Magazine - Year 2003 - Version 2
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Language: HINDI
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कैसे बचे आधुनिक जीवनशैली के अभिशापों से
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सुख-सुविधाओं एवं उपलब्धियों से भरे सफल जीवन की चाहत हर मनुष्य की एक सहज एवं नैसर्गिक इच्छा है। इस सहज इच्छा को कितने इंसान यथार्थ में साकार कर पाते हैं, यह एक विचारणीय प्रश्न है, क्योंकि सफलता की समग्रता के लिए उपलब्धियों की सुखद अनुभूति के साथ शान्ति और आनन्द का अमृत रस भी घुलना चाहिए, अन्यथा आन्तरिक शान्ति, सुकून एवं संतोष से वंचित कामयाबी एक दुखद विडम्बना बन जाती है और इसके रहते जीवन एक भयावह दुर्घटना प्रतीत होता है। आज की भागम−भाग भरी जिन्दगी में कुछ ऐसा ही बड़े व्यापक स्तर पर एवं बड़े मुखर रूप में घटित हो रहा है।
इसमें प्रायः सभी एवं विशेषकर युवावर्ग सुख-सुविधाओं एवं उपलब्धियों का अम्बार लगाने की अंधी दौड़ में शामिल हैं, किन्तु सफलता के शिखर पर भी यहाँ जो पल्ले पड़ते हैं वे हैं-असंतोष, निराशा और खीज। ऊपर से सब कुछ छीन जाने का भय अलग से आक्रान्त किये रहता है। यहाँ सफलता के जो मायने तय किये गये हैं वे अपनी चरम परिणति में जीवन रूपी वृक्ष को समुन्नत करने की बजाये उसकी जड़ों पर कुठाराघात करने वाले घातक अस्त्र ही सिद्ध होते हैं। इस अंधी दौड़ में एक ओर जहाँ व्यक्ति की पारिवारिक एवं सामाजिक जिन्दगी तबाह हो जाती है वहीं दूसरी ओर भाँति-भाँति के रोग घुन की तरह उसके शरीर व मन को खोखला करने लगते हैं। सफलता की इस त्रास्द पीड़ा के कारणों की समझ व इससे उबरने के उपायों पर गम्भीर विचार अपेक्षित है, जिससे सफलता अपने साथ सुख-शान्ति की अनुभूति भी करा सके।
वास्तव में यह त्रासदी आधुनिक युग की उपभोक्तावाद एवं वैश्वीकरण के दौर की सहज-स्वाभाविक उपज है। अधिक से अधिक सुख-सुविधाओं एवं भोग की साधन-सामग्रियों का अर्जन, इसके लिए किसी भी तरह अधिक से अधिक धन का उपार्जन ही इसके अभीष्ट लक्ष्य हैं। इसकी मायावी चकाचौंध के सम्मोहन में सामान्य व्यक्ति बिना सोचे विचारे इसके निर्देशों का अनुसरण करने के लिए विवश है। इससे उपजी महत्त्वाकाँक्षाओं की मृग तृष्णा जनमानस में इस कदर हावी है कि वह मात्र एक मशीन बनकर इनकी पूर्ति का यंत्र बनकर रह गया है। सफलता की इस अंधी दौड़ में जीवन पद्धति इस कदर अस्त-व्यस्त एवं विकृत हो जाती है कि इसमें बिना रुके, बिना थके दौड़ने वाले धावक शीघ्र ही अनेक रोगों और विकारों के जाल में फँस जाते हैं।
तमाम तरह के शारीरिक एवं मानसिक रोगों के साथ काम-सम्बन्धी विकारों की मार इन्हें झेलनी पड़ती है। ऐसे रोगों में मधुमेह, दिल के रोग, मोटापा, उच्चरक्तचाप, अल्सर, एसिडिटी, तनाव, अवसाद तथा कैन्सर प्रमुख हैं। चिकित्सक इन्हें ‘जीवन शैली रोग‘ या ‘लाइफ स्टाइल डिसआर्डर’ कहते हैं, क्योंकि ये मूलतः खान-पान से लेकर आचरण-व्यवहार की विकृतियों से पनपते हैं। पिछले दो दशक पूर्व जहाँ इन रोगों की कोई खास चर्चा तक नहीं होती थी, आज ये जीवन का गम्भीर संकट बन गये हैं। वास्तव में आधुनिक मानव बिगड़े हुए खान-पान और बुरी तरह अव्यवस्थित जीवन शैली के द्वारा इन रोगों को स्वयं ही निमंत्रण दे रहा है।
तेज रफ्तार जिन्दगी के शोर-शराबे में व्यक्ति को पता भी नहीं चलता कि कब दबे पाँव आ इन रोगों ने उसके शरीर व मन में अड्डा जमा लिया है। दिल्ली के एक प्रख्यात् क्लीनिक ने जब 300 सामान्य व्यक्तियों की जाँच की तो पता चला कि 85 मधुमेह से ग्रसित थे, 58 को उच्चरक्तचाप की शिकायत थी, 22 दिल का रोग लगा बैठे थे और 43 के लीवर में पथरी पल रही थी। जबकि ये सभी लोग जाँच से पहले खुद को स्वस्थ मान रहे थे। महत्त्वाकाँक्षाओं की मृग तृष्णा में भटकते लोगों की माया नगरी मुम्बई में भी ठीक यही हाल है। यहाँ की क्लीनिकों में हुए शोध अनुसंधान भी 30 प्रतिशत रोगों को जीवन शैली से उपजे मानते हैं। युवाओं पर हुए सर्वेक्षण अनुसंधान के आधार पर यह तथ्य उभर कर सामने आया है कि मात्र 20 वर्ष की उम्र का पड़ाव पार करते ही हमारे युवा सब कुछ जल्दी से जल्दी पाने की महत्त्वाकाँक्षा पाल बैठते हैं। बड़े व्यावसायिक घराने और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ उनके कच्चे सपनों को हवा देने का काम करती हैं। उन्हें भौतिक सुख-सुविधाओं के मोहक जंजाल में फँसाकर उनका सुख-चैन लूट लेती हैं। युवाओं को पता भी नहीं चलता कि कब उनका हँसती-खेलती जिन्दगी गूँगी-बहरी मशीन में बदल गयी। यही कारण है कि आज युवाओं में भी दिल के रोगों और तनाव जनित विकारों का प्रकोप तीव्रता से बढ़ रहा है।
आधुनिक ‘हाईफाई’ जीवन शैली उन्हें प्रायः धूम्रपान और मदिरापान की बुराई की ओर भी धकेल देती है। क्रमशः ये आदतों में शुमार हो जाती है। व्यसन बनकर तमाम तरह के शारीरिक रोगों के साथ ही खतरनाक मानसिक रोगों को भी जन्म देती हैं। बैंगलोर स्थित राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य एवं तंत्रिका विज्ञान संस्थान ‘निमहेंस’ के रिपोर्ट के अनुसार आज देश के मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सालयों में लगभग 40 प्रतिशत रोगी शराब से उपजी पीड़ाओं को झेल रहे हैं। जबकि एक दशक पूर्व यह संख्या मात्र 5 प्रतिशत थी। शराब का साथ निभाने वाला ‘उल्टा-पुल्टा’ खान-पान भी व्यक्ति के तन-मन पर कई ढंग से चोट पहुँचाता है। पोषण विशेषज्ञों के अनुसार शहरी आबादी में मोटापे के बढ़ते प्रकोप के पीछे आधुनिक जीवन शैली और बिगड़े खान-पान का भारी हाथ है।
नित नयी ऊंचाइयों को छूने की अंधी दौड़ में अस्त-व्यस्त जीवन और अत्यधिक तनाव ही पल्ले पड़ता है। स्वस्थ जीवन का प्राकृतिक टॉनिक ‘नींद’ भी इस का शिकार बनता है। एक और जहाँ यह विकृत जीवन शैली आँखों से नींद चुरा लेती है। दूसरी ओर कई बार ऐसा भी होता है कि व्यक्ति दिन भर उनींदा सा रहता है। दोनों ही स्थितियाँ खतरनाक है, जिनका सही उपचार अपेक्षित है। किन्तु सामान्यता रोज नींद की गोलियाँ गटकना ही इनका सरल समाधान मान लिया जाता है। इसी लापरवाही का परिणाम कई बार दिल के दौरे या दिमाग की नस फटने के रूप में सामने आता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार बिगड़ी हुई जीवन शैली से उपजे दिन के रोगों के कारण प्रति वर्ष लगभग 24 लाख भारतीय अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं। हाल के एक एंग्लो-जापानी सर्वेक्षण अध्ययन से पता चला है कि यदि कोई व्यक्ति सप्ताह में 60 घण्टे से ज्यादा काम करे और हर रात पाँच घण्टे से कम सोयें तो दिल का दौरा पड़ने की सम्भावना दोगुनी से तीन गुनी तक हो सकती है।
जरूरत से अधिक कार्य करना बिगड़ी जीवन शैली का घटक है। एक अभिन्न जबकि हर व्यक्ति मानवीय क्षमताओं की सीमा में बँधा हुआ है। दृढ़ इच्छा शक्ति एवं प्रेरणा के बल पर इन क्षमताओं को एक सीमा तक ही बढ़ाया जा सकता है। इससे आगे जाने पर व्यक्ति के तन-मन में टूटन शुरू हो जाती है, जो तनावजन्य तमाम तरह के विकारों को जन्म देती है और अन्ततः जान भी ले सकती है। जरूरत से ज्यादा काम या ओवर वर्क का सबसे ज्वलंत उदाहरण जापानी लोग हैं, जहाँ आजकल इसी कारण से आत्महत्याओं की दरें बढ़ती जा रही हैं।
जबकि सफलता के साथ स्वस्थ एवं सार्थक जीवन के लिए यह जरूरी है कि हम अपने व्यावसायिक और घरेलू जीवन के बीच एक संतुलन स्थापित करें। संतुलन ऐसा हो कि हमारी क्षमताओं का न केवल इष्टतम उपयोग ही, बल्कि इनमें निरन्तर बढ़ोत्तरी भी होती रहे, किन्तु इसके विपरीत जब व्यक्ति अपने व्यावसायिक जीवन में पूरी तरह डूब जाता है तो धीरे-धीरे उसकी शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक क्षमताएँ चूकने लगती हैं। परिणामस्वरूप व्यक्ति की कार्यक्षमता घटने लगती है। निराशा और खीज के कारण उसे मानसिक विकार घेरने लगते हैं। हताश-निराश एवं कुण्ठा के पलते-बढ़ते वह गहन अवसाद का भी शिकार हो जाता है। आजकल कार्पोरेट जगत् में इसका प्रकोप बढ़ता जा रहा है। इस दशा को ‘बर्न आउट’ कहा जाता है। चिकित्सकों ने इसे ‘क्रॉनिक फैटिंग इम्यून डेफिशिएन्सी सिन्ड्रोम’ नाम दिया है। अमेरिका में इसे तेजी से उभरता हुआ संक्रामक रोग माना जा रहा है। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट के अनुसार, विश्व के लगभग एक प्रतिशत मैनेजर इस रोग के शिकार हैं। जापान के लगभग एक तिहाई अधिकारी इसकी गिरफ्त में हैं। इससे त्रस्त रोगों को हर समय थकान तो रहता ही है, इसके साथ हल्का बुखार और पेशियों-जोड़ों में दर्द भी हो सकता है। इसके अतिरिक्त खराब गला, पेट में दर्द, गाँठों में सूजन जैसी शिकायत भी पनप सकती हैं। भुलक्कड़पन और जुबान पर सही शब्द न आने की समस्या भी बढ़ जाती है। वास्तव में यह रोग व्यक्ति की तमाम रोगों से लड़ने की सामर्थ्य को छीन लेता है। साथ ही उसके शरीर में उत्साह और उल्लास का संचार करने वाले रसायन व हार्मोन बनने भी बन्द हो जाते हैं। परिणामस्वरूप निराशा, खीज और अवसाद हावी होने लगते हैं। दुनिया के कई बेहद कुशल और प्रभावी प्रबन्धक इस ‘सिन्ड्रोम’ के कारण पतन के गर्त में गिर चुके हैं।
उपभोक्तावाद और वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में यदि हम उपलब्धियों के सुखद अहसास के साथ सफल जीवन की सुख-शान्ति भरी खुशहाली को भी पाना चाहते हैं तो इसके लिए सर्वप्रथम अपनी चिंतन पद्धति एवं जीवन शैली को व्यवस्थित करना होगा। अपने खान-पान एवं आचार-विचार में संयम एवं सात्विकता का अधिकाधिक समावेश करना होगा। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि हमारे जीवन के सभी पहलुओं के बीच आदर्श संतुलन कायम हो। कोई भी एक पक्ष जरूरत से ज्यादा हावी न हो। काम-काज के साथ खेलकूद, मनोरंजन, विश्राम और नींद भी हमारे जीवन के आवश्यक पहलू हैं।
इसके लिए महत्त्वाकाँक्षाओं की मृग तृष्णा से बाहर निकलकर सोच-विचार को व्यावहारिक धरातल पर लाकर आगे बढ़ना होगा। अपने क्रियाकलापों और लक्ष्यों के बीच व्यावहारिक संतुलन होना चाहिए। अपने ऊपर उतना ही काम लादना चाहिए, जितना तन-मन सह सके। इसके लिए अपनी वास्तविक क्षमताओं का सही आँकलन आवश्यक है। रातों की नींद उड़ाकर काम करना ठीक नहीं है। यदि पूरी ईमानदारी के साथ सामान्य कार्य करते हुए किसी लक्ष्य को पाना नामुमकिन सा है तो अपने अधिकारी को स्पष्ट रूप से ‘ना’ कह दें। जबरदस्ती का तनाव ओढ़ने का कोई लाभ नहीं है। छोटी-छोटी बातों को टालने की कला सीखें। जहाँ मामला वाकई गम्भीर हो और जरूरी हो, वहीं हस्तक्षेप करें। किसी भी नये काम से उपजने वाले तनावों और होने वाले लाभ का तुलनात्मक विश्लेषण अवश्य करें। जहाँ तक सम्भव हो सारी जिम्मेदारी अकेले अपने ऊपर न ओढ़ें, टीम बनाकर कार्य को अंजाम देने की कोशिश करें। समय सीमा तय करते समय तमाम पहलुओं पर नजर रखें और व्यावहारिक बनें। समय सीमा में थोड़ी गुँजाइश अवश्य रखें, इससे तनाव में खासी कमी देखी गयी है। अपनी जिन्दगी वायदों पर नहीं, कोशिशों पर चलायें।
इस तरह खानपान श्रम-विश्राम एवं जीवन शैली सम्बन्धी छोटी-छोटी बातों पर समुचित ध्यान देते हुए आधुनिक जीवन की भागदौड़ भरी जीवन पद्धति के नकारात्मक प्रभावों को बहुत हद तक निरस्त कर सकते हैं और अपने तन-मन के स्वास्थ्य संतुलन को बरकरार रखते हुए अपने पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन को सुखद एवं संतोषपूर्ण बना सकते हैं तथा समुचित उपलब्धियों के साथ आनन्दपूर्वक सार्थक सफलता के शिखर तक पहुँच सकते हैं।