Magazine - Year 2002 - Version 2
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Language: HINDI
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तप और विद्या के अर्जन की मौलिक मूल्याँकन विधियाँ
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मौलिक मूल्याँकन तप और विद्या के अर्जन की कसौटी है। मूल्याँकन के लिए परीक्षाओं का प्रचलन हर कहीं है। प्रायः प्रत्येक विद्यालय, महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राओं को अनिवार्य रूप से इन परीक्षाओं में उपस्थित होना पड़ता है। इनमें से लिखित परीक्षाएँ कुछ प्रश्नों का उत्तर लिखकर दी जाती है। मौखिक परीक्षाओं में कुछ सवालों के जवाब सुनाने पड़ते हैं। इस प्रचलित रीति का दायरा परीक्षार्थी की स्मरण शक्ति को जाँचने-परखने और जानने तक सीमित रहता है। इन अर्थों में प्रचलित परीक्षाएँ विद्यार्थियों की स्मरण शक्ति का ही मूल्याँकन कर पाती हैं। इसी आधार पर उन्हें तृतीय, द्वितीय या प्रथम श्रेणी का मान लिया जाता है। इस मूल्याँकन में स्मरण शक्ति के अलावा व्यक्तित्व के अन्य अनेक गुण न तो प्रकाशित हो पाते हैं, और न ही उन्हें जानने-जाँचने की जरूरत समझी जाती है।
इस प्रचलन से बहुत अलग देव संस्कृति विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों के मूल्याँकन की रीति एकदम मौलिक होगी। यह मूल्याँकन दस में से पाँच सवालों के उत्तर जाँचने तक सीमित न रहेगा। इस मूल्याँकन के लिए आयोजित की जाने वाली परीक्षा को छात्र-छात्राएँ थोड़े से सम्भावित प्रश्नों की गाइड या मार्गदर्शिका को रट कर न पास कर सकेंगे। इसकी तैयारी के लिए उन्हें अपने समूचे व्यक्तित्व को तैयार करना पड़ेगा। उन्हें विद्यावान्, चरित्र निष्ठ एवं तपस्वी होने की साधना करनी पड़ेगी। विषय वस्तु के अध्ययन के साथ उन्हें अनेक व्रतों का अभ्यास करना पड़ेगा। मूल्याँकन की इस मौलिक रीति-नीति से उनके समग्र व्यक्तित्व का मूल्याँकन होगा। विद्यार्थीगण अपनी विषय वस्तु के ज्ञान के साथ देव संस्कृति के आदर्शों को अपने जीवन में कितना उतार पाए? यह परखा जाएगा।
यही हमारी ऋषि परम्परा भी रही है। ऋषि प्रणीत शिक्षा पद्धति में आज जैसी परीक्षा प्रणाली न थी। प्राचीन विश्वविद्यालयों में आचार्य प्रत्येक छात्र की ओर व्यक्तिगत ध्यान देते थे। उसके व्यक्तित्व के सार्थक एवं समग्र विकास के लिए हमेशा सजग रहते थे। उसकी मेधा, प्रतिभा व आत्मबल को बढ़ाने के लिए कई तरह की आध्यात्मिक प्रक्रियाओं का सहारा लेते थे। इस डगर पर सफलता पूर्वक चलने पर छात्रों को प्रोत्साहित किया जाता था। और वे आगे की शिक्षा के लिए योग्य समझे जाते थे। इस रीति का उल्लेख गौतम, बोधायन एवं वशिष्ठ धर्म सूत्र में मिलता है।
महर्षि वशिष्ठ ने छात्रों के मूल्याँकन के लिए एक अन्य उपाय भी सुझाया है। उनका कथन है- ‘आश्रमस्थास्रयो मुख्याः परषित् स्याद् दशावरा’ अर्थात् शिक्षा के पूरा होने पर छात्र-छात्राओं से कहा जाता था कि वे स्थानीय परिषद् के सामने अपने को उपस्थित करें। इस परिषद् में दस सदस्य होते थे। इसके अतिरिक्त बोधायन धर्मसूत्र के अनुसार विद्वान् स्नातकों को राजसभा में विशेष यज्ञों के अवसरों पर उपस्थित होने का निर्देश प्राप्त होता था। यहाँ उनके तप और विद्या की परीक्षा ली जाती थी।
प्राचीन साहित्य में छात्र-छात्राओं के मौलिक मूल्याँकन का अनेकों स्थानों पर उल्लेख है। यह मूल्याँकन राजसभा या विद्वत्परिषद् के विशेषज्ञ करते थे। वे वर्तमान समय के विश्वविद्यालयों की परीक्षाओं से एकदम अलग थीं। इन प्राचीन परीक्षाओं में विद्यार्थियों को अपने तप व विद्या को प्रमाणित करना पड़ता था। तभी वह समाज में सम्मान व आदर का अधिकारी होता था। वह मेधा व प्रतिभा को समूचे लोक में प्रमाणित करता था।
महाकवि राजशेखर ने काव्य मीमाँसा के दशम अध्याय में लिखा है- ‘विद्या की परीक्षा के लिए राजा ब्रह्मसभाओं का आयोजन करें। इनमें उत्तीर्ण छात्रों-छात्राओं को ब्रह्मज्ञान प्रदान करें तथा पट्टबन्ध धारण करावें। महाकवि के अनुसार उज्जयिनी की ब्रह्मसभा में कालिदास, भारवि, मेंठ आदि की परीक्षा हुई थी। इसी तरह पाटलिपुत्र में उपवर्ष, वर्ष, पाणिनी, पिंगल, व्याडि, वररुचि और पतंजलि की परीक्षा हुई थी।’ इस सत्य को श्लोकबद्ध करते हुए कवि ने कहा है-
अत्रोपर्ववर्षविह पाणिनि पंगलविह व्याडिः।
वररुचि पतञ्जली इह परीक्षिताः ख्यातिमुपजग्मुः॥
चरक संहिता के विमान स्थान में आठवें अध्याय में शास्त्र और आचार्य की परीक्षा का विस्तृत वर्णन है। इस मूल्याँकन के अनन्तर ही चिकित्सक को चिकित्सा कार्य को प्राप्त करने का अधिकार होता था।
देव संस्कृति के आदर्शों के अनुरूप मूल्याँकन की यही समग्र एवं मौलिक रीति-नीति यहाँ विश्वविद्यालय में अपनायी जाएगी। छात्रों-छात्राओं की परीक्षा और मूल्याँकन विश्वविद्यालय की परीक्षा समिति द्वारा किया जाएगा। इसके प्रभारी परीक्षा नियंत्रक होंगे। इन्हीं के आधीन परीक्षा समिति सभी परीक्षाओं के आयोजन व मूल्याँकन का कार्य करेगी। सभी विषयों एवं सभी कक्षाओं की परीक्षा के लिए सेमेस्टर सिस्टम को लागू करना तय किया गया है। प्रत्येक सेमेस्टर की अवधि छः महीने होगी। इस तरह प्रत्येक वर्ष में दो सेमेस्टर होंगे।
प्रत्येक सेमेस्टर में कक्षा व विषय के अनुरूप परीक्षाएँ लिखित, मौखिक एवं प्रायोगिक तीनों तरह से होंगी। इनमें से लिखित परीक्षा में विषय के सम्पूर्ण ज्ञान को परखने के लिए आब्जेक्टिव या वस्तुनिष्ठ शैली एवं ज्ञान की विशेषज्ञता को परखने के लिए प्रश्नों का विवरणात्मक शैली अपनायी जाएगी। सेमेस्टर की परीक्षाओं में आचार्यों द्वारा समय-समय पर किए गए आन्तरिक मूल्याँकन के भी अंक जोड़े जाएँगे। आन्तरिक मूल्याँकन के लिए आचार्य अपनी कक्षा के विद्यार्थियों की कभी भी उचित समय पर लिखित या मौखिक परीक्षा ले सकेंगे। यह नियम विश्वविद्यालय के सभी विद्यार्थियों पर समान रूप से लागू होगा।
पाठ्यवस्तु के मूल्याँकन के अलावा इस बात का भी मूल्याँकन किया जाएगा कि छात्र या छात्रा ने देव संस्कृति के आदर्शों को अपनाने के लिए पूरे शिक्षा सत्र में क्या-क्या प्रयास किए। किन-किन व्रतों का कितनी गहरी निष्ठ व श्रद्धा से पालन किया। इस क्रम में विद्यार्थियों द्वारा समय-समय पर किए अनुष्ठानों व विभिन्न साधनाओं का भी मूल्याँकन किया जाएगा। यह प्रक्रिया प्रत्येक सेमेस्टर में अपनायी जाएगी। कक्षा के अन्तिम सेमेस्टर में सभी नियमित परीक्षाओं के साथ एक ग्राण्ड वाइवा या महामौखिकी का आयोजन होगा। इसमें छात्र या छात्रा से वर्तमान सेमेस्टर की पाठ्यवस्तु के साथ पिछले सभी सेमेस्टरों की पाठ्यवस्तु से सम्बन्धित सवाल पूछे जाएँगे। इस प्रश्नकाल में सम्पूर्ण कक्षा अवधि में अपनाए गए आदर्शों एवं व्रतों का भी मूल्याँकन होगा।
प्रायोगिक परीक्षाएँ पाठ्यवस्तु के अनुरूप होगी। इसके लिए निश्चित किए गए प्रयोगों व परियोजनाओं को छात्र-छात्राएँ पूरा करेंगे। आन्तरिक एवं बाह्य परीक्षक विद्यार्थियों का तत्सम्बन्धी मूल्याँकन करेंगे। प्रायोगिक परीक्षा के साथ भी मौखिक परीक्षा अनिवार्य रूप से जुड़ी रहेगी। मौखिक परीक्षा का स्वरूप प्रत्येक परीक्षा या सेमेस्टर के अनुरूप भिन्न होगा। इसमें से ग्राण्ड वाइवा या महामौखिकी के स्वरूप में दर्शनीय आकर्षण होगा। इसका आयोजन इस ढंग से किया जाएगा कि छात्र का समस्त व्यक्तित्व व समस्त गुण एक साथ प्रकाशित हो सके। इसमें विश्वविद्यालय के सभी संकाय के आचार्य भागीदार होंगे। और कोई आचार्य छात्र या छात्रा से सवाल पूछ सकेगा। इस परीक्षा के बाद ही छात्र उपाधि पाने का अधिकारी होगा। ऐसे भली प्रकार जाँचे परखे गए छात्रों का व्यक्तित्व विद्या एवं सेवा का संगम होगा। सम्पूर्ण विश्वविद्यालय की गतिविधियों में इसकी झलक होगी।