Magazine - Year 1998 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रेम अमृत है तो मोह विष
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मोटी बुद्धि प्रेम और मोह को एक मानती है, जबकि उनमें जमीन-आसमान जितना अंतर है। व्यक्तियों अथवा वस्तुओं के प्रति इतनी अधिक आसक्ति का होना उन्हें पाने अथवा कब्जे में रखे रहने के लिए, कुछ भी करने पर उतारू रहा जाये मोह है। व्यक्तिगत रुचि, रुझान, आकर्षक अथवा उपयोग की दृष्टि से किन्हीं पदार्थ एवं व्यक्तियों के साथ घनिष्ठता स्थापित हो जाती है और वह इतनी सघन हो जाती है कि विछोह की बात सोचने से कष्ट होता है। मोह यह चाहता है कि प्रिय वस्तु का साथ छूटने न पाये चाहे इसके लिए अपना अथवा प्रियपात्र का कितना ही अधिक क्यों न होता हो। यह मोह भी मोटी बुद्धि को प्रेम ही लगता है और इसी शब्द से अशक्ति का उल्लेख भी किया जाता है, पर वास्तविकता सर्वथा इससे भिन्न होती है।
चूँकि एक आदर्श है। इसलिए उसकी घनिष्ठता-एकात्मता आदर्श के साथ ही जुड़ी रहेगी। जहाँ आदर्श न हो वहाँ प्रेम का अस्तित्व रह ही नहीं सकता। व्यक्तिगत मोह किसी के रंग, रूप और व्यवहार उपयोग एवं आकर्षण के आधार पर पनपता है। जो रुचिकर लगा उसी के प्रति आकर्षण बढ़ गया। जिसकी समीपता में सुखद कल्पना कर ली गयी, उसी के पीछे मन चलने लगा। यह आसक्ति किसी को देखने मात्र से पनप सकती है और उसके घनिष्ठ सान्निध्य की आतुरता उन्माद बनकर कुछ भी कर गुजर सकती है। प्रेम के नाम पर ऐसी ही दुर्घटनाएँ आये दिन होती रहती है। इनका परिणाम वैसा ही होता है जैसा नशा उतरने पर पैसा, समय और खुमारी गँवाकर असहाय, अशक्त बने हुए शराबी का। इस प्रेमोन्माद में कभी किसी को शान्ति दायक परिणाम हाथ नहीं लगा है। यह जुआ खेलने वालों को सदा हार ही हाथ लगती रही है।
प्रेम न तो आकस्मिक होता है आर न अकारण। उसके पीछे ऐसे तथ्य होते हैं जो आदर्शवादिता की पृष्ठभूमि पर ही उदय हो सकते हैं। उसमें रंग रूप की, आकर्षक व्यक्तित्व की आवश्यकता नहीं पड़ती वरन् यह परख रहती है कि प्रियपात्र कितना आदर्शवादी है उसमें सज्जनता कर्तव्यनिष्ठा, उदारता, सहृदयता जैसे सद्गुणों की कितनी मात्रा है। जहाँ विभूतियों के प्रति आकर्षण होगा वहाँ मैत्री केवल सद्भावसम्पन्न सच्चरित्र व्यक्ति से ही बन पड़ेगी और तब तक यथावत बनी रहेगी जब तक उन सद्गुणों का अस्तित्व अक्षुण्ण रह सके।
मोह में गुणों की अपेक्षा नहीं रहती। शारीरिक आकर्षण ही इसके लिए पर्याप्त है। कुरूप से अरूप वाले की मनुहार जहाँ हो रही हो वहाँ मोह के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। ऐसा आदर्श रहित आकर्षण सर्वथा अस्थिर रहता है। उसमें अधिक गहरे नशे की प्यास रहती है। अपनी कुरूप पत्नी के प्रति रुखाई धारण करके जो रूपवान प्रेयसी के पीछे लगा फिरता है, उसके सम्बन्ध में यह विश्वास नहीं किया जा सकता कि वह उस प्रेयसी के प्रति भी अपनी अनुरक्ति देर तक बनाये रह सकेगा। नवीनता का अधिक गहरे नशे का आकर्षण उसे फिर कहीं से कहीं ले भागेगा। दूसरे के बाद तीसरी, तीसरी के बाद चौथी प्रेयसी तलाश करने की कभी न बुझने वाली अतृप्ति इन मोहग्रस्तों में सदा ही बनी रहेगी। वे किसी के भी सगे न बन सकेंगे।
सरल लोभी भ्रमर और पराग प्रेमी मधुमक्खियाँ एक फूल को चूसकर दूसरे पर जा बैठती है। तितलियों को एक फूल पर बैठे रहने से संतोष नहीं होता, उन्हें क्षण क्षण नवीनता चाहिए। प्रेम जहाँ होगा वहाँ यह अस्थिर उन्माद कभी भी दृष्टिगोचर न होगा। जहाँ आस्थाएँ काम कर रही होंगी, तो विश्वास दे सकने और पा सकने की स्थिति बनेगी।
आजीवन मैत्री निर्वाह का आधार वही तो बनेगा। प्रेम-धर्म निबाहना केवल सूरवीरों का काम है- उसके लिए बहुत चौड़ा दिल चाहिए। मोहग्रस्त लोभीजन उसका निर्वाह कर सके, यह सम्भव नहीं हो सकता।
मोहग्रस्त मनः स्थिति में भौतिक अनुदान, उपहार देने या पाने की प्रवृत्ति रहती है। यदि इस स्तर की प्रेम विडम्बना नर नारी के बीच चल रही होगी, तो उनमें यौन-लिप्सा की आतुर माँग होगी। भले ही प्रियपात्र का गृहस्थ भविष्य एवं स्तर पतन के गर्त में गिरता हो तो गिरे। उन्माद की पूर्ति किसी भी कीमत पर होनी चाहिए। आवेश यह मोह ही प्रेम जैसा लगता है और उस आतुर मनःस्थिति में पड़े हुए उन्मादी अपने आपको प्रेमी कहने लगते हैं, जबकि यह आचरण प्रेम के तत्त्वदर्शन की सीमा को छू भी नहीं रहा होता।
विशुद्ध प्रेम व्यक्तियों के बीच आदर्शवादी विशेषताओं के कारण होता और पनपता है। वास्तविक सौंदर्य शरीर का नहीं, आत्मा का होता है। वह आकृति को देखकर ठिठकता नहीं, वरन् गहराई में प्रवेश करके प्रकृति के मर्मस्थल तक चला जाता है। ऐसे व्यक्ति शारीरिक आकर्षण को तनिक भी महत्व नहीं देते। उनके लिए काली कुरूप आकृति में कोई न्यूनता दिखाई नहीं पड़ती जिसकी तुलना में किसी रूप यौवन सम्पन्न को महत्व दिया जा सके। ऊपर चमड़ी के भीतर सर्वत्र रक्त, माँस, अस्थि जैसे घिनौने और दुर्गन्ध युक्त पदार्थ ही तो भरे पड़े हैं। उनमें केवल मूढ़मति ही उलझती है। शरीर-आकर्षण को लेकर आरम्भ हुआ प्रेम संध्याकाल के रंगीले बादलों की तरह देखत-देखते धूमिल होता चला जाता है और फिर कुछ समय बाद उसका कहीं भी पता नहीं चलता।
प्रेम गुणग्राही होता है और वह केवल वहीं जमता है जहाँ व्यक्ति में आदर्शवादी विशेषताएँ परिलक्षित होती है। यह आत्मा की भूख है कि आत्मिक विभूतियों से भरे व्यक्ति सजातीय आकर्षण से प्रभावित होकर उसकी भावनात्मक समीपता चाहे। जड़वादी मोहग्रस्तता के पीछे यौन-लिप्सा का तांडव रहता है। जबकि आत्मवादी प्रेम में केवल सद्भावनात्मक आत्मीयता के आदान प्रदान की माँग रहती है। ऐसे प्रेमीजन यदि नर नारी है तो आजीवन अति पवित्र सम्बन्ध खुशी खुशी बनाये रह सकते हैं। और एक दूसरे के चरित्र को उज्ज्वल सिद्ध करने के लिए अपनी दुर्बलता को सदा-सदा तक काबू रख सकते हैं।
पुरुष और नारी के बीच नारी और नारी के बीच उन्मादी प्रेम सघन नहीं हो सकता, किन्तु निष्ठावान् प्रेम के लिए लिंगभेद जैसी कोई अड़चन नहीं है। दाम्पत्य जीवन में एक दूसरे पर जैसी निर्भरता होती है, एक दूसरे के सान्निध्य में जितना आनन्द प्राप्त होता है, वैसा विश्वस्त और भावभरी स्थिति नारी और नारी के बीच भी रह सकती है। मैत्री और कामुकता दो भिन्न वस्तुऐं हैं। आवश्यक नहीं कि दोनों साथ रहें। कामुकता विहीन मैत्री भी उसी प्रकार निभ सकती है, जिस प्रकार दुनियादार लोगों की मैत्रीविहीन कामुकता का क्रीड़ा प्रायः चलता रहता है।
देवता और असुर भावनात्मक उभार के दो सिरे है। मध्यवर्ती स्थान शांत और संतुलित रहता है। सामान्य मनुष्य हर किसी से मानवोचित सद्व्यवहार करते हैं और अपने कर्तव्य धर्म पर आरूढ़ रहकर मध्यवर्ती गतिविधियाँ चलाते हुए जीवनक्रम पूरा करते हैं। न उन्हें किसी से आध्यात्मिक घनिष्ठता होती है न किसी से रोष, विद्वेष ही सताता है। वे जानते हैं मनुष्यों की पारस्परिक सहिष्णुता और सद्व्यवहार के आधार पर ही गुजर करनी पड़ती है। इसलिए सम्बन्धों का संतुलित निर्वाह करते हुए गुजर करनी चाहिए।
न अति की सीमा तक मैत्री बढ़ानी चाहिए,
न घृणा द्वेष की आग में जलना चाहिए। लोग जैसे भी हैं। बने रहे, हमें अपना कर्तव्य भर पालन करते रहना है, यह मानकर चलते रहना सरल पड़ता है और सुलभ भी है। इस नीति से जिन्दगी आसानी के साथ कट जाती है और सम्बन्धित लोगों के रिश्ते का देर तक ठीक प्रकार निर्वाह होता रहता है।
इसके आगे की भावुक स्थिति को असामान्य या अतिवादी कह सकते है। वह इस छोर पर पहुँचेगी या उस छोर पर। या तो आदर्शवाद व्यक्तियों के साथ सघन होकर उच्चस्तरीय आत्मिक विकास की भूमिका बनाएगी या फिर लोभ और मोह में उलझकर उन्माद जैसी स्थिति उत्पन्न करेगी। उसमें रुझान ही प्रधान रहता है। दुष्ट और दुर्गुण भी प्रिय लगने लगता है, यहाँ तक की उस तथाकथित प्रेमी की प्रसन्नता की लिए स्वयं का भी दुष्कर्मों में सहयोग समर्थन चल पड़ता है। तब प्रियपात्र को आदर्श की ओर ले चलने का उत्साह समाप्त हो जाता है और मित्र को प्रसन्न करने के लिए कुछ भी कर गुजरने को मन रहता है, भले ही वह कर गुजरना कितना ही अनैतिक या अवांछनीय क्यों न हो। यह पतन का अन्तिम छोर है। प्रेम का विकृत स्वरूप कितना विघातक हो सकता है, इसका परिचय इस मोहग्रस्त उन्मादी आवेश की स्थिति वाले वातावरण में कहीं भी देखा जा सकता है।
प्रेम का उज्ज्वल पक्ष ऐसा है जिसमें उस पवित्र सूत्र में बंधे दोनों पक्षों का केवल उत्कर्ष और कल्याण ही होता है। ऐसी मित्रता एक आदर्शवादी अन्तःकरण को दूसरे परिष्कृत व्यक्तित्वों के साथ बाँधती है। एक और एक मिलकर ग्यारह बनने की उक्ति उन पर लागू होती है। उनका भावनात्मक आदान प्रदान परस्पर एक दूसरे को ऊँचा उठाता है और आगे बढ़ाता है। ऐसी मित्रता का आरम्भ सदुद्देश्य के लिए होता है, इसलिए उसका अन्त भी सुखद संतोषजनक ही रहता है। परिस्थितियाँ इन मित्रों को दूर दूर रहने के लिए विवश कर दे तो भी उनकी सद्भावना और घनिष्ठता में कोई अन्तर नहीं आता, जबकि मोहग्रस्त लोग जब तक सामने रहते हैं, तब तक देख देख कर जीने की बात करते हैं, पर जब विलग हो जाते हैं तो कुछ ही समय में उनकी स्थिति अपरिचितों जैसी हो जाती है।
मोह में आदान प्रदान करने की शर्त जुड़ी रहती है। हमने उसके लिए यह किया इसलिए उसने हमारे लिए यह करना चाहा-ऐसा लेखा जोखा जहाँ भी लिया जा रहा होगा, वहाँ लाभ-हानि के आधार पर संतोष अथवा आक्रोश भी व्यक्त किया जा रहा होगा। अपेक्षा पूरी होने पर वह आतुर प्रेम भयंकर प्रतिशोध भी बन जाता है और आज दाँत काटी रोटी वाले मित्र कल जान के ग्राहक बने दिखाई पड़ते हैं। प्रेमोन्माद में यह ज्वार भाटे जैसी उठक पटक स्वाभाविक भी है। सच्चे प्रेम में आँधी तूफान नहीं आते। उसमें एक रस शीतल और सुगंध पवन बहता रहता है। प्रेम देने के लिए किया जाता है लेने के लिए नहीं। झंझट तो तब खड़ा होगा जब लेने की अपेक्षा की जायेगी और वह जो चाहा था सो मिल सकेगा। प्रेम इसी चट्टान से टकराकर नष्ट- भ्रष्ट होता है। अनुदान अपने हाथ की बात है, प्रतिदान दूसरे के हाथ की। प्रतिदान का अभिलाषी मोह है और अनुदान के लिए समुन्नत प्रेम। मोहग्रस्त का पग-पग पर खोज का जलन का, उलाहने का, पश्चाताप का, अनुभव होता है किन्तु जहाँ प्रेम है वहाँ शान्ति स्थिरता और प्रसन्नता की स्थिति कभी परिवर्तन दृष्टिगोचर ही न होगा। ऐसा परिष्कृत प्रेम ही आत्मा की उच्चस्तरीय आवश्यकता है। उसे पाकर मनुष्य इतना आनन्द पाता है, जितना ईश्वर का अपनी गोदी में बिठाकर अथवा स्वयं उनकी गोदी में बैठकर पाया जा सकता है।