Books - पातंजलि योग का तत्त्व- दर्शन
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Language: HINDI
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अहिंसा और उसकी परिधि-
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अहिंसा को धर्म धारणा में प्रमुख स्थान दिया गया है। किसी प्राणी को कष्ट न पहुँचाना साधारणतया अहिंसा का प्रकट अर्थ समझा जाता है, पर बात इतने भर से नहीं बनती। अहिंसा निषेधात्मक है। उसका विधेयात्मक पक्ष दया, करुणा, सेवा, सहायता के रूप में उदित होता है। इस हेतु कुछ करना पड़ता है। करने से ही पुण्य बन पड़ता है। न करने पर भावना मात्र से एक कल्पना ही मन पर छाई रह जाती है। उसे यदि चरितार्थ होने का अवसर न मिले तो मात्र सम्वेदना में औचित्य का समावेश रहते हुए भी उसका कोई प्रत्यक्ष प्रतिफल प्रस्तुत न हो सकेगा।
स्थूल अहिंसा का पालन तो पेड़, पर्वत भी करते हैं वे किसी को कष्ट नहीं पहुँचाते। यह उनकी जड़ता जन्य विवशता है। ऐसी दशा में उन्हें अहिंसक होने का श्रेय नहीं मिल सकता। प्रकृति के सभी पदार्थ ऐसे हैं जो अपनी जगह पर स्थिर रहते अपने निर्धारित चक्र पर भ्रमण भर करते रहते हैं। उसमें वह भावना नहीं रहती जो सचेतन में पायी जाती है। ऐसी दशा में जानबूझ कर हिंसा नहीं करते। उनसे टकराकर कोई अपना पैर तोड़ ले तो उनकी मर्जी।
कृमि कीटकों पर भी अहिंसा का आदेश लागू नहीं होता। उसमें से अधिकांश माँसाहारी प्रकृति के होते हैं। अपने से छोटों को मारते खाते रहते हैं। उनकी प्रकृति को नहीं बदला जा सकता है कि अपने लाभ के लिए दूसरों को हानि न पहुँचायें। लाभ हानि तक का उन्हें विचार नहीं होता और उन्हें यह सूझ पड़ता है कि उनकी किस क्रिया से किसी को क्या कष्ट होगा? छिपकली, मकडी़ आदि घरेलू कीडे़ अपने से छोटों को मारते खाते रहते हैं। बडी़ मछली भी छोटी को खाती देखी गई है। बिल्ली, व्याघ्र, मगरमच्छ, सर्प, बाज जैसे प्राणी भी माँसाहारी होते हैं। भूख लगने पर वे अपना शिकार पकड़ते और उदरस्थ करते रहते हैं। उन तक अहिंसा का संदेश पहुँचना या पहुँचाया जाना कठिन है।
मनुष्य भावनाशील है, विवेकवान भी। उसे उचित- अनुचित का बोध आरम्भ से ही मिला है। सहकारी प्राणी होने के नाते उसके लिए नीति- नियम भी यही हैं कि दूसरे के साथ वैसा ही व्यवहार करे जैसा दूसरों से अपने लिए चाहता है। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। सज्जनता बरतने वाले बदले में वैसा सद्व्यवहार अनेकों द्वारा अपने साथ होते देखते हैं। दुष्टता की प्रतिक्रिया भी आक्रोश- प्रतिशोध में होती है। इसलिए अपने को त्रास न सहना पडे़ इसका एक ही सही तरीका है कि दूसरों के साथ दुर्व्यवहार न किया जाय। अन्यथा प्रतिक्रिया एक नहीं तो दूसरे तरीके से होगी और अपना क्रिया कृत्य शब्ध- बेधी बाण की तरह उसी तरकश में लौट आयेगा जहाँ से निकालकर उसे फेंका गया था। रबड़ की गेंद जितने जोर से जिस ऐंगल से फेंककर मारी जाती है, वह टकराने के बाद वापस उसी स्थान को उसी वेग में उसी ऐंगल पर वापस लौटती है। यही नियम सर्वत्र चलता है। सज्जनों सहयोग और सम्मान मिलता है, जबकि दुष्ट- दुर्जन बदले में प्रतिरोध और तिरस्कार पाते हैं, इसलिए दूरदर्शी विवेकशील का भी यही तकाजा है कि दूसरों के साथ सद्व्यवहार करने में ही अपना भला समझा जाय और वैसा ही आचरण करने के लिए मानस बनाया जाय। अहिंसा इस दृष्टि में आत्मरक्षा की ढाल सिद्ध होती है। दूसरों के प्रति उदार रहकर प्रकारान्तर से अन्यों को अपने साथ सद्व्यवहार करने के लिए आमन्त्रित किया जाता है। हिंसा पर उतारू होकर उसकी प्रतिक्रिया से बचा नहीं जा सकता। जिसे सताया गया है, वह दुर्बल एवं प्रतिशोध में असमर्थ हो सकता है, किन्तु दूसरी शक्तियाँ भी तो संसार में मौजूद हैं। वे अन्याय का बदला लिए बिना न छोडे़गी। इसीलिए जिन्हें चैन से रहना अभीष्ट है, उन्हें दूसरों को भी चैन से रहने देना चाहिए।
अहिंसा का सृजनात्मक पक्ष है आत्मीयता। अपनों के साथ दया करुणा का सद्भाव और ममता का व्यवहार ही बन पड़ता है। माता- पिता अपने बच्चों के प्रति अनवरत स्नेह लुटाते हैं और वे उनके साथ सेवा सहायता का व्यवहार सहज स्वाभाविक करते रहते हैं। यह सब उनसे सहज स्वभाव बन पड़ता है। अहसान जताने, पुण्य करने जैसा कोई भाव उनके मन में नहीं उठता। यही भावना संकीर्णता की परिधि से आगे निकल कर जब विराट के साथ सम्बन्ध जोड़ती है तो सभी अपने बन जाते हैं। जो अपना है, वह स्नेह, सद्भाव, सहायता का पात्र बन ही जाता है। आत्मीयता का ही एक पक्ष दया और करुणा है। यह भी विकसित मानस में सहज स्वभावतः चल पड़ता है, सहायता का बदला सहायता के रूप में मिलते देखकर प्रेम का प्रत्युत्तर प्रेम में पाकर प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहता। इस प्रकार का अहिंसा का प्रतिफल हाथों हाथ मिलता है। यह नगद धर्म है जिसके आधार पर जियो और जीने दो, "बढो़ और बढ़ने दो" का सिद्धान्त सहज ही चरितार्थ होता चला जाता है।
अहिंसा में विक्षेप उचित कष्ट से नहीं होता। अहिंसा में कष्ट नहीं औचित्य मुख्य है। डॉक्टर अस्पताल में ढेरों रोगियों की शल्य क्रिया करता रहता रहता है। कितनों को वह सुई चुभाता है। मोटी दृष्टि में यह हिंसा हुई, पर वस्तुतः ऐसा है नहीं। उद्देश्य रोगी के प्रति दया भाव होने के कारण ऊँचा ही रहा, ऐसी दशा में तात्कालिक पीडा़ का कोई महत्त्व नहीं रहा। देखा यही गया है कि रोगी को राहत किसमें है। हित कामना को देखते हुए कष्ट पहुँचाने की भी गुंजाइश न्यायाधीश अभियुक्तों को फाँसी की सजा देता है। इससे समाज- व्यवस्था का संरक्षण होता है। यदि उस अपराधी को क्षमा कर दिया गया होता तो खुला रहकर न जाने कितनों की हत्या करता, कितनी अव्यवस्था फैलाता। इस तथ्य को ध्यान में रखकर यदि न्यायाधीश ने मृत्यु दण्ड दिया और अपराधी को कष्ट हुआ तो इसके लिए क्या किया जा सकता है। अहिंसा को रूढि़ मानकर न्याय और विवेक को झुठलाया तो नहीं जा सकता।
अहिंसा में विवेक को भी जुडा़ रखना पड़ता है, आत्मरक्षा में हिंसा भी अपनाई जा सकती है। घर पर डाकू आक्रमण करें तो उनका सामना करना ही पडे़गा, भले उनमें से कोई आक्रान्ता मारा ही क्यों न जाय। घर में पलने वाले साँप- बिच्छुओं पर कब तक दया करते रहा जायेगा। चूल्हे में आग जलाते समय, यात्रा में चलते समय, धूप में कपडे़ सुखाते समय यहाँ तक कि साँस लेते समय भी कुछ जीव मर सकते हैं, इसकी रक्षा किया जाना असम्भव है। ऐसे तो वनस्पति भी जीव माना जाने लगा है, आहार के लिए शाकाहार- जलाहार तो ग्रहण करना ही पडे़गा। इसके बिना जीवन सम्भव नहीं। ऐसी अनिवार्य हिंसाओं पर विचार नहीं किया जा सकता।
हिंसा वहाँ से आरम्भ होती है, जहाँ दूसरों को पराया समझकर अपने संकीर्ण स्वार्थ की सिद्धि के लिए अनीतिपूर्वक दूसरों को कष्ट पहुँचाया जाय, जिनसे निर्दोषों को उत्पीड़न सहना पडे़। जिसके साथ अनीति का आधार जुडा़ हुआ हो।
हिंसा शारीरिक आघात तक ही सीमित नहीं है। उसका मानसिक आघात भी एक पक्ष है। अपमान तिरस्कार, दुर्व्यवहार भी हिंसा का ही रूप है। जिससे मन को सम्मान को आघात लगे उसे भी हिंसा ही कहा जायेगा। किसी को गलत परामर्श देकर कुमार्ग पर चलने के लिए सहमत कर लेने पर तत्काल न सही परिणाम सामने आने पर तो कष्ट उठाना ही पड़ता है। इस प्रकार का जिसने कुचक्र रचा, उसे भी हिंसक ही कहा जायेगा।
हिंसा से तात्पर्य है अन्यायपूर्वक उत्पीड़न। मात्र शारीरिक या मानसिक कष्ट पहुँचाना हिंसा नहीं है। कुकर्मियों और कुमार्ग गामियों को जब समझाने- बुझाने से सही राह पर लाना सम्भव नहीं रहता। जब दुरात्माओं का अहंकार दुराग्रह और आतंक चरमसीमा तक पहुँच जाता है तो वे दया क्षमा को कर्ता की दुर्बलता- कायरता मानते हैं और इस प्रकार के सौम्य व्यवहार को अपनी जीत मानकर अनीति पर और भी अधिक वेग के साथ उतरते हैं। ऐसी दशा में प्रताड़ना के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं रह जाता। विनम्रता और उदारता मात्र सज्जनों के साथ बरती जाने पर सफल होती है। हृदयहीनों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जिनका कुकर्म करते- करते मानस परिपक्व हो गया है। जिनकी प्रवृत्ति कसाई जैसी बन गई है, उनके सम्मुख सज्जनता का, क्षमा दया का कोई मूल्य नहीं। शठता को शठता की भाषा ही समझ में आती है। उन्हें सुधारने के लिए जो विवेकपूर्ण हिंसा प्रयुक्त की जाती है उसे भी अहिंसा ही कहना चाहिए।
स्थूल अहिंसा का पालन तो पेड़, पर्वत भी करते हैं वे किसी को कष्ट नहीं पहुँचाते। यह उनकी जड़ता जन्य विवशता है। ऐसी दशा में उन्हें अहिंसक होने का श्रेय नहीं मिल सकता। प्रकृति के सभी पदार्थ ऐसे हैं जो अपनी जगह पर स्थिर रहते अपने निर्धारित चक्र पर भ्रमण भर करते रहते हैं। उसमें वह भावना नहीं रहती जो सचेतन में पायी जाती है। ऐसी दशा में जानबूझ कर हिंसा नहीं करते। उनसे टकराकर कोई अपना पैर तोड़ ले तो उनकी मर्जी।
कृमि कीटकों पर भी अहिंसा का आदेश लागू नहीं होता। उसमें से अधिकांश माँसाहारी प्रकृति के होते हैं। अपने से छोटों को मारते खाते रहते हैं। उनकी प्रकृति को नहीं बदला जा सकता है कि अपने लाभ के लिए दूसरों को हानि न पहुँचायें। लाभ हानि तक का उन्हें विचार नहीं होता और उन्हें यह सूझ पड़ता है कि उनकी किस क्रिया से किसी को क्या कष्ट होगा? छिपकली, मकडी़ आदि घरेलू कीडे़ अपने से छोटों को मारते खाते रहते हैं। बडी़ मछली भी छोटी को खाती देखी गई है। बिल्ली, व्याघ्र, मगरमच्छ, सर्प, बाज जैसे प्राणी भी माँसाहारी होते हैं। भूख लगने पर वे अपना शिकार पकड़ते और उदरस्थ करते रहते हैं। उन तक अहिंसा का संदेश पहुँचना या पहुँचाया जाना कठिन है।
मनुष्य भावनाशील है, विवेकवान भी। उसे उचित- अनुचित का बोध आरम्भ से ही मिला है। सहकारी प्राणी होने के नाते उसके लिए नीति- नियम भी यही हैं कि दूसरे के साथ वैसा ही व्यवहार करे जैसा दूसरों से अपने लिए चाहता है। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। सज्जनता बरतने वाले बदले में वैसा सद्व्यवहार अनेकों द्वारा अपने साथ होते देखते हैं। दुष्टता की प्रतिक्रिया भी आक्रोश- प्रतिशोध में होती है। इसलिए अपने को त्रास न सहना पडे़ इसका एक ही सही तरीका है कि दूसरों के साथ दुर्व्यवहार न किया जाय। अन्यथा प्रतिक्रिया एक नहीं तो दूसरे तरीके से होगी और अपना क्रिया कृत्य शब्ध- बेधी बाण की तरह उसी तरकश में लौट आयेगा जहाँ से निकालकर उसे फेंका गया था। रबड़ की गेंद जितने जोर से जिस ऐंगल से फेंककर मारी जाती है, वह टकराने के बाद वापस उसी स्थान को उसी वेग में उसी ऐंगल पर वापस लौटती है। यही नियम सर्वत्र चलता है। सज्जनों सहयोग और सम्मान मिलता है, जबकि दुष्ट- दुर्जन बदले में प्रतिरोध और तिरस्कार पाते हैं, इसलिए दूरदर्शी विवेकशील का भी यही तकाजा है कि दूसरों के साथ सद्व्यवहार करने में ही अपना भला समझा जाय और वैसा ही आचरण करने के लिए मानस बनाया जाय। अहिंसा इस दृष्टि में आत्मरक्षा की ढाल सिद्ध होती है। दूसरों के प्रति उदार रहकर प्रकारान्तर से अन्यों को अपने साथ सद्व्यवहार करने के लिए आमन्त्रित किया जाता है। हिंसा पर उतारू होकर उसकी प्रतिक्रिया से बचा नहीं जा सकता। जिसे सताया गया है, वह दुर्बल एवं प्रतिशोध में असमर्थ हो सकता है, किन्तु दूसरी शक्तियाँ भी तो संसार में मौजूद हैं। वे अन्याय का बदला लिए बिना न छोडे़गी। इसीलिए जिन्हें चैन से रहना अभीष्ट है, उन्हें दूसरों को भी चैन से रहने देना चाहिए।
अहिंसा का सृजनात्मक पक्ष है आत्मीयता। अपनों के साथ दया करुणा का सद्भाव और ममता का व्यवहार ही बन पड़ता है। माता- पिता अपने बच्चों के प्रति अनवरत स्नेह लुटाते हैं और वे उनके साथ सेवा सहायता का व्यवहार सहज स्वाभाविक करते रहते हैं। यह सब उनसे सहज स्वभाव बन पड़ता है। अहसान जताने, पुण्य करने जैसा कोई भाव उनके मन में नहीं उठता। यही भावना संकीर्णता की परिधि से आगे निकल कर जब विराट के साथ सम्बन्ध जोड़ती है तो सभी अपने बन जाते हैं। जो अपना है, वह स्नेह, सद्भाव, सहायता का पात्र बन ही जाता है। आत्मीयता का ही एक पक्ष दया और करुणा है। यह भी विकसित मानस में सहज स्वभावतः चल पड़ता है, सहायता का बदला सहायता के रूप में मिलते देखकर प्रेम का प्रत्युत्तर प्रेम में पाकर प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहता। इस प्रकार का अहिंसा का प्रतिफल हाथों हाथ मिलता है। यह नगद धर्म है जिसके आधार पर जियो और जीने दो, "बढो़ और बढ़ने दो" का सिद्धान्त सहज ही चरितार्थ होता चला जाता है।
अहिंसा में विक्षेप उचित कष्ट से नहीं होता। अहिंसा में कष्ट नहीं औचित्य मुख्य है। डॉक्टर अस्पताल में ढेरों रोगियों की शल्य क्रिया करता रहता रहता है। कितनों को वह सुई चुभाता है। मोटी दृष्टि में यह हिंसा हुई, पर वस्तुतः ऐसा है नहीं। उद्देश्य रोगी के प्रति दया भाव होने के कारण ऊँचा ही रहा, ऐसी दशा में तात्कालिक पीडा़ का कोई महत्त्व नहीं रहा। देखा यही गया है कि रोगी को राहत किसमें है। हित कामना को देखते हुए कष्ट पहुँचाने की भी गुंजाइश न्यायाधीश अभियुक्तों को फाँसी की सजा देता है। इससे समाज- व्यवस्था का संरक्षण होता है। यदि उस अपराधी को क्षमा कर दिया गया होता तो खुला रहकर न जाने कितनों की हत्या करता, कितनी अव्यवस्था फैलाता। इस तथ्य को ध्यान में रखकर यदि न्यायाधीश ने मृत्यु दण्ड दिया और अपराधी को कष्ट हुआ तो इसके लिए क्या किया जा सकता है। अहिंसा को रूढि़ मानकर न्याय और विवेक को झुठलाया तो नहीं जा सकता।
अहिंसा में विवेक को भी जुडा़ रखना पड़ता है, आत्मरक्षा में हिंसा भी अपनाई जा सकती है। घर पर डाकू आक्रमण करें तो उनका सामना करना ही पडे़गा, भले उनमें से कोई आक्रान्ता मारा ही क्यों न जाय। घर में पलने वाले साँप- बिच्छुओं पर कब तक दया करते रहा जायेगा। चूल्हे में आग जलाते समय, यात्रा में चलते समय, धूप में कपडे़ सुखाते समय यहाँ तक कि साँस लेते समय भी कुछ जीव मर सकते हैं, इसकी रक्षा किया जाना असम्भव है। ऐसे तो वनस्पति भी जीव माना जाने लगा है, आहार के लिए शाकाहार- जलाहार तो ग्रहण करना ही पडे़गा। इसके बिना जीवन सम्भव नहीं। ऐसी अनिवार्य हिंसाओं पर विचार नहीं किया जा सकता।
हिंसा वहाँ से आरम्भ होती है, जहाँ दूसरों को पराया समझकर अपने संकीर्ण स्वार्थ की सिद्धि के लिए अनीतिपूर्वक दूसरों को कष्ट पहुँचाया जाय, जिनसे निर्दोषों को उत्पीड़न सहना पडे़। जिसके साथ अनीति का आधार जुडा़ हुआ हो।
हिंसा शारीरिक आघात तक ही सीमित नहीं है। उसका मानसिक आघात भी एक पक्ष है। अपमान तिरस्कार, दुर्व्यवहार भी हिंसा का ही रूप है। जिससे मन को सम्मान को आघात लगे उसे भी हिंसा ही कहा जायेगा। किसी को गलत परामर्श देकर कुमार्ग पर चलने के लिए सहमत कर लेने पर तत्काल न सही परिणाम सामने आने पर तो कष्ट उठाना ही पड़ता है। इस प्रकार का जिसने कुचक्र रचा, उसे भी हिंसक ही कहा जायेगा।
हिंसा से तात्पर्य है अन्यायपूर्वक उत्पीड़न। मात्र शारीरिक या मानसिक कष्ट पहुँचाना हिंसा नहीं है। कुकर्मियों और कुमार्ग गामियों को जब समझाने- बुझाने से सही राह पर लाना सम्भव नहीं रहता। जब दुरात्माओं का अहंकार दुराग्रह और आतंक चरमसीमा तक पहुँच जाता है तो वे दया क्षमा को कर्ता की दुर्बलता- कायरता मानते हैं और इस प्रकार के सौम्य व्यवहार को अपनी जीत मानकर अनीति पर और भी अधिक वेग के साथ उतरते हैं। ऐसी दशा में प्रताड़ना के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं रह जाता। विनम्रता और उदारता मात्र सज्जनों के साथ बरती जाने पर सफल होती है। हृदयहीनों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जिनका कुकर्म करते- करते मानस परिपक्व हो गया है। जिनकी प्रवृत्ति कसाई जैसी बन गई है, उनके सम्मुख सज्जनता का, क्षमा दया का कोई मूल्य नहीं। शठता को शठता की भाषा ही समझ में आती है। उन्हें सुधारने के लिए जो विवेकपूर्ण हिंसा प्रयुक्त की जाती है उसे भी अहिंसा ही कहना चाहिए।