Magazine - Year 2003 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रभु! जड़-चेतन में, रोम-रोम में शाँति दीजिए
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संसार के कोलाहल एवं अशाँत वातावरण में एक चेष्टा यह दिखाई देती है कि प्रत्येक व्यक्ति शाँति पाने के लिए व्याकुल है, सारे प्रयत्न-पुरुषार्थ इसीलिए किए जा रहे हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि शाँति शाश्वत है, अशाँति तो वाह्य हलचलों की प्रतिक्रिया मात्र है। शाँति का भाव मानव के अंतःकरण में बीजरूप में विद्यमान है। अनंत कोलाहल के मर्मस्थल से भी एक मंत्र ध्वनित हो रहा है, ‘शाँतिः-शाँतिः’। शाँति वह प्रेरक शक्ति है, जो शाँत स्वरूप में समस्त जड़-चेतन में विराजमान है। मनुष्य की अंतरात्मा में स्थित होकर वही सत्ता अपने अस्तित्व की प्रेरणा देती रहती है।
उस शांतिस्वरूप परमात्मा के दर्शन अपने ही अंतःकरण में किस प्रकार किए जाएँ, इसका एक ही उत्तर है-अनंत शाँति का अनुभव शाँत मनःस्थिति द्वारा ही किया जा सकता है। आँतरिक चंचलता का कोलाहल हमें अपनी अंतरात्मा से दूर रखता है। हमारी प्रवृत्तियाँ अनेक दिशाओं में दौड़ती हुई शक्ति को छिन्न-भिन्न किए दे रही हैं। वाह्य भाग-दौड़ के असंयमित कारणों से मन सदा अशाँत बना रहता हैं मन की व्यग्रता से सह एकाग्रता बन ही नहीं पाती कि वृत्तियों को अंतर्मुखी करके उस शांतिस्वरूप आत्मा के दर्शन कर सकें।
सामान्यतः लोग जीवन के ह्रास और शक्ति के अभाव को शाँति समझ लेते हैं, किंतु जीवनविहीन शाँति तो मृत्यु है। शक्तिहीन शाँति तो जड़ता की परिचायक है। गति एवं क्रिया से रहित निश्चेष्ट होना शाँति नहीं है। शाँति तो एक संतुलित मनःस्थिति है, जिसे प्राप्त कर मनुष्य साँसारिक कोलाहल एवं विपन्नताओं में भी निर्लिप्त बना रहता है। जीवन की संपूर्ण शक्ति के स्वरूप में जो विद्यमान है, वही शाँति है। जो सृष्टि के सौंदर्य को प्रकाशित एवं प्रमाणित करने के लिए सचेष्ट है वह शाँति है।
इसे एक सामान्य उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है। विशालकाय रेल इंजन चलता है, उसके पहिये घूमते हैं, किंतु इंजन ही चालक नहीं है, वरन् चालक वह है, जो इंजन में बैठा उसे गति दे रहा हैं गतिशील संसार के मध्य अदृश्य रूप में विद्यमान चेतना शांतिस्वरूप है। रेल के डिब्बे में बैठे यात्री तीव्र गति से भयभीत नहीं होते। वे जानते हैं कि इंजन को चलाने एवं नियंत्रित करने वाला बुद्धिमान ड्राइवर बैठा है यह अभय की भावना तभी बनती है, जब यात्री इस बात से परिचित होते हैं कि रेल की भयंकर गति अनियंत्रित नहीं है।
विशाल कारखाने में यदि कोई अनभिज्ञ व्यक्ति पहुँचे तो यही समझेगा कि यहाँ कोई दानवीय काँड हो रहा है। चक्रों की तीव्र ध्वनि, मशीनों की गड़गड़ाहट उसके मन को विक्षुब्ध बना देगी, किंतु जब उसे पता चलता है कि उनको नियंत्रित-संचालित करने वाला कोई विशिष्ट मनुष्य मौजूद है तो वहाँ वह भयरहित होकर शाँति का अनुभव करेगा कारखाने के कोलाहल एवं गति में, परिणाम की सार्थकता में उसे शाँति की प्रतीति होगी।
जगत के प्रचंड शक्ति-वेग एक विभीषिका के रूप में मानव-मन को उद्वेलित कर रहे हैं। रेल की गड़गड़ाहट एवं कारखाने की भयंकर ध्वनि के समान सृष्टि की आवेगजन्य क्रिया-प्रतिक्रियाओं से मनुष्य विक्षुब्ध बना रहता है। इसका मुख्य कारण है-अंतर्दृष्टि का अभाव, मन की उद्विग्नता, जो उसे जगत के मध्य विद्यमान शाँत सत्ता के दिग्दर्शन से वंचित रखती है, फलस्वरूप जीवनपर्यंत मनुष्य साँसारिक अभावों, आघातों से भयभीत होकर विक्षुब्ध बना रहता है। अपने अज्ञान के कारण उस दिव्य सत्ता का अनुभव नहीं कर पाता, जो निर्लिप्त भाव से बैठी संसार को गति प्रदान कर रही है।
वह प्रकृति को चेतना से, प्राण और सौंदर्य से भरपूर बनाकर मंगलमय बना रही है, सृष्टि के, शक्ति के वेग को भी एक कल्याणकारी लक्ष्य की ओर लिए जा रही है, धात्री के समान अनादिकाल से जगत की रक्षा कर रही है, समस्त ग्रह-नक्षत्रों को, जड़ पदार्थों को परस्पर आबद्ध किए सुव्यवस्थित ढंग से संचालित कर रही है, चेतन प्राणियों का पालन-पोषण कर रही है, अनेक स्वरूपों में वह पालन शक्ति के रूप में जगत में विचरण कर रही है। जीवन उसका एक स्वरूप है तो मृत्यु दूसरा सुख-दुःख, हानि-लाभ उसके ही विभिन्न रूप हैं। जीवन व्यापार की समस्त गतिविधियों में कल्याणकारी भाव में शाँति रूप में विराजमान है। यदि ऐसा न होता ता आज संसार में जो सौंदर्य, आकर्षण दिखाई दे रहा है, वह आघातों द्वारा लुप्त हो जाता। मानव-मानव और अन्यान्य प्राणियों के बीच जो संबंध-बंधन आकर्षित कर रहा है, वह समाप्त हो जाता। वह शांतिस्वरूप कल्याणकारी परमात्मा हो जाता। वह शांतिस्वरूप कल्याणकारी परमात्मा ही समस्त संसार की रक्षा कर रहा है।
मन की चंचलता ही उस शांतिस्वरूप के, जो अंतरात्मा में बैठा अपना भाव प्रेषित करता रहता है, सान्निध्य-लाभ से वंचित रखती है। वाह्य संसार में मन शाँति की तलाश में भटकता रहता है। कभी उसे वस्तुओं के आकर्षण में ढूंढ़ता है तो कभी व्यक्तियों में आकर्षणों के ये बंधन उसे और भी आबद्ध करके अशाँत बनाते हैं वस्तुओं, व्यक्तियों से बद्ध होकर मनुष्य अपने आँतरिक स्रोत से दूर हटता चला जाता है। संपूर्ण जीवन मन की भाग-दौड़ चलती रहती तथा मनुष्य को व्यग्र बनाए रहती है। भाग-दौड़ का परिणाम यह होता है कि मनुष्य की शक्ति क्षीण हो जाती है। शक्ति क्षीण होने से अशाँति उसी अनुपात में बढ़ती जाती है। शाँति प्राप्त करने के अविवेकपूर्ण प्रयास के परिणाम के रूप में अशाँति सामने आती है। थकी इंद्रियाँ निश्चेष्ट जीवन की वाह्य स्थिरता को शाँति का स्वरूप मान बैठने की भूल करती है। शक्ति के ह्रास होने पर भी मन की चंचलता उसी प्रकार बनी रहती है, फलस्वरूप मनुष्य अपने जीवन के अंतिम दिनों में और भी अधिक बेचैन बना रहता है तथा अंतरात्मा के अमृतपान से सदा वंचित रहता है।
अंतरात्मा के शाँत स्वरूप के दर्शन शाँत मनःस्थिति द्वारा कर सकना संभव है। इसके लिए मन को नियोजित करना अति आवश्यक है। असंयमित मन सदा चलायमान रहता है। शास्त्रकार इसी कारण इसी मन को निगृहीत करने का निर्देश देते हुए कहते हैं-मन एव मनुष्याणाँ कारणं बन्धमोक्षयोः।
मन बंधन और मुक्ति का कारण है। वाह्य आकर्षणों में आबद्ध मन के कारण ही अशाँति बनी रहती है। अशाँति दूर करने एवं शाँति प्राप्त करने की इच्छा तो हर एक को होती है, किंतु हमारा प्रयास बहिर्मुखी होता है जड़ वस्तुओं कि क्षणिक आकर्षणों में शाँति पा सकता सर्वथा असंभव हैं आंतरिक भाव-प्रेरणा को समझा जा सके तथा मन की घुड़दौड़ को अंतर्मुखी बनाया जा सके तो स्पष्ट होगा कि न केवल अपनी अंतरात्मा में, वरन् सृष्टि में शांतिस्वरूप परमात्मा विद्यमान है। वाह्य कोलाहल एवं सुख-दुःख तो परिवर्तनशील तरंगें हैं। उन तरंगों का प्रेरणास्रोत तो इन हलचलों के प्रभाव से रहित कल्याणकारी परमात्मा है, जो निर्लिप्त भाव से संपूर्ण चराचर में शाँत रूप में स्थित है। मानवीय काया में अंतरात्मा के रूप में वही विराजमान होकर अपने दिव्य गुणों का आभास प्रेरणाओं के रूप में कराता रहता है। उन प्रेरणाओं को समझा जा सके तथा अपनी चेष्टाओं को अंतर्मुखी बनाया जा सके तो जिसकी प्राप्ति के लिए मन सदा व्यग्र बना रहता है, उस स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है।
साँसारिक सुख-दुःख एवं अभाव उसे ऐसी स्थिति में पहुँचने पर प्रभावित नहीं कर पाते। सर्वत्र आनंद की, शाँति की निर्झरिणी बहती दिखाई देती है। जगत के कोलाहलों में भी उसे कल्याणकारी भाव के दर्शन होते हैं। मन का भटकाव बंद हो जाता है। अनंत कोलाहल में भी उसे एक ही ध्वनि सुनाई पड़ती है- शाँतिः, शाँतिः,शाँतिः।
यह शाँति सभी के लिए सर्वत्र उपलब्ध है और संभव भी, पर हममें से एकाधिक लोग शायद ही उसे प्राप्त कर पाते हैं। कारण स्पष्ट है-मृगतृष्णाजन्य भटकाव। इससे निवृत्ति पाते ही हमें अक्षय शाँति और दिव्य अनुभूति का एहसास पग-पग पर ऐसे मिलने लगता है, जैसे आए दिन सुख-दुख का अनुभव। इस स्थिति की प्रतीति करने के लिए हमें अंतःकरण के चहुँओर व्याप्त वाह्य जगत के उस आवरण को भेदना पड़ेगा, जो इसकी अनुभूति में बाधक बना हुआ है। ऐसा होते ही हम उस दशा का स्पष्ट साक्षात्कार कर लेंगे,जिसकी स्थिति के बारे में वर्णन करते हुए मंत्र में कहा गया है, ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शाँतिः पृथ्वी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। ....... अर्थात् कण-कण, में, समस्त जड़-चेतन में, रोम-रोम में हम उस अनंत शांति का अनुभव कर लेंगे, जो विश्वात्मा के प्रकाश के रूप में उनमें विद्यमान है। हमारी पदार्थपरक दृष्टि के तिरोहित होते ही और दिव्य भावविकास के साथ ही ऐसा संभव हो सकेगा और हमें आभास होगा, जैसे हम शाँति के अथाह समुद्र में तैर रहे हैं, हिलोरें मार रहे हैं और हमारे चारों ओर एक अजस्र शाँति, शाश्वत शाँति, दिव्य शाँति विद्यमान है।