Books - आद्यशक्ति गायत्री की सिद्धिदायक समर्थ साधनायें
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Language: HINDI
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त्रिपदा गायत्री - तीन धाराओं का संगम
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गायत्री को त्रिपदा कहा गया है , उसके तीन चरण हैं ।। उद्गम एक होते हुए भी उसके साथ तीन दिशा धाराएँ जुड़ती हैं -
(१) सविता के भर्ग का- तेजस् का वरण, अर्थात् जीवन में ऊर्जा एवं आभा का बाहुल्य ।। अवंछनीयताओं में अंतः- ऊर्जा का टकराव । परिष्कृत प्रतिभा एवं शौर्य- साहस इसी का नाम है ।। गायत्री के नैष्ठिक साधक में यह प्रखर प्रतिभा इस स्तर की होनी चाहिए , अनीति के आगे न सिर झुकाएँ और न झुककर कायरता के दबाव में कोई समझौता करें ।।
(२)दूसरा चरण है - देवत्व का वरण , शालीनता को अपनाते हुए उदारचेता बने रहना ,लेने की अपेक्षा देने की प्रवृत्ति का परिपोषण करना । उस स्तर के व्यक्तित्व से जुड़ने वाली गौरव- गरिमा की अन्तराल में अवधारणा करना । यही है ‘‘देवस्य धीमहि’’ ।
(३) तीसरा सोपान है ‘‘धियो यो नः प्रचोदयात् ’’ ।। मात्र अपनी ही नहीं, अपने समूह, संसार में सद्बुद्धि की प्रेरणा
उभारणा ।। मेधा, प्रज्ञा, दूरदर्शिता, विवेकशीलता, नीर- क्षीर विवेक में निरत बुद्धिमता ।
यही है आध्यात्मिक त्रिवेणी संगम, जिसका अवगाहन करने पर मनुष्य असीम पुण्यफल का भोगी बनता है ।। कौए से कोयल एवं बगुले से हंस बन जाने की उपमा जिस त्रिवेणी संगम के स्नान से दी जाती है, वह वस्तुतः आदर्शवादी साहसिकता , देवत्व के पक्षधर शालीनता एवं आदर्शवादिता को प्रमुखता देने वाली महाप्रज्ञा है । गायत्री का तत्वज्ञान समझने और स्वीकारने वाले में ये तीनों ही विशेषताएँ न केवल पायी जानी चाहिए ,वरन उनका अनुपात निरन्तर बढ़ते रहना चाहिए । इस आस्था को स्वीकारने के उपरान्त संकीर्णता , कृपणता से अनुबन्धित ऐसी स्वार्थपरता के लिए कोई गुञ्जायश नहीं रह जाती कि उससे, प्रभावित होकर कोई दूसरों के अधिकारों का हनन करने के लिए अनुचित स्तर का लाभ बटोर सके, अपराधी या आततायी कहलाने के पतन -पराभव अपना सके ।
नैतिक, बौद्धिक ,सामाजिक,भौतिक और आत्मिक ,दार्शनिक एवं व्यावहारिक, संवर्धन एवं उन्मूलनपरक सभी विषयों पर गायत्री के चौबीस अक्षरों में विस्तृत प्रकाश डाला गया है और उन सभी तथ्यों तथा रहस्यों का उद्घाटन किया गया है, जिनके सहारे संकटों से उबारे और सुख- शान्ति क सरल मार्ग को उपलब्ध किया जा सकता है । जिन्हें इस सम्बन्ध में रूचि है, वे अक्षरों के, वाक्यों के विवेचनापरक प्रतिपादनों को ध्यानपूर्वक पढ़ लें और देखें कि इस छोटे से शब्द- समुच्चय में प्रगतिशीलता के अतिमहत्वपूर्ण तथ्यों का किस प्रकार समावेश किया गया है । इस आधार पर इसे ईश्वरीय निर्देश, शास्त्र- वचन एवं आप्तजन- कथन के रूप में अपनाया जा सकता है । गायत्री के विषय में गीता का वाक्य है ‘‘गायत्री छन्दसामहम्’’ । भगवान कृष्ण ने कहा है कि ‘‘छन्दों में गायत्री मैं स्वयं हूँ’’(श्लोक ३५, अध्याय १०)। यह भगवान की परम वाणी है , जो विद्या- विभूति के रूप में गायत्री की व्याख्या करते हुए विभूति- योग में प्रकट हुई है ।
(१) सविता के भर्ग का- तेजस् का वरण, अर्थात् जीवन में ऊर्जा एवं आभा का बाहुल्य ।। अवंछनीयताओं में अंतः- ऊर्जा का टकराव । परिष्कृत प्रतिभा एवं शौर्य- साहस इसी का नाम है ।। गायत्री के नैष्ठिक साधक में यह प्रखर प्रतिभा इस स्तर की होनी चाहिए , अनीति के आगे न सिर झुकाएँ और न झुककर कायरता के दबाव में कोई समझौता करें ।।
(२)दूसरा चरण है - देवत्व का वरण , शालीनता को अपनाते हुए उदारचेता बने रहना ,लेने की अपेक्षा देने की प्रवृत्ति का परिपोषण करना । उस स्तर के व्यक्तित्व से जुड़ने वाली गौरव- गरिमा की अन्तराल में अवधारणा करना । यही है ‘‘देवस्य धीमहि’’ ।
(३) तीसरा सोपान है ‘‘धियो यो नः प्रचोदयात् ’’ ।। मात्र अपनी ही नहीं, अपने समूह, संसार में सद्बुद्धि की प्रेरणा
उभारणा ।। मेधा, प्रज्ञा, दूरदर्शिता, विवेकशीलता, नीर- क्षीर विवेक में निरत बुद्धिमता ।
यही है आध्यात्मिक त्रिवेणी संगम, जिसका अवगाहन करने पर मनुष्य असीम पुण्यफल का भोगी बनता है ।। कौए से कोयल एवं बगुले से हंस बन जाने की उपमा जिस त्रिवेणी संगम के स्नान से दी जाती है, वह वस्तुतः आदर्शवादी साहसिकता , देवत्व के पक्षधर शालीनता एवं आदर्शवादिता को प्रमुखता देने वाली महाप्रज्ञा है । गायत्री का तत्वज्ञान समझने और स्वीकारने वाले में ये तीनों ही विशेषताएँ न केवल पायी जानी चाहिए ,वरन उनका अनुपात निरन्तर बढ़ते रहना चाहिए । इस आस्था को स्वीकारने के उपरान्त संकीर्णता , कृपणता से अनुबन्धित ऐसी स्वार्थपरता के लिए कोई गुञ्जायश नहीं रह जाती कि उससे, प्रभावित होकर कोई दूसरों के अधिकारों का हनन करने के लिए अनुचित स्तर का लाभ बटोर सके, अपराधी या आततायी कहलाने के पतन -पराभव अपना सके ।
नैतिक, बौद्धिक ,सामाजिक,भौतिक और आत्मिक ,दार्शनिक एवं व्यावहारिक, संवर्धन एवं उन्मूलनपरक सभी विषयों पर गायत्री के चौबीस अक्षरों में विस्तृत प्रकाश डाला गया है और उन सभी तथ्यों तथा रहस्यों का उद्घाटन किया गया है, जिनके सहारे संकटों से उबारे और सुख- शान्ति क सरल मार्ग को उपलब्ध किया जा सकता है । जिन्हें इस सम्बन्ध में रूचि है, वे अक्षरों के, वाक्यों के विवेचनापरक प्रतिपादनों को ध्यानपूर्वक पढ़ लें और देखें कि इस छोटे से शब्द- समुच्चय में प्रगतिशीलता के अतिमहत्वपूर्ण तथ्यों का किस प्रकार समावेश किया गया है । इस आधार पर इसे ईश्वरीय निर्देश, शास्त्र- वचन एवं आप्तजन- कथन के रूप में अपनाया जा सकता है । गायत्री के विषय में गीता का वाक्य है ‘‘गायत्री छन्दसामहम्’’ । भगवान कृष्ण ने कहा है कि ‘‘छन्दों में गायत्री मैं स्वयं हूँ’’(श्लोक ३५, अध्याय १०)। यह भगवान की परम वाणी है , जो विद्या- विभूति के रूप में गायत्री की व्याख्या करते हुए विभूति- योग में प्रकट हुई है ।