Books - महाशक्ति की लोकयात्रा
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Language: HINDI
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महामिलन हेतु महाप्रयाण की वेला
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वंदनीया माताजी के मन में अपनी असंख्य संतानों के प्रति गहरी आकुलता थी। वे जानती थीं कि उनके इस तरह चले जाने से उनके बच्चे बिलख उठेंगे, पर किया क्या जाए? देह छोड़ने की भी अनिवार्यता थी। परमपूज्य गुरुदेव के संकेत उन्हें बार-बार मिल रहे थे। इन संकेतों में एक ही स्वर निहित था, ‘सब लड़के अब परिपक्व हो चले हैं, उन्हें अब अपने पांवों पर खड़े होने देना चाहिए। अब आपको स्थूल कलेवर छोड़कर यहां सूक्ष्म जगत् में आकर तप करना चाहिए। विश्व कल्याण के लिए यह ज्यादा अनिवार्य है।’ गुरुदेव के इन सांकेतिक स्वरों को माताजी पिछले कई महीनों से लगातार अनुभव कर रही थीं। उनका स्वयं का मन-अंतःकरण भी गुरुदेव के लिए हमेशा विकल रहता था, पर उनकी यह निजी विकलता सदा ही उनके सहज मातृत्व से ढक जाती थी। उनका मातृभाव अन्य सभी भावों पर छा जाता था।
इन पंक्तियों को लिखते समय यह अच्छी तरह याद आ रहा है कि श्रद्धांजलि समारोह के बाद वर्ष 1991 के मई महीने में माताजी ब्रह्मवर्चस आई थीं। दोपहर के बाद का समय होगा। ब्रह्मवर्चस में बनी हुई यज्ञशाला के सामने छाया आ गई थी। वहीं पर उन्होंने कुरसी डलवाई और बैठ गईं। यहां रहने वाले सभी कार्यकर्त्ता भाई-बहन उनके इर्द-गिर्द खड़े हो गए। उन्होंने एक-एक करके सभी का हाल-चाल पूछा। फिर बातों-बातों में बोलीं, मैंने तो श्रद्धांजलि समारोह के बाद ही चले जाने का मन बना लिया था। सोचा था, जिन्हें अपनी हर सांस अर्पण की, उनके चले जाने के बाद मेरा एक ही कर्त्तव्य-कार्य शेष बचता है कि उन्हें अपनी ओर से, तुम सबकी ओर से श्रद्धांजलि दे दूं। इसके बाद वहीं चली जाऊं, जहां वे स्वयं हैं, पर प्रणव नहीं माने, कहने लगे माताजी अभी तो हम लोग गुरुदेव के न रहने की पीड़ा से ही नहीं उबर पाए हैं, आप भी चली जाएंगी तो हम सबके क्या हाल होंगे। हमें भी लगा कि ये ठीक ही कह रहे हैं, इसलिए सोच लिया है कि तुम सब लोगों के लिए मैं अभी तीन-सवा तीन साल और रहूंगी।
संतानों की जिस चिंता के कारण उन्होंने इन वर्षों में अपनी देह को टिकाए रखा, वह चिंता उन्हें देह छोड़ने से पहले भी थी। उनके सामने कभी भी सवाल यह नहीं था कि मिशन किस तरह से चलेगा? क्योंकि यह सचाई वे अच्छी तरह से जानती थीं और इसे वह सभी को समय-समय पर बताया करती थीं कि इस मिशन को चलाने वाला भगवान् है। यह भगवान् के संकल्प के अनुसार अपने आप चलता रहेगा और ठीक तरह से चलता रहेगा। वह कहा करती थीं कि बेटा! इसकी जड़ों में गुरुजी की इतनी ज्यादा तप-ऊर्जा लगी है, यह कभी भी किसी भी स्थिति में बिगड़ेगा नहीं। हां इसे थोड़ा-सा भी बिगाड़ने की कोशिश करने वाले जरूर बिगड़ जाएंगे। वे चाहती यह थीं कि जिस प्यार की डोर में उन्होंने जीवन भर समूचे गायत्री परिवार को बांधकर रखा, वह डोर वैसी ही मजबूत बनी रहे।
इसी कारण उन्होंने महाप्रयाण से कुछ दिन पहले शांतिकुंज के सभी वरिष्ठ कार्यकर्त्ताओं को एक-एक करके बुलाया। उनकी निजी जिंदगी की बातें पूछीं, उन्हें दिलासा दी और फिर यह कर्त्तव्य याद दिलाया कि देखो, तुम लोग बड़े हो, तुम्हारे छोटे भाई-बहन कोई गलती करें तो उन्हें समझाओ, थोड़ा-बहुत डांटो भी, पर उन्हें अपने गले से लगाकर रखो। उन्हें किसी भी तरह प्यार की कमी महसूस न होने दो। किसी को यह न लगे कि हम तो अपने मां-बाप को छोड़कर, अपने घर को छोड़कर आ गए। अब यहां हमारा कोई अपना नहीं।
इस तरह सबको समझाने-बुझाने के बाद उन्होंने एक बात अपने बारे में कही। वह बोलीं, ‘‘मैंने मनुष्य देह जरूर धारण की है, पर तुम लोग मुझे केवल मनुष्य न समझना। देखो गंगाजी के पानी में चांद की परछाई देखकर छोटी-छोटी मछलियां आनंद से उसके इर्द-गिर्द उछल-कूदकर खेलने लगती हैं, सोचती हैं, यह हमीं में से एक है, पर सुबह जब चांद डूब जाता है, तो उनकी पहले जैसी दशा हो जाती है। उछल-कूद के बाद शिथिलता आ जाती है। वे सब कुछ भी नहीं समझ पातीं।’’ इन शब्दों में माताजी ने सभी को संकेत में अपना स्वरूप बोध कराया। ताकि जो लोग लंबे समय तक उनके साथ रहे, वे समझ सकें कि वह कौन हैं? सभी को इस तरह समझाकर वह मौन हो गईं, साथ ही उन्होंने कतिपय विशिष्ट यौगिक क्रियाओं के द्वारा अपनी आत्मचेतना को देह से हटाना शुरू कर दिया। इसी के साथ क्रमिक रूप से उनका देह-बोध शून्य होने लगा।
बीतते पलों के साथ वह घड़ी भी आ गई, जिसे उन्होंने अपने प्रभु से महामिलन के लिए निश्चित किया था। भाद्रपद पूर्णिमा 19 सितम्बर, 1994 को प्रातः सभी को उनके मुखमंडल पर एक अनोखा भावांतर नजर आया। जिस कक्ष में वह लेटी हुई थीं, वहां का वातावरण पिछले दिनों की तुलना में एकदम बदला हुआ नजर आया। दिव्य सूक्ष्म स्पंदन वहां सघन हो उठे। ऐसा लगने लगा कि सभी देव शक्तियां उनके इर्द-गिर्द उपस्थित हो गई हैं। बिना किसी कृत्रिम साधन के वहां एक दिव्य सुरभि फैल गई। इसे सभी उपस्थित लोगों ने अनुभव किया। अपने गहन मौन में लीन माताजी प्रातः से ही ध्यानस्थ थीं। मुखमंडल पर प्रदीप्त आभा से, कुछ को यह भी लग रहा था कि माताजी आज पहले से कहीं ज्यादा स्वस्थ हैं। एक अर्थ में यह सोचना सही भी था, क्योंकि अन्य दिनों की तुलना में वह आज पहले से ज्यादा अपने स्व में स्थित हो गई थीं।
वातावरण में सब ओर सर्वत्र एक गहन नीरवता हिलोरें ले रही थी। सब लोग यंत्र के समान काम-काज किए जा रहे थे। किसी को कुछ सूझ नहीं पड़ रहा था। ध्यानस्थ माताजी मूर्तिमयी प्रशांति के रूप में विराज रही थीं। उनके मुखमंडल पर एक अनिवर्चनीय शांति और आनंद की दीप्ति खेल रही थी। महाकाली मानो महाकाल के ध्यान में मग्न हो रही थीं। इन पलों में साक्षी हुए लोग अपूर्व सौभाग्यशाली थे। सौभाग्य का कुछ अंश उन्हें भी मिला था, जो पिछले कुछ महीनों से हर दिन अपनी आत्मचेतना को एकाग्र करके अपनी प्यारी मां को अपना भक्तिपूर्ण प्रणाम निवेदित करते थे। मां के चले जाने के अहसास को अनुभव कर जिनकी सिसकियां थमती नहीं थीं। इन क्षणों में भी उनकी ध्यानस्थ चेतना मां के चरणों में अपनी भावांजलि अर्पित कर रही थी।
पूर्वाह्न 11-40 पर ध्यानस्थ जनों के ध्यान में एक दृश्य बड़ी ही स्पष्ट रीति से उभरा। इस अद्भुत अनुभूति में उन्होंने अनुभव किया कि परमपूज्य गुरुदेव अपनी लीला संगिनी को अमर-धान में लेने के लिए आए हैं। अनेकों देवशक्तियां, सूक्ष्मलोक के ऋषिगण उन्हें घेरे हुए हैं। सभी की दृष्टि माताजी पर टिकी है। क्षण बीते, 11-50 पर माताजी की स्थूल देह हल्के से कंपित हुई और माता आदिशक्ति अपने परमपुरुष पुरुषोत्तम के साथ विराजमान हो गईं। हृदय-हृदय में वेदना की रागिनी बज उठी। समूचे कक्ष में निष्कंप-स्तब्धता उतर आई। इस स्तब्धता ने भी बड़ी अनोखी रीति से इस सत्य का संचार कर दिया कि माता भगवती महाकाली भगवान् महाकाल से महामिलन के लिए महाप्रयाण कर चुकी हैं। उनकी तपःपूत देह के अंतिम दर्शन के लिए शिष्यों-भक्तों वे संतानों की भीड़ लग गई। लगभग 24 घंटे तक अंतिम दर्शन का सिलसिला चलता रहा। अगले दिन यानि कि 20 सितंबर 1994 को महाशक्ति की आवास बनी उनकी स्थूल देह चिता-अग्नि के तेज में विलीन हो गई। नित्यप्रति अपने बच्चों को दर्शन देने वाली माता अब ध्यानगम्य हो गईं। हां बच्चों को दिए गए मां के आश्वासन के स्वरों की गूंज अभी भी थी।