Books - ईश्वर का विराट रूप
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Language: HINDI
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आध्यात्मिकता का मूल आधार
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जो व्यक्ति भगवान के इस विराट स्वरूप की वास्तविकता को हृदयंगम कर लेगा और विश्व के कार्य-कारण रहस्य को समझ जाएगा,वह सदैव यही विश्वास करेगा कि भगवान इस सृष्टि में आत्मरूप होकरप्रतिष्ठित है । इस प्रकार की भावना जीवन के अंत तक स्थिर रहे, इसीउद्देश्य से हमारे यहाँ योग्यता, बुद्धि, सामर्थ्य के अनुसार प्रत्येक व्यक्तिके कर्त्तव्य निश्चित कर दिए गए हैं । कर्त्तव्यों में विभिन्नता होते हुए प्रेरणामें समता है, एक निष्ठा है, एक उद्देश्य है और यह उद्देश्य ही अध्यात्मकहलाता है । यह अध्यात्म लादा नहीं गया है, थोपा भी नहीं गया है,बल्कि प्राकृतिक होने के कारण स्वभाव है और स्वभाव को अध्यात्म कहने भी लगे हैं । 'स्वभाव अध्यात्म उच्यते ।'
विराट के दो विभाग हैं । एक है अंतश्चैतन्य और दूसरा है बाह्यअंग । बाह्य अंग के समस्त अवयव अपनी-अपनी कार्य दृष्टि से स्वतंत्रसत्ता रखते हैं । कर्त्तव्य भी उनकी उपयोगिता की दृष्टि से प्रत्येक केभिन्न-भिन्न हैं । लेकिन ये सब हैं उस विराट अंग की रक्षा के लिए उसअंतश्चैतन्य को बनाए रखने के लिए । इस प्रकार अलग होकर और अलगकर्मों में प्रवृत्त होते हुए भी जिसचैतन्य के लिए उनकी गति हो रही है,वही हिंदू संस्कृति का मूल आधार है । गति की यह एकता-समता विनष्टन हो इसी के लिए संस्कृति के साथ धर्म को जोड़ा गया है और यह योग ऐसा हुआ है, जिसे पृथक नहीं किया जा सकता । यहाँ तक कि दोनों समानार्थक से दिखाई पड़ते हैं ।
धर्म शब्द की व्युत्पत्ति से ही विराट की एकता का भाव स्पष्ट होजाता है । जो वास्तविक है उसी की धारणा रखना धर्म है । वास्तविकहै-चैतन्य । यह नित्य है, अविनश्वर है, शाश्वत है । सभी धर्मों में आत्माके नित्यत्व को, शाश्वतपन को स्वीकार किया गया है । लेकिन अंगांगों में पृथक दिखाई देते रहने पर भी जो उसमें एकत्व है, उसको सुरक्षित रखनेकी ओर ध्यान न देने से विविध संप्रदायों की सृष्टि हो पड़ी है । तो भीधर्म की इस एकता को बनाए रखने, जाग्रत रखने की प्रवृत्ति अभी तक कायम है, यही कारण है कि संसार में नाना संप्रदायों-मजहबों की-सृष्टि हुई लेकिन आज उनका नाम ही शेष है । पर हिंदू अपनी विशालता केसाथ जिंदा है । यह धर्म वास्तव में मानव धर्म है । मानव की सत्ता जिसकेद्वारा कायम रह सकती है और जिससे वह विश्व चैतन्य के विराट अंगका अंग बना रह सकता है, उसी के लिए इसका आदेश है ।
हमारे धर्म की सबसे बड़ी विशेषता उसकी अपनी विशिष्ट उपासनापद्धति है । विश्व आत्मा की उपासना के लिए उसके समय विभाग मेंकोई एक समय निश्चित नहीं है । उपासना देश और काल में विभाजित नहीं है । उनका तो प्रत्येक क्षण उपासनामय है । वे अपने विश्व चैतन्य कोएक क्षण के लिए भी भूलना नहीं चाहते, बल्कि गतिविधि का प्रत्येक भाग इन चैतन्य देव के लिए ही लगाना चाहते हैं ।