Books - कुछ धार्मिक प्रश्नों का उचित समाधान
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तीर्थों की उपयोगिता
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तीर्थ यात्रा के महात्म्यों का धर्म शास्त्रों में सुविस्तृत वर्णन मिलता है। चारों धाम, सात पुरी, सात ज्योतिर्लिंग, तथा अनेक सरिता, सर, वन उपवन तीर्थों की श्रेणी में गिने जाते हैं, इनके दर्शन, निवास, स्नान, भजन, पूजन, अर्चन करने में धर्म लाभ होने की हिन्दू धर्म में सुस्थिर मान्यता है। इन तीर्थों में लाखों करोड़ों की संख्या में हिन्दू जनता धार्मिक भावनाओं से प्रेरित होकर जाती है। विशेष पर्वों पर तो तीर्थों में असाधारण भीड़ें होती हैं। करोड़ों रुपया इस अवसर पर हस्तान्तरित होता है।
आधुनिक युग बुद्धिवाद का युग कहा जाता है। इस युग में हर बात को बुद्धिवाद की तराजू पर तोलने की प्रथा है। जब सभी विषयों में खोजें और अन्वेषण हो रहे हैं तो धार्मिक प्रथाओं के सम्बन्ध में विचार विमर्श होना स्वाभाविक है। तीर्थों के सम्बन्ध में भी नई पीड़ी की बुद्धिवादी जनता विचार करती है। किन्तु जब वह नव विकसित बाल बुद्धि उनकी वास्तविकता और उपयोगिता को ठीक प्रकार समझ नहीं पाती तो कुतर्क करने लगती है। तीर्थों में अस्तित्व को अनुपयोगी, हानिकारक तथा अवांछनीय तक बताया जाता है। आइये, इस प्रश्न पर एक विवेचनात्मक दृष्टि डालें।
तीर्थों की स्थापना करने में हमारे तत्वदर्शी पूर्वजों ने बड़ी बुद्धिमता का परिचय दिया है। जिन स्थानों पर तीर्थ स्थान स्थापित किये गए हैं वे जलवायु की दृष्टि के बहुत ही उपयोगी हैं। जिन सरिताओं का जल विशेष शुद्ध, उपयोगी, हलका तथा स्वास्थ्य प्रद पाया गया है उनके तटों पर तीर्थ स्थापित किये गए हैं। गंगा के तट पर सबसे अधिक तीर्थ हैं, कारण यह है कि गंगा का जल संसार की समस्त नदियों से अधिक उपयोगी है। उस जल में स्वर्ण, पारा, गंधक तथा अभ्रक जैसे उपयोगी खनिज पदार्थ मिले रहते हैं जिसके सम्मिश्रण से गंगाजल एक प्रकार की दवा बन जाता है, जिसके प्रयोग से उदर रोग, चर्म रोग तथा रक्त विकार आश्चर्य जनक रीति से अच्छे होते हैं। कुष्ठ रोग को दूर करने की गंगाजल में महत्वपूर्ण क्षमता मौजूद है। इसी प्रकार अन्य नदी सरोवरों में अपने-अपने गुण हैं। इन गुणों की उपयोगिता का तीर्थों के निर्माण में प्रधान रूप से ध्यान रखा गया है।
आज कल वायु परिवर्तन के लिए लोग पहाड़ों पर जाया करते हैं। रोगी और दुर्बलों को डॉक्टर लोग वायु परिवर्तन के लिए किन्हीं स्वास्थ्य प्रद स्थानों में भेजते हैं। यह दृष्टि कोण तीर्थों में भी रखा गया है। जहां की भूमि, वनस्पति, ऋतु, आदि के आधार पर स्वास्थ्य प्रद वायु पाई गई है वहां तीर्थ कायम किए गए हैं। इन स्थानों पर कुछ समय निवास करके वहां के जलवायु का सेवन करने से तीर्थ यात्रियों के स्वास्थ्य पर बड़ा अच्छा प्रभाव पड़ता है इस तथ्य से प्रोत्साहित होकर विवेकशील आचार्यों ने वहां तीर्थ बना दिये।
तीर्थ यात्रा में पैदल चलने का विशेष महत्व बताया गया है। पैदल चलना शरीर को सुगठित करने और नाड़ी समूह तथा मांस पेशियों को बलवान बनाने के लिये आवश्यक उपाय है। आयुर्वेद शास्त्रों में प्रमेह चिकित्सा के लिए सौ योजन अर्थात् चार सौ कोस पैदल चलने का आदेश दिया है। अधिक चलने से जंघाओं की नाड़ियों और मांस पेशियों का अच्छा व्यायाम होता है और वे परिपुष्ट हो जाती हैं। ढीली नस नाड़ियों की संकुचन शक्ति शिथिल पड़ जाने के कारण वीर्य नीचे की ओर स्रवित होता रहता है, और स्वप्नदोष, प्रमेह, पेशाब के साथ चिकनाई जाना, शीघ्र पतन, बहुमूत्र आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं इस व्यथा से छुटकारा पाने के लिए कटि प्रदेश तथा जंघाओं के नाड़ी समूह तथा मांस पेशियों को ठीक करना पड़ता है। आयुर्वेद की सम्मति में इसका अच्छा उपचार नियमित रूप से पैदल चलना है। जिससे कटि, पेडू, और जंघाएं सुदृढ़ हो जावें। तीर्थ यात्रा इस उद्देश्य को बड़ी अच्छी तरह पूरा करती है। पैदल तीर्थ यात्रा करने से स्वस्थ व्यक्तियों का शरीर गठन ऐसा अच्छा हो जाता है जिसमें प्रमेह आदि का आक्रमण नहीं हो पाता जिन्हें मूत्र रोग होते हैं उन्हें उन व्यथाओं से बिना दवा दारू में धन लुटाये स्थायी रूप से लाभ हो जाता है।
जो लोग लम्बी यात्राएं नहीं कर पाते थे सुदूर देश में जाने की जिन्हें सुविधाएं न होती थीं उन्हें किसी एक ही तीर्थ की परिक्रमाएं करने को कहा जाता था। पेट के बल दंडवती परिक्रमाएं करना आंतों के रोगों के लिए उपयोगी है, तिल्ली एवं जिगर भी इससे मजबूत होते हैं और उनके बहुत से विकार दूर हो जाते हैं। पर्वतों पर बहुत ऊंचे कुछ तीर्थ बनाये गये हैं। ऊंची चढ़ाई चढ़ने से हड्डियों की संधियां मजबूत होती हैं तथा गठिया होने का भय नहीं रहता। फेफड़ों को मजबूत बनाने के लिए ऊंचा चढ़ना और नीचा उतरना असाधारण रूप उपयोगी है। पहाड़ी प्रदेशों के रहने वाले व्यक्ति, जिन्हें ऊंचा चढ़ना और नीचे उतरना पड़ता है चौड़ी छाती वाले होते हैं उन्हें तपैदिक जैसे फेफड़े के रोगों से ग्रसित नहीं होना पड़ता। कंधे पर गंगाजल की कांवर रख कर शिवरात्रि पर यात्रा की जाती है। इससे कंधे की नसों पर दबाव पड़ता है। इन नसों का मूलाधार चक्र की गुदा नाड़ियों से संबंध है। अतएव गुदा स्थान पर उसका प्रभाव होता है और बवासीर सरीखे रोगों की संभावना नष्ट हो जाती है।
स्वास्थ्य लाभ के उपरोक्त दृष्टिकोण से तीर्थ यात्रा महत्व पूर्ण है। इसके अतिरिक्त देशाटन से ज्ञानवृद्धि का जो लाभ होता है वह भी कम उपयोगी नहीं है। जीवन की बहुमुखी उन्नति के लिए मनुष्य जाति के स्वभाव, आचार, विचार, व्यवहार, रहन-सहन, प्रथा, विश्वास, कार्यक्रम, प्रथा, परिपाटी, अर्थ, नीति आदि का अध्ययन करने की बड़ी भारी आवश्यकता है। देशाटन करने से मूर्ख मनुष्य भी बहुत अंशों में बुद्धिमान बन जाते हैं और घर से बाहर पैर न रखने वाले कूप मंडूक, ऊंची शिक्षा प्राप्त कर लेने पर भी अर्ध मूर्ख बने रहते हैं। देशाटन केवल मनोरंजन नहीं है वरन् एक ठोस शिक्षाक्रम है। जितना वास्तविक ज्ञान मनुष्य दो महीने के देशाटन में प्राप्त कर सकता है उतना दो वर्ष तक पुस्तकें पढ़ने पर नहीं पा सकता। उच्च श्रेणी के मनुष्य अपनी आर्थिक, सामाजिक, बौद्धिक तथा शारीरिक स्थिति अच्छी बनने के लिए प्रतिवर्ष कुछ न कुछ समय देशाटन के लिए अवश्य निकालते हैं। बेवकूफ लोग अन्दाज लगाते हैं कि यह सैर सपाटे का समय व्यर्थ जाता है पर सच बात यह है कि दस घंटे पिले रह कर आदमी जितना उपार्जन करता है, उस सैर सपाटे के दिनों में कई दृष्टियों से बहुत ऊंची चीजें कमा लेता है, तीर्थ यात्रा के अवसर पर अनेक स्थलों को देखने अनेक प्रकार के मनुष्यों की विभिन्नताएं समझने का, विविध स्थलों की विशेषताएं जानने का अलभ्य अवसर मिलता है। अनेक कठिनाइयों का एवं दुष्ट, चोर, ठग और धूर्तों का सामना करना पड़ता है इस संघर्ष में मनुष्य की चेतना, जागरूकता, सतर्कता एवं विवेचना शक्ति बढ़ती है, यात्रा के अनुभवों से परिपुष्ट होकर मनुष्य का बौद्धिक स्वास्थ्य बढ़ता है और वह बढ़ोतरी शारीरिक स्वास्थ्य की तरह ही महत्व पूर्ण है।
देश के विविध भागों के एक स्थान पर जब एक समय में बहुत लोग पहुंचते हैं तो ऐसा अवसर, स्वर्ण अवसर होता है। व्यापारी लोग अपनी वस्तुएं उस वृहद् जन समूह के हाथों बेचते हैं, ग्राहक लोग उन एकत्रित व्यापारियों से नई-नई वस्तुएं देखते हैं और दुष्प्राप्य चीजों को सुविधा पूर्वक खरीद लेते हैं। इससे देश की व्यापारिक औद्योगिक एवं आर्थिक स्थिति मजबूत होती है। आगन्तुक लोग एक ही स्थान पर विविध प्रदेशों की विभिन्नताओं का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। एक दूसरे से परिचय, संपर्क और हेल मेल बढ़ा सकते हैं। कोई प्रचारक अपने विचारों को एक स्थान पर रह कर भी अनेकों व्यक्ति में फैला सकता है। जन संपर्क के इस स्वर्ण संयोग से आगन्तुकों को लाभ पहुंचे, इस दृष्टि कोण से तीर्थों में अनेकों प्रकार के आयोजन होते थे। कला, प्रदर्शनी, संगीत, वक्ता, कीर्तन, प्रवचन, सत्संग, सभा, सम्मेलन, अभिनय, आदि द्वारा उपयोगी ज्ञान सामग्री प्राप्त करने की आगन्तुकों को यहां अनेक सुविधाएं होती थीं।
तीर्थ पुरोहित—पण्ड्या (सद्बुद्धि के भंडार)-तपस्वी विद्वान, बुद्धिमान, पथ प्रदर्शक, ऋषि कल्प, निस्पृह, ब्रह्मवेत्ताओं के आश्रमों में जाकर यात्री लोग ठहरते थे। इन स्थावर और जंगम दोनों ही प्रकार के तीर्थों में स्नान करने से यात्री का तन और मन, स्वस्थ, पुष्ट, चैतन्य एवं प्रफुल्लित हो जाता था। भूमि पर मंदिर जलाशय आदि के रूप में स्थिति स्थावर तीर्थ हैं और ऋषि, तपस्वी, परोपकारी, उच्च आत्मा वाले महापुरुष जंगम तीर्थ कहे जाते हैं। शास्त्रकारों ने स्थावर तीर्थ से भी जंगम तीर्थों का महात्म्य अधिक विस्तार पूर्वक बताया है। तीर्थ यात्रा में दोनों ही प्रकार के तीर्थों का समन्वय होता था अतएव शारीरिक और बौद्धिक दोनों ही दृष्टियों से वहां जाने वालों को समुचित लाभ मिल जाता था।
जीवन की व्यावहारिक कठिनाइयों को सुलझाने के लिए वे तीर्थ पुरोहित महत्वपूर्ण पथ प्रदर्शन करते थे उन्हें विविध स्थानों की सुविस्तृत जानकारी होती थी फल स्वरूप बेटी बेटों के विवाह विविध स्थानों की, फसल, व्यापारिक स्थिति, जीविका, शिक्षा, चिकित्सा आदि अनेकों विषयों में इन तीर्थ केन्द्रों पर पर्याप्त जानकारी प्राप्त हो जाती थी और उन जानकारियों के आधार पर ऐसे ऐसे लाभ होते थे जो यात्रा में लगे समय तथा पैसे की अपेक्षा कहीं अधिक मूल्यवान होते थे। यात्री लोग अनेक दृष्टियों से इतने लाभ में रहते थे कि सांसारिक व्यापारिक बुद्धि से देखने पर भी तीर्थ यात्री फायदे में रहते थे।
तीर्थ स्थानों के ऐतिहासिक महत्व भी हैं, उन स्थान पर हमारे पूर्वज महापुरुषों के पुनीत चरित्रों का सीधा संबंध है। यह स्थान उन महापुरुषों के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं की स्मृति दिलाते हैं। जिससे दर्शक को प्रेरणा, प्रोत्साहन, जीवन, बल, साहस, तथा प्रकाश मिलता है। इतिहास स्वयं जीवन निर्माता है। अतीत काल के अनुभवों से भविष्य निर्माण का अत्यन्त घनिष्ठ संबंध है। पुस्तकों में अंकित इतिहास की अपेक्षा जन संबंधित स्थलों के स्मृति चिन्हों के आधार पर पढ़ा हुआ इतिहास अधिक प्रेरणा-प्रद होता है, अधिक हृदयंगम बन जाता है।
तीर्थों की स्थापना इस प्रकार की गई है कि देश में महत्व पूर्ण भागों की यात्रा छूटने न पावे। चारों धाम (बद्रीनाथ, जगन्नाथ, रामेश्वर, तथा द्वारिका) देश के चार कोनों पर स्थित हैं। इनकी यात्रा करने वाले को सारे देश की परिक्रमा करनी पड़ती है और भारत की समस्त संस्कृतियों, नीति नीतियां, भाषाओं तथा भावनाओं के सम्पर्क में आना पड़ता है, ज्योतिर्लिंगों, पुरियों, पुण्य सरितासरों, एवं क्षेत्रों की यात्रा का क्रम भी ऐसा ही है जिनकी यात्रा में बड़े महत्व पूर्ण भूखंडों का संपर्क होता है। यह संपर्क देश की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक तथा बौद्धिक उन्नति के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होता है।
मानवीय विद्युत विज्ञान की दृष्टि से यह सिद्ध है कि जिन स्थानों में विशिष्ठ आत्म बल वाले महापुरुष निवास करते हैं वहां का वातावरण उनकी आत्म विद्युत से भर जाता है। जहां कोई अहिंसा की साधना वाले तेजस्वी महात्मा निवास करते हैं वहां का वातावरण ऐसा शान्ति दायक हो जाता है कि गौ और सिंह आपस में प्रेम पूर्वक निर्भय होकर रहते हैं। अपना स्वाभाविक बैर भाव भूल जाते हैं। इस प्रकार जहां कोई अवतारी, कलाधारी, अलौकिक आत्माएं रही हैं वहां का वातावरण भी उनके दिव्य तेज से भर जाता है और वह बहुत समय तक उन आत्माओं के चले जाने के चिरकाल पश्चात् तक बना रहता है। तपस्वी महात्मा अपनी तपश्चर्या के लिए प्रायः ऐसे स्थानों को चुना करते हैं जहां इस प्रकार के आत्म तेज पूर्वकाल से ही विद्यमान हों। क्योंकि इससे उनको बल प्राप्त होता है, साधना के विघ्नों से अनायास ही बहुत अंशों में छुटकारा मिलता है। इस परम्परा के अनुसार एक उन स्थानों पर एक-एक करके अनेकों महात्माओं के आत्म तेज के परत जमा होते जाते हैं। उस भूमि, जल, वायु, आकाश में वह दिव्य तेज भरा रहता है। कल्प कल्यान्त से असंख्य महात्माओं, अवतारी पुरुषों का सुदृढ़ आत्म तेज जिन स्थानों में पाया गया है वह तत्वदर्शी मनीषियों से तीर्थ स्थापित किये हैं। वस्तुतः वह स्थान ‘‘सिद्धपीठ’’ हैं। वहां के वातावरण में सुलभता से सिद्ध प्रदान करने तत्व भरे रहते हैं। इन तत्वों के प्रभाव से आध्यात्म मार्ग के पथिकों को असाधारण सफलता प्राप्त होती है। जिस प्रकार वृक्ष की छाया में बैठने से सभी प्रकार के लोगों को शीतलता अनुभव होती है उसी प्रकार इन सिद्धपीठों की छाया में पदार्पण करने से सुख शान्ति एवं संकट निवारण की आशीर्वादात्मक भावनाएं सुलभता पूर्वक हर एक को प्राप्त होती हैं। कभी कभी तो ऐसे अप्रत्याशित लाभ लोगों को मिलते देखे जाते हैं जिन्हें दैवी कृपा, तीर्थ महात्म्य, या पूर्व पुण्यों का फल, या क्या नाम दिया जाय यह समझ नहीं आता।
यह ठीक है कि वर्तमान काल में तीर्थों की स्थिति बड़ी लज्जाजनक हो गई है। वहां अनाचार, व्याभिचार, ठगी, धूर्तता, आदि का बोल बाला है। इस सचाई से कोई इनकार नहीं कर सकता। संसार व्यापी अनैतिकता से तीर्थ भी अछूते नहीं रहे हैं। हर क्षेत्र में काम करने वाली बुराइयां तीर्थों में भी घुस पड़ी हैं। चोर, ठग, धूर्त, बेईमान, उठाईगीरे, व्यभिचारी, पाखण्डी, लोभी, नीच, निर्लज्ज व्यक्ति धर्म की खाल ओढ़ कर इन पुनीत स्थानों में कुछ से कुछ बन जाते हैं। हत्यारे डाकू, चोर तथा अनेक भयंकर प्रकार के अपराधी अपनी सुरक्षा के लिए तथा जीविका की सुविधा के लिए साधु संत बन जाते हैं। इसी प्रकार ब्राह्मणत्व एवं पौरोहित्य गुणों से रहित व्यक्ति ब्राह्मणों के वेष ओढ़ कर जनता को ठगते हैं। सच्चे ब्राह्मणों तथा महात्माओं की कमी तथा धूर्तों की बढ़ोतरी ने आज तीर्थों को बदनाम कर दिया है। उन्हें अब धूर्तता, बदमाशी, ढोंग और लूट का घर समझा जाने लगा है। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए जनता की यह मान्यता उचित भी है। यह सब होते हुए भी तीर्थों की आधार शिला एक बड़े उपयोगिता वाद के ऊपर खड़ी होने के कारण उनका महत्व पूर्णतया किसी भी प्रकार नष्ट नहीं हो सकता।
विषधर सर्प लिपटे रहने से चन्दन का वृक्ष त्याज्य नहीं माना जाता, कांटेदार डाली पर लगा हुआ गुलाब का फूल निन्दित नहीं होता, गंदी नालियां गिरने पर भी गंगाजी की महिमा मिट नहीं जाती, कुछ स्वार्थी धूर्त एवं दुष्चरित्र लोगों की उपस्थिति के कारण तीर्थों की महिमा समाप्त नहीं हो सकती। हानिकारक विकार उत्पन्न होने पर उन विकारों को दूर करना चाहिए, उन विकारों के भय से मूल वस्तु को त्याग बैठना बुद्धिमता नहीं। जुओं के भय न तो कोई कपड़े फेंक देता है और न सिर के बाल घुटा डालता है, खटमलों के भय से चारपाई पर सोना कोई नहीं त्यागता। कुछ स्वार्थियों की दुष्टता के कारण तीर्थों की उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता। उनके द्वारा होने वाले लाभ इतने अधिक गंभीर एवं महान हैं कि इस छोटे से कारण की वजह से वे उपेक्षणीय नहीं हो सकते।
तीर्थों में दोष उत्पन्न हो गये हैं उन्हें सुधारना चाहिये। (1) दर्शनीय स्थानों को स्वच्छ शुद्ध एवं स्वास्थ्य प्रद बनाया जाना चाहिये। (2) भीड़ में स्त्रियों से कुचेष्टा करने वालों, जेबकटों, उठाईगीरों, ठगों तथा पाखण्डियों को रोकने का प्रयत्न होना चाहिये। (3) मन्दिरों में जमा तथा चढ़ावे के रूप में चढ़ने वाली सम्पत्ति का अधिकांश भाग लोक हितकारी सार्वजनिक कार्यों में व्यय होना चाहिये। (4) निस्वार्थ, सेवाभावी, निर्लोभ, विद्वान, सच्चे, सदाचारी एवं सहृदय पण्डा पुरोहितों से ही सम्पर्क रखना चाहिये। (5) दान देते समय पात्र कुपात्र का पूरी तरह अन्वेषण कर लेना चाहिये। (6) यात्रियों को अतिथि देव समझ कर उनकी समुचित सेवा सहायता करने वाली सेवा-समितियां होनी चाहिये। (7) सच्चे विद्वान ब्राह्मणों को तीर्थों में ऐसे आश्रम स्थापित करने चाहिये—जहां जिज्ञासुओं को आत्मिक क्षुधा बुझाने के लिये सच्चा बौद्धिक भोजन मिल सके। (8) हर तीर्थों में वहां का परिचय देने वाली पुस्तकें ऐसी सस्ते मूल्य की पुस्तकें उपलब्ध होनी चाहिये जिसमें वहां के ऐतिहासिक तथ्यों का तर्क संगत विज्ञान बुद्धि के साथ शिक्षात्मक ढंग से वर्णन हो। (9) देव मन्दिरों में वेजीटेबल घी, विदेशी वस्त्र, चर्बी की मोमबत्ती आदि अपवित्र पदार्थों का उपयोग न किया जया। (10) यात्रियों के लिये तीर्थ हर दृष्टि से उपयोगी बन सकें, ऐसी व्यवस्था करने वाली शिक्षणशालाएं तथा संस्थाएं खुलनी चाहिये। (11) पैदल तीर्थ यात्रा को जो प्रोत्साहन मिलना चाहिये। इस प्रकार के सुधार होने से तीर्थों की वास्तविक महिमा पुनः उज्ज्वल हो सकती है। जो दोष दृष्टिगोचर हों उनका संशोधन करते हुए तीर्थों की उपयोगिता का हम सब को लाभ उठाना चाहिये।
आधुनिक युग बुद्धिवाद का युग कहा जाता है। इस युग में हर बात को बुद्धिवाद की तराजू पर तोलने की प्रथा है। जब सभी विषयों में खोजें और अन्वेषण हो रहे हैं तो धार्मिक प्रथाओं के सम्बन्ध में विचार विमर्श होना स्वाभाविक है। तीर्थों के सम्बन्ध में भी नई पीड़ी की बुद्धिवादी जनता विचार करती है। किन्तु जब वह नव विकसित बाल बुद्धि उनकी वास्तविकता और उपयोगिता को ठीक प्रकार समझ नहीं पाती तो कुतर्क करने लगती है। तीर्थों में अस्तित्व को अनुपयोगी, हानिकारक तथा अवांछनीय तक बताया जाता है। आइये, इस प्रश्न पर एक विवेचनात्मक दृष्टि डालें।
तीर्थों की स्थापना करने में हमारे तत्वदर्शी पूर्वजों ने बड़ी बुद्धिमता का परिचय दिया है। जिन स्थानों पर तीर्थ स्थान स्थापित किये गए हैं वे जलवायु की दृष्टि के बहुत ही उपयोगी हैं। जिन सरिताओं का जल विशेष शुद्ध, उपयोगी, हलका तथा स्वास्थ्य प्रद पाया गया है उनके तटों पर तीर्थ स्थापित किये गए हैं। गंगा के तट पर सबसे अधिक तीर्थ हैं, कारण यह है कि गंगा का जल संसार की समस्त नदियों से अधिक उपयोगी है। उस जल में स्वर्ण, पारा, गंधक तथा अभ्रक जैसे उपयोगी खनिज पदार्थ मिले रहते हैं जिसके सम्मिश्रण से गंगाजल एक प्रकार की दवा बन जाता है, जिसके प्रयोग से उदर रोग, चर्म रोग तथा रक्त विकार आश्चर्य जनक रीति से अच्छे होते हैं। कुष्ठ रोग को दूर करने की गंगाजल में महत्वपूर्ण क्षमता मौजूद है। इसी प्रकार अन्य नदी सरोवरों में अपने-अपने गुण हैं। इन गुणों की उपयोगिता का तीर्थों के निर्माण में प्रधान रूप से ध्यान रखा गया है।
आज कल वायु परिवर्तन के लिए लोग पहाड़ों पर जाया करते हैं। रोगी और दुर्बलों को डॉक्टर लोग वायु परिवर्तन के लिए किन्हीं स्वास्थ्य प्रद स्थानों में भेजते हैं। यह दृष्टि कोण तीर्थों में भी रखा गया है। जहां की भूमि, वनस्पति, ऋतु, आदि के आधार पर स्वास्थ्य प्रद वायु पाई गई है वहां तीर्थ कायम किए गए हैं। इन स्थानों पर कुछ समय निवास करके वहां के जलवायु का सेवन करने से तीर्थ यात्रियों के स्वास्थ्य पर बड़ा अच्छा प्रभाव पड़ता है इस तथ्य से प्रोत्साहित होकर विवेकशील आचार्यों ने वहां तीर्थ बना दिये।
तीर्थ यात्रा में पैदल चलने का विशेष महत्व बताया गया है। पैदल चलना शरीर को सुगठित करने और नाड़ी समूह तथा मांस पेशियों को बलवान बनाने के लिये आवश्यक उपाय है। आयुर्वेद शास्त्रों में प्रमेह चिकित्सा के लिए सौ योजन अर्थात् चार सौ कोस पैदल चलने का आदेश दिया है। अधिक चलने से जंघाओं की नाड़ियों और मांस पेशियों का अच्छा व्यायाम होता है और वे परिपुष्ट हो जाती हैं। ढीली नस नाड़ियों की संकुचन शक्ति शिथिल पड़ जाने के कारण वीर्य नीचे की ओर स्रवित होता रहता है, और स्वप्नदोष, प्रमेह, पेशाब के साथ चिकनाई जाना, शीघ्र पतन, बहुमूत्र आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं इस व्यथा से छुटकारा पाने के लिए कटि प्रदेश तथा जंघाओं के नाड़ी समूह तथा मांस पेशियों को ठीक करना पड़ता है। आयुर्वेद की सम्मति में इसका अच्छा उपचार नियमित रूप से पैदल चलना है। जिससे कटि, पेडू, और जंघाएं सुदृढ़ हो जावें। तीर्थ यात्रा इस उद्देश्य को बड़ी अच्छी तरह पूरा करती है। पैदल तीर्थ यात्रा करने से स्वस्थ व्यक्तियों का शरीर गठन ऐसा अच्छा हो जाता है जिसमें प्रमेह आदि का आक्रमण नहीं हो पाता जिन्हें मूत्र रोग होते हैं उन्हें उन व्यथाओं से बिना दवा दारू में धन लुटाये स्थायी रूप से लाभ हो जाता है।
जो लोग लम्बी यात्राएं नहीं कर पाते थे सुदूर देश में जाने की जिन्हें सुविधाएं न होती थीं उन्हें किसी एक ही तीर्थ की परिक्रमाएं करने को कहा जाता था। पेट के बल दंडवती परिक्रमाएं करना आंतों के रोगों के लिए उपयोगी है, तिल्ली एवं जिगर भी इससे मजबूत होते हैं और उनके बहुत से विकार दूर हो जाते हैं। पर्वतों पर बहुत ऊंचे कुछ तीर्थ बनाये गये हैं। ऊंची चढ़ाई चढ़ने से हड्डियों की संधियां मजबूत होती हैं तथा गठिया होने का भय नहीं रहता। फेफड़ों को मजबूत बनाने के लिए ऊंचा चढ़ना और नीचा उतरना असाधारण रूप उपयोगी है। पहाड़ी प्रदेशों के रहने वाले व्यक्ति, जिन्हें ऊंचा चढ़ना और नीचे उतरना पड़ता है चौड़ी छाती वाले होते हैं उन्हें तपैदिक जैसे फेफड़े के रोगों से ग्रसित नहीं होना पड़ता। कंधे पर गंगाजल की कांवर रख कर शिवरात्रि पर यात्रा की जाती है। इससे कंधे की नसों पर दबाव पड़ता है। इन नसों का मूलाधार चक्र की गुदा नाड़ियों से संबंध है। अतएव गुदा स्थान पर उसका प्रभाव होता है और बवासीर सरीखे रोगों की संभावना नष्ट हो जाती है।
स्वास्थ्य लाभ के उपरोक्त दृष्टिकोण से तीर्थ यात्रा महत्व पूर्ण है। इसके अतिरिक्त देशाटन से ज्ञानवृद्धि का जो लाभ होता है वह भी कम उपयोगी नहीं है। जीवन की बहुमुखी उन्नति के लिए मनुष्य जाति के स्वभाव, आचार, विचार, व्यवहार, रहन-सहन, प्रथा, विश्वास, कार्यक्रम, प्रथा, परिपाटी, अर्थ, नीति आदि का अध्ययन करने की बड़ी भारी आवश्यकता है। देशाटन करने से मूर्ख मनुष्य भी बहुत अंशों में बुद्धिमान बन जाते हैं और घर से बाहर पैर न रखने वाले कूप मंडूक, ऊंची शिक्षा प्राप्त कर लेने पर भी अर्ध मूर्ख बने रहते हैं। देशाटन केवल मनोरंजन नहीं है वरन् एक ठोस शिक्षाक्रम है। जितना वास्तविक ज्ञान मनुष्य दो महीने के देशाटन में प्राप्त कर सकता है उतना दो वर्ष तक पुस्तकें पढ़ने पर नहीं पा सकता। उच्च श्रेणी के मनुष्य अपनी आर्थिक, सामाजिक, बौद्धिक तथा शारीरिक स्थिति अच्छी बनने के लिए प्रतिवर्ष कुछ न कुछ समय देशाटन के लिए अवश्य निकालते हैं। बेवकूफ लोग अन्दाज लगाते हैं कि यह सैर सपाटे का समय व्यर्थ जाता है पर सच बात यह है कि दस घंटे पिले रह कर आदमी जितना उपार्जन करता है, उस सैर सपाटे के दिनों में कई दृष्टियों से बहुत ऊंची चीजें कमा लेता है, तीर्थ यात्रा के अवसर पर अनेक स्थलों को देखने अनेक प्रकार के मनुष्यों की विभिन्नताएं समझने का, विविध स्थलों की विशेषताएं जानने का अलभ्य अवसर मिलता है। अनेक कठिनाइयों का एवं दुष्ट, चोर, ठग और धूर्तों का सामना करना पड़ता है इस संघर्ष में मनुष्य की चेतना, जागरूकता, सतर्कता एवं विवेचना शक्ति बढ़ती है, यात्रा के अनुभवों से परिपुष्ट होकर मनुष्य का बौद्धिक स्वास्थ्य बढ़ता है और वह बढ़ोतरी शारीरिक स्वास्थ्य की तरह ही महत्व पूर्ण है।
देश के विविध भागों के एक स्थान पर जब एक समय में बहुत लोग पहुंचते हैं तो ऐसा अवसर, स्वर्ण अवसर होता है। व्यापारी लोग अपनी वस्तुएं उस वृहद् जन समूह के हाथों बेचते हैं, ग्राहक लोग उन एकत्रित व्यापारियों से नई-नई वस्तुएं देखते हैं और दुष्प्राप्य चीजों को सुविधा पूर्वक खरीद लेते हैं। इससे देश की व्यापारिक औद्योगिक एवं आर्थिक स्थिति मजबूत होती है। आगन्तुक लोग एक ही स्थान पर विविध प्रदेशों की विभिन्नताओं का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। एक दूसरे से परिचय, संपर्क और हेल मेल बढ़ा सकते हैं। कोई प्रचारक अपने विचारों को एक स्थान पर रह कर भी अनेकों व्यक्ति में फैला सकता है। जन संपर्क के इस स्वर्ण संयोग से आगन्तुकों को लाभ पहुंचे, इस दृष्टि कोण से तीर्थों में अनेकों प्रकार के आयोजन होते थे। कला, प्रदर्शनी, संगीत, वक्ता, कीर्तन, प्रवचन, सत्संग, सभा, सम्मेलन, अभिनय, आदि द्वारा उपयोगी ज्ञान सामग्री प्राप्त करने की आगन्तुकों को यहां अनेक सुविधाएं होती थीं।
तीर्थ पुरोहित—पण्ड्या (सद्बुद्धि के भंडार)-तपस्वी विद्वान, बुद्धिमान, पथ प्रदर्शक, ऋषि कल्प, निस्पृह, ब्रह्मवेत्ताओं के आश्रमों में जाकर यात्री लोग ठहरते थे। इन स्थावर और जंगम दोनों ही प्रकार के तीर्थों में स्नान करने से यात्री का तन और मन, स्वस्थ, पुष्ट, चैतन्य एवं प्रफुल्लित हो जाता था। भूमि पर मंदिर जलाशय आदि के रूप में स्थिति स्थावर तीर्थ हैं और ऋषि, तपस्वी, परोपकारी, उच्च आत्मा वाले महापुरुष जंगम तीर्थ कहे जाते हैं। शास्त्रकारों ने स्थावर तीर्थ से भी जंगम तीर्थों का महात्म्य अधिक विस्तार पूर्वक बताया है। तीर्थ यात्रा में दोनों ही प्रकार के तीर्थों का समन्वय होता था अतएव शारीरिक और बौद्धिक दोनों ही दृष्टियों से वहां जाने वालों को समुचित लाभ मिल जाता था।
जीवन की व्यावहारिक कठिनाइयों को सुलझाने के लिए वे तीर्थ पुरोहित महत्वपूर्ण पथ प्रदर्शन करते थे उन्हें विविध स्थानों की सुविस्तृत जानकारी होती थी फल स्वरूप बेटी बेटों के विवाह विविध स्थानों की, फसल, व्यापारिक स्थिति, जीविका, शिक्षा, चिकित्सा आदि अनेकों विषयों में इन तीर्थ केन्द्रों पर पर्याप्त जानकारी प्राप्त हो जाती थी और उन जानकारियों के आधार पर ऐसे ऐसे लाभ होते थे जो यात्रा में लगे समय तथा पैसे की अपेक्षा कहीं अधिक मूल्यवान होते थे। यात्री लोग अनेक दृष्टियों से इतने लाभ में रहते थे कि सांसारिक व्यापारिक बुद्धि से देखने पर भी तीर्थ यात्री फायदे में रहते थे।
तीर्थ स्थानों के ऐतिहासिक महत्व भी हैं, उन स्थान पर हमारे पूर्वज महापुरुषों के पुनीत चरित्रों का सीधा संबंध है। यह स्थान उन महापुरुषों के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं की स्मृति दिलाते हैं। जिससे दर्शक को प्रेरणा, प्रोत्साहन, जीवन, बल, साहस, तथा प्रकाश मिलता है। इतिहास स्वयं जीवन निर्माता है। अतीत काल के अनुभवों से भविष्य निर्माण का अत्यन्त घनिष्ठ संबंध है। पुस्तकों में अंकित इतिहास की अपेक्षा जन संबंधित स्थलों के स्मृति चिन्हों के आधार पर पढ़ा हुआ इतिहास अधिक प्रेरणा-प्रद होता है, अधिक हृदयंगम बन जाता है।
तीर्थों की स्थापना इस प्रकार की गई है कि देश में महत्व पूर्ण भागों की यात्रा छूटने न पावे। चारों धाम (बद्रीनाथ, जगन्नाथ, रामेश्वर, तथा द्वारिका) देश के चार कोनों पर स्थित हैं। इनकी यात्रा करने वाले को सारे देश की परिक्रमा करनी पड़ती है और भारत की समस्त संस्कृतियों, नीति नीतियां, भाषाओं तथा भावनाओं के सम्पर्क में आना पड़ता है, ज्योतिर्लिंगों, पुरियों, पुण्य सरितासरों, एवं क्षेत्रों की यात्रा का क्रम भी ऐसा ही है जिनकी यात्रा में बड़े महत्व पूर्ण भूखंडों का संपर्क होता है। यह संपर्क देश की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक तथा बौद्धिक उन्नति के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होता है।
मानवीय विद्युत विज्ञान की दृष्टि से यह सिद्ध है कि जिन स्थानों में विशिष्ठ आत्म बल वाले महापुरुष निवास करते हैं वहां का वातावरण उनकी आत्म विद्युत से भर जाता है। जहां कोई अहिंसा की साधना वाले तेजस्वी महात्मा निवास करते हैं वहां का वातावरण ऐसा शान्ति दायक हो जाता है कि गौ और सिंह आपस में प्रेम पूर्वक निर्भय होकर रहते हैं। अपना स्वाभाविक बैर भाव भूल जाते हैं। इस प्रकार जहां कोई अवतारी, कलाधारी, अलौकिक आत्माएं रही हैं वहां का वातावरण भी उनके दिव्य तेज से भर जाता है और वह बहुत समय तक उन आत्माओं के चले जाने के चिरकाल पश्चात् तक बना रहता है। तपस्वी महात्मा अपनी तपश्चर्या के लिए प्रायः ऐसे स्थानों को चुना करते हैं जहां इस प्रकार के आत्म तेज पूर्वकाल से ही विद्यमान हों। क्योंकि इससे उनको बल प्राप्त होता है, साधना के विघ्नों से अनायास ही बहुत अंशों में छुटकारा मिलता है। इस परम्परा के अनुसार एक उन स्थानों पर एक-एक करके अनेकों महात्माओं के आत्म तेज के परत जमा होते जाते हैं। उस भूमि, जल, वायु, आकाश में वह दिव्य तेज भरा रहता है। कल्प कल्यान्त से असंख्य महात्माओं, अवतारी पुरुषों का सुदृढ़ आत्म तेज जिन स्थानों में पाया गया है वह तत्वदर्शी मनीषियों से तीर्थ स्थापित किये हैं। वस्तुतः वह स्थान ‘‘सिद्धपीठ’’ हैं। वहां के वातावरण में सुलभता से सिद्ध प्रदान करने तत्व भरे रहते हैं। इन तत्वों के प्रभाव से आध्यात्म मार्ग के पथिकों को असाधारण सफलता प्राप्त होती है। जिस प्रकार वृक्ष की छाया में बैठने से सभी प्रकार के लोगों को शीतलता अनुभव होती है उसी प्रकार इन सिद्धपीठों की छाया में पदार्पण करने से सुख शान्ति एवं संकट निवारण की आशीर्वादात्मक भावनाएं सुलभता पूर्वक हर एक को प्राप्त होती हैं। कभी कभी तो ऐसे अप्रत्याशित लाभ लोगों को मिलते देखे जाते हैं जिन्हें दैवी कृपा, तीर्थ महात्म्य, या पूर्व पुण्यों का फल, या क्या नाम दिया जाय यह समझ नहीं आता।
यह ठीक है कि वर्तमान काल में तीर्थों की स्थिति बड़ी लज्जाजनक हो गई है। वहां अनाचार, व्याभिचार, ठगी, धूर्तता, आदि का बोल बाला है। इस सचाई से कोई इनकार नहीं कर सकता। संसार व्यापी अनैतिकता से तीर्थ भी अछूते नहीं रहे हैं। हर क्षेत्र में काम करने वाली बुराइयां तीर्थों में भी घुस पड़ी हैं। चोर, ठग, धूर्त, बेईमान, उठाईगीरे, व्यभिचारी, पाखण्डी, लोभी, नीच, निर्लज्ज व्यक्ति धर्म की खाल ओढ़ कर इन पुनीत स्थानों में कुछ से कुछ बन जाते हैं। हत्यारे डाकू, चोर तथा अनेक भयंकर प्रकार के अपराधी अपनी सुरक्षा के लिए तथा जीविका की सुविधा के लिए साधु संत बन जाते हैं। इसी प्रकार ब्राह्मणत्व एवं पौरोहित्य गुणों से रहित व्यक्ति ब्राह्मणों के वेष ओढ़ कर जनता को ठगते हैं। सच्चे ब्राह्मणों तथा महात्माओं की कमी तथा धूर्तों की बढ़ोतरी ने आज तीर्थों को बदनाम कर दिया है। उन्हें अब धूर्तता, बदमाशी, ढोंग और लूट का घर समझा जाने लगा है। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए जनता की यह मान्यता उचित भी है। यह सब होते हुए भी तीर्थों की आधार शिला एक बड़े उपयोगिता वाद के ऊपर खड़ी होने के कारण उनका महत्व पूर्णतया किसी भी प्रकार नष्ट नहीं हो सकता।
विषधर सर्प लिपटे रहने से चन्दन का वृक्ष त्याज्य नहीं माना जाता, कांटेदार डाली पर लगा हुआ गुलाब का फूल निन्दित नहीं होता, गंदी नालियां गिरने पर भी गंगाजी की महिमा मिट नहीं जाती, कुछ स्वार्थी धूर्त एवं दुष्चरित्र लोगों की उपस्थिति के कारण तीर्थों की महिमा समाप्त नहीं हो सकती। हानिकारक विकार उत्पन्न होने पर उन विकारों को दूर करना चाहिए, उन विकारों के भय से मूल वस्तु को त्याग बैठना बुद्धिमता नहीं। जुओं के भय न तो कोई कपड़े फेंक देता है और न सिर के बाल घुटा डालता है, खटमलों के भय से चारपाई पर सोना कोई नहीं त्यागता। कुछ स्वार्थियों की दुष्टता के कारण तीर्थों की उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता। उनके द्वारा होने वाले लाभ इतने अधिक गंभीर एवं महान हैं कि इस छोटे से कारण की वजह से वे उपेक्षणीय नहीं हो सकते।
तीर्थों में दोष उत्पन्न हो गये हैं उन्हें सुधारना चाहिये। (1) दर्शनीय स्थानों को स्वच्छ शुद्ध एवं स्वास्थ्य प्रद बनाया जाना चाहिये। (2) भीड़ में स्त्रियों से कुचेष्टा करने वालों, जेबकटों, उठाईगीरों, ठगों तथा पाखण्डियों को रोकने का प्रयत्न होना चाहिये। (3) मन्दिरों में जमा तथा चढ़ावे के रूप में चढ़ने वाली सम्पत्ति का अधिकांश भाग लोक हितकारी सार्वजनिक कार्यों में व्यय होना चाहिये। (4) निस्वार्थ, सेवाभावी, निर्लोभ, विद्वान, सच्चे, सदाचारी एवं सहृदय पण्डा पुरोहितों से ही सम्पर्क रखना चाहिये। (5) दान देते समय पात्र कुपात्र का पूरी तरह अन्वेषण कर लेना चाहिये। (6) यात्रियों को अतिथि देव समझ कर उनकी समुचित सेवा सहायता करने वाली सेवा-समितियां होनी चाहिये। (7) सच्चे विद्वान ब्राह्मणों को तीर्थों में ऐसे आश्रम स्थापित करने चाहिये—जहां जिज्ञासुओं को आत्मिक क्षुधा बुझाने के लिये सच्चा बौद्धिक भोजन मिल सके। (8) हर तीर्थों में वहां का परिचय देने वाली पुस्तकें ऐसी सस्ते मूल्य की पुस्तकें उपलब्ध होनी चाहिये जिसमें वहां के ऐतिहासिक तथ्यों का तर्क संगत विज्ञान बुद्धि के साथ शिक्षात्मक ढंग से वर्णन हो। (9) देव मन्दिरों में वेजीटेबल घी, विदेशी वस्त्र, चर्बी की मोमबत्ती आदि अपवित्र पदार्थों का उपयोग न किया जया। (10) यात्रियों के लिये तीर्थ हर दृष्टि से उपयोगी बन सकें, ऐसी व्यवस्था करने वाली शिक्षणशालाएं तथा संस्थाएं खुलनी चाहिये। (11) पैदल तीर्थ यात्रा को जो प्रोत्साहन मिलना चाहिये। इस प्रकार के सुधार होने से तीर्थों की वास्तविक महिमा पुनः उज्ज्वल हो सकती है। जो दोष दृष्टिगोचर हों उनका संशोधन करते हुए तीर्थों की उपयोगिता का हम सब को लाभ उठाना चाहिये।