Books - समय का सदुपयोग
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समय का सदुपयोग करें
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समय का सदुपयोग करें
जीवन का महल समय की—घण्टे-मिनटों की ईंटों से चिना गया है। यदि हमें जीवन से प्रेम है तो यही उचित है कि समय को व्यर्थ नष्ट न करें। मरते समय एक विचारशील व्यक्ति ने अपने जीवन के व्यर्थ ही चले जाने पर अफसोस प्रकट करते हुए कहा—‘‘मैंने समय को नष्ट किया, अब समय मुझे नष्ट कर रहा है।’’
खोई दौलत फिर कमाई जा सकती है। भूली हुई विद्या फिर याद की जा सकती है। खोया हुआ स्वास्थ्य चिकित्सा द्वारा लौटाया जा सकता है, पर खोया हुआ समय किसी प्रकार नहीं लौट सकता, उसके लिए केवल पश्चाताप ही शेष रह जाता है।
जिस प्रकार धन के बदले में अभीष्ट वस्तुएं खरीदी जा सकती हैं, उसी प्रकार समय के बदले में विद्या, बुद्धि, लक्ष्मी, कीर्ति, आरोग्य, सुख-शान्ति, मुक्ति आदि जो भी वस्तू रुचिकर हो खरीदी जा सकती है। ईश्वर ने समय रूपी प्रचुर धन देकर मनुष्य को पृथ्वी पर भेजा है और निर्देश दिया है कि वह इसके बदले में संसार की जो भी वस्तु रुचिकर समझे खरीद ले।
किन्तु कितने व्यक्ति हैं जो समय का मूल्य समझते और उसका सदुपयोग करते हैं? अधिकांश लोग आलस्य और प्रमाद में पड़े हुए जीवन के बहुमूल्य क्षणों को यों ही बर्बाद करते रहते हैं। एक-एक दिन करके सारी आयु व्यतीत हो जाती है और अन्तिम समय वे देखते है कि उन्होंने कुछ भी प्राप्त नहीं किया, जिन्दगी के दिन यों ही बिता दिये। इसके विपरीत जो जानते हैं कि समय का नाम ही जीवन है वे एक एक क्षण को कीमती मोती की तरह खर्च करते हैं और उसके बदले में बहुत कुछ प्राप्त कर लेते हैं। हर बुद्धिमान् व्यक्ति ने बुद्धिमत्ता का सबसे बड़ा परिचय यही दिया है कि उसने जीवन के क्षणों को व्यर्थ बर्बाद नहीं होने दिया। अपनी समझ के अनुसार जो अच्छे से अच्छा उपयोग हो सकता था, उसी में उसने समय को लगाया। उसका यही कार्यक्रम अन्ततः उसे इस स्थिति तक पहुंचा सका, जिस पर उसकी आत्मा सन्तोष का अनुभव करे। प्रतिदिन एक घण्टा समय यदि मनुष्य नित्य लगाया करे तो उतने छोटे समय से भी वह कुछ ही दिनों में बड़े महत्वपूर्ण कार्य पूरे कर सकता है। एक घण्टे में चालीस पृष्ठ पढ़ने से महीने में बारह सौ पृष्ठ और साल में करीब पन्द्रह हजार पृष्ठ पढ़े जा सकते हैं यह क्रम दस वर्ष जारी रहे तो डेढ़ लाख पृष्ठ पढ़े जा सकते हैं। इतने पृष्ठों में कई सौ ग्रन्थ हो सकते हैं। यदि वे एक ही किसी विषय के हों तो वह व्यक्ति उस विषय का विशेषज्ञ बन सकता है। एक घण्टा प्रतिदिन कोई व्यक्ति विदेशी भाषायें सीखने में लगावें तो वह मनुष्य निःसन्देह तीस वर्ष में इस संसार की सब भाषाओं का ज्ञाता बन सकता है। एक घण्टा प्रतिदिन व्यायाम में कोई व्यक्ति लगाया करे तो अपनी आयु को पन्द्रह वर्ष बढ़ा सकता है।
संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के प्रख्यात गणित के आचार्य चार्ल्स फास्ट ने प्रति दिन एक घन्टा गणित सीखने का नियम बनाया था और उस नियम पर अन्त तक डटे रह कर ही इतनी प्रवीणता प्राप्त की।
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर समय के बड़े पाबन्द थे। जब वे कॉलेज जाते तो रास्ते के दुकानदार अपनी घड़ियां उन्हें देखकर ठीक करते थे। वे जानते थे कि विद्यासागर कभी एक मिनट भी आगे पीछे नहीं चलते। एक विद्वान ने अपने दरवाजे पर लिख रखा था। ‘‘कृपया बेकार मत बैठिये। यहां पधारने की कृपा की है तो मेरे काम में कुछ मदद भी कीजिये।’’ साधारण मनुष्य जिस समय को बेकार की बातों में खर्च करते रहते हैं, उसे विवेकशील लोग किसी उपयोगी कार्य में लगाते हैं। यही आदत हैं जो सामान्य श्रेणी के व्यक्तियों को भी सफलता के उच्च शिखर पर पहुंचा देती हैं। माजार्ट ने हर घड़ी उपयोगी कार्य में लगे रहना अपने जीवन का आदर्श बना लिया था। वह मृत्यु शैय्या पर पड़ा-पड़ा भी कुछ करता रहा। रेक्यूम नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ उसने मौत से लड़ते-लड़ते पूरा किया।
ब्रिटिश कॉमनवेल्थ और प्रोटेक्टरेट के मन्त्री का अत्यधिक व्यस्त उत्तरदायित्त्व वहन करते हुए मिल्टन ने ‘पैराडाइस लास्ट’ की रचना की। राजकाज से उसे बहुत कम समय मिल पाता था, तो भी जितने कुछ मिनट वह बचा पाता उसी में उस काव्य की रचना कर लेता। ईस्ट इंडिया हाउस की क्लर्की करते हुए जान स्टुआर्ट मिल ने अपने सर्वोत्तम ग्रन्थों की रचना की। गैलेलियो दवादारू बेचने का धंधा करता था तो भी उसने थोड़ा-थोड़ा समय बचाकर विज्ञान के महत्वपूर्ण आविष्कार कर डाले।
हेनरी किरक व्हाट को सबसे बड़ा समय का अभाव रहता था, पर घर से दफ्तर तक पैदल आने और जाने का समय सदुपयोग करके उसने ग्रीक भाषा सीखी। फौजी डॉक्टर बनने का अधिकतर समय घोड़े की पीठ पर बीतता था। उसने उस समय को भी व्यर्थ न जाने दिया और रास्ता पार करने के साथ-साथ उसने इटेलियन और फ्रेंच भाषायें भी पढ़ लीं। यह याद रखने की बात है कि—‘‘परमात्मा एक समय में एक ही क्षण हमें देता है और दूसरा क्षण देने से पूर्व उस पहले वाले क्षण को छीन लेता है। यदि वर्तमान काल में उपलब्ध क्षणों का हम सदुपयोग नहीं करते तो वे एक-एक करके छिनते चले जायेंगे और अन्त में खाली हाथ ही रहना पड़ेगा’’।
एडवर्ड वटलर लिटन ने अपने एक मित्र को कहा था—लोग आश्चर्य करते हैं कि मैं राजनीति तथा पार्लियामेंट के कार्यक्रमों में व्यस्त रहते हुए भी इतना साहित्यिक कार्य कैसे कर लेता हूं? 60 ग्रन्थों की रचना मैंने कर ली? पर इसमें आश्चर्य की बात नहीं। यह नियन्त्रित दिनचर्या का चमत्कार है। मैंने प्रतिदिन तीन घण्टे का समय पढ़ने और लिखने के लिये नियत किया हुआ है। इतना समय मैं नित्य ही किसी न किसी प्रकार अपने साहित्यक कार्यों के लिये निकाल लेता हूं। बस इस थोड़े से नियमित समय ने ही मुझे हजारों पुस्तकें पढ़ डालने और साठ ग्रन्थों के प्रणयन का अवसर ला दिया।
घर गृहस्थी के अनेक झंझटों और बाल-बच्चों की साज-संभाल में दिन भर लगी रहने वाली महिला हेरेट बीधर स्टोव ने गुलाम प्रथा के विरुद्ध आग उगलने वाली वह पुस्तक ‘टाम काका की कुटिया’ लिखकर तैयार कर दी, जिसकी प्रशंसा आज भी बेजोड़ के रूप में की जाती है।
चाय बनाने के लिये पानी उबालने में जितना समय लगता है उसमें व्यर्थ बैठे रहने के बजाय लांगफैलो ने ‘इनफरलो’ नामक ग्रन्थ का अनुवाद करना शुरू किया और नित्य इतने छोटे समय का उपयोग इस कार्य के लिये नित्य करते रहने से उसने कुछ ही दिन में वह अनुवाद पूरा कर लिया।
इस प्रकार के अगणित उदाहरण हमें अपने चारों ओर बिखरे हुये मिल सकते हैं। हर उन्नतिशील और बुद्धिमान मनुष्य की मूलभूत विशेषताओं में एक विशेषता अवश्य मिलेगी—समय का सदुपयोग। जिसने इस तथ्य को समझा और कार्य रूप में उतारा उसने ही यहां आकर कुछ प्राप्त किया है। अन्यथा तुच्छ कार्यों में आलस्य और उपेक्षा के साथ दिन काटने वाले लोग किसी प्रकार सांसें तो पूरी कर लेते हैं, पर उस लाभ से वंचित ही रह जाते हैं जो मानव-जीवन जैसी बहुमूल्य वस्तु प्राप्त होने पर उपलब्ध होना चाहिए, या हो सकता था।
समय का सदुपयोग करिये, यह अमूल्य है
मनुष्य जीवन में रुपये-पैसों से भी अधिक महत्त्व समय का है। धन का अपव्यय निर्धन बनाता है किन्तु जिन्होंने समय का सदुपयोग करना नहीं सीखा और उसे आलस्य तथा प्रमाद में गंवाते रहे उनके सामने आर्थिक विषमता के अतिरिक्त नैतिक तथा सामाजिक बुराइयां और कठिनाइयां खड़ी हो जाती हैं। समय का उपयोग धन के उपयोग से कहीं अधिक विचारणीय है, क्योंकि उस पर मनुष्य की सुख-सुविधा के सभी पहलू अवलम्बित हैं। इसलिये हमें अर्थ-अनुशासन के साथ-साथ नियमित जीवन जीने का प्रशिक्षण भी प्राप्त करना चाहिए।
जो समय व्यर्थ में ही खो दिया गया, उसमें यदि कमाया जाता तो अर्थ प्राप्ति होती। स्वाध्याय या सत्संग में लगाते तो विचार और सन्मार्ग की प्रेरणा मिलती। कुछ न करते केवल नियमित दिनचर्या में ही लगे रहते तो इस क्रियाशीलता के कारण अपना स्वास्थ्य तो भला-चंगा रहता। समय के अपव्यय से मनुष्य की शक्ति और सामर्थ्य ही घटती है। कहना न होगा कि नष्ट किया हुआ वक्त मनुष्य को भी नष्ट कर डालता है।
संसार का काल-चक्र भी कभी अनियमित नहीं होता, लोक और दिक्पाल, पृथ्वी और सूर्य, चन्द्र और अन्य ग्रह वक्त की गति से गतिमान् हैं। वक्त की अनियमितता होने से सृष्टि का कोई काम चलता नहीं। धरती में यही नियम लागू है। लोग समय का अनुशासन न रखें तो रेल, डाक, कल-कारखाने, कृषि, कमाई आदि सभी ठप्प पड़ जायें और उत्पादन व्यवस्था में गतिरोध के साथ सामान्य जीवन पर भी उसका कुप्रभाव पड़े। एक तरह से सारी सामाजिक व्यवस्था उथल-पुथल हो जाय और मनुष्य को एक मिनट भी सुविधापूर्वक जीना मुश्किल हो जाय। जिस तरह अभी लोग भली प्रकार सारे क्रिया कलाप कर रहे हैं वैसे कदापि नहीं हो सकते। अतः हमको भी अपनी दिनचर्या को अपने जीवन कार्यों की आवश्यकता विभक्त करके उसी के अनुसार कार्य करना चाहिए।
अपने कार्यों का वर्गीकरण (1) स्वास्थ्य (2) धन और (3) सामाजिक सदाचार की दृष्टि से कीजिये और एक दिन के वक्त को इसी क्रम से बांट कर अपने लिये एक व्यवस्थित दिनचर्या बांध लीजिये और उसी के अनुसार चलते रहिये। इसी में आपको सारी बातों का समावेश किया जाना चाहिये और उसी के अनुरूप जीवन-क्रम चलता रहना चाहिए। इससे आप अधिक सुखमय जीवन जी सकेंगे।
वैयक्तिक सुखोपभोग और सांसारिक कार्यों में क्षमतावान् होने के लिये आपका स्वस्थ रहना बहुत जरूरी है। स्वास्थ्य सुखी जीवन की प्रमुख शर्त है, अतः उन सभी नियमों को प्राथमिकता दीजिये जिनसे आपका शरीर और मन स्वस्थ व अवृद्ध रहता है। हमेशा सूर्योदय से कम से कम एक घण्टा पहले उठा कीजिये और शौच, स्नान आदि से निवृत्त होकर कुछ टहलने या व्यायाम आदि की व्यवस्था बना लीजिये। प्रातःकाल की मुक्त वायु शरीर को शक्ति और पोषण प्रदान करता है, दिन-भर देह स्फूर्ति और ताजगी से भरी रहती है। इस अवसर को गंवाना रोग और दुर्बलता को निमन्त्रण देने से कम नहीं। जो लोग बिस्तरों में पड़े सोते रहते हैं वे प्रातःकालीन ऊषीय-रश्मियों निर्दोष वायु से वंचित रह जाते हैं और उनका शरीर सुस्त और निस्तेज हो जाता है। वे कोई कार्य आधी रुचि से करते हैं तदनुकूल सफलता भी आधी ही मिलती है।
दिन-भर के कार्यों का अनुमानित आकार भी आप बिस्तर से उठते ही बना लीजिये और फिर उसमें परिश्रमपूर्वक लग जाया कीजिये। सफलता के लिये खीझ या परेशानी मन में न आने देकर मस्ती पूर्वक सुबह से शाम तक काम में जुटे रहिये। यह क्रियाशीलता आपको रोगों और दुश्चिन्ताओं से दूर रखेगी। यह याद रखिये कि नियमित वक्त पर किया हुआ काम पूर्ण रूप से भली-भांति सम्पन्न होता है और उसके पूरा हो जाने से आन्तरिक उल्लास और प्रसन्नता की वृद्धि होती है। इससे शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मनोबल तथा आत्मबल भी बढ़ता रहता है। इसी तरह सायंकाल को भी अपने उन सभी कार्यों की समीक्षा करनी चाहिए जो दिन-भर आपने किये हैं उनमें से कोई ऐसा दीखे जिससे आपके शारीरिक अथवा मानसिक स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ता हो तो उसे आगे के लिये रोकने या कम करने का प्रयत्न कीजिये।
सारांश यह है कि वक्त का विभाजन करते वक्त आप स्वास्थ्य की बात को भी ध्यान में रखिये और उसके प्रति बेपरवाह मत हो जाइये। आप चाहें तो वक्त के सदुपयोग और व्यवस्थित कार्य प्रणाली द्वारा स्वयं ही स्वस्थ बने रह सकते हैं, कार्यों में इनका दुरुपयोग करके उसे आलस्य में भी खो सकते हैं, पर याद रखिये इस बात का ध्यान जितनी देर बाद में आयेगा अपने आपको उतना ही पिछड़ा हुआ अनुभव करेंगे।
यही बात उपार्जन के बारे में भी लागू होती है। शुभ और सुखी जीवन के लिये धन बहुत आवश्यक है। आर्थिक विषमता होने से दूसरे दैनिक कार्य भी कठिनाई से चल पाते हैं इसलिये धनोपार्जन के लिये भी समय का उपयोग कीजिये। समय के गर्भ में लक्ष्मी का अक्षय भण्डार भरा पड़ा है पर उसे पाते वही हैं जो उसका सदुपयोग करते हैं।
आपको जितना समय कार्यालय में काम करना पड़ता है उतने से ही सन्तोष नहीं हो जाना चाहिये। अपने लिए कोई अन्य रुचिकर घरेलू उद्योग चुनकर भी अपनी आय बढ़ाने का प्रयत्न होना चाहिये। जापान के नागरिक ऐसा ही करते हैं। वे छोटी मशीनों या खिलौनों के पुर्जे लाकर रख लेते हैं और अपने व्यावसायिक कार्य से फुरसत मिलने पर नियमित रूप से कुछ वक्त उसमें भी लगाते हैं। इन कार्यों में वे अपने परिवार वालों का भी सहयोग लेते हैं और इस तरह वे अपनी बंधी आय के लगभग बराबर आय पार्ट टाइम में कर लेते हैं। उनकी खुशहाली को सबसे बड़ा कारण वक्त का समुचित सदुपयोग ही कहा जा सकता है।
स्वास्थ्य और धनोपार्जन के अतिरिक्त जो वक्त शेष रहता है उसका सदुपयोग समाज कल्याण के लिये करना चाहिये। वक्त का अभाव किसी के पास नहीं पर अधिकांश व्यक्ति उसे बेकार के कार्यों में व्यतीत किया करते हैं। ताश, चौपड़, शतरंज, मटरगस्ती आदि में वक्त बर्बाद करने से शरीर और मन की शक्ति का पतन होता है। इस वक्त का सदुपयोग सामाजिक उत्थान के कार्यों में करना हमारा धर्म है।
समय का महत्त्व अमूल्य है। उसके समुचित सदुपयोग की शिक्षा ग्रहण करें तो इस मनुष्य जीवन में स्वर्ग का-सा सुखोपभोग प्राप्त किया जा सकता है। आवश्यक है कि अपने वक्त को उचित प्रकार से दिन भर के कार्यों में बांट लें जिससे जीवन के सब काम सुचारु रूप से होते चले जायं। हमें इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिये कि वक्त ही जीवन है। यदि हमें अपने जीवन से प्रेम है तो अपने वक्त का सदुपयोग भी करना चाहिए।
हम अपना वक्त आलस्य और निरर्थक कार्यों में खर्च न करें। आलस्य दुनिया की सबसे भयंकर बीमारी है। आलस्य समस्त रोगों की जड़ है। उसे साक्षात् मृत्यु कहें तो इसमें अत्युक्ति न होगी। अन्य बीमारियों से तो शरीर सारे मनुष्य जीवन को ही खा डालता है। आलस्य में पड़कर मनुष्य की क्रिया शक्ति कुण्ठित होने लगती है जिससे न केवल शरीर शिथिल पड़ता है वरन् आर्थिक आय के साधन भी शिथिल पड़ जाते हैं।
हमारी जीवन व्यवस्था के लिए समय रूपी बहुमूल्य उपहार परमात्मा ने दिया। इसका एक-एक क्षण एक-एक मोती के समान कीमती है जो इन्हें बटोरकर रखता है सदुपयोग करता है वह यहां सुख प्राप्त करता है। गंवाने वाले व्यक्ति के लिए वक्त ही मृत्यु है। वक्त के दुरुपयोग से जीवनी शक्ति का दुरुपयोग होता है और मनुष्य जल्दी ही काल के गाल में समा जाता है। इसलिये हमें चाहिए कि समय का उपयोग सदैव सुन्दर कार्यों में करें और इस स्वर्ग तुल्य संसार में सौ वर्ष तक सुखपूर्वक जियें।
समय जो गुजर गया, फिर न मिलेगा
समर्थ स्वामी रामदास वक्त के सदुपयोग के बारे में बड़े महत्त्वपूर्ण शब्द कहा करते थे—
एक सदैव पणाचैं लक्षण। रिकामा जाऊँ ने दो एक क्षण।। (दासबोध—11—24)
अर्थात्—‘‘जो मनुष्य वक्त का सदुपयोग करता है, एक क्षण भी बरबाद नहीं करता, वह बड़ा सौभाग्यवान् होता है।’’ धन और रुपये-पैसे के मामले में यह कहा जाता है कि जिसका खर्च व्यवस्थित और मितव्ययी होता है, वही जीवन पर्यन्त धन का सुख लाभ प्राप्त करता है, उसके खजाने में किसी प्रकार की कमी नहीं आती। ऐसे ही समय के प्रत्येक क्षण का उपयोग कर लेना भी मनुष्य की बुद्धिमत्ता का प्रतीक है उन्नति की इच्छा रखने वालों को अपना समय कभी भी व्यर्थ न गंवाना चाहिये। समय के सदुपयोग करने में सदैव सावधान रहना चाहिये। आज जो समय गुजर गया, कल वह फिर आने वाला नहीं।
कार्य चाहे व्यावहारिक हो अथवा पारमार्थिक, जो समय सम्बन्धी विवेक और सावधानी नहीं रखते उन्हें इसके दुष्परिणाम जन्म-जन्मान्तरों तक भुगतने पड़ते हैं। आज अपने पास सभी परिस्थितियां हैं, साधन हैं। मनुष्य शरीर मिला है, बुद्धि और विचार की बहुमूल्य विरासत जो हमें मिली है वह यह समझ लेने के लिये है कि आपका समय सीमाओं से प्रतिबन्धित है। सृष्टि के दूसरे जीवों में से कई तो लम्बी आयु वाले भी होते हैं किन्तु मनुष्य की अवस्था अधिक से अधिक सौ वर्ष है। उसमें भी कितना समय अवस्था के अनुरूप व्यर्थ चला जाना है फिर जो शेष बचता है उसका उपयोग यदि सांसारिक और आध्यात्मिक विकास के लिए नहीं कर पाये तो कौन जाने यह परिस्थितियां फिर कभी मिलेंगी या नहीं।
आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने वाले भी जब समय का ठीक ठीक उपयोग नहीं कर पाते, इस सम्बन्ध में जागरुक और विवेकशील नहीं होते तो बड़ा आश्चर्य होता है। इससे अच्छे तो वे लोग ही हैं जो बेचारे किसी प्रकार जीवन-निर्वाह के साधन और आजीविका जुटाने में ही लगे रहते हैं। उन्हें यह पछतावा तो नहीं होता कि जीवन के बहुमूल्य क्षणों का पूर्ण उपयोग नहीं कर सके। आजीविका भी अध्यात्म का एक अंग है अतएव सम्पूर्ण न सही, कुछ अंशों में तो उन्होंने मानव-जीवन का सदुपयोग किया। हाथ पर हाथ रखकर आलस्य में, समय गंवाने वाले सामाजिक जीवन में गड़बड़ी ही फैलाते हैं भले ही वे कितने ही बुद्धिमान, भजनोपदेशक, कथावाचक, पण्डित या सन्त-संन्यासी ही क्यों न हों। समय का सदुपयोग करने वाला घसियारा, बेकार बैठे रहने वाले पण्डित से बढ़कर है क्योंकि वह समाज को किसी न किसी रूप में समुन्नत बनाने का प्रयास करता ही है।
आलस में समय गंवाने वाले कुसंग और कुबुद्धि के द्वारा उल्टे रास्ते तैयार करते हैं। कहते हैं ‘‘खाली दिमाग शैतान का घर।’’ जब कुछ काम नहीं होता तो खुराफात ही सूझती है। जिन्हें किसी सत्कार्य या स्वाध्याय में रुचि नहीं होती खाली समय में कुसंगति, दुर्व्यसन, ताश-तमाशे और तरह-तरह की बुराइयों में ही अपना समय बिताते हैं। समाज में अव्यवस्था का कारण कोई बाहरी शक्ति नहीं होती, अधिकांश बुराइयां, कलह और झंझट बढ़ाने का श्रेय उन्हीं को है जो व्यर्थ में समय गंवाते रहते हैं। मनुष्य लम्बे समय तक निष्प्रयोजन खाली बैठा नहीं रह सकता अतएव यदि वह भले काम नहीं करता तो बुराई करने में उसे देर न लगेगी। उसे अच्छा या बुरे, सच्चा हो चाहे काल्पनिक, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा। इसलिये यदि उसे सही विषय न मिले तो वह बुराइयां ही ग्रहण करता है और उन्हें ही समाज में बिखेरता हुआ चला जाता है।
मनुष्य के अन्तःकरण में ही उसका देवत्व और असुरत्व विद्यमान है। जब तक हमारा देवता जागृत रहता है और हम विभिन्न कल्याणकारी कार्यों में संलग्न रहते हैं तब तक आन्तरिक असुरता भी दबी हुई पड़ी रहती है पर यह प्रसुप्त वासनायें भी अवकाश के लिये चुपचाप अन्तर्मन में जगती रहती हैं समय पाते ही देवत्व पर प्रहार कर बैठती हैं? जब यह दिखाई दे कि अब अपने पास कोई काम शेष नहीं रहा तो मनुष्य अपने निवास के आस-पास की सफाई, वस्त्रों की हिफाजत, घर की मरम्मत, खेतों की देख-भाल, लेखन, ज्ञान विषयक चर्चा या किसी जीवनोपयोगी साहित्य का स्वाध्याय ही करने लग जाय। इससे टूटी-फूटी वस्तुओं की साज-सम्हाल, स्वास्थ्य-रक्षा और ज्ञान की वृद्धि ही होगी। समय का मूल्यांकन केवल रुपये पैसे से ही नहीं हो सकता। जीवन में और भी अनेकों पारमार्थिक व्यवसाय हैं। उन्हें भी देखना और ज्ञान प्राप्त करना हमारा धर्म होना चाहिए। सत्कार्यों में लगाये गये समय का परिणाम सदैव सुखदायक ही होता है।
काम न करने का तथा किसी व्यवसाय में अभिरुचि न होने का कारण यह है कि एक सी स्थिति में रहते हुए मनुष्य को उकताहट पैदा होती है। यह स्वाभाविक भी है। मनोरंजन की आवश्यकता सभी को होती है। सन्त-महात्मा भी प्रकृति-दर्शन और तीर्थ यात्रा आदि के रूप में मनोरंजन प्राप्त किया करते हैं। यह उकताहट यदि सम्हाली न जाय तो किसी व्यसन के रूप में ही फूटती है। व्यसन की शुरुआत खाली समय में कुसंगति के कारण ही होती है।
आज-कल इस प्रकार के साधनों की किसी प्रकार की कमी नहीं है। निरुत्साह और मानसिक थकावट दूर करने के लिये विविध मनोरंजन के साधन आज बहुत बढ़ गये हैं किन्तु समय के सदुपयोग और जीवन की सार्थकता की दृष्टि से, इनमें से उपयोगी बहुत कम ही दिखाई देते हैं। अधिकांश तो धन-साध्य और मनुष्य का नैतिक पतन करने वाले ही हैं। इसलिए यह भी आवश्यक हो गया है कि जब कुछ समय श्रम से उत्पन्न थकावट को दूर करने के लिए निकालें तो यह भली-भांति विचार करलें कि यह जो समय उक्त कार्य में लगाने जा रहे हैं उसका आध्यात्मिक उत्थान और आत्म-विकास के लिये क्या सदुपयोग हो रहा है? मनोरंजन केवल प्रसुप्त वासना की पूर्ति के लिये न हो वरन् उसमें भी आत्म-कल्याण की भावना सन्निहित बनी रहे तो उस समय का उपयोग सार्थक माना जा सकता है।
फुरसत और खाली समय का उपयोग अच्छे-बुरे किसी भी काम में हो सकता है। नई-नई विद्या, कला, लेखन, शास्त्रार्थ के द्वारा नई सूझ और आध्यात्मिक बुद्धि जागृत होती है। इससे अपना व समाज दोनों का ही कल्याण होता है। सत्कर्म में लगाये हुए समय से मनुष्य का जीवन सुखी, समुन्नत तथा उदात्त बनता है। जापान की उन्नति का प्रमुख कारण फुरसत के समय का सदुपयोग ही है। वहां सरकारी काम के घण्टों के बाद का समय लोग कुटीर उद्योगों में लगाते हैं, छोटे-छोटे खिलौने, घड़ियां आदि बनाते हैं, इससे वहां की राष्ट्रीय सम्पत्ति बढ़ी है, लोगों की जीवन सुखी हुआ है और नैतिक सदाचार का प्रसार हुआ है। खाली समय का उपयोग जिस प्रकार के कार्यों में करेंगे वैसी ही उन्नति अवश्य होगी।
समय जरा भी नष्ट मत होने दीजिये—
संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं जिसकी प्राप्ति मनुष्य के लिये असम्भव हो। प्रयत्न और पुरुषार्थ से सभी कुछ पाया जा सकता है लेकिन एक ऐसी भी चीज है जिसे एक बार खोने के बाद कभी नहीं पाया जा सकता और वह है—समय। एक बार हाथ से निकला हुआ समय फिर कभी हाथ नहीं आता। कहावत है ‘‘बीता हुआ समय और कहे हुए शब्द कभी वापस नहीं बुलाये जा सकते।’’ समय परमात्मा से भी महान् है। भक्ति साधना द्वारा परमात्मा का साक्षात्कार कई बार किया जा सकता है लेकिन गुजरा हुआ समय पुनः नहीं मिलता।
समय ही जीवन की परिभाषा है, क्योंकि समय से ही जीवन बनता है। समय का सदुपयोग करना जीवन का उपयोग करना है। समय का दुरुपयोग करना जीवन का नष्ट करना है। समय किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता। वह प्रतिक्षण, मिनट, घन्टे, दिन, महलने, वर्षों के रूप में निरन्तर अज्ञात दिशा को जाकर विलीन होता रहता है। समय की अजस्र धारा निरन्तर प्रवाहित होती रहती है और फिर शून्य में विलीन हो जाती है फ्रैंकलिन ने कहा है—‘‘समय बरबाद मत करो क्योंकि समय से ही जीवन बना है।’’ निस्सन्देह वक्त और सागर की लहरें किसी की प्रतीक्षा नहीं करतीं हमारा कर्तव्य है कि हम समय का पूरा पूरा सदुपयोग करें।
सचमुच जो व्यक्ति अपना तनिक सा भी समय व्यर्थ नष्ट करते हैं उन्हें समय अनेकों सफलताओं से वंचित कर देता है। नेपोलियन ने आस्ट्रेलिया को इसलिए हरा दिया कि वहां के सैनिकों ने पांच ही मिनटों का विलम्ब कर दिया उसका सामना करने में। लेकिन वही नेपोलियन कुछ ही मिनटों में बन्दी बना लिया गया क्योंकि उसका एक सेनापति कुछ ही मिनट विलम्ब से आया। वाटरलू के युद्ध में नेपोलियन की पराजय इसी कारण से हुई। समय की उपेक्षा करने पर देखते देखते विजय का पासा पराजय में पलट जाता है लाभ हानि में बदल जाता है।
संसार में जितने भी महान पुरुष हुए हैं उनकी महानता का एक ही आधार स्तम्भ है कि उन्होंने अपने समय का पूरा-पूरा उपयोग किया। एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाने दिया। जिस समय लोग मनोरंजन, खेल-तमाशों में मशगूल रहते हैं, व्यर्थ आलस्य प्रमाद में पड़े रहते हैं, उस समय महान् व्यक्ति महत्त्वपूर्ण कार्यों का सृजन करते रहते हैं। ऐसा एक भी महापुरुष नहीं जिसने अपने समय को नष्ट किया हो और वह महान् बन गया हो। समय बहुत बड़ा धन है। भौतिक धन से भी अधिक मूल्यवान्। जो इसे भली प्रकार उपयोग में लाता है वह सभी तरह के लाभ प्राप्त कर सकता है। छोटे से जीवन में भी बहुत बड़ी सफलतायें प्राप्त कर लेता है। वह छोटी-सी उम्र में ही दूसरों से बहुत आगे बढ़ जाता है।
समय जितना कीमती और फिर न मिलने वाला तत्व है उतना उसका महत्व प्रायः हम लोग नहीं समझते। हममें से बहुत-से लोग अपने समय का बहुत ही दुरुपयोग करते हैं, उसको व्यर्थ की बातों में नष्ट करते रहते हैं। आश्चर्य है समय ही ऐसा पदार्थ है जो एक निश्चित मात्रा में मनुष्य को मिलता है लेकिन उसका उतना ही अधिक अपव्यय भी होता है। हममें से कितने लोग ऐसा सोचते हैं कि हमारा कितना समय आवश्यक और उपयोगी कार्यों में लगता है और कितना व्यर्थ के कामों में, सैर-सपाटे, मित्रों में गपशप, खेल-तमाशे, मनोरंजन, आलस्य, प्रमाद आदि में? हम कितना नष्ट करते हैं, व्यर्थ की बकवास, अनावश्यक कार्यों में? हम जितना समय नष्ट करते हैं यदि उसका लेखा-जोखा लें तो प्रतीत होगा कि अपने जीवन धन का एक बहुत बड़ा भाग हम अपने आप ही व्यर्थ नष्ट कर डालते हैं समय के रूप में। काश एक-एक मिनट, घण्टे, दिन का हम उपयोग करें तो कोई कारण नहीं कि हम जीवन में महान् सफलताएं प्राप्त न करें।
समय की बरबादी का सबसे पहला शत्रु है किसी काम को आगे के लिये टाल देना। ‘आज नहीं कल करेंगे।’ इस कल के बहाने हमारा बहुत-सा वक्त नष्ट हो जाता है। स्वेटमार्डेन ने लिखा है ‘इतिहास के पृष्ठों में कल की धारा पर कितने प्रतिभावानों का गला कट गया, कितनों की योजनायें अधूरी रह गईं, कितनों के निश्चय बस यों ही रह गये, कितने पछताते, हाथ मलते रह गये! कल असमर्थता और आलस्य का द्योतक है।’
इस कल से बचने के लिए ही महात्मा कबीर ने चेतावनी देते हुए कहा है।
काल करै सो आज कर, आज करै सो अब। पल में परलै होयगी, बहुरि करैगो कब।।
कल पर अपने कोई भी काम न टालें। जिन्हें आज करना है उन्हें आज ही पूरा करलें। स्मरण रखिये प्रत्येक काम का अपना अवसर होता है और अवसर वही है जब वह काम आपके सामने पड़ा है। अवसर निकल जाने पर काम का महत्व भी समाप्त हो जाता है तथा बोझ भी बढ़ता जाता है। स्वेटमार्डेन ने लिखा है बहुत से लोगों ने अपना काम कल पर छोड़ा और वे संसार में पीछे रह गये अन्य लोगों द्वारा प्रतिद्वन्दिता में रहा दिये गये।’
समय का ठीक-ठीक लाभ उठाने के लिए आवश्यक है कि एक समय एक ही काम किया जाय। जो व्यक्ति एक समय में अनेकों काम करना चाहते हैं उनका कोई भी काम पूरा नहीं होता और उनका अमूल्य समय व्यर्थ ही नष्ट हो जाता है।
जो काम स्वयं करना है उसे स्वयं ही पूरा करें। अपना काम दूसरों पर छोड़ना भी एक तरह से दूसरे दिन काम टालने के समान ही है। ऐसे व्यक्ति का अवसर भी निकल जाता है और उसका काम भी पूरा नहीं होता।
जरा विचार कीजिये आपको अमुक दिन अमुक गाड़ी से बम्बई जाना है। अगर आप गाड़ी के सीटी देने के एक मिनट बाद स्टेशन पहुंचे तो फिर आपको वह गाड़ी, वह दिन, वह समय कभी नहीं मिलेगा। निश्चित समय निकल जाने के बाद आप किसी दफ्तर में जायें तो निश्चित है आपका काम नहीं होगा। आपको स्मरण होगा ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, जार्ज वाशिंगटन आदि को सड़क पर से गुजरते देखकर लोग अपनी घड़ियां मिलाते थे अपने काम और समय का इस तरह मेल रखें कि उसमें एक मिनट का भी अन्तर न आये। तभी आप अपने समय का पूरा-पूरा सदुपयोग कर सकेंगे।
आलस्य समय का सबसे बड़ा शत्रु है। यह कई रूपों में मनुष्य पर अपना अधिकार जमा लेता है। कई बार कुछ काम किया कि विश्राम के बहाने हम अपने समय को बरबाद करने लगते हैं। वैसे बीमारी, तकलीफ आदि में विश्राम करना तो आलस्य नहीं है। थक जाने पर नींद के लिये विश्राम करना भी बुरा नहीं है। थकावट हो, नींद आये तो तुरन्त सो जायें लेकिन आंख खुलने पर उठ-पड़ें चारपाई न तोड़ें। अभी उठते हैं, अभी उठते हैं, कहते रहें तो यही आलस्य का मन्त्र है। आंखें खुलीं कि तुरन्त अपने काम में लग जायें।
रस्किन के शब्दों ‘‘जवानी का समय तो विश्राम के नाम पर नष्ट करना ही घोर मूर्खता है क्योंकि वही वह समय है जिसमें मनुष्य अपने जीवन का, अपने भाग्य का निर्माण कर सकता है। जिस तरह लोहा ठण्डा पड़ जाने पर घन पटकने से कोई लाभ नहीं, उसी तरह अवसर निकल जाने पर मनुष्य का प्रयत्न भी व्यर्थ चला जाता है।’’ विश्राम करें, अवश्य करें। अधिक कार्य क्षमता प्राप्त करने के लिये विश्राम आवश्यक है लेकिन उसका भी समय निश्चित कर लेना चाहिए और विश्राम के लिये ही लेटना चाहिये। समय बड़ा मूल्यवान् है। उसे बड़ी कंजूसी से खर्च करना चाहिए। जितना अपने समय-धन को बचाकर उसे आवश्यक उपयोगी कार्यों में लगावेंगे उतनी ही अपने व्यक्तित्व की महत्ता एवं कीमत बढ़ती जायगी। नियमित समय पर काम करने का अभ्यास डालें। इसकी आदत पड़ जाने पर आपको स्वयं ही इसमें बड़ा आनन्द आने लगेगा।
यदि मनुष्य प्रतिदिन किसी काम विशेष में थोड़ा-थोड़ा समय भी लगावें तो वह उससे महत्वपूर्ण अधिकार प्राप्त कर सकता है महामनीषी स्वेटमार्डेन ने कहा है, जीवन भर एक विषय में नियमित रूप से प्रतिदिन एक घण्टा लगाने वाला व्यक्ति उस विषय का उद्भट विद्वान बन सकता है। जरा अनुमान लगाइये कोई भी प्रतिदिन एक घण्टे में बीस पृष्ठ पढ़ता है तो साल में 7300 पृष्ठ पढ़ डालेगा। अर्थ हुआ 100 पृष्ठ की 73 पुस्तकें वह एक साल में पढ़ लेगा। दस वर्ष में 730 पुस्तकें पढ़ने वाले व्यक्ति के ज्ञान का विचार-स्तर कैसे होगा? इसके बारे में पाठक स्वयं ही अन्दाज लगा सकते हैं। अतः समय को मामूली न समझें नियमित रूप से कोई भी काम आप करेंगे तो धीरे-धीरे उसमें बहुत बड़ी योग्यता हासिल कर लेंगे यह निश्चित है।
समय की बर्बादी आज-कल मनोरंजन के नाम पर भी बहुत होती है। रेडियो, सिनेमा, खेल-तमाशे, ताश, शतरंज आदि में हम नित्य ही अपना बहुत-सा समय बर्बाद करते रहते हैं। महात्मा गांधी ने एक बार अपने पुत्र मणिलाल को पत्र में लिखा था। ‘‘खेल-कूद मनोरंजन का समय बारह वर्ष की उम्र तक है।’’ आज हम इसमें अपना कितना वक्त खर्च करते हैं यह स्वयं ही अनुमान लगा सकते हैं। मनोरंजन खेल आदि को जीवन में रखा ही जाय तो उसके लिए भी एक नियत समय रखना चाहिये।
अपने आस-पास का वातावरण, ऐसा रखना चाहिए कि अपना समय किसी कारण बर्बाद न हो। वक्त बर्बाद करने वाले दोस्तों से दूर की ‘नमस्ते’ रखनी चाहिए। निठल्ले लोग ही अक्सर दूसरे का वक्त बर्बाद करने जा पहुंचते हैं। इन्हें दोस्त नहीं दुश्मन मानना ही उचित है।
स्मरण रखिये समय बहुत मूल्यवान् वस्तु है। इससे आप जितना लाभ उठा सकते हैं उठायें। आप वक्त को नष्ट करेंगे तो वक्त भी आपको नष्ट कर देगा। वक्त के सदुपयोग पर ही आप कुछ बन सकते हैं।
समय के सदुपयोग का महत्व समझिए
समय संसार की सबसे मूल्यवान् सम्पदा है। विद्वानों एवं महापुरुषों ने वक्त को सारी विभूतियों का कारणभूत हेतु माना है। समय का सदुपयोग करने वाले व्यक्ति कभी भी निर्धन अथवा दुःखी नहीं रह सकते। कहने को कहा जा सकता है कि श्रम से ही सम्पत्ति की उपलब्धि होती है किन्तु श्रम का अर्थ भी वक्त का सदुपयोग ही है। असमय का श्रम पारिश्रमिक से अधिक थकान लाया करता है।
मनुष्य कितना ही परिश्रमी क्यों न हो यदि वह अपने परिश्रम के साथ ठीक समय का सामंजस्य नहीं करेगा तो निश्चय ही इसका श्रम या तो निष्फल चला जायेगा अथवा अपेक्षित फल न ला सकेगा। किसान परिश्रमी है, किन्तु यदि वह अपने श्रम को समय पर काम में नहीं लाता तो वह अपने परिश्रम का पूरा लाभ नहीं उठा सकता। वक्त पर न जोत कर असमय पर जोता हुआ खेत अपनी उर्वरता को प्रकट नहीं कर पाता। असमय बोया हुआ बीज बेकार चला जाता है। वक्त पर न काटी गई फसल नष्ट हो जाती है। संसार में प्रत्येक काम के लिये निश्चित वक्त पर न किया हुआ काम कितना भी परिश्रम करने पर भी सफल नहीं होता।
प्रकृति का प्रत्येक कार्य एक निश्चित वक्त पर होता है। वक्त पर ग्रीष्म तपता है, वक्त पर पानी बरसता है, वक्त पर ही शीत आता है। वक्त पर ही शिशिर होता और वक्त पर ही बसन्त आकर वनस्पतियों को फूलों से सजा देता है। प्रकृति के इस ऋतु-क्रम में जरा-सा भी व्यवधान पड़ जाने से न जाने कितने प्रकार के रोगों एवं इति-भीति का प्रकोप हो जाता है चांद-सूरज, गृह-नक्षत्र सब समय पर ही उदय अस्त होते, वक्त के अनुसार ही अपनी परिधि एवं कक्ष में परिभ्रमण किया करते हैं। इनकी सामयिकता में जरा-सा व्यवधान पड़ने से सृष्टि में अनेक उपद्रव खड़े हो जाते हैं और प्रलय के दृश्य दीखने लगते हैं, समय पालन ईश्वरीय नियमों में सबसे महत्त्वपूर्ण एवं प्रमुख नियम है।
जीवन का हर क्षण एक उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना लेकर आता है। हर घड़ी एक महान् मोड़ का समय हो सकती है। मनुष्य यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि जिस वक्त, जिस क्षण और जिस पल को यों ही व्यर्थ में खो रहा है वह ही क्षण—वह ही वक्त-क्या उसके भाग्योदय का वक्त नहीं है? क्या पता जिस क्षण को हम व्यर्थ समझकर बरबाद कर रहे हैं वह ही हमारे लिये अपनी झोली में सुन्दर सौभाग्य की सफलता लाया हो।
सबके जीवन में एक परिवर्तनकारी वक्त आया करता है। किन्तु मनुष्य उसके आगमन से अनभिज्ञ रहा करता है। इसलिये हर बुद्धिमान मनुष्य हर क्षण को, बहूमूल्य समझकर व्यर्थ नहीं जाने देता। कोई भी क्षण व्यर्थ न जाने देने से निश्चय ही वह क्षण हाथ से छूटकर नहीं जा सकता जो जीवन में वांछित परिवर्तन का संदेशवाहक होगा। सिद्धि की अनिश्चित घड़ी से अनभिज्ञ साधक जिस प्रकार हर समय लौ लगाये रहने से उसको पकड़ लेता है ठीक उसी प्रकार हर क्षण को सौभाग्य के द्वार खोल देने वाला समझकर महत्त्वाकांक्षी कर्मवीर जीवन के एक छोटे से भी क्षण की उपेक्षा नहीं करता और निश्चय ही सौभाग्य का अधिकारी बनता है।
कोई भी दीर्घसूत्री व्यक्ति संसार में आज तक सफल होते देखा, सुना नहीं गया है। जीवन में उन्नति करने और सफलता पाने वाले व्यक्तियों की जीवनगाथा का निरीक्षण करने पर निश्चय ही उनके उन गुणों में समय के पालन एवं सदुपयोग को प्रमुख स्थान मिलेगा जो जीवन की उन्नति के लिए अपेक्षित होते हैं।
हर मनुष्य को वक्त का, छोटे से छोटे क्षण का मूल्य एवं महत्व समझना चाहिये। जीवन का वक्त सीमित है और काम बहुत है। आने से लेकर परिवार, समाज एवं राष्ट्र के दायित्वपूर्ण कर्त्तव्यों के साथ मुक्ति की साधना तक कामों की एक लम्बी शृंखला चली गई है। कर्त्तव्यों की इस अनिवार्य परम्परा को पूरा किये बिना मनुष्य का कल्याण नहीं। इसी कर्म-क्रम को इसी एक जीवन के सीमित वक्त से ही पूरा कर डालना है क्योंकि आत्मा की मुक्ति मानव-जीवन के अतिरिक्त अन्य किसी जीवन में नहीं हो सकती और मुक्ति का प्रयास तभी सफल हो सकते है जब वह उसके सहायक पूर्व प्रयासों को पूरा करता है। अस्तु जीवन के चरम लक्ष्य मुक्ति पाने के लिए उसकी साधना के अतिरिक्त सारे कर्त्तव्य-क्रम को इसी जीवन के सीमित वक्त में ही पूरा करना होगा।
इतने विशाल कर्त्तव्य-क्रम को मनुष्य पूरा तब ही कर सकता है जब वह जीवन के एक-एक क्षण, एक-एक पल और एक-एक विशेष को सावधानी के साथ उपयोगी एवं उपयुक्त दिशा में प्रयुक्त करे। नहीं तो किसने देखा है कि उसके जीवन का अन्तिम छोर कितनी दूरी पर ठहरा हुआ है। जीवन की अवधि सीमित होने के साथ अनिश्चित एवं अज्ञात भी है। जो क्षण हमारे पास है, हृदय के जिस स्पन्दन में गति है, वही हमारा है। श्वास का एक आगमन ही हमारा है बाकी सब पराये हैं, न जाने दूसरे क्षण हमारे बन पायेंगे या नहीं। अतएव हर बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिये कि जो क्षण, जो श्वास उसके अधिकार में है उसे भगवान की महती कृपा और जीवन का उच्चतम अन्तिम अवसर समझकर इस सावधानी एवं संलग्नता से उपयोग करे कि मानों इसी एक क्षण में सब कुछ दक्षता है। अपने वर्तमान क्षण को छोड़कर भविष्य की युगीन अवधि पर विश्वास करना विवेक का बहुत बड़ा अपमान है। जिस भविष्य पर आप अपने जीवन विकास के कार्यों, अपने विकास कर्त्तव्यों को स्थगित करने की सोच रहे हैं वह आ ही जायेगा, यह जीवन निश्चित अनिश्चितता के बीच निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता।
कर्त्तव्यों के विषय में आने वाले कल की कल्पना एक अन्ध-विश्वास है। उसकी प्रतीक्षा करने वाले नासमझ इस दुनिया में पश्चाताप करते हुए ही विदा होते हैं। आने वाला कल ऐसा आकाश कुसुम है जो सुना तो गया पर पाया कभी नहीं गया। किन्तु दुर्भाग्य है कि हर स्थगनशील व्यक्ति सदा ही उसी कल पर विश्वास किये हुए उपस्थित वर्तमान में सोता रहता है और जब उसका प्रतीक्षित कल कभी नहीं आता तब उसके पास उस बीते हुये कल के लिये रोने-पछताने के सिवाय कुछ नहीं रह जाता जिसको कि उसने वर्तमान में अवहेलना की थी, और जो कि किसी भी मूल्य पर वापस नहीं लाया जा सकता।
समय की चूक पश्चाताप की हूक बन जाती है। जीवन में कुछ करने की इच्छा रखने वालों को चाहिये कि वे अपने किसी भी कर्त्तव्य को भूलकर भी कल पर न डालें जो आज किया जाना चाहिए। आज के काम के लिए आज का ही दिन निश्चित है और कल के काम के लिये कल का दिन निर्धारित है। आज का काम कल पर डाल देने से कल का भार दो गुना हो जायेगा जो निश्चय ही कल के समय में पूरा नहीं हो सकता। इस प्रकार आज का कल पर और कल का परसों पर ठेला हुआ काम इतना बढ़ जायेगा कि वह फिर किसी भी प्रकार पूरा नहीं किया जा सकता। जिस स्थगनशील स्वभाव तथा दीर्घसूत्री मनोवृत्ति ने आज का काम आज नहीं करने दिया वह कल कब करने देयी ऐसा नहीं माना जा सकता। स्थगन-स्थगन को और क्रिया-क्रिया को प्रोत्साहित करती है यह प्रकृति का एक निश्चित नियम है।
बासी काम, बासी भोजन की तरह ही अरुचिकर हो जाया करता है। फिर न तो उसे करने की इच्छा होती है और करने पर सुचारू रूप से नहीं हो पाता। कल के काम का दबाव बासी काम को एक बेगार बना देगा जो रो-झींककर ही किया जा सकेगा। ऐसा होने से अभ्यास बिगड़ता है। और उनका विकृत प्रभाव कल के नये काम पर भी पड़ता है। इस प्रकार स्थगनशीलता कर्त्तव्यों में मनुष्य की रुचि तथा दक्षता को नष्ट कर देती है। इन दोनों विशेषताओं से रहित कर्त्तव्य परिश्रम का भरपूर मूल्य पाकर भी अपेक्षित पुरस्कार एवं परितोषक नहीं ला पाते।
जीवन में सफलता के लिए जहां परिश्रम एवं पुरुषार्थ की अनिवार्य आवश्यकता है वहां सामयिकता का सामंजस्य उससे भी अधिक आवश्यक है। जिस वक्त को बरबाद कर दिया जाता है उस वक्त में किया जाने के लिए निर्धारित श्रम भी निष्क्रिय रहकर नष्ट हो जाता है। श्रम तभी सम्पत्ति बनता है जब वह वक्त से संयोजित कर दिया जाता है और वक्त तब ही सम्पदा के रूप में सम्पन्नता एवं सफलता ला सकता है जब उसका श्रम के साथ सदुपयोग किया जाता है। समय का सदुपयोग करने वाले स्वभावतः परिश्रमी बन जाते हैं जब कि असामयिक परिश्रमी, आलसी की कोटि का ही व्यक्ति होता है वक्त का सदुपयोग ही वास्तविक श्रम है और वास्तविक श्रम अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष का सम्वाहन पुरुषार्थ एवं परमार्थ है।
समय-संयम सफलता की कुञ्जी है
अनेक लोग ऐसे होते हैं जो वक्त का महत्व तो स्वीकार कर लेते हैं किन्तु उसके पालन पर ध्यान नहीं देते। समय खराब न करने पर भी वे कोई कम निर्धारित वक्त पर करना आवश्यक नहीं समझते। इस वक्त इस काम पर जुटे हुए हैं तो उस वक्त उस कम पर। दूसरे दिन उनका यह क्रम टूट जाता है और वे इस वक्त उस काम को और उस वक्त इस काम को करने लग जाते हैं।
इस प्रकार की अनियमितता बहुधा विद्यार्थी, अध्ययनशील तथा लिखा-पढ़ी का काम करने वाले भी किया करते हैं। अशिक्षित, अज्ञानी जीवन में अव्यवस्था हो तो एक बात भी है पर शिक्षा के प्रकाश में आगे बढ़ने वाले को अव्यवस्थित होना वस्तुतः खेदजनक है। अनियमित विद्यार्थी कभी प्रभात में गणित करते हैं तो कभी अंग्रेजी पढ़ते हैं। इसी प्रकार अंग्रेजी व हिन्दी विषय कभी प्रातः व सायं के वक्त घेर कर गणित को दोपहर के लिये रख देते हैं। कभी भूगोल के समय में इतिहास और इतिहास के समय में नागरिक शास्त्र लेकर बैठ जाते हैं। इसके अतिरिक्त उनके लेखन एवं पठन का समय तो परस्पर बदलता ही रहता है पढ़ने तथा खेलने व मनोरंजन के समय भी बदलते रहते हैं। इस प्रकार वे पढ़ने-लिखने, खेलने-कूदने में समय तो देते हैं किन्तु उनके समय में न तो कोई क्रम होता है और न नियमितता।
कभी-कभी उनका यह समय घटता-बढ़ता भी रहता है। जिस दिन गणित में अधिक मन लग गया तो अंग्रेजी का समय भी उसे दे दिया। कभी रुचि की अधिकता से इंग्लिश गणित का समय ले जाती है। इस प्रकार वे अपना अध्ययन कार्य तो करते रहते हैं किन्तु किसी निश्चित समय-सारिणी के अनुसार विषयों में गति, योग्यता एवं आवश्यकता के अनुसार ही समय देकर बनाई गई समय-सारिणी का पालन करने वाले विद्यार्थी अनियमित विद्यार्थियों से कहीं अधिक श्रम एवं समय के सदुपयोग का लाभ उठाते हैं। इसी प्रकार बहुत से अध्ययनशील व्यक्ति अपना समय तो खराब नहीं करते किन्तु उनका अध्ययन क्रम निश्चित एवं निर्धारित नहीं होता। वे कभी किसी एक विषय के ग्रन्थ को पढ़ते और पूरा किये बिना ही दूसरा शुरू कर देते हैं। कभी-कभी एक ग्रन्थ को कल के लिये अधूरा छोड़कर उसके लिये निश्चित समय पर दूसरा ग्रन्थ प्रारम्भ कर देते हैं। बहुधा यह भी देखने में आता है कि अनियमित अध्ययनशील पुस्तकों के समय में समाचार-पत्र और समाचार-पत्रों के समय में साहित्यिक पत्रिकायें पढ़ रहे हैं। इसमें सन्देह नहीं कि वे अपना समय बिन पढ़े व्यय नहीं करते किन्तु उस कार्य में क्रम को स्थान नहीं देते। इस कमी के कारण अध्ययन से जितना लाभ होना चाहिये उतना नहीं हो पाता।
कार्यालयों में लिखा-पढ़ी का काम करने वाले अनेक परिश्रमी बाबू लोग अपनी इसी असामयिकता के कारण अच्छे कर्मचारियों की सूची में नहीं आ पाते वे पूरे समय काम में जुटे रहते हैं और कभी-कभी निर्धारित समय से अधिक समय तक भी। तब भी वे अपने उच्च अधिकारी की प्रियपात्रों की सूची में नहीं आ पाते। क्रम के साथ काम तथा फाइलों को उपयुक्त समय में न देने से उनका आवश्यक काम कभी-कभी पड़ा रहता है और गौण काम पूरा हो जाता है। इसी अव्यवस्था के कारण वे बहुत से तात्कालिक कामों को भूल जाते हैं इसलिये उनकी कार्य कुशलता के अंग कम हो जाते हैं। पत्र लिखने के समय फाइलों का अध्ययन और फाइल पढ़ने के समय टाइप पर बैठ जाने से न तो उनका कोई काम समय पर हो पाता है और कुशलतापूर्वक इस प्रकार असमय पूरा हुआ उनका काम अधूरे की श्रेणी में ही गिना जाता है। क्रम एवं सामयिकता से करने पर काम भी कुशलतापूर्वक होता है और आवश्यकता से अधिक समय भी नहीं लगता।
इस प्रकार के अव्यवस्थित कार्यकर्त्ता समय की पाबन्दी को एक बन्धन मानते हैं। उनकी अक्रमिक बुद्धि का तर्क होता है कि समय के साथ अपने को अथवा अपने काम को बांध देने से मनुष्य उसका इतना अभ्यस्त हो जाता है कि यदि कभी संयोग, विवशता अथवा परिस्थितिवश उसे व्यवधान स्वीकार करना पड़ता है तो उसे बड़ी परेशानी उठानी पड़ती है। प्रातःकाल पढ़ने अथवा व्यायाम करने वाले को यदि दो-चार दिन के लिए बाहर यात्रा पर जाना पड़ जाये तो निर्धारित कार्यक्रम में व्यवधान पड़ जाने से उसकी अभ्यस्त वृत्तियां विद्रोह करेंगी, जिससे यात्रा अथवा प्रवास के समय पर उसे बड़ी भ्रान्ति, क्लान्ति एवं व्यग्रता रहेगी।
समय पर भोजन के अभ्यस्त ब्याह-शादियों, मंगलोत्सवों अथवा शोक सम्भोगों के अवसरों पर या तो भूखों रहते हैं अथवा खाने से बीमार हो जाते हैं।
सुख-शान्ति, सन्तोष, सफलता एवं स्वास्थ्य आदि के पारितोषिक असामयिक जीवन-क्रम वालों से कोसों दूर रहा करते हैं। जिन्दगी जीने के लिए मिली है खो डालने के लिये नहीं। समय-सम्मत व्यवस्था के अभाव में इस परम दुर्लभ मानव-जीवन को न तो ठीक से किया जा सकता है और न इसका कोई लाभ ही उठाया जा सकता है। यह सम्भव तभी हो सकता है जब जीवन का प्रत्येक क्षण किसी निश्चित कर्त्तव्य के लिये निर्धारित एवं जागरुक हों।
असमय सोने-जागने, खाने-पीने और काम करने वाले आजीवन आरोग्य के दर्शन नहीं कर सकते। वे सदा सर्वदा शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक अथवा आध्यात्मिक किसी न किसी व्याधि से पीड़ित रहेंगे। उनकी शक्ति में से कुछ को तो उनकी अव्यवस्था नष्ट कर देगी और शेष का व्याधियां शोषण कर लेंगी।
समय-संयम के साथ अपना हर काम करने वाले मनुष्यों का जीवन कभी असफल नहीं हो सकता है। भले ही परिस्थितिवश वे संसार में कोई अनुकरणीय कार्य न भी कर पायें, तब भी उनका जीवन असफल नहीं कहा जा सकता। सुख-शांति पूर्वक एक प्रिय जिन्दगी जी लेना स्वयं ही एक बड़ी सफलता है। सफलता का मान-दंड कोई बड़ा काम ही नहीं है, उनका सच्चा मानदण्ड है—जीने की कला जो सन्तोषपूर्वक जिन्दगी को कथनीयता के साथ जी सका है, वह निःसन्देह अपने जीवन में सफल हुआ है। एक छोर से दूसरे छोर तक जिसका जीवन एक व्यवस्थित कार्यक्रम की तरह स्निग्ध गति से न चल कर ऊबड़-खाबड़ गिरता-पड़ता और उलझता सुलझता चलता है, उसके जीवन को असफल मान लेना ही न्याय-संगत होगा।
समय पर हर काम करने वालों की सारी शक्तियां उपभोग में आने पर भी अक्षय बनी रहती हैं। समय पर काम करने का अभ्यास एक सजग प्रहरी की तरह ही होता है, जो किसी भी परिस्थिति में मनुष्य को अपने कर्त्तव्य का विस्मरण नहीं होने देता। समय आते ही सिद्ध किया हुआ अभ्यास उसे निश्चित कार्य की याद दिला देता है और प्रेरणापूर्वक उसमें लगा भी देता है? समय आते ही उक्त कार्य योग्य शक्तियों में जागरण एवं सक्रियता आ जाती है, जिससे मनुष्य निरालस्य रूप से अपने काम से लगकर उसे निर्धारित समय में ही पूरा कर लेता है। कार्य एवं कर्त्तव्यों की पूर्णता ही जीवन की पूर्णता है, जो कि बिना समय, संयम, एवं व्यवस्थित और क्रियाशीलता के प्राप्त नहीं हो सकती।
निर्धारित समय में हेर-फेर करते रहने वाले बहुधा लज्जा एवं आत्मग्लानि के भागी बनते हैं। किसी को बुलाकर समय पर न मिलना, समाजों, सभाओं, गोष्ठियों अथवा आयोजनों के अवसर पर समय से पूर्व अथवा पश्चात् पहुंचना, किसी मित्र से मिलने जाने का समय देकर उसका पालन न करना आदि की शिथिलता सभ्यता की परिधि में नहीं मानी जा सकती है। देर-सवेर कक्षा अथवा कार्यालय पहुंचने वाला विद्यार्थी तथा कर्मचारी भर्त्सना का भागी बनता है। ‘लेट लतीफ’ लोगों की ट्रेन छूटती, परीक्षा चूकती, लाभ डूबता डाक रुक जाती, बाजार उठ जाता, संयोग निकल जाते और अवसर चूक जाते हैं। इतना ही नहीं व्यावसायिक क्षेत्र में तो जरा-सी देर दिवाला तक निकाल देती हैं। समय पर बाजार न पहुंचने पर माल दूसरे लोग खरीद ले जाते हैं। देर हो जाने से बैंक बन्द हो जाता है और भुगतान रुक जाता है। समय चुकते ही माल पड़ा रहता है। असामयिक लेन-देन तथा खरीद-फरोख्त किसी भी व्यवसायी को पनपने नहीं देती।
समय का पालन मानव-जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण संयम है। समय पर काम करने वालों के शरीर चुस्त, मन नीरोग तथा इन्द्रियां तेजस्वी बनी रहती हैं। निर्धारण के विपरीत काम करने से मन, बुद्धि तथा शरीर काम तो करते हैं किन्तु अनुत्साहपूर्वक। इससे कार्य में दक्षता तो नहीं ही आती है, साथ ही शक्तियों का भी क्षय होता है। किसी काम को करने के ठीक समय पर शरीर उसी काम के योग्य यन्त्र जैसा बन जाता है। ऐसे समय में यदि उससे दूसरा काम लिया जाता है, तो वह काम लकड़ी काटने वाली मशीन से कपड़े काटने जैसा ही होगा।
क्रम एवं समय से न काम करने वालों का शरीर-यन्त्र अस्त-व्यस्त प्रयोग के कारण शीघ्र ही निर्बल हो जाता है और कुछ ही समय में वह किसी कार्य के योग्य नहीं रहता। समय-संयम सफलता की निश्चित कुन्जी है। इसे प्राप्त करना प्रत्येक बुद्धिमान का मानवीय कर्त्तव्य है।
जीवन का महल समय की—घण्टे-मिनटों की ईंटों से चिना गया है। यदि हमें जीवन से प्रेम है तो यही उचित है कि समय को व्यर्थ नष्ट न करें। मरते समय एक विचारशील व्यक्ति ने अपने जीवन के व्यर्थ ही चले जाने पर अफसोस प्रकट करते हुए कहा—‘‘मैंने समय को नष्ट किया, अब समय मुझे नष्ट कर रहा है।’’
खोई दौलत फिर कमाई जा सकती है। भूली हुई विद्या फिर याद की जा सकती है। खोया हुआ स्वास्थ्य चिकित्सा द्वारा लौटाया जा सकता है, पर खोया हुआ समय किसी प्रकार नहीं लौट सकता, उसके लिए केवल पश्चाताप ही शेष रह जाता है।
जिस प्रकार धन के बदले में अभीष्ट वस्तुएं खरीदी जा सकती हैं, उसी प्रकार समय के बदले में विद्या, बुद्धि, लक्ष्मी, कीर्ति, आरोग्य, सुख-शान्ति, मुक्ति आदि जो भी वस्तू रुचिकर हो खरीदी जा सकती है। ईश्वर ने समय रूपी प्रचुर धन देकर मनुष्य को पृथ्वी पर भेजा है और निर्देश दिया है कि वह इसके बदले में संसार की जो भी वस्तु रुचिकर समझे खरीद ले।
किन्तु कितने व्यक्ति हैं जो समय का मूल्य समझते और उसका सदुपयोग करते हैं? अधिकांश लोग आलस्य और प्रमाद में पड़े हुए जीवन के बहुमूल्य क्षणों को यों ही बर्बाद करते रहते हैं। एक-एक दिन करके सारी आयु व्यतीत हो जाती है और अन्तिम समय वे देखते है कि उन्होंने कुछ भी प्राप्त नहीं किया, जिन्दगी के दिन यों ही बिता दिये। इसके विपरीत जो जानते हैं कि समय का नाम ही जीवन है वे एक एक क्षण को कीमती मोती की तरह खर्च करते हैं और उसके बदले में बहुत कुछ प्राप्त कर लेते हैं। हर बुद्धिमान् व्यक्ति ने बुद्धिमत्ता का सबसे बड़ा परिचय यही दिया है कि उसने जीवन के क्षणों को व्यर्थ बर्बाद नहीं होने दिया। अपनी समझ के अनुसार जो अच्छे से अच्छा उपयोग हो सकता था, उसी में उसने समय को लगाया। उसका यही कार्यक्रम अन्ततः उसे इस स्थिति तक पहुंचा सका, जिस पर उसकी आत्मा सन्तोष का अनुभव करे। प्रतिदिन एक घण्टा समय यदि मनुष्य नित्य लगाया करे तो उतने छोटे समय से भी वह कुछ ही दिनों में बड़े महत्वपूर्ण कार्य पूरे कर सकता है। एक घण्टे में चालीस पृष्ठ पढ़ने से महीने में बारह सौ पृष्ठ और साल में करीब पन्द्रह हजार पृष्ठ पढ़े जा सकते हैं यह क्रम दस वर्ष जारी रहे तो डेढ़ लाख पृष्ठ पढ़े जा सकते हैं। इतने पृष्ठों में कई सौ ग्रन्थ हो सकते हैं। यदि वे एक ही किसी विषय के हों तो वह व्यक्ति उस विषय का विशेषज्ञ बन सकता है। एक घण्टा प्रतिदिन कोई व्यक्ति विदेशी भाषायें सीखने में लगावें तो वह मनुष्य निःसन्देह तीस वर्ष में इस संसार की सब भाषाओं का ज्ञाता बन सकता है। एक घण्टा प्रतिदिन व्यायाम में कोई व्यक्ति लगाया करे तो अपनी आयु को पन्द्रह वर्ष बढ़ा सकता है।
संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के प्रख्यात गणित के आचार्य चार्ल्स फास्ट ने प्रति दिन एक घन्टा गणित सीखने का नियम बनाया था और उस नियम पर अन्त तक डटे रह कर ही इतनी प्रवीणता प्राप्त की।
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर समय के बड़े पाबन्द थे। जब वे कॉलेज जाते तो रास्ते के दुकानदार अपनी घड़ियां उन्हें देखकर ठीक करते थे। वे जानते थे कि विद्यासागर कभी एक मिनट भी आगे पीछे नहीं चलते। एक विद्वान ने अपने दरवाजे पर लिख रखा था। ‘‘कृपया बेकार मत बैठिये। यहां पधारने की कृपा की है तो मेरे काम में कुछ मदद भी कीजिये।’’ साधारण मनुष्य जिस समय को बेकार की बातों में खर्च करते रहते हैं, उसे विवेकशील लोग किसी उपयोगी कार्य में लगाते हैं। यही आदत हैं जो सामान्य श्रेणी के व्यक्तियों को भी सफलता के उच्च शिखर पर पहुंचा देती हैं। माजार्ट ने हर घड़ी उपयोगी कार्य में लगे रहना अपने जीवन का आदर्श बना लिया था। वह मृत्यु शैय्या पर पड़ा-पड़ा भी कुछ करता रहा। रेक्यूम नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ उसने मौत से लड़ते-लड़ते पूरा किया।
ब्रिटिश कॉमनवेल्थ और प्रोटेक्टरेट के मन्त्री का अत्यधिक व्यस्त उत्तरदायित्त्व वहन करते हुए मिल्टन ने ‘पैराडाइस लास्ट’ की रचना की। राजकाज से उसे बहुत कम समय मिल पाता था, तो भी जितने कुछ मिनट वह बचा पाता उसी में उस काव्य की रचना कर लेता। ईस्ट इंडिया हाउस की क्लर्की करते हुए जान स्टुआर्ट मिल ने अपने सर्वोत्तम ग्रन्थों की रचना की। गैलेलियो दवादारू बेचने का धंधा करता था तो भी उसने थोड़ा-थोड़ा समय बचाकर विज्ञान के महत्वपूर्ण आविष्कार कर डाले।
हेनरी किरक व्हाट को सबसे बड़ा समय का अभाव रहता था, पर घर से दफ्तर तक पैदल आने और जाने का समय सदुपयोग करके उसने ग्रीक भाषा सीखी। फौजी डॉक्टर बनने का अधिकतर समय घोड़े की पीठ पर बीतता था। उसने उस समय को भी व्यर्थ न जाने दिया और रास्ता पार करने के साथ-साथ उसने इटेलियन और फ्रेंच भाषायें भी पढ़ लीं। यह याद रखने की बात है कि—‘‘परमात्मा एक समय में एक ही क्षण हमें देता है और दूसरा क्षण देने से पूर्व उस पहले वाले क्षण को छीन लेता है। यदि वर्तमान काल में उपलब्ध क्षणों का हम सदुपयोग नहीं करते तो वे एक-एक करके छिनते चले जायेंगे और अन्त में खाली हाथ ही रहना पड़ेगा’’।
एडवर्ड वटलर लिटन ने अपने एक मित्र को कहा था—लोग आश्चर्य करते हैं कि मैं राजनीति तथा पार्लियामेंट के कार्यक्रमों में व्यस्त रहते हुए भी इतना साहित्यिक कार्य कैसे कर लेता हूं? 60 ग्रन्थों की रचना मैंने कर ली? पर इसमें आश्चर्य की बात नहीं। यह नियन्त्रित दिनचर्या का चमत्कार है। मैंने प्रतिदिन तीन घण्टे का समय पढ़ने और लिखने के लिये नियत किया हुआ है। इतना समय मैं नित्य ही किसी न किसी प्रकार अपने साहित्यक कार्यों के लिये निकाल लेता हूं। बस इस थोड़े से नियमित समय ने ही मुझे हजारों पुस्तकें पढ़ डालने और साठ ग्रन्थों के प्रणयन का अवसर ला दिया।
घर गृहस्थी के अनेक झंझटों और बाल-बच्चों की साज-संभाल में दिन भर लगी रहने वाली महिला हेरेट बीधर स्टोव ने गुलाम प्रथा के विरुद्ध आग उगलने वाली वह पुस्तक ‘टाम काका की कुटिया’ लिखकर तैयार कर दी, जिसकी प्रशंसा आज भी बेजोड़ के रूप में की जाती है।
चाय बनाने के लिये पानी उबालने में जितना समय लगता है उसमें व्यर्थ बैठे रहने के बजाय लांगफैलो ने ‘इनफरलो’ नामक ग्रन्थ का अनुवाद करना शुरू किया और नित्य इतने छोटे समय का उपयोग इस कार्य के लिये नित्य करते रहने से उसने कुछ ही दिन में वह अनुवाद पूरा कर लिया।
इस प्रकार के अगणित उदाहरण हमें अपने चारों ओर बिखरे हुये मिल सकते हैं। हर उन्नतिशील और बुद्धिमान मनुष्य की मूलभूत विशेषताओं में एक विशेषता अवश्य मिलेगी—समय का सदुपयोग। जिसने इस तथ्य को समझा और कार्य रूप में उतारा उसने ही यहां आकर कुछ प्राप्त किया है। अन्यथा तुच्छ कार्यों में आलस्य और उपेक्षा के साथ दिन काटने वाले लोग किसी प्रकार सांसें तो पूरी कर लेते हैं, पर उस लाभ से वंचित ही रह जाते हैं जो मानव-जीवन जैसी बहुमूल्य वस्तु प्राप्त होने पर उपलब्ध होना चाहिए, या हो सकता था।
समय का सदुपयोग करिये, यह अमूल्य है
मनुष्य जीवन में रुपये-पैसों से भी अधिक महत्त्व समय का है। धन का अपव्यय निर्धन बनाता है किन्तु जिन्होंने समय का सदुपयोग करना नहीं सीखा और उसे आलस्य तथा प्रमाद में गंवाते रहे उनके सामने आर्थिक विषमता के अतिरिक्त नैतिक तथा सामाजिक बुराइयां और कठिनाइयां खड़ी हो जाती हैं। समय का उपयोग धन के उपयोग से कहीं अधिक विचारणीय है, क्योंकि उस पर मनुष्य की सुख-सुविधा के सभी पहलू अवलम्बित हैं। इसलिये हमें अर्थ-अनुशासन के साथ-साथ नियमित जीवन जीने का प्रशिक्षण भी प्राप्त करना चाहिए।
जो समय व्यर्थ में ही खो दिया गया, उसमें यदि कमाया जाता तो अर्थ प्राप्ति होती। स्वाध्याय या सत्संग में लगाते तो विचार और सन्मार्ग की प्रेरणा मिलती। कुछ न करते केवल नियमित दिनचर्या में ही लगे रहते तो इस क्रियाशीलता के कारण अपना स्वास्थ्य तो भला-चंगा रहता। समय के अपव्यय से मनुष्य की शक्ति और सामर्थ्य ही घटती है। कहना न होगा कि नष्ट किया हुआ वक्त मनुष्य को भी नष्ट कर डालता है।
संसार का काल-चक्र भी कभी अनियमित नहीं होता, लोक और दिक्पाल, पृथ्वी और सूर्य, चन्द्र और अन्य ग्रह वक्त की गति से गतिमान् हैं। वक्त की अनियमितता होने से सृष्टि का कोई काम चलता नहीं। धरती में यही नियम लागू है। लोग समय का अनुशासन न रखें तो रेल, डाक, कल-कारखाने, कृषि, कमाई आदि सभी ठप्प पड़ जायें और उत्पादन व्यवस्था में गतिरोध के साथ सामान्य जीवन पर भी उसका कुप्रभाव पड़े। एक तरह से सारी सामाजिक व्यवस्था उथल-पुथल हो जाय और मनुष्य को एक मिनट भी सुविधापूर्वक जीना मुश्किल हो जाय। जिस तरह अभी लोग भली प्रकार सारे क्रिया कलाप कर रहे हैं वैसे कदापि नहीं हो सकते। अतः हमको भी अपनी दिनचर्या को अपने जीवन कार्यों की आवश्यकता विभक्त करके उसी के अनुसार कार्य करना चाहिए।
अपने कार्यों का वर्गीकरण (1) स्वास्थ्य (2) धन और (3) सामाजिक सदाचार की दृष्टि से कीजिये और एक दिन के वक्त को इसी क्रम से बांट कर अपने लिये एक व्यवस्थित दिनचर्या बांध लीजिये और उसी के अनुसार चलते रहिये। इसी में आपको सारी बातों का समावेश किया जाना चाहिये और उसी के अनुरूप जीवन-क्रम चलता रहना चाहिए। इससे आप अधिक सुखमय जीवन जी सकेंगे।
वैयक्तिक सुखोपभोग और सांसारिक कार्यों में क्षमतावान् होने के लिये आपका स्वस्थ रहना बहुत जरूरी है। स्वास्थ्य सुखी जीवन की प्रमुख शर्त है, अतः उन सभी नियमों को प्राथमिकता दीजिये जिनसे आपका शरीर और मन स्वस्थ व अवृद्ध रहता है। हमेशा सूर्योदय से कम से कम एक घण्टा पहले उठा कीजिये और शौच, स्नान आदि से निवृत्त होकर कुछ टहलने या व्यायाम आदि की व्यवस्था बना लीजिये। प्रातःकाल की मुक्त वायु शरीर को शक्ति और पोषण प्रदान करता है, दिन-भर देह स्फूर्ति और ताजगी से भरी रहती है। इस अवसर को गंवाना रोग और दुर्बलता को निमन्त्रण देने से कम नहीं। जो लोग बिस्तरों में पड़े सोते रहते हैं वे प्रातःकालीन ऊषीय-रश्मियों निर्दोष वायु से वंचित रह जाते हैं और उनका शरीर सुस्त और निस्तेज हो जाता है। वे कोई कार्य आधी रुचि से करते हैं तदनुकूल सफलता भी आधी ही मिलती है।
दिन-भर के कार्यों का अनुमानित आकार भी आप बिस्तर से उठते ही बना लीजिये और फिर उसमें परिश्रमपूर्वक लग जाया कीजिये। सफलता के लिये खीझ या परेशानी मन में न आने देकर मस्ती पूर्वक सुबह से शाम तक काम में जुटे रहिये। यह क्रियाशीलता आपको रोगों और दुश्चिन्ताओं से दूर रखेगी। यह याद रखिये कि नियमित वक्त पर किया हुआ काम पूर्ण रूप से भली-भांति सम्पन्न होता है और उसके पूरा हो जाने से आन्तरिक उल्लास और प्रसन्नता की वृद्धि होती है। इससे शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मनोबल तथा आत्मबल भी बढ़ता रहता है। इसी तरह सायंकाल को भी अपने उन सभी कार्यों की समीक्षा करनी चाहिए जो दिन-भर आपने किये हैं उनमें से कोई ऐसा दीखे जिससे आपके शारीरिक अथवा मानसिक स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ता हो तो उसे आगे के लिये रोकने या कम करने का प्रयत्न कीजिये।
सारांश यह है कि वक्त का विभाजन करते वक्त आप स्वास्थ्य की बात को भी ध्यान में रखिये और उसके प्रति बेपरवाह मत हो जाइये। आप चाहें तो वक्त के सदुपयोग और व्यवस्थित कार्य प्रणाली द्वारा स्वयं ही स्वस्थ बने रह सकते हैं, कार्यों में इनका दुरुपयोग करके उसे आलस्य में भी खो सकते हैं, पर याद रखिये इस बात का ध्यान जितनी देर बाद में आयेगा अपने आपको उतना ही पिछड़ा हुआ अनुभव करेंगे।
यही बात उपार्जन के बारे में भी लागू होती है। शुभ और सुखी जीवन के लिये धन बहुत आवश्यक है। आर्थिक विषमता होने से दूसरे दैनिक कार्य भी कठिनाई से चल पाते हैं इसलिये धनोपार्जन के लिये भी समय का उपयोग कीजिये। समय के गर्भ में लक्ष्मी का अक्षय भण्डार भरा पड़ा है पर उसे पाते वही हैं जो उसका सदुपयोग करते हैं।
आपको जितना समय कार्यालय में काम करना पड़ता है उतने से ही सन्तोष नहीं हो जाना चाहिये। अपने लिए कोई अन्य रुचिकर घरेलू उद्योग चुनकर भी अपनी आय बढ़ाने का प्रयत्न होना चाहिये। जापान के नागरिक ऐसा ही करते हैं। वे छोटी मशीनों या खिलौनों के पुर्जे लाकर रख लेते हैं और अपने व्यावसायिक कार्य से फुरसत मिलने पर नियमित रूप से कुछ वक्त उसमें भी लगाते हैं। इन कार्यों में वे अपने परिवार वालों का भी सहयोग लेते हैं और इस तरह वे अपनी बंधी आय के लगभग बराबर आय पार्ट टाइम में कर लेते हैं। उनकी खुशहाली को सबसे बड़ा कारण वक्त का समुचित सदुपयोग ही कहा जा सकता है।
स्वास्थ्य और धनोपार्जन के अतिरिक्त जो वक्त शेष रहता है उसका सदुपयोग समाज कल्याण के लिये करना चाहिये। वक्त का अभाव किसी के पास नहीं पर अधिकांश व्यक्ति उसे बेकार के कार्यों में व्यतीत किया करते हैं। ताश, चौपड़, शतरंज, मटरगस्ती आदि में वक्त बर्बाद करने से शरीर और मन की शक्ति का पतन होता है। इस वक्त का सदुपयोग सामाजिक उत्थान के कार्यों में करना हमारा धर्म है।
समय का महत्त्व अमूल्य है। उसके समुचित सदुपयोग की शिक्षा ग्रहण करें तो इस मनुष्य जीवन में स्वर्ग का-सा सुखोपभोग प्राप्त किया जा सकता है। आवश्यक है कि अपने वक्त को उचित प्रकार से दिन भर के कार्यों में बांट लें जिससे जीवन के सब काम सुचारु रूप से होते चले जायं। हमें इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिये कि वक्त ही जीवन है। यदि हमें अपने जीवन से प्रेम है तो अपने वक्त का सदुपयोग भी करना चाहिए।
हम अपना वक्त आलस्य और निरर्थक कार्यों में खर्च न करें। आलस्य दुनिया की सबसे भयंकर बीमारी है। आलस्य समस्त रोगों की जड़ है। उसे साक्षात् मृत्यु कहें तो इसमें अत्युक्ति न होगी। अन्य बीमारियों से तो शरीर सारे मनुष्य जीवन को ही खा डालता है। आलस्य में पड़कर मनुष्य की क्रिया शक्ति कुण्ठित होने लगती है जिससे न केवल शरीर शिथिल पड़ता है वरन् आर्थिक आय के साधन भी शिथिल पड़ जाते हैं।
हमारी जीवन व्यवस्था के लिए समय रूपी बहुमूल्य उपहार परमात्मा ने दिया। इसका एक-एक क्षण एक-एक मोती के समान कीमती है जो इन्हें बटोरकर रखता है सदुपयोग करता है वह यहां सुख प्राप्त करता है। गंवाने वाले व्यक्ति के लिए वक्त ही मृत्यु है। वक्त के दुरुपयोग से जीवनी शक्ति का दुरुपयोग होता है और मनुष्य जल्दी ही काल के गाल में समा जाता है। इसलिये हमें चाहिए कि समय का उपयोग सदैव सुन्दर कार्यों में करें और इस स्वर्ग तुल्य संसार में सौ वर्ष तक सुखपूर्वक जियें।
समय जो गुजर गया, फिर न मिलेगा
समर्थ स्वामी रामदास वक्त के सदुपयोग के बारे में बड़े महत्त्वपूर्ण शब्द कहा करते थे—
एक सदैव पणाचैं लक्षण। रिकामा जाऊँ ने दो एक क्षण।। (दासबोध—11—24)
अर्थात्—‘‘जो मनुष्य वक्त का सदुपयोग करता है, एक क्षण भी बरबाद नहीं करता, वह बड़ा सौभाग्यवान् होता है।’’ धन और रुपये-पैसे के मामले में यह कहा जाता है कि जिसका खर्च व्यवस्थित और मितव्ययी होता है, वही जीवन पर्यन्त धन का सुख लाभ प्राप्त करता है, उसके खजाने में किसी प्रकार की कमी नहीं आती। ऐसे ही समय के प्रत्येक क्षण का उपयोग कर लेना भी मनुष्य की बुद्धिमत्ता का प्रतीक है उन्नति की इच्छा रखने वालों को अपना समय कभी भी व्यर्थ न गंवाना चाहिये। समय के सदुपयोग करने में सदैव सावधान रहना चाहिये। आज जो समय गुजर गया, कल वह फिर आने वाला नहीं।
कार्य चाहे व्यावहारिक हो अथवा पारमार्थिक, जो समय सम्बन्धी विवेक और सावधानी नहीं रखते उन्हें इसके दुष्परिणाम जन्म-जन्मान्तरों तक भुगतने पड़ते हैं। आज अपने पास सभी परिस्थितियां हैं, साधन हैं। मनुष्य शरीर मिला है, बुद्धि और विचार की बहुमूल्य विरासत जो हमें मिली है वह यह समझ लेने के लिये है कि आपका समय सीमाओं से प्रतिबन्धित है। सृष्टि के दूसरे जीवों में से कई तो लम्बी आयु वाले भी होते हैं किन्तु मनुष्य की अवस्था अधिक से अधिक सौ वर्ष है। उसमें भी कितना समय अवस्था के अनुरूप व्यर्थ चला जाना है फिर जो शेष बचता है उसका उपयोग यदि सांसारिक और आध्यात्मिक विकास के लिए नहीं कर पाये तो कौन जाने यह परिस्थितियां फिर कभी मिलेंगी या नहीं।
आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने वाले भी जब समय का ठीक ठीक उपयोग नहीं कर पाते, इस सम्बन्ध में जागरुक और विवेकशील नहीं होते तो बड़ा आश्चर्य होता है। इससे अच्छे तो वे लोग ही हैं जो बेचारे किसी प्रकार जीवन-निर्वाह के साधन और आजीविका जुटाने में ही लगे रहते हैं। उन्हें यह पछतावा तो नहीं होता कि जीवन के बहुमूल्य क्षणों का पूर्ण उपयोग नहीं कर सके। आजीविका भी अध्यात्म का एक अंग है अतएव सम्पूर्ण न सही, कुछ अंशों में तो उन्होंने मानव-जीवन का सदुपयोग किया। हाथ पर हाथ रखकर आलस्य में, समय गंवाने वाले सामाजिक जीवन में गड़बड़ी ही फैलाते हैं भले ही वे कितने ही बुद्धिमान, भजनोपदेशक, कथावाचक, पण्डित या सन्त-संन्यासी ही क्यों न हों। समय का सदुपयोग करने वाला घसियारा, बेकार बैठे रहने वाले पण्डित से बढ़कर है क्योंकि वह समाज को किसी न किसी रूप में समुन्नत बनाने का प्रयास करता ही है।
आलस में समय गंवाने वाले कुसंग और कुबुद्धि के द्वारा उल्टे रास्ते तैयार करते हैं। कहते हैं ‘‘खाली दिमाग शैतान का घर।’’ जब कुछ काम नहीं होता तो खुराफात ही सूझती है। जिन्हें किसी सत्कार्य या स्वाध्याय में रुचि नहीं होती खाली समय में कुसंगति, दुर्व्यसन, ताश-तमाशे और तरह-तरह की बुराइयों में ही अपना समय बिताते हैं। समाज में अव्यवस्था का कारण कोई बाहरी शक्ति नहीं होती, अधिकांश बुराइयां, कलह और झंझट बढ़ाने का श्रेय उन्हीं को है जो व्यर्थ में समय गंवाते रहते हैं। मनुष्य लम्बे समय तक निष्प्रयोजन खाली बैठा नहीं रह सकता अतएव यदि वह भले काम नहीं करता तो बुराई करने में उसे देर न लगेगी। उसे अच्छा या बुरे, सच्चा हो चाहे काल्पनिक, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा। इसलिये यदि उसे सही विषय न मिले तो वह बुराइयां ही ग्रहण करता है और उन्हें ही समाज में बिखेरता हुआ चला जाता है।
मनुष्य के अन्तःकरण में ही उसका देवत्व और असुरत्व विद्यमान है। जब तक हमारा देवता जागृत रहता है और हम विभिन्न कल्याणकारी कार्यों में संलग्न रहते हैं तब तक आन्तरिक असुरता भी दबी हुई पड़ी रहती है पर यह प्रसुप्त वासनायें भी अवकाश के लिये चुपचाप अन्तर्मन में जगती रहती हैं समय पाते ही देवत्व पर प्रहार कर बैठती हैं? जब यह दिखाई दे कि अब अपने पास कोई काम शेष नहीं रहा तो मनुष्य अपने निवास के आस-पास की सफाई, वस्त्रों की हिफाजत, घर की मरम्मत, खेतों की देख-भाल, लेखन, ज्ञान विषयक चर्चा या किसी जीवनोपयोगी साहित्य का स्वाध्याय ही करने लग जाय। इससे टूटी-फूटी वस्तुओं की साज-सम्हाल, स्वास्थ्य-रक्षा और ज्ञान की वृद्धि ही होगी। समय का मूल्यांकन केवल रुपये पैसे से ही नहीं हो सकता। जीवन में और भी अनेकों पारमार्थिक व्यवसाय हैं। उन्हें भी देखना और ज्ञान प्राप्त करना हमारा धर्म होना चाहिए। सत्कार्यों में लगाये गये समय का परिणाम सदैव सुखदायक ही होता है।
काम न करने का तथा किसी व्यवसाय में अभिरुचि न होने का कारण यह है कि एक सी स्थिति में रहते हुए मनुष्य को उकताहट पैदा होती है। यह स्वाभाविक भी है। मनोरंजन की आवश्यकता सभी को होती है। सन्त-महात्मा भी प्रकृति-दर्शन और तीर्थ यात्रा आदि के रूप में मनोरंजन प्राप्त किया करते हैं। यह उकताहट यदि सम्हाली न जाय तो किसी व्यसन के रूप में ही फूटती है। व्यसन की शुरुआत खाली समय में कुसंगति के कारण ही होती है।
आज-कल इस प्रकार के साधनों की किसी प्रकार की कमी नहीं है। निरुत्साह और मानसिक थकावट दूर करने के लिये विविध मनोरंजन के साधन आज बहुत बढ़ गये हैं किन्तु समय के सदुपयोग और जीवन की सार्थकता की दृष्टि से, इनमें से उपयोगी बहुत कम ही दिखाई देते हैं। अधिकांश तो धन-साध्य और मनुष्य का नैतिक पतन करने वाले ही हैं। इसलिए यह भी आवश्यक हो गया है कि जब कुछ समय श्रम से उत्पन्न थकावट को दूर करने के लिए निकालें तो यह भली-भांति विचार करलें कि यह जो समय उक्त कार्य में लगाने जा रहे हैं उसका आध्यात्मिक उत्थान और आत्म-विकास के लिये क्या सदुपयोग हो रहा है? मनोरंजन केवल प्रसुप्त वासना की पूर्ति के लिये न हो वरन् उसमें भी आत्म-कल्याण की भावना सन्निहित बनी रहे तो उस समय का उपयोग सार्थक माना जा सकता है।
फुरसत और खाली समय का उपयोग अच्छे-बुरे किसी भी काम में हो सकता है। नई-नई विद्या, कला, लेखन, शास्त्रार्थ के द्वारा नई सूझ और आध्यात्मिक बुद्धि जागृत होती है। इससे अपना व समाज दोनों का ही कल्याण होता है। सत्कर्म में लगाये हुए समय से मनुष्य का जीवन सुखी, समुन्नत तथा उदात्त बनता है। जापान की उन्नति का प्रमुख कारण फुरसत के समय का सदुपयोग ही है। वहां सरकारी काम के घण्टों के बाद का समय लोग कुटीर उद्योगों में लगाते हैं, छोटे-छोटे खिलौने, घड़ियां आदि बनाते हैं, इससे वहां की राष्ट्रीय सम्पत्ति बढ़ी है, लोगों की जीवन सुखी हुआ है और नैतिक सदाचार का प्रसार हुआ है। खाली समय का उपयोग जिस प्रकार के कार्यों में करेंगे वैसी ही उन्नति अवश्य होगी।
समय जरा भी नष्ट मत होने दीजिये—
संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं जिसकी प्राप्ति मनुष्य के लिये असम्भव हो। प्रयत्न और पुरुषार्थ से सभी कुछ पाया जा सकता है लेकिन एक ऐसी भी चीज है जिसे एक बार खोने के बाद कभी नहीं पाया जा सकता और वह है—समय। एक बार हाथ से निकला हुआ समय फिर कभी हाथ नहीं आता। कहावत है ‘‘बीता हुआ समय और कहे हुए शब्द कभी वापस नहीं बुलाये जा सकते।’’ समय परमात्मा से भी महान् है। भक्ति साधना द्वारा परमात्मा का साक्षात्कार कई बार किया जा सकता है लेकिन गुजरा हुआ समय पुनः नहीं मिलता।
समय ही जीवन की परिभाषा है, क्योंकि समय से ही जीवन बनता है। समय का सदुपयोग करना जीवन का उपयोग करना है। समय का दुरुपयोग करना जीवन का नष्ट करना है। समय किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता। वह प्रतिक्षण, मिनट, घन्टे, दिन, महलने, वर्षों के रूप में निरन्तर अज्ञात दिशा को जाकर विलीन होता रहता है। समय की अजस्र धारा निरन्तर प्रवाहित होती रहती है और फिर शून्य में विलीन हो जाती है फ्रैंकलिन ने कहा है—‘‘समय बरबाद मत करो क्योंकि समय से ही जीवन बना है।’’ निस्सन्देह वक्त और सागर की लहरें किसी की प्रतीक्षा नहीं करतीं हमारा कर्तव्य है कि हम समय का पूरा पूरा सदुपयोग करें।
सचमुच जो व्यक्ति अपना तनिक सा भी समय व्यर्थ नष्ट करते हैं उन्हें समय अनेकों सफलताओं से वंचित कर देता है। नेपोलियन ने आस्ट्रेलिया को इसलिए हरा दिया कि वहां के सैनिकों ने पांच ही मिनटों का विलम्ब कर दिया उसका सामना करने में। लेकिन वही नेपोलियन कुछ ही मिनटों में बन्दी बना लिया गया क्योंकि उसका एक सेनापति कुछ ही मिनट विलम्ब से आया। वाटरलू के युद्ध में नेपोलियन की पराजय इसी कारण से हुई। समय की उपेक्षा करने पर देखते देखते विजय का पासा पराजय में पलट जाता है लाभ हानि में बदल जाता है।
संसार में जितने भी महान पुरुष हुए हैं उनकी महानता का एक ही आधार स्तम्भ है कि उन्होंने अपने समय का पूरा-पूरा उपयोग किया। एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाने दिया। जिस समय लोग मनोरंजन, खेल-तमाशों में मशगूल रहते हैं, व्यर्थ आलस्य प्रमाद में पड़े रहते हैं, उस समय महान् व्यक्ति महत्त्वपूर्ण कार्यों का सृजन करते रहते हैं। ऐसा एक भी महापुरुष नहीं जिसने अपने समय को नष्ट किया हो और वह महान् बन गया हो। समय बहुत बड़ा धन है। भौतिक धन से भी अधिक मूल्यवान्। जो इसे भली प्रकार उपयोग में लाता है वह सभी तरह के लाभ प्राप्त कर सकता है। छोटे से जीवन में भी बहुत बड़ी सफलतायें प्राप्त कर लेता है। वह छोटी-सी उम्र में ही दूसरों से बहुत आगे बढ़ जाता है।
समय जितना कीमती और फिर न मिलने वाला तत्व है उतना उसका महत्व प्रायः हम लोग नहीं समझते। हममें से बहुत-से लोग अपने समय का बहुत ही दुरुपयोग करते हैं, उसको व्यर्थ की बातों में नष्ट करते रहते हैं। आश्चर्य है समय ही ऐसा पदार्थ है जो एक निश्चित मात्रा में मनुष्य को मिलता है लेकिन उसका उतना ही अधिक अपव्यय भी होता है। हममें से कितने लोग ऐसा सोचते हैं कि हमारा कितना समय आवश्यक और उपयोगी कार्यों में लगता है और कितना व्यर्थ के कामों में, सैर-सपाटे, मित्रों में गपशप, खेल-तमाशे, मनोरंजन, आलस्य, प्रमाद आदि में? हम कितना नष्ट करते हैं, व्यर्थ की बकवास, अनावश्यक कार्यों में? हम जितना समय नष्ट करते हैं यदि उसका लेखा-जोखा लें तो प्रतीत होगा कि अपने जीवन धन का एक बहुत बड़ा भाग हम अपने आप ही व्यर्थ नष्ट कर डालते हैं समय के रूप में। काश एक-एक मिनट, घण्टे, दिन का हम उपयोग करें तो कोई कारण नहीं कि हम जीवन में महान् सफलताएं प्राप्त न करें।
समय की बरबादी का सबसे पहला शत्रु है किसी काम को आगे के लिये टाल देना। ‘आज नहीं कल करेंगे।’ इस कल के बहाने हमारा बहुत-सा वक्त नष्ट हो जाता है। स्वेटमार्डेन ने लिखा है ‘इतिहास के पृष्ठों में कल की धारा पर कितने प्रतिभावानों का गला कट गया, कितनों की योजनायें अधूरी रह गईं, कितनों के निश्चय बस यों ही रह गये, कितने पछताते, हाथ मलते रह गये! कल असमर्थता और आलस्य का द्योतक है।’
इस कल से बचने के लिए ही महात्मा कबीर ने चेतावनी देते हुए कहा है।
काल करै सो आज कर, आज करै सो अब। पल में परलै होयगी, बहुरि करैगो कब।।
कल पर अपने कोई भी काम न टालें। जिन्हें आज करना है उन्हें आज ही पूरा करलें। स्मरण रखिये प्रत्येक काम का अपना अवसर होता है और अवसर वही है जब वह काम आपके सामने पड़ा है। अवसर निकल जाने पर काम का महत्व भी समाप्त हो जाता है तथा बोझ भी बढ़ता जाता है। स्वेटमार्डेन ने लिखा है बहुत से लोगों ने अपना काम कल पर छोड़ा और वे संसार में पीछे रह गये अन्य लोगों द्वारा प्रतिद्वन्दिता में रहा दिये गये।’
समय का ठीक-ठीक लाभ उठाने के लिए आवश्यक है कि एक समय एक ही काम किया जाय। जो व्यक्ति एक समय में अनेकों काम करना चाहते हैं उनका कोई भी काम पूरा नहीं होता और उनका अमूल्य समय व्यर्थ ही नष्ट हो जाता है।
जो काम स्वयं करना है उसे स्वयं ही पूरा करें। अपना काम दूसरों पर छोड़ना भी एक तरह से दूसरे दिन काम टालने के समान ही है। ऐसे व्यक्ति का अवसर भी निकल जाता है और उसका काम भी पूरा नहीं होता।
जरा विचार कीजिये आपको अमुक दिन अमुक गाड़ी से बम्बई जाना है। अगर आप गाड़ी के सीटी देने के एक मिनट बाद स्टेशन पहुंचे तो फिर आपको वह गाड़ी, वह दिन, वह समय कभी नहीं मिलेगा। निश्चित समय निकल जाने के बाद आप किसी दफ्तर में जायें तो निश्चित है आपका काम नहीं होगा। आपको स्मरण होगा ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, जार्ज वाशिंगटन आदि को सड़क पर से गुजरते देखकर लोग अपनी घड़ियां मिलाते थे अपने काम और समय का इस तरह मेल रखें कि उसमें एक मिनट का भी अन्तर न आये। तभी आप अपने समय का पूरा-पूरा सदुपयोग कर सकेंगे।
आलस्य समय का सबसे बड़ा शत्रु है। यह कई रूपों में मनुष्य पर अपना अधिकार जमा लेता है। कई बार कुछ काम किया कि विश्राम के बहाने हम अपने समय को बरबाद करने लगते हैं। वैसे बीमारी, तकलीफ आदि में विश्राम करना तो आलस्य नहीं है। थक जाने पर नींद के लिये विश्राम करना भी बुरा नहीं है। थकावट हो, नींद आये तो तुरन्त सो जायें लेकिन आंख खुलने पर उठ-पड़ें चारपाई न तोड़ें। अभी उठते हैं, अभी उठते हैं, कहते रहें तो यही आलस्य का मन्त्र है। आंखें खुलीं कि तुरन्त अपने काम में लग जायें।
रस्किन के शब्दों ‘‘जवानी का समय तो विश्राम के नाम पर नष्ट करना ही घोर मूर्खता है क्योंकि वही वह समय है जिसमें मनुष्य अपने जीवन का, अपने भाग्य का निर्माण कर सकता है। जिस तरह लोहा ठण्डा पड़ जाने पर घन पटकने से कोई लाभ नहीं, उसी तरह अवसर निकल जाने पर मनुष्य का प्रयत्न भी व्यर्थ चला जाता है।’’ विश्राम करें, अवश्य करें। अधिक कार्य क्षमता प्राप्त करने के लिये विश्राम आवश्यक है लेकिन उसका भी समय निश्चित कर लेना चाहिए और विश्राम के लिये ही लेटना चाहिये। समय बड़ा मूल्यवान् है। उसे बड़ी कंजूसी से खर्च करना चाहिए। जितना अपने समय-धन को बचाकर उसे आवश्यक उपयोगी कार्यों में लगावेंगे उतनी ही अपने व्यक्तित्व की महत्ता एवं कीमत बढ़ती जायगी। नियमित समय पर काम करने का अभ्यास डालें। इसकी आदत पड़ जाने पर आपको स्वयं ही इसमें बड़ा आनन्द आने लगेगा।
यदि मनुष्य प्रतिदिन किसी काम विशेष में थोड़ा-थोड़ा समय भी लगावें तो वह उससे महत्वपूर्ण अधिकार प्राप्त कर सकता है महामनीषी स्वेटमार्डेन ने कहा है, जीवन भर एक विषय में नियमित रूप से प्रतिदिन एक घण्टा लगाने वाला व्यक्ति उस विषय का उद्भट विद्वान बन सकता है। जरा अनुमान लगाइये कोई भी प्रतिदिन एक घण्टे में बीस पृष्ठ पढ़ता है तो साल में 7300 पृष्ठ पढ़ डालेगा। अर्थ हुआ 100 पृष्ठ की 73 पुस्तकें वह एक साल में पढ़ लेगा। दस वर्ष में 730 पुस्तकें पढ़ने वाले व्यक्ति के ज्ञान का विचार-स्तर कैसे होगा? इसके बारे में पाठक स्वयं ही अन्दाज लगा सकते हैं। अतः समय को मामूली न समझें नियमित रूप से कोई भी काम आप करेंगे तो धीरे-धीरे उसमें बहुत बड़ी योग्यता हासिल कर लेंगे यह निश्चित है।
समय की बर्बादी आज-कल मनोरंजन के नाम पर भी बहुत होती है। रेडियो, सिनेमा, खेल-तमाशे, ताश, शतरंज आदि में हम नित्य ही अपना बहुत-सा समय बर्बाद करते रहते हैं। महात्मा गांधी ने एक बार अपने पुत्र मणिलाल को पत्र में लिखा था। ‘‘खेल-कूद मनोरंजन का समय बारह वर्ष की उम्र तक है।’’ आज हम इसमें अपना कितना वक्त खर्च करते हैं यह स्वयं ही अनुमान लगा सकते हैं। मनोरंजन खेल आदि को जीवन में रखा ही जाय तो उसके लिए भी एक नियत समय रखना चाहिये।
अपने आस-पास का वातावरण, ऐसा रखना चाहिए कि अपना समय किसी कारण बर्बाद न हो। वक्त बर्बाद करने वाले दोस्तों से दूर की ‘नमस्ते’ रखनी चाहिए। निठल्ले लोग ही अक्सर दूसरे का वक्त बर्बाद करने जा पहुंचते हैं। इन्हें दोस्त नहीं दुश्मन मानना ही उचित है।
स्मरण रखिये समय बहुत मूल्यवान् वस्तु है। इससे आप जितना लाभ उठा सकते हैं उठायें। आप वक्त को नष्ट करेंगे तो वक्त भी आपको नष्ट कर देगा। वक्त के सदुपयोग पर ही आप कुछ बन सकते हैं।
समय के सदुपयोग का महत्व समझिए
समय संसार की सबसे मूल्यवान् सम्पदा है। विद्वानों एवं महापुरुषों ने वक्त को सारी विभूतियों का कारणभूत हेतु माना है। समय का सदुपयोग करने वाले व्यक्ति कभी भी निर्धन अथवा दुःखी नहीं रह सकते। कहने को कहा जा सकता है कि श्रम से ही सम्पत्ति की उपलब्धि होती है किन्तु श्रम का अर्थ भी वक्त का सदुपयोग ही है। असमय का श्रम पारिश्रमिक से अधिक थकान लाया करता है।
मनुष्य कितना ही परिश्रमी क्यों न हो यदि वह अपने परिश्रम के साथ ठीक समय का सामंजस्य नहीं करेगा तो निश्चय ही इसका श्रम या तो निष्फल चला जायेगा अथवा अपेक्षित फल न ला सकेगा। किसान परिश्रमी है, किन्तु यदि वह अपने श्रम को समय पर काम में नहीं लाता तो वह अपने परिश्रम का पूरा लाभ नहीं उठा सकता। वक्त पर न जोत कर असमय पर जोता हुआ खेत अपनी उर्वरता को प्रकट नहीं कर पाता। असमय बोया हुआ बीज बेकार चला जाता है। वक्त पर न काटी गई फसल नष्ट हो जाती है। संसार में प्रत्येक काम के लिये निश्चित वक्त पर न किया हुआ काम कितना भी परिश्रम करने पर भी सफल नहीं होता।
प्रकृति का प्रत्येक कार्य एक निश्चित वक्त पर होता है। वक्त पर ग्रीष्म तपता है, वक्त पर पानी बरसता है, वक्त पर ही शीत आता है। वक्त पर ही शिशिर होता और वक्त पर ही बसन्त आकर वनस्पतियों को फूलों से सजा देता है। प्रकृति के इस ऋतु-क्रम में जरा-सा भी व्यवधान पड़ जाने से न जाने कितने प्रकार के रोगों एवं इति-भीति का प्रकोप हो जाता है चांद-सूरज, गृह-नक्षत्र सब समय पर ही उदय अस्त होते, वक्त के अनुसार ही अपनी परिधि एवं कक्ष में परिभ्रमण किया करते हैं। इनकी सामयिकता में जरा-सा व्यवधान पड़ने से सृष्टि में अनेक उपद्रव खड़े हो जाते हैं और प्रलय के दृश्य दीखने लगते हैं, समय पालन ईश्वरीय नियमों में सबसे महत्त्वपूर्ण एवं प्रमुख नियम है।
जीवन का हर क्षण एक उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना लेकर आता है। हर घड़ी एक महान् मोड़ का समय हो सकती है। मनुष्य यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि जिस वक्त, जिस क्षण और जिस पल को यों ही व्यर्थ में खो रहा है वह ही क्षण—वह ही वक्त-क्या उसके भाग्योदय का वक्त नहीं है? क्या पता जिस क्षण को हम व्यर्थ समझकर बरबाद कर रहे हैं वह ही हमारे लिये अपनी झोली में सुन्दर सौभाग्य की सफलता लाया हो।
सबके जीवन में एक परिवर्तनकारी वक्त आया करता है। किन्तु मनुष्य उसके आगमन से अनभिज्ञ रहा करता है। इसलिये हर बुद्धिमान मनुष्य हर क्षण को, बहूमूल्य समझकर व्यर्थ नहीं जाने देता। कोई भी क्षण व्यर्थ न जाने देने से निश्चय ही वह क्षण हाथ से छूटकर नहीं जा सकता जो जीवन में वांछित परिवर्तन का संदेशवाहक होगा। सिद्धि की अनिश्चित घड़ी से अनभिज्ञ साधक जिस प्रकार हर समय लौ लगाये रहने से उसको पकड़ लेता है ठीक उसी प्रकार हर क्षण को सौभाग्य के द्वार खोल देने वाला समझकर महत्त्वाकांक्षी कर्मवीर जीवन के एक छोटे से भी क्षण की उपेक्षा नहीं करता और निश्चय ही सौभाग्य का अधिकारी बनता है।
कोई भी दीर्घसूत्री व्यक्ति संसार में आज तक सफल होते देखा, सुना नहीं गया है। जीवन में उन्नति करने और सफलता पाने वाले व्यक्तियों की जीवनगाथा का निरीक्षण करने पर निश्चय ही उनके उन गुणों में समय के पालन एवं सदुपयोग को प्रमुख स्थान मिलेगा जो जीवन की उन्नति के लिए अपेक्षित होते हैं।
हर मनुष्य को वक्त का, छोटे से छोटे क्षण का मूल्य एवं महत्व समझना चाहिये। जीवन का वक्त सीमित है और काम बहुत है। आने से लेकर परिवार, समाज एवं राष्ट्र के दायित्वपूर्ण कर्त्तव्यों के साथ मुक्ति की साधना तक कामों की एक लम्बी शृंखला चली गई है। कर्त्तव्यों की इस अनिवार्य परम्परा को पूरा किये बिना मनुष्य का कल्याण नहीं। इसी कर्म-क्रम को इसी एक जीवन के सीमित वक्त से ही पूरा कर डालना है क्योंकि आत्मा की मुक्ति मानव-जीवन के अतिरिक्त अन्य किसी जीवन में नहीं हो सकती और मुक्ति का प्रयास तभी सफल हो सकते है जब वह उसके सहायक पूर्व प्रयासों को पूरा करता है। अस्तु जीवन के चरम लक्ष्य मुक्ति पाने के लिए उसकी साधना के अतिरिक्त सारे कर्त्तव्य-क्रम को इसी जीवन के सीमित वक्त में ही पूरा करना होगा।
इतने विशाल कर्त्तव्य-क्रम को मनुष्य पूरा तब ही कर सकता है जब वह जीवन के एक-एक क्षण, एक-एक पल और एक-एक विशेष को सावधानी के साथ उपयोगी एवं उपयुक्त दिशा में प्रयुक्त करे। नहीं तो किसने देखा है कि उसके जीवन का अन्तिम छोर कितनी दूरी पर ठहरा हुआ है। जीवन की अवधि सीमित होने के साथ अनिश्चित एवं अज्ञात भी है। जो क्षण हमारे पास है, हृदय के जिस स्पन्दन में गति है, वही हमारा है। श्वास का एक आगमन ही हमारा है बाकी सब पराये हैं, न जाने दूसरे क्षण हमारे बन पायेंगे या नहीं। अतएव हर बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिये कि जो क्षण, जो श्वास उसके अधिकार में है उसे भगवान की महती कृपा और जीवन का उच्चतम अन्तिम अवसर समझकर इस सावधानी एवं संलग्नता से उपयोग करे कि मानों इसी एक क्षण में सब कुछ दक्षता है। अपने वर्तमान क्षण को छोड़कर भविष्य की युगीन अवधि पर विश्वास करना विवेक का बहुत बड़ा अपमान है। जिस भविष्य पर आप अपने जीवन विकास के कार्यों, अपने विकास कर्त्तव्यों को स्थगित करने की सोच रहे हैं वह आ ही जायेगा, यह जीवन निश्चित अनिश्चितता के बीच निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता।
कर्त्तव्यों के विषय में आने वाले कल की कल्पना एक अन्ध-विश्वास है। उसकी प्रतीक्षा करने वाले नासमझ इस दुनिया में पश्चाताप करते हुए ही विदा होते हैं। आने वाला कल ऐसा आकाश कुसुम है जो सुना तो गया पर पाया कभी नहीं गया। किन्तु दुर्भाग्य है कि हर स्थगनशील व्यक्ति सदा ही उसी कल पर विश्वास किये हुए उपस्थित वर्तमान में सोता रहता है और जब उसका प्रतीक्षित कल कभी नहीं आता तब उसके पास उस बीते हुये कल के लिये रोने-पछताने के सिवाय कुछ नहीं रह जाता जिसको कि उसने वर्तमान में अवहेलना की थी, और जो कि किसी भी मूल्य पर वापस नहीं लाया जा सकता।
समय की चूक पश्चाताप की हूक बन जाती है। जीवन में कुछ करने की इच्छा रखने वालों को चाहिये कि वे अपने किसी भी कर्त्तव्य को भूलकर भी कल पर न डालें जो आज किया जाना चाहिए। आज के काम के लिए आज का ही दिन निश्चित है और कल के काम के लिये कल का दिन निर्धारित है। आज का काम कल पर डाल देने से कल का भार दो गुना हो जायेगा जो निश्चय ही कल के समय में पूरा नहीं हो सकता। इस प्रकार आज का कल पर और कल का परसों पर ठेला हुआ काम इतना बढ़ जायेगा कि वह फिर किसी भी प्रकार पूरा नहीं किया जा सकता। जिस स्थगनशील स्वभाव तथा दीर्घसूत्री मनोवृत्ति ने आज का काम आज नहीं करने दिया वह कल कब करने देयी ऐसा नहीं माना जा सकता। स्थगन-स्थगन को और क्रिया-क्रिया को प्रोत्साहित करती है यह प्रकृति का एक निश्चित नियम है।
बासी काम, बासी भोजन की तरह ही अरुचिकर हो जाया करता है। फिर न तो उसे करने की इच्छा होती है और करने पर सुचारू रूप से नहीं हो पाता। कल के काम का दबाव बासी काम को एक बेगार बना देगा जो रो-झींककर ही किया जा सकेगा। ऐसा होने से अभ्यास बिगड़ता है। और उनका विकृत प्रभाव कल के नये काम पर भी पड़ता है। इस प्रकार स्थगनशीलता कर्त्तव्यों में मनुष्य की रुचि तथा दक्षता को नष्ट कर देती है। इन दोनों विशेषताओं से रहित कर्त्तव्य परिश्रम का भरपूर मूल्य पाकर भी अपेक्षित पुरस्कार एवं परितोषक नहीं ला पाते।
जीवन में सफलता के लिए जहां परिश्रम एवं पुरुषार्थ की अनिवार्य आवश्यकता है वहां सामयिकता का सामंजस्य उससे भी अधिक आवश्यक है। जिस वक्त को बरबाद कर दिया जाता है उस वक्त में किया जाने के लिए निर्धारित श्रम भी निष्क्रिय रहकर नष्ट हो जाता है। श्रम तभी सम्पत्ति बनता है जब वह वक्त से संयोजित कर दिया जाता है और वक्त तब ही सम्पदा के रूप में सम्पन्नता एवं सफलता ला सकता है जब उसका श्रम के साथ सदुपयोग किया जाता है। समय का सदुपयोग करने वाले स्वभावतः परिश्रमी बन जाते हैं जब कि असामयिक परिश्रमी, आलसी की कोटि का ही व्यक्ति होता है वक्त का सदुपयोग ही वास्तविक श्रम है और वास्तविक श्रम अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष का सम्वाहन पुरुषार्थ एवं परमार्थ है।
समय-संयम सफलता की कुञ्जी है
अनेक लोग ऐसे होते हैं जो वक्त का महत्व तो स्वीकार कर लेते हैं किन्तु उसके पालन पर ध्यान नहीं देते। समय खराब न करने पर भी वे कोई कम निर्धारित वक्त पर करना आवश्यक नहीं समझते। इस वक्त इस काम पर जुटे हुए हैं तो उस वक्त उस कम पर। दूसरे दिन उनका यह क्रम टूट जाता है और वे इस वक्त उस काम को और उस वक्त इस काम को करने लग जाते हैं।
इस प्रकार की अनियमितता बहुधा विद्यार्थी, अध्ययनशील तथा लिखा-पढ़ी का काम करने वाले भी किया करते हैं। अशिक्षित, अज्ञानी जीवन में अव्यवस्था हो तो एक बात भी है पर शिक्षा के प्रकाश में आगे बढ़ने वाले को अव्यवस्थित होना वस्तुतः खेदजनक है। अनियमित विद्यार्थी कभी प्रभात में गणित करते हैं तो कभी अंग्रेजी पढ़ते हैं। इसी प्रकार अंग्रेजी व हिन्दी विषय कभी प्रातः व सायं के वक्त घेर कर गणित को दोपहर के लिये रख देते हैं। कभी भूगोल के समय में इतिहास और इतिहास के समय में नागरिक शास्त्र लेकर बैठ जाते हैं। इसके अतिरिक्त उनके लेखन एवं पठन का समय तो परस्पर बदलता ही रहता है पढ़ने तथा खेलने व मनोरंजन के समय भी बदलते रहते हैं। इस प्रकार वे पढ़ने-लिखने, खेलने-कूदने में समय तो देते हैं किन्तु उनके समय में न तो कोई क्रम होता है और न नियमितता।
कभी-कभी उनका यह समय घटता-बढ़ता भी रहता है। जिस दिन गणित में अधिक मन लग गया तो अंग्रेजी का समय भी उसे दे दिया। कभी रुचि की अधिकता से इंग्लिश गणित का समय ले जाती है। इस प्रकार वे अपना अध्ययन कार्य तो करते रहते हैं किन्तु किसी निश्चित समय-सारिणी के अनुसार विषयों में गति, योग्यता एवं आवश्यकता के अनुसार ही समय देकर बनाई गई समय-सारिणी का पालन करने वाले विद्यार्थी अनियमित विद्यार्थियों से कहीं अधिक श्रम एवं समय के सदुपयोग का लाभ उठाते हैं। इसी प्रकार बहुत से अध्ययनशील व्यक्ति अपना समय तो खराब नहीं करते किन्तु उनका अध्ययन क्रम निश्चित एवं निर्धारित नहीं होता। वे कभी किसी एक विषय के ग्रन्थ को पढ़ते और पूरा किये बिना ही दूसरा शुरू कर देते हैं। कभी-कभी एक ग्रन्थ को कल के लिये अधूरा छोड़कर उसके लिये निश्चित समय पर दूसरा ग्रन्थ प्रारम्भ कर देते हैं। बहुधा यह भी देखने में आता है कि अनियमित अध्ययनशील पुस्तकों के समय में समाचार-पत्र और समाचार-पत्रों के समय में साहित्यिक पत्रिकायें पढ़ रहे हैं। इसमें सन्देह नहीं कि वे अपना समय बिन पढ़े व्यय नहीं करते किन्तु उस कार्य में क्रम को स्थान नहीं देते। इस कमी के कारण अध्ययन से जितना लाभ होना चाहिये उतना नहीं हो पाता।
कार्यालयों में लिखा-पढ़ी का काम करने वाले अनेक परिश्रमी बाबू लोग अपनी इसी असामयिकता के कारण अच्छे कर्मचारियों की सूची में नहीं आ पाते वे पूरे समय काम में जुटे रहते हैं और कभी-कभी निर्धारित समय से अधिक समय तक भी। तब भी वे अपने उच्च अधिकारी की प्रियपात्रों की सूची में नहीं आ पाते। क्रम के साथ काम तथा फाइलों को उपयुक्त समय में न देने से उनका आवश्यक काम कभी-कभी पड़ा रहता है और गौण काम पूरा हो जाता है। इसी अव्यवस्था के कारण वे बहुत से तात्कालिक कामों को भूल जाते हैं इसलिये उनकी कार्य कुशलता के अंग कम हो जाते हैं। पत्र लिखने के समय फाइलों का अध्ययन और फाइल पढ़ने के समय टाइप पर बैठ जाने से न तो उनका कोई काम समय पर हो पाता है और कुशलतापूर्वक इस प्रकार असमय पूरा हुआ उनका काम अधूरे की श्रेणी में ही गिना जाता है। क्रम एवं सामयिकता से करने पर काम भी कुशलतापूर्वक होता है और आवश्यकता से अधिक समय भी नहीं लगता।
इस प्रकार के अव्यवस्थित कार्यकर्त्ता समय की पाबन्दी को एक बन्धन मानते हैं। उनकी अक्रमिक बुद्धि का तर्क होता है कि समय के साथ अपने को अथवा अपने काम को बांध देने से मनुष्य उसका इतना अभ्यस्त हो जाता है कि यदि कभी संयोग, विवशता अथवा परिस्थितिवश उसे व्यवधान स्वीकार करना पड़ता है तो उसे बड़ी परेशानी उठानी पड़ती है। प्रातःकाल पढ़ने अथवा व्यायाम करने वाले को यदि दो-चार दिन के लिए बाहर यात्रा पर जाना पड़ जाये तो निर्धारित कार्यक्रम में व्यवधान पड़ जाने से उसकी अभ्यस्त वृत्तियां विद्रोह करेंगी, जिससे यात्रा अथवा प्रवास के समय पर उसे बड़ी भ्रान्ति, क्लान्ति एवं व्यग्रता रहेगी।
समय पर भोजन के अभ्यस्त ब्याह-शादियों, मंगलोत्सवों अथवा शोक सम्भोगों के अवसरों पर या तो भूखों रहते हैं अथवा खाने से बीमार हो जाते हैं।
सुख-शान्ति, सन्तोष, सफलता एवं स्वास्थ्य आदि के पारितोषिक असामयिक जीवन-क्रम वालों से कोसों दूर रहा करते हैं। जिन्दगी जीने के लिए मिली है खो डालने के लिये नहीं। समय-सम्मत व्यवस्था के अभाव में इस परम दुर्लभ मानव-जीवन को न तो ठीक से किया जा सकता है और न इसका कोई लाभ ही उठाया जा सकता है। यह सम्भव तभी हो सकता है जब जीवन का प्रत्येक क्षण किसी निश्चित कर्त्तव्य के लिये निर्धारित एवं जागरुक हों।
असमय सोने-जागने, खाने-पीने और काम करने वाले आजीवन आरोग्य के दर्शन नहीं कर सकते। वे सदा सर्वदा शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक अथवा आध्यात्मिक किसी न किसी व्याधि से पीड़ित रहेंगे। उनकी शक्ति में से कुछ को तो उनकी अव्यवस्था नष्ट कर देगी और शेष का व्याधियां शोषण कर लेंगी।
समय-संयम के साथ अपना हर काम करने वाले मनुष्यों का जीवन कभी असफल नहीं हो सकता है। भले ही परिस्थितिवश वे संसार में कोई अनुकरणीय कार्य न भी कर पायें, तब भी उनका जीवन असफल नहीं कहा जा सकता। सुख-शांति पूर्वक एक प्रिय जिन्दगी जी लेना स्वयं ही एक बड़ी सफलता है। सफलता का मान-दंड कोई बड़ा काम ही नहीं है, उनका सच्चा मानदण्ड है—जीने की कला जो सन्तोषपूर्वक जिन्दगी को कथनीयता के साथ जी सका है, वह निःसन्देह अपने जीवन में सफल हुआ है। एक छोर से दूसरे छोर तक जिसका जीवन एक व्यवस्थित कार्यक्रम की तरह स्निग्ध गति से न चल कर ऊबड़-खाबड़ गिरता-पड़ता और उलझता सुलझता चलता है, उसके जीवन को असफल मान लेना ही न्याय-संगत होगा।
समय पर हर काम करने वालों की सारी शक्तियां उपभोग में आने पर भी अक्षय बनी रहती हैं। समय पर काम करने का अभ्यास एक सजग प्रहरी की तरह ही होता है, जो किसी भी परिस्थिति में मनुष्य को अपने कर्त्तव्य का विस्मरण नहीं होने देता। समय आते ही सिद्ध किया हुआ अभ्यास उसे निश्चित कार्य की याद दिला देता है और प्रेरणापूर्वक उसमें लगा भी देता है? समय आते ही उक्त कार्य योग्य शक्तियों में जागरण एवं सक्रियता आ जाती है, जिससे मनुष्य निरालस्य रूप से अपने काम से लगकर उसे निर्धारित समय में ही पूरा कर लेता है। कार्य एवं कर्त्तव्यों की पूर्णता ही जीवन की पूर्णता है, जो कि बिना समय, संयम, एवं व्यवस्थित और क्रियाशीलता के प्राप्त नहीं हो सकती।
निर्धारित समय में हेर-फेर करते रहने वाले बहुधा लज्जा एवं आत्मग्लानि के भागी बनते हैं। किसी को बुलाकर समय पर न मिलना, समाजों, सभाओं, गोष्ठियों अथवा आयोजनों के अवसर पर समय से पूर्व अथवा पश्चात् पहुंचना, किसी मित्र से मिलने जाने का समय देकर उसका पालन न करना आदि की शिथिलता सभ्यता की परिधि में नहीं मानी जा सकती है। देर-सवेर कक्षा अथवा कार्यालय पहुंचने वाला विद्यार्थी तथा कर्मचारी भर्त्सना का भागी बनता है। ‘लेट लतीफ’ लोगों की ट्रेन छूटती, परीक्षा चूकती, लाभ डूबता डाक रुक जाती, बाजार उठ जाता, संयोग निकल जाते और अवसर चूक जाते हैं। इतना ही नहीं व्यावसायिक क्षेत्र में तो जरा-सी देर दिवाला तक निकाल देती हैं। समय पर बाजार न पहुंचने पर माल दूसरे लोग खरीद ले जाते हैं। देर हो जाने से बैंक बन्द हो जाता है और भुगतान रुक जाता है। समय चुकते ही माल पड़ा रहता है। असामयिक लेन-देन तथा खरीद-फरोख्त किसी भी व्यवसायी को पनपने नहीं देती।
समय का पालन मानव-जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण संयम है। समय पर काम करने वालों के शरीर चुस्त, मन नीरोग तथा इन्द्रियां तेजस्वी बनी रहती हैं। निर्धारण के विपरीत काम करने से मन, बुद्धि तथा शरीर काम तो करते हैं किन्तु अनुत्साहपूर्वक। इससे कार्य में दक्षता तो नहीं ही आती है, साथ ही शक्तियों का भी क्षय होता है। किसी काम को करने के ठीक समय पर शरीर उसी काम के योग्य यन्त्र जैसा बन जाता है। ऐसे समय में यदि उससे दूसरा काम लिया जाता है, तो वह काम लकड़ी काटने वाली मशीन से कपड़े काटने जैसा ही होगा।
क्रम एवं समय से न काम करने वालों का शरीर-यन्त्र अस्त-व्यस्त प्रयोग के कारण शीघ्र ही निर्बल हो जाता है और कुछ ही समय में वह किसी कार्य के योग्य नहीं रहता। समय-संयम सफलता की निश्चित कुन्जी है। इसे प्राप्त करना प्रत्येक बुद्धिमान का मानवीय कर्त्तव्य है।