Magazine - Year 2002 - Version 2
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Language: HINDI
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लड़ें अब एक लड़ाई और, अँधेरे से
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हर साल दीपावली पर भारत माता एक नए प्रकाश पुञ्ज के अवतरण की प्रतीक्षा करती है। ऐसा प्रकाश पुञ्ज जो उसकी सौ करोड़ सन्तानों के घर-आँगन के साथ उनके मन-आँगन में भी उजियारा फैला सके। हर साल की तरह यह प्रतीक्षा इस बार भी 4 नवम्बर 2002, सोमवार की साँझ को फुलझड़ियों की जलती-बुझती रोशनी और दीयों की टिमटिमाहट के बीच रहेगी। पाँच-सात हजार साल से चले आ रहे ज्योति पर्व पर देश की दीवारें तो जगमगा जाती हैं। पर माटी के सभी पुतलों (आज का इन्सान) को माटी के ये दीप अभी तक पूरी तरह से आलोकित नहीं कर पाए। इस बारे में प्रश्न चिह्न कई हैं, जिन्हें अपने उत्तरों की प्रतीक्षा है।
अपनी 360 तिथियों, 12 संक्रान्तियों तथा 7 वारों के योग से हजारों व्रतों, पर्वों और उत्सवों के सजीव संग्रहालय भारत देश में यह ज्योति पर्व कुछ खास ही है। इसकी खासियत को देखकर एक पश्चिमी चिन्तक ग्रेगरी बैटसन ने यहाँ तक कह दिया कि ‘भारत का साँस्कृतिक इतिहास पुस्तकों के पृष्ठो में नहीं बल्कि दीपावली के दीयों की रोशनी में लिखा है।’ जब यह रोशनी सम्भवतः पहली बार जली थी, तब इसकी प्रखर आभा कुछ विशेष ही थी। परन्तु बीते कुछ सालों से यह धीमी, फीकी और मद्धम होती जा रही है। पुराण कथा कहती है कि दीवाली के दीये पहली बार मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम के स्वागत में जले थे। तब इन मिट्टी के दीयों में उनके शौर्य का तेज प्रकाशित हुआ था। वही शौर्य जिसके प्रभाव और प्रताप से रावणी अनाचार और आतंक का अन्धकार मिटा था। वही महाशौर्य जिसके बलबूते प्रभु श्रीराम ने ‘निसिचर हीन करौं महि’ का अपना लोक विश्रुत प्रण पूर्ण किया था।
रावण के आतंक पर श्रीराम की विजय मात्र एक पुराण कथा नहीं, बल्कि भारत देश की जीवित, अमर और अमिट इतिहास है। यह महातपस्वी श्रीराम की रावण की विलासी जीवन शैली पर विजय थी। यह लोकनायक श्रीराम की आतंक के महाखलनायक रावण पर विजय थी। राम की रावण पर विजय के बाद उनके अयोध्या आगमन पर वहाँ के नागरिकों ने दीपावली को आलोक पर्व के रूप में मनाया। तभी से यह दीपोत्सव राष्ट्र के विजय पर्व के रूप में मनाया जाता है। हालाँकि इसके प्रतीक और परम्परा के सारे ताम-झाम एवं सरंजाम के बावजूद इसकी अर्थवत्ता एवं सार्थकता कहीं खो गयी है। ऐसा लगता है कि भारत देश के किसी लोकनायक एवं राष्ट्रनायक में विजय की भावना, साहस एवं उत्साह ही नहीं बचा है। अत्याचार, अनाचार, व्यभिचार एवं भ्रष्टाचार हर रोज, हर कहीं प्रायः सभी को चुनौती देते घूमते-फिरते हैं। उनकी नाक में नकेल डालने का साहस किसी में नहीं है। आतंक के अंधेरे की दहशत से समूचे राष्ट्र की आम-जनता थर-थर काँप रही है। उसे कोई राम ढूंढ़े नहीं मिल रहा है।
बात आतंकवाद तक ही थमी हुई नहीं है। इस राष्ट्रव्यापी अन्धेरे के आयाम अनेकों हैं। आजादी का छंटवा दशक लग जाने के बाद भी देश के वास्तविक विकास की दशा कुछ खास सुधर नहीं पायी है। हाँ सुधार के बदलते हुए आँकड़े जरूर गिनाए जाते हैं। असलियत यही है कि अपना देश हरित क्रान्ति एवं श्वेत क्रान्ति के युग में प्रविष्ट होकर आज जहाँ पर पहुँच गया है, वहाँ आम आदमी के हिस्से में केवल महंगाई और अभाव ही आया है। गरीब और अमीर आदमी के रिश्तों में खटास कुछ ज्यादा ही बढ़ी है। राष्ट्रीय आबादी का एक बड़ा हिस्सा इस इक्कीसवीं सदी में भी गरीबी का जीवन जीने के लिए मजबूर है। सच्चाई यही है कि देश के आम आदमी अंधेरे का भारी-भरकम बोझ ढोते हुए अपनी जिन्दगी की यात्रा कर रहा है। राष्ट्रव्यापी सूखे के इस विषम काल में बाहर की थोड़ी देर की रोशनी उसके अन्दर के घर को कैसे आलोकित कर सकती है? आज के लोकनायकों एवं राष्ट्रनायकों के हृदय प्रदेश जब तक ज्योतित नहीं होंगे, तब तक यह ज्योति पर्व यूँ ही प्रश्नों के कटघरे में खड़ा रहेगा। फुलझड़ियों की रंग-बिरंगी चिंगारियां केवल आम आदमी का दिल जलाने का काम करेंगी।
इस पावन पर्व पर माता लक्ष्मी एवं विघ्नविनाशक गणेश के पूजन का विधान है। वेद-पुराण एवं शास्त्रों में इस पूजन की अनेकों रीतियाँ भी मिलती हैं। जिसमें से कुछ का पालन भी हर साल होता है। लेकिन इस प्रक्रिया में कहीं कोई त्रुटि जरूर है। अन्यथा अपने राष्ट्र से विजय, समृद्धि एवं सद्बुद्धि यूँ न रूठ जाती। कमी शायद पूजन करने वालों में है, उनका धन तो काला है ही, उनके दिल भी काले हैं। ऐसों का पूजन भला माता लक्ष्मी कैसे स्वीकार करें। राष्ट्रीय विघ्नों को जन्म देने वालों से भला विघ्ननाशक गणेश किस तरह से प्रसन्न हों। भगवती लक्ष्मी एवं भगवान् गणेश तो तभी प्रसन्न हो सकते हैं, जब काले धन के ढेर पर बैठे काले चेहरे वाले धनिक नहीं, बल्कि आम-आदमी निर्मल आस्था के साथ उन्हें समवेत भाव से पूजें, समवेत स्वरों में पुकारें।
इसे अपना राष्ट्रीय दुर्भाग्य ही कहेंगे कि आज दीपपर्व की ज्योति प्रायः काले धन की कालिख में कैद होकर रह गयी है। और यह कालाधन-महंगाई का मौसेरा भाई है। ये दोनों मिलकर कंगाली एवं गरीबी की राह बनाते हैं। इसलिए जीवन के तिमिर मार्गों से गुजरते हुए आम लोगों को ज्योति पर्व कितना रोशन कर सकता है? यह बड़ा ही कंटीला और रहस्यमय प्रश्न है। इसका सही समाधान केवल वैचारिक क्रान्ति में ही है। विचार क्रान्ति के दीप ही इस अन्ध व्यवस्था को चुनौती दे सकते हैं। शान्तिकुञ्ज के संस्थापकों ने अपने जीवन काल में इसी विचार क्रान्ति को जन्म दिया था। और उन्होंने अपने तप तेज से विचार क्रान्ति के अनेकों दीप जलाए थे। इन दीपों से ज्योति लेकर थोड़े से प्रयास-पुरुषार्थ से न केवल अपने घर-आँगन बल्कि अपने गाँव-शहर को भी जगमगाया जा सकता है।
इसके लिए हमें आज ठीक उसी तरह की हिम्मत करनी होगी, जैसी कि आजादी के समय हमारे पुरखों ने की थी। आजादी के पहले गुलामी का अंधेरा था। इस गुलामी के अंधेरे के खिलाफ देश का हर छोटा-बड़ा आदमी जैसे बन रहा था, लड़ रहा था। आजादी की लड़ाई देश के आम आदमी की लड़ाई बन गयी थी। सभी के सामने यह स्पष्ट था कि किससे लड़ने है, किस पर प्रहार करना है? इस महासंघर्ष का सुखद परिणाम भी हमें मिला। यदि आज के दौर में फिर से कुछ वैसा ही सुखद परिणाम पाना है तो फिर से कुछ वैसा ही संघर्षशील होना पड़ेगा। फिर से एक लड़ाई लड़नी पड़ेगी- देश भर में फैले हुए अंधेरे से लड़ाई। अंधेरे को फैलाने वाली शक्तियों से लड़ाई।
यह ठीक है कि गरीबी, बेकारी, भ्रष्टाचार, अनाचार एवं आतंक हद से ज्यादा बढ़ चुका है। पर हमारे राष्ट्र में प्रबल पुरुषार्थ के बीज अभी भी है, भले ही ये इन दिनों सोए हुए हों। इन्हें अंकुरण के लिए केवल थोड़े से खाद-पानी की जरूरत है। और जरूरत है विचार क्रान्ति के ऐसे प्रकाश पुञ्ज की जो टिमटिमाकर बुझ न जाए, बल्कि आलोकित रहे। विचार क्रान्ति के थोड़े से दीपों में ही इस राष्ट्र की समस्त आशा संजोयी है। एक दीप से दूसरा दीप जलेगा और देश के घर-आँगन ही नहीं खेत, खलिहान, गाँव-शहर और प्रान्त सबके सब जगमगाने लगेंगे। इस प्रयास के बिना यह उल्लास एवं आलोक पर्व प्रश्नों के कटघरे में ही खड़ा रहेगा। क्योंकि मिट्टी के दीये केवल थोड़ी देर के लिए घर-आँगन को ही रोशन कर पाते हैं। मन-आँगन में उजियारा फैलाने के लिए तो विचार क्रान्ति के ही दीप चाहिए। धनतेरस से लेकर यम द्वितीया तक के पर्वों से बना यह महापर्व भी सार्थक होगा जब हम अपने अन्दर के अन्धकार को साफ कर उसे अकलुष बनाएँ। साथ ही यह समझें कि शील से प्राप्त लक्ष्मी ही देवभूमि भारत और यहाँ की देवसंस्कृति को अभिप्रेत है। अत्याचारों से बनी सोने की लंका नहीं। इस सार्थक समझ के बिना इस महापर्व की माँगलिक भावना सदा ही प्रश्नचिह्नित बनी रहेगी