Magazine - Year 1998 - Version 2
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Language: HINDI
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युगसंधि महापुरश्चरण साधना वर्ष 4 - प्रतिभा संवर्द्धन का मूल्य भी चुकाया जाय
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गाँधी युग में जो सत्याग्रही उभर कर आए वे स्वतंत्रता सेनानी कहलाये। यशस्वी बने ताम्रपत्र पेन्शन और आवागमन के मुफ्त पास प्राप्त करने के लाभों से गौरवान्वित हुये। जा उनमें वरिष्ठ और विशिष्ट थे। वे देश का शासन का सूत्र संचालन करने वाले मूर्धन्य बने। बापू के संपर्क में रहे नेहरू पटेल जैसे अनेकों रत्न ऐसे है जिनके स्मारकों को नमन किया जाता है। इतिहास के पृष्ठों पर यशोगाथा पढ़कर भाव विभोर हुआ जाता है यह उनकी प्रचण्ड प्रतिभा का ही प्रतिफल था यदि वे संकीर्ण स्वार्थपरायणों की तरह अपने मतलब से ही मतलब रखते तो मात्र कुछ सुख साधनों से मन बहला पाते। प्रकाश स्तम्भ बनने के सुयोग सौभाग्य से तो उन्हें वंचित ही रहना पड़ता। जो उन दिनों कृपणता धारण किये रहे,उन्हें अग्रगामियों के साथ अपनी तुलना करते हुए पश्चाताप ही होता है और माया मिली न राम वाली अपनी मूर्खता पर पश्चाताप ही करते रहते है। पर बीता हुआ समय पुनः लौटता कहाँ है? देर से जागने वाले पर हाथ ही मलते रहते हैं।
बुद्ध गाँधी दयानन्द विवेकानन्द विनोबा जैसों की महान उपलब्धियाँ स्मरण करके हर विचारशील का अन्तःकरण उमगता है कि यदि उन्हें भी ऐसा ही श्रेय मिल सका होता तो कितना अच्छा होता। उस अवसर को गँवाकर वे जिस ललक लिप्सा की पूर्ति का दिवा स्वप्न देखते रहते है उसे भी कौन साकार कर पाता है। मनुष्य बूढ़ा हो जाता है पर तृष्णा मरते समय तक प्रौढ़ ही बनी रहती है। शेख चिल्लियों का समुदाय कुबेर जैसा धनाढ्य और इन्द्र जैसा प्रतापी बनने के सपने देखता रहता है। पर अब निष्कर्ष की वेला में मात्र इतना ही प्रतीत होता है कि कोल्हू के बैल की तरह पिलते और पिसते हुये समय बीत गया श्मशान के भूत पलीत की तरह डरते और डराते रहने के अतिरिक्त और कुछ हाथ न लगा।
भाग्यवान वे है जिनने आदर्शों के साथ अपना रिश्ता जोड़ा। महानता का मार्ग अपनाया और ऐसा कुछ कर दिखाया जिसका अनुकरण करते हुये असंख्यों को गौरव गरिमा का लक्ष्य प्रदान करने वाला ऊर्जा भरा प्रकाश उपलब्ध होता रहे। मूर्खता और बुद्धिमत्ता के लिये इसी चौराहे पर सही निर्णय करने का अवसर है वैसा सुयोग भी इन्हीं दिनों है जिसका लाभ भगीरथ और अर्जुन ने अपनी उदात्त साहसिकता के बदले खरीदा था।
यह युगसंधि का प्रभात पर्व ऐसा है जिसमें महाकाल को प्राणवान प्रतिभाओं की असाधारण आवश्यकता पड़ रही है। दैवी प्रयोजन महामानवों के माध्यम से ही क्रियान्वित होते है। अदृश्य शक्तियाँ तो उनमें प्रेरणा भर भरती है। यह व्यक्ति का स्वतंत्र निर्धारण होता है कि उन्हें अपनाए या ठुकराए कृष्ण ने अर्जुन को कहा था कि दुष्ट कौरव तो पहले से ही मरे पड़े है मैंने उनका पहले ही तेज हरण कर लिया है तुझे तो धर्मयुद्ध में निरत होकर मात्र श्रेय भर अपने गले धारण करना है। वस्तुतः युग की विकृतियों का शमन होना ही है। नवसृजन का ऐसा महायज्ञ जाज्वल्यमान होना है जिससे आगामी लम्बे समय तक सुख शान्ति और प्रगति का वातावरण बना रहे। एकता और समता को मान्यता मिले। ध्वंस का स्थान सृजन ग्रहण करे और चेतन तथा भौतिक शक्तियों का नियोजन मात्र सत्प्रयोजनों के निमित्त होता रहे। इसी उज्ज्वल भविष्य को सतयुग की वापसी नाम दिया गया है अनीति की असुरता का दमन देवताओं की सामूहिक शक्ति संघशक्ति दुर्गा के अवतरण से संभव हुआ था। लगभग उसी पुरातन प्रक्रिया का प्रत्यावर्तन नये सिरे से नये रूप में इन दिनों सम्पन्न होने जा रहे है। उस प्रवाह में सम्मिलित होने वाले सामान्य पत्तों की तरह हल्के होते हुये भी सरिता की धाराओं पर सवार होकर बिना कुछ विशेष प्रयास के ही महानता के महासमुद्र में जो मिलने में सफल हो सकेंगे
अपने काम में किसी से कुछ पाने के लिये कही जाना एक बात है और किसी समर्थ सत्ता द्वारा अपने सहायक के रूप में बुलाया जाने पर वहाँ पहुँचना सर्वथा दूसरी बात है पहली में एक पक्ष की दीनता और दूसरे पक्ष की स्वाभाविक उपेक्षा रहती है पर आमंत्रण देकर बुलाये गये अतिथि को लेने स्टेशन पर माला लेकर पहुँचा और सम्मानपूर्वक ठहराया जाता है उसके वार्तालाप को भी प्रमुखता दी जाती है और ऐसा आधार खड़ा किया जाता है कि आमंत्रित को निमंत्रण का उद्देश्य समझने और उसमें सहभागी बनने की प्रतिक्रिया उत्पन्न हो।महाकाल द्वारा प्रज्ञापरिजनों को भेजे गये आमंत्रण को इसी रूप में देखा समझा जाना चाहिये।
राम स्वयं ऋष्यमूक पर्वत पर गये थे और सुग्रीव हनुमान को सहयोग हेतु सहमत कर लौटे थे। रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानन्द के घर जाकर उन्हें देव संस्कृति के पुनरुद्धार में संलग्न होने के लिये सहमत किया था। अर्जुन को स्वयं भगवान कृष्ण ने समझाने से लेकर धमकाने तक की नीति अपना कर युद्धरत होने के लिये बाधित किया था। समर्थ ओर शिवा के चाणक्य और चन्द्रगुप्त के बीच भी ऐसा ही घटनाक्रम बना था गाँधी ने अपने चुम्बकत्व से उस समय विनोबा ठक्कर बाप व जमनालाल बजाज जवाहर पटेल मौलाना आजाद
जैसा मूर्धन्य आत्माओं को महान प्रयोजन के लिये निरत किया था। साथ ही उन्हें आवश्यक शक्ति और सफलता प्रदान करने के लिये ये भी आवश्यक तारतम्य बिठाया था। जिन्हें पारंगत दृष्टि प्राप्त है वे देख सकते है कि महाकाल ने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुये प्राणवानों के सामने गिड़गिड़ाने का उपक्रम नहीं किया है वरन् सुनिश्चित संभावना में भागीदार बनकर अजस्र सौभाग्य प्रदान करने के लिए चुना है। इस भगीरथ की तरह बरसने वाले वरदान की उपेक्षा अवमानना करना किन्हीं अदूरदर्शी हतभागियों से बन पड़ेगा। लोभ मोह के बन्धन तो अनादि और अनन्त हैं। उनके कुचक्र में फँसे ओर बंधे रहने के लिए तो हीन स्तर के प्राणी भी स्वतंत्र है फिर मनुष्य अपनी गरिमा भरे भविष्य को यदि उसी तुच्छता पर तैयार करने का हठ करे तो उसे किस प्रकार समझदारों की पंक्ति में बिठाया जा सकेगा।
व्यक्ति और समाज अब इस कदर गुँथ गये है कि दोनों का पारस्परिक तालमेल पानी और मछली जैसा अविच्छिन्न हो गया है। कोई निजी उन्नति से निजी सुविधा सम्पादन भर से सुखी नहीं रह सकता। सम्बद्ध वातावरण यदि विपन्न है तो किसी सज्जन की भी शाँति सुरक्षित नहीं रह सकती। एक घर में अग्निकांड होने पर पड़ोस तथा गाँव मोहल्ले के सभी धर विशेष तक सीमित नहीं रहती। गुण्डागर्दी एक जगह पनपेगी तो समूचे क्षेत्र में विग्रह खड़ा करने का निमित्त कारण बनेगी। बढ़ी हुई जनसंख्या और आधुनिक प्रगति के फलस्वरूप अब निजी जीवन को सही बना लेने भर से काम चलने वाला है नहीं इसलिये जनमानस के गिरे हुये स्तर को उभारना प्रकारान्तर से अपनी और अपने परिकर की सुरक्षा करना है। इन दिनों सामूहिकता एक प्रकार से और अनिवार्य हो गयी है। अपने मतलब से मतलब रखने की नीति अपनाने वाले यह नहीं समझते कि गूलर के एक फल पर आँच आने पर उसके भीतर रहने वाले सभी भुनगे अपनी जान गँवा बैठते है। समुन्नत समाज के घटक ही संव्याप्त वातावरण से प्रभावित होते और सुखी रहते है।
प्रतिभा सम्पादन के लिये विशेषतया उच्चस्तरीय वातावरण में रहना उत्कृष्ट सोचना और आदर्शवादी क्रिया–कलापों में निरत रहना चाहिये। निजी सुधार एवं अभ्युदय भी इसके बिना नहीं हो सकता। अपना स्थिति लोकसेवी उदारचेता और सद्गुणी रखे बिना किसी को शारीरिक बनावट मात्र से प्रभावशाली होने का अवसर नहीं मिल सकता। सद्गुणों का बाहुल्य एवं अभ्यास ही किसी को इस योग्य बनाता है कि वह अन्यायों का सम्मान एवं सहयोग अर्जित कर सके। इसी सफलता के आधार पर किसी की प्रतिभा और गरिमा का वास्तविक मूल्याँकन हो सकता है।
आवश्यक है कि संकीर्ण स्वार्थपरता की पूर्ति में ही अपनी समूची क्षमताएँ न खपा दी जाए। इसमें जितना लाभ दिखाई पड़ता है उसकी तुलना में घाटा अधिक हैं व्यापक स्तर का सर्वजनीन स्वार्थ ही परमार्थ है। परमार्थपरायण अपना निज का हितसाधन तो निश्चित रूप से करते है साथ ही चन्दन वृक्ष की तरह निकटवर्ती लोगों को भी गरिमा प्रदान करते है प्रतिभा सम्पादन के लिये जिस पाठशाला में पढ़े बिना काम नहीं चलता वह है सेवा साधना
पिछड़े और पीड़ितों की प्रत्यक्ष सहायता भर से अनेक लोग संतुष्ट हो जाते है। वे यह नहीं सोचते कि दृष्टिकोण और चरित्र का घटियापन ही समस्त अभावों और संकटों का प्रमुख कारण है। जिन्हें सेवाधर्म अपनाना हो और वस्तुस्थिति की गहराई तक जाना हो उन्हें लोकमानस के परिष्कार के सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन के लिये अपनी सामर्थ्य भर प्रयत्न करना चाहिये। ऐसे सेवाभावी जहाँ पुण्य परमार्थ से जुड़ी हुई अनेकानेक उपलब्धियाँ हस्तगत करते है वहाँ सुनिश्चित रूप से प्रतिभा परिवर्धन में भी सफल होते है कहना न होगा कि उच्चस्तरीय सेवा साधना में दो ही तत्व प्रमुख है एक सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन दूसरा दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन। इन दो
प्रयासों को अपनाने के लिये अपने समय और साधनों का एक नियमित अंश निरन्तर नियोजित करते रहने का महत्व समझा जाना चाहिये।
इस योगदान को नित्य कर्म में सम्मिलित करना चाहिये। शारीरिक स्थिरता के लिये भोजन जुटाना और निकलने वाले मलों की सफाई करते रहना आवश्यक है। उसी प्रकार चेतना में उत्कृष्टता भरने के लिये लोकमंगल का वातावरण बनाने के लिये सदाशयता बढ़ाने और अवांछनीयता हटाने के लिये तत्परता का परिचय देना चाहिये। इसके लिये समयदान और अंश दान की न्यून मर्यादा निश्चित करनी ही चाहिये और जो व्रत धारण किया है उसका निर्वाह करते रहने हेतु अपनी श्रद्धा निष्ठा एवं मनस्विता का परिचय देना चाहिये। इसे प्रतिभा परिवर्धन की अनिवार्य फीस मानकर चलना चाहिये।
युग की प्रबलतम माँग को देखते हुये इस संदर्भ में दो निर्धारण आरंभ में अपनाये गये है बाद में बहुत कुछ करना होगा पर प्रथम चरण में उदारचेता सज्जनों को खोजना उन्हें एक सूत्र में पिरोना साथ ही उन्हें भी सत्प्रयोजनों लगाये रहना इसी प्रक्रिया को सतयुग की वापसी नाम दिया गया है प्रचलित अनेकानेक अवांछनीयताओं में जिसे हटाने को प्राथमिकता दी गई है उसका नाम है विवाह विकृतियों का उन्मूलन।
यह दोनों देखने में साधारण कार्य प्रतीत होते है पर वस्तुतः इन दोनों के साथ इतनी बड़ी संभावनाएँ जुड़ी हुई है कि उनके फलित होने पर प्रयासरत व्यक्तियों का निजी गौरव ही नहीं बढ़ेगा वरन् समूचे समाज का अतिशय कल्याण भी होगा।ऐसा कल्याण जिसे युगपरिवर्तन अथवा वातावरण का कायाकल्प होने जैसा प्रत्यक्ष देखा जा सके।