Magazine - Year 1998 - Version 2
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Language: HINDI
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अपरिमित शक्तियों के भाण्डागार अपने अन्तरंग को जानिए तो
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मन को ही योगशास्त्रों में बन्धन और मुक्ति का कारण बताया गया है। इसकी क्षमता का आकलन नहीं किया जा सकता। इसकी तुलना में आज तक इतनी तीव्र गति से दौड़ने वाली कोई मशीन ईजाद नहीं हुई है। यदि मन को परिष्कृत कर उसे वश में किया जा सके-नियंत्रित किया जा सके, तो मनुष्य हजारों मील दूर बैठे हुए किन्हीं दो व्यक्तियों की बातचीत को ऐसे सुन सकता है जैसे वह अपनी बगल में बैठ बातचीत कर रहे हैं। वे ऐसे दिखाई देने लगते हैं, जैसे अपनी उनसे एक फुट की भी दूरी नहीं है। यही नहीं हजारों मील दूर बैठे हुए व्यक्ति के मन की भी बातें जानी जा सकती हैं कि उसके मन में इस समय क्या हलचलें चल रही हैं। इसी तरह प्रकृति के गर्भ में चल रही उठा-पटक को भी स्पष्ट रूप से देखा समझा जा सकता है और यह जाना जा सकता है कि भविष्य में क्या खिचड़ी पकने वाली है। दिव्यदर्शन, दूरदर्शन, दूरश्रवण आदि कई सिद्धियाँ - अतींद्रिय क्षमताएँ निग्रहित मन की ही देन होती हैं। महर्षि पतंजलि ने योग का लक्षण बताते हुए कहा है - “योगश्चित्तवृत्ति निरोधः” अर्थात् चित्त की वृत्तियों को रोक रहना योग है। मन को वशवर्ती बना लेने वाला योगसिद्ध पुरुष ब्रह्मप्राप्ति का वह अनिवर्चनीय सुख प्राप्त कर सकता है, जिसको पाने के बाद दुनिया के समस्त सुख-साधन तुच्छ जान पड़ते है, सारहीन दिखाई देने लगते हैं।
योग कुण्डल्योपनिषद् में ब्रह्माजी ने योगविद्या का प्राकट्य किया है। द्वितीय अध्याय की प्रथम पाँच ऋचाओं में उन्होंने मन को ही ईश्वरप्राप्ति का मुख्य साधन बताते हुए कहा है - मनुष्य कामनाओं से ग्रसित होकर विषयाकाँक्षी होता है। विषय में पड़कर कामनाएँ घटती नहीं, अपितु बढ़ती ही रहती हैं। इस तरह से मन की शक्ति विश्रृंखलित होती और केवल भौतिक-लौकिक कार्यों में ही नष्ट होती रहती हैं। इसलिए शुद्ध परमात्मभाव की प्राप्ति के लिए विषय और कामना - दोनों का त्याग करना और आत्मा में ध्यान लगाना आवश्यक है। जो अपने हित की कल्याण की इच्छा रखता है, उसे विषय-वासनाओं में इस शक्ति को नष्ट नहीं करना चाहिए और शक्ति में प्रवेश कर उसी में स्थित रहना चाहिए। मन द्वारा मन को देखकर और समझ कर उसका त्याग करना ही परमपद है। उत्पत्ति और स्थिति का प्रधान बिन्दु मन ही है। आगे के मंत्रों में मन द्वारा षट्चक्रों के बेधन का विस्तृत विधान भी मिलता है। ‘पंचकोशी साधना’ इसे ही कहते हैं। इसके लाभ अनन्त हैं, पर पूर्व में मनोनिग्रह और उस शक्ति को आत्मा में नियोजित करना अत्यावश्यक है।
मानव -मन की अद्भुत और अविश्वनीय शक्तियाँ कई प्रकार से सिद्ध हो चुकी है। मन में वह क्षमता है कि मात्र कल्पनाशक्ति से समय और अन्तरिक्ष पर विजय प्राप्त कर चेतन को अचेतन से पृथक कर सकता है।
रैबी एलिजा नामक लिथुयानिया निवासी एक व्यक्ति के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उसे विचित्र मानसिक क्षमता प्राप्त थी, पर उस पर उसका नियंत्रण न होने के कारण वह शक्ति भी जीवन में कुछ काम न आयी। उसने अपने जीवन में दो हजार से अधिक पुस्तकों को एक बार पढ़कर याद कर लिया था। कोई भी पुस्तक, लेकर किसी भी पन्ने को खोलकर पूछने पर वह उसके एक-एक अक्षर को दोहरा देता था। उसका मस्तिष्क सदैव क्रियाशील रहता था, इसलिए पुस्तकालय के बाद भी उसे अपने हाथ में पुस्तक रखनी पड़ती थी। दूसरे कार्यों से चित हटते ही वह पुस्तक पढ़ने लगे जाता था।
इसी तरह प्रशा में जर्मनी के राजा की एक लाइब्रेरी थी जिसका लाइब्रेरियन था मैथुरिन बेसिरे। बेसिरे की आवाज सम्बन्धी याददाश्त विलक्षण थी। वह जिस किसी भी व्यक्ति को शब्दोच्चार को एक बार सुन लेता था, उसे अक्षरशः ज्यों-के-त्यों उसी की शब्दावली में दोहरा देता था। एक बार उसकी परीक्षा के लिए बारह देशों के राजदूत पहुँचे और उन्होंने अपनी भाषा में बारह वाक्य कहे। जब वे चुप हो गये तो बेसिरे ने बारहों भाषाओं के सभी वाक्य ज्यों-के-त्यों दोहरा दिए। वह एक बार में ही कई व्यक्तियों की आवाज सुनता रहता था और आश्चर्य यह था कि सबकी बात उसे अक्षरशः याद हो जाती थी। ऐसी ही विलक्षण प्रतिभा फ्राँस के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ लिआन गैम्बाटा और रिचार्ड पोरसन नामक ग्रीक विद्वान को भी उपलब्ध थी।
अमेरिका के अलबामा राज्य के गाड्स डेन नगर के पास एक गाँव में रहने वाले फ्रैंकरेन्स नामक दसवीं कक्षा के एक छात्र की विलक्षण प्रतिभा को देखकर बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी हैरान थे। उसकी विशेषता यह थी कि वह अपने साथी के कुछ भी बोलने के साथ ही हू-ब-हू वही शब्द उसी लहजे में और बिना एक क्षण का विलम्ब किये उसके अक्षरों - से - अक्षरों की ताल बैठाते हुए मानों उसके मन में भी उस समय वहीं भाव उठ रहे हों, जो वह दूसरा साथी व्यक्त कर रहा था, बोलने लगता था।
उक्त घटनाओं को देखते हुए भारतीय लोग दर्शन की ओर सहज ही ध्यान आकर्षित हो जाता है और मानना पड़ता है कि ‘मन’- जो कि एक व्यापक शक्ति है, यदि उसे एकाग्र किया और उस पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सके तो मनुष्य इस तरह की न जाने कितनी ही अतीन्द्रिय क्षमताएँ अपने आप में विकसित कर सकता है, जो दूसरों को चमत्कार-सी लगें। दूसरों के मन की बात तत्काल जान लेना भी उसका लाभ है - इसका रहस्य समझाते हुए योग - वशिष्ठ ४-२१-५६-५७ में महर्षि वशिष्ठ कहते हैं -
दृढ़भावनया चेतो यद्यथा भावयत्यलम्।
तत्तफंल तदाकरं तावत्कार्ल प्रपश्यति॥
अर्थात् हे राजन! यह मन दृढ़ भावना वाला होकर जैसी कल्पना करता है, उसको उसी आकार में उतने समय तक और उसी प्रकार का फल देने वाला अनुभव होता है।
फ्रैंकरेन्स नामक जिस छात्र का ऊपर की पंक्तियों में वर्णन किया गया है, उसने न तो कोई योगाभ्यास किया था और न ही उसे मन की एकाग्रता के भारतीय तत्त्वदर्शन का ही ज्ञान था, परन्तु उसे जो कुछ प्राप्त हुआ, उसे पूर्व जन्मों की साधना का संस्कार ही कहा जा सकता है। पर यह एक बात निर्विवाद है कि सन् सत्तर के दशक में वह अपनी मानसिक एकाग्रता और स्मरणशक्ति के लिख विख्यात रहा है। एक बार किसी दर्शक ने कह दिया कि रेन्स बोलने वालों के होठों की हरकत से बोले जाने वाले शब्द का अनुमान करके उच्चारण करता है। यद्यपि वह बोलने वाले के इतना साथ-साथ बोलता है कि अनुमान की कल्पना ही नहीं की जा सकती, फिर भी उसने तब से अपना मुँह उल्टी दिशा में करके बोलना प्रारम्भ कर दिया। अतीन्द्रिय क्षमताओं की जाँच करने वाले कई विशेषज्ञ और मनोवैज्ञानिक उसका परीक्षण करने के उपरान्त भी यह निष्कर्ष नहीं निकाल पाये कि इसका रहस्य क्या है। स्वयं फ्रैंक रेन्स भी यह नहीं जानता था कि उसकी दृढ़ एकाग्रता का कारण क्या है?
निग्रहित मन की क्षमता असीम है। एक बार स्वामी विवेकानन्द हैदराबाद गये। वहाँ एक ब्राह्मण रहता था, जिसके सम्बन्ध में उन्होंने सुना था कि वह व्यक्ति न जाने कहाँ से अनेक वस्तुएँ उत्पन्न कर देता है। वह उच्च खानदान का और शहर का नामी व्यापारी था। विवेकानन्द उसके पास गये और अपने चमत्कार दिखाने को कहा। उन दिनों वह बीमार था। उसने एक शर्त रखी कि अगर पहले आप हमारे सिर पर हाथ रख देंगे तो हमारा बुखार दूर हो जाएगा और तब मैं चमत्कार दिखा सकूँगा। स्वामीजी ने शर्त स्वीकार कर ली।
उस व्यक्ति ने अपना मात्र अधोवस्त्र को छोड़कर सभी कपड़े उतार दिये। अब उसे केवल एक कम्बल ओढ़ने को दिया गया। शीत के दिन थे और भी अनेक लोग एकत्र हो गये। उसने कम्बल ओढ़ा और एक कोने में बैठ गया।
इसके बाद उसने कहा - आप लोगों को जो कुछ चाहिए, वह लिखकर दीजिए। सबने कुछ लिख-लिखकर दिया। स्वामी विवेकानन्द ने भी उन फलों के नाम लिखकर दिए, जो उस प्रदेश में पैदा ही नहीं होते थे। किन्तु आश्चर्य कि उसने कम्बल में से अंगूर के गुच्छे तथा सन्तरे इतनी अधिक मात्रा में निकाल कर दिए कि उनका जीवन उस मनुष्य के जीवन से दो गुना हो गया। उन फलों का स्वाद सबने लिया। उसने जो पुष्प निकाल कर दिए थे, उनमें से प्रत्येक पुष्प बढ़िया खिला हुआ था, पंखुड़ियों पर सबेरे के ओसकण विद्यमान थे, न कोई खण्डित फूल था, न मुरझाया और न टूटा।
इस घटना पर अपनी सम्मति व्यक्त करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा - लोग इसे जादू मानते हैं, चमत्कार कहते हैं, किन्तु मैं ऐसा नहीं मानता। यह सत्य का ही प्रदर्शन था। जो है ही नहीं, उसकी छाया कहाँ से आ सकती है, इसलिये यह माया नहीं थी। वे आगे कहते हैं कि यह मन की अनन्त शक्तियों का प्रमाण है कि हम मन से जो चाहें उत्पन्न कर सकते हैं। मन के भीतर सारी सृष्टि की समृद्धि और सम्पत्ति है। शर्त यही है कि हम मन से काम लें। अनियंत्रित मन अपना भी बुरा करता है और संसार का भी। हैदराबाद का यह ब्राह्मण मन से तो काम लेता है, परन्तु यह नहीं जानता कि जिस मन से वह काम ले रहा है वह भी भ्रान्त है, इसलिए वह चमत्कार की दुनिया तक ही सीमित रह गया। अपने अन्दर के ईश्वर को वह व्यक्त नहीं कर पाया।
प्रायः लोग मैस्मरेज्म व हिप्नोटिज्म जैसी विद्याएँ सीखकर छोटे-मोटे मानसिक चमत्कार दिखाते और लोगों की दृष्टि में अपने को प्रभावशाली प्रदर्शित करने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु इससे न तो उनका अपना भला होता है और न ही दूसरों का कुछ उपकार होता है। पाश्चात्य मनोवेत्ता और भौतिक - विज्ञानी भी अब मन की क्षमता के अतीन्द्रिय सामर्थ्य को स्वीकार करने लगे हैं। विश्व के अनेक देशों में इस संदर्भ में गहन अनुसंधान भी हो रहे हैं। वे जिसे आश्चर्य की दृष्टि से देखते और अतीन्द्रिय क्षमता, चमत्कार एवं गुप्त विद्या मानते हैं, उसे भारतीय ऋषियों योगियों ने मन की शक्ति का छोटा-सा चमत्कार माना है, जो आकर्षक तो लगता है, किन्तु आत्मकल्याण में बाधक है। मनोनिग्रह - एकाग्रता का लक्ष्य आत्मा का वेधन करना है, जिसे प्राप्त कर मनुष्य जीवनमुक्त और स्वर्ग का अधिकारी बनता है।
श्री रामोत्तरतानीयोपनिषत् में मनोमय शक्ति का विवेचन करते हुए बताया गया है कि भौंहों और नासिका की जहाँ सन्धि है, वहीं स्वर्ग तथा उससे भी उच्च परमधाम का सन्धि स्थान है, वहीं अविमुक्त है। ब्रह्मज्ञानीजन इसी सन्धि की संध्या रूप में साधना करते हैं। जो साधक इस प्रकार जानने वाला है कि अव्यक्त ब्रह्म का स्थान अविमुक्त क्षेत्र आदि भौतिक स्थान है और भौंहों तथा नासिका का संधि स्थान ही आध्यात्मिक काशी है, यहीं मन का ध्यान किया जाता है, वहीं ज्ञानी यथार्थ ज्ञानोपदेश में समर्थ हो सकता है। यही सबसे बड़ा तीर्थ और देवताओं के लिए भी पवित्र है, यही परमात्मा प्राप्ति का स्थल है। यहाँ से जब प्राणी की प्राण-चेतना निकलती है, तो अमृतत्व की प्राप्ति होती है। मनोमय शक्ति की यही साधना सही अर्थों में अभीष्ट भी है मुक्ति प्रदाता भी।