Books - बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं गुण दें
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
बच्चों के मित्र बनकर उनको व्यवहार कुशल बनाइये
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
अपने बच्चों के अच्छे मित्र बनिये। मित्र इस माने में कि उनके साथ प्रसन्न रहिये, उनकी अभिरुचि से साम्य रखिए, सहायता कीजिये और उनको अहित से बचाइये। बच्चों के साथ व्यवहार करने में इन मुख्य चार बातों का ध्यान रखने का मतलब है कि आप उनके साथ एक सच्चे मित्र का कर्तव्य निभाते हैं। जो अभिभावक अपने इस कर्त्तव्य के प्रति जागरूक रहते हैं वे मानो अपने बच्चों का ठीक ठीक पालन पोषण करते हैं, और जो इसकी उपेक्षा करते हैं, वे मानो बच्चे को समय की स्वतन्त्र लहरों पर छोड़ देते हैं कि वे जिस किनारे चाहें उन्हें ले जाकर लगा दें। समय के सिर छोड़े हुये बच्चों का विकास जंगली झाड़ियों की तरह होता है। जिन में फूल कम और कांटे अधिक होते हैं, उसमें भी अधिकतर फूल निर्गन्ध और गन्ध वाले फूल भी निरर्थक निरुपयोगी रह जाते हैं। इसके विपरीत जिन बच्चों का पालन, पालन के रूप में किया जाता है वे एक चतुर माली के व्यवस्थित उद्यान की भांति सुन्दर और सुगन्धित होते हैं। कुछ अभिभावक स्वभाव से बड़े सख्त और प्रभावशाली होते हैं। उनके आते ही घर में एक कोने से दूसरे कोने तक सन्नाटा छा जाता है। बच्चे जहां के तहां सहम कर ठिठक जाते हैं। सब खामोश हो जाते हैं। अगर बात भी करते हैं तो बहुत धीरे जैसे कोई अपराध कर रहे हों। सब एक दूसरे की ओर आश्रय की दृष्टि से देखने लगते हैं। सारे काम निर्जीव यन्त्र की तरह होने लगते हैं। घर के पूरे वातावरण में एक निरुल्लास परिवर्तन आ जाता है। मानने को तो इसे अनुशासन माना जा सकता है किन्तु इस प्रकार का नियन्त्रण होता है कुछ आतंक की जाति बिरादरी का। इसमें अदब से अधिक भय का अंश रहता है और भय की अनुभूति न किसी को पसन्द होती है और न उससे कुछ बनता है। गृह-स्वामी के आने से जो एक प्रसन्नता पूर्ण कृतज्ञता परिवार में फैलनी चाहिए उसके स्थान पर सारे सदस्य एक प्रकार की परेशानी अनुभव करने लगते हैं। बच्चों को खास तौर से अपने मन में मस्तिष्क पर दबाव पड़ता मालूम होता है जिससे वे बड़े अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। होना तो यह चाहिये कि पिता के आते ही सारे बच्चे पुलकित होकर पिताजी! पिताजी! पिताजी! कहते हुए चारों ओर से घेर लें और अपनी अपनी कहने सुनने लगें और पिताजी अच्छा, ‘‘हां’’ ‘‘यह बातें’’ कहते हुए हंसते मुस्काते बच्चों से घिरे कमरे में पहुंचे किन्तु होता है इसके विपरीत। उनके प्रवेश की आहट पाते ही खेलते और हंसते हुए बच्चे सहसा चुप होकर कतराने लगते हैं। उनके अर्धचेतन में कुछ इस प्रकार की प्रतिक्रिया झलक मार जाती है अच्छा होता पिताजी अभी थोड़ी देर न आये होते। उनके देर से आने में जल्दी आ जाने का आभास अनुभव होता है। यह अनुभूतियां श्रेयस्कर नहीं। इससे स्वाभाविक स्नेहिल प्रवृत्तियों का ह्रास हो जाता है। कुछ अभिभावक बाहर की खीझ घर उतारा करते हैं। मानिये, उन्हें दफ्तर अथवा व्यावसायिक स्थान पर कुछ ऐसी स्थिति को सहन करना पड़ा है जिससे उनके मन में एक क्षोभ पैदा हो गया है। उन्हें कोई गलत बात सुनकर सहन करनी पड़ी है अथवा कुछ नुकसान उठाना पड़ा है, जिससे उन्हें एक मानसिक व्यग्रता है। यह ठीक है कि इस स्थिति में कुछ अच्छा नहीं लगता, फिर भी इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि उसका बदला घर आकर बच्चों से लिया जाये, उन्हें बोलते या पास आते ही झिड़का और डाटा जाये। क्षोभ का स्थान घर नहीं है, न बच्चे इसके दोषी हैं। बाहर का वातावरण बाहर और घर का वातावरण घर बनाये रखना व्यवहार कुशलता है। इनको एक दूसरे से बदलना या इनका सम्मिश्रण कर देना अनुचित है। इससे परिस्थिति संभलती नहीं और बिगड़ जाती है। इसीलिये देश काल का विचार रखने की रीति पर जोर दिया गया है। अपने भावावेगों पर इतना नियन्त्रण अवश्य रखना चाहिये कि वे अयुक्त देशकाल में न प्रकट होने पायें। बच्चों से ऐसा व्यवहार किया जाना चाहिये कि वे आपके आने पर प्रसन्न हो उठें और आने के समय आपकी प्रतीक्षा करें। जब वे अपनी अपनी बातें, शिकायतें और मुकदमे आदि आपके सामने रखें तो उनकी सुनिये और चतुरता से उनका निराकरण करिये। उनके हंसने बोलने में हिस्सा लीजिए बात करिये, कुछ प्रसन्न होइये और उनको प्रसन्न कीजिये। जिससे आपकी उपस्थिति से घर का वातावरण आतंक पूर्ण न होकर प्रसन्नतापूर्ण ही रहे। अनेक अभिभावक बच्चों की रुचि को कोई महत्व ही नहीं देते, सदैव ही उनकी रुचि पर अपनी रुचि स्थापित किये रहते हैं। उनकी छोटी से छोटी रुचि अपना संशोधन किये बिना नहीं मानते। वे अपने इस विश्वास के वशीभूत रहते हैं कि बच्चा तो अक्ल का कच्चा होता ही है उसकी पसन्द हर हालत में गलत होगी इसलिये उसमें उनका संशोधन आवश्यक है। यद्यपि उस संशोधन में एक आदत के सिवाय कोई गम्भीरता नहीं होती तथापि वैसा करेंगे अवश्य। जैसे बच्चे ने कहा पिताजी मेरे लिये पीले रंग की पेंसिल लाइयेगा कि तुरन्त पिताजी ने व्यवस्था दी ‘‘तुम तो बेवकूफ हो, पीले रंग की कहीं अच्छी होती है। पेंसिल तो नीले रंग की ही ठीक होती है।’’ जहां उसने कहा मेरे लिये ‘‘जी’’ निब लाइयेगा कि तत्काल बोले तभी तो तुम्हारा लेख खराब है, रिलीफ निब से लिखना चाहिये। इस प्रकार अन्य बड़ी-बड़ी चीजों और पसन्दगी की बात तो क्या वे ऐसी जरा-जरा सी चीजों में भी संशोधन किये बिना नहीं मानते और उनके इस संशोधन में कोई स्थायी दृष्टिकोण नहीं रहता। उसके कहने से कभी ठीक बताई हुई चीज खराब और खराब बताई हुई चीज अच्छी बतला देंगे। जिससे वह कभी भी यह नहीं जान पाता कि कौन सी चीज ठीक है और कौन-सी खराब। इससे किसी चीज का चुनाव करने में उसे उलझन होने लगती है। वह हर चीज खराब समझने लगता है। कुछ निर्णय करने में उसे आत्म-विश्वास नहीं रहता। हर अभिभावक को बच्चों पर कुछ करना ही होता है। उनके लिये चीजें खरीदनी होती हैं, उनकी, आवश्यक मांग की पूर्ति करनी होती है। इसके लिये अभिभावक अधिकतर करते यह हैं कि वे बहुत दिन तक बच्चों की मांगों और आवश्यकताओं को सुनते रहते हैं और फिर एक दिन सारी चीज लाकर ढेर लगा देते हैं। इस प्रकार एक दिन बाद उनकी इच्छायें और रुचियां जाग्रत होने लगती हैं और तब वे आवश्यक न होने पर नई चीजें चाहने लगते हैं, जो ठीक नहीं होता। अभिभावकों को चाहिये कि वे बच्चों की मांग पूरी करने के कार्यक्रम को इस प्रकार विभाजित करें कि उनका हर्ज भी न हो और प्रतिदिन या दूसरे तीसरे एक न एक नई चीज घर में आती रहे। इस प्रकार बच्चों को प्रति-दिन प्रसन्न और खुश होने का अवसर रहता है और घर का वातावरण प्रफुल्लित रहा करता है जो पारिवारिक जीवन के लिये बहुत शुभ है। जिन परिवारों में प्रसन्नता और प्रफुल्लता रहती है वे परिवार धनवान् न होते हुये भी सम्पन्न दिखाई देते हैं। अभिभावकों को यथा सम्भव बच्चों की रुचि की रक्षा करनी चाहिये। उनकी रुचि पर अपनी रुचि को आदतन हठ पूर्वक नहीं थोपना चाहिये। इससे पैसा खर्च करने पर भी बच्चे को सन्तोष नहीं होता। बच्चों की रुचि और प्रौढ़ों की रुचि में बहुत अन्तर होता है। चूंकि बच्चे की अपेक्षा अभिभावकों का उत्तरदायित्व अधिक होता है, इसलिए उन्हें बुद्धिमत्ता पूर्वक बच्चों की रुचि से अपनी रुचि का साम्य स्थापित करना चाहिए। जिन बातों में वे समझें कि बच्चे की रुचि ठीक नहीं रहेगी या तो उसमें उनकी रुचि को अवसर ही न दीजिये या उसे ठीक ठीक पता रहे कि पापा सही कहते हैं। इससे उसमें यह भावना न आने पायेगा कि छोटा होने के कारण उसकी बात नहीं मानी जाती है। अभिभावक के संशोधन में उपयोगिता, लाभ अथवा हित का समावेश अवश्य होना चाहिये। यों ही अकारण संशोधन ठीक नहीं, क्योंकि इस प्रकार की आदत स्वयं एक बचपना है जो अभिभावक को शोभा नहीं देता। बहुत बार बच्चों की बहुत सी ऐसी उलझनें हो जाती हैं जो उनके सुलझाये नहीं सुलझतीं। जैसे उनका किन्हीं दो वस्तुओं में से एक के लिये ही भाई-बहनों का उलझना। साथियों से झगड़ा हो जाना, हर काम बिगड़ जाना, पाठ और प्रश्न समझ में न आना, अध्यापक व अन्य गुरुजनों की नाराजगी दूर करना कोई आशंका अथवा भय दूर करना। ऐसी उलझनें आ जाने पर यह कह कर निराश नहीं छोड़ देना चाहिये कि तुम्हारा मामला है, तुम समझो या तुमने खुद जैसा किया उसको भरो। अपितु उनकी उलझन को ध्यान पूर्वक सुनिये और उसको पूरी तरह समझ कर और उसे समझा कर दूर करने में उसकी सहायता कीजिये। अपनी पुस्तकें, चीजें और कपड़े लत्ते आदि रखने, उठाने धरने और पहनने आदि में उनकी इस प्रकार सहायता कीजिये कि वे उनमें एक व्यवस्था की शिक्षा पा सकें। बच्चों को कपड़े लत्ते पहनने, पेटी लगाने, नाड़ा बांधने, पतलून पहनने, बूट बांधने उतारने और खोलने में उनकी तब तक मदद कीजिये जब तक वे कायदे के साथ ठीक ठीक पहन ओढ़ और बांध खोल न पायें। क्योंकि यदि उन्हें शुरू में इसका ठीक ठीक अभ्यास नहीं हो जाता तो उनकी वह आदत जीवन भर नहीं जाती और परेशानी होती है। गलत गांठ लगाने और खोलने से कमरबन्द में फन्दा पड़ जाना, बनियान का सर में उलझ जाना, उल्टी कमीज उतारना, गलत कोट पहनना, बटन टूट जाना, पेटी उतर जाना आदि रोजमर्रा की बात हो जाती है। इससे उन्हें सदैव परेशानी भी होती है और देखने वाले उन्हें बेवकूफ और बेसऊर समझते हैं। इस प्रकार प्रति-दिन की साधारण से साधारण बातों में उनकी तब तक अवश्य मदद की जानी चाहिये, जब तक वे ठीक से इसके अभ्यस्त न हो जायें। यह छोटी-छोटी उलझनें कभी-कभी बड़े-बड़े हर्ज और हानियों की कारण बन जाती हैं। बहुत से अभिभावक कभी खेल में या किसी शरारत में यों ही अकस्मात चोट लग जाने पर उनकी कोई मदद के बजाय उल्टा उन्हें डांटते-फटकारते और मारने लगते हैं। यह ठीक नहीं। पहली गलती तो उसने की उस पर उल्टा उसे यह कहकर तुमने चोट लगाई है जाकर खुद ठीक करो, एक दूसरी गलती होगी। इससे वह अपने को निःसहाय समझ कर बड़ा निराश हो जाता है। अपना उपचार करने के लिये कोई गलत चीज लगाकर तकलीफ बढ़ा लेना और फिर बढ़ी हुई तकलीफ दूर कराने के लिये आखिर अभिभावक को ही उपचार करना होता है। इससे पहले उसकी मदद करनी चाहिये और तब उससे चोट का कारण पूछकर गलती पर डांटना चाहिये। अन्य भी ऐसी बहुत सी बातें हो सकती हैं जिसमें बच्चे को अभिभावक की सहायता की अपेक्षा होती है। ऐसे अवसर पर उसकी मदद अवश्य करनी चाहिये। बहुत से अभिभावक बच्चे पर नाराज होकर अथवा प्रेमवश या अपनी उपेक्षा और प्रमादवश बच्चों को यह कहकर गलत काम करने या गलत आदत डालने से नहीं रोकते कि जैसा करेगा आप भरेगा, मैं बिना वजह सर क्यों खपाऊं? यह स्वभाव ठीक नहीं। बच्चे क्या करते हैं, क्या सीखते हैं? कहां उठते बैठते हैं अथवा किस प्रकार के बनने जाते हैं। इस पर एक गहरी दृष्टि रखना प्रत्येक अभिभावक का परम कर्त्तव्य है। उनसे ऊब कर या झल्ला कर उन्हें जो चाहें करने और जैसे चाहें बनने के लिये नहीं छोड़ देना चाहिये। सावधानी पूर्वक तब तक उनके पीछे लगे रहना चाहिये जब तक ये ठीक रास्ते पर न आ जायें। इस विषय में आवेग, उद्वेग, आक्रोश अथवा अनिच्छा से काम न लेना चाहिये। उन्हें एक हितैषी मित्र की तरह बुरी बातों से बचाना और अच्छी बातों की ओर प्रेरित करना चाहिए। इस प्रकार जो अभिभावक बच्चों से एक अच्छे मित्र की भांति व्यवहार किया करते हैं उनके बच्चे निःसन्देह योग्य बनकर परिवार तथा समाज दोनों के लिये अच्छे मित्रों की भांति ही उपयोगी बनते हैं।