Magazine - Year 1999 - October 1999
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Language: HINDI
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संधिकाल की प्रभातवेला में साधनात्मक पुरुषार्थ और भी प्रखर हो
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प्रखर साधनावर्ष की समापन वेला में बीसवीं शताब्दी की इस महत्वपूर्ण नवरात्रि के रूप में प्रस्तुत नौ दिवसीय विशिष्ट प्रसंग 10 से 18 अक्टूबर की तारीखों मं हम सबके लिए आ रहा है। अगला वर्ष इस शताब्दी का अंतिम वर्ष होगा, पर हमारे लिए अति महत्वपूर्ण महापूर्णाहुति वर्ष होगा, जिसमें हम सारे भारत व केंद्र में अपनी आहुतियाँ दे रहे होंगे। इस वर्ष सभी ने किसी-न किसी रूप में अपना साधना को अधिकाधिक प्रखर बनाया है, अन्यान्य व्यक्तियों को भी साधनाक्रम में सम्मिलित कर विशुद्धतः अपनी साधना के साथ एक पुण्यपरमार्थ का संपुट जोड़ा है। प्रस्तुत नवरात्रि अन्य वर्षों की तरह सामान्यक्रम में नहीं आई है, यह एक विशिष्ट मुहूर्त्त में विशिष्ट अनुदानों व अपेक्षाओं के साथ आई है। यदि हम ग्यारह वर्ष के साधनात्मक पुरुषार्थ का समापन शानदार ढंग से करना चाहते हैं, तो महापूर्णाहुति वर्ष के पूर्व आई इस नवरात्रि से लेकर सन् 2001 की चैत्र नवरात्रि (26 मार्च से 2 अप्रैल) तक का डेढ़ वर्ष का एक विशेष संकल्प ले सकते हैं। वह इस रूप में हो सकता है कि हमारी साधना में और निखार आए एवं हम नए युग की नई भारी-भरकम जिम्मेदारियों को उठाने योग्य स्वयं को सुपात्र बना सकें।
कई व्यक्ति मंत्रजाप को ही सब कुछ मान बैठते हैं। हमने इतने घंटे जप किया-अखण्ड जप इतने संपन्न कराए, हम इतने अनुष्ठान कर चुके-इसका उद्घोष करने वाले कम नहीं हैं। फिर क्या किया जाए? हम तो उपासना की निर्दिष्ट प्रक्रिया ही संपन्न कर रहे थे। कुछ और भी जुड़ना चाहिए था क्या? इस संबंध में मार्गदर्शन हेतु प्रस्तुत समय से अच्छा और कोई समय नहीं हो सकता। परमपूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन की अपेक्षा के साथ हमने ‘अखण्ड ज्योति’ के पन्ने पलटे, थोड़ा गहरे डूबकर स्वाध्याय किया एवं कुछ पाया है, जो जन-जन को दिशा दे सकता है, सही अर्थों में हम सभी को साधक बना सकता है।
परमपूज्य गुरुदेव मई 1969 की अखण्ड ज्योति पत्रिका में लिखा है- “आत्मिकप्रगति के लिए उपासना और साधना का जोड़ा अविच्छिन्न रूप से आवश्यक है। इसमें न तो ढील की गुंजाइश है, न उपेक्षा की। शास्त्रकारों से लेकर तपोनिष्ठ ऋषियों और सफल आराधकों ने सदा इसी तथ्य का प्रतिपादन किया है। हमारे मार्गदर्शक ने यह बात प्रारंभ में ही कूट-कूटकर अंतरंग में बिठा दी थी कि उपासना आवश्यक है, किंतु इस क्षेत्र की सफलताओं का स्रोत भावनात्मक विकास की जीवनसाधना पर ही अवलंबित है। हमने इस शिक्षा को गाँठ बाँध लिया।” आगे परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं- “मंत्रशास्त्र का विशाल अध्ययन और अन्वेषण हमने किया है। महामाँत्रिकों से हमारे संपर्क रहे हैं और साधनापद्धतियों के सूक्ष्म अंतर-प्रत्यांतरों को हम इतना अधिक जानते हैं जितना वर्तमान पीढ़ी के मंत्रज्ञाताओं में से शायद ही कोई जानता हो। लोगों ने एकाँगी पढ़ा-सीखा है। हमने शोध और जिज्ञासा की दृष्टि से इस विद्या को अति विस्तार और गहराई के साथ ढूँढ़ा-समझा है। इस जानकारी की भी जहाँ उपयोगिता हो वहाँ हम प्रयोग करते हैं, किंतु हमारी अपनी क्रियापद्धति अति सरल और सीधी-सादी है। यही सीधा-सा एक ॐ तीन व्याहृति ॐ , अधिक बीज-संपुट आदि की लाग-लपेट जोड़े जप-साधना में लग जाते हैं।”
बड़ा सीधा-सादा सरल-सा मार्गदर्शन परमपूज्य गुरुदेव हमें सौंप गए। जो उन्होंने किया, अपने जीवन पर लागू या, यदि हम भी विश्वासपूर्वक कर सकें, तो हमारी उपासना-जप में भी प्राण आ सकते हैं। शरीर और वस्त्रों की शुद्धि-पूजा-उपकरणों की स्वच्छता, शांत और सौम्य वातावरण, प्रफुल्ल मन का ध्यान रखकर नियत समय, नियत स्थान पर बैठकर उपासना की जाए, तो वह सरस और फलदायी बन जाती है। उपासना के षट्कर्म से लेकर जप के नियम-अंत में भगवान् सूर्य को अर्घ्य चढ़ाना तथा सृजन यह क्रम तो सभी को मालूम है, अतः बताने की आवश्यकता नहीं, किंतु ज पके समय की मनोभूमि के विषय में परमपूज्य गुरुदेव का मार्गदर्शन आज की परिस्थितियों में अभीष्ट भी है व समयानुकूल भी।
पूज्यवर लिखते हैं- “जिन्हें निराकार साधनाक्रम पसंद है, उनके लिए प्रातःकाल उगते हुए अरुण वर्ण सूर्य का ध्यान करना उत्तम है। यह हर किसी धर्म-संप्रदाय के व्यक्तियों के लिए संभव है। किंतु जो साकार ध्यान करना चाहते हों, उन्हें मन को एक सीमित परिधि में भ्रमण कराने का अभ्यास डालना चाहिए। माता का चित्र सामने रहने से उनके अंग-प्रत्यंगों और आवरणों का बारीकी से मनोयोगपूर्वक निरीक्षण करते रहने की ध्यान-साधना मन को इधर-उधर न भागने देने की समस्या हल कर देती है। यह छविध्यान थोड़े अभ्यास से तस्वीर को देखे बिना भी
कल्पना के माध्यम से आँखें बंद कर के भी होने लगता है। इष्ट की छवि को देखते समय इसमें रस-प्रेम, एकता और तादात्म्य उत्पन्न करना और भी शेष रह जाता है और यह प्रयोजन ध्यान में प्रेम-भावनाओं समावेश करने से ही संभव होता है। आगे वे लिखते हैं-उपासना के आरंभ में अपनी एक दो वर्ष जितने निश्चिंत, निर्मल, निष्काम, निर्भय बालक जैसी मनोभूमि बनाने की भावना करनी चाहिए और संसार में नीचे नीलजल और ऊपर नीलाकाश के अतिरिक्त किसी अन्य पदार्थ एवं इष्टदेव के अतिरिक्त और किसी व्यक्ति के न होने की मान्यता जमानी चाहिए। बालक और माता, प्रेमी और प्रेमिका, सखी और सखा जिस प्रकार पुलकित हृदय से परस्पर मिलते, आलिंगन करते हैं, वैसी ही अनुभूति इष्टदेव की समीपता की होनी चाहिए। चकोर जैसे चंद्रमा को प्रेमपूर्वक निहारता है और पतंगा जैसे दीपक पर अपना सर्वस्व समर्पण करते हुए तदनुरूप हो जाता है, ऐसे ही भावोद्रेक इष्टदेव की समीपता के उन ध्यान में जुड़े रहना चाहिए, जिसे साधना कहा गया है। इससे भावविभोरता की स्थिति प्राप्त होती है और उपासना ऐसी सरस बन जाती है कि उसे छोड़ने को जी नहीं चाहता। “परमपूज्य गुरुदेव के चौबीस लक्ष के चौबीस अनुष्ठान उपर्युक्त मनोभूमि की धुरी पर ही चले। हमें क्या कठिनाई हो सकती है, यदि हम भी इसी प्रकार अपने जप में प्राण डाल सकें व अपनी साधना के वे प्रतिफल प्राप्त कर सकें, जिनकी अपेक्षा गुरुसत्ता ने समूहमन के निर्माण से समष्टि के उपचार के रूप में की है।
प्रस्तुत प्रखर साधनावर्ष में इस जप-उपचार में यही विशिष्टता जोड़ी गई है। कि हम सबके उज्ज्वल भविष्य की संभावित विभीषिकाओं से मानवमात्र की रक्षा की प्रार्थना भी इस जप-ध्यान के साथ करें। “धियो यो नः प्रचोदयात्” के साथ उसके अर्थ का ध्यान करते ही बात आ जाती है। इसमें से किसी को यह समझने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि हम जो भी कुछ संधिकाल उपचार। इसी कारण बारबार मंत्रजप के साथ उसमें प्राणप्रतिष्ठा करने, उसके अर्थ के ध्यान के साथ स्वयं का समर्पण भाव बढ़ाने की बात बराबर कही जा रही है। किसी को यह भी लग सकता है कि यह तो शैशव अवस्था का मार्गदर्शन है। इसमें नवीनता क्या है, पर यही कठिनाई है कि वरिष्ठ-से वरिष्ठ कार्यकर्त्ता इस ध्यानपक्ष में चूक कर जाते हैं, जप तो कर लेते हैं, संख्या भी पूरी कर लेते हैं, पर प्रतिफल उतना नहीं निकल पाता। परमपूज्य गुरुदेव लिखते भी हैं, इसी अंक में, इसी बात को आगे बढ़ाते हुए- “पूजा-पाठ की नन्हीं-सी टंट-घंट करके भगवान् की असीम कृपा अनायास ही प्राप्त हो जाने की गुरु की असीम कृपा अनायास ही प्राप्त हो जाने की गुरु, देवता या मंत्र का तनिक से प्रयोग, उपयोग से अपान लाभ मिल जाने की कुकल्पना वर्तमानकाल के उतावले अनास्थावान् लोगों की है। इस बंध्या कल्पना को लेकर आकाश-पाताल के सपने देखे जा सकते हैं। मिलना किसी को कुछ नहीं है। हमें इस बालविनोद में कोई आकर्षण नहीं है। हम जानते हैं कि-उपासना एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है-लूटमार नहीं। आत्मिक प्रगति का एक सर्वांगपूर्ण विज्ञान है यह। उचित साधन, उचित श्रम और उचित परिस्थितियाँ उपलब्ध होने पर ही यह प्रक्रिया फलवती होती है। सो उसी को करने-कराने में हम निष्ठापूर्वक लगे हैं।”
परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं- “ईश्वर भक्ति की प्रयोगशाला में, व्यायामशाला में आरंभ किया और क्रमिक विकास करते हुए प्रभुप्रेम के दंगल में जा पहुँचे।” - “प्रेम का अभ्यास करने के लिए ऐसी नाव ढूँढ़नी पड़ती है, जो बीच में डूबने वाली न हो और किनारे पर पहुँचा दे।” निश्चित ही पूज्यवर के शब्दों में यह नाव गुरु के संरक्षण व उनके सतत् सामीप्य की अनुभूति से ही हमें मिल सकती है। समर्पण यदि समग्र है, कोई कंजूसी उसमें नहीं की गई है- “माँगना कुछ नहीं, देना सब कुछ” का प्रेम का सिद्धाँत निबाहा गया है, तो साधना की सफलता में कोई संदेह किसी को नहीं होना चाहिए। हमारी इस प्रखर साधनावर्ष की उपासना में गुरुसत्ता के प्रेमभाव-समर्पण और अधिक प्रगाढ़ हो, उनके कार्यों की पूर्णता के अंजाम तक पहुँचाने की टीस बढ़ती ही चली जाए, तो मानना चाहिए कि साधना प्राणवान् होती चली जा रही है।
ईश्वरीय प्रेरणा से ही गायत्री परिवार-युगनिर्माण आँदोलन का सृजन हुआ है। विचारपरिवर्तन का एक विश्वव्यापी अभियान इस मिशन के माध्यम से सारे विश्व में गति पकड़ चुका है। असुरता का विशाल कलेवर देखते हुए इस अभियान का स्वरूप छोटा लग सकता है, पर गुरुसत्ता के शब्दों में “विवेकशीलता का तेल और औचित्य के कपड़े को लेकर यह ज्ञानयज्ञ की मशाल जलाई गई है। वह यों ही बुझ जाने वाली नहीं है। यह अपने युग की महत्तम आवश्यकता एवं ईश्वरीय इच्छा पूरी होने तक जलती ही रहेगी।” हमें सब परिजनों के सामूहिक पुरुषार्थ को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना व समझना चाहिए।
इन दिनों सूक्ष्मजगत् में तीव्र गति से हलचलें हो रही हैं। ब्रह्ममुहूर्त युगसंधि के नवप्रभात का आ चुका है। ऐसे मुहूर्त्त में साधक और तपस्वी जाग जाते हैं, जबकि विषयी लोग अधिक गहरी नींद का मजा लेते हैं। असुरता भरी निशा का अंत होने जा रहा है। यह संधिकाल प्रभात की उषा लेकर आया है। युगनिर्माण योजना एक शंखनिनाद के समान है, जो सभी सुसंस्कारी व्यक्तियों को जगाने एवं उन्हें प्रभातकालीन कर्त्तव्यों में जुटने की प्रेरणा दे रहा है। काश! हम सभी इस नवरात्रि के वेला में उसे सुन सकें और पुनीत धर्मकर्त्तव्य में संलग्न हो सकें।