Books - उपासना के दो चरण जप व ध्यान
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Language: HINDI
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जप योग की विधि व्यवस्था
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प्रतीक उपासना की पार्थिव पूजा के कितने ही कर्मकाण्डों का प्रचलन है। तीर्थयात्रा, देवदर्शन, स्तवन, पाठ, षोडशोपचार, परिक्रमा, अभिषेक, शोभायात्रा, श्रद्धांजलि, रात्रि-जागरण, कीर्तन आदि अनेकों विधियां विभिन्न क्षेत्रों और वर्गों में अपने-अपने ढंग से विनिर्मित और प्रचलित हैं। इससे आगे का अगला स्तर वह है, जिसमें उपकरणों का प्रयोग न्यूनतम होता है और अधिकांश कृत्य मानसिक एवं भावनात्मक रूप से ही सम्पन्न करना पड़ता है। यों शारीरिक हलचलों, श्रम और प्रक्रियाओं का समन्वय उनमें भी रहता ही है।
उच्चस्तरीय साधना क्रम में मध्यवर्ती विधान के अन्तर्गत प्रधानतया दो कृत्य आते हैं। (1) जप (2) ध्यान। न केवल भारतीय परम्परा में वरन् समस्त विश्व के विभिन्न साधना प्रचलनों में भी किसी न किसी रूप में इन्हीं दो का सहारा लिया गया है। प्रकार कई हो सकते हैं, पर उन्हें इन दो वर्गों के ही अंग-प्रत्यंग के रूप में देखा जा सकता है।
साधना की अन्तिम स्थिति में शारीरिक या मानसिक कोई कृत्य करना शेष नहीं रहता। मात्र अनुभूति, संवेदना, भावना तथा संकल्प शक्ति के सहारे विचार रहित शून्यावस्था प्राप्त की जाती है। इसी को समाधि अथवा तुरियावस्था कहते हैं। ब्रह्मानन्द का परमानन्द का अनुभव इसी स्थिति में होता है। इसे ईश्वर और जीव के मिलन की चरम अनुभूति कह सकते हैं। इस स्थान पर पहुंचने से ईश्वर प्राप्ति का जीवन लक्ष्य पूरा हो जाता है। यह स्तर समयानुसार आत्म-विकास का क्रम पूरा करते चलने से ही उपलब्ध होता है। उतावली में काम बनता नहीं बिगड़ता है। तुर्त-फुर्त ईश्वर दर्शन, समाधि स्थिति, कुण्डलिनी जागरण, शक्तिपात जैसी आतुरता से बालबुद्धि का परिचय भर दिया जा सकता है, प्रयोजन कुछ सिद्ध नहीं होता। शरीर को सत्कर्मों में और मन को सद्विचारों में ही अपनाये रहने से जीव सत्ता का उतना परिष्कार हो सकता है, जिससे वह स्थूल और सूक्ष्म शरीरों को समुन्नत बनाते हुए कारण शरीर के उत्कर्ष से संबद्ध दिव्य अनुभूतियां और दिव्य सिद्धियां प्राप्त कर सके।
समयानुसार उस अन्तिम स्थिति की—कालेज पाठ्यक्रम की भी—शिक्षा उपलब्ध हो जाती है। ऐसी दिव्य सत्ताएं इस संसार में मौजूद हैं जो पात्रता के तालाब को बादलों की तरह बरस कर सदा भरा पूरा रखने को अयाचित सहायता प्रदान कर सकें। हमें शरीर के जड़ और मन के अर्ध चेतन स्तरों को परिष्कृत बनाने में ही अपना सारा ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। साधना विज्ञान की दौड़ इन्हीं दो क्षेत्रों के विकास में सहायता करने वाले विधि-विधान बताने में केन्द्रीभूत है। इतना बन पड़े तो अगली बात निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त दिव्य–चेतना के प्रत्यक्ष मार्ग-दर्शन पर छोड़ी जा सकती है। अपना आपा ही इतना ऊंचा उठ जाता है कि पृथ्वी की आकर्षण शक्ति से ऊपर निकल जाने के बाद राकेट जिस प्रकार अपनी यात्रा अपने बल-बूते चलाने लगते और अमुक कक्षा बना कर भ्रमण करने लगते हैं, उसी प्रकार स्वयमेव आत्म साधना का शेष भाग पूरा हो जाता है।
आत्मोत्कर्ष की जिन कक्षाओं का सैद्धान्तिक और व्यावहारिक पाठ्यक्रम सीखने, सिखाने की आवश्यकता पड़ती है वे चिन्तन की उत्कृष्टता एवं कर्तृत्व की आदर्शवादिता के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। उनकी उपेक्षा करके मात्र कर्मकाण्डों के सहारे कोई बड़ी सफलता हाथ नहीं लग सकती। व्यक्तित्व को अमुक विधि-विधानों के सहारे ऊंचा उठाने की शिक्षा की किन्डरगार्डन शिक्षण में प्रयुक्त होने वाले मनोरंजन उपकरणों से तुलना की जा सकती है, जो बच्चे के अविकसित मस्तिष्क में अमुक जानकारी को ठीक तरह जमाने में सहायता करती है। पहलवानी में सफलता पाने वाले डंबल, मुद्गर आदि उपकरणों का सहारा लेकर अपनी बल वृद्धि करते हैं। ऊंचा चढ़ने के लिए लाठी की और जल्दी पहुंचने के लिए वाहन की जरूरत पड़ती है। यह उपकरण बहुत ही उपयोगी और आवश्यक हैं, पर यह ध्यान रखना चाहिए कि स्वतन्त्र रूप से कोई जादुई शक्ति से सम्पन्न नहीं है। स्वस्थ शरीर को बलिष्ठ बनाने में वे सहायता भर करते हैं। ठीक यही स्थिति उपासना क्षेत्र में फैले हुए अनेकानेक कर्मकाण्डों की है।
जप द्वारा अध्यात्म ही उस परमेश्वर को पुकारता है; जिसे हम एक प्रकार से भूल ही चुके हैं। मणि विहीन सर्प जिस तरह अशक्त एवं हताश बना बैठा रहता है, उसी प्रकार हम परमात्मा से बिछुड़कर अनाथ बालक की तरह डरे, सहमे बैठे हैं—अपने को असुरक्षित और आपत्तिग्रस्त स्थिति में अनुभव कर रहे हैं। लगता है हमारा कुछ बहुमूल्य खो गया है। जप की पुकार उसी को खोजने के लिए है। बिल्ली अपने बच्चों के इधर-उधर छिप जाने पर उन्हें ढूंढ़ने के लिए म्याऊं-म्याऊं करती फिरती है और उस पुकार के आधार पर उन्हें खोज निकालती है। कोई बालक खो जाने पर उसके ढूंढ़ने के लिए नाम और हुलिया की मुनादी कराई जाती है। रामनाम की रट इसी प्रयोजन के लिए है।
गज की एक टांग ग्राह के मुंह में चली गई थी। गज पानी से बाहर निकलना चाहता था और ग्राह उसे भीतर घसीटता था। दोनों में से हारता भी कोई नहीं था। इस खींचतान में हाथी को भारी कष्ट हो रहा था। न मरते बनता था न जीते। निदान गज ने भगवान को पुकार लगाई। उनका नाम हजार बार लिया तब भगवान को पुकारा था और वे उसे आश्वस्त करने आये थे। अज्ञानान्धकार में भटकने वाले जीव की स्थिति गज से भी गई-बीती है। गज की एक टांग को एक मगर खा रहा था। यहां काम, क्रोध, मद, मत्सर रूपी चार ग्राह दोनों हाथ, दोनों पैर, सिर और धड़ इन छहों अवयवों को खाये जा रहे हैं।
द्रौपदी का शरीर ही निर्वस्त्र हो रहा था, पर आत्मा की शालीनता का आवरण उतरता जाने से उसका बहिरंग और अन्तरंग दोनों ही लज्जास्पद बनते चले जा रहे हैं। ऐसी दशा में गज रूपी मन और आत्मा रूपी द्रौपदी का भगवान को पुकारना उचित ही है। जप में भगवत् नाम की रट पतन के गर्त में से हाथ पकड़ कर ऊपर उबारने के लिए ही लगाई जाती है।
परमात्मा की दिव्य चेतना के अभाव में मनुष्य नर-पशु, नर-कीटक मात्र बनकर रह जाता है। पंचतत्वों की काया में पेट और प्रजनन मात्र की दो आकांक्षाएं रहती हैं और वह उनकी पूर्ति के लिए वासना-तृष्णा में ग्रसित रह कर अचिन्त्य चिन्तन तथा अकर्म करने में निरत रहता है। आदर्शों को अपनाने के लिए न उसकी उत्कंठा जगती है और न चेष्टा होती है। सड़ी कीचड़ में कुलबुलाते रहने वाले घिनौने कीड़ों की तरह उसे कुत्साओं और कुण्ठाओं की शोक संतापों की प्रताड़नाएं सहन करते हुए इस सुर-दुर्लभ अवसर को रोते कलपते गंवाना पड़ता है। इस अन्धकार में भटकने से त्राण पाने के लिए आत्मा प्रकाश को पुकारती है। यह प्रकाश भगवान ही हो सकता है। उसे पाने की आतुरता में जिन शब्दों का उच्चारण होता है, उसे नाम-जप कह सकते हैं।
यह सोचना व्यर्थ है कि भगवान का मन इतना ओछा है कि वे अपना नाम लेने वाले से—चापलूसी भरे शब्दोच्चार करने वाले से—प्रसन्न हो जाते हैं। उन्हें नाम लेने न लेने से कोई वास्ता नहीं। वह दिव्य सत्ता तो केवल इतना ही देखती है कि जो काम सौंपे गये थे वे पूरे किये गये या नहीं। वे अनुशासन और कर्तव्य पालन भर की अपेक्षा मनुष्य से करते हैं और इसी कसौटी पर कस कर दण्ड, पुरस्कार की व्यवस्था करते हैं। उनका रोष और प्रेम ठीक विद्युत शक्ति की तरह है। बिजली का विधिवत् उपयोग करने वाले उससे तरह-तरह के लाभ उठाते हैं। रोशनी, पंखा, रेडियो, हीटर जैसे अनेक प्रयोजन पूरे करते हैं, किन्तु जो उसके खुले तार छूने की उच्छृंखलता बरतते हैं वे रोष के भोजन बनते हैं और अपने प्राण गंवा बैठते हैं। भगवान का एक नाम ‘रुद्र’ भी है। रुद्र अर्थात् भयंकर अनीति बरतने वालों को वे बिना दया माया प्रदर्शित किये कस कर दण्ड भी देते हैं। नाम-जप की चापलूसी से ईश्वर को फुसला लेने और जो लाभ सन्मार्ग पर चलने वालों को मिलता है वही पूजा-पत्री से पा लेने की बात सोचना मूर्खतापूर्ण है। ईश्वर को इतना मूर्ख और ओछा नहीं समझा जाना चाहिए कि नाम लेने भर से किसी को भक्त मान ले और निहाल करदे। उसका अनुग्रह तो व्यक्तित्व को परिष्कृत करने और सन्मार्ग पर चलने से ही सम्भव हो सकता है।
शरीर पर नित्य मैल चढ़ता है और उसे साफ करने के लिए नित्य स्नान करना पड़ता है। कपड़े नित्य मैले होते हैं और उन्हें रोज ही धोना होता है। कमरे में झाडू लगाना, दांत मांजना, बालों में कंघी करना नित्य का काम है। मन पर नित्य ही वातावरण में उड़ती फिरने वाली दुष्प्रवृत्तियों की छाप पड़ती है। उस मलीनता को धोने के लिए नित्य ही उपासना करनी पड़ती है। भगवत् स्मरण उपासना का प्रधान अंग है। नाम के आधार पर ही किसी सत्ता का बोध और स्मरण हमें होता है। ईश्वर को स्मृति पटल पर प्रतिष्ठापित करने के लिए उसके नाम का सहारा लेना पड़ता है। स्मरण से आह्वान—आह्वान से स्थापना और स्थापना से उपलब्धि का क्रम चल पड़ना मनोविज्ञान शास्त्र द्वारा समर्थित है।
चेतना को प्रशिक्षित करने के लिए मनोविज्ञान शास्त्र में चार आधार और स्तर बताये गये हैं। इनमें प्रथम है—शिक्षण—जिसे अंग्रेजी में ‘लर्निंग’ कहते हैं। स्कूल के बच्चों को इसी स्तर पर पढ़ाया जाता है। उन्हें तरह-तरह की जानकारियां दी जाती हैं। उन जानकारियों को सुन लेने भर से काम नहीं चलता। विद्यार्थी उन्हें बार-बार दुहराते हैं। स्कूली पढ़ाई का सारा क्रम ही दुहराने—याद करने के सहारे खड़ा होता है। पहाड़े रटने पड़ते हैं। संस्कृत को रटन्त विद्या ही कहा जाता है। प्रकारान्तर से यह रटाई किसी न किसी प्रकार हर छात्र को करनी पड़ती है। स्मृति पटल पर किसी नई बात को जमाने के लिए बार-बार दुहराये जाने की क्रिया अपनाये बिना और कोई रास्ता नहीं।
एक बार याद कर लेने से कुछ बातें तो देर तक याद बनी रहती हैं, पर कुछ ऐसी हैं जो थोड़े दिन अभ्यास छोड़ देने से एक प्रकार से विस्मरण ही हो जाती हैं। स्कूली पढ़ाई छोड़ देने के उपरान्त यदि वे विषय काम में न आते रहें तो कुछ समय बाद विस्मृत हो जाते हैं। फौजी सिपाहियों को नित्य ही परेड करनी पड़ती है। पहलवान लोग बिना नागा अखाड़े में जाते और रोज ही दंड बैठक करते हैं। संगीतकारों के लिए नित्य का ‘रियाज’ आवश्यक हो जाता है। कुछ समय के लिए भी वे गाने बजाने का अभ्यास छोड़ दें तो उंगलियां लड़खड़ाने लगेंगी और ताल स्वरों में अड़चन उत्पन्न होने लगेंगी।
शिक्षण की ‘लर्निंग’ भूमिका में पुनरावृत्ति का आश्रय लिया जाना आवश्यक है। जप द्वारा अनभ्यस्त ईश्वरीय चेतना को स्मृति पटल पर जमाने की आवश्यकता होती है ताकि उपयोगी प्रकाश की अन्तःकरण में प्रतिष्ठापना हो सके। कुएं की जगत में लगे पत्थर पर रस्सी की रगड़ बहुत समय तक पड़ते रहने से उसमें निशान बन जाते हैं। हमारी मनोभूमि भी इतनी ही कठोर है। एक बार कहने से बात समझ में तो आ जाती है पर उसे स्वभाव की—अभ्यास की भूमिका तक उतारने के लिए बहुत समय तक दुहराने की आवश्यकता पड़ती है। पत्थर पर रस्सी की रगड़ से निशान पड़ने की तरह ही हमारी कठोर मनोभूमि पर भगवत् संस्कारों का गहराई तक जम सकना संभव है।
शिक्षण की दूसरी परत है—‘रिटेन्शन’ अर्थात् प्रस्तुत जानकारी को स्वभाव का अंग बना लेना। तीसरी भूमिका है—‘री काल’ अर्थात् भूतकाल की किन्हीं विस्मृत स्थितियों को कुरेद बीनकर फिर से सजीव कर लेना। चौथी भूमिका है—‘रीकाग्नीशन’ अर्थात् मान्यता प्रदान कर देना। निष्ठा आस्था—श्रद्धा एवं विश्वास में परिणत कर देना। उपासना में इन्हीं सब प्रयोजनों को पूरा करना पड़ता है। यह चारों ही परतें छेड़नी होती हैं। भगवान की समीपता अनुभव कराने वाली प्रतीक पूजा ‘रिटेन्शन’ है। ईश्वर के साथ आत्मा के अति प्राचीन सम्बन्धों को भूल जाने के कारण ही जीवन में भटकाव होता है। पतंग उड़ाने वाले के हाथ से डोरी छूट जाती है तभी वह इधर-उधर छितराती फिरती है। बाजीगर की उंगलियों से बंधे कठपुतली के सम्बन्ध सूत्र टूट जाय तो फिर वे लकड़ी के टुकड़े नाच किस प्रकार दिखा सकेंगे। कनेक्शन तार टूट जाने पर बिजली के यंत्र अपना काम करना बन्द कर देते हैं। ईश्वर और जीव का सम्बन्ध सनातन है पर वह माया में अत्यधिक प्रवृत्ति के कारण एक प्रकार से टूट ही गया है। इसे फिर से सोचने, सूत्र को नये सिरे से ढूंढ़ने और टूटे सम्बन्धों को फिर से जोड़ने की प्रक्रिया ‘रि काल’ है। जप द्वारा यह उद्देश्य भी पूरा होता है। चौथी भूमिका में ‘रिकाग्नीशन’ में पहुंचने पर जीवात्मा की मान्यता अपने भीतर ईश्वरीय प्रकाश विद्यमान होने की बनती है और वह वेदान्त तत्वज्ञान की भाषा में ‘अयमात्मा ब्रह्म’—‘तत्वमसि’ सोहमस्मि—चिदानंदोहम्—शिवोहम की निष्ठा जीवित करता है। यह शब्दोच्चार नहीं वरन् मान्यता का स्तर है। जिसमें पहुंचे हुए मनुष्य का गुण, कर्म, स्वभाव, दृष्टिकोण एवं क्रिया-कलाप ईश्वर जैसे स्तर का बन जाता है। उसकी स्थिति महात्मा, देवात्मा एवं परमात्मा जैसी देखी और अनुभव की जा सकती है।
आत्मिक प्रगति के लिए चिन्तन क्षेत्र की जुताई करनी पड़ती है, तभी उसमें उपयोगी फसल उगती है। खेत को बार-बार जोतने से ही उसकी उर्वरा शक्ति बढ़ती है। नाम जप को एक प्रकार से खेत की जुताई कह सकते हैं। प्रहलाद की कथा है कि वे स्कूल में प्रवेश पाने के उपरान्त पट्टी पर केवल राम नाम ही लिखते रहे आगे की बात पढ़ने के लिए कहे जाने पर भी राम नाम ही लिखते रहे और कहते रहे। इस एक को ही पढ़ लेने पर सारी पढ़ाई पूरी हो जाती है। युधिष्ठिर की कथा भी ऐसी ही है। अन्य छात्रों ने आगे के पाठ याद कर लिये, पर वे पहला पाठ ‘सत्यंवद’ ही रटते लिखते रहे। अध्यापक ने आगे के पाठ पढ़ने के लिए कहा तो उनका उत्तर यही था कि एक पाठ याद हो जाने पर दूसरा पढ़ना चाहिए। उनका तात्पर्य यह था कि सत्य के प्रति अगाध निष्ठा और व्यवहार में उतारने की परिपक्वता उत्पन्न हो जाने तक उसी क्षेत्र में अपने चिन्तन को जोते रहना चाहिए।
नाम जप में होने वाली पुनरावृत्ति के पीछे युधिष्ठिर और प्रहलाद द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया का संकेत है। भगवान मय जीवन बनाने की स्थिति आने तक नाम स्मरण करते रहा जाना चाहिए। अन्तरात्मा द्वारा एक मन और दशा इन्द्रियों को पढ़ाने के लिए खोली गई पाठशाला को उपासना कृत्य समझा जा सकता है उसमें नाम जप की रटाई कराई जाती है ताकि यह छात्र वर्णमाला, गिनती, पहाड़े भली प्रकार याद कर सके। एक ही विधान को लगातार दुहराते रहने के पीछे यही बाल शिक्षण की प्रक्रिया काम करती है।
कपड़े को देर तक रंग भरी नाद में डुबोये रहने से उस पर पक्का रंग चढ़ जाता है। चन्दन वृक्ष के समीप उगे हुए झाड़-झंखाड़ भी सुगन्धित हो जाते हैं। गुलाब के फूल जिस मिट्टी पर टूट-टूट कर गिरते रहते हैं वह भी सुगन्धित हो जाती है। सान्निध्य का लाभ सर्वविदित हैं। सत्संग और कुसंग के भले-बुरे परिणाम आये दिन सामने आते रहते हैं। उपासना कृत्य भगवान की समीपता है, उसका सत्परिणाम सामने आये बिना नहीं रह सकता। कीट भृंग का उदाहरण प्रख्यात है।
जप के लिए भारतीय धर्म में सर्वविदित और सर्वोपरि मंत्र गायत्री मंत्र का प्रतिपादन है। उसे गुरुमंत्र कहा गया है। अन्तः चेतना को परिष्कृत करने में उसका जप बहुत ही सहायक सिद्ध होता है। वेदमाता इसे इसलिए कहा गया है कि वेदों में सन्निहित ज्ञान विज्ञान का सारा वैभव बीज रूप से इन थोड़े से अक्षरों में ही सन्निहित है।
जप का भौतिक महत्व भी है। विज्ञान के आधार पर भी उसकी उपयोगिता समझी समझाई जा सकती है। शरीर और मन में अनेकानेक दिव्य क्षमताएं चक्रों, ग्रन्थियों, भेद और उपत्यिकाओं के रूप में विद्यमान हैं उनमें ऐसी सामर्थ्यें विद्यमान हैं जिन्हें लगाया जा सके तो व्यक्ति को अतीन्द्रिय एवं अलौकिक विशेषताएं प्राप्त हो सकती हैं। साधना का परिणाम सिद्धि है। यह सिद्धियां भौतिक प्रतिभा और आत्मिक दिव्यता के रूप में जिन साधना आधारों के सहारे विकसित होती हैं, उनमें जप को प्रथम स्थान दिया गया है।
मुख को अग्निचक्र कहा गया है। मोटे अर्थों में उसकी संगति जठराग्नि से मिलाई जा सकती है। मंदाग्नि, तीव्राग्नि का वर्णन मुंह से लेकर आमाशय अग्नि संस्थान तक विस्तृत क्षेत्र में फैली हुई पाचन ग्रन्थियों की निष्क्रियता-सक्रियता का परिचय देने के रूप में ही किया जाता है। मुंह चबाता है और पचाने का प्राथमिक कार्य अपने गह्वर में पूरा करता है। आगे चलकर आहार की पाचन क्रिया अन्यान्य रूपों में विकसित होती जाती है। अग्निचक्र की—मुख में अवस्थित ऊष्मा की—स्थूल चर्चा ही पाचन प्रक्रिया के रूप में की जा सकती है। वस्तुतः उस संस्थान को यज्ञाग्नि का दिव्य कुण्ड कह सकते हैं, जिससे पाचन का ही नहीं, वाक् शक्ति का भी उद्भव होता है।
मुख का अग्निचक्र स्थूल रूप से पाचन का—सूक्ष्म रूप में उच्चारण का और कारण और रूप से चेतनात्मक दिव्य प्रवाह उत्पन्न करने का कार्य करता है। उसके तीनों कार्य एक से एक बढ़ कर हैं। पाचन और उच्चारण की महत्ता सर्वविदित है। दिव्य प्रवाह संचार की बात कोई-कोई ही जानते हैं। जपयोग का सारा विज्ञान इसी रहस्यमयी सामर्थ्य के साथ सम्बद्ध है। कोई ही जानते हैं। जपयोग का सारा विज्ञान इसी रहस्यमयी सामर्थ्य के साथ सम्बद्ध है।
शब्दों का उच्चारण मात्र जानकारी ही नहीं देता वरन् उसके साथ अनेकानेक भाव अभिव्यंजनाएं—संवेदनाएं—प्रेरणाएं एवं शक्तियां भी जुड़ी होती हैं। यदि ऐसा न होता तो वाणी में मित्रता एवं शत्रुता उत्पन्न करने की सामर्थ्य न होती। दूसरों को उठाने गिराने में उसका उपयोग न हो पाता। कटु शब्द सुनकर क्रोध चढ़ आता है और न कहने योग्य कहने तथा न करने योग्य करने की स्थिति बन जाती है। चिन्ता का समाचार सुनकर भूख-प्यास और नींद चली जाती है। शोक संवाद सुनकर मनुष्य अर्ध मूर्छित जैसा हो जाता है। तर्क तथ्य, उत्साह एवं भावुकता भरा शब्द प्रवाह देखते-देखते जन समूह का विचार बदल देता है और उस उत्तेजना से सम्मोहित असंख्य मनुष्य कुशल वक्ता का अनुसरण करने के लिए तैयार हो जाते हैं। द्रौपदी ने थोड़े से व्यंग-उपहास भरे अपमानजनक शब्द दुर्योधन से कह दिये थे। उनका घाव इतना इतना गहरा उतरा कि अठारह अक्षौहिणी सेना का विनाश करने वाले महाभारत के रूप में उसकी भयानक प्रतिक्रिया सामने आई। इन तथ्यों पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि वाणी का काम जानकारी देना भर नहीं है। शब्द प्रवाह के साथ-साथ उनके प्रभावोत्पादक चेतन तत्व भी जुड़े रहते हैं और वे ध्वनि कम्पनों के साथ घुले रहकर जहां भी टकराते हैं वह चेतनात्मक हलचल उत्पन्न करते हैं। शब्द को पदार्थ विज्ञान की कसौटी पर भौतिक तरंग स्पन्दन भर कहा जा सकता है, पर उसकी चेतना को प्रभावित करने वाली संवेदनात्मक क्षमता की भौतिक व्याख्या नहीं हो सकती। वह विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक है।
जपयोग में शब्द शक्ति के इसी आध्यात्मिक प्रभाव को छान कर काम में लाया जाता है। नीबू का रस निचोड़ कर उसका छिलका एक ओर रख दिया जाता है। दूध में से घी निकाल कर छाछ को महत्वहीन ठहरा दिया जाता है। जपयोग में ऐसा ही होता है। उसके द्वारा ऐसी चेतन शक्ति का उद्भव होता है, जो जपकर्त्ता के शरीर एवं मन में विचित्र प्रकार की हलचलें उत्पन्न करती है और अनन्त आकाश में उड़कर विशिष्ठ व्यक्तियों को—विशेष परिस्थितियों को तथा समूचे वातावरण को प्रभावित करती है।
मंत्रों का चयन ध्वनि-विज्ञान को आधार मान कर किया गया है। अर्थ का समावेश गौण है। गायत्री मंत्र की सामर्थ्य अद्भुत है। पर उसका अर्थ अति सामान्य है। भगवान से सद्बुद्धि की कामना भर उसमें की गई है। इसी अर्थ प्रयोजन को व्यक्त करने वाले मंत्र श्लोक हजारों हैं। हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में भी ऐसी कविताओं की कमी नहीं जिनमें परमात्मा से सद्बुद्धि की प्रार्थना की गई है। फिर उन सब कविताओं को गायत्री मंत्र के समकक्ष क्यों नहीं रखा जाता और उनका उच्चारण क्यों उतना फलप्रद नहीं होता? वस्तुतः मंत्र सृष्टाओं की दृष्टि में शब्दों का गुंथन ही महत्वपूर्ण रहा है। कितने ही बीज मंत्र ऐसे हैं जिनका खींचतान के ही कुछ अर्थ भले ही गढ़ा जाय पर वस्तुतः उनका कुछ अर्थ है ही नहीं। ह्रीं, श्रीं, क्लीं, ऐं, हुं, यं, फट् आदि शब्दों का क्या अर्थ हो सकता है, इस प्रश्न पर माथापच्ची करना बेकार है। उनका सृजन यह ध्यान में रखते हुए किया गया है कि उनका उच्चारण किस स्तर का शक्ति कम्पन उत्पन्न करता है और इनका जपकर्त्ता, बाह्य वातावरण तथा अभीष्ट प्रयोजन पर क्या प्रभाव पड़ता है?
मानसिक, वाचिक एवं उपांशु जप में ध्वनियों के हलके भारी किये जाने की प्रक्रिया काम में लाई जाती है। वेद मन्त्रों के अक्षरों के साथ-साथ उदात्त-अनुदात्त और स्वरित क्रम से उनका उच्चारण नीचे-ऊंचे तथा मध्यवर्ती उतार-चढ़ाव के साथ किया जाता है। उनके सस्वर उच्चारण की परम्परा है। यह सब विधान इसी दृष्टि से बनाने पड़े हैं कि उन मन्त्रों का जप अभीष्ट उद्देश्य पूरा कर सकने वाला शक्ति प्रवाह उत्पन्न कर सके।
मन्त्र जप की दुहरी प्रतिक्रिया होती है। एक भीतर, दूसरी बाहर। आग जहां जलती है उस स्थान को गरम करती है, साथ ही वायु मण्डल में ऊष्मा बखेर कर अपने प्रभाव क्षेत्र को भी गर्मी देती है। जप का ध्वनि प्रवाह—समुद्र की गहराई में चलने वाली जल धाराओं की तरह तथा ऊपर आकाश में छितराई हुई उड़ने वाली हवा की परतों की तरह अपनी हलचलें उत्पन्न करता है। उनके कारण शरीर में यत्र-तत्र, सन्निहित अनेकों ‘चक्रों’ तथा ‘उपत्यिका’ ग्रन्थियों में विशिष्ट स्तर का शक्ति संचार होता है। लगातार के एक नियमित क्रम से चलने वाली हलचलें ऐसा प्रभाव उत्पन्न करती हैं, जिन्हें रहस्यमय ही कहा जा सकता है। पुलों पर सैनिकों को पैरों को मिलाकर चलने से उत्पन्न क्रमबद्ध ध्वनि उत्पन्न करने के लिए इसलिए मना किया जाता है कि इस साधारण-सी क्रिया से पुल तोड़ देने वाला असाधारण प्रभाव उत्पन्न हो सकता है।
जप लगातार करना पड़ता है और एक ही क्रम से इस प्रक्रिया के परिणामों को विज्ञान की प्रयोगशाला में अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है। एक टन भारी लोहे का गार्डर किसी छत के बीचों-बीच लटका दिया जाय और उस पर पांच ग्राम भारी हलके से कार्क के लगातार आघात लगाने प्रारम्भ कर दिये जायं तो कुछ ही समय में वह सारा गार्डर कांपने लगेगा। यह लगातार—एक गति से—आघात क्रम से उत्पन्न होने वाली शक्ति का चमत्कार है। मन्त्र जप यदि विधिवत् किया गया है तो उसका परिणाम भी यही होता है। सूक्ष्म शरीर में—अवस्थित चक्रों और ग्रन्थियों को जप ध्वनि का अनवरत प्रभाव अपने ढंग से प्रभावित करता है और उत्पन्न हुई हलचल उनकी मूर्छना दूर करे जाग्रति का अभिनव दौर उत्पन्न करती है। ग्रन्थिभेदन तथा चक्र जागरण का सत्परिणाम जपकर्त्ता को प्राप्त होता है। जगे हुए यह दिव्य संस्थान साधक में आत्मबल का नया संचार करते हैं। उसे ऐसा कुछ अपने भीतर जगा, उगा प्रतीत होता है जो पहले नहीं था। इन नवीन उपलब्धि के लाभ भी उसे प्रत्यक्ष ही दृष्टिगोचर होते हैं।
टाइप राइटर के उदाहरण से इस तथ्य को और भी अच्छी तरह समझा जा सकता है। उंगली से चाबियां दबाई जाती हैं और कागज पर तीलियां गिर कर अक्षर छापने लगती हैं। मुख में लगे उच्चारण में प्रयुक्त होने वाले कलपुर्जों को टाइप राइटर की कुंजियां कह सकते हैं। मन्त्रोच्चार उंगली से उन्हें दबाना हुआ। यहां से उत्पन्न शक्ति प्रवाह नाड़ी तन्तुओं की तीलियों के सहारे सूक्ष्म चक्रों और दिव्य ग्रन्थियों तक पहुंचता है और उन्हें झकझोर कर जगाने, खड़ा करने में संलग्न होता है। अक्षरों का छपना वह उपलब्धि है जो इन जागृत चक्रों द्वारा रहस्यमयी सिद्धियों के रूप में साधक को मिलती हैं। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि यदि जपयोग को विधिवत् साधा गया होगा तो उसका सत्परिणाम उत्पन्न होगा ही।
पुलों पर होकर गुजरती हुई सेना को पैर मिलाकर चलने पर ध्वनि प्रवाह उत्पन्न करने की मनाही कर दी जाती है। पुलों पर से गुजरते समय वे बिखरे हुए—स्वच्छतापूर्ण कदम बढ़ाते हैं। कारण यह है कि लेफ्ट राइट के ठीक क्रम से तालबद्ध पैर पड़ने से जो एकीभूत शक्ति उत्पन्न होती है उसकी अद्भुत शक्ति के प्रहार से मजबूत पुलों में दरार पड़ सकती है और भारी नुकसान हो सकता है। मन्त्र जप के क्रमबद्ध उच्चारण से उसी प्रकार का तालक्रम उत्पन्न होता है और उसके फलस्वरूप शरीर से अन्तः संस्थानों में विशिष्ट हल-चल उत्पन्न होती है। यह हलचलें उन अलौकिक शक्तियों की मूर्छना दूर करती हैं जो जागृत होने पर सामान्य मनुष्य को असामान्य चमत्कारों से सम्पन्न सिद्ध कर सकती है।
हाथों को लगातार थोड़ी देर तक घिसा जाय तो वे गरम हो जाते हैं। रगड़ से गर्मी और बिजली पैदा होती है, यह नियम विज्ञान की प्रथम कक्षा में पढ़ने वाले छात्र भी जानते हैं। जप में अनवरत उच्चारण क्रम एक प्रकार का घर्षण उत्पन्न करता है। पत्थर पर रस्सी की रगड़ पड़ने से घिसाव के निशान बन जाते हैं। श्वांस के आवागमन तथा रक्त की भाग-दौड़ से शरीर में गर्मी उत्पन्न होती है और उसी पर जीवन अवलम्बित रहता है। डायनेमो में पहिया घूमने से बिजली उत्पन्न होने की बात सभी जानते हैं। जप में जो घर्षण प्रक्रिया गतिशील होती है, वह दौड़ लगाने पर शरीर के उत्तेजित हो जाने की तरह सूक्ष्म शरीर में उत्तेजना पैदा करती है और उस गर्मी से मूर्छित पड़ा अन्तर्जगत नये जागरण का अनुभव करता है। यह जागरण मात्र उत्तेजना नहीं होती उसके साथ दिव्य उपलब्धियों की सम्भावना भी जुड़ी रहती है।
ध्वनियां उतनी ही नहीं हैं जितनी कि कानों से सुनाई पड़ती हैं। कान तो एक निश्चित स्तर के ध्वनि कम्पनों को ही सुन पाते हैं। उनकी पकड़ से ऊंचे और नीचे कम्पनों वाले भी असंख्य ध्वनि प्रवाह होते हैं जिन्हें मनुष्य के कान तो सुन नहीं सकते, पर उनके प्रभावों को उपकरणों की सहायता से प्रत्यक्ष देखा जाना जा सकता है। इन्हें ‘सुपर सौनिक’ ध्वनि तरंगें कहते हैं।
मनुष्य की गृहण और धारण शक्ति सीमित है। वह अपनी दुबली-सी क्षमता के लिए उपयुक्त शब्द प्रवाह ही पकड़ सकें, इसी स्तर की कानों की झिल्ली बनी हैं। किन्तु यह संसार तो शक्ति का अथाह समुद्र है और इसमें ज्वार-भाटे की तरह श्रवणातीत ध्वनियां गतिशील रहती हैं। अच्छा ही हुआ कि मनुष्य की गृहण शक्ति सीमित है और वह अपने लिए सीमित प्रवाह ही ले पाता है अन्यथा यदि श्रवणातीत ध्वनियां भी उसे प्रभावित कर सकतीं तो जीवन धारण ही सम्भव न हो पाता।
शब्द की गति साधारणतया बहुत धीमी है। वह मात्र कुछ सौ फुट प्रति सैकिण्ड चल पाती है। तोप चलने पर धुंआ पहले दीखता है और धड़ाके की आवाज पीछे सुनाई पड़ती है। जहां दृश्य और श्रव्य का समावेश है वहां हर जगह ऐसा ही होगा। दृश्य पहले दीखेगा और उस घटना के साथ जुड़ी हुई आवाज कान तक पीछे पहुंचेगी।
रेडियो प्रसारण में एक छोटी-सी आवाज को विश्वव्यापी बना देने और उसे 1 लाख 86 हजार मील प्रति सैकिण्ड की चाल से चलने योग्य बना देने में इलेक्ट्रो मैगनेटिक तरंगों का ही चमत्कार होता है। रेडियो विज्ञानी जानते हैं कि ‘इलेक्ट्रो मैगनेटिक वेव्स’ पर साउण्ड का सुपर कम्पोज रिकार्ड कर दिया जाता है और वे पलक मारते सारे संसार की परिक्रमा कर लेने जितनी शक्तिशाली बन जाती हैं।
इलेक्ट्रो मैगनेटिक तरंगों की शक्ति से ही अन्तरिक्ष में भेजे गये राकेटों की उड़ान को धरती पर से नियंत्रित करने, उन्हें दिशा और संकेत देने, यांत्रिक खराबी दूर करने का प्रयोजन पूरा किया जाता है। वे ‘लेसर’ स्तर की बनती हैं तो शक्ति का ठिकाना नहीं रहता। एक फुट मोटी लोहे की चद्दर में सूराख कर देना उनके बायें हाथ का खेल है। पतली वे इतनी होती हैं कि आंख की पुतली के लाखवें हिस्से में खराबी होने पर मात्र उतने ही टुकड़े का निर्धारित गहराई तक ही सीमित रहने वाला सफल आपरेशन कर देती हैं। अब इन किरणों का उपयोग चिकित्सा क्षेत्र में भी बहुत होने लगा है। केन्सर, आंत्रशोध, यकृत की विकृति, गुर्दे की सूजन, हृदय की जकड़न जैसी बीमारियों की चिकित्सा में इनका सफल उपयोग हो रहा है।
‘सुपर सौनिक’ श्रवणातीत तरंगों का जप प्रक्रिया के द्वारा उत्पादन और समन्वय होता है। जप के समय उच्चारण किये गये शब्द—आत्म-निष्ठा, श्रद्धा एवं संकल्प शक्ति का समन्वय होने से वही क्रिया सम्पन्न होती है, जो रेडियो स्टेशन पर बोले गये शब्द—विशिष्ट विद्युत शक्ति के साथ मिलकर अत्यन्त शक्तिशाली हो उठते हैं और पलक मारते समस्त भूमण्डल में अपना उद्देश्य प्रसारित कर देते हैं। जप प्रक्रिया में एक विशेषता यह है कि उससे न केवल समस्त संसार का वातावरण प्रभावित होता है, वरन् साधक का व्यक्तित्व भी झनझनाने, जगमगाने लगता है। जबकि रेडियो स्टेशन से प्रसारण तो होता है, पर कोई स्थानीय विलक्षणता दिखाई नहीं पड़ती। लेसर रेडियम किरणें फेंकने वाले यन्त्रों में कोई निजी प्रभाव नहीं देखा जाता वे उन स्थानों को ही प्रभावित करते हैं जहां उनका आघात लगता है। जप-प्रक्रिया में साधक को और वातावरण को प्रभावित करने की वह दुहरी शक्ति है—जो नव वैज्ञानिकों के सामान्य यंत्र उपकरणों में नहीं पाई जाती।
जप सामान्य रूप से उपांशु किया जाता है जिसमें गायत्री मंत्र का प्रयोग किया जाता है। जप का एक और महत्वपूर्ण प्रयोग सोऽहं साधना के रूप में भी होता है जिसमें किसी मंत्र का सीधा प्रयोग नहीं होता। इसमें जप के साथ प्राण विद्या का प्रयोग किया जाता है।
सोऽहम् साधना को ‘अजपा जाप’ अथवा प्राण गायत्री भी कहा गया है। मान्यता है कि श्वांस के शरीर में प्रवेश करते समय ‘स’ जैसी सांस रुकने के तनिक से विराम समय में ‘‘ो’’ जैसी—और बाहर निकलते समय ‘हम’ जैसी अत्यन्त सूक्ष्म ध्वनि होती रहती है। इसे श्वांस क्रिया पर चिरकाल तक—ध्यान केन्द्रित करने की साधना द्वारा सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय द्वारा सुना जा सकता है। चूंकि ध्वनि सूक्ष्म है स्थूल नहीं—इसलिए उसे अपने छेद वाले कानों से नहीं—सूक्ष्म शरीर में रहने वाली सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय द्वारा—शब्द तन्मात्रा के रूप में ही सुना जा सकता है। कोई खुले कानों से इस शब्दों को सुनने का प्रयत्न करेगा तो उसे कभी भी सफलता न मिलेगी।
नादयोग में मात्र सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय द्वारा शंख, घड़ियाल, बादल, झरना, वीणा जैसे कितने ही दिव्य शब्द सुने जाते हैं। किन्तु हंस-योग में नासिका एवं कर्णेन्द्रिय की समन्वित सूक्ष्म शक्ति का दुहरा लाभ मिलता है। ‘सोऽहम्’ को अनाहत शब्द कहा गया है। आहत वे हैं, जो कहीं कोई चोट लगने से उत्पन्न होते हैं। अनाहत वे जो बिना किसी आघात के उत्पादन होते हैं। नादयोग में जो दिव्य ध्वनियां सुनी जाती हैं, उनके बारे में दो मान्यताएं हैं। एक यह है कि प्रकृति के अन्तराल सागर में पांच तत्वों और सत, रज, तम यह तीन गुणों की जो उथल-पुथल मचती रहती है यह उनकी प्रति-क्रिया है दूसरे यह माना जाता है कि शरीर के भीतर जो रक्त-संचार, आकुंचन-प्रकुंचन, श्वास-प्रश्वास जैसी क्रियाएं अनवरत रूप से होती रहती हैं, यह शब्द उन हलचलों से उत्पन्न होते हैं। अस्तु यह आहत हैं। नादयोग को भी कई जगह अनाहत कहा गया है, पर आम मान्यता यही है कि वे आहत हैं। मुख से जो शब्द उत्पन्न होते हैं वे भी होठ, जीभ, कंठ, तालु आदि अवयवों की—मांस पेशियों की उठक-पटक से उत्पन्न होते हैं; अस्तु जप भी आहत है। आहत से अनाहत का महत्व अधिक माना गया है। अनाहत ब्रह्म चेतना द्वारा निश्चित और आहत प्रकृतिगत हलचलों से उत्पन्न होते हैं अस्तु उनका महत्व भी ब्रह्म और प्रकृति की तुलना जैसा ही न्यूनाधिक है।
तत्वदर्शियों का मत है कि जीवात्मा के गहन अन्तराल में उसकी आत्मबोध प्रज्ञा स्वयमेव जगी रहती है और उसी की स्फुरणा से ‘सोऽहम्’ का आत्म-बोध अजपा जाप बनकर स्वसंचालित बना रहता है। संस्कृत भाषा के स+अहम् शब्दों से मिलकर ‘सोहम्’ का आविर्भाव माना जाता है। यहां व्याकरण शास्त्र की संधि प्रक्रिया के झंझट में पड़ने की जरूरत नहीं है। जो सनातन ध्वनियां चल रही हैं वे व्याकरण शास्त्र के अनुकूल हैं या नहीं यह सोचना व्यर्थ है। देखना इतना भर है कि इन सनातन शब्द संचार का क्या बैठता है? ‘सो’ अर्थात् ‘वह’। अहम् अर्थात् मैं दोनों का मिला-जुला निष्कर्ष निकला—वह मैं हूं। ‘वह’ अर्थात् परमात्मा—अहम् अर्थात् जीवात्मा। दोनों का समन्वय एकीभाव—‘सोहम्’। आत्मा और परमात्मा एक है, यह अद्वैत सिद्धान्त का समर्थन है। तत्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म-शिवोहम् सच्चिदानन्दोहम्-शुद्धोसि, बुद्धोसि निरंजनोसि जैसे वाक्यों में इसी दर्शन का प्रतिपादन है। उनमें जीव और ब्रह्म की तात्विक एकता का प्रतिपादन है।
‘सोहम्’ उपासना के निमित्त किये गये प्राणायाम में इसी अविज्ञात तथ्य को प्रत्यक्ष करने का—प्रसुप्त जगाने का प्रयत्न किया जाता है। जीव अपने आपको शरीर मान बैठा है। उसी की सुविधा एवं प्रसन्नता की बात सोचता है, उसी के लाभ प्रयत्नों में संलग्न रहता है। काया के साथ जुड़े हुए व्यक्ति और पदार्थ ही उसे अपने लगते हैं और उसी सीमित सम्बन्ध क्षेत्र तक ममत्व को सीमित करके—अन्य सबको पराया समझता रहता है। ‘अपनों’ के लाभ के लिए ‘परायों’ को हानि पहुंचाने में उसे संकोच नहीं होता। यही है माया मग्न—भव-बन्धनों में जकड़े हुए—मोहग्रस्त जीव की स्थिति। इसी में बंधे रहने के कारण उसे स्वार्थ के, व्यर्थ के, अनर्थ के, कामों में संलग्न रहना पड़ता है। यही स्थिति प्राणी को अनेकानेक आधि-व्याधियों में उलझाती और शोक-सन्ताप के गर्त में धकेलती है। इससे बचा, उबरा जाय, इसी समस्या को हल करने के लिए आत्म-ज्ञान एवं साधना विज्ञान का ढांचा खड़ा किया गया है।
‘सोहम्’ को सद्ज्ञान, तत्वज्ञान, ब्रह्मज्ञान कहा गया है। इससे आत्मा को अपनी वास्तविक स्थिति समझने, अनुभव करने का संकेत है। ‘‘वह परमात्मा मैं ही हूं’’ इस तत्वज्ञान में माया मुक्ति स्थिति की शर्त जुड़ी हुई है। नरकीट, नर-पशु और नर-पिशाच जैसी निकृष्ट परिस्थितियों में घिरी ‘अहंता’ के लिए इस पुनीत शब्द का प्रयोग नहीं हो सकता। ऐसे तो रावण, कंस, हिरण्यकश्यप जैसे अहंकारग्रस्त आततायी ही लोगों के मुख से अपने को ईश्वर कहलाने के लिए बाधित करते थे। अहंकार उन्मत्त मनःस्थिति में वे अपने को वैसा समझते भी थे। पर इससे बना क्या, उनका अहंकार ही ले डूबा। ‘सोहम्’ साधना में पंचतत्वों और तीन गुणों से बने घिरे शरीर को ईश्वर मानने के लिए नहीं कहा गया है। ऐसी मान्यता तो उलटा अहंकार जगा देगी और उत्थान के स्थान पर पतन का नया कारण बनेगी। यह दिव्य संकेत आत्मा के शुद्ध स्वरूप का विवेचन है। वह वस्तुतः ईश्वर का अंश है। समुद्र और लहरों की सूर्य और किरणों की, मटाकाश और घटाकाश की, ब्रह्मांड और पिण्ड की, आग और चिनगारी की उपमा देकर परमात्मा और आत्मा की एकता का प्रतिपादन करते हुए मनीषियों ने यही कहा है कि मल-आवरण, विक्षेपों से—कषाय-कल्मषों से मुक्त हुआ जीव वस्तुतः ब्रह्म ही है। दोनों की एकता में व्यवधान मात्र अज्ञान का है, यह अज्ञान ही अहंता के रूप में विकसित होता है और संकीर्ण स्वार्थ-परता में निमग्न होकर व्यर्थ चिन्तन तथा अनर्थ कार्य में निरत रहकर अपनी दुर्गति अपने हाथों आप बनाता है। साधना का उद्देश्य मनःक्षेत्र में भरी कुण्ठाओं और शरीर क्षेत्र में अभ्यस्त कुत्साओं के निराकरण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। सर्वतोमुखी निर्मलता का अभिवर्धन ही ईश्वर प्राप्ति की दिशा में बढ़ने वाला महान् प्रयास माना गया है। सोहम्-साधना की प्रतिक्रिया यही होनी चाहिए।
‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’ की उक्ति धर्मशास्त्री में अनेक स्थानों पर लिखी पाई जाती है और अनेक धर्मोपदेशकों द्वारा आये दिन सुनी जाती है। उसे सामान्य बुद्धि जानती और मानती भी है। पर इतने भर से बनता कुछ नहीं। यह मान्यता अन्तःकरण के गहनतम स्तर की गहराई तक उतरनी चाहिए। गहन आस्था बनकर प्रतिष्ठापित होने वाली श्रद्धा ही—अन्तः प्रेरणा बनती है और उसी के धकेले हुए मस्तिष्क तथा शरीर रूपी सेवकों को कार्य संलग्न होना पड़ता है। ‘सोहम्’ तत्वज्ञान यदि अन्तरात्मा की प्रखर श्रद्धा रूप में विकसित हो सके तो उसका परिणाम सुनिश्चित रूप में दिव्य जीवन जैसा काया-कल्प बनकर सामने आना चाहिए। तब व्यक्ति को उसी स्तर पर सोचना होगा जिस पर ईश्वर सोचता है और वही करना होगा जो ईश्वर करता है। एकता की स्थिति में दोनों का स्वरूप भी एक हो जाता है। नाला जब गंगा में मिलता है और बूंद समुद्र में घुलती है तो दोनों का स्वरूप एवं स्तर एक हो जाता है। ब्रह्म भाव से जमा हुआ जीव अपने चिन्तन और कर्म क्षेत्र में सुविकसित स्तर का देव मानव ही दृष्टिगोचर होता है।
स्पष्ट है कि जप किन्हीं शब्द विशेषों को बोल देना मात्र नहीं है उसमें वाक्शक्ति, चिन्तन तथा प्राण एवं भावशक्ति का भी प्रयोग करना होता है। इस प्रकार किया हुआ जप प्राणवान् जीवन्त जप कहा जा सकता है। उपासना के इस महत्वपूर्ण अंग को अपनाकर उसका समुचित लाभ निश्चित रूप से उठाया जा सकता है।
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उच्चस्तरीय साधना क्रम में मध्यवर्ती विधान के अन्तर्गत प्रधानतया दो कृत्य आते हैं। (1) जप (2) ध्यान। न केवल भारतीय परम्परा में वरन् समस्त विश्व के विभिन्न साधना प्रचलनों में भी किसी न किसी रूप में इन्हीं दो का सहारा लिया गया है। प्रकार कई हो सकते हैं, पर उन्हें इन दो वर्गों के ही अंग-प्रत्यंग के रूप में देखा जा सकता है।
साधना की अन्तिम स्थिति में शारीरिक या मानसिक कोई कृत्य करना शेष नहीं रहता। मात्र अनुभूति, संवेदना, भावना तथा संकल्प शक्ति के सहारे विचार रहित शून्यावस्था प्राप्त की जाती है। इसी को समाधि अथवा तुरियावस्था कहते हैं। ब्रह्मानन्द का परमानन्द का अनुभव इसी स्थिति में होता है। इसे ईश्वर और जीव के मिलन की चरम अनुभूति कह सकते हैं। इस स्थान पर पहुंचने से ईश्वर प्राप्ति का जीवन लक्ष्य पूरा हो जाता है। यह स्तर समयानुसार आत्म-विकास का क्रम पूरा करते चलने से ही उपलब्ध होता है। उतावली में काम बनता नहीं बिगड़ता है। तुर्त-फुर्त ईश्वर दर्शन, समाधि स्थिति, कुण्डलिनी जागरण, शक्तिपात जैसी आतुरता से बालबुद्धि का परिचय भर दिया जा सकता है, प्रयोजन कुछ सिद्ध नहीं होता। शरीर को सत्कर्मों में और मन को सद्विचारों में ही अपनाये रहने से जीव सत्ता का उतना परिष्कार हो सकता है, जिससे वह स्थूल और सूक्ष्म शरीरों को समुन्नत बनाते हुए कारण शरीर के उत्कर्ष से संबद्ध दिव्य अनुभूतियां और दिव्य सिद्धियां प्राप्त कर सके।
समयानुसार उस अन्तिम स्थिति की—कालेज पाठ्यक्रम की भी—शिक्षा उपलब्ध हो जाती है। ऐसी दिव्य सत्ताएं इस संसार में मौजूद हैं जो पात्रता के तालाब को बादलों की तरह बरस कर सदा भरा पूरा रखने को अयाचित सहायता प्रदान कर सकें। हमें शरीर के जड़ और मन के अर्ध चेतन स्तरों को परिष्कृत बनाने में ही अपना सारा ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। साधना विज्ञान की दौड़ इन्हीं दो क्षेत्रों के विकास में सहायता करने वाले विधि-विधान बताने में केन्द्रीभूत है। इतना बन पड़े तो अगली बात निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त दिव्य–चेतना के प्रत्यक्ष मार्ग-दर्शन पर छोड़ी जा सकती है। अपना आपा ही इतना ऊंचा उठ जाता है कि पृथ्वी की आकर्षण शक्ति से ऊपर निकल जाने के बाद राकेट जिस प्रकार अपनी यात्रा अपने बल-बूते चलाने लगते और अमुक कक्षा बना कर भ्रमण करने लगते हैं, उसी प्रकार स्वयमेव आत्म साधना का शेष भाग पूरा हो जाता है।
आत्मोत्कर्ष की जिन कक्षाओं का सैद्धान्तिक और व्यावहारिक पाठ्यक्रम सीखने, सिखाने की आवश्यकता पड़ती है वे चिन्तन की उत्कृष्टता एवं कर्तृत्व की आदर्शवादिता के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। उनकी उपेक्षा करके मात्र कर्मकाण्डों के सहारे कोई बड़ी सफलता हाथ नहीं लग सकती। व्यक्तित्व को अमुक विधि-विधानों के सहारे ऊंचा उठाने की शिक्षा की किन्डरगार्डन शिक्षण में प्रयुक्त होने वाले मनोरंजन उपकरणों से तुलना की जा सकती है, जो बच्चे के अविकसित मस्तिष्क में अमुक जानकारी को ठीक तरह जमाने में सहायता करती है। पहलवानी में सफलता पाने वाले डंबल, मुद्गर आदि उपकरणों का सहारा लेकर अपनी बल वृद्धि करते हैं। ऊंचा चढ़ने के लिए लाठी की और जल्दी पहुंचने के लिए वाहन की जरूरत पड़ती है। यह उपकरण बहुत ही उपयोगी और आवश्यक हैं, पर यह ध्यान रखना चाहिए कि स्वतन्त्र रूप से कोई जादुई शक्ति से सम्पन्न नहीं है। स्वस्थ शरीर को बलिष्ठ बनाने में वे सहायता भर करते हैं। ठीक यही स्थिति उपासना क्षेत्र में फैले हुए अनेकानेक कर्मकाण्डों की है।
जप द्वारा अध्यात्म ही उस परमेश्वर को पुकारता है; जिसे हम एक प्रकार से भूल ही चुके हैं। मणि विहीन सर्प जिस तरह अशक्त एवं हताश बना बैठा रहता है, उसी प्रकार हम परमात्मा से बिछुड़कर अनाथ बालक की तरह डरे, सहमे बैठे हैं—अपने को असुरक्षित और आपत्तिग्रस्त स्थिति में अनुभव कर रहे हैं। लगता है हमारा कुछ बहुमूल्य खो गया है। जप की पुकार उसी को खोजने के लिए है। बिल्ली अपने बच्चों के इधर-उधर छिप जाने पर उन्हें ढूंढ़ने के लिए म्याऊं-म्याऊं करती फिरती है और उस पुकार के आधार पर उन्हें खोज निकालती है। कोई बालक खो जाने पर उसके ढूंढ़ने के लिए नाम और हुलिया की मुनादी कराई जाती है। रामनाम की रट इसी प्रयोजन के लिए है।
गज की एक टांग ग्राह के मुंह में चली गई थी। गज पानी से बाहर निकलना चाहता था और ग्राह उसे भीतर घसीटता था। दोनों में से हारता भी कोई नहीं था। इस खींचतान में हाथी को भारी कष्ट हो रहा था। न मरते बनता था न जीते। निदान गज ने भगवान को पुकार लगाई। उनका नाम हजार बार लिया तब भगवान को पुकारा था और वे उसे आश्वस्त करने आये थे। अज्ञानान्धकार में भटकने वाले जीव की स्थिति गज से भी गई-बीती है। गज की एक टांग को एक मगर खा रहा था। यहां काम, क्रोध, मद, मत्सर रूपी चार ग्राह दोनों हाथ, दोनों पैर, सिर और धड़ इन छहों अवयवों को खाये जा रहे हैं।
द्रौपदी का शरीर ही निर्वस्त्र हो रहा था, पर आत्मा की शालीनता का आवरण उतरता जाने से उसका बहिरंग और अन्तरंग दोनों ही लज्जास्पद बनते चले जा रहे हैं। ऐसी दशा में गज रूपी मन और आत्मा रूपी द्रौपदी का भगवान को पुकारना उचित ही है। जप में भगवत् नाम की रट पतन के गर्त में से हाथ पकड़ कर ऊपर उबारने के लिए ही लगाई जाती है।
परमात्मा की दिव्य चेतना के अभाव में मनुष्य नर-पशु, नर-कीटक मात्र बनकर रह जाता है। पंचतत्वों की काया में पेट और प्रजनन मात्र की दो आकांक्षाएं रहती हैं और वह उनकी पूर्ति के लिए वासना-तृष्णा में ग्रसित रह कर अचिन्त्य चिन्तन तथा अकर्म करने में निरत रहता है। आदर्शों को अपनाने के लिए न उसकी उत्कंठा जगती है और न चेष्टा होती है। सड़ी कीचड़ में कुलबुलाते रहने वाले घिनौने कीड़ों की तरह उसे कुत्साओं और कुण्ठाओं की शोक संतापों की प्रताड़नाएं सहन करते हुए इस सुर-दुर्लभ अवसर को रोते कलपते गंवाना पड़ता है। इस अन्धकार में भटकने से त्राण पाने के लिए आत्मा प्रकाश को पुकारती है। यह प्रकाश भगवान ही हो सकता है। उसे पाने की आतुरता में जिन शब्दों का उच्चारण होता है, उसे नाम-जप कह सकते हैं।
यह सोचना व्यर्थ है कि भगवान का मन इतना ओछा है कि वे अपना नाम लेने वाले से—चापलूसी भरे शब्दोच्चार करने वाले से—प्रसन्न हो जाते हैं। उन्हें नाम लेने न लेने से कोई वास्ता नहीं। वह दिव्य सत्ता तो केवल इतना ही देखती है कि जो काम सौंपे गये थे वे पूरे किये गये या नहीं। वे अनुशासन और कर्तव्य पालन भर की अपेक्षा मनुष्य से करते हैं और इसी कसौटी पर कस कर दण्ड, पुरस्कार की व्यवस्था करते हैं। उनका रोष और प्रेम ठीक विद्युत शक्ति की तरह है। बिजली का विधिवत् उपयोग करने वाले उससे तरह-तरह के लाभ उठाते हैं। रोशनी, पंखा, रेडियो, हीटर जैसे अनेक प्रयोजन पूरे करते हैं, किन्तु जो उसके खुले तार छूने की उच्छृंखलता बरतते हैं वे रोष के भोजन बनते हैं और अपने प्राण गंवा बैठते हैं। भगवान का एक नाम ‘रुद्र’ भी है। रुद्र अर्थात् भयंकर अनीति बरतने वालों को वे बिना दया माया प्रदर्शित किये कस कर दण्ड भी देते हैं। नाम-जप की चापलूसी से ईश्वर को फुसला लेने और जो लाभ सन्मार्ग पर चलने वालों को मिलता है वही पूजा-पत्री से पा लेने की बात सोचना मूर्खतापूर्ण है। ईश्वर को इतना मूर्ख और ओछा नहीं समझा जाना चाहिए कि नाम लेने भर से किसी को भक्त मान ले और निहाल करदे। उसका अनुग्रह तो व्यक्तित्व को परिष्कृत करने और सन्मार्ग पर चलने से ही सम्भव हो सकता है।
शरीर पर नित्य मैल चढ़ता है और उसे साफ करने के लिए नित्य स्नान करना पड़ता है। कपड़े नित्य मैले होते हैं और उन्हें रोज ही धोना होता है। कमरे में झाडू लगाना, दांत मांजना, बालों में कंघी करना नित्य का काम है। मन पर नित्य ही वातावरण में उड़ती फिरने वाली दुष्प्रवृत्तियों की छाप पड़ती है। उस मलीनता को धोने के लिए नित्य ही उपासना करनी पड़ती है। भगवत् स्मरण उपासना का प्रधान अंग है। नाम के आधार पर ही किसी सत्ता का बोध और स्मरण हमें होता है। ईश्वर को स्मृति पटल पर प्रतिष्ठापित करने के लिए उसके नाम का सहारा लेना पड़ता है। स्मरण से आह्वान—आह्वान से स्थापना और स्थापना से उपलब्धि का क्रम चल पड़ना मनोविज्ञान शास्त्र द्वारा समर्थित है।
चेतना को प्रशिक्षित करने के लिए मनोविज्ञान शास्त्र में चार आधार और स्तर बताये गये हैं। इनमें प्रथम है—शिक्षण—जिसे अंग्रेजी में ‘लर्निंग’ कहते हैं। स्कूल के बच्चों को इसी स्तर पर पढ़ाया जाता है। उन्हें तरह-तरह की जानकारियां दी जाती हैं। उन जानकारियों को सुन लेने भर से काम नहीं चलता। विद्यार्थी उन्हें बार-बार दुहराते हैं। स्कूली पढ़ाई का सारा क्रम ही दुहराने—याद करने के सहारे खड़ा होता है। पहाड़े रटने पड़ते हैं। संस्कृत को रटन्त विद्या ही कहा जाता है। प्रकारान्तर से यह रटाई किसी न किसी प्रकार हर छात्र को करनी पड़ती है। स्मृति पटल पर किसी नई बात को जमाने के लिए बार-बार दुहराये जाने की क्रिया अपनाये बिना और कोई रास्ता नहीं।
एक बार याद कर लेने से कुछ बातें तो देर तक याद बनी रहती हैं, पर कुछ ऐसी हैं जो थोड़े दिन अभ्यास छोड़ देने से एक प्रकार से विस्मरण ही हो जाती हैं। स्कूली पढ़ाई छोड़ देने के उपरान्त यदि वे विषय काम में न आते रहें तो कुछ समय बाद विस्मृत हो जाते हैं। फौजी सिपाहियों को नित्य ही परेड करनी पड़ती है। पहलवान लोग बिना नागा अखाड़े में जाते और रोज ही दंड बैठक करते हैं। संगीतकारों के लिए नित्य का ‘रियाज’ आवश्यक हो जाता है। कुछ समय के लिए भी वे गाने बजाने का अभ्यास छोड़ दें तो उंगलियां लड़खड़ाने लगेंगी और ताल स्वरों में अड़चन उत्पन्न होने लगेंगी।
शिक्षण की ‘लर्निंग’ भूमिका में पुनरावृत्ति का आश्रय लिया जाना आवश्यक है। जप द्वारा अनभ्यस्त ईश्वरीय चेतना को स्मृति पटल पर जमाने की आवश्यकता होती है ताकि उपयोगी प्रकाश की अन्तःकरण में प्रतिष्ठापना हो सके। कुएं की जगत में लगे पत्थर पर रस्सी की रगड़ बहुत समय तक पड़ते रहने से उसमें निशान बन जाते हैं। हमारी मनोभूमि भी इतनी ही कठोर है। एक बार कहने से बात समझ में तो आ जाती है पर उसे स्वभाव की—अभ्यास की भूमिका तक उतारने के लिए बहुत समय तक दुहराने की आवश्यकता पड़ती है। पत्थर पर रस्सी की रगड़ से निशान पड़ने की तरह ही हमारी कठोर मनोभूमि पर भगवत् संस्कारों का गहराई तक जम सकना संभव है।
शिक्षण की दूसरी परत है—‘रिटेन्शन’ अर्थात् प्रस्तुत जानकारी को स्वभाव का अंग बना लेना। तीसरी भूमिका है—‘री काल’ अर्थात् भूतकाल की किन्हीं विस्मृत स्थितियों को कुरेद बीनकर फिर से सजीव कर लेना। चौथी भूमिका है—‘रीकाग्नीशन’ अर्थात् मान्यता प्रदान कर देना। निष्ठा आस्था—श्रद्धा एवं विश्वास में परिणत कर देना। उपासना में इन्हीं सब प्रयोजनों को पूरा करना पड़ता है। यह चारों ही परतें छेड़नी होती हैं। भगवान की समीपता अनुभव कराने वाली प्रतीक पूजा ‘रिटेन्शन’ है। ईश्वर के साथ आत्मा के अति प्राचीन सम्बन्धों को भूल जाने के कारण ही जीवन में भटकाव होता है। पतंग उड़ाने वाले के हाथ से डोरी छूट जाती है तभी वह इधर-उधर छितराती फिरती है। बाजीगर की उंगलियों से बंधे कठपुतली के सम्बन्ध सूत्र टूट जाय तो फिर वे लकड़ी के टुकड़े नाच किस प्रकार दिखा सकेंगे। कनेक्शन तार टूट जाने पर बिजली के यंत्र अपना काम करना बन्द कर देते हैं। ईश्वर और जीव का सम्बन्ध सनातन है पर वह माया में अत्यधिक प्रवृत्ति के कारण एक प्रकार से टूट ही गया है। इसे फिर से सोचने, सूत्र को नये सिरे से ढूंढ़ने और टूटे सम्बन्धों को फिर से जोड़ने की प्रक्रिया ‘रि काल’ है। जप द्वारा यह उद्देश्य भी पूरा होता है। चौथी भूमिका में ‘रिकाग्नीशन’ में पहुंचने पर जीवात्मा की मान्यता अपने भीतर ईश्वरीय प्रकाश विद्यमान होने की बनती है और वह वेदान्त तत्वज्ञान की भाषा में ‘अयमात्मा ब्रह्म’—‘तत्वमसि’ सोहमस्मि—चिदानंदोहम्—शिवोहम की निष्ठा जीवित करता है। यह शब्दोच्चार नहीं वरन् मान्यता का स्तर है। जिसमें पहुंचे हुए मनुष्य का गुण, कर्म, स्वभाव, दृष्टिकोण एवं क्रिया-कलाप ईश्वर जैसे स्तर का बन जाता है। उसकी स्थिति महात्मा, देवात्मा एवं परमात्मा जैसी देखी और अनुभव की जा सकती है।
आत्मिक प्रगति के लिए चिन्तन क्षेत्र की जुताई करनी पड़ती है, तभी उसमें उपयोगी फसल उगती है। खेत को बार-बार जोतने से ही उसकी उर्वरा शक्ति बढ़ती है। नाम जप को एक प्रकार से खेत की जुताई कह सकते हैं। प्रहलाद की कथा है कि वे स्कूल में प्रवेश पाने के उपरान्त पट्टी पर केवल राम नाम ही लिखते रहे आगे की बात पढ़ने के लिए कहे जाने पर भी राम नाम ही लिखते रहे और कहते रहे। इस एक को ही पढ़ लेने पर सारी पढ़ाई पूरी हो जाती है। युधिष्ठिर की कथा भी ऐसी ही है। अन्य छात्रों ने आगे के पाठ याद कर लिये, पर वे पहला पाठ ‘सत्यंवद’ ही रटते लिखते रहे। अध्यापक ने आगे के पाठ पढ़ने के लिए कहा तो उनका उत्तर यही था कि एक पाठ याद हो जाने पर दूसरा पढ़ना चाहिए। उनका तात्पर्य यह था कि सत्य के प्रति अगाध निष्ठा और व्यवहार में उतारने की परिपक्वता उत्पन्न हो जाने तक उसी क्षेत्र में अपने चिन्तन को जोते रहना चाहिए।
नाम जप में होने वाली पुनरावृत्ति के पीछे युधिष्ठिर और प्रहलाद द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया का संकेत है। भगवान मय जीवन बनाने की स्थिति आने तक नाम स्मरण करते रहा जाना चाहिए। अन्तरात्मा द्वारा एक मन और दशा इन्द्रियों को पढ़ाने के लिए खोली गई पाठशाला को उपासना कृत्य समझा जा सकता है उसमें नाम जप की रटाई कराई जाती है ताकि यह छात्र वर्णमाला, गिनती, पहाड़े भली प्रकार याद कर सके। एक ही विधान को लगातार दुहराते रहने के पीछे यही बाल शिक्षण की प्रक्रिया काम करती है।
कपड़े को देर तक रंग भरी नाद में डुबोये रहने से उस पर पक्का रंग चढ़ जाता है। चन्दन वृक्ष के समीप उगे हुए झाड़-झंखाड़ भी सुगन्धित हो जाते हैं। गुलाब के फूल जिस मिट्टी पर टूट-टूट कर गिरते रहते हैं वह भी सुगन्धित हो जाती है। सान्निध्य का लाभ सर्वविदित हैं। सत्संग और कुसंग के भले-बुरे परिणाम आये दिन सामने आते रहते हैं। उपासना कृत्य भगवान की समीपता है, उसका सत्परिणाम सामने आये बिना नहीं रह सकता। कीट भृंग का उदाहरण प्रख्यात है।
जप के लिए भारतीय धर्म में सर्वविदित और सर्वोपरि मंत्र गायत्री मंत्र का प्रतिपादन है। उसे गुरुमंत्र कहा गया है। अन्तः चेतना को परिष्कृत करने में उसका जप बहुत ही सहायक सिद्ध होता है। वेदमाता इसे इसलिए कहा गया है कि वेदों में सन्निहित ज्ञान विज्ञान का सारा वैभव बीज रूप से इन थोड़े से अक्षरों में ही सन्निहित है।
जप का भौतिक महत्व भी है। विज्ञान के आधार पर भी उसकी उपयोगिता समझी समझाई जा सकती है। शरीर और मन में अनेकानेक दिव्य क्षमताएं चक्रों, ग्रन्थियों, भेद और उपत्यिकाओं के रूप में विद्यमान हैं उनमें ऐसी सामर्थ्यें विद्यमान हैं जिन्हें लगाया जा सके तो व्यक्ति को अतीन्द्रिय एवं अलौकिक विशेषताएं प्राप्त हो सकती हैं। साधना का परिणाम सिद्धि है। यह सिद्धियां भौतिक प्रतिभा और आत्मिक दिव्यता के रूप में जिन साधना आधारों के सहारे विकसित होती हैं, उनमें जप को प्रथम स्थान दिया गया है।
मुख को अग्निचक्र कहा गया है। मोटे अर्थों में उसकी संगति जठराग्नि से मिलाई जा सकती है। मंदाग्नि, तीव्राग्नि का वर्णन मुंह से लेकर आमाशय अग्नि संस्थान तक विस्तृत क्षेत्र में फैली हुई पाचन ग्रन्थियों की निष्क्रियता-सक्रियता का परिचय देने के रूप में ही किया जाता है। मुंह चबाता है और पचाने का प्राथमिक कार्य अपने गह्वर में पूरा करता है। आगे चलकर आहार की पाचन क्रिया अन्यान्य रूपों में विकसित होती जाती है। अग्निचक्र की—मुख में अवस्थित ऊष्मा की—स्थूल चर्चा ही पाचन प्रक्रिया के रूप में की जा सकती है। वस्तुतः उस संस्थान को यज्ञाग्नि का दिव्य कुण्ड कह सकते हैं, जिससे पाचन का ही नहीं, वाक् शक्ति का भी उद्भव होता है।
मुख का अग्निचक्र स्थूल रूप से पाचन का—सूक्ष्म रूप में उच्चारण का और कारण और रूप से चेतनात्मक दिव्य प्रवाह उत्पन्न करने का कार्य करता है। उसके तीनों कार्य एक से एक बढ़ कर हैं। पाचन और उच्चारण की महत्ता सर्वविदित है। दिव्य प्रवाह संचार की बात कोई-कोई ही जानते हैं। जपयोग का सारा विज्ञान इसी रहस्यमयी सामर्थ्य के साथ सम्बद्ध है। कोई ही जानते हैं। जपयोग का सारा विज्ञान इसी रहस्यमयी सामर्थ्य के साथ सम्बद्ध है।
शब्दों का उच्चारण मात्र जानकारी ही नहीं देता वरन् उसके साथ अनेकानेक भाव अभिव्यंजनाएं—संवेदनाएं—प्रेरणाएं एवं शक्तियां भी जुड़ी होती हैं। यदि ऐसा न होता तो वाणी में मित्रता एवं शत्रुता उत्पन्न करने की सामर्थ्य न होती। दूसरों को उठाने गिराने में उसका उपयोग न हो पाता। कटु शब्द सुनकर क्रोध चढ़ आता है और न कहने योग्य कहने तथा न करने योग्य करने की स्थिति बन जाती है। चिन्ता का समाचार सुनकर भूख-प्यास और नींद चली जाती है। शोक संवाद सुनकर मनुष्य अर्ध मूर्छित जैसा हो जाता है। तर्क तथ्य, उत्साह एवं भावुकता भरा शब्द प्रवाह देखते-देखते जन समूह का विचार बदल देता है और उस उत्तेजना से सम्मोहित असंख्य मनुष्य कुशल वक्ता का अनुसरण करने के लिए तैयार हो जाते हैं। द्रौपदी ने थोड़े से व्यंग-उपहास भरे अपमानजनक शब्द दुर्योधन से कह दिये थे। उनका घाव इतना इतना गहरा उतरा कि अठारह अक्षौहिणी सेना का विनाश करने वाले महाभारत के रूप में उसकी भयानक प्रतिक्रिया सामने आई। इन तथ्यों पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि वाणी का काम जानकारी देना भर नहीं है। शब्द प्रवाह के साथ-साथ उनके प्रभावोत्पादक चेतन तत्व भी जुड़े रहते हैं और वे ध्वनि कम्पनों के साथ घुले रहकर जहां भी टकराते हैं वह चेतनात्मक हलचल उत्पन्न करते हैं। शब्द को पदार्थ विज्ञान की कसौटी पर भौतिक तरंग स्पन्दन भर कहा जा सकता है, पर उसकी चेतना को प्रभावित करने वाली संवेदनात्मक क्षमता की भौतिक व्याख्या नहीं हो सकती। वह विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक है।
जपयोग में शब्द शक्ति के इसी आध्यात्मिक प्रभाव को छान कर काम में लाया जाता है। नीबू का रस निचोड़ कर उसका छिलका एक ओर रख दिया जाता है। दूध में से घी निकाल कर छाछ को महत्वहीन ठहरा दिया जाता है। जपयोग में ऐसा ही होता है। उसके द्वारा ऐसी चेतन शक्ति का उद्भव होता है, जो जपकर्त्ता के शरीर एवं मन में विचित्र प्रकार की हलचलें उत्पन्न करती है और अनन्त आकाश में उड़कर विशिष्ठ व्यक्तियों को—विशेष परिस्थितियों को तथा समूचे वातावरण को प्रभावित करती है।
मंत्रों का चयन ध्वनि-विज्ञान को आधार मान कर किया गया है। अर्थ का समावेश गौण है। गायत्री मंत्र की सामर्थ्य अद्भुत है। पर उसका अर्थ अति सामान्य है। भगवान से सद्बुद्धि की कामना भर उसमें की गई है। इसी अर्थ प्रयोजन को व्यक्त करने वाले मंत्र श्लोक हजारों हैं। हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में भी ऐसी कविताओं की कमी नहीं जिनमें परमात्मा से सद्बुद्धि की प्रार्थना की गई है। फिर उन सब कविताओं को गायत्री मंत्र के समकक्ष क्यों नहीं रखा जाता और उनका उच्चारण क्यों उतना फलप्रद नहीं होता? वस्तुतः मंत्र सृष्टाओं की दृष्टि में शब्दों का गुंथन ही महत्वपूर्ण रहा है। कितने ही बीज मंत्र ऐसे हैं जिनका खींचतान के ही कुछ अर्थ भले ही गढ़ा जाय पर वस्तुतः उनका कुछ अर्थ है ही नहीं। ह्रीं, श्रीं, क्लीं, ऐं, हुं, यं, फट् आदि शब्दों का क्या अर्थ हो सकता है, इस प्रश्न पर माथापच्ची करना बेकार है। उनका सृजन यह ध्यान में रखते हुए किया गया है कि उनका उच्चारण किस स्तर का शक्ति कम्पन उत्पन्न करता है और इनका जपकर्त्ता, बाह्य वातावरण तथा अभीष्ट प्रयोजन पर क्या प्रभाव पड़ता है?
मानसिक, वाचिक एवं उपांशु जप में ध्वनियों के हलके भारी किये जाने की प्रक्रिया काम में लाई जाती है। वेद मन्त्रों के अक्षरों के साथ-साथ उदात्त-अनुदात्त और स्वरित क्रम से उनका उच्चारण नीचे-ऊंचे तथा मध्यवर्ती उतार-चढ़ाव के साथ किया जाता है। उनके सस्वर उच्चारण की परम्परा है। यह सब विधान इसी दृष्टि से बनाने पड़े हैं कि उन मन्त्रों का जप अभीष्ट उद्देश्य पूरा कर सकने वाला शक्ति प्रवाह उत्पन्न कर सके।
मन्त्र जप की दुहरी प्रतिक्रिया होती है। एक भीतर, दूसरी बाहर। आग जहां जलती है उस स्थान को गरम करती है, साथ ही वायु मण्डल में ऊष्मा बखेर कर अपने प्रभाव क्षेत्र को भी गर्मी देती है। जप का ध्वनि प्रवाह—समुद्र की गहराई में चलने वाली जल धाराओं की तरह तथा ऊपर आकाश में छितराई हुई उड़ने वाली हवा की परतों की तरह अपनी हलचलें उत्पन्न करता है। उनके कारण शरीर में यत्र-तत्र, सन्निहित अनेकों ‘चक्रों’ तथा ‘उपत्यिका’ ग्रन्थियों में विशिष्ट स्तर का शक्ति संचार होता है। लगातार के एक नियमित क्रम से चलने वाली हलचलें ऐसा प्रभाव उत्पन्न करती हैं, जिन्हें रहस्यमय ही कहा जा सकता है। पुलों पर सैनिकों को पैरों को मिलाकर चलने से उत्पन्न क्रमबद्ध ध्वनि उत्पन्न करने के लिए इसलिए मना किया जाता है कि इस साधारण-सी क्रिया से पुल तोड़ देने वाला असाधारण प्रभाव उत्पन्न हो सकता है।
जप लगातार करना पड़ता है और एक ही क्रम से इस प्रक्रिया के परिणामों को विज्ञान की प्रयोगशाला में अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है। एक टन भारी लोहे का गार्डर किसी छत के बीचों-बीच लटका दिया जाय और उस पर पांच ग्राम भारी हलके से कार्क के लगातार आघात लगाने प्रारम्भ कर दिये जायं तो कुछ ही समय में वह सारा गार्डर कांपने लगेगा। यह लगातार—एक गति से—आघात क्रम से उत्पन्न होने वाली शक्ति का चमत्कार है। मन्त्र जप यदि विधिवत् किया गया है तो उसका परिणाम भी यही होता है। सूक्ष्म शरीर में—अवस्थित चक्रों और ग्रन्थियों को जप ध्वनि का अनवरत प्रभाव अपने ढंग से प्रभावित करता है और उत्पन्न हुई हलचल उनकी मूर्छना दूर करे जाग्रति का अभिनव दौर उत्पन्न करती है। ग्रन्थिभेदन तथा चक्र जागरण का सत्परिणाम जपकर्त्ता को प्राप्त होता है। जगे हुए यह दिव्य संस्थान साधक में आत्मबल का नया संचार करते हैं। उसे ऐसा कुछ अपने भीतर जगा, उगा प्रतीत होता है जो पहले नहीं था। इन नवीन उपलब्धि के लाभ भी उसे प्रत्यक्ष ही दृष्टिगोचर होते हैं।
टाइप राइटर के उदाहरण से इस तथ्य को और भी अच्छी तरह समझा जा सकता है। उंगली से चाबियां दबाई जाती हैं और कागज पर तीलियां गिर कर अक्षर छापने लगती हैं। मुख में लगे उच्चारण में प्रयुक्त होने वाले कलपुर्जों को टाइप राइटर की कुंजियां कह सकते हैं। मन्त्रोच्चार उंगली से उन्हें दबाना हुआ। यहां से उत्पन्न शक्ति प्रवाह नाड़ी तन्तुओं की तीलियों के सहारे सूक्ष्म चक्रों और दिव्य ग्रन्थियों तक पहुंचता है और उन्हें झकझोर कर जगाने, खड़ा करने में संलग्न होता है। अक्षरों का छपना वह उपलब्धि है जो इन जागृत चक्रों द्वारा रहस्यमयी सिद्धियों के रूप में साधक को मिलती हैं। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि यदि जपयोग को विधिवत् साधा गया होगा तो उसका सत्परिणाम उत्पन्न होगा ही।
पुलों पर होकर गुजरती हुई सेना को पैर मिलाकर चलने पर ध्वनि प्रवाह उत्पन्न करने की मनाही कर दी जाती है। पुलों पर से गुजरते समय वे बिखरे हुए—स्वच्छतापूर्ण कदम बढ़ाते हैं। कारण यह है कि लेफ्ट राइट के ठीक क्रम से तालबद्ध पैर पड़ने से जो एकीभूत शक्ति उत्पन्न होती है उसकी अद्भुत शक्ति के प्रहार से मजबूत पुलों में दरार पड़ सकती है और भारी नुकसान हो सकता है। मन्त्र जप के क्रमबद्ध उच्चारण से उसी प्रकार का तालक्रम उत्पन्न होता है और उसके फलस्वरूप शरीर से अन्तः संस्थानों में विशिष्ट हल-चल उत्पन्न होती है। यह हलचलें उन अलौकिक शक्तियों की मूर्छना दूर करती हैं जो जागृत होने पर सामान्य मनुष्य को असामान्य चमत्कारों से सम्पन्न सिद्ध कर सकती है।
हाथों को लगातार थोड़ी देर तक घिसा जाय तो वे गरम हो जाते हैं। रगड़ से गर्मी और बिजली पैदा होती है, यह नियम विज्ञान की प्रथम कक्षा में पढ़ने वाले छात्र भी जानते हैं। जप में अनवरत उच्चारण क्रम एक प्रकार का घर्षण उत्पन्न करता है। पत्थर पर रस्सी की रगड़ पड़ने से घिसाव के निशान बन जाते हैं। श्वांस के आवागमन तथा रक्त की भाग-दौड़ से शरीर में गर्मी उत्पन्न होती है और उसी पर जीवन अवलम्बित रहता है। डायनेमो में पहिया घूमने से बिजली उत्पन्न होने की बात सभी जानते हैं। जप में जो घर्षण प्रक्रिया गतिशील होती है, वह दौड़ लगाने पर शरीर के उत्तेजित हो जाने की तरह सूक्ष्म शरीर में उत्तेजना पैदा करती है और उस गर्मी से मूर्छित पड़ा अन्तर्जगत नये जागरण का अनुभव करता है। यह जागरण मात्र उत्तेजना नहीं होती उसके साथ दिव्य उपलब्धियों की सम्भावना भी जुड़ी रहती है।
ध्वनियां उतनी ही नहीं हैं जितनी कि कानों से सुनाई पड़ती हैं। कान तो एक निश्चित स्तर के ध्वनि कम्पनों को ही सुन पाते हैं। उनकी पकड़ से ऊंचे और नीचे कम्पनों वाले भी असंख्य ध्वनि प्रवाह होते हैं जिन्हें मनुष्य के कान तो सुन नहीं सकते, पर उनके प्रभावों को उपकरणों की सहायता से प्रत्यक्ष देखा जाना जा सकता है। इन्हें ‘सुपर सौनिक’ ध्वनि तरंगें कहते हैं।
मनुष्य की गृहण और धारण शक्ति सीमित है। वह अपनी दुबली-सी क्षमता के लिए उपयुक्त शब्द प्रवाह ही पकड़ सकें, इसी स्तर की कानों की झिल्ली बनी हैं। किन्तु यह संसार तो शक्ति का अथाह समुद्र है और इसमें ज्वार-भाटे की तरह श्रवणातीत ध्वनियां गतिशील रहती हैं। अच्छा ही हुआ कि मनुष्य की गृहण शक्ति सीमित है और वह अपने लिए सीमित प्रवाह ही ले पाता है अन्यथा यदि श्रवणातीत ध्वनियां भी उसे प्रभावित कर सकतीं तो जीवन धारण ही सम्भव न हो पाता।
शब्द की गति साधारणतया बहुत धीमी है। वह मात्र कुछ सौ फुट प्रति सैकिण्ड चल पाती है। तोप चलने पर धुंआ पहले दीखता है और धड़ाके की आवाज पीछे सुनाई पड़ती है। जहां दृश्य और श्रव्य का समावेश है वहां हर जगह ऐसा ही होगा। दृश्य पहले दीखेगा और उस घटना के साथ जुड़ी हुई आवाज कान तक पीछे पहुंचेगी।
रेडियो प्रसारण में एक छोटी-सी आवाज को विश्वव्यापी बना देने और उसे 1 लाख 86 हजार मील प्रति सैकिण्ड की चाल से चलने योग्य बना देने में इलेक्ट्रो मैगनेटिक तरंगों का ही चमत्कार होता है। रेडियो विज्ञानी जानते हैं कि ‘इलेक्ट्रो मैगनेटिक वेव्स’ पर साउण्ड का सुपर कम्पोज रिकार्ड कर दिया जाता है और वे पलक मारते सारे संसार की परिक्रमा कर लेने जितनी शक्तिशाली बन जाती हैं।
इलेक्ट्रो मैगनेटिक तरंगों की शक्ति से ही अन्तरिक्ष में भेजे गये राकेटों की उड़ान को धरती पर से नियंत्रित करने, उन्हें दिशा और संकेत देने, यांत्रिक खराबी दूर करने का प्रयोजन पूरा किया जाता है। वे ‘लेसर’ स्तर की बनती हैं तो शक्ति का ठिकाना नहीं रहता। एक फुट मोटी लोहे की चद्दर में सूराख कर देना उनके बायें हाथ का खेल है। पतली वे इतनी होती हैं कि आंख की पुतली के लाखवें हिस्से में खराबी होने पर मात्र उतने ही टुकड़े का निर्धारित गहराई तक ही सीमित रहने वाला सफल आपरेशन कर देती हैं। अब इन किरणों का उपयोग चिकित्सा क्षेत्र में भी बहुत होने लगा है। केन्सर, आंत्रशोध, यकृत की विकृति, गुर्दे की सूजन, हृदय की जकड़न जैसी बीमारियों की चिकित्सा में इनका सफल उपयोग हो रहा है।
‘सुपर सौनिक’ श्रवणातीत तरंगों का जप प्रक्रिया के द्वारा उत्पादन और समन्वय होता है। जप के समय उच्चारण किये गये शब्द—आत्म-निष्ठा, श्रद्धा एवं संकल्प शक्ति का समन्वय होने से वही क्रिया सम्पन्न होती है, जो रेडियो स्टेशन पर बोले गये शब्द—विशिष्ट विद्युत शक्ति के साथ मिलकर अत्यन्त शक्तिशाली हो उठते हैं और पलक मारते समस्त भूमण्डल में अपना उद्देश्य प्रसारित कर देते हैं। जप प्रक्रिया में एक विशेषता यह है कि उससे न केवल समस्त संसार का वातावरण प्रभावित होता है, वरन् साधक का व्यक्तित्व भी झनझनाने, जगमगाने लगता है। जबकि रेडियो स्टेशन से प्रसारण तो होता है, पर कोई स्थानीय विलक्षणता दिखाई नहीं पड़ती। लेसर रेडियम किरणें फेंकने वाले यन्त्रों में कोई निजी प्रभाव नहीं देखा जाता वे उन स्थानों को ही प्रभावित करते हैं जहां उनका आघात लगता है। जप-प्रक्रिया में साधक को और वातावरण को प्रभावित करने की वह दुहरी शक्ति है—जो नव वैज्ञानिकों के सामान्य यंत्र उपकरणों में नहीं पाई जाती।
जप सामान्य रूप से उपांशु किया जाता है जिसमें गायत्री मंत्र का प्रयोग किया जाता है। जप का एक और महत्वपूर्ण प्रयोग सोऽहं साधना के रूप में भी होता है जिसमें किसी मंत्र का सीधा प्रयोग नहीं होता। इसमें जप के साथ प्राण विद्या का प्रयोग किया जाता है।
सोऽहम् साधना को ‘अजपा जाप’ अथवा प्राण गायत्री भी कहा गया है। मान्यता है कि श्वांस के शरीर में प्रवेश करते समय ‘स’ जैसी सांस रुकने के तनिक से विराम समय में ‘‘ो’’ जैसी—और बाहर निकलते समय ‘हम’ जैसी अत्यन्त सूक्ष्म ध्वनि होती रहती है। इसे श्वांस क्रिया पर चिरकाल तक—ध्यान केन्द्रित करने की साधना द्वारा सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय द्वारा सुना जा सकता है। चूंकि ध्वनि सूक्ष्म है स्थूल नहीं—इसलिए उसे अपने छेद वाले कानों से नहीं—सूक्ष्म शरीर में रहने वाली सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय द्वारा—शब्द तन्मात्रा के रूप में ही सुना जा सकता है। कोई खुले कानों से इस शब्दों को सुनने का प्रयत्न करेगा तो उसे कभी भी सफलता न मिलेगी।
नादयोग में मात्र सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय द्वारा शंख, घड़ियाल, बादल, झरना, वीणा जैसे कितने ही दिव्य शब्द सुने जाते हैं। किन्तु हंस-योग में नासिका एवं कर्णेन्द्रिय की समन्वित सूक्ष्म शक्ति का दुहरा लाभ मिलता है। ‘सोऽहम्’ को अनाहत शब्द कहा गया है। आहत वे हैं, जो कहीं कोई चोट लगने से उत्पन्न होते हैं। अनाहत वे जो बिना किसी आघात के उत्पादन होते हैं। नादयोग में जो दिव्य ध्वनियां सुनी जाती हैं, उनके बारे में दो मान्यताएं हैं। एक यह है कि प्रकृति के अन्तराल सागर में पांच तत्वों और सत, रज, तम यह तीन गुणों की जो उथल-पुथल मचती रहती है यह उनकी प्रति-क्रिया है दूसरे यह माना जाता है कि शरीर के भीतर जो रक्त-संचार, आकुंचन-प्रकुंचन, श्वास-प्रश्वास जैसी क्रियाएं अनवरत रूप से होती रहती हैं, यह शब्द उन हलचलों से उत्पन्न होते हैं। अस्तु यह आहत हैं। नादयोग को भी कई जगह अनाहत कहा गया है, पर आम मान्यता यही है कि वे आहत हैं। मुख से जो शब्द उत्पन्न होते हैं वे भी होठ, जीभ, कंठ, तालु आदि अवयवों की—मांस पेशियों की उठक-पटक से उत्पन्न होते हैं; अस्तु जप भी आहत है। आहत से अनाहत का महत्व अधिक माना गया है। अनाहत ब्रह्म चेतना द्वारा निश्चित और आहत प्रकृतिगत हलचलों से उत्पन्न होते हैं अस्तु उनका महत्व भी ब्रह्म और प्रकृति की तुलना जैसा ही न्यूनाधिक है।
तत्वदर्शियों का मत है कि जीवात्मा के गहन अन्तराल में उसकी आत्मबोध प्रज्ञा स्वयमेव जगी रहती है और उसी की स्फुरणा से ‘सोऽहम्’ का आत्म-बोध अजपा जाप बनकर स्वसंचालित बना रहता है। संस्कृत भाषा के स+अहम् शब्दों से मिलकर ‘सोहम्’ का आविर्भाव माना जाता है। यहां व्याकरण शास्त्र की संधि प्रक्रिया के झंझट में पड़ने की जरूरत नहीं है। जो सनातन ध्वनियां चल रही हैं वे व्याकरण शास्त्र के अनुकूल हैं या नहीं यह सोचना व्यर्थ है। देखना इतना भर है कि इन सनातन शब्द संचार का क्या बैठता है? ‘सो’ अर्थात् ‘वह’। अहम् अर्थात् मैं दोनों का मिला-जुला निष्कर्ष निकला—वह मैं हूं। ‘वह’ अर्थात् परमात्मा—अहम् अर्थात् जीवात्मा। दोनों का समन्वय एकीभाव—‘सोहम्’। आत्मा और परमात्मा एक है, यह अद्वैत सिद्धान्त का समर्थन है। तत्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म-शिवोहम् सच्चिदानन्दोहम्-शुद्धोसि, बुद्धोसि निरंजनोसि जैसे वाक्यों में इसी दर्शन का प्रतिपादन है। उनमें जीव और ब्रह्म की तात्विक एकता का प्रतिपादन है।
‘सोहम्’ उपासना के निमित्त किये गये प्राणायाम में इसी अविज्ञात तथ्य को प्रत्यक्ष करने का—प्रसुप्त जगाने का प्रयत्न किया जाता है। जीव अपने आपको शरीर मान बैठा है। उसी की सुविधा एवं प्रसन्नता की बात सोचता है, उसी के लाभ प्रयत्नों में संलग्न रहता है। काया के साथ जुड़े हुए व्यक्ति और पदार्थ ही उसे अपने लगते हैं और उसी सीमित सम्बन्ध क्षेत्र तक ममत्व को सीमित करके—अन्य सबको पराया समझता रहता है। ‘अपनों’ के लाभ के लिए ‘परायों’ को हानि पहुंचाने में उसे संकोच नहीं होता। यही है माया मग्न—भव-बन्धनों में जकड़े हुए—मोहग्रस्त जीव की स्थिति। इसी में बंधे रहने के कारण उसे स्वार्थ के, व्यर्थ के, अनर्थ के, कामों में संलग्न रहना पड़ता है। यही स्थिति प्राणी को अनेकानेक आधि-व्याधियों में उलझाती और शोक-सन्ताप के गर्त में धकेलती है। इससे बचा, उबरा जाय, इसी समस्या को हल करने के लिए आत्म-ज्ञान एवं साधना विज्ञान का ढांचा खड़ा किया गया है।
‘सोहम्’ को सद्ज्ञान, तत्वज्ञान, ब्रह्मज्ञान कहा गया है। इससे आत्मा को अपनी वास्तविक स्थिति समझने, अनुभव करने का संकेत है। ‘‘वह परमात्मा मैं ही हूं’’ इस तत्वज्ञान में माया मुक्ति स्थिति की शर्त जुड़ी हुई है। नरकीट, नर-पशु और नर-पिशाच जैसी निकृष्ट परिस्थितियों में घिरी ‘अहंता’ के लिए इस पुनीत शब्द का प्रयोग नहीं हो सकता। ऐसे तो रावण, कंस, हिरण्यकश्यप जैसे अहंकारग्रस्त आततायी ही लोगों के मुख से अपने को ईश्वर कहलाने के लिए बाधित करते थे। अहंकार उन्मत्त मनःस्थिति में वे अपने को वैसा समझते भी थे। पर इससे बना क्या, उनका अहंकार ही ले डूबा। ‘सोहम्’ साधना में पंचतत्वों और तीन गुणों से बने घिरे शरीर को ईश्वर मानने के लिए नहीं कहा गया है। ऐसी मान्यता तो उलटा अहंकार जगा देगी और उत्थान के स्थान पर पतन का नया कारण बनेगी। यह दिव्य संकेत आत्मा के शुद्ध स्वरूप का विवेचन है। वह वस्तुतः ईश्वर का अंश है। समुद्र और लहरों की सूर्य और किरणों की, मटाकाश और घटाकाश की, ब्रह्मांड और पिण्ड की, आग और चिनगारी की उपमा देकर परमात्मा और आत्मा की एकता का प्रतिपादन करते हुए मनीषियों ने यही कहा है कि मल-आवरण, विक्षेपों से—कषाय-कल्मषों से मुक्त हुआ जीव वस्तुतः ब्रह्म ही है। दोनों की एकता में व्यवधान मात्र अज्ञान का है, यह अज्ञान ही अहंता के रूप में विकसित होता है और संकीर्ण स्वार्थ-परता में निमग्न होकर व्यर्थ चिन्तन तथा अनर्थ कार्य में निरत रहकर अपनी दुर्गति अपने हाथों आप बनाता है। साधना का उद्देश्य मनःक्षेत्र में भरी कुण्ठाओं और शरीर क्षेत्र में अभ्यस्त कुत्साओं के निराकरण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। सर्वतोमुखी निर्मलता का अभिवर्धन ही ईश्वर प्राप्ति की दिशा में बढ़ने वाला महान् प्रयास माना गया है। सोहम्-साधना की प्रतिक्रिया यही होनी चाहिए।
‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’ की उक्ति धर्मशास्त्री में अनेक स्थानों पर लिखी पाई जाती है और अनेक धर्मोपदेशकों द्वारा आये दिन सुनी जाती है। उसे सामान्य बुद्धि जानती और मानती भी है। पर इतने भर से बनता कुछ नहीं। यह मान्यता अन्तःकरण के गहनतम स्तर की गहराई तक उतरनी चाहिए। गहन आस्था बनकर प्रतिष्ठापित होने वाली श्रद्धा ही—अन्तः प्रेरणा बनती है और उसी के धकेले हुए मस्तिष्क तथा शरीर रूपी सेवकों को कार्य संलग्न होना पड़ता है। ‘सोहम्’ तत्वज्ञान यदि अन्तरात्मा की प्रखर श्रद्धा रूप में विकसित हो सके तो उसका परिणाम सुनिश्चित रूप में दिव्य जीवन जैसा काया-कल्प बनकर सामने आना चाहिए। तब व्यक्ति को उसी स्तर पर सोचना होगा जिस पर ईश्वर सोचता है और वही करना होगा जो ईश्वर करता है। एकता की स्थिति में दोनों का स्वरूप भी एक हो जाता है। नाला जब गंगा में मिलता है और बूंद समुद्र में घुलती है तो दोनों का स्वरूप एवं स्तर एक हो जाता है। ब्रह्म भाव से जमा हुआ जीव अपने चिन्तन और कर्म क्षेत्र में सुविकसित स्तर का देव मानव ही दृष्टिगोचर होता है।
स्पष्ट है कि जप किन्हीं शब्द विशेषों को बोल देना मात्र नहीं है उसमें वाक्शक्ति, चिन्तन तथा प्राण एवं भावशक्ति का भी प्रयोग करना होता है। इस प्रकार किया हुआ जप प्राणवान् जीवन्त जप कहा जा सकता है। उपासना के इस महत्वपूर्ण अंग को अपनाकर उसका समुचित लाभ निश्चित रूप से उठाया जा सकता है।
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