Books - हमारी वसीयत और विरासत
Media: TEXT
Language: EN
Language: EN
चौथा और अंतिम निर्देशन
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
चौथी बार गत वर्ष पुनः हमें एक सप्ताह के लिए हिमालय बुलाया गया। सन्देश पूर्ववत् सन्देश रूप में आया। आज्ञा के परिपालन में विलम्ब कहाँ होना था। हमारा शरीर सौंपे हुए कार्यक्रमों में खटता रहा है, किन्तु मन सदैव दुर्गम हिमालय में अपने गुरु के पास रहा है। कहने में संकोच होता है, पर प्रतीत ऐसा ही होता है कि गुरुदेव का शरीर हिमालय में रहता है और मन हमारे इर्द-गिर्द मँडराता रहता है। उनकी वाणी अन्तराल में प्रेरणा बनकर गूँजती रहती है। उसी चाबी के कसे जाने पर हृदय और मस्तिष्क का पेण्डुलम धड़कता और उछलता रहता है।
यात्रा पहली तीनों बार की ही तरह कठिन रही। इस बार साधक की परिपक्वता के कारण सूक्ष्म शरीर को आने का निर्देश मिला था। उसी काया को एक साथ तीन परीक्षाओं को पुनः देना था। साधना क्षेत्र में एक बार उत्तीर्ण हो जाने पर पिसे को पीसना भर रह जाता है। मार्ग देखा भाला था। दिनचर्या बनी बनाई थी। गोमुख से साथ मिल जाना और तपोवन तक सहज जा पहुँचना यही क्रम पुनः चला। उनका सूक्ष्म शरीर कहाँ रहता है, क्या करता है यह हमने कभी नहीं पूछा। हमें तो भेंट का स्थान मालूम है, मखमली गलीचा। ब्रह्मकमल की पहचान हो गई थी। उसी को ढूँढ़ लेते और उसी को प्रथम मिलन पर गुरुदेव के चरणों पर चढ़ा देते। अभिवन्दन-आशीर्वाद के शिष्टाचार में तनिक भी देर न लगती और काम की बात तुरन्त आरम्भ हो जाती। यही प्रकरण इस बार भी दुहराया गया। रास्ते में मन सोचता आया कि जब भी जितनी बार भी बुलाया गया है तभी पुराना स्थान छोड़कर अन्यत्र छोड़कर अन्यत्र जाना पड़ा है। इस बार भी सम्भवतः वैसा ही होगा। शान्तिकुञ्ज छोड़ने के उपरान्त सम्भवतः अब इसी ऋषि प्रदेश में आने का आदेश मिलेगा और इस बार कोई काम पिछले अन्य कामों की तुलना में बड़े कदम के रूप में उठाना होगा। रास्ते के संकल्प विकल्प थे। अब तो प्रत्यक्ष भेंट हो रही थी।
अब तक के कार्यों पर उनने अपनी प्रसन्नता व्यक्त की। हमने इतना ही कहा-‘‘काम आप करते हैं और श्रेय मुझ वानर जैसे को देते हैं। समग्र समर्पण कर देने के उपरान्त यह शरीर और मन दीखने भर के लिए ही अलग हैं, वस्तुतः यह सब कुछ आपकी ही सम्पदा है। जब जैसा चाहते हैं, तब वैसा तोड़-मोड़कर आप ही उपयोग कर लेते हैं।’’
गुरुदेव ने कहा-‘‘अब तक जो बताया और कराया गया है, वह नितांत स्थानीय था और सामान्य भी। ऐसा वरिष्ठ मानव कर सकते हैं, भूतकाल में करते भी रहे हैं। तुम अगला काम सँभालोगे, तो यह सारे कार्य दूसरे तुम्हारे अनुवर्ती लोग आसानी से करते रहेंगे। जो प्रथम कदम बढ़ाता है, उसे अग्रणी होने का श्रेय मिलता है। पीछे तो ग्रह-नक्षत्र भी सौर मण्डल के सदस्य भी अपनी-अपनी कक्षा पर बिना किसी कठिनाई के ढर्रा चला ही रहे हैं। अगला काम इससे भी बड़ा है। स्थूल वायु मण्डल और सूक्ष्म वातावरण इन दिनों विषाक्त हो गए हैं, जिससे मानवी गरिमा ही नहीं, दैवीय सत्ता भी संकट में पड़ गई है। भविष्य बहुत भयानक दीखता है। इससे परोक्षतः लड़ने के लिए हमें-तुम्हें वह सब कुछ करना पड़ेगा, जिसे अद्भुत एवं अलौकिक कहा जा सके।’’
धरती का घेरा-वायु, जल और जमीन तीनों ही विषाक्त हो रहे हैं, वैज्ञानिक कुशलता के साथ अर्थ लोलुपता के मिल जाने से चल पड़े यंत्रीकरण ने सर्वत्र विष बिखेर दिया है और ऐसी स्थिति पैदा कर दी है, जिसमें दुर्बलता, रुग्णता और अकाल मृत्यु का जोखिम हर किसी के सिर पर मँडराने लगा है। अणु आयुधों के अनाड़ियों के हाथों प्रयोगों का खतरा इतना बड़ा है कि उसके तनिक से व्यतिक्रम पर सब कुछ भस्मसात् हो सकता है। प्रजा की उत्पत्ति बरसाती घास-पत्ती की तरह हो रही है। यह खाएँगे क्या? रहेंगे कहाँ? इन दिनों सब विपत्तियों-विभीषिकाओं से विषाक्त वायुमण्डल धरती को नरक बना देगा।
जिस हवा में लोग साँस ले रहे हैं, उसमें जो भी साँस लेता है, वह अचिंत्य चिन्तन अपनाता और दुष्कर्म करता है। दुर्गति हाथों-हाथ सामने आती जाती है। यह अदृश्य लोक में भर गए विकृत वातावरण का प्रतिफल है। इस स्थिति में जो भी रहेगा, नर पशु और नर-पिशाच जैसे क्रिया-कृत्य करेगा। भगवान् की इस सर्वोत्तम कृति धरती और मानव सत्ता को इस प्रकार नरक बनते देखने में व्यथा होती है। महाविनाश की सम्भावना से कष्ट होता है। इस स्थिति को बदलने, इस समस्या का समाधान करने के लिए भारी गोवर्धन पर्वत उठाना पड़ेगा, लम्बा समुद्र लाँघना पड़ेगा। इसके लिए वामन जैसे बड़े कदम उठाने को ही तुम्हें बुलाया गया है।
इसके लिए तुम्हें एक से पाँच बनकर मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा। कुन्ती के समान अपनी एकाकी सत्ता को निचोड़कर पाँच देवपुत्रों को जन्म देना होगा, जिन्हें भिन्न-भिन्न मोर्चों पर भिन्न-भिन्न भूमिका प्रस्तुत करनी पड़ेगी।
मैंने बात के बीच में विक्षेप करते हुए कहा-‘‘यह तो आपने परिस्थितियों की बात कही। इतना सोचना और समस्या का समाधान खोजना आप बड़ों का काम है। मुझ बालक को तो काम बता दीजिए और सदा की तरह कठपुतली के तारों को अपनी उँगलियों में बाँधकर नाच नचाते रहिए। परामर्श मत कीजिए। समर्पित को तो केवल आदेश चाहिए। पहले भी आपने जब कोई मूल आदेश स्थूलतः या सूक्ष्म संदेश के रूप में भेजा है, उसमें हमने अपनी ओर से कोई ननुनच नहीं की। गायत्री के चौबीस महापुरश्चरणों के सम्पादन से लेकर स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने तक, लेखनी पकड़ने से लेकर विराट यज्ञायोजन तक एवं विशाल संगठन खड़ा करने से लेकर करोड़ों की स्थापनाएँ करने तक आपकी आज्ञा, संरक्षण एवं मार्गदर्शन ने ही सारी भूमिका निभाई है। दृश्य रूप में हम भले ही सबके समक्ष रहे हों, हमारा अंतःकरण जानता है कि यह सब कराने वाली सत्ता कौन है? फिर इसमें हमारा सुझाव कैसा, सलाह कैसी। इस शरीर का एक-एक कण, रक्त की एक-एक बूँद, चिंतन-अंतःकरण आपको, विश्व मानवता को समर्पित है। उनने प्रसन्न बदन स्वीकारोक्ति प्रकट की एवं परावाणी से निर्देश व्यक्त करने का उन्होंने संकेत किया।
बात जो विवेचना स्तर की चल रही थी, सो समाप्त हो गई और सार संकेत के रूप में जो करना था सो कहा जाने लगा।
‘‘तुम्हें एक से पाँच बनना है। पाँच रामदूतों की तरह, पाँच पाण्डवों की तरह काम पाँच तरह से करने हैं, इसलिए इसी शरीर को पाँच बनाना है। एक पेड़ पर पाँच पक्षी रह सकते हैं। तुम अपने को पाँच बना लो। इसे सूक्ष्मीकरण कहते हैं। पाँच शरीर सूक्ष्म रहेंगे, क्योंकि व्यापक क्षेत्र को संभालना सूक्ष्म सत्ता से ही बन पड़ता है। जब तक पाँचों परिपक्व होकर अपने स्वतंत्र काम न सँभाल सकें, तब एक इसी शरीर से उनका परिपोषण करते रहो। इसमें एक वर्ष भी लग सकता है एवं अधिक समय भी। जब वे समर्थ हो जाएँ तो उन्हें अपना काम करने हेतु मुक्त कर देना। समय आने पर तुम्हारे दृश्यमान स्थूल शरीर की छुट्टी हो जाएगी।’’
यह दिशा निर्देशन हो गया। करना क्या है? कैसे करना है? इसका प्रसंग उन्होंने अपनी वाणी में समझा दिया। इसका विवरण बताने का आदेश नहीं है, जो कहा गया है, उसे कर रहे हैं। संक्षेप में इसे इतना ही समझना पर्याप्त होगा-१-वायु मण्डल का संशोधन, २-वातावरण का परिष्कार, ३-नवयुग का निर्माण, ४-महाविनाश का निरस्तीकरण समापन, ५-देवमानवों का उत्पादन-अभिवर्द्धन।
‘‘यह पाँचों काम किस प्रकार करने होंगे, इसके लिए अपनी सत्ता को पाँच भागों में कैसे विभाजित करना होगा, भागीरथ और दधीचि की भूमिका किस प्रकार निभानी होगी, इसके लिए लौकिक क्रिया-कलापों से विराम लेना होगा। बिखराव को समेटना पड़ेगा। यही है-सूक्ष्मीकरण।’’
‘‘इसके लिए जो करना होगा, समय-समय पर बताते रहेंगे। योजना को असफल बनाने के लिए, इस शरीर को समाप्त करने के लिए जो दानवी प्रहार होंगे, उससे बचाते चलेंगे। पूर्व में हुए आसुरी आक्रमण की पुनरावृत्ति कभी भी किसी रूप में सज्जनों-परिजनों पर प्रहार आदि के रूप में हो सकती है। पहले की तरह सबमें हमारा संरक्षण साथ रहेगा। अब तक जो काम तुम्हारे जिम्मे दिया है, उन्हें अपने समर्थ सुयोग्य परिजनों के सुपुर्द करते चलना, ताकि मिशन के किसी काम की चिंता या जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर न रहे। जिस महा परिवर्तन का ढाँचा हमारे मन में है, उसे पूरा तो नहीं बताते, पर उसे समयानुसार प्रकट करते रहेंगे। ऐसे विषम समय, में उस रणनीति को समय से पूर्व प्रकट करने से उद्देश्य की हानि होगी।’’
इस बार हमें अधिक समय रोका नहीं गया। बैटरी चार्ज करके बहुत दिनों तक काम चलाने वाली बात नहीं बनी। उन्होंने कहा कि ‘‘हमारी ऊर्जा अब तुम्हारे पीछे अदृश्य रूप से चलती रहेगी। अब हमें एवं जिनको आवश्यकता होगी, उन ऋषियों को तुम्हारे साथ सदैव रहना और हाथ बँटाते रहना पड़ेगा। तुम्हें किसी अभाव का, आत्मिक ऊर्जा की कमी का कभी अनुभव नहीं होगा। वस्तुतः यह ५ गुनी और बढ़ जाएगी।’’
हमें विदाई दी गई और हम शान्तिकुञ्ज लौट आए। हमारी सूक्ष्मीकरण सावित्री साधना राम नवमी १९८४ से आरम्भ हो गई।
तपश्चर्या आत्म-शक्ति के उद्भव हेतु अनिवार्य
अरविंद ने विलायत से लौटते ही अंग्रेजों को भगाने के लिए जो उपाय सम्भव थे, वे सभी किए, पर बात बनती न दिखाई पड़ी। राजाओं को संगठित करके, विद्यार्थियों की सेना बनाकर, व पार्टी गठित करके उनने देख लिया कि इतनी सशक्त सरकार के सामने यह छुटपुट प्रयत्न सफल न हो सकेंगे। इसके लिए समान स्तर की सामर्थ्य, टक्कर लेने के लिए चाहिए। गाँधी जी के सत्याग्रह जैसा उन दिनों सम्भव नहीं था। ऐसी दशा में उनने-आत्मशक्ति उत्पन्न करने और उसके द्वारा वातावरण गरम करने का काम हाथ में लिया। अंग्रेजों की पकड़ से अलग हटकर वे पाण्डिचेरी चले गए और एकान्तवास मौन साधना सहित विशिष्ट तप करने लगे।
लोगों की दृष्टि में वह पलायनवाद भी हो सकता था, पर वस्तुतः वैसा था नहीं। सूक्ष्मदर्शियों के अनुसार उसके द्वारा अदृश्य स्तर की प्रचण्ड ऊर्जा उत्पन्न हुई। वातावरण गरम हुआ और एक ही समय में देश के अन्दर इतने महापुरुष उत्पन्न हुए कि जिसकी इतिहास में अन्यत्र कहीं भी तुलना नहीं मिलती। राजनैतिक नेता कहीं भी उत्पन्न हो सकते हैं और कोई भी हो सकते हैं, किन्तु महापुरुष हर दृष्टि से उच्चस्तरीय होते हैं। जिनका व्यक्तित्व कहीं अधिक ऊँचा होता है, जनमानस को उल्लसित आन्दोलित करने की क्षमता भी उन्हीं में होती है। दो हजार वर्ष की गुलामी में बहुत कुछ गँवा बैठने वाले देश को ऐसे ही कर्णधारों की आवश्यकता थी। वे एक नहीं अनेकों एक ही समय में उत्पन्न हुए। प्रचण्ड ग्रीष्म में उठते चक्रवातों की तरह। फलतः अरविन्द का वह संकल्प कालांतर में ठीक प्रकार सम्पन्न हुआ जिसे वे अन्य उपायों से पूरा कर सकने में समर्थ नहीं हो पा रहे थे।
अध्यात्म विज्ञान के इतिहास में उच्चस्तरीय उपलब्धियों के लिए तप-साधना एक मात्र विधान उपचार है। वह सुविधा-भरी विलासी रीति-नीति अपनाकर सम्पादित नहीं की जा सकती है। एकाग्रता और एकात्मता सम्पादित करने के लिए बहुमुखी बाह्योपचारों में, प्रचारों प्रयोजनों में भी निरत नहीं रहा जा सकता है। उससे शक्तियाँ बिखरती हैं। फलतः केन्द्रीयकरण का वह प्रयोजन पूरा नहीं होता, जो सूर्य किरणों को आतिशी शीशे पर केन्द्रित करने की तरह अग्नि उत्पादन जैसी प्रचण्डता उत्पन्न कर सके। अठारह पुराण लिखते समय व्यास उत्तराखण्ड की गुफाओं में वसोधारा शिखर के पास चले गए। साथ में लेखन कार्य की सहायता करने के लिए गणेश जी इस शर्त पर रहे कि एक शब्द भी बोले बिना सर्वथा मौन रहेंगे। इतना महत्त्वपूर्ण कार्य इससे कम में सम्भव नहीं हो सकता था।
भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दिनों महर्षि रमण का मौन तप चलता रहा। इसके अतिरिक्त भी हिमालय में अनेक उच्चस्तरीय तपश्चर्याएँ इसी निमित्त चलीं। राजनेताओं द्वारा संचालित आन्दोलनों को सफल बनाने में इस अदृश्य सूत्र संचालन का कितना बड़ा योगदान रहा इसका स्थूल दृष्टि से अनुमान न लग सकेगा, किन्तु सूक्ष्मदर्शी तथ्यान्वेषी उन रहस्यों पर पूरी तरह विश्वास करते हैं।
जितना बड़ा कार्य उतना बड़ा उपचार के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए, इस बार विशिष्ट तपश्चर्या वातावरण के प्रवाह को बदलने सुधारने के लिए की गई है। इसलिए उसका स्तर और स्वरूप कठिन है। आरम्भिक दिनों में जो काम कंधे पर आया था वह भी लोकमानस को परिष्कृत करने, जागृत आत्माओं को एक संगठन सूत्र में पिरोने और रचनात्मक गतिविधियों का उत्साह उभारने का था। इतने भर से काम चल जाया करे तो इसकी व्यवस्था सम्पन्न लोग अपनी जेब से अथवा दूसरों से माँग-जाँचकर आसानी से पूर्ण कर लिया करते और अब तक स्थिति को बदलकर कुछ से कुछ बना लिया गया होता। कइयों ने पूरे जोर-शोर से यह प्रयत्न किए भी हैं। प्रचारात्मक साधनों के अम्बार भी जुटाए हैं, पर उनके बलबूते कुछ ऐसा न बन पड़ा जिसका कारगर प्रभाव हो सके। वस्तुस्थिति को समझने वाले निर्देशक ने सर्वप्रथम एक ही काम सौंपा। चौबीस साल की गायत्री महापुरश्चरण साधना शृंखला का पिछले तीस वर्षों में जो कुछ बन पड़ा उसमें श्रेय है। कमाई की वह हुण्डी ही अब तक काम देती रही। अपना, व्यक्ति विशेष का, समाज का, संस्कृति का यदि कुछ भला अपने द्वारा बन पड़ा, तो इस चौबीस वर्ष के संचित भण्डार को खर्च किए जाने की बात ही समझी जा सकती है। उस समय भी मात्र जप संख्या ही पूरी नहीं की गई थी, वरन् साथ ही कितने ही अनुबंध-अनुशासन एवं व्रत पालन भी जुड़े हुए थे।
जप संख्या तो ज्यों-त्यों करके कोई भी खाली समय वाला पूरी कर सकता है, पर विलासी एवं अस्त-व्यस्त जीवनचर्या अपनाने वाला कोई व्यक्ति उतनी भर चिह्न पूजा से कोई बड़ा काम नहीं कर सकता। साथ में तपश्चर्या के कठोर विधान भी जुड़े रहने चाहिए जो स्थूल शरीर, सूक्ष्म और कारण तीनों ही शरीरों को तपाते और हर दृष्टि से समर्थ बनाते हैं। संचित कषाय-कल्मष भी आत्मिक प्रगति के मार्ग में बहुत बड़े व्यवधान होते हैं। उनका निवारण एवं निराकरण भी इसी भट्ठी में प्रवेश करने से बन पड़ता है। जमीन में से निकलते समय लोहा मिट्टी मिला कच्चा होता है। अन्य धातुएँ भी ऐसी ही अनगढ़ स्थिति में होती है उन्हें भट्ठी में डालकर तपाया और प्रयोग के उपयुक्त बनाया जाता है। रस शास्त्री बहुमूल्य रस भस्में बनाने के लिए कई-कई अग्नि संस्कार करते हैं। कुम्हार के पास बर्तन पकाने के लिए उन्हें आँवे में तपाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। मनुष्यों पर भी यही नियम लागू होते हैं। ऋषि मुनियों की सेवा साधना, धर्म-धारणा तो प्रकट है ही साथ ही वे अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए आवश्यक शक्ति अर्जित करने के लिए तपश्चर्या भी समय-समय पर अपनाते रहते थे। यह प्रक्रिया अपने-अपने ढंग से हर महत्त्वपूर्ण व्यक्ति को सम्पन्न करनी पड़ी है, करनी पड़ेगी। क्योंकि ईश्वर प्रदत्त शक्तियों का उन्नयन, परिपोषण इसके बिना हो नहीं सकता। व्यक्तित्व में पवित्रता, प्रखरता और परिपक्वता न हो तो कहने योग्य-सराहने योग्य सफलताएँ प्राप्त कर सकने का सुयोग ही नहीं बनता। कुचक्र, छद्म और आतंक के बलबूते उपार्जित की गई सफलताएँ जादू तमाशे में हथेली पर सरसों जमाने जैसे चमत्कार दिखाकर तिरोहित हो जाती हैं। बिना जड़ का पेड़ कब टिकेगा और किस प्रकार फूलेगा-फलेगा?
तपश्चर्या के मौलिक सिद्धांत है-संयम और सदुपयोग। इंद्रिय संयम से, पेट ठीक रहने से स्वास्थ्य नहीं बिगड़ता। ब्रह्मचर्य पालन से मनोबल का भण्डार चुकने नहीं पाता। अर्थ संयम से, नीति की कमाई से औसत भारतीय स्तर का निर्वाह करना पड़ता है, फलतः न दरिद्रता फटकती है और न बेईमानी की आवश्यकता पड़ती है। समय संयम से व्यस्त दिनचर्या बनाकर चलना पड़ता है। फलतः कुकर्मों के लिए समय ही नहीं बचता है। जो बन पड़ता है, श्रेष्ठ और सार्थक ही होता है। विचार संयम से एकात्मता सधती है। आस्तिकता, आध्यात्मिक और धार्मिकता का दृष्टिकोण विकसित होता है। भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग की साधना सहज सधती रहती है। संयम का अर्थ है-बचत। चारों प्रकार का संयम बरतने पर मनुष्य के पास इतनी अधिक सामर्थ्य बच रहती है, जिसे परिवार निर्वाह के अतिरिक्त महान प्रयोजनों में प्रचुर मात्रा में भली प्रकार लगाया जाता रहे। संयमशीलों को वासना, तृष्णा और अहंता की खाईं पाटने में मरना खपना नहीं पड़ता, इसलिए सदुद्देश्यों की दिशा में कदम बढ़ाने की आवश्यकता पड़ने पर व्यस्तता, अभावग्रस्तता, चिंता, समस्या आदि के बहाने नहीं गढ़ने पड़ते। स्वार्थ-परमार्थ साथ-साथ सधते रहते हैं और हँसती-हँसाती, हलकी-फुलकी जिंदगी जीने का अवसर मिल जाता है। इसी मार्ग पर अब से ६० वर्ष पूर्व मार्गदर्शक ने चलना सिखाया था।
वह क्रम अनवरत रूप से चलता रहा। जब तब वातावरण में बैटरी चार्ज करने के लिए बुलाया जाता रहा। विगत तीस वर्षों में एक-एक वर्ष के लिए एकान्तवास और विशेष साधना उपक्रम के लिए जाना पड़ा है। इसका उद्देश्य एक ही था तपश्चर्या के उत्साह और पुरुषार्थ में, श्रद्धा और विश्वास में कहीं कोई कमी न पड़ने पाए। जहाँ कमी पड़ रही हो उसकी भरपाई होती रहे। भागीरथ शिला-गंगोत्री में की गई साधना से धरती पर ज्ञान गंगा की, प्रज्ञा अभियान की, अवतरण की क्षमता एवं दिशा मिली। इस बार उत्तरकाशी के परशुराम आश्रम में वह कुल्हाड़ा उपलब्ध हुआ जिसके सहारे व्यापक अवांछनीयता के प्रति लोकमानस में विक्षोभ उत्पन्न किया जा सके। पौराणिक परशुराम ने धरती पर से अनेक आततायियों के अनेक बार सिर काटे थे। अपना सिर काटना ‘‘ब्रेन वाशिंग’’ है। विचार क्रांति एवं प्रज्ञा-अभियान में सृजनात्मक ही नहीं सुधारात्मक प्रयोजन भी सम्मिलित हैं। यह दोनों ही उद्देश्य जिस प्रकार जितने व्यापक क्षेत्र में जितनी सफलता के साथ सम्पन्न होते रहे हैं, उनमें न शक्ति कौशल है न साधनों का चमत्कार, न परिस्थितियों का संयोग यह मात्र तपश्चर्या की सामर्थ्य से ही सम्पन्न हो सका।
यह जीवनचर्या के अद्यावधि भूतकाल का विवरण हुआ। वर्तमान में इसी दिशा में एक बड़ी छलांग लगाने के लिए उस शक्ति ने निर्देश किया है, जिस सूत्रधार के इशारों पर कठपुतली की तरह नाच-नाचते हुए समूचा जीवन गुजर गया। अब हमें तपश्चर्या की एक नवीन उच्चस्तरीय कक्षा में प्रवेश करना पड़ा है। सर्वसाधारण को इतना ही पता है कि एकान्तवास में हैं किसी से मिल जुल नहीं रहे हैं। यह जानकारी सर्वथा अधूरी है। क्योंकि जिस व्यक्ति के रोम-रोम में कर्मठता, पुरुषार्थ परायणता, नियमितता और व्यवस्था भरी पड़ी हो वह इस प्रकार का निरर्थक और निष्क्रिय जीवन जी नहीं सकता जैसा कि समझा जा रहा है। एकांत वास में हमें पहले की अपेक्षा अधिक श्रम करना पड़ा है। अधिक व्यस्त रहना पड़ा है तथा लोगों से न मिलने की विधा अपनाने पर भी इतने ऐसों से संपर्क सूत्र जोड़ना पड़ा है जिनके साथ बैठने में ढेरों समय चला जाता है, पर मन नहीं भरता। फिर एकांत कहाँ हुआ? न मिलने की बात कहाँ बन पड़ी? मात्र कार्यशैली में ही राई रत्ती परिवर्तन हुआ। मिलने-जुलने वालों का वर्ग एवं विषय भर बदला। ऐसी दशा में अकर्मण्य और पलायनवाद का दोष ऊपर कहाँ लदा? तपस्वी सदा ऐसी ही रीति-नीति अपनाते हैं। वे निष्क्रिय दीखते भर हैं, वस्तुतः अत्यधिक व्यस्त रहते हैं। लट्टू जब पूरे वेग से घूमता है, तब स्थिर खड़ा भर दीखता है। उसके घूमने का पता तो तब लगता है, जब चाल धीमी पड़ती है और बैलेंस लड़खड़ाने पर औंधा गिरने लगता है।
आइन्स्टीन जिन दिनों अत्यधिक महत्त्वपूर्ण अणु अनुसंधान में लगे थे, उन दिनों उनकी जीवनचर्या में विशेष प्रकार का परिवर्तन किया गया था। वे भव्य भवन में एकाकी रहते थे। सभी सुविधाएँ उसमें उपलब्ध थीं, साहित्य, प्रयोग उपकरण एवं सेवक सहायक भी। वे सभी दूर रखे जाते थे ताकि एकांत में एकाग्रतापूर्वक बन पड़ने वाले चिंतन में कोई व्यवधान उत्पन्न न हो। वे जब तक चाहते नितांत एकांत में सर्वथा एकाकी रहते। कोई उनके कार्य में तनिक भी विक्षेप नहीं कर सकता है। जब वे चाहते घंटी बजाकर नौकर बुलाते और इच्छित वस्तु या व्यक्ति प्राप्त कर लेते। मिलने वाले मात्र कार्ड जमा कर जाते और जब कभी उन्हें बुलाया जाता तब जबकि महीनों प्रतीक्षा करते। घनिष्ठता बताकर कोई भी उनके कार्य में विक्षेप नहीं कर सकता था। इतना प्रबंध बन पड़ने पर ही उनके लिए यह सम्भव हुआ कि संसार को आश्चर्य चकित कर सकें। यदि यार वासों से घिरे रहते उथले कार्यों में रस लेकर समय गुजारते तो अन्यान्यों की तरह वे भी बहुमूल्य जीवन का कोई कहने लायक लाभ न उठा पाते। प्राचीनकाल में ऋषि-तपस्वियों की जीवनचर्या ठीक इसी प्रकार की थी। उसमें तन्यमतापूर्वक अपना कार्य कर सकने के लिए वे कोलाहल रहित स्थान निर्धारित करते थे और पूरी तरह तन्मयता के साथ निर्धारित प्रयोजनों में लगे रहते थे।
अपने सामने भी प्रायः इसी स्तर के नए कार्य करने के लिए रख दिए गए। वे बहुत वजनदार हैं, साथ ही बहुत महत्त्वपूर्ण भी। इनमें एक है-विश्वव्यापी सर्वनाशी विभीषिकाओं को निरस्त कर सकने योग्य आत्मशक्ति उत्पन्न करना। दूसरा है-सृजन शिल्पियों को जिस प्रेरणा और क्षमता के बिना कुछ करते-धरते नहीं बन पड़ रहा है, उसकी पूर्ति करना। तीसरा है नवयुग के लिए जिन सत्प्रवृत्तियों का सूत्र-संचालन होना है, उनका ताना-बाना बुनना और ढाँचा खड़ा करना। यह तीनों ही कार्य ऐसे हैं, जो अकेले स्थूल शरीर से नहीं बन सकते। उसकी सीमा और सामर्थ्य अति न्यून है। इंद्रिय सामर्थ्य थोड़े दायरे में काम कर सकती है और सीमित वजन उठा सकती है, हाड़-माँस के पिण्ड में बोलने, सोचने, चलने-फिरने, करने-कमाने, पचाने की बहुत थोड़ी सामर्थ्य है। उतने भर से सीमित काम हो सकता है। सीमित कार्य से शरीर यात्रा चल सकती है और समीपवर्ती संबद्ध लोगों का यत्किंचित् भला हो सकता है। अधिक व्यापक और अधिक बड़े कामों के लिए सूक्ष्म और कारण शरीरों के विकसित किए जाने की आवश्यकता पड़ती है। तीनों जब समान रूप से सामर्थ्यवान और गतिशील होते हैं तब कहीं इतने बड़े काम बन सकते हैं, जिनके करने की इन दिनों आवश्यकता पड़ गई है।
रामकृष्ण परमहंस के सामने यही स्थिति आई थी। उन्हें व्यापक काम करने के लिए बुलाया गया। योजना के अनुसार उनने अपनी क्षमता विवेकानन्द को सौंप दी थी तथा उनने कार्यक्षेत्र को सरल और सफल बनाने के लिए आवश्यक ताना-बाना बुन देने का कार्य संभाला। इतना बड़ा काम वे मात्र स्थूल शरीर के सहारे नहीं कर पा रहे थे। सो उनने उसे निःसंकोच छोड़ भी दिया। बैलेंस से अधिक वरदान देने के कारण उन पर ऋण भी चढ़ गया था। उनकी पूर्ति के बिना गाड़ी रुकती। इसलिए स्वेच्छापूर्वक कैंसर का रोग भी ओढ़ लिया। इस प्रकार ऋण मुक्त होकर विवेकानन्द के माध्यम से उस कार्य में जुट गए जिसे करने के लिए उनकी निर्देशक सत्ता ने उन्हें संकेत किया था। प्रत्यक्षतः रामकृष्ण तिरोहित हो गए। उनका अभाव खटका, शोक भी बना, पर हुआ वह जो श्रेयस्कर था। दिवंगत होने के उपरांत उनकी सामर्थ्य हजार गुनी अधिक बढ़ गई। इसके सहारे उनने देश एवं विश्व में अनेकानेक सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन किया। जीवन काल में वे भक्तजनों को थोड़ा बहुत आशीर्वाद देते रहे और एक विवेकानन्द को अपना संग्रह सौंपने में समर्थ हुए, पर जब उन्हें सूक्ष्म और कारण शरीर से काम करने का अवसर मिल गया, तो उनसे पूरे विश्व में इतना काम किया जा सका जिसका लेखा-जोखा ले सकना, सामान्य स्तर की जाँच पड़ताल से समझ सकना सम्भव नहीं।
ईसा की जीवनचर्या भी ऐसी ही थी। वे जीवन भर में बहुत दौड़-धूप के उपरांत मात्र १३ शिष्य बना सके। देखा कि स्थूल शरीर की क्षमता से उतना बड़ा काम न हो सकेगा, जितना कि वे चाहते हैं, ऐसी दशा में यही उपयुक्त समझा कि सूक्ष्म शरीर का अवलंबन ले कर संसार भर में ईसाई मिशन फैला दिया जाए। ऐसे परिवर्तनों के समय महापुरुष पिछला हिसाब-किताब साफ करने के लिए कष्ट साध्य मृत्यु का वरण करते हैं। ईसा का क्रूस पर चढ़ना, सुकरात का विष पीना, कृष्ण को तीर लगना, पाण्डवों का हिमालय में गलना, गाँधी का गोली खाना, आद्य शंकराचार्य को भगंदर होना यह बताता है कि अगले महान प्रयोजनों के लिए उन्हें स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करना होता है, वे उपलब्ध शरीर का इस प्रकार अंत करते हैं, जिसे बलिदान स्तर का प्रेरणा प्रदान करने वाला और अपने चलते समय का पवित्रता, प्रखरता प्रदान करने वाला कहा जा सके। हमारे साथ भी यही हुआ है व आगे होना है।
यात्रा पहली तीनों बार की ही तरह कठिन रही। इस बार साधक की परिपक्वता के कारण सूक्ष्म शरीर को आने का निर्देश मिला था। उसी काया को एक साथ तीन परीक्षाओं को पुनः देना था। साधना क्षेत्र में एक बार उत्तीर्ण हो जाने पर पिसे को पीसना भर रह जाता है। मार्ग देखा भाला था। दिनचर्या बनी बनाई थी। गोमुख से साथ मिल जाना और तपोवन तक सहज जा पहुँचना यही क्रम पुनः चला। उनका सूक्ष्म शरीर कहाँ रहता है, क्या करता है यह हमने कभी नहीं पूछा। हमें तो भेंट का स्थान मालूम है, मखमली गलीचा। ब्रह्मकमल की पहचान हो गई थी। उसी को ढूँढ़ लेते और उसी को प्रथम मिलन पर गुरुदेव के चरणों पर चढ़ा देते। अभिवन्दन-आशीर्वाद के शिष्टाचार में तनिक भी देर न लगती और काम की बात तुरन्त आरम्भ हो जाती। यही प्रकरण इस बार भी दुहराया गया। रास्ते में मन सोचता आया कि जब भी जितनी बार भी बुलाया गया है तभी पुराना स्थान छोड़कर अन्यत्र छोड़कर अन्यत्र जाना पड़ा है। इस बार भी सम्भवतः वैसा ही होगा। शान्तिकुञ्ज छोड़ने के उपरान्त सम्भवतः अब इसी ऋषि प्रदेश में आने का आदेश मिलेगा और इस बार कोई काम पिछले अन्य कामों की तुलना में बड़े कदम के रूप में उठाना होगा। रास्ते के संकल्प विकल्प थे। अब तो प्रत्यक्ष भेंट हो रही थी।
अब तक के कार्यों पर उनने अपनी प्रसन्नता व्यक्त की। हमने इतना ही कहा-‘‘काम आप करते हैं और श्रेय मुझ वानर जैसे को देते हैं। समग्र समर्पण कर देने के उपरान्त यह शरीर और मन दीखने भर के लिए ही अलग हैं, वस्तुतः यह सब कुछ आपकी ही सम्पदा है। जब जैसा चाहते हैं, तब वैसा तोड़-मोड़कर आप ही उपयोग कर लेते हैं।’’
गुरुदेव ने कहा-‘‘अब तक जो बताया और कराया गया है, वह नितांत स्थानीय था और सामान्य भी। ऐसा वरिष्ठ मानव कर सकते हैं, भूतकाल में करते भी रहे हैं। तुम अगला काम सँभालोगे, तो यह सारे कार्य दूसरे तुम्हारे अनुवर्ती लोग आसानी से करते रहेंगे। जो प्रथम कदम बढ़ाता है, उसे अग्रणी होने का श्रेय मिलता है। पीछे तो ग्रह-नक्षत्र भी सौर मण्डल के सदस्य भी अपनी-अपनी कक्षा पर बिना किसी कठिनाई के ढर्रा चला ही रहे हैं। अगला काम इससे भी बड़ा है। स्थूल वायु मण्डल और सूक्ष्म वातावरण इन दिनों विषाक्त हो गए हैं, जिससे मानवी गरिमा ही नहीं, दैवीय सत्ता भी संकट में पड़ गई है। भविष्य बहुत भयानक दीखता है। इससे परोक्षतः लड़ने के लिए हमें-तुम्हें वह सब कुछ करना पड़ेगा, जिसे अद्भुत एवं अलौकिक कहा जा सके।’’
धरती का घेरा-वायु, जल और जमीन तीनों ही विषाक्त हो रहे हैं, वैज्ञानिक कुशलता के साथ अर्थ लोलुपता के मिल जाने से चल पड़े यंत्रीकरण ने सर्वत्र विष बिखेर दिया है और ऐसी स्थिति पैदा कर दी है, जिसमें दुर्बलता, रुग्णता और अकाल मृत्यु का जोखिम हर किसी के सिर पर मँडराने लगा है। अणु आयुधों के अनाड़ियों के हाथों प्रयोगों का खतरा इतना बड़ा है कि उसके तनिक से व्यतिक्रम पर सब कुछ भस्मसात् हो सकता है। प्रजा की उत्पत्ति बरसाती घास-पत्ती की तरह हो रही है। यह खाएँगे क्या? रहेंगे कहाँ? इन दिनों सब विपत्तियों-विभीषिकाओं से विषाक्त वायुमण्डल धरती को नरक बना देगा।
जिस हवा में लोग साँस ले रहे हैं, उसमें जो भी साँस लेता है, वह अचिंत्य चिन्तन अपनाता और दुष्कर्म करता है। दुर्गति हाथों-हाथ सामने आती जाती है। यह अदृश्य लोक में भर गए विकृत वातावरण का प्रतिफल है। इस स्थिति में जो भी रहेगा, नर पशु और नर-पिशाच जैसे क्रिया-कृत्य करेगा। भगवान् की इस सर्वोत्तम कृति धरती और मानव सत्ता को इस प्रकार नरक बनते देखने में व्यथा होती है। महाविनाश की सम्भावना से कष्ट होता है। इस स्थिति को बदलने, इस समस्या का समाधान करने के लिए भारी गोवर्धन पर्वत उठाना पड़ेगा, लम्बा समुद्र लाँघना पड़ेगा। इसके लिए वामन जैसे बड़े कदम उठाने को ही तुम्हें बुलाया गया है।
इसके लिए तुम्हें एक से पाँच बनकर मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा। कुन्ती के समान अपनी एकाकी सत्ता को निचोड़कर पाँच देवपुत्रों को जन्म देना होगा, जिन्हें भिन्न-भिन्न मोर्चों पर भिन्न-भिन्न भूमिका प्रस्तुत करनी पड़ेगी।
मैंने बात के बीच में विक्षेप करते हुए कहा-‘‘यह तो आपने परिस्थितियों की बात कही। इतना सोचना और समस्या का समाधान खोजना आप बड़ों का काम है। मुझ बालक को तो काम बता दीजिए और सदा की तरह कठपुतली के तारों को अपनी उँगलियों में बाँधकर नाच नचाते रहिए। परामर्श मत कीजिए। समर्पित को तो केवल आदेश चाहिए। पहले भी आपने जब कोई मूल आदेश स्थूलतः या सूक्ष्म संदेश के रूप में भेजा है, उसमें हमने अपनी ओर से कोई ननुनच नहीं की। गायत्री के चौबीस महापुरश्चरणों के सम्पादन से लेकर स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने तक, लेखनी पकड़ने से लेकर विराट यज्ञायोजन तक एवं विशाल संगठन खड़ा करने से लेकर करोड़ों की स्थापनाएँ करने तक आपकी आज्ञा, संरक्षण एवं मार्गदर्शन ने ही सारी भूमिका निभाई है। दृश्य रूप में हम भले ही सबके समक्ष रहे हों, हमारा अंतःकरण जानता है कि यह सब कराने वाली सत्ता कौन है? फिर इसमें हमारा सुझाव कैसा, सलाह कैसी। इस शरीर का एक-एक कण, रक्त की एक-एक बूँद, चिंतन-अंतःकरण आपको, विश्व मानवता को समर्पित है। उनने प्रसन्न बदन स्वीकारोक्ति प्रकट की एवं परावाणी से निर्देश व्यक्त करने का उन्होंने संकेत किया।
बात जो विवेचना स्तर की चल रही थी, सो समाप्त हो गई और सार संकेत के रूप में जो करना था सो कहा जाने लगा।
‘‘तुम्हें एक से पाँच बनना है। पाँच रामदूतों की तरह, पाँच पाण्डवों की तरह काम पाँच तरह से करने हैं, इसलिए इसी शरीर को पाँच बनाना है। एक पेड़ पर पाँच पक्षी रह सकते हैं। तुम अपने को पाँच बना लो। इसे सूक्ष्मीकरण कहते हैं। पाँच शरीर सूक्ष्म रहेंगे, क्योंकि व्यापक क्षेत्र को संभालना सूक्ष्म सत्ता से ही बन पड़ता है। जब तक पाँचों परिपक्व होकर अपने स्वतंत्र काम न सँभाल सकें, तब एक इसी शरीर से उनका परिपोषण करते रहो। इसमें एक वर्ष भी लग सकता है एवं अधिक समय भी। जब वे समर्थ हो जाएँ तो उन्हें अपना काम करने हेतु मुक्त कर देना। समय आने पर तुम्हारे दृश्यमान स्थूल शरीर की छुट्टी हो जाएगी।’’
यह दिशा निर्देशन हो गया। करना क्या है? कैसे करना है? इसका प्रसंग उन्होंने अपनी वाणी में समझा दिया। इसका विवरण बताने का आदेश नहीं है, जो कहा गया है, उसे कर रहे हैं। संक्षेप में इसे इतना ही समझना पर्याप्त होगा-१-वायु मण्डल का संशोधन, २-वातावरण का परिष्कार, ३-नवयुग का निर्माण, ४-महाविनाश का निरस्तीकरण समापन, ५-देवमानवों का उत्पादन-अभिवर्द्धन।
‘‘यह पाँचों काम किस प्रकार करने होंगे, इसके लिए अपनी सत्ता को पाँच भागों में कैसे विभाजित करना होगा, भागीरथ और दधीचि की भूमिका किस प्रकार निभानी होगी, इसके लिए लौकिक क्रिया-कलापों से विराम लेना होगा। बिखराव को समेटना पड़ेगा। यही है-सूक्ष्मीकरण।’’
‘‘इसके लिए जो करना होगा, समय-समय पर बताते रहेंगे। योजना को असफल बनाने के लिए, इस शरीर को समाप्त करने के लिए जो दानवी प्रहार होंगे, उससे बचाते चलेंगे। पूर्व में हुए आसुरी आक्रमण की पुनरावृत्ति कभी भी किसी रूप में सज्जनों-परिजनों पर प्रहार आदि के रूप में हो सकती है। पहले की तरह सबमें हमारा संरक्षण साथ रहेगा। अब तक जो काम तुम्हारे जिम्मे दिया है, उन्हें अपने समर्थ सुयोग्य परिजनों के सुपुर्द करते चलना, ताकि मिशन के किसी काम की चिंता या जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर न रहे। जिस महा परिवर्तन का ढाँचा हमारे मन में है, उसे पूरा तो नहीं बताते, पर उसे समयानुसार प्रकट करते रहेंगे। ऐसे विषम समय, में उस रणनीति को समय से पूर्व प्रकट करने से उद्देश्य की हानि होगी।’’
इस बार हमें अधिक समय रोका नहीं गया। बैटरी चार्ज करके बहुत दिनों तक काम चलाने वाली बात नहीं बनी। उन्होंने कहा कि ‘‘हमारी ऊर्जा अब तुम्हारे पीछे अदृश्य रूप से चलती रहेगी। अब हमें एवं जिनको आवश्यकता होगी, उन ऋषियों को तुम्हारे साथ सदैव रहना और हाथ बँटाते रहना पड़ेगा। तुम्हें किसी अभाव का, आत्मिक ऊर्जा की कमी का कभी अनुभव नहीं होगा। वस्तुतः यह ५ गुनी और बढ़ जाएगी।’’
हमें विदाई दी गई और हम शान्तिकुञ्ज लौट आए। हमारी सूक्ष्मीकरण सावित्री साधना राम नवमी १९८४ से आरम्भ हो गई।
तपश्चर्या आत्म-शक्ति के उद्भव हेतु अनिवार्य
अरविंद ने विलायत से लौटते ही अंग्रेजों को भगाने के लिए जो उपाय सम्भव थे, वे सभी किए, पर बात बनती न दिखाई पड़ी। राजाओं को संगठित करके, विद्यार्थियों की सेना बनाकर, व पार्टी गठित करके उनने देख लिया कि इतनी सशक्त सरकार के सामने यह छुटपुट प्रयत्न सफल न हो सकेंगे। इसके लिए समान स्तर की सामर्थ्य, टक्कर लेने के लिए चाहिए। गाँधी जी के सत्याग्रह जैसा उन दिनों सम्भव नहीं था। ऐसी दशा में उनने-आत्मशक्ति उत्पन्न करने और उसके द्वारा वातावरण गरम करने का काम हाथ में लिया। अंग्रेजों की पकड़ से अलग हटकर वे पाण्डिचेरी चले गए और एकान्तवास मौन साधना सहित विशिष्ट तप करने लगे।
लोगों की दृष्टि में वह पलायनवाद भी हो सकता था, पर वस्तुतः वैसा था नहीं। सूक्ष्मदर्शियों के अनुसार उसके द्वारा अदृश्य स्तर की प्रचण्ड ऊर्जा उत्पन्न हुई। वातावरण गरम हुआ और एक ही समय में देश के अन्दर इतने महापुरुष उत्पन्न हुए कि जिसकी इतिहास में अन्यत्र कहीं भी तुलना नहीं मिलती। राजनैतिक नेता कहीं भी उत्पन्न हो सकते हैं और कोई भी हो सकते हैं, किन्तु महापुरुष हर दृष्टि से उच्चस्तरीय होते हैं। जिनका व्यक्तित्व कहीं अधिक ऊँचा होता है, जनमानस को उल्लसित आन्दोलित करने की क्षमता भी उन्हीं में होती है। दो हजार वर्ष की गुलामी में बहुत कुछ गँवा बैठने वाले देश को ऐसे ही कर्णधारों की आवश्यकता थी। वे एक नहीं अनेकों एक ही समय में उत्पन्न हुए। प्रचण्ड ग्रीष्म में उठते चक्रवातों की तरह। फलतः अरविन्द का वह संकल्प कालांतर में ठीक प्रकार सम्पन्न हुआ जिसे वे अन्य उपायों से पूरा कर सकने में समर्थ नहीं हो पा रहे थे।
अध्यात्म विज्ञान के इतिहास में उच्चस्तरीय उपलब्धियों के लिए तप-साधना एक मात्र विधान उपचार है। वह सुविधा-भरी विलासी रीति-नीति अपनाकर सम्पादित नहीं की जा सकती है। एकाग्रता और एकात्मता सम्पादित करने के लिए बहुमुखी बाह्योपचारों में, प्रचारों प्रयोजनों में भी निरत नहीं रहा जा सकता है। उससे शक्तियाँ बिखरती हैं। फलतः केन्द्रीयकरण का वह प्रयोजन पूरा नहीं होता, जो सूर्य किरणों को आतिशी शीशे पर केन्द्रित करने की तरह अग्नि उत्पादन जैसी प्रचण्डता उत्पन्न कर सके। अठारह पुराण लिखते समय व्यास उत्तराखण्ड की गुफाओं में वसोधारा शिखर के पास चले गए। साथ में लेखन कार्य की सहायता करने के लिए गणेश जी इस शर्त पर रहे कि एक शब्द भी बोले बिना सर्वथा मौन रहेंगे। इतना महत्त्वपूर्ण कार्य इससे कम में सम्भव नहीं हो सकता था।
भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दिनों महर्षि रमण का मौन तप चलता रहा। इसके अतिरिक्त भी हिमालय में अनेक उच्चस्तरीय तपश्चर्याएँ इसी निमित्त चलीं। राजनेताओं द्वारा संचालित आन्दोलनों को सफल बनाने में इस अदृश्य सूत्र संचालन का कितना बड़ा योगदान रहा इसका स्थूल दृष्टि से अनुमान न लग सकेगा, किन्तु सूक्ष्मदर्शी तथ्यान्वेषी उन रहस्यों पर पूरी तरह विश्वास करते हैं।
जितना बड़ा कार्य उतना बड़ा उपचार के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए, इस बार विशिष्ट तपश्चर्या वातावरण के प्रवाह को बदलने सुधारने के लिए की गई है। इसलिए उसका स्तर और स्वरूप कठिन है। आरम्भिक दिनों में जो काम कंधे पर आया था वह भी लोकमानस को परिष्कृत करने, जागृत आत्माओं को एक संगठन सूत्र में पिरोने और रचनात्मक गतिविधियों का उत्साह उभारने का था। इतने भर से काम चल जाया करे तो इसकी व्यवस्था सम्पन्न लोग अपनी जेब से अथवा दूसरों से माँग-जाँचकर आसानी से पूर्ण कर लिया करते और अब तक स्थिति को बदलकर कुछ से कुछ बना लिया गया होता। कइयों ने पूरे जोर-शोर से यह प्रयत्न किए भी हैं। प्रचारात्मक साधनों के अम्बार भी जुटाए हैं, पर उनके बलबूते कुछ ऐसा न बन पड़ा जिसका कारगर प्रभाव हो सके। वस्तुस्थिति को समझने वाले निर्देशक ने सर्वप्रथम एक ही काम सौंपा। चौबीस साल की गायत्री महापुरश्चरण साधना शृंखला का पिछले तीस वर्षों में जो कुछ बन पड़ा उसमें श्रेय है। कमाई की वह हुण्डी ही अब तक काम देती रही। अपना, व्यक्ति विशेष का, समाज का, संस्कृति का यदि कुछ भला अपने द्वारा बन पड़ा, तो इस चौबीस वर्ष के संचित भण्डार को खर्च किए जाने की बात ही समझी जा सकती है। उस समय भी मात्र जप संख्या ही पूरी नहीं की गई थी, वरन् साथ ही कितने ही अनुबंध-अनुशासन एवं व्रत पालन भी जुड़े हुए थे।
जप संख्या तो ज्यों-त्यों करके कोई भी खाली समय वाला पूरी कर सकता है, पर विलासी एवं अस्त-व्यस्त जीवनचर्या अपनाने वाला कोई व्यक्ति उतनी भर चिह्न पूजा से कोई बड़ा काम नहीं कर सकता। साथ में तपश्चर्या के कठोर विधान भी जुड़े रहने चाहिए जो स्थूल शरीर, सूक्ष्म और कारण तीनों ही शरीरों को तपाते और हर दृष्टि से समर्थ बनाते हैं। संचित कषाय-कल्मष भी आत्मिक प्रगति के मार्ग में बहुत बड़े व्यवधान होते हैं। उनका निवारण एवं निराकरण भी इसी भट्ठी में प्रवेश करने से बन पड़ता है। जमीन में से निकलते समय लोहा मिट्टी मिला कच्चा होता है। अन्य धातुएँ भी ऐसी ही अनगढ़ स्थिति में होती है उन्हें भट्ठी में डालकर तपाया और प्रयोग के उपयुक्त बनाया जाता है। रस शास्त्री बहुमूल्य रस भस्में बनाने के लिए कई-कई अग्नि संस्कार करते हैं। कुम्हार के पास बर्तन पकाने के लिए उन्हें आँवे में तपाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। मनुष्यों पर भी यही नियम लागू होते हैं। ऋषि मुनियों की सेवा साधना, धर्म-धारणा तो प्रकट है ही साथ ही वे अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए आवश्यक शक्ति अर्जित करने के लिए तपश्चर्या भी समय-समय पर अपनाते रहते थे। यह प्रक्रिया अपने-अपने ढंग से हर महत्त्वपूर्ण व्यक्ति को सम्पन्न करनी पड़ी है, करनी पड़ेगी। क्योंकि ईश्वर प्रदत्त शक्तियों का उन्नयन, परिपोषण इसके बिना हो नहीं सकता। व्यक्तित्व में पवित्रता, प्रखरता और परिपक्वता न हो तो कहने योग्य-सराहने योग्य सफलताएँ प्राप्त कर सकने का सुयोग ही नहीं बनता। कुचक्र, छद्म और आतंक के बलबूते उपार्जित की गई सफलताएँ जादू तमाशे में हथेली पर सरसों जमाने जैसे चमत्कार दिखाकर तिरोहित हो जाती हैं। बिना जड़ का पेड़ कब टिकेगा और किस प्रकार फूलेगा-फलेगा?
तपश्चर्या के मौलिक सिद्धांत है-संयम और सदुपयोग। इंद्रिय संयम से, पेट ठीक रहने से स्वास्थ्य नहीं बिगड़ता। ब्रह्मचर्य पालन से मनोबल का भण्डार चुकने नहीं पाता। अर्थ संयम से, नीति की कमाई से औसत भारतीय स्तर का निर्वाह करना पड़ता है, फलतः न दरिद्रता फटकती है और न बेईमानी की आवश्यकता पड़ती है। समय संयम से व्यस्त दिनचर्या बनाकर चलना पड़ता है। फलतः कुकर्मों के लिए समय ही नहीं बचता है। जो बन पड़ता है, श्रेष्ठ और सार्थक ही होता है। विचार संयम से एकात्मता सधती है। आस्तिकता, आध्यात्मिक और धार्मिकता का दृष्टिकोण विकसित होता है। भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग की साधना सहज सधती रहती है। संयम का अर्थ है-बचत। चारों प्रकार का संयम बरतने पर मनुष्य के पास इतनी अधिक सामर्थ्य बच रहती है, जिसे परिवार निर्वाह के अतिरिक्त महान प्रयोजनों में प्रचुर मात्रा में भली प्रकार लगाया जाता रहे। संयमशीलों को वासना, तृष्णा और अहंता की खाईं पाटने में मरना खपना नहीं पड़ता, इसलिए सदुद्देश्यों की दिशा में कदम बढ़ाने की आवश्यकता पड़ने पर व्यस्तता, अभावग्रस्तता, चिंता, समस्या आदि के बहाने नहीं गढ़ने पड़ते। स्वार्थ-परमार्थ साथ-साथ सधते रहते हैं और हँसती-हँसाती, हलकी-फुलकी जिंदगी जीने का अवसर मिल जाता है। इसी मार्ग पर अब से ६० वर्ष पूर्व मार्गदर्शक ने चलना सिखाया था।
वह क्रम अनवरत रूप से चलता रहा। जब तब वातावरण में बैटरी चार्ज करने के लिए बुलाया जाता रहा। विगत तीस वर्षों में एक-एक वर्ष के लिए एकान्तवास और विशेष साधना उपक्रम के लिए जाना पड़ा है। इसका उद्देश्य एक ही था तपश्चर्या के उत्साह और पुरुषार्थ में, श्रद्धा और विश्वास में कहीं कोई कमी न पड़ने पाए। जहाँ कमी पड़ रही हो उसकी भरपाई होती रहे। भागीरथ शिला-गंगोत्री में की गई साधना से धरती पर ज्ञान गंगा की, प्रज्ञा अभियान की, अवतरण की क्षमता एवं दिशा मिली। इस बार उत्तरकाशी के परशुराम आश्रम में वह कुल्हाड़ा उपलब्ध हुआ जिसके सहारे व्यापक अवांछनीयता के प्रति लोकमानस में विक्षोभ उत्पन्न किया जा सके। पौराणिक परशुराम ने धरती पर से अनेक आततायियों के अनेक बार सिर काटे थे। अपना सिर काटना ‘‘ब्रेन वाशिंग’’ है। विचार क्रांति एवं प्रज्ञा-अभियान में सृजनात्मक ही नहीं सुधारात्मक प्रयोजन भी सम्मिलित हैं। यह दोनों ही उद्देश्य जिस प्रकार जितने व्यापक क्षेत्र में जितनी सफलता के साथ सम्पन्न होते रहे हैं, उनमें न शक्ति कौशल है न साधनों का चमत्कार, न परिस्थितियों का संयोग यह मात्र तपश्चर्या की सामर्थ्य से ही सम्पन्न हो सका।
यह जीवनचर्या के अद्यावधि भूतकाल का विवरण हुआ। वर्तमान में इसी दिशा में एक बड़ी छलांग लगाने के लिए उस शक्ति ने निर्देश किया है, जिस सूत्रधार के इशारों पर कठपुतली की तरह नाच-नाचते हुए समूचा जीवन गुजर गया। अब हमें तपश्चर्या की एक नवीन उच्चस्तरीय कक्षा में प्रवेश करना पड़ा है। सर्वसाधारण को इतना ही पता है कि एकान्तवास में हैं किसी से मिल जुल नहीं रहे हैं। यह जानकारी सर्वथा अधूरी है। क्योंकि जिस व्यक्ति के रोम-रोम में कर्मठता, पुरुषार्थ परायणता, नियमितता और व्यवस्था भरी पड़ी हो वह इस प्रकार का निरर्थक और निष्क्रिय जीवन जी नहीं सकता जैसा कि समझा जा रहा है। एकांत वास में हमें पहले की अपेक्षा अधिक श्रम करना पड़ा है। अधिक व्यस्त रहना पड़ा है तथा लोगों से न मिलने की विधा अपनाने पर भी इतने ऐसों से संपर्क सूत्र जोड़ना पड़ा है जिनके साथ बैठने में ढेरों समय चला जाता है, पर मन नहीं भरता। फिर एकांत कहाँ हुआ? न मिलने की बात कहाँ बन पड़ी? मात्र कार्यशैली में ही राई रत्ती परिवर्तन हुआ। मिलने-जुलने वालों का वर्ग एवं विषय भर बदला। ऐसी दशा में अकर्मण्य और पलायनवाद का दोष ऊपर कहाँ लदा? तपस्वी सदा ऐसी ही रीति-नीति अपनाते हैं। वे निष्क्रिय दीखते भर हैं, वस्तुतः अत्यधिक व्यस्त रहते हैं। लट्टू जब पूरे वेग से घूमता है, तब स्थिर खड़ा भर दीखता है। उसके घूमने का पता तो तब लगता है, जब चाल धीमी पड़ती है और बैलेंस लड़खड़ाने पर औंधा गिरने लगता है।
आइन्स्टीन जिन दिनों अत्यधिक महत्त्वपूर्ण अणु अनुसंधान में लगे थे, उन दिनों उनकी जीवनचर्या में विशेष प्रकार का परिवर्तन किया गया था। वे भव्य भवन में एकाकी रहते थे। सभी सुविधाएँ उसमें उपलब्ध थीं, साहित्य, प्रयोग उपकरण एवं सेवक सहायक भी। वे सभी दूर रखे जाते थे ताकि एकांत में एकाग्रतापूर्वक बन पड़ने वाले चिंतन में कोई व्यवधान उत्पन्न न हो। वे जब तक चाहते नितांत एकांत में सर्वथा एकाकी रहते। कोई उनके कार्य में तनिक भी विक्षेप नहीं कर सकता है। जब वे चाहते घंटी बजाकर नौकर बुलाते और इच्छित वस्तु या व्यक्ति प्राप्त कर लेते। मिलने वाले मात्र कार्ड जमा कर जाते और जब कभी उन्हें बुलाया जाता तब जबकि महीनों प्रतीक्षा करते। घनिष्ठता बताकर कोई भी उनके कार्य में विक्षेप नहीं कर सकता था। इतना प्रबंध बन पड़ने पर ही उनके लिए यह सम्भव हुआ कि संसार को आश्चर्य चकित कर सकें। यदि यार वासों से घिरे रहते उथले कार्यों में रस लेकर समय गुजारते तो अन्यान्यों की तरह वे भी बहुमूल्य जीवन का कोई कहने लायक लाभ न उठा पाते। प्राचीनकाल में ऋषि-तपस्वियों की जीवनचर्या ठीक इसी प्रकार की थी। उसमें तन्यमतापूर्वक अपना कार्य कर सकने के लिए वे कोलाहल रहित स्थान निर्धारित करते थे और पूरी तरह तन्मयता के साथ निर्धारित प्रयोजनों में लगे रहते थे।
अपने सामने भी प्रायः इसी स्तर के नए कार्य करने के लिए रख दिए गए। वे बहुत वजनदार हैं, साथ ही बहुत महत्त्वपूर्ण भी। इनमें एक है-विश्वव्यापी सर्वनाशी विभीषिकाओं को निरस्त कर सकने योग्य आत्मशक्ति उत्पन्न करना। दूसरा है-सृजन शिल्पियों को जिस प्रेरणा और क्षमता के बिना कुछ करते-धरते नहीं बन पड़ रहा है, उसकी पूर्ति करना। तीसरा है नवयुग के लिए जिन सत्प्रवृत्तियों का सूत्र-संचालन होना है, उनका ताना-बाना बुनना और ढाँचा खड़ा करना। यह तीनों ही कार्य ऐसे हैं, जो अकेले स्थूल शरीर से नहीं बन सकते। उसकी सीमा और सामर्थ्य अति न्यून है। इंद्रिय सामर्थ्य थोड़े दायरे में काम कर सकती है और सीमित वजन उठा सकती है, हाड़-माँस के पिण्ड में बोलने, सोचने, चलने-फिरने, करने-कमाने, पचाने की बहुत थोड़ी सामर्थ्य है। उतने भर से सीमित काम हो सकता है। सीमित कार्य से शरीर यात्रा चल सकती है और समीपवर्ती संबद्ध लोगों का यत्किंचित् भला हो सकता है। अधिक व्यापक और अधिक बड़े कामों के लिए सूक्ष्म और कारण शरीरों के विकसित किए जाने की आवश्यकता पड़ती है। तीनों जब समान रूप से सामर्थ्यवान और गतिशील होते हैं तब कहीं इतने बड़े काम बन सकते हैं, जिनके करने की इन दिनों आवश्यकता पड़ गई है।
रामकृष्ण परमहंस के सामने यही स्थिति आई थी। उन्हें व्यापक काम करने के लिए बुलाया गया। योजना के अनुसार उनने अपनी क्षमता विवेकानन्द को सौंप दी थी तथा उनने कार्यक्षेत्र को सरल और सफल बनाने के लिए आवश्यक ताना-बाना बुन देने का कार्य संभाला। इतना बड़ा काम वे मात्र स्थूल शरीर के सहारे नहीं कर पा रहे थे। सो उनने उसे निःसंकोच छोड़ भी दिया। बैलेंस से अधिक वरदान देने के कारण उन पर ऋण भी चढ़ गया था। उनकी पूर्ति के बिना गाड़ी रुकती। इसलिए स्वेच्छापूर्वक कैंसर का रोग भी ओढ़ लिया। इस प्रकार ऋण मुक्त होकर विवेकानन्द के माध्यम से उस कार्य में जुट गए जिसे करने के लिए उनकी निर्देशक सत्ता ने उन्हें संकेत किया था। प्रत्यक्षतः रामकृष्ण तिरोहित हो गए। उनका अभाव खटका, शोक भी बना, पर हुआ वह जो श्रेयस्कर था। दिवंगत होने के उपरांत उनकी सामर्थ्य हजार गुनी अधिक बढ़ गई। इसके सहारे उनने देश एवं विश्व में अनेकानेक सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन किया। जीवन काल में वे भक्तजनों को थोड़ा बहुत आशीर्वाद देते रहे और एक विवेकानन्द को अपना संग्रह सौंपने में समर्थ हुए, पर जब उन्हें सूक्ष्म और कारण शरीर से काम करने का अवसर मिल गया, तो उनसे पूरे विश्व में इतना काम किया जा सका जिसका लेखा-जोखा ले सकना, सामान्य स्तर की जाँच पड़ताल से समझ सकना सम्भव नहीं।
ईसा की जीवनचर्या भी ऐसी ही थी। वे जीवन भर में बहुत दौड़-धूप के उपरांत मात्र १३ शिष्य बना सके। देखा कि स्थूल शरीर की क्षमता से उतना बड़ा काम न हो सकेगा, जितना कि वे चाहते हैं, ऐसी दशा में यही उपयुक्त समझा कि सूक्ष्म शरीर का अवलंबन ले कर संसार भर में ईसाई मिशन फैला दिया जाए। ऐसे परिवर्तनों के समय महापुरुष पिछला हिसाब-किताब साफ करने के लिए कष्ट साध्य मृत्यु का वरण करते हैं। ईसा का क्रूस पर चढ़ना, सुकरात का विष पीना, कृष्ण को तीर लगना, पाण्डवों का हिमालय में गलना, गाँधी का गोली खाना, आद्य शंकराचार्य को भगंदर होना यह बताता है कि अगले महान प्रयोजनों के लिए उन्हें स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करना होता है, वे उपलब्ध शरीर का इस प्रकार अंत करते हैं, जिसे बलिदान स्तर का प्रेरणा प्रदान करने वाला और अपने चलते समय का पवित्रता, प्रखरता प्रदान करने वाला कहा जा सके। हमारे साथ भी यही हुआ है व आगे होना है।