Books - गृहस्थ एक योग साधना
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Language: HINDI
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दृष्टिकोण का परिवर्तन
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इस बात को भली प्रकार समझ रखना चाहिए कि योग का अर्थ अपनी तुच्छता संकीर्णता को महानता, उदारता और विश्वबन्धुत्व में जोड़ देना है। अर्थात् स्वार्थ को परिशोधन करके उसे परमार्थ बना लेना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये असंख्य प्रकार के योगों की साधनायें की जाती हैं उन्हीं में से एक गृहस्थ योग ही साधना है। अन्य साधनाओं की अपेक्षा यह अधिक सुखद और स्वाभाविक है। इसलिये आचार्यों ने गृहस्थ योग का दूसरा नाम सहज योग भी रखा है। महात्मा कबीर ने अपने पदों में सहज योग की बहुत चर्चा और प्रशंसा की है।
किसी वस्तु को समुचित रीति से उपयोग करने पर वह साधारण होते हुए भी बहुत बड़ा लाभ दिखा देती है और कोई वस्तु उत्तम होते हुए भी यदि उसका दुरुपयोग किया जाय तो वह हानिकारक हो जाती है। दूध जैसे उत्तम पौष्टिक पदार्थ को भी यदि अवधि पूर्वक सेवन किया जाय तो वह रोग और मृत्यु का कारण बन सकता है। इसके विपरीत यदि जहर को भी उचित रीति से शोधन मारण करके काम में लाया जाय तो वह अमृत के समान रसायन का काम देता है। गृहस्थाश्रम के सम्बन्ध में भी यही बात है यदि उचित दृष्टिकोण के साथ आचरण किया तो गृहस्थाश्रम के रहते हुए भी ब्रह्म निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है जैसा कि अनेक ऋषि महात्मा योगी और तपस्वी पूर्वकाल में प्राप्त कर चुके हैं। आजकल गृहस्थों को दुख, चिन्ता, रोग, शोक, आधि व्याधि, पाप ताप में ग्रसित अधिक देखा जाता है इससे ऐसा अनुमान न लगाना चाहिए कि इसका कारण गृहस्थाश्रम है, यह तो मानसिक विकारों को कुविचार और कुसंस्कारों का फल है। दूषित मनोवृत्तियों के कारण हर एक आश्रम में, हर एक वर्ण में, हर एक देश में ऐसे ही संकट, दुख उपस्थित होंगे। इसके लिये बेचारे गृहस्थाश्रम को दोष देना बेकार है। यदि वह वास्तव में ही दूषित, त्याज्य तथा तुच्छ होता तो संसार के महापुरुषों, अवतारों और युग निर्माताओं ने इससे अपने को अलग रखा होता, किन्तु हम देखते हैं विश्व की महानता का करीब, करीब समस्त इतिहास गृहस्थाश्रम की धुरी पर केन्द्रीभूत हो रहा है।
आत्मीयता की उन्नति के लिए अभ्यास करने का सबसे अच्छा स्थान अपना घर है। नट अपने घर के आंगन में कला खेलना सीखता है। बालक अपने घर में खड़ा होना और चलना फिरना सीखता है योग की साधना भी घर से ही आरम्भ होनी चाहिए। प्रेम, त्याग और सेवा का, अभ्यास करने के लिये अपने घर का क्षेत्र सबसे अच्छा है। इन तत्वों का प्रकाश जिस स्थान पर पड़ता है वही चमकने लगता है। जब तक आत्मीयता के भावों की कमी रहती है तब तक औरों के प्रति दुर्भाव, घृणा, क्रोध, उपेक्षा के भाव रहते हैं किन्तु जब अपने पन के विचार बढ़ते हैं तो हल्के दर्जे की चीजें भी बहुत सुन्दर दिखाई पड़ने लगती है। माता अपने बच्चे के प्रति आत्म भाव रखती है इसलिये यदि वह लाभदायक न हो तो भी उसे भरपूर स्नेह करती है, पतिव्रत पत्नियों को अपने काले कलूटे और दुर्गुणी पति भी इन्द्र जैसे सुन्दर और बृहस्पति जैसे गुणवान लगते हैं।
दुनियां में सारे झगड़ों की जड़ यह है कि हम देते कम हैं और मांगते ज्यादा हैं। हमें चाहिए कि दें बहुत और बदला बिलकुल न मांगें या बहुत कम पाने की आशा रखें। इस नीति को ग्रहण करते ही हमारे आस पास के सारे झगड़े मिट जाते हैं। आत्मीयता की महान साधना में प्रवृत्त होने वाले को अपना दृष्टिकोण—देने का—त्याग और सेवा का, बनाना पड़ता है। आप प्रेम की उदार भावनाओं से अपने अन्तःकरण को परिपूर्ण कर लीजिए और सगे सम्बन्धियों के साथ त्याग एवं सेवा का व्यवहार करना आरम्भ कर दीजिए। कुछ ही क्षणों के उपरान्त एक चमत्कार हुआ दिखाई देने लगेगा। अपना छोटा सा परिवार जो शायद बहुत दिनों से कलह और क्लेशों का घर बना हुआ है—सुख शान्ति का स्वर्ग दीखने लगेगा। अपनी आत्मीयता की प्रेम भावनाएं परिवार के—आस पास के लोगों से टकराकर अपने पास वापिस लौट आती हैं और वे आनन्द की भीनी सुगन्धित फुहार से छिड़क कर मुरझाये हुए अन्तःकरण को हरा कर देती है।
माली अपने ऊपर जिस बगीची की जिम्मेदारी लेता है उसे हरा भरा बनाने, सर सब्ज रखने का जी जान से प्रयत्न करता है। यही दृष्टिकोण एक सद् गृहस्थ का होना चाहिये। उसे अनुभव करना चाहिये कि परमात्मा ने इन थोड़े से पेड़ों को खींचने, खाद देने, संभालने और रखवाली करने का भार विशेष रूप से मुझे दिया है। यों तो समस्त समाज और समस्त जगत के प्रति हमारे कर्तव्य हैं, परन्तु इस छोटी बगीची का भार तो विशेष रूप से अपने ऊपर रखा हुआ है। अपने परिवार के हर एक व्यक्ति को स्वस्थ रखने, शिक्षित बनाने, सद्गुणी सदाचारी और चतुर बनने की पूरी पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर समझते हुए, इसे ईश्वर को आज्ञा का पालन मानते हुए अपना उत्तरदायित्व पूरा करने का प्रयत्न करना चाहिए। अपने परिवार के सदस्यों की सेवा की परमार्थ, पुण्य, लोक सेवा, ईश्वर पूजा से किसी प्रकार कम नहीं है।
स्वार्थ और परमार्थ का मूल बीज अपने मनोभाव, दृष्टिकोण के ऊपर निर्भर है। यदि पत्नी के प्रति उसे अपनी नौकरानी, दासी, सम्पत्ति, भोग सामग्री समझ कर अपना मतलब गांठने, सेवायें लेने, शासन करने का भाव हो तो यह भाव ही स्वार्थ नरक, कलह, भार, दुख की ओर ले जाने वाला है। यदि उसे अपने उपवन का एक सुरम्य सरस वृक्ष समझ कर उसके प्रति सात्विक त्यागमय सेवा का, पुनीत उदारतामय प्रेम का भाव हो तो यह भाव ही दाम्पत्ति जीवन को, पत्नी सान्निध्य को परमार्थ, स्वर्ग, स्नेह और आनन्द का घर बनाया जा सकता है। ‘‘देना कम लेना ज्यादा’’ यह नीति झगड़े की, पाप की कटुता की, नरक की जड़ है। ‘‘देना ज्यादा और लेना कम से कम’’ यह नीति—प्रेम, सहयोग, पुण्य और स्वर्ग की जननी है। बदला चाहने, लेने, स्वार्थ साधने, सेवा कराने की स्वार्थ दृष्टि से यदि पत्नी, पुत्र, पिता, भाई, माता, बुआ, बहिन को देखा जाय तो यह सभी बड़े स्वार्थी, खुदगर्ज, बुरे, रूखे, उपेक्षा करने वाले, उद्दंड दिखाई देंगे, उनमें एक से एक बड़ी बुराई दिखाई पड़ेगी और ऐसा लगेगा मानो गृहस्थ ही सारे दुखों, स्वार्थों और पापों का केन्द्र है। कई व्यक्ति गृहस्थी पर ऐसा ही दोष लगाते हुए कुढ़ते रहते हैं, खिन्न रहते हैं एवं घर छोड़ कर भाग खड़े होते हैं। असल में यह दोष परिवार वालों का नहीं वरन् उनके अपने दृष्टिकोण का दोष है, पीला चश्मा पहनने वाले को हर एक वस्तु पीली ही दिखाई पड़ती है।
प्रत्येक मनुष्य अपूर्ण है। वह अपूर्णता से पूर्णता की ओर यात्रा कर रहा है। ऐसी दशा में यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि हमारे परिवार के सब सदस्य स्वर्ग के देवता, हमारे पूर्ण आज्ञानुवर्ती होंगे। जीव अपने साथ जन्म जन्मांतरों के संस्कारों को साथ लाता है, यह संस्कार धीरे धीरे, बड़े प्रयत्न पूर्वक बदले जाते हैं एक दिन में उन सबका परिवर्तन नहीं हो सकता, इसलिये यह आशा रखना अनुचित है कि परिवार वाले पूर्णतया हमारे आज्ञानुवर्ती ही होंगे। उनकी त्रुटियों को सुधारने में, उन्हें आगे बढ़ाने में, उन्हें सुखी बनाने में संतोष प्राप्त करने का अभ्यास डालना चाहिए। अपनी इच्छाओं की पूर्ति से सुखी होने की आशा करना इस संसार में एक असंभव मांग करना है। दूसरे लोग हमारे लिये यह करें, परिवार वाले इस प्रकार का हमसे व्यवहार करें, इस बात के ऊपर अपनी प्रसन्नता को केन्द्रित करना एक बड़ी भूल है ऐसी भूल को जो लोग करते हैं उन्हें गृहस्थ के आनन्द से प्रायः पूर्णतया वंचित रहना पड़ता है।
स्मरण रखिये गृहस्थ का पालन करना एक प्रकार के योग की साधना करना है। इसमें परमार्थ, सेवा, प्रेम, सहायता, त्याग, उदारता और बदला पाने की इच्छा से विमुखता—यही दृष्टि कोण प्रधान है। जो इसको धारण किये हुए हैं वही ब्राह्मी स्थिति में हैं वह घर में रहते हुए भी संन्यासी हैं।
किसी वस्तु को समुचित रीति से उपयोग करने पर वह साधारण होते हुए भी बहुत बड़ा लाभ दिखा देती है और कोई वस्तु उत्तम होते हुए भी यदि उसका दुरुपयोग किया जाय तो वह हानिकारक हो जाती है। दूध जैसे उत्तम पौष्टिक पदार्थ को भी यदि अवधि पूर्वक सेवन किया जाय तो वह रोग और मृत्यु का कारण बन सकता है। इसके विपरीत यदि जहर को भी उचित रीति से शोधन मारण करके काम में लाया जाय तो वह अमृत के समान रसायन का काम देता है। गृहस्थाश्रम के सम्बन्ध में भी यही बात है यदि उचित दृष्टिकोण के साथ आचरण किया तो गृहस्थाश्रम के रहते हुए भी ब्रह्म निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है जैसा कि अनेक ऋषि महात्मा योगी और तपस्वी पूर्वकाल में प्राप्त कर चुके हैं। आजकल गृहस्थों को दुख, चिन्ता, रोग, शोक, आधि व्याधि, पाप ताप में ग्रसित अधिक देखा जाता है इससे ऐसा अनुमान न लगाना चाहिए कि इसका कारण गृहस्थाश्रम है, यह तो मानसिक विकारों को कुविचार और कुसंस्कारों का फल है। दूषित मनोवृत्तियों के कारण हर एक आश्रम में, हर एक वर्ण में, हर एक देश में ऐसे ही संकट, दुख उपस्थित होंगे। इसके लिये बेचारे गृहस्थाश्रम को दोष देना बेकार है। यदि वह वास्तव में ही दूषित, त्याज्य तथा तुच्छ होता तो संसार के महापुरुषों, अवतारों और युग निर्माताओं ने इससे अपने को अलग रखा होता, किन्तु हम देखते हैं विश्व की महानता का करीब, करीब समस्त इतिहास गृहस्थाश्रम की धुरी पर केन्द्रीभूत हो रहा है।
आत्मीयता की उन्नति के लिए अभ्यास करने का सबसे अच्छा स्थान अपना घर है। नट अपने घर के आंगन में कला खेलना सीखता है। बालक अपने घर में खड़ा होना और चलना फिरना सीखता है योग की साधना भी घर से ही आरम्भ होनी चाहिए। प्रेम, त्याग और सेवा का, अभ्यास करने के लिये अपने घर का क्षेत्र सबसे अच्छा है। इन तत्वों का प्रकाश जिस स्थान पर पड़ता है वही चमकने लगता है। जब तक आत्मीयता के भावों की कमी रहती है तब तक औरों के प्रति दुर्भाव, घृणा, क्रोध, उपेक्षा के भाव रहते हैं किन्तु जब अपने पन के विचार बढ़ते हैं तो हल्के दर्जे की चीजें भी बहुत सुन्दर दिखाई पड़ने लगती है। माता अपने बच्चे के प्रति आत्म भाव रखती है इसलिये यदि वह लाभदायक न हो तो भी उसे भरपूर स्नेह करती है, पतिव्रत पत्नियों को अपने काले कलूटे और दुर्गुणी पति भी इन्द्र जैसे सुन्दर और बृहस्पति जैसे गुणवान लगते हैं।
दुनियां में सारे झगड़ों की जड़ यह है कि हम देते कम हैं और मांगते ज्यादा हैं। हमें चाहिए कि दें बहुत और बदला बिलकुल न मांगें या बहुत कम पाने की आशा रखें। इस नीति को ग्रहण करते ही हमारे आस पास के सारे झगड़े मिट जाते हैं। आत्मीयता की महान साधना में प्रवृत्त होने वाले को अपना दृष्टिकोण—देने का—त्याग और सेवा का, बनाना पड़ता है। आप प्रेम की उदार भावनाओं से अपने अन्तःकरण को परिपूर्ण कर लीजिए और सगे सम्बन्धियों के साथ त्याग एवं सेवा का व्यवहार करना आरम्भ कर दीजिए। कुछ ही क्षणों के उपरान्त एक चमत्कार हुआ दिखाई देने लगेगा। अपना छोटा सा परिवार जो शायद बहुत दिनों से कलह और क्लेशों का घर बना हुआ है—सुख शान्ति का स्वर्ग दीखने लगेगा। अपनी आत्मीयता की प्रेम भावनाएं परिवार के—आस पास के लोगों से टकराकर अपने पास वापिस लौट आती हैं और वे आनन्द की भीनी सुगन्धित फुहार से छिड़क कर मुरझाये हुए अन्तःकरण को हरा कर देती है।
माली अपने ऊपर जिस बगीची की जिम्मेदारी लेता है उसे हरा भरा बनाने, सर सब्ज रखने का जी जान से प्रयत्न करता है। यही दृष्टिकोण एक सद् गृहस्थ का होना चाहिये। उसे अनुभव करना चाहिये कि परमात्मा ने इन थोड़े से पेड़ों को खींचने, खाद देने, संभालने और रखवाली करने का भार विशेष रूप से मुझे दिया है। यों तो समस्त समाज और समस्त जगत के प्रति हमारे कर्तव्य हैं, परन्तु इस छोटी बगीची का भार तो विशेष रूप से अपने ऊपर रखा हुआ है। अपने परिवार के हर एक व्यक्ति को स्वस्थ रखने, शिक्षित बनाने, सद्गुणी सदाचारी और चतुर बनने की पूरी पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर समझते हुए, इसे ईश्वर को आज्ञा का पालन मानते हुए अपना उत्तरदायित्व पूरा करने का प्रयत्न करना चाहिए। अपने परिवार के सदस्यों की सेवा की परमार्थ, पुण्य, लोक सेवा, ईश्वर पूजा से किसी प्रकार कम नहीं है।
स्वार्थ और परमार्थ का मूल बीज अपने मनोभाव, दृष्टिकोण के ऊपर निर्भर है। यदि पत्नी के प्रति उसे अपनी नौकरानी, दासी, सम्पत्ति, भोग सामग्री समझ कर अपना मतलब गांठने, सेवायें लेने, शासन करने का भाव हो तो यह भाव ही स्वार्थ नरक, कलह, भार, दुख की ओर ले जाने वाला है। यदि उसे अपने उपवन का एक सुरम्य सरस वृक्ष समझ कर उसके प्रति सात्विक त्यागमय सेवा का, पुनीत उदारतामय प्रेम का भाव हो तो यह भाव ही दाम्पत्ति जीवन को, पत्नी सान्निध्य को परमार्थ, स्वर्ग, स्नेह और आनन्द का घर बनाया जा सकता है। ‘‘देना कम लेना ज्यादा’’ यह नीति झगड़े की, पाप की कटुता की, नरक की जड़ है। ‘‘देना ज्यादा और लेना कम से कम’’ यह नीति—प्रेम, सहयोग, पुण्य और स्वर्ग की जननी है। बदला चाहने, लेने, स्वार्थ साधने, सेवा कराने की स्वार्थ दृष्टि से यदि पत्नी, पुत्र, पिता, भाई, माता, बुआ, बहिन को देखा जाय तो यह सभी बड़े स्वार्थी, खुदगर्ज, बुरे, रूखे, उपेक्षा करने वाले, उद्दंड दिखाई देंगे, उनमें एक से एक बड़ी बुराई दिखाई पड़ेगी और ऐसा लगेगा मानो गृहस्थ ही सारे दुखों, स्वार्थों और पापों का केन्द्र है। कई व्यक्ति गृहस्थी पर ऐसा ही दोष लगाते हुए कुढ़ते रहते हैं, खिन्न रहते हैं एवं घर छोड़ कर भाग खड़े होते हैं। असल में यह दोष परिवार वालों का नहीं वरन् उनके अपने दृष्टिकोण का दोष है, पीला चश्मा पहनने वाले को हर एक वस्तु पीली ही दिखाई पड़ती है।
प्रत्येक मनुष्य अपूर्ण है। वह अपूर्णता से पूर्णता की ओर यात्रा कर रहा है। ऐसी दशा में यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि हमारे परिवार के सब सदस्य स्वर्ग के देवता, हमारे पूर्ण आज्ञानुवर्ती होंगे। जीव अपने साथ जन्म जन्मांतरों के संस्कारों को साथ लाता है, यह संस्कार धीरे धीरे, बड़े प्रयत्न पूर्वक बदले जाते हैं एक दिन में उन सबका परिवर्तन नहीं हो सकता, इसलिये यह आशा रखना अनुचित है कि परिवार वाले पूर्णतया हमारे आज्ञानुवर्ती ही होंगे। उनकी त्रुटियों को सुधारने में, उन्हें आगे बढ़ाने में, उन्हें सुखी बनाने में संतोष प्राप्त करने का अभ्यास डालना चाहिए। अपनी इच्छाओं की पूर्ति से सुखी होने की आशा करना इस संसार में एक असंभव मांग करना है। दूसरे लोग हमारे लिये यह करें, परिवार वाले इस प्रकार का हमसे व्यवहार करें, इस बात के ऊपर अपनी प्रसन्नता को केन्द्रित करना एक बड़ी भूल है ऐसी भूल को जो लोग करते हैं उन्हें गृहस्थ के आनन्द से प्रायः पूर्णतया वंचित रहना पड़ता है।
स्मरण रखिये गृहस्थ का पालन करना एक प्रकार के योग की साधना करना है। इसमें परमार्थ, सेवा, प्रेम, सहायता, त्याग, उदारता और बदला पाने की इच्छा से विमुखता—यही दृष्टि कोण प्रधान है। जो इसको धारण किये हुए हैं वही ब्राह्मी स्थिति में हैं वह घर में रहते हुए भी संन्यासी हैं।