Books - गायत्री पंचमुखी और एकमुखी
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Language: HINDI
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अक्षत
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अक्षत चढ़ाने से तात्पर्य है कि जो अन्न एवं धन-संपत्ति कमाते हैं उसे हम अकेले ही नहीं सब मिलजुल कर खाएं। परिवार के प्रति, समाज के प्रति, राष्ट्र के प्रति भी हमारा कर्त्तव्य है उसे भी पूरा किया जाना चाहिए।
गीता में कहा है ‘जो अकेले खाता है वह पाप खाता है।’ मनुष्य समाज के प्रति ऋणी रहता है। वह सब कुछ समाज में रहकर समाज के साधनों व सहयोग से ही तो सीखता है। रामू नामक उस बालक का ही उदाहरण लो। वह नन्हा बालक खेत के किनारे सो रहा था, मां किसी काम में व्यस्त थी, जंगल से एक भेड़िया आया और उस बालक को उठा ले गया। कुछ वर्षों के बाद एक शिकारी ने उस बालक को भेड़ियों के झुंड में देखा। ललकारने पर भेड़िये तो भाग गए। उस बालक को, जो आठ-दस वर्ष का होकर भी भेड़ियों के समान ही चलने लगा था, उसी तरह चिल्लाने लगा था, पकड़ कर लाया गया। उसे लखनऊ के अस्पताल में रखा गया और नाम दिया गया रामू। तीन वर्ष तक रखने पर भी वह अपनी बोली नहीं सीख पाया। एक दिन वह मर गया। अपने समाज से कट कर रहने का यह परिणाम हुआ। हमको समाज से अगणित अनुदान मिले हैं। बल-बुद्धि,, धन-संपत्ति सब समाज की देन हैं। अतः यह हमारा कर्त्तव्य है कि अपनी कमाई का एक भाग समान के लिए निकालें। ऐसा करने से कितना लाभ होता है, इसे सुनो।
एक बार भारी अकाल पड़ा। एक ब्राह्मण परिवार सात दिन से भूखा था। अन्न के अभाव में सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची थी। ब्राह्मण भिक्षा से आजीविका कमाते थे। अच्छे समय में भिक्षा आसानी से मिल जाती थी परंतु दुर्भिक्ष में जब लोगों के पास अपने लिए ही कुछ नहीं रहा तो किसी को भिक्षा किस प्रकार देते?
सात दिन के प्रयत्न के बाद चार रोटियों के बराबर भिक्षा मिली। लेकर घर आया। परिवार के चारों सदस्यों के लिए चार रोटियां बनाई गईं। बन जाने पर थाली में रखीं। खाने से पहले ब्राह्मण को याद आया कि कहीं कोई हमसे अधिक जरूरतमंद तो नहीं है। यदि है तो इस उपार्जन पर पहला हक उसका है। पहले तलाश लें फिर भोजन करेंगे। अपने हिस्से की रोटी लेकर बाहर निकलते ही ब्राह्मण देवता ने देखा कि पास ही एक पेड़ के नीचे एक वृद्ध चांडाल पड़ा है। बहुत दिनों से अन्न न मिलने के कारण वह मरणासन्न स्थिति में था। ब्राह्मण को रोटी लेकर समीप आते देखकर बोला कि मुझे कहीं भोजन मिल जाता तो मेरे प्राण बच जाते, कोई मेरे प्राण बचा ले बड़ी कृपा हो। ब्राह्मण ने उस वृद्ध चांडाल को अपने हिस्से की रोटी दे दी पर इससे उसकी भूख शांत नहीं हुई। इस पर ब्राह्मण पत्नी ने भी उसे अपनी रोटी दे दी। अब तो उसकी भूख और तीव्र हो गई। और मांगने लगा तो पुत्र और पुत्री ने भी अपनी-अपनी रोटी उसे खिला दी। सात दिन के भूखे उस परिवार ने बड़ी कठिनाई से प्राप्त हुआ सारा भोजन स्वेच्छा से उस चांडाल को दे दिया, उसकी भूख शांत हुई। उस वृद्ध चांडाल ने तृप्त होकर कुल्ला किया। इस प्रकार फेंका जल जमीन पर पड़ा था, एक नेवला आकर वहां लोटने लगा। नेवले के शरीर का जितना भाग उस जल से गीला हुआ था, सोने का बन गया। उसी नेवले ने जब सुना कि राजा युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ कर रहे हैं तो उसने सोचा कि इस यज्ञ में शेष आधा शरीर भी सोने का हो जाएगा परंतु उसे वहां निराशा ही हाथ लगी। इस प्रकार उस ब्राह्मण का अन्नदान राजसूय यज्ञ से भी बड़ा सिद्ध हुआ। उदार चेताओं के सामान्य कृत्य को भी असाधारण पुण्य माना जाता है।
पूज्यवर ने इसी प्रकार का एक और कथानक सुनाया। संत एकनाथ भक्तों के साथ कांवर लेकर रामेश्वर पर गंगाजल चढ़ाने जा रहे थे। रास्ते में एक गधा प्यास के मारे तड़प रहा था। सब भक्त उस गधे की उपेक्षा कर आगे बढ़ गए परंतु संत एकनाथ जो ‘ईशावास्य मिदं सर्वं यत्किंचित जगत्यां जगत’ की भावना रखते थे, सबमें भगवान का वास मानते थे, उन्होंने उसी जल में से जो रामेश्वरम में चढ़ाने ले जा रहे थे, एक घड़ा उस प्यासे गधे को पिला दिया वह। उठ कर बैठ गया। अब उसकी प्यास और बढ़ी तो दूसरा घड़ा भी पिला दिया। गधा उठकर खड़ा हो गया और पूछा कि तुम यह जल कहां ले जा रहे थे। एकनाथ बोले—‘‘भगवान रामेश्वरम पर चढ़ाने के लिए’’ इस पर वह गधा बोला ‘‘मैं ही तो रामेश्वरम हूं।’’ उसी क्षण वह गधा वहां से गायब हो गया और उसके स्थान पर भगवान रामेश्वरम स्वयं प्रकट हो गए और कहने लगे ‘‘तू ही मेरा सच्चा भक्त है।’’
गुरुदेव ने समझाया कि भगवान मिलते हैं पीड़ितों में, दीन-दुखियों की वेदना में। तुम्हारे अंदर दूसरों के लिए दयालुता होगी, करुणा, संवेदना, सेवा भावना होगी तो समझ लो वहीं भगवान का अवतरण हो जाएगा। देव पूजन के कर्मकांड के माध्यम से इसी देवत्व का अवतरण हमारे अंदर हो-यही प्रयास व भावना होनी चाहिए। वैसे ही कृत्य भी हमारे होने चाहिए।
मिष्ठान्न भी भगवान को चढ़ाते हैं। इसके पीछे यही तथ्य है कि हमारा व्यक्तित्व मधुर बने, वाणी में मिठास हो। कड़वा और कर्कश व्यवहार ही मित्र को शत्रु बना देता है। हम भगवान के अनुरूप ही अपना व्यवहार बनाएंगे। मृदु बनकर दूसरों का हृदय जीत लेंगे। घर-परिवार, मित्र, कुटुंबी सबके प्रिय तभी बन पाओगे जब अपनी वाणी, व्यवहार, व्यक्तित्व, कृतित्व सबमें मिठास पैदा कर लोगे।
बेटा! यही सब दर्शन पूजा-पाठ, देव पूजन में निहित है। इसको अपने जीवन में उतार कर भगवान जैसे बन सकते हो। यही सारे कर्मकांड का मर्म है।