Magazine - Year 2000 - Version 2
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Language: HINDI
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होली की हिलोरें
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होली आई है, तो इसकी हिलोरें भी उठेंगे ही । इनकी छुअन हर एक के मन को अपने रस में भिगो देती है, डुबो देती है । अंतराल में स्नेहानुभूति के अक्षय स्रोत से खुलने लगते हैं । ये हिलोरें जिन्हें भी छूती है उन्हीं को लगता है कि वे किसी हिंडोले में झूल रहे है । होली के उल्लास के महासिंधु में खुद भी हिलोरें ले रहे है । कुछ ऐसा लगता है जैसे जीवन के हार अंखुवे से नई शाख फूट पड़ी हो । उमंग में उमगते हुए मन आतुर-आकुल होने लगता है, इस उल्लास को बाँटने के लिए । बस क्या दे डालूँ ? यही व्याकुलता-व्याकुल करने लगती है सभी को ।
प्रेमानुभूति में सनी-मस्ती में डूबी यह व्याकुलता अति दुर्लभ है । जीवन में अनेकों भाव पनपते हैं और तिरोहित हो जाते हैं । इनके प्रभाव व सीमाएँ भी सीमित होती है । खुशियाँ अन्य दिनों में भी आती है, प्रेमरस में अन्य दिनों भी मन भीगता है, पर इसकी परिधि प्रायः व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन तक सिमटी-सिकुड़ी रहती है । पर होली में तो जैसे प्रेमभरी मस्ती का महासिंधु हिलोरें लेता है । जिसकी प्रत्येक लहर के छूने भर से जाति, धर्म, वंश, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब आदि सभी भेद-भाव की दीवारें टूटती-ढहती-विनष्ट होती चली जाती है । होली की उमंगें बढ़े और विकसित हो, यह आवश्यक है, पर जितनी प्रबल वह हो, उतनी ही सबल जीवनसाधना भी होनी चाहिए । प्रबल धारा को सबल किनारे ही दिशा दे सकते हैं । धारा धीमी हो अथवा कूल कमजोर, दोनों ही अभीष्ट उद्देश्य की प्राप्ति में बाधक है । दोनों सबल और सशक्त मों तो प्रेम की महाशक्ति का महाप्रयोग हो सकने की व्यवस्था बनती है ।
प्रेम की महाशक्ति का अमर्यादित उपयोग अथवा उसका सीमाबद्ध रह जाना अकल्याणकारी प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करता है । होली की हिलोरें जीवनसाधना के स्पर्श से सुनियोजित और सुव्यवस्थित हो जाती है । फिर उन्हें जहाँ जितनी मात्रा में प्रवाहित करना हो किया जा सकता है । ऐसा यदि बन सके तो संसार की विविधता-विषमता के रूप में नहीं, होली की रंग-रंगीली मस्ती के रूप में सामने आएगी । मन के मलाल धुल जाएँगे स्नेह का गुलाल सब पर छा जाएगा, बस आनंद आ जाएगा । जो सामने आए, मन का मैल मिटाकर उसी पर अपना प्रेम उड़ेल दें । दोनों सराबोर हो जाएँ, होली की हिलोरें यदि इस तरह हमें भिगो दे, तो जीवन पहेली नहीं एक रंगोली बन जाए ।