Books - प्रतिष्ठा का उच्च सोपान
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Language: HINDI
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चौथा पाठ
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चौथा पाठ
बाहरी रहन- सहन भी आत्म- सम्मान के उपयुक्त बनाइये !
ऊसर भूमि में बीज नहीं जमता, क्योंकि उसमें उत्पादक शक्ति का अभाव होता है। चाहे कैसा ही बढि़या बीज डालिये परिश्रमपूर्वक सिंचाई कीजिए, पर उस भूमी में हरे- भरे पल्लवित पौधे लहलहावेगें, यह आशा करना व्यर्थ है। अच्छे पौधे उसी भूमी में उगेंगे, जिसके गर्भ में उर्वरा शक्ति विद्यमान होगी। इसलिए अच्छा किसान जब बढि़या फसल की बात सोचता है तो सबसे पहले खेतों की उपजाऊ शक्ति को बढा़ने का प्रयत्न करता है। अच्छी जमीन लेता है, खाद डालता है, जुताई करता है। जब उसे विश्वास होता है कि खेत में काफी उर्वराशक्ति हो गई, तब उसमें बीज डालता है और अच्छी फसल काटता है। ऊसर एवं हीन- वीर्य खेत में बीज बो देने पर भला किसान के हाथ क्या लगेगा? बेचारे का बीज और परिश्रम मुफ्त में ही चला जायेगा। इसी प्रकार जीवन को उन्नत, प्रभावशाली, सम्पत्तिवान, बलिष्ठ, विवेकयुक्त बनाने से पूर्व इस बात की आवश्यकता है कि अन्तःकरण में आत्म सम्मान प्राप्त करने की उत्कण्ठा प्रचण्ड गति से हिलोरें मार रही हो। आवश्यकता अविष्कार की जननी है। जरूरत पड़ने पर बुद्धि उपायों की खोज करती है, जिन्हें जरूरतें नहीं, इच्छा आकांक्षा नहीं, उन्हें उपाय ढूँढ़ने का परिश्रम भी गवारा नहीं होता। जीवन को अनेक दिशाओं में उन्नत एवं समृद्ध बनाने वाली उत्पादन शक्ति का नाम है- "आत्मसम्मान की आकांक्षा।" जो अपने को प्रतिष्ठित, बडा़ आदमी, महापुरुष, अधिकारी बनाना चाहता है, वह उसके लिए उपाय ढूँढेगा और यह सच्चाई सूर्य की तरह स्पष्ट है- ढूँढ़ने वाले को मिलता है'। जिसने खोजा है, उसने पाया है।
विद्वता, धन, पदवी, अधिकार, कला- कौशल, उत्तम स्वास्थ्य, ऐश्वर्य, नेतृत्व आदि प्रतिष्ठास्पद पदार्थ प्राप्त करने के लिए जितने परिश्रम, प्रयत्न और धैर्य की आवश्यक्ता है वह यों ही उत्पन्न नहीं हो जाता। तामसी वृत्तियाँ सदैव आलस्य और अर्कमण्यता की ओर झुकती हैं, इसलिए अक्सर ऐसे विचार भी उठ सकते हैं कि जो है उसी में सन्तुष्ट रहो, कोशिश करने में क्या फायदा? भाग्य का होगा तो घर बैठे मिल जायगा।' अर्कमण्यता के साथ आलस्य आता है, बुद्धि और शरीर से कडी़ मेहनत लेना तामसी वृत्तियाँ नापसंद करती हैं। वे चाहती हैं कि बिना मेहनत किये काम चल जाय, आराम से पडा़ रहा जाय। हम देखते हैं कि इन्हीं तामसी वृत्तियों में अधिकांश व्यक्तियों का अधिकांश जीवन ग्रसित रहता है। तदनुसार वे अपने अन्दर छिपे पडे़ हुए शक्तियों के अतुलित भण्डार को यों ही निकम्मा पडा़ रहने देते हैं और अर्धमूर्छित अवस्था में जीवन- क्रम चलाते हुए आयु को पूर्ण कर जाते हैं। अच्छी परिस्थितियाँ और सुविधाऐं मिलने पर भी कोई विशेष उन्नति नहीं हो सकती, यदि मनुष्य के अन्दर महत्वाकाँक्षा न हो। वे ही लोग ऊँचे उठ सकते हैं,
सफल जीवन हो सकते हैं, जो उस प्रकार की इच्छा अकांक्षा करते हैं। यह इच्छाऐं जब प्रबल होती हैं तो शरीर और मस्तिष्क की शक्तियों को उसी प्रकार जबरदस्ती खींच ले जाती हैं, जैसे तेज चलने वाला आतुर घोडा़ जिस रथ में जुतता है, उसे सरपट दौडा़ ले जाता है। अपना गौरव बढा़ने की, सम्मान प्राप्त करने की, अपनी महत्ता प्रकट करने की महत्वाकांक्षा जब जोर मारती है तो योग्यतायें और शक्तियाँ अपना- अपना काम पूरा करने में जुट जाती हैं और जो कार्य पर्वत के समान दुर्गम दिखाई पड़ते हैं, वे बडी़ आसानी से पूरे हो जाते हैं। संचित योग्यताऐं तो अपना काम करती ही हैं, साथ ही आवश्यकता के दबाव के कारण सोई हुई अविकसित शक्तियाँ भी जागृत होकर क्रियाशील बनती जाती हैं। मानवीय शक्तियों की संख्या और मात्रा में दिन- दिन उन्नति होती जाती है। जो व्यक्ति पहले मन्द बुद्धि, दुर्बल, शरीर आलसी, हतवीर्य दिखाई पड़ते थे, वे ही आत्म- सम्मान की आकांक्षा को तीव्र करके जब कर्त्तव्य- पथ पर चल पडे़ तो इतने तीव्र बुद्धि, स्वस्थ कर्मनिष्ठ और तेजस्वी सिद्ध हुए, जिसकी आशा उनके आरम्भिक जीवन में बिल्कुल नहीं होती थी।
मानव- तत्त्व की खोज करने वाले आचार्य इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सम्पूर्ण प्रकार की उन्नतियाँ आत्म- सम्मान की महत्वाकाक्षाँ से प्रेरित होने पर ही होती हैं। स्फूर्ति, उत्साह, विवेचना, खोज, साहस, परिश्रम और धैर्य- यह सब उन्नति के अग्रदूत एवं महत्त्वाकांक्षा के अभिन्न सहचर हैं। जब आत्मा किसी प्यास में बेचैन होकर सचमुच यह पुकार करती है कि 'मुझे अमुक वस्तु चाहिए' तो उसकी सारी सेविकायें प्रमाद छोड़कर उठ खडी़ होती हैं और अपनी रानी की मनोवंछा पूरी करने में जाँ- फिसानी से जुट जाती हैं। सेविकायें तभी तक आलस्य, प्रमाद हुक्म- अदूली करती हैं, जब तक कि मालकिन की इच्छा और आज्ञा अस्पष्ट, अधूरी होती है, तीव्र इच्छा का पालन भी तीव्र गति से होता है। चाह होने पर राह निकलती है। इच्छा की शक्ति महान है, उस महा शक्ति के लिए इस संसार में कोई भी वस्तु प्राप्त करना असम्भव नहीं है। इन्हीं सब बातों पर गंभीर विवेचना करने के उपरान्त शास्त्र ने यह उपदेश किया है कि इस संसार में समृद्धि, सौभाग्य और परलोक में सुख- शान्ति प्राप्त करने वालों की इच्छा करने वालों को अपने आत्म सम्मान को बढा़ने और उसकी रक्षा करने का प्रयत्न करना चाहिए। आध्यात्मिक गुणों में "आत्म- सम्मान" का स्थान बहुत ऊँचा है, क्योंकि यह प्रेरणाओं का केन्द्र है। बिजलीघर का शक्ति- स्त्रोत नगर की सारी बत्तियों को प्रकाशवान बना देता है। अकर्म करने से रोकता है और सत्कर्मों में प्रवृत्त करता है। अपने चारों ओर ऐसे धर्मयुक्त, सुख, शान्तिमय पुनीत वातावरण का निर्माण कर देता है, जिसमें रहकर मनुष्य हर घडी़ यह अनुभव करता है कि मैंने अपने जीवन का सदुपयोग किया, जीवन- फल पाया और भूलोक के अमृत का प्रत्यक्ष रूप से आस्वादन किया।
आत्म- सम्मान की प्रारम्भिक शिक्षा के लिए एक बहुत पुराना मन्त्र है, जो आज की परिस्थितियों में भी ज्यों का त्यों उपयोगी बना हुआ है। वह मन्त्र है- "सादा जीवन, उच्च विचार।" प्राचीन समय में बालकपन से लेकर वृद्धावस्था तक इसी ढाँचे में लोगों के जीवन ढले रहते थे। आज बेतरह का जमाना बरत रहा है जीवन को बनावटी और विचारों को नीच बनाने की लत लोगों को पड़ती जाती है। भ्रमवश वे ऐसा समझते हैं कि हमारी बनावटी चमक- दमक के भुलावे में आकर लोग हमें बडा़ आदमी समझने लगेंगे। वे अपनी औकात से अधिक टीमटाम बनाते हैं। विलायती फैशन की नकल, पहनने- ओढ़ने, खाने- पीने, बोलने- चालने में करते हैं, वे सोचते हैं कि अंग्रेज लोग हिन्दुस्तान के शासक हैं, उन्होंने तरह- तरह के आविष्कार किये हैं। हिन्दुस्तानी लोग उनसे डरते हैं, इसलिए उनकी नकल हम बनावें तो लोग हमें भी आधा अंग्रेज समझकर खौफ खाने लगेंगे। फलतः अंग्रेजी बाल रखते हैं, अंग्रेजी फैशन के कपडे़ पहनते हैं, अंग्रेजी ढंग का आहार चाय, बिस्कुट, सोडा, शराब, सिगरेट व्यवहार करते हैं, टूटी- फूटी अंग्रेजी में ही बात करते हैं।
जिस इच्छा से भ्रमवश इस प्रयत्न को वे करते हैं, फल उससे बिल्कुल उल्टा होता है। कारण यह कि इस देश की गरम आवहवा में यूरोप के शीत प्रधान देशों की चाल ढाल बिल्कुल मौजूँ नहीं वरन् उल्टी हानिकारक है, इससे उनके स्वास्थ्य पर बडा़ बुरा असर पड़ता है। दूसरी बात यह है कि अनुपयुक्त और बुरे उद्देश्य से की हुई नकल सदा उपहासास्पद होती है। कहानी है कि- एक कौआ मोर के पंख लगाकर मोर बनने लगा, इस पर मोर और कौए दोनों उस पर क्रुद्ध हो गये और दोनों ने उसे बहिष्कृत कर दिया। राजनैतिक कारणों से वाह्यतः कोई शासक यह भले ही पसंद करे कि हिन्दुस्तानी लोग अंग्रेजी जामें में केसे फिरें, पर मन ही मन वे भी उनकी कायर वृत्ति पर तिरस्कार करते होगें। वे सोचते होंगे, यह लोग हमारी खुशामद के लिए ऐसे कपडे़ पहनते हैं अन्यथा यदि इन्हें हमारे सद्गुणों की नकल करनी थी तो यह नकल करते कि हम लोग यूरोप के ठण्डे देश की पोशाक इस देश में अनुपयुक्त होते हुए भी अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए पहनते हैं और जो थोडी़ कठिनाई पड़ती है, उसे भी सहन करते हैं। इसी प्रकार भारतीय लोग अपनी उस पोशाक को न छोडे़ं, जो उनके लिए सर्वथा उपयुक्त है और संस्कृति का चिन्ह भी है। समझदार भारतीय भी उनके इस मोर बनने के प्रयास पर हँसते हैं। इतनी खर्चीली, हानिकर फैशन बनाकर 'कोल साहब' बनने का प्रयत्न उपहासास्पद ही तो समझा जा सकता है।
आप इस निरर्थक उपहासास्पद प्रयत्नों को छोड़कर आत्म सम्मान के मार्ग पर बढि़ये। अपनी वेश- भूषा में सम्मान अनुभव करिये। सादगी, किफायतसारी और संस्कृति- रक्षा जब तीनों ही बातें अपनी स्वदेशी वेश भूषा में प्राप्त होती हैं तो फिर ऐसा पहनावा क्यों पहनें, जो हानिकर भी है और आत्म- सम्मान की दृष्टि से अनावश्यक भी। आप धोती, कुर्ता पहन लीजिए। यह भारतीय पोशाक है, सादगी से भरी हुई है और अपने मन के भावों से परिपूर्ण है। "सादा जीवन, उच्च विचार" के मन्त्र से दोनों ही भावों की रक्षा स्वदेशी पोशाक पहनने से होती है। चापलूसी करने, नकलची बनने या आत्म- समर्पण करने का भाव इसमें नहीं है, वरन् आत्म गौरव और देश भक्ति का पुट है। समता, नम्रता, गम्भीरता, दूरदर्शिता और विचारशीलता को यह प्रकट करती है स्वदेश- बन्धुओं के हाथ का कता- बुना कपडा़, स्वदेशी ढंग से जब आप पहनते हैं तो इससे आत्म सम्मान के महत्वपूर्ण अंश की पूर्ति होती है। इस मार्ग पर कदम बढा़ते हुए अपनी निजी भेष भूषा को ग्रहण कर लीजिए। वस्त्रों के अतिरिक्त अन्य वस्तुऐं भी जहाँ तक सम्भव हो अपने देश की बनी हुई प्रयोग किया कीजिए तथा अपने प्रिय परिचित जनों को भी ऐसी ही प्रेरणा किया कीजिए। इससे आपके आध्यात्मिक भावों में वृद्धि होगी, आत्म- सम्मान का पथ प्रशस्त होगा।
किसी ढाँचे में अपने को ढालने के लिए आस- पास का वातावरण भी वैसा ही बनाना पड़ता है। परिस्थितियों का अप्रत्यक्ष रूप से विशेष प्रभाव पड़ता है कई व्यक्ति अच्छे विचार तो रखते हैं, पर आस- पास की बुरी परिस्थितियों को नहीं बदलते। फलतः ऐसे अवसर आ जाते हैं, जब कि उनके कार्य भी बुरे ही होने लगते हैं। अतऐव अपने दैनिक कार्यक्रम में से उन बातों को चुन- चुनकर निकाल देना चाहिए जिनके कारण आवांछनीय परिणाम उत्पन्न होने की आशंका हो। इस संशोधन में जितनी सूक्ष्म वृद्धि से काम लेंगे, उतनी ही अधिक सफलता होगी। छोटे- छोटे रोडे़ जो नित्य के अभ्यास में आ जाने के कारण कुछ बहुत बुरे नहीं मालूम पड़ते, किसी दिन दुखदायी घटना उपस्थित कर सकते हैं, इसलिए उन्हें पहनने और हटाने में ढील न करनी चाहिए। रेल की पटरी पर रखा हुआ एक छोटा सा पत्थर का टुकडा़, समूची रेल को उलट देने का कारण हो सकता है, इसी प्रकार छोटे- छोटे अनुचित प्रसंग किसी दिन आत्म सम्मान के घोर घातक प्रमाणित हो सकते हैं
मजाक के तौर पर बहुत से आदमी अश्लील शब्दों का उच्चारण करते हैं। ऐसा वे कौतूहल के लिए हलके तौर पर करते हैं, कोई विशेष स्वार्थ उनका नहीं होता पर कौतूहल ही कौतूहल में कुवचन बोलने की आदत पड़ जाती है और वह आदत किसी अपरिचित व्यक्ति के सामने अनायास ही प्रकट हो तो यह तो यह अपने मन में बहुत शीघ्र यह विश्वास जमा लेगा कि यह टुच्चा आदमी है। बेहूदे तरीके से बात करना, अकारण बेतरह दांत फाड़ना, विचित्र भाव भंगी बनाते रहना, निकृष्ट प्रसंगों को वार्तालाप का विषय बनाना, इस तरह के काम यद्यपि पापयुक्त होते हुए भी दूसरों पर यह प्रकट करते हैं कि यह आदमी हलके मिजाज का, उथला, असंस्कृत, गँवार या लुच्चा है। लोगों का इस तरह का स्वभाव अपने बारे में अकारण बने, यह कोई अच्छी बात नहीं है। आपकी मुख- मुद्रा गम्भीर रहनी चाहिए। हँसना मुस्कराना, प्रसन्न रहना एक कला है, यह एक आवश्यक गुण है, इस प्रकार बरता जाना चाहिए कि दुर्गुण न बन जाय। प्रसन्न रहने की आदत के साथ गम्भीरता, सौम्यता, तेजस्विता भी रहनी चाहिए। मुख- मुद्रा में गौरव और बड़प्पन की रेखायें भी नियोजित होनी चाहिए।
गठिया की बीमारी का इलाज करते समय कुछ दवायें खाई जाती हैं, कुछ तेल आदि दर्द की जगह पर लगाये जाते हैं। दोनों ओर से जड़ काटने पर बीमारी जल्दी अच्छी होती है। भीतर अन्तःकरण में सद्गुणों को भरते जाइये और बाहरी वेश- भूषा, मुखमुद्रा, कार्यशैली तथा आदतों को उसी ढांचे में ढालते जाइये। यह ठीक है कि सद्गुणों के साथ बाहरी रूप रेखा बदल जाती है पर यह भी ठीक है कि बाहरी वेश निर्माण से स्वभाव पर असाधारण प्रभाव पड़ता है। दवा खाने से बीमारी की जड़ कटती है, पर दर्द की जगह पर सेक, मालिस, लेप करना भी अकारथ नहीं जाता। भीतरी उपाय की भांति बाह्य उपचार भी अपना महत्व रखता है, उस महत्वपूर्ण बात को हमें उपेक्षा में नहीं डाल देना चाहिए।
आपके आस- पास की वस्तुऐं ऐसी होनी चाहिए जो आपके सद्गुणों का गौरव प्रकट करती हों। अपने शरीर को स्वच्छ रखिये, किन्हीं छिद्रों में गन्दगी न जमनी चाहिए, जिससे बदबू उडे़ और उड़कर दूसरों के कान में अपनी कुरुचि की, गन्देपन की चुगली कर आवे। वस्त्रों को स्वच्छ रखिये, उन पर न तो मैल जमा होने दीजिए न धब्बे पड़ने दीजिए। वस्त्र यद्यपि बेजबान हैं तो भी उनके हर धागों से एक वाणी निकलती है। स्वच्छ कपडा़ अपने पहनने वालों की कोटी- कोटी केन्द्रों में प्रशंसा करता है, उसकी सुरुचि का बखान करता है। आप कपडे़ की इज्जत रखिये, कपडा़ आपकी इज्जत रखेगा। अधिक कीमती मँहगा, विलायती, चमक- दमक का कपडा़ पहनने में कोई बड़प्पन नहीं है। बड़प्पन है उसे स्वच्छ और निर्मल रखने में, तरतीव से यथाक्रम पहनने में। सस्ता मोटा कपडा़ हो तो कुछ हर्ज नहीं, फट जाने पर सीं लिया गया हो तो भी कुछ हर्ज नहीं, बल्कि यह किफायतशारी और बुद्धिमानी का चिन्ह है। हर्ज लापरवाही में है, भोजन करते वक्त दाल की बूँदे कुरते पर गिर पडे़ं और पीला धब्बा चमकता रहे यह बुरी बात है। रूमाल पर मुँंह पोंछते वक्त पान का धब्बा लग जाय और वह लाल- लाल दीखे यह बुरी बात है। धोती की आधी पूँछ लटकती फिरे, कुर्ते के दो बटन टूटे हुए हों, सिलाई उधड़ गई हो, सलवटें और ऐंठन पड़ रही हो लापरवाही से पहना गया हो तो वह कपडा़ चाहे बहुमुल्य ही क्यों न हो आपकी सुस्ती, काहिली, लापरवाही की चुगली करता फिरेगा। कहते हैं कि घर का भेदी लंका ढा देता है, हो सकता है कि शरीर के साथ रहने वाला भेदी और भी कोई उपस्थित करदे।
छोटी बातों की उपेक्षा मत कीजिए, क्योंकि छोटि- छोटी वस्तुऐं मिलकर ही बडी़ वस्तु का निर्माण करती हैं। दूसरे लोगों को इतनी फुर्सत नहीं है कि वह तुम्हारे गुणों को जानें, परीक्षा करें और तब कुछ धारणा बनावें। आमतौर पर बाहरी रूप- रेखा से, छोटी- छोटी आदतों से, मुखमुद्रा से, पहनाव उडा़व और बातचीत के ढ़ग से उसके चरित्र, गुण और व्यक्तित्व की परख की जाती है। व्यावहारिक सावधानी में कुशल व्यक्ति साधारण सदगुण वाला होते हुए भी विशेष सफल रहता है, जबकि बडे़- बडे़ प्रमाणिक व्यक्ति वाह्य रूपरेखा की लापरवाही के कारण असफल हो जाते हैं, एक प्रमाणिक व्यक्ति व्यापार के सम्बम्ध में बाहर जाता हैं, उसकी चाल- ढाल, वेष- भूषा अस्त- व्यस्त, लापरवाही की है। जिस दुकानदार से वह माल के सम्बन्ध में वार्तालाप करता है, उस पर सबसे पहला प्रभाव उसके बेतरतीब कपडों़ का, अस्त- व्यस्त चाल- ढाल का पड़ता है। दुकानदार सोचता है यह लापरवाह, अव्यवहारिक और अदूरदर्शी व्यक्ति है, इसकी कार्य- व्यवस्था तथा वस्तुओं की श्रेष्ठता भी ऐसी ही होगी। यह सोचकर वह दुकानदार या तो उस व्यापारी से व्यापार नहीं करता या करता है, तो परीक्षा के लिए बहुत थोडा़। जब तक परीक्षा करके सच्चाई पर विश्वास करने का अवसर आता है, तब तक कोई दूसरा व्यापारी उस दुकानदार को प्रभावित करके बडी़ तादाद में अपना माल दे देता है। पहला व्यापारी असफल रहा, इसका कारण उसकी सच्चाई या प्रमाणिकता में कमी होना नहीं है, वरन् यह है कि वह प्रमाणिकता की कला में निपट अनाडी़ था।
निर्गुण ब्रह्म के साथ वह त्रिगुण्डमयी माया भी है, शेषशायी विष्णु के साथ लक्ष्मी शोभा बढा़ रही हैं, अवधूत शंकर के साथ देवकन्या पार्वती का सम्बन्ध है। सत्य के साथ कला की भी आवश्यकता है। जो उस कला से अपरिचित हैं वे चाहे व्यापारी, श्रमी, बुद्धिजीवी, नेता, वक्ता, कोई भी क्यों न हों, केवल सत्य के आधार पर उतनी मात्रा में सफल नहीं हो सकते, जितने सत्य के साथ कला का भी समन्वय करके हो सकते हैं। एक और एक जब मिल जाते हैं, तो उनकी शक्ति ग्यारह के बराबर हो जाती है। सत्य को प्रकट करने की कला को भी जब मनुष्य जान जाता है तो उद्देश्य की सफलता बहुत ही आसान हो जाती है।
अपने घर को, वस्त्रों को, शरीर को स्वच्छ रखा कीजिए, वस्तुओं को इस तरह तरकीब के साथ सुसज्जित रखिये जिससे वे सुन्दर प्रतीत हों साथ ही आपकी आन्तरिक सुन्दरता को प्रकट करें। अपनी हर कृति में उस पद्धति को समन्वित होने दीजिए, जिसके द्वारा आत्म- सम्मान की वृद्धि होती हो। स्वच्छ, स्वदेशी, भारतीय वेष- भूषा के वस्त्र, मल रहित छिद्रों का दुर्गन्ध रहित शरीर, गम्भीर, विवेकयुक्त, प्रमाणित मुखमुद्रा- यह तीनों ही बातें आत्म गौरव की वृद्धि करती हैं। आपके कमरे में अर्धनग्र स्त्रियों के नहीं वरन् लोक- सेवी महापुरुषों के चित्र होने चाहिए। आपकी अलमारी में बाजारू, अश्लील, पथभ्रष्ट पुस्तकें नहीं वरन् ज्ञानवृद्धि करने वाला, चरित्र निर्माण करने वाला साहित्य रहना चाहिए। आपका बैठना- उठना निकृष्ट मुहल्लों में निन्दनीय लोगों के साथ नहीं वरन् प्रतिष्ठित व्यक्तियों के साथ होना चाहिए। किसी से वार्तालाप आरम्भ करें तो उसमें उच्चता का, आदर्शवाद का पुट रहना चाहिए। नम्रता, विनय, शिष्टाचार और सद्व्यवहार को अपनी प्रधान नीति रखें, पर अन्याय और अत्याचार का विरोध करने के लिए एक वीर योद्धा की तरह सदैव प्रस्तुत रहें। बार- बार अपने कार्यों तथा विचारों पर दृष्टि डालकर यह निरीक्षण करते रहें कि आत्म- सम्मान के गिराने वाले तत्व अभी कितने अंशों में बाकी हैं और उनका निवारण शीघ्र से शीघ्र किस प्रकार किया जा सकता है?
साइन बोर्ड के आधार पर अपरिचित व्यक्ति यह जानता है कि मकान के अन्दर कौन रहता है, या क्या कारोबार होता है। मुखमुद्रा एक प्रकार का साइन बोर्ड है, जिससे प्रकट होता है कि इस देह के अन्दर रहने वाला कैसा है, किस प्रकार के गुण अवगुण उसमें हैं? आपमें अनेक अच्छे गुण हैं तो भी यदि स्वभाव परिमार्जित न हुआ, भावभङ्गी में मुखमुद्रा का गौरव प्रकट करने योग्य लहरें न हुईं तो नित्य जिन परिचित अनेक व्यक्तियों के साथ व्यवहार करते हैं, उन पर कोई अच्छा प्रभाव न डाल सकेंगे। मकान के दरवाजे पर साइनबोर्ड कुछ लगा हो और भीतर काम कुछ होता है तो खास- खास परिचित व्यक्तियों को छोड़कर साधारणः यही समझा जायगा कि इस मकान में वही काम होता है, जिसका साइनबोर्ड लगा है। मदिरा का लेबल लगी हुई बोतल में यदि गंगाजल भरा हो तो आम तौर से उसे मदिरा ही समझा जायेगा। छानबीन करके बोतलों में भरी हुई वस्तु को जानने की सुविधा और रुचि बहुत कम लोगों को होती है। साधारणः उसी पर पूरा- अधूरा विश्वास किया जाता है। आप में जब अनेक सद्गुणों का निवास है, ईमानदारी, भलमसाहत, सभ्यता, शिष्टाचार, वीरत्व जैसी उत्तम वृत्तियों को अपने में लगातार भरते चले जा रहे हैं तो यह भी आवश्यक है कि वैसी ही मुख- मुद्रा का, भ्रकुटि विलास का निर्माण करें। जब आप मणि मुक्ताओं का व्यावहार करते हैं तो क्या हर्ज है, यदि "जौहरी की दुकान" का साइनबोर्ड भी अपने कार्यालय के दरवाजे पर लगा दें। इससे आपको भी लाभ होगा और पहचानने वाले को भी आपके बारे में जानकारी प्राप्त करने के सम्बन्ध में इससे आसानी होगी।
आत्म- सम्मान को प्राप्त करने और उसकी रक्षा करने के लिए प्राणपण से चेष्टा करते रहिए, क्योंकि यह बहुमूल्य सम्पत्ति है। पैसे की तरह यह आँख से दिखाई नहीं पड़ता और पास रखने के लिए तिजोरी की जरूरत नहीं पड़ती तो भी स्पष्टतः यह धन है। हम ऐसे व्यापारियों को जानते हैं, जिनके पास अपनी एक पाई न होने पर भी दूसरों से उधार लेकर बडे़- बडे़ लम्बे- चौडे व्यापार कर डालते हैं, क्योंकि उनका बाजार में सम्मान है, ईमानदारी की प्रतिष्ठा है। हम ऐसे नौकरों को जानते हैं, जिन्हें मालिक अपने सगे बेटे की तरह प्यारा रखते हैं और उनके लिए प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से इतना पैसा खर्च कर देते हैं, जो उनके निर्धारित वेतन से अनेक गुना होता है। कारण यह है कि नौकर के सद्गुणों के कारण मालिक के मन में उसका सम्मान घर कर लेता है। गुरुओं के वचन को मानकर श्रद्धालु शिष्य अपना सर्वस्व देने के लिए तत्पर हो जाते हैं, अपनी जीवन दिशा बदल देते हैं, प्यारी वस्तु का त्याग कर देते हैं, राजमहल छोड़कर भिखारी बन जाते हैं, ऐसा इसलिए होता है कि शिष्य के मन में गुरु के प्रति अगाध सम्मान होता है, गुरु का आत्म सम्मान शिष्य को अपना वशवर्ती बना लेता है। अदालत में किसी एक की गवाही विपक्षी सौ गवाहों की बात को रद्द कर देती है, कारण यह है कि उस गवाह की प्रतिष्ठा न्यायधीश को प्रभावित कर देती है। आत्म- सम्मान ऊँची कोटी का धन है, जिसके द्वारा ऐसे महत्वपूर्ण लाभ हो सकते हैं, जो कितना ही पैसा खर्च होने पर हो सकते थे। पैसे के द्वारा लोगों के शरीर और इच्छित भोग- पदार्थ खरीद सकता है, पर प्रतिष्ठा वाला असंख्य हृदयों पर बेपैसे का शासन करता है और वह शासन इतना अटूट एवं शक्तिशाली होता है कि उसके द्वारा वे वस्तुऐं बिना माँगे मिल जाती हैं, जिनको खरीदने के लिए प्रचुर धन की आवश्यकता होती है।
आत्म सम्मान धन है। बाजार में वह पूँजी की तरह निश्चित फल देने वाला है, समाज में पूजा कराने वाला है, आत्मा को पौष्टिक भोजन देने वाला है, इसलिए हम कहते हैं कि- हे अध्यात्मवाद का आश्रय लेने वाले शूरवीर साधको ! आत्मसम्मान सम्पादित करो और प्रयत्न पूर्वक उसकी रक्षा करो।
दुष्टों से प्रेम, दुष्टता से युद्ध
एक तत्वज्ञानी का उपदेश है कि "दुष्टों पर दया करों, किन्तु दुष्टता से लडो़ मरो"। दुष्ट और दुष्टता का अन्तर किये बिना हम न्याय नहीं कर सकते हैं। अक्सर यही होता है कि लोग दुष्टता और दुष्ट को एक ही वस्तु समझ लेते हैं और एक ही ढेले से दोनों को शिकार बना देते हैं।
बीमार और बीमार एक ही वस्तु नहीं है। जो डॉक्टर बीमारी के साथ बीमार को भी मार डालने का इलाज करता है, उसकी बुद्धि को क्या कहें? एक बन्दर अपने मालिक को बहुत प्यार करता था, जब मालिक सो जाता था तो बन्दर पंखा किया करता था ताकि मक्खियां उसे न सतावें। जब तक वह पंखा झलता रहता, मक्खियाँ उड़ती रहतीं, जैसे ही वह पंखा बन्द करता कि मक्खियाँ फिर मालिक के ऊपर आकर बैठ जातीं। यह देखकर बन्दर को मक्खियों पर बडा़ क्रोध आया और उसने उनको सजा देने का निश्चय किया। वह दौड़ा हुआ गया और खूँटी पर टंगी हुई तलवार को उतार लाया। जैसे ही मक्खियाँ मालिक के मुँह पर बैठीं, वैसे ही बन्दर ने खींचकर तलवार का एक हाथ मारा। मक्खियाँ तो उड़ गईं पर मालिक का मुँह बुरी तरह जख्मी हो गया, हम लोग दुष्टता को हटाने के लिए ऐसा ही उपाय करते हैं, जैसा बन्दर ने मक्खियों को हटाने के लिए किया था।
आत्मा किसी की दुष्ट नहीं होती है, वह तो सत्य, शिव, और सुन्दर है, सच्चिदानन्द स्वरूप है। दुष्टता तो अज्ञान के कारण उत्पन्न होती है, यह अज्ञान एक प्रकार की बीमारी ही तो है। अज्ञान रूपी बीमारी को मिटाने के लिए हर उपाय काम में लाना चाहिए, परन्तु किसी से व्यक्तिगत द्वेष न मानना चाहिए। व्यक्तिगत द्वेष भाव जब मन में घर कर लेता है, तो हमारी निरीक्षण बुद्धि कुण्ठित हो जाती है। वह नहीं पहचान सकती कि शत्रु में क्या बुराई और क्या अच्छाई है। पीला चश्मा पहन लेने पर सभी वस्तुऐं पीली दिखाई पड़ने लगती हैं। इसी प्रकार स्वार्थपूर्ण द्वेष जिस मनुष्य के प्रति घर कर लेता है, उसके भले काम भी बुरे प्रतीत होते हैं और अपनी आँखों में पीलिया रोग को न समझकर दूसरे के चेहरे पर पीलापन दिखाई पड़ता है। उसे पाण्डुरोग समझकर उनका इलाज करने लगता है। इस प्रकार अपनी मूर्खता का दण्ड दूसरों पर लादता है, अपनी बीमारी की दवा दूसरों को खिलाता है। जालिम और दुष्ट, क्रोधी और पर पीड़क, इसी अज्ञान से ग्रसित होते हैं। उनके मन में स्वार्थ एवं द्वेष समाया हुआ होता है, फलस्वरूप उन्हें दूसरों में बुराइयाँ ही बुराइयाँ नजर आती हैं। सन्निपात का रोगी दुनियाँ को ग्रसित समझता है।
आप दुष्टता और दुष्ट के बीच अन्तर करना सीखिये। हर व्यक्ति को अपनी ही तरह पवित्र आत्मा समझिये और उससे आन्तिरिक प्रेम कीजिए। कोई भी प्राणी नीच, पतीत या पापी नहीं है, तत्वतः वह पवित्र ही है। भ्रम, अज्ञान और बीमारी के कारण वह कुछ का कुछ समझने लगता है। इस बुद्धि- भ्रम का ही इलाज करना है। बीमारी को मारना है और बीमारी को बचाना है। इसलिए दुष्ट और दुष्टता के बीच में फर्क करना सीखिना चाहिए। मनुष्यों से द्वेष मर रखिये, चाहे उनमें कितनी ही बुराइयाँ क्यों न हों। आप तो दुष्टता से लड़ने को तैयार रहिए, फिर वह चाहे दूसरों में हो, चाहे अपनों में हो या चाहे खुद अपने अन्दर हो।
पाप एक प्रकार का अँधेरा है, जो प्रकाश होते ही मिट सकता है। पाप को मिटाने के लिए कडुए से कडुआ प्रयत्न करन पडे़ तो आप प्रसन्नतापूर्वक कीजिए, क्योंकि वह एक ईमानदार डॉक्टर की तरह विवेकपूर्ण इलाज होगा। इस इलाज में लोक कल्याण के लिए मृत्युदण्ड तक की गुंजाइश है। किन्तु द्वेषभाव से किसी को बुरा समझ जाना या उसकी भलाइयों को भी बुराई कहना अनुचित है। जैसे एक विचारवान डॉक्टर रोगी की सच्चे हृदय से मंगल कामना करता है और निरोग बनने के लिए स्वयं कष्ट सहता हुआ जी तोड़कर परिश्रम करता है, वैसे ही आप पाप�
बाहरी रहन- सहन भी आत्म- सम्मान के उपयुक्त बनाइये !
ऊसर भूमि में बीज नहीं जमता, क्योंकि उसमें उत्पादक शक्ति का अभाव होता है। चाहे कैसा ही बढि़या बीज डालिये परिश्रमपूर्वक सिंचाई कीजिए, पर उस भूमी में हरे- भरे पल्लवित पौधे लहलहावेगें, यह आशा करना व्यर्थ है। अच्छे पौधे उसी भूमी में उगेंगे, जिसके गर्भ में उर्वरा शक्ति विद्यमान होगी। इसलिए अच्छा किसान जब बढि़या फसल की बात सोचता है तो सबसे पहले खेतों की उपजाऊ शक्ति को बढा़ने का प्रयत्न करता है। अच्छी जमीन लेता है, खाद डालता है, जुताई करता है। जब उसे विश्वास होता है कि खेत में काफी उर्वराशक्ति हो गई, तब उसमें बीज डालता है और अच्छी फसल काटता है। ऊसर एवं हीन- वीर्य खेत में बीज बो देने पर भला किसान के हाथ क्या लगेगा? बेचारे का बीज और परिश्रम मुफ्त में ही चला जायेगा। इसी प्रकार जीवन को उन्नत, प्रभावशाली, सम्पत्तिवान, बलिष्ठ, विवेकयुक्त बनाने से पूर्व इस बात की आवश्यकता है कि अन्तःकरण में आत्म सम्मान प्राप्त करने की उत्कण्ठा प्रचण्ड गति से हिलोरें मार रही हो। आवश्यकता अविष्कार की जननी है। जरूरत पड़ने पर बुद्धि उपायों की खोज करती है, जिन्हें जरूरतें नहीं, इच्छा आकांक्षा नहीं, उन्हें उपाय ढूँढ़ने का परिश्रम भी गवारा नहीं होता। जीवन को अनेक दिशाओं में उन्नत एवं समृद्ध बनाने वाली उत्पादन शक्ति का नाम है- "आत्मसम्मान की आकांक्षा।" जो अपने को प्रतिष्ठित, बडा़ आदमी, महापुरुष, अधिकारी बनाना चाहता है, वह उसके लिए उपाय ढूँढेगा और यह सच्चाई सूर्य की तरह स्पष्ट है- ढूँढ़ने वाले को मिलता है'। जिसने खोजा है, उसने पाया है।
विद्वता, धन, पदवी, अधिकार, कला- कौशल, उत्तम स्वास्थ्य, ऐश्वर्य, नेतृत्व आदि प्रतिष्ठास्पद पदार्थ प्राप्त करने के लिए जितने परिश्रम, प्रयत्न और धैर्य की आवश्यक्ता है वह यों ही उत्पन्न नहीं हो जाता। तामसी वृत्तियाँ सदैव आलस्य और अर्कमण्यता की ओर झुकती हैं, इसलिए अक्सर ऐसे विचार भी उठ सकते हैं कि जो है उसी में सन्तुष्ट रहो, कोशिश करने में क्या फायदा? भाग्य का होगा तो घर बैठे मिल जायगा।' अर्कमण्यता के साथ आलस्य आता है, बुद्धि और शरीर से कडी़ मेहनत लेना तामसी वृत्तियाँ नापसंद करती हैं। वे चाहती हैं कि बिना मेहनत किये काम चल जाय, आराम से पडा़ रहा जाय। हम देखते हैं कि इन्हीं तामसी वृत्तियों में अधिकांश व्यक्तियों का अधिकांश जीवन ग्रसित रहता है। तदनुसार वे अपने अन्दर छिपे पडे़ हुए शक्तियों के अतुलित भण्डार को यों ही निकम्मा पडा़ रहने देते हैं और अर्धमूर्छित अवस्था में जीवन- क्रम चलाते हुए आयु को पूर्ण कर जाते हैं। अच्छी परिस्थितियाँ और सुविधाऐं मिलने पर भी कोई विशेष उन्नति नहीं हो सकती, यदि मनुष्य के अन्दर महत्वाकाँक्षा न हो। वे ही लोग ऊँचे उठ सकते हैं,
सफल जीवन हो सकते हैं, जो उस प्रकार की इच्छा अकांक्षा करते हैं। यह इच्छाऐं जब प्रबल होती हैं तो शरीर और मस्तिष्क की शक्तियों को उसी प्रकार जबरदस्ती खींच ले जाती हैं, जैसे तेज चलने वाला आतुर घोडा़ जिस रथ में जुतता है, उसे सरपट दौडा़ ले जाता है। अपना गौरव बढा़ने की, सम्मान प्राप्त करने की, अपनी महत्ता प्रकट करने की महत्वाकांक्षा जब जोर मारती है तो योग्यतायें और शक्तियाँ अपना- अपना काम पूरा करने में जुट जाती हैं और जो कार्य पर्वत के समान दुर्गम दिखाई पड़ते हैं, वे बडी़ आसानी से पूरे हो जाते हैं। संचित योग्यताऐं तो अपना काम करती ही हैं, साथ ही आवश्यकता के दबाव के कारण सोई हुई अविकसित शक्तियाँ भी जागृत होकर क्रियाशील बनती जाती हैं। मानवीय शक्तियों की संख्या और मात्रा में दिन- दिन उन्नति होती जाती है। जो व्यक्ति पहले मन्द बुद्धि, दुर्बल, शरीर आलसी, हतवीर्य दिखाई पड़ते थे, वे ही आत्म- सम्मान की आकांक्षा को तीव्र करके जब कर्त्तव्य- पथ पर चल पडे़ तो इतने तीव्र बुद्धि, स्वस्थ कर्मनिष्ठ और तेजस्वी सिद्ध हुए, जिसकी आशा उनके आरम्भिक जीवन में बिल्कुल नहीं होती थी।
मानव- तत्त्व की खोज करने वाले आचार्य इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सम्पूर्ण प्रकार की उन्नतियाँ आत्म- सम्मान की महत्वाकाक्षाँ से प्रेरित होने पर ही होती हैं। स्फूर्ति, उत्साह, विवेचना, खोज, साहस, परिश्रम और धैर्य- यह सब उन्नति के अग्रदूत एवं महत्त्वाकांक्षा के अभिन्न सहचर हैं। जब आत्मा किसी प्यास में बेचैन होकर सचमुच यह पुकार करती है कि 'मुझे अमुक वस्तु चाहिए' तो उसकी सारी सेविकायें प्रमाद छोड़कर उठ खडी़ होती हैं और अपनी रानी की मनोवंछा पूरी करने में जाँ- फिसानी से जुट जाती हैं। सेविकायें तभी तक आलस्य, प्रमाद हुक्म- अदूली करती हैं, जब तक कि मालकिन की इच्छा और आज्ञा अस्पष्ट, अधूरी होती है, तीव्र इच्छा का पालन भी तीव्र गति से होता है। चाह होने पर राह निकलती है। इच्छा की शक्ति महान है, उस महा शक्ति के लिए इस संसार में कोई भी वस्तु प्राप्त करना असम्भव नहीं है। इन्हीं सब बातों पर गंभीर विवेचना करने के उपरान्त शास्त्र ने यह उपदेश किया है कि इस संसार में समृद्धि, सौभाग्य और परलोक में सुख- शान्ति प्राप्त करने वालों की इच्छा करने वालों को अपने आत्म सम्मान को बढा़ने और उसकी रक्षा करने का प्रयत्न करना चाहिए। आध्यात्मिक गुणों में "आत्म- सम्मान" का स्थान बहुत ऊँचा है, क्योंकि यह प्रेरणाओं का केन्द्र है। बिजलीघर का शक्ति- स्त्रोत नगर की सारी बत्तियों को प्रकाशवान बना देता है। अकर्म करने से रोकता है और सत्कर्मों में प्रवृत्त करता है। अपने चारों ओर ऐसे धर्मयुक्त, सुख, शान्तिमय पुनीत वातावरण का निर्माण कर देता है, जिसमें रहकर मनुष्य हर घडी़ यह अनुभव करता है कि मैंने अपने जीवन का सदुपयोग किया, जीवन- फल पाया और भूलोक के अमृत का प्रत्यक्ष रूप से आस्वादन किया।
आत्म- सम्मान की प्रारम्भिक शिक्षा के लिए एक बहुत पुराना मन्त्र है, जो आज की परिस्थितियों में भी ज्यों का त्यों उपयोगी बना हुआ है। वह मन्त्र है- "सादा जीवन, उच्च विचार।" प्राचीन समय में बालकपन से लेकर वृद्धावस्था तक इसी ढाँचे में लोगों के जीवन ढले रहते थे। आज बेतरह का जमाना बरत रहा है जीवन को बनावटी और विचारों को नीच बनाने की लत लोगों को पड़ती जाती है। भ्रमवश वे ऐसा समझते हैं कि हमारी बनावटी चमक- दमक के भुलावे में आकर लोग हमें बडा़ आदमी समझने लगेंगे। वे अपनी औकात से अधिक टीमटाम बनाते हैं। विलायती फैशन की नकल, पहनने- ओढ़ने, खाने- पीने, बोलने- चालने में करते हैं, वे सोचते हैं कि अंग्रेज लोग हिन्दुस्तान के शासक हैं, उन्होंने तरह- तरह के आविष्कार किये हैं। हिन्दुस्तानी लोग उनसे डरते हैं, इसलिए उनकी नकल हम बनावें तो लोग हमें भी आधा अंग्रेज समझकर खौफ खाने लगेंगे। फलतः अंग्रेजी बाल रखते हैं, अंग्रेजी फैशन के कपडे़ पहनते हैं, अंग्रेजी ढंग का आहार चाय, बिस्कुट, सोडा, शराब, सिगरेट व्यवहार करते हैं, टूटी- फूटी अंग्रेजी में ही बात करते हैं।
जिस इच्छा से भ्रमवश इस प्रयत्न को वे करते हैं, फल उससे बिल्कुल उल्टा होता है। कारण यह कि इस देश की गरम आवहवा में यूरोप के शीत प्रधान देशों की चाल ढाल बिल्कुल मौजूँ नहीं वरन् उल्टी हानिकारक है, इससे उनके स्वास्थ्य पर बडा़ बुरा असर पड़ता है। दूसरी बात यह है कि अनुपयुक्त और बुरे उद्देश्य से की हुई नकल सदा उपहासास्पद होती है। कहानी है कि- एक कौआ मोर के पंख लगाकर मोर बनने लगा, इस पर मोर और कौए दोनों उस पर क्रुद्ध हो गये और दोनों ने उसे बहिष्कृत कर दिया। राजनैतिक कारणों से वाह्यतः कोई शासक यह भले ही पसंद करे कि हिन्दुस्तानी लोग अंग्रेजी जामें में केसे फिरें, पर मन ही मन वे भी उनकी कायर वृत्ति पर तिरस्कार करते होगें। वे सोचते होंगे, यह लोग हमारी खुशामद के लिए ऐसे कपडे़ पहनते हैं अन्यथा यदि इन्हें हमारे सद्गुणों की नकल करनी थी तो यह नकल करते कि हम लोग यूरोप के ठण्डे देश की पोशाक इस देश में अनुपयुक्त होते हुए भी अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए पहनते हैं और जो थोडी़ कठिनाई पड़ती है, उसे भी सहन करते हैं। इसी प्रकार भारतीय लोग अपनी उस पोशाक को न छोडे़ं, जो उनके लिए सर्वथा उपयुक्त है और संस्कृति का चिन्ह भी है। समझदार भारतीय भी उनके इस मोर बनने के प्रयास पर हँसते हैं। इतनी खर्चीली, हानिकर फैशन बनाकर 'कोल साहब' बनने का प्रयत्न उपहासास्पद ही तो समझा जा सकता है।
आप इस निरर्थक उपहासास्पद प्रयत्नों को छोड़कर आत्म सम्मान के मार्ग पर बढि़ये। अपनी वेश- भूषा में सम्मान अनुभव करिये। सादगी, किफायतसारी और संस्कृति- रक्षा जब तीनों ही बातें अपनी स्वदेशी वेश भूषा में प्राप्त होती हैं तो फिर ऐसा पहनावा क्यों पहनें, जो हानिकर भी है और आत्म- सम्मान की दृष्टि से अनावश्यक भी। आप धोती, कुर्ता पहन लीजिए। यह भारतीय पोशाक है, सादगी से भरी हुई है और अपने मन के भावों से परिपूर्ण है। "सादा जीवन, उच्च विचार" के मन्त्र से दोनों ही भावों की रक्षा स्वदेशी पोशाक पहनने से होती है। चापलूसी करने, नकलची बनने या आत्म- समर्पण करने का भाव इसमें नहीं है, वरन् आत्म गौरव और देश भक्ति का पुट है। समता, नम्रता, गम्भीरता, दूरदर्शिता और विचारशीलता को यह प्रकट करती है स्वदेश- बन्धुओं के हाथ का कता- बुना कपडा़, स्वदेशी ढंग से जब आप पहनते हैं तो इससे आत्म सम्मान के महत्वपूर्ण अंश की पूर्ति होती है। इस मार्ग पर कदम बढा़ते हुए अपनी निजी भेष भूषा को ग्रहण कर लीजिए। वस्त्रों के अतिरिक्त अन्य वस्तुऐं भी जहाँ तक सम्भव हो अपने देश की बनी हुई प्रयोग किया कीजिए तथा अपने प्रिय परिचित जनों को भी ऐसी ही प्रेरणा किया कीजिए। इससे आपके आध्यात्मिक भावों में वृद्धि होगी, आत्म- सम्मान का पथ प्रशस्त होगा।
किसी ढाँचे में अपने को ढालने के लिए आस- पास का वातावरण भी वैसा ही बनाना पड़ता है। परिस्थितियों का अप्रत्यक्ष रूप से विशेष प्रभाव पड़ता है कई व्यक्ति अच्छे विचार तो रखते हैं, पर आस- पास की बुरी परिस्थितियों को नहीं बदलते। फलतः ऐसे अवसर आ जाते हैं, जब कि उनके कार्य भी बुरे ही होने लगते हैं। अतऐव अपने दैनिक कार्यक्रम में से उन बातों को चुन- चुनकर निकाल देना चाहिए जिनके कारण आवांछनीय परिणाम उत्पन्न होने की आशंका हो। इस संशोधन में जितनी सूक्ष्म वृद्धि से काम लेंगे, उतनी ही अधिक सफलता होगी। छोटे- छोटे रोडे़ जो नित्य के अभ्यास में आ जाने के कारण कुछ बहुत बुरे नहीं मालूम पड़ते, किसी दिन दुखदायी घटना उपस्थित कर सकते हैं, इसलिए उन्हें पहनने और हटाने में ढील न करनी चाहिए। रेल की पटरी पर रखा हुआ एक छोटा सा पत्थर का टुकडा़, समूची रेल को उलट देने का कारण हो सकता है, इसी प्रकार छोटे- छोटे अनुचित प्रसंग किसी दिन आत्म सम्मान के घोर घातक प्रमाणित हो सकते हैं
मजाक के तौर पर बहुत से आदमी अश्लील शब्दों का उच्चारण करते हैं। ऐसा वे कौतूहल के लिए हलके तौर पर करते हैं, कोई विशेष स्वार्थ उनका नहीं होता पर कौतूहल ही कौतूहल में कुवचन बोलने की आदत पड़ जाती है और वह आदत किसी अपरिचित व्यक्ति के सामने अनायास ही प्रकट हो तो यह तो यह अपने मन में बहुत शीघ्र यह विश्वास जमा लेगा कि यह टुच्चा आदमी है। बेहूदे तरीके से बात करना, अकारण बेतरह दांत फाड़ना, विचित्र भाव भंगी बनाते रहना, निकृष्ट प्रसंगों को वार्तालाप का विषय बनाना, इस तरह के काम यद्यपि पापयुक्त होते हुए भी दूसरों पर यह प्रकट करते हैं कि यह आदमी हलके मिजाज का, उथला, असंस्कृत, गँवार या लुच्चा है। लोगों का इस तरह का स्वभाव अपने बारे में अकारण बने, यह कोई अच्छी बात नहीं है। आपकी मुख- मुद्रा गम्भीर रहनी चाहिए। हँसना मुस्कराना, प्रसन्न रहना एक कला है, यह एक आवश्यक गुण है, इस प्रकार बरता जाना चाहिए कि दुर्गुण न बन जाय। प्रसन्न रहने की आदत के साथ गम्भीरता, सौम्यता, तेजस्विता भी रहनी चाहिए। मुख- मुद्रा में गौरव और बड़प्पन की रेखायें भी नियोजित होनी चाहिए।
गठिया की बीमारी का इलाज करते समय कुछ दवायें खाई जाती हैं, कुछ तेल आदि दर्द की जगह पर लगाये जाते हैं। दोनों ओर से जड़ काटने पर बीमारी जल्दी अच्छी होती है। भीतर अन्तःकरण में सद्गुणों को भरते जाइये और बाहरी वेश- भूषा, मुखमुद्रा, कार्यशैली तथा आदतों को उसी ढांचे में ढालते जाइये। यह ठीक है कि सद्गुणों के साथ बाहरी रूप रेखा बदल जाती है पर यह भी ठीक है कि बाहरी वेश निर्माण से स्वभाव पर असाधारण प्रभाव पड़ता है। दवा खाने से बीमारी की जड़ कटती है, पर दर्द की जगह पर सेक, मालिस, लेप करना भी अकारथ नहीं जाता। भीतरी उपाय की भांति बाह्य उपचार भी अपना महत्व रखता है, उस महत्वपूर्ण बात को हमें उपेक्षा में नहीं डाल देना चाहिए।
आपके आस- पास की वस्तुऐं ऐसी होनी चाहिए जो आपके सद्गुणों का गौरव प्रकट करती हों। अपने शरीर को स्वच्छ रखिये, किन्हीं छिद्रों में गन्दगी न जमनी चाहिए, जिससे बदबू उडे़ और उड़कर दूसरों के कान में अपनी कुरुचि की, गन्देपन की चुगली कर आवे। वस्त्रों को स्वच्छ रखिये, उन पर न तो मैल जमा होने दीजिए न धब्बे पड़ने दीजिए। वस्त्र यद्यपि बेजबान हैं तो भी उनके हर धागों से एक वाणी निकलती है। स्वच्छ कपडा़ अपने पहनने वालों की कोटी- कोटी केन्द्रों में प्रशंसा करता है, उसकी सुरुचि का बखान करता है। आप कपडे़ की इज्जत रखिये, कपडा़ आपकी इज्जत रखेगा। अधिक कीमती मँहगा, विलायती, चमक- दमक का कपडा़ पहनने में कोई बड़प्पन नहीं है। बड़प्पन है उसे स्वच्छ और निर्मल रखने में, तरतीव से यथाक्रम पहनने में। सस्ता मोटा कपडा़ हो तो कुछ हर्ज नहीं, फट जाने पर सीं लिया गया हो तो भी कुछ हर्ज नहीं, बल्कि यह किफायतशारी और बुद्धिमानी का चिन्ह है। हर्ज लापरवाही में है, भोजन करते वक्त दाल की बूँदे कुरते पर गिर पडे़ं और पीला धब्बा चमकता रहे यह बुरी बात है। रूमाल पर मुँंह पोंछते वक्त पान का धब्बा लग जाय और वह लाल- लाल दीखे यह बुरी बात है। धोती की आधी पूँछ लटकती फिरे, कुर्ते के दो बटन टूटे हुए हों, सिलाई उधड़ गई हो, सलवटें और ऐंठन पड़ रही हो लापरवाही से पहना गया हो तो वह कपडा़ चाहे बहुमुल्य ही क्यों न हो आपकी सुस्ती, काहिली, लापरवाही की चुगली करता फिरेगा। कहते हैं कि घर का भेदी लंका ढा देता है, हो सकता है कि शरीर के साथ रहने वाला भेदी और भी कोई उपस्थित करदे।
छोटी बातों की उपेक्षा मत कीजिए, क्योंकि छोटि- छोटी वस्तुऐं मिलकर ही बडी़ वस्तु का निर्माण करती हैं। दूसरे लोगों को इतनी फुर्सत नहीं है कि वह तुम्हारे गुणों को जानें, परीक्षा करें और तब कुछ धारणा बनावें। आमतौर पर बाहरी रूप- रेखा से, छोटी- छोटी आदतों से, मुखमुद्रा से, पहनाव उडा़व और बातचीत के ढ़ग से उसके चरित्र, गुण और व्यक्तित्व की परख की जाती है। व्यावहारिक सावधानी में कुशल व्यक्ति साधारण सदगुण वाला होते हुए भी विशेष सफल रहता है, जबकि बडे़- बडे़ प्रमाणिक व्यक्ति वाह्य रूपरेखा की लापरवाही के कारण असफल हो जाते हैं, एक प्रमाणिक व्यक्ति व्यापार के सम्बम्ध में बाहर जाता हैं, उसकी चाल- ढाल, वेष- भूषा अस्त- व्यस्त, लापरवाही की है। जिस दुकानदार से वह माल के सम्बन्ध में वार्तालाप करता है, उस पर सबसे पहला प्रभाव उसके बेतरतीब कपडों़ का, अस्त- व्यस्त चाल- ढाल का पड़ता है। दुकानदार सोचता है यह लापरवाह, अव्यवहारिक और अदूरदर्शी व्यक्ति है, इसकी कार्य- व्यवस्था तथा वस्तुओं की श्रेष्ठता भी ऐसी ही होगी। यह सोचकर वह दुकानदार या तो उस व्यापारी से व्यापार नहीं करता या करता है, तो परीक्षा के लिए बहुत थोडा़। जब तक परीक्षा करके सच्चाई पर विश्वास करने का अवसर आता है, तब तक कोई दूसरा व्यापारी उस दुकानदार को प्रभावित करके बडी़ तादाद में अपना माल दे देता है। पहला व्यापारी असफल रहा, इसका कारण उसकी सच्चाई या प्रमाणिकता में कमी होना नहीं है, वरन् यह है कि वह प्रमाणिकता की कला में निपट अनाडी़ था।
निर्गुण ब्रह्म के साथ वह त्रिगुण्डमयी माया भी है, शेषशायी विष्णु के साथ लक्ष्मी शोभा बढा़ रही हैं, अवधूत शंकर के साथ देवकन्या पार्वती का सम्बन्ध है। सत्य के साथ कला की भी आवश्यकता है। जो उस कला से अपरिचित हैं वे चाहे व्यापारी, श्रमी, बुद्धिजीवी, नेता, वक्ता, कोई भी क्यों न हों, केवल सत्य के आधार पर उतनी मात्रा में सफल नहीं हो सकते, जितने सत्य के साथ कला का भी समन्वय करके हो सकते हैं। एक और एक जब मिल जाते हैं, तो उनकी शक्ति ग्यारह के बराबर हो जाती है। सत्य को प्रकट करने की कला को भी जब मनुष्य जान जाता है तो उद्देश्य की सफलता बहुत ही आसान हो जाती है।
अपने घर को, वस्त्रों को, शरीर को स्वच्छ रखा कीजिए, वस्तुओं को इस तरह तरकीब के साथ सुसज्जित रखिये जिससे वे सुन्दर प्रतीत हों साथ ही आपकी आन्तरिक सुन्दरता को प्रकट करें। अपनी हर कृति में उस पद्धति को समन्वित होने दीजिए, जिसके द्वारा आत्म- सम्मान की वृद्धि होती हो। स्वच्छ, स्वदेशी, भारतीय वेष- भूषा के वस्त्र, मल रहित छिद्रों का दुर्गन्ध रहित शरीर, गम्भीर, विवेकयुक्त, प्रमाणित मुखमुद्रा- यह तीनों ही बातें आत्म गौरव की वृद्धि करती हैं। आपके कमरे में अर्धनग्र स्त्रियों के नहीं वरन् लोक- सेवी महापुरुषों के चित्र होने चाहिए। आपकी अलमारी में बाजारू, अश्लील, पथभ्रष्ट पुस्तकें नहीं वरन् ज्ञानवृद्धि करने वाला, चरित्र निर्माण करने वाला साहित्य रहना चाहिए। आपका बैठना- उठना निकृष्ट मुहल्लों में निन्दनीय लोगों के साथ नहीं वरन् प्रतिष्ठित व्यक्तियों के साथ होना चाहिए। किसी से वार्तालाप आरम्भ करें तो उसमें उच्चता का, आदर्शवाद का पुट रहना चाहिए। नम्रता, विनय, शिष्टाचार और सद्व्यवहार को अपनी प्रधान नीति रखें, पर अन्याय और अत्याचार का विरोध करने के लिए एक वीर योद्धा की तरह सदैव प्रस्तुत रहें। बार- बार अपने कार्यों तथा विचारों पर दृष्टि डालकर यह निरीक्षण करते रहें कि आत्म- सम्मान के गिराने वाले तत्व अभी कितने अंशों में बाकी हैं और उनका निवारण शीघ्र से शीघ्र किस प्रकार किया जा सकता है?
साइन बोर्ड के आधार पर अपरिचित व्यक्ति यह जानता है कि मकान के अन्दर कौन रहता है, या क्या कारोबार होता है। मुखमुद्रा एक प्रकार का साइन बोर्ड है, जिससे प्रकट होता है कि इस देह के अन्दर रहने वाला कैसा है, किस प्रकार के गुण अवगुण उसमें हैं? आपमें अनेक अच्छे गुण हैं तो भी यदि स्वभाव परिमार्जित न हुआ, भावभङ्गी में मुखमुद्रा का गौरव प्रकट करने योग्य लहरें न हुईं तो नित्य जिन परिचित अनेक व्यक्तियों के साथ व्यवहार करते हैं, उन पर कोई अच्छा प्रभाव न डाल सकेंगे। मकान के दरवाजे पर साइनबोर्ड कुछ लगा हो और भीतर काम कुछ होता है तो खास- खास परिचित व्यक्तियों को छोड़कर साधारणः यही समझा जायगा कि इस मकान में वही काम होता है, जिसका साइनबोर्ड लगा है। मदिरा का लेबल लगी हुई बोतल में यदि गंगाजल भरा हो तो आम तौर से उसे मदिरा ही समझा जायेगा। छानबीन करके बोतलों में भरी हुई वस्तु को जानने की सुविधा और रुचि बहुत कम लोगों को होती है। साधारणः उसी पर पूरा- अधूरा विश्वास किया जाता है। आप में जब अनेक सद्गुणों का निवास है, ईमानदारी, भलमसाहत, सभ्यता, शिष्टाचार, वीरत्व जैसी उत्तम वृत्तियों को अपने में लगातार भरते चले जा रहे हैं तो यह भी आवश्यक है कि वैसी ही मुख- मुद्रा का, भ्रकुटि विलास का निर्माण करें। जब आप मणि मुक्ताओं का व्यावहार करते हैं तो क्या हर्ज है, यदि "जौहरी की दुकान" का साइनबोर्ड भी अपने कार्यालय के दरवाजे पर लगा दें। इससे आपको भी लाभ होगा और पहचानने वाले को भी आपके बारे में जानकारी प्राप्त करने के सम्बन्ध में इससे आसानी होगी।
आत्म- सम्मान को प्राप्त करने और उसकी रक्षा करने के लिए प्राणपण से चेष्टा करते रहिए, क्योंकि यह बहुमूल्य सम्पत्ति है। पैसे की तरह यह आँख से दिखाई नहीं पड़ता और पास रखने के लिए तिजोरी की जरूरत नहीं पड़ती तो भी स्पष्टतः यह धन है। हम ऐसे व्यापारियों को जानते हैं, जिनके पास अपनी एक पाई न होने पर भी दूसरों से उधार लेकर बडे़- बडे़ लम्बे- चौडे व्यापार कर डालते हैं, क्योंकि उनका बाजार में सम्मान है, ईमानदारी की प्रतिष्ठा है। हम ऐसे नौकरों को जानते हैं, जिन्हें मालिक अपने सगे बेटे की तरह प्यारा रखते हैं और उनके लिए प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से इतना पैसा खर्च कर देते हैं, जो उनके निर्धारित वेतन से अनेक गुना होता है। कारण यह है कि नौकर के सद्गुणों के कारण मालिक के मन में उसका सम्मान घर कर लेता है। गुरुओं के वचन को मानकर श्रद्धालु शिष्य अपना सर्वस्व देने के लिए तत्पर हो जाते हैं, अपनी जीवन दिशा बदल देते हैं, प्यारी वस्तु का त्याग कर देते हैं, राजमहल छोड़कर भिखारी बन जाते हैं, ऐसा इसलिए होता है कि शिष्य के मन में गुरु के प्रति अगाध सम्मान होता है, गुरु का आत्म सम्मान शिष्य को अपना वशवर्ती बना लेता है। अदालत में किसी एक की गवाही विपक्षी सौ गवाहों की बात को रद्द कर देती है, कारण यह है कि उस गवाह की प्रतिष्ठा न्यायधीश को प्रभावित कर देती है। आत्म- सम्मान ऊँची कोटी का धन है, जिसके द्वारा ऐसे महत्वपूर्ण लाभ हो सकते हैं, जो कितना ही पैसा खर्च होने पर हो सकते थे। पैसे के द्वारा लोगों के शरीर और इच्छित भोग- पदार्थ खरीद सकता है, पर प्रतिष्ठा वाला असंख्य हृदयों पर बेपैसे का शासन करता है और वह शासन इतना अटूट एवं शक्तिशाली होता है कि उसके द्वारा वे वस्तुऐं बिना माँगे मिल जाती हैं, जिनको खरीदने के लिए प्रचुर धन की आवश्यकता होती है।
आत्म सम्मान धन है। बाजार में वह पूँजी की तरह निश्चित फल देने वाला है, समाज में पूजा कराने वाला है, आत्मा को पौष्टिक भोजन देने वाला है, इसलिए हम कहते हैं कि- हे अध्यात्मवाद का आश्रय लेने वाले शूरवीर साधको ! आत्मसम्मान सम्पादित करो और प्रयत्न पूर्वक उसकी रक्षा करो।
दुष्टों से प्रेम, दुष्टता से युद्ध
एक तत्वज्ञानी का उपदेश है कि "दुष्टों पर दया करों, किन्तु दुष्टता से लडो़ मरो"। दुष्ट और दुष्टता का अन्तर किये बिना हम न्याय नहीं कर सकते हैं। अक्सर यही होता है कि लोग दुष्टता और दुष्ट को एक ही वस्तु समझ लेते हैं और एक ही ढेले से दोनों को शिकार बना देते हैं।
बीमार और बीमार एक ही वस्तु नहीं है। जो डॉक्टर बीमारी के साथ बीमार को भी मार डालने का इलाज करता है, उसकी बुद्धि को क्या कहें? एक बन्दर अपने मालिक को बहुत प्यार करता था, जब मालिक सो जाता था तो बन्दर पंखा किया करता था ताकि मक्खियां उसे न सतावें। जब तक वह पंखा झलता रहता, मक्खियाँ उड़ती रहतीं, जैसे ही वह पंखा बन्द करता कि मक्खियाँ फिर मालिक के ऊपर आकर बैठ जातीं। यह देखकर बन्दर को मक्खियों पर बडा़ क्रोध आया और उसने उनको सजा देने का निश्चय किया। वह दौड़ा हुआ गया और खूँटी पर टंगी हुई तलवार को उतार लाया। जैसे ही मक्खियाँ मालिक के मुँह पर बैठीं, वैसे ही बन्दर ने खींचकर तलवार का एक हाथ मारा। मक्खियाँ तो उड़ गईं पर मालिक का मुँह बुरी तरह जख्मी हो गया, हम लोग दुष्टता को हटाने के लिए ऐसा ही उपाय करते हैं, जैसा बन्दर ने मक्खियों को हटाने के लिए किया था।
आत्मा किसी की दुष्ट नहीं होती है, वह तो सत्य, शिव, और सुन्दर है, सच्चिदानन्द स्वरूप है। दुष्टता तो अज्ञान के कारण उत्पन्न होती है, यह अज्ञान एक प्रकार की बीमारी ही तो है। अज्ञान रूपी बीमारी को मिटाने के लिए हर उपाय काम में लाना चाहिए, परन्तु किसी से व्यक्तिगत द्वेष न मानना चाहिए। व्यक्तिगत द्वेष भाव जब मन में घर कर लेता है, तो हमारी निरीक्षण बुद्धि कुण्ठित हो जाती है। वह नहीं पहचान सकती कि शत्रु में क्या बुराई और क्या अच्छाई है। पीला चश्मा पहन लेने पर सभी वस्तुऐं पीली दिखाई पड़ने लगती हैं। इसी प्रकार स्वार्थपूर्ण द्वेष जिस मनुष्य के प्रति घर कर लेता है, उसके भले काम भी बुरे प्रतीत होते हैं और अपनी आँखों में पीलिया रोग को न समझकर दूसरे के चेहरे पर पीलापन दिखाई पड़ता है। उसे पाण्डुरोग समझकर उनका इलाज करने लगता है। इस प्रकार अपनी मूर्खता का दण्ड दूसरों पर लादता है, अपनी बीमारी की दवा दूसरों को खिलाता है। जालिम और दुष्ट, क्रोधी और पर पीड़क, इसी अज्ञान से ग्रसित होते हैं। उनके मन में स्वार्थ एवं द्वेष समाया हुआ होता है, फलस्वरूप उन्हें दूसरों में बुराइयाँ ही बुराइयाँ नजर आती हैं। सन्निपात का रोगी दुनियाँ को ग्रसित समझता है।
आप दुष्टता और दुष्ट के बीच अन्तर करना सीखिये। हर व्यक्ति को अपनी ही तरह पवित्र आत्मा समझिये और उससे आन्तिरिक प्रेम कीजिए। कोई भी प्राणी नीच, पतीत या पापी नहीं है, तत्वतः वह पवित्र ही है। भ्रम, अज्ञान और बीमारी के कारण वह कुछ का कुछ समझने लगता है। इस बुद्धि- भ्रम का ही इलाज करना है। बीमारी को मारना है और बीमारी को बचाना है। इसलिए दुष्ट और दुष्टता के बीच में फर्क करना सीखिना चाहिए। मनुष्यों से द्वेष मर रखिये, चाहे उनमें कितनी ही बुराइयाँ क्यों न हों। आप तो दुष्टता से लड़ने को तैयार रहिए, फिर वह चाहे दूसरों में हो, चाहे अपनों में हो या चाहे खुद अपने अन्दर हो।
पाप एक प्रकार का अँधेरा है, जो प्रकाश होते ही मिट सकता है। पाप को मिटाने के लिए कडुए से कडुआ प्रयत्न करन पडे़ तो आप प्रसन्नतापूर्वक कीजिए, क्योंकि वह एक ईमानदार डॉक्टर की तरह विवेकपूर्ण इलाज होगा। इस इलाज में लोक कल्याण के लिए मृत्युदण्ड तक की गुंजाइश है। किन्तु द्वेषभाव से किसी को बुरा समझ जाना या उसकी भलाइयों को भी बुराई कहना अनुचित है। जैसे एक विचारवान डॉक्टर रोगी की सच्चे हृदय से मंगल कामना करता है और निरोग बनने के लिए स्वयं कष्ट सहता हुआ जी तोड़कर परिश्रम करता है, वैसे ही आप पाप�