर भूमि में आज पुष्प मात्र ‘बल्क उत्पादन’ के लिए लगाए जा रहे है। अत्यधिक उपयोगी पोषक-हरी सब्जियाँ तथा अनाज पैदा करने वाला भू-क्षेत्र घटता जा रहा है। तुरन्त का लाभ चूंकि दिखाई देता है- अतः इस कीमत पर भी पुष्पों की खेती बढ़ती ही जा रही है। उन्हें असमय तोड़कर जैवविविधजा से तथा पर्यावरण संतुलन से छेड़खानी की जा रही है। यदि यह कार्य बंजर पड़ी भूमि (जो लगभग 40 लाख हेक्टेयर से भी ज्यादा है ) पर किया जाता तो शायद उस भूमि का भी उद्धार हो जाता । किन्तु यह उत्पादक उर्वर भूमि पर हो रहा है। क्या किया जाय, उसके लिए कैसे जन-जाग्रति पैदा की जाय, यह प्रश्न कुछ के मन-मस्तिष्क में एक आँदोलन के रूप में पिछले कुछ दिनों से जनम ले रहा है। उनमें से एक टेहरी गढ़वाल के नागानी शासकीय महाविद्यालय के बायोलॉजी लेक्चरर श्रीरायजादा है, जिनने इस पुष्प बलि अभियान के लिए भारत भर में अलख जगाने हेतु यात्रा की है। वे चाहते है कि ‘पुष्पमित्र’ अधिक से अधिक संख्या में बढ़े एवं पुष्प बलि के खिलाफ संघर्ष करें। एक राष्ट्रीय पुष्प नीति बने ताकि पर्यावरण संरक्षण भी सम्भव हो सके, पुष्पों की प्रजातियों-मधुमक्खियों का सर्वनाश भी रोका जा सके। ‘एक व्यक्ति को एक पुष्प’ वह भी गमले में अर्पित करके दिया जाय, ताकि स्वागत की परम्परा भी निभ जाय व उसका संरक्षण भी सम्भव हो । कटे हुए पुष्पों का प्रयोग कम से कम किया जाय एवं धार्मिक समारोहों में भी यथासम्भव कम से कम पुष्पों का प्रयोग हो।
आगामी 1 जून को विश्व पर्यावरण दिवस है। इस सम्बन्ध में जो भी कार्य एक व्यक्ति एक संस्था के रूप में कर रहा है। , उसके समर्थक तर्क बड़े सशक्त एवं हिला देने वाले है। पुष्प प्रजातियाँ भी हमारे विश्वराष्ट्र इकोसिसटम का एक अंग है। वे हमें वैसा ही उल्लास बाँटती रहें एवं हमारा वातावरण प्रदूषित होने से बचे, इस सम्बन्ध में समूह चेतना जगायी जानी चाहिए। ऐसे सत्प्रयासों के लिए जनसमर्थन भी मिले, , ऐसा गायत्री परिवार का भी मत है। पुष्प जिन्दा रहेंगे, अपने विशुद्ध स्वाभाविक रूप में मौजूद होंगे तो वे उल्लास भी बांटेंगे, मधु भी हमें मिलता रहेगा एवं हमारी नदियाँ तो प्रदूषित होने से बचेगी ही, प्रकृति के अंग-अवयव ये फूल प्रदूषण निवारण के साथ-साथ इस धारा का सौंदर्य और बढ़ाते रहेंगे। मात्र जनचेतना के जागने भर की आवश्यकता है।