
गायत्री एक या अनेक
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
गायत्री महामंत्र एक है। वेदमाता, भारतीय संस्कृति की जन्मदात्री, आद्यशक्ति के नाम से प्रख्यात गायत्री एक ही है। वही संध्यावन्दन में प्रयुक्त होती है। यज्ञोपवीत संस्कार के समय गुरुदीक्षा के रूप में भी उसी को दिया जाता है। इसलिए उसे गुरुमंत्र भी कहते हैं। अनुष्ठान-पुरश्चरण इसी आद्यशक्ति के होते हैं। यह ब्रह्मविद्या है—ऋतम्भरा प्रज्ञा है। सामान्य नित्य उपासना से लेकर विशिष्टतम साधनाएं इसी प्रख्यात गायत्री मंत्र के माध्यम से होती हैं। इसके स्थान पर या समानान्तर किसी और गायत्री को प्रतिद्वन्द्वी के रूप में खड़ा नहीं किया जा सकता है।
मध्यकालीन अराजकता के अन्धकार भरे दिनों में उपासना विज्ञान की उठक-पटक खूब हुई है और स्वेच्छाचार फैलाने में निरंकुशता बरती गई है। उन्हीं दिनों ब्राह्मण-क्षत्री-वैश्य वर्ग की अलग-अलग गायत्री गढ़ी गईं। उन्हीं दिनों देवी-देवताओं के नाम से अलग-अलग गायत्रियों का सृजन हुआ। गायत्री महामन्त्र की प्रमुखता और मान्यता का लाभ उठाने के लिए देव वादियों ने अपने प्रिय देवता के नाम पर गायत्री बनाई और फैलाई होंगी। इन्हीं का संग्रह करके किसी ने चौबीस देव-गायत्री बना दी प्रतीत होती हैं। देव-मंत्र यदि गायत्री छन्द में बने हों तो हर्ज नहीं, पर उनमें से किसी को भी महामन्त्र गायत्री का प्रतिद्वन्द्वी या स्थानापन्न नहीं बनाया जाना चाहिए और न जाति-वंश के नाम पर उपासना क्षेत्र में फूट-फसाद खड़ा करना चाहिए। देवलोक में कामधेनु एक ही है और धरती पर भी गंगा की तरह गायत्री भी एक ही है। चौबीस अक्षर—आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण—तीन व्याहृतियां—एक ओंकार इतना ही आद्य गायत्री का स्वरूप है। उसी को बिना जाति, लिंग आदि का भेद किये सर्वजनीन-सार्वभौम उपासना के रूप में प्रयुक्त करना चाहिए।
गायत्री के 24 अक्षरों में से प्रत्येक में एक-एक प्रेरणा और सामर्थ्य छिपी पड़ी है। उसे ध्यान में रखते हुए 24 महा-मातृकाओं का उल्लेख है। यह न तो एक दूसरे की प्रतिद्वन्द्वी हैं और न आद्यशक्ति की समग्र क्षमता के स्थानापन्न होने के उपयुक्त। हर अक्षर का तत्त्वदर्शन एवं साधना-क्षेत्र निरूपित करने के लिए 24 प्रतिमाओं का स्वरूप निर्धारित हुआ है। यह एक ही तत्त्व के भेद-उपभेदों को एक-एक करके समझाने और एक-एक चरण में दिव्य सामर्थ्यों का रहस्य, उद्घाटन करने की प्रक्रिया भी है। नवदुर्गाओं की तरह गायत्री महाशक्ति के भी नौ विभाग हैं, उन्हें नव देवियां कहते हैं। इस विभाजन को अध्याय—प्रकरण के तुल्य माना जा सकता है। महामन्त्र के तीन चरणों में से प्रत्येक में तीन-तीन शब्द हैं। इस तरह यह शब्द परिवार सौर-परिवार के नौ शब्दों की तरह बन जाता है। यज्ञोपवीत के नौ धागे इसी विभाजन—वर्गीकरण का संकेत देते और विवेचना की सुविधा प्रस्तुत करते हैं। इस आधार पर गायत्री-तत्त्व-मंडल में नौ देवियों को मान्यता मिली है और उनकी प्रथक-प्रथक प्रतिमा बनाई गई हैं। ब्रह्मतत्त्व एक व्यापक एवं निराकार है पर उनकी विभिन्न सामर्थ्यों की विवेचना करने की दृष्टि से देवताओं का स्वरूप एवं प्रयोजन निर्धारित किया गया है। गायत्री के नौ शब्दों की नौ देवियां—चौबीस अक्षरों की चौबीस मातृकाओं की प्रतिमाएं बनी हैं। यह एक ही महाशक्ति-सागर की छोटी-बड़ी लहरें हैं। इस भिन्नता में भी एकता का दर्शन है। अंग-अवयवों को मिलाकर काया बनती है। आद्यशक्ति की प्रेरणाओं, शिक्षाओं, सामर्थ्यों, सिद्धियों का निरूपण ही इन प्रतीक प्रतिमाओं के अन्तर्गत हुआ है। अतएव गायत्री एक ही है। प्रतिमाओं में भिन्नता होते हुए भी उसकी तात्त्विक एकता में अन्तर नहीं आता।
गायत्री एकमुखी, सावित्री पंचमुखी है। गायत्री आत्मिक और सावित्री भौतिकी है। एक को ऋद्धि और दूसरी को सिद्धि कहते हैं। रुपये के दोनों ओर दो आकृतियां होती हैं, पर इससे रुपया दो नहीं हो जाता। गायत्री और सावित्री एक ही तथ्य की दो प्रतिक्रियाएं हैं। जैसे आग में गर्मी और रोशनी दो वस्तुएं होती हैं, उसी प्रकार गायत्री-सावित्री के युग्म को परस्पर अविच्छिन्न समझना चाहिए।
त्रिकाल संध्या में ब्राह्मी-वैष्णवी-शांभवी की तीन आकृतियों की प्रतिष्ठापना की जाती है। अन्यान्य प्रयोजनों के लिए उसकी अन्य आकृतियां ध्यान एवं पूजन के लिए प्रयुक्त होती हैं। यह कलेवर भिन्नता ऐसी ही है जैसे एक ही व्यक्ति सैनिक, मिस्त्री, खिलाड़ी, तैराक, नट, दूल्हा आदि बनने के समय भिन्न-भिन्न बाह्य उपकरणों को धारण किये होता है, भिन्न मुद्राओं में देखा जाता है। उसी प्रकार एक ही महाशक्ति विभिन्न कार्यों में रहते समय विभिन्न स्वरूपों में दृष्टिगोचर होती है। यही बात गायत्री माता की विभिन्न आकृतियों के सम्बन्ध में समझी जानी चाहिए।
मध्यकालीन अराजकता के अन्धकार भरे दिनों में उपासना विज्ञान की उठक-पटक खूब हुई है और स्वेच्छाचार फैलाने में निरंकुशता बरती गई है। उन्हीं दिनों ब्राह्मण-क्षत्री-वैश्य वर्ग की अलग-अलग गायत्री गढ़ी गईं। उन्हीं दिनों देवी-देवताओं के नाम से अलग-अलग गायत्रियों का सृजन हुआ। गायत्री महामन्त्र की प्रमुखता और मान्यता का लाभ उठाने के लिए देव वादियों ने अपने प्रिय देवता के नाम पर गायत्री बनाई और फैलाई होंगी। इन्हीं का संग्रह करके किसी ने चौबीस देव-गायत्री बना दी प्रतीत होती हैं। देव-मंत्र यदि गायत्री छन्द में बने हों तो हर्ज नहीं, पर उनमें से किसी को भी महामन्त्र गायत्री का प्रतिद्वन्द्वी या स्थानापन्न नहीं बनाया जाना चाहिए और न जाति-वंश के नाम पर उपासना क्षेत्र में फूट-फसाद खड़ा करना चाहिए। देवलोक में कामधेनु एक ही है और धरती पर भी गंगा की तरह गायत्री भी एक ही है। चौबीस अक्षर—आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण—तीन व्याहृतियां—एक ओंकार इतना ही आद्य गायत्री का स्वरूप है। उसी को बिना जाति, लिंग आदि का भेद किये सर्वजनीन-सार्वभौम उपासना के रूप में प्रयुक्त करना चाहिए।
गायत्री के 24 अक्षरों में से प्रत्येक में एक-एक प्रेरणा और सामर्थ्य छिपी पड़ी है। उसे ध्यान में रखते हुए 24 महा-मातृकाओं का उल्लेख है। यह न तो एक दूसरे की प्रतिद्वन्द्वी हैं और न आद्यशक्ति की समग्र क्षमता के स्थानापन्न होने के उपयुक्त। हर अक्षर का तत्त्वदर्शन एवं साधना-क्षेत्र निरूपित करने के लिए 24 प्रतिमाओं का स्वरूप निर्धारित हुआ है। यह एक ही तत्त्व के भेद-उपभेदों को एक-एक करके समझाने और एक-एक चरण में दिव्य सामर्थ्यों का रहस्य, उद्घाटन करने की प्रक्रिया भी है। नवदुर्गाओं की तरह गायत्री महाशक्ति के भी नौ विभाग हैं, उन्हें नव देवियां कहते हैं। इस विभाजन को अध्याय—प्रकरण के तुल्य माना जा सकता है। महामन्त्र के तीन चरणों में से प्रत्येक में तीन-तीन शब्द हैं। इस तरह यह शब्द परिवार सौर-परिवार के नौ शब्दों की तरह बन जाता है। यज्ञोपवीत के नौ धागे इसी विभाजन—वर्गीकरण का संकेत देते और विवेचना की सुविधा प्रस्तुत करते हैं। इस आधार पर गायत्री-तत्त्व-मंडल में नौ देवियों को मान्यता मिली है और उनकी प्रथक-प्रथक प्रतिमा बनाई गई हैं। ब्रह्मतत्त्व एक व्यापक एवं निराकार है पर उनकी विभिन्न सामर्थ्यों की विवेचना करने की दृष्टि से देवताओं का स्वरूप एवं प्रयोजन निर्धारित किया गया है। गायत्री के नौ शब्दों की नौ देवियां—चौबीस अक्षरों की चौबीस मातृकाओं की प्रतिमाएं बनी हैं। यह एक ही महाशक्ति-सागर की छोटी-बड़ी लहरें हैं। इस भिन्नता में भी एकता का दर्शन है। अंग-अवयवों को मिलाकर काया बनती है। आद्यशक्ति की प्रेरणाओं, शिक्षाओं, सामर्थ्यों, सिद्धियों का निरूपण ही इन प्रतीक प्रतिमाओं के अन्तर्गत हुआ है। अतएव गायत्री एक ही है। प्रतिमाओं में भिन्नता होते हुए भी उसकी तात्त्विक एकता में अन्तर नहीं आता।
गायत्री एकमुखी, सावित्री पंचमुखी है। गायत्री आत्मिक और सावित्री भौतिकी है। एक को ऋद्धि और दूसरी को सिद्धि कहते हैं। रुपये के दोनों ओर दो आकृतियां होती हैं, पर इससे रुपया दो नहीं हो जाता। गायत्री और सावित्री एक ही तथ्य की दो प्रतिक्रियाएं हैं। जैसे आग में गर्मी और रोशनी दो वस्तुएं होती हैं, उसी प्रकार गायत्री-सावित्री के युग्म को परस्पर अविच्छिन्न समझना चाहिए।
त्रिकाल संध्या में ब्राह्मी-वैष्णवी-शांभवी की तीन आकृतियों की प्रतिष्ठापना की जाती है। अन्यान्य प्रयोजनों के लिए उसकी अन्य आकृतियां ध्यान एवं पूजन के लिए प्रयुक्त होती हैं। यह कलेवर भिन्नता ऐसी ही है जैसे एक ही व्यक्ति सैनिक, मिस्त्री, खिलाड़ी, तैराक, नट, दूल्हा आदि बनने के समय भिन्न-भिन्न बाह्य उपकरणों को धारण किये होता है, भिन्न मुद्राओं में देखा जाता है। उसी प्रकार एक ही महाशक्ति विभिन्न कार्यों में रहते समय विभिन्न स्वरूपों में दृष्टिगोचर होती है। यही बात गायत्री माता की विभिन्न आकृतियों के सम्बन्ध में समझी जानी चाहिए।