Magazine - Year 1999 - Version 2
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Language: HINDI
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योगाभ्यास की महिमा सबने जानी व मानी
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योगशास्त्र की मान्यताओं के अनुसार शरीर में अनेक मर्मस्थल ऐसे होते हैं, जिनमें बड़ी विलक्षण शक्तियां विद्यमान होती हैं। शरीर-स्वास्थ्य और मनोदशा पर इनका अनुकूल प्रभाव पड़ता है। सामान्य स्तर का व्यायाम इन्हें प्रभावित नहीं कर पाता। इसीलिए शारीरिक, मानसिक व्याधि-व्याधियों के निवारण एवं समर्थता-साधना का आश्रय लिया जाता है। आत्मोत्कर्ष एवं अतींद्रिय क्षमताओं के विकास में योगसाधना का असाधारण महत्व है।
आधुनिक चिकित्सा के विविध क्षेत्रों में असाधारण प्रगति के बावजूद भी आज शारीरिक एवं मानसिक रोगियों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। निरोग एवं दीर्घजीवन प्रदान करने के अनेकानेक अनुसंधान व प्रयोग-परीक्षण विश्वस्तर पर सर्वत्र किए जा रहे हैं, किंतु इस संदर्भ में कोई सर्वसुलभ व सर्वमान्य सूत्र अभी तक नहीं ढूँढ़ा जा सका है। प्राचीनकाल से ही भारतीय योगविद्या-विशारदों ने इस संदर्भ में गहन खोजें की थीं और आसन, प्राणायाम, बंध-मुद्रा एवं ध्यान के द्वारा न केवल रोग-निवारण में सफल हुए थे, वरन् दीर्घायुष्य व आत्मोत्थान का सूत्र भी प्रदान किया था। पाश्चात्य देशों में भी अब इस संबंध में गहन अनुसंधान चल रहे हैं ओर अनुसंधानकर्ताओं को सफलता भी मिल रही है। रूस के सुप्रसिद्ध चिकित्साविज्ञानी डॉ. ब्लादिमिर डेडीडेको ने दमे के कई मरीजों को रोग-मुक्त करके इस संबंध में असाधारण सफलता पाई है। उनका कहना है कि योगासन और प्राणायाम की नियमित साधना से रोग जल्दी ठीक होता है।
मधुमेह रोग के उपचार में आसन-प्राणायाम चिकित्सा को अत्यंत प्रभावी पाया गया है। इन यौगिक क्रियाओं को नियमित रूप से करने पर रक्तशुद्धि होती है और साथ ही कोलेस्टरोल जैसे विषाक्त तत्व की मात्रा भी घटती है। प्रयोग-परीक्षणों में पाया गया है कि तीन महीने की समयावधि में ही रक्त-शर्करा की मात्रा घटने लगती है। प्राणायाम की विभिन्न प्रकार की विधियों में प्राणाकर्षण, नाड़ीशोधन और सूर्यवेधन प्राणायाम को प्रमुखता दी जाती है। पिछले दिनों इस तरह के प्रयोग जीवाजी विश्वविद्यालय में अस्सी लोगों पर किए गए। परीक्षणोपराँत जो निष्कर्ष सामने आए, उसके अनुसार आसन-प्राणायाम की संयुक्त प्रक्रिया के नियमित पैंतालीस मिनट तक चलते रहने के कारण रक्त-शर्करा एवं कोलेस्टरोल में कुछ ही दिनों में अप्रत्याशित रूप से कमी आती है और रोगी स्वस्थ एवं हल्कापन महसूस करता है। प्राणविद्या का मूलभूत उद्देश्य सविता देवता के-सूर्य के प्राण को अभीष्ट परिमाण में ग्रहण करके शरीर में धारण करना है। जीवन का आधार मानी जाने वाली ऑक्सीजन वायु सूर्य से प्राणरूप प्रक्रिया के साथ सम्मिश्रित होकर प्रस्तुत ‘ऑक्सीजन’ बन जाती है। सूर्यवेधन-प्राणाकर्षण प्राणायाम द्वारा दोनों ध्रुवों पर बरसने वाली सूर्यशक्ति में सन्निहित प्राणधारा को वाँछित मात्रा में आकर्षित करके उनके द्वारा शारीरिक एवं मानसिक क्षमताएँ सुगमतापूर्वक अर्जित की जा सकती हैं।
योगशास्त्रों में विविध प्रकार के आसनों और प्राणायामों का विस्तृत वर्णन किया गया है और उनकी आवश्यकता-उपयोगिता को समझने तथा इन्हें दैनिक जीवन में सम्मिलित करने पर बल दिया गया है। इस संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय योग चिकित्सा एवं अनुसंधान केन्द्र बैंगलोर के अनुसंधानकर्ताओं ने गहन अनुसंधान किया है और निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहा है कि योग चिकित्सा द्वारा अस्थमा, मधुमेह, उच्चरक्तचाप, मिर्गी और उन्माद जैसी प्राणघातक बीमारियों से सरलतापूर्वक बचा जा सकता है। इस संस्थान द्वारा अब तक हजारों रोगियों का इस विधि द्वारा उपचार किया जा चुका है, जिसमें रोगी को कोई औषधि न देकर, आहार-विहार की संयमशीलता है। यह एक तथ्य है कि बैठे-बैठे-ठाले रहने की स्थिति में प्रायः आदमी उथली साँस लेता है, जिससे पूरे फेफड़ों का श्रम भलीभाँति नहीं हो पाता। फलतः रोगाणुओं को प्रवेश करने और पनपने का मौका मिल जाता है। प्राणायाम प्रक्रिया में गहरी-लम्बी एवं लयबद्ध साँस लेने की विधि-व्यवस्था है, जिसके कारण फेफड़ों में भर पूर प्राणवायु का संचार एवं संचयन होता है परिणामस्वरूप दमा, क्षय, खाँसी आदि रोगों संभावना नहीं रहती।
योगविज्ञान के अनुसार नियमित योगसाधनाएँ यथा-आसन, प्राणायाम, बंध, मुद्रा व ध्यान आदि करने के कितने ही सत्परिणाम देखकर जर्मनी के कई वैज्ञानिकों ने भी गहन अनुसंधान किया है। उन्होंने पाया है कि इन प्रक्रियाओं का दैहिक ही नहीं मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी पड़ता है, जिसका प्रतिफल शारीरिक स्वस्थता के साथ ही मानसिक स्थिरता एवं शांति के रूप में सामने आता है। विज्ञान की भाषा में इसे ‘अल्फास्टेट’ की संज्ञा दी गयी है।
इस संदर्भ में अपने देश में भी पिछले दिनों अनेकानेक प्रयोग-परीक्षण हुए हैं। मूर्धन्य वैज्ञानिक आनंद एवं चिन्ना ने सर्वप्रथम यौगिक प्रक्रियाओं के मन और शरीरगत प्रभावों का वैज्ञानिक अध्ययन व विश्लेषण किया। परीक्षण ऐसे व्यक्तियों पर किए गए, जिन्होंने योगाभ्यास द्वारा अपने समस्त आटोनॉमिक तंत्रिका तंत्र यथा-श्वसन, कार्डियोवाँस्कुलर तंत्र व मोटाबोलिक दर पर नियंत्रण कर लिया था। वे अपने हृदय की धड़कन-दर को घटाकर चार-पाँच धड़कन प्रतिमिनट कर लेते थे। अध्ययन में पाया गया कि ऐसे व्यक्तियों के मस्तिष्क से यौगिक क्रियाओं की स्थिति में हर वक्त ‘अल्फा’ तरंगें निकलती हैं। इसी बीच कभी-कभी ‘बीटा’ तरंगें भी देखी गयीं। श्वसन दर भी घटकर प्रतिमिनट 5-6 थी। आटोनॉमिक तंत्रिकातंत्र पर इस ऐच्छिक नियंत्रण से चयापचय दर भी अत्यंत न्यूनतम स्तर पर पहुँचाने में वे सफल रहे।
इसी प्रकार का अध्ययन-अनुसंधान डॉ. कोठारी व उनके सहयोगियों ने ऐसे योगियों पर किए, जो जमीन के अंदर कई दिनों तक पड़े रहे। चारों ओर से बंद जमीन के अंदर बने गड्ढे में स्थित इन व्यक्तियों के परीक्षण से जो निष्कर्ष सामने आये, उसके अनुसार ऐसी दशा में शारीरिक क्रियाएँ ऐसी सुषुप्ति की स्थिति में चली जाती हैं, जैसी कि शीतनिष्क्रियता की स्थिति में अन्य जीवधारियों की शरीर की समस्त फिजियोलॉजिकल क्रियाएँ अपरिवर्तित व सामान्य पायी गयीं।
योगासन व प्राणायाम द्वारा जहाँ शरीर और प्राण पर नियंत्रण सधता और उनकी क्षमता बढ़ती है, वहीं ध्यान-साधना द्वारा मानसिक क्रिया-व्यापार पर नियंत्रण साधता है। ध्यान का शरीरगत क्रियाओं पर पड़ने वाले प्रभाव का विस्तृत अध्ययन प्रसिद्ध विज्ञानवेत्ता एच. आर. वैलेस एवं सहकर्मियों ने किया। पाया गया कि ध्यान करने वाले व्यक्ति में न सिर्फ ध्यान के दौरान, वरन् ध्यान के बाद भी उनके चयापचय व शरीर-रसायन में महत्वपूर्ण परिवर्तन आता है।
अनुसंधानकर्ताओं का निष्कर्ष है कि इन योगाभ्यासों के दौरान साधक अपने मस्तिष्क के लिम्बिक और हाइपोथेलेमस भाग पर सेरेब्रल कार्टेक्स का नियंत्रण स्थापित कर लेता है। फलतः वह अपनी इच्छा के आधार पर समस्त अनैच्छिक शारीरिक-क्रियाओं एवं विभिन्न प्रकार की मानसिक क्रियाओं को वशवर्ती कर लेता है।
सुविख्यात विज्ञानी मिलर ने आँतरिक अंगों एवं ग्रंथियों पर यौगिक क्रियाओं का नियंत्रण प्रदर्शित करने के लिए अनेक प्रयोग किए। एक प्रयोग-परीक्षण में उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ कुछ चूहों की ऐच्छिक मांसपेशियों को निष्क्रिय बना दिया। इसके बाद मस्तिष्क के आनंदोत्पादक केंद्र को इलेक्ट्रोड के माध्यम से उद्दीप्त किया गया। तत्पश्चात इनमें से कुछ चूहों को अपने हृदय की धड़कन को कम करने का प्रशिक्षण दिया गया एवं कुछ को धड़कन तेज करने का। कुछ दिनों के पश्चात उनमें से कुछ चूहे योग जैसी क्रियाएँ करते देखे जाने लगे। वे एक तरफ की कान की रक्तवाहिनियों की तुलना में अधिक फैलाना स्वतः सीख गये थे। इस प्रकार बायोफीडबैक पद्धति के माध्यम से चूहों ने अपने आटोनॉमिक तंत्रिका तंत्र पर ऐच्छिक नियंत्रण प्राप्त कर लिया था। इसी प्रयोग को वैलेस ने बिल्लियों पर दुहराया। यहाँ भी वही परिणाम प्राप्त हुए। इसी प्रकार का अध्ययन ई.ई.जी. के माध्यम से मनुष्यों पर एक जापानी वैज्ञानिक कामिया द्वारा किया गया। इस प्रयोग-परीक्षण का उद्देश्य यह जानना था कि ध्यान प्रशिक्षण द्वारा व्यक्ति अपनी विभिन्न प्रकार की मस्तिष्कीय रिद्मों-लयों का बनना व तिरोहित होना किस सीमा तक पहचान सकता है। कुछ दिनों के प्रशिक्षण के बाद परिणाम विस्मयकारी पाया गया। देखा गया कि अल्फा रिद्म की दृष्टि से ध्यान द्वारा उत्पन्न स्थिति अन्य चेतनात्मक स्थितियों जैसे-जाग्रति, निद्रा, स्वप्न एवं सम्मोहन तथा ऑटोसजेशन से स्पष्ट रूप से भिन्न है। व्यक्ति के शारीरिक फिजियोलॉजी में ये महत्वपूर्ण परिवर्तन इस बात का संकेत करते हैं कि ध्यान की यह अवस्था चिकित्सा क्षेत्र में अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो सकती है।
इस संबंध में हरबर्ट बेन्सन एवं उनके सहकर्मियों ने जब नियमित ध्यान प्रयोग उच्चरक्तचाप के मरीजों पर किया जो सिस्टोलिक एवं डायस्टोलिक दबाव में स्पष्ट कमी आँकी गयी। इसी तरह डॉ. चिन्ना आनंद एवं बलदेव सिंह न चार साधकों पर ध्यान प्रक्रिया का ई. ई. जी. द्वारा विशद् अध्ययन किया। समाधि की स्थिति में चार साधकों में से दो को दृश्य और श्रव्य के माध्यमों से उद्दीप्त किया गया, जबकि अन्य दो को चार डिग्री से. गे्र. तक ठंडे जल में उनके हाथ 45 से 55 मिनट तक डुबाये रखने जैसी कष्टकारक स्थिति में रखा गया। इतने पर भी उनमें स्थायी रूप से हर वक्त विद्यमान मस्तिष्कीय अल्फा पैटर्न को परिवर्तित नहीं किया जा सका। ई.ई.जी. द्वारा किए गए मापन में अल्फा तरंगों के आयाम बढ़े हुए पाये गये। योगाभ्यास का शरीर-फिजियोलॉजी एवं बॉडी केमिस्ट्री पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका विषद अध्ययन-विष्षण ‘योगरिसर्च सेण्टर इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज, बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी’ में भी किया गया और उत्साहवर्धक परिणाम पाए गए। इसी प्रकार के शोधकार्य विवेकानंद केंद्र बैंगलोर एवं ब्रह्मवर्चस शोध-संस्थान शांतिकुंज हरिद्वार में भी सफलतापूर्वक संपन्न हुए हैं।
वस्तुतः योग का उच्चस्तरीय उद्देश्य आत्मविकास करना है। स्वास्थ्य संवर्द्धन तो योगाभ्यास का एक छोटा-सा पक्ष मात्र है। इतने पर भी पुरातनकाल के बताए हुए योगाभ्यासों के विधि-विधान ज्यों-के-त्यों काम में लाने पर भी उसका वैसा लाभ साधकों को नहीं मिलता, जैसा कि मिलना चाहिए। कारण के विषय में खोजकर्ताओं ने बताया है कि साधकों की मनोभावना उस लक्ष्य के निकट तक नहीं पहुँच पाती, जैसी कि मिलना चाहिए। कारण के विषय में खोजकर्ताओं ने बताया है कि साधकों की मनोभावना उस लक्ष्य के निकट तक नहीं पहुँच पाती, जैसी कि योगी की होनी चाहिए। आत्मशोधन, परमार्थपरायण एवं समर्पण का उद्देश्य न रहने पर योगाभ्यास एक शारीरिक यात्रा मात्र रह जाता है और आत्मा की दृष्टि से ऊँचाई उत्पन्न करने में सहायक सिद्ध नहीं होता।