Books - गहना कर्मणोगतिः
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चित्रगुप्त का परिचय
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नयन्ति नरकं नूनं मात्मानो मानवान् हतः।
दिवं लोकं च ते तुष्टा इत्यूचुर्मन्त्र वेदिनः।। -पंचाध्यायी
(नूनं) निश्चय से (हताः) हनन की हुई (आत्मनः) आत्माएँ (मानवान्) मनुष्यों को (नरकं) नरक को (नयन्ति) ले जाती हैं (च) और (तुष्टा) संतुष्ट हुई (ते) वे आत्माएँ (दिव्य लोकं) दिव्य लोक को ले जाती हैं (इति) ऐसा (मंत्र वेदिनः) रहस्य को समझाने वालों ने (प्रोचुः) कहा है।
उपरोक्त श्लोक में कहा गया है कि हनन की हुई आत्मा नरक को ले जाती है और संतुष्ट की हुई आत्मा दिव्य लोक प्रदान करती है। श्लोक में इस गुत्थी को सुलझा दिया है कि स्वर्ग-नरक किस प्रकार मिलता है? गरुड़ पुराण में इस सम्बन्ध में एक अलंकारिक विवरण दिया गया है, जिसमें कहा गया है कि यमलोक में ‘चित्रगुप्त’ नामक देवता हर एक जीव के भले-बुरे कर्मों का विवरण प्रत्येक समय लिखते रहते हैं। जब प्राणी मरकर यमलोक में जाता है, तो वह लेखा पेस किया जाता है और उसी के आधार पर शुभ कर्मों के लिए स्वर्ग और दुष्कर्मों के लिए नरक प्रदान किया जाता है। साधारण दृष्टि से चित्रगुप्त का अस्तित्व काल्पनिक प्रतीत होता है, क्योंकि पृथ्वी पर अरबों तो मनुष्य ही रहते है, फिर ऐसा ही तथाकथित चौरासी लाख योनियों, जिनमें से अनेक तो मनुष्य जाति से अनेक गुनी अधिक हैं, इन सब की संख्या गिनी जाए, तो इतनी अधिक हो जाएगी कि हमारे अंकगणित की वहाँ तक पहुँच भी न होगी। फिर इतने असंख्य प्राणियों द्वारा पल-पल पर किए जाने वाले कार्यों का लेखा दिन-रात बिना विश्राम के कल्प-कल्पांतों तक लिखते रहना एक देवता के लिए कठिन है। इस प्रकार चित्रगुप्त का कार्य असम्भव प्रतीत होता है, इस कथानक को एक कल्पना मान लेने पर चित्रगुप्त का अस्तित्व भी संदिग्ध हो जाता है।
आधुनिक शोधों ने उपरोक्त अलंकारिक कथानक में से बड़ी ही महत्वपूर्ण सच्चाई को खोज निकाला है, डॉक्टर फ्राइड ने मनुष्य की मानसिक रचना का वर्णन करते हुए बताया है कि जो भी भले या बुरे काम ज्ञानवान प्राणियों द्वारा किए जाते हैं, उनका सूक्ष्म चित्रण अंतः चेतना में होता रहता है। ग्रामोफोन के रिकार्डों में रेखा रूप में गाने भर दिए जाते हैं। संगीतशाला में नाच-गाना हो रहा है और साथ ही अनेक बाजे बज रहे हैं, इन अनेक प्रकार की ध्वनियों का विद्युत शक्ति से एक प्रकार का संक्षिप्त एवं सूक्ष्म एकीकरण होता है और वह रिकार्ड में जरा-सी जगह में रेखाओं की तरह अंकित होता जाता है। तैयार किया हुआ रिकार्ड रखा रहता है वह तुरंत ही अपने आप या चाहे जब नहीं बजने लगता वरन तभी उन संग्रहीत ध्वनियों को प्रकट करता है, जब ग्रामोफोन की मशीन पर उसे घुमाया जाता है और सुई की रगड़ उन रेखाओं से होती है। ठीक इसी प्रकार भले और बुरे जो भी काम किए जाते है, उनकी सूक्ष्म रेखाएँ अंतः चेतना के ऊपर अंकित होती रहती हैं और मन के भीतरी कोने में धीरे-धीरे जमा होती जाती हैं। जब रिकार्ड पर सुई का आघात लगता है, तो उसमें भरे हुए गाने प्रकट होते हैं। इसी प्रकार गुप्त मन में जमा हुई रेखाएँ किसी उपयुक्त अवसर का आघात लगने पर ही प्रकट होती हैं।
भारतीय विद्वान् ‘कर्म रेखा’ के बारे में बहुत प्राचीनकाल से जानकारी रखते आ रहे हैं। ‘कर्म रेख नहिं मिटे, करे कोई लाखन चतुराई’ आदि अनेक युक्तियाँ हिंदी और संस्कृत साहित्य में मौजूद हैं, जिनसे प्रकट होता है कि कर्मों की कई रेखाएँ होती हैं,जो अपना फल दिए बिना मिटती नहीं। भाग्य के बारे में मोटे तौर से ऐसा समझा जाता है कि सिर की अगली मस्तक वाली हड्डी पर कुछ रेखाएँ ब्रह्मा लिख देता है और विधि के लेख को मेंटनहारा अर्थात् उन्हें मिटाने वाला कोई नहीं है। डॉक्टर वीबेन्स ने मस्तिष्क में भरे हुए ग्रे मैटर (भूरा चर्बी जैसा पदार्थ) का सूक्ष्म दर्शक यंत्रों की सहायता से खोज करने पर वहाँ के एक-एक परमाणु में अगणित रेखाएँ पाई हैं, यह रेखाएँ किस प्रकार बनती हैं, इसका कोई शारीरिक प्रत्यक्ष कारण उन्हें नहीं मिला, तब उन्होंने अनेक मस्तिष्कों के परमाणुओं का परीक्षण करके यह निष्कर्ष निकाला की अक्रिय, आलसी एवं विचार शून्य प्राणियों में यह रेखाएँ बहुत ही कम बनती हैं, किंतु कर्मनिष्ठ एवं विचारवानों में इनकी संख्या बहुत बड़ी होती है। अतएव यह रेखाएँ शारीरिक और मानसिक कार्यों को संक्षिप्त और सूक्ष्म रुप से लिपिबद्ध करने वाली प्रमाणित हुईं।
भले-बुरे कर्मों का ग्रे मैटर के परमाणुओं पर यह रेखांकन (जिसे प्रकट के शब्दों में अंतःचेतना का संस्कार कहा जा सकता है) पौराणिक चित्रगुप्त की वास्तविकता को सिद्ध कर देता है। चित्रगुप्त शब्द के अर्थों से भी इसी प्रकार की ध्वनि निकलती है। गुप्त चित्र, गुप्त मन, अंतःचेतना, सूक्ष्म मन, पिछला दिमाग, भीतर चित्र इन शब्दों के भावार्थ को ही चित्रगुप्त शब्द प्रकट करता हुआ दीखता है। ‘चित्त’ शब्द को जल्दी में लिख देने से ‘चित्र’ जैसा ही बन जाता है। सम्भव है कि चित्त का बिगाड़ कर चित्र बन गया हो या प्राचीनकाल में चित्र को चित्त और चित्र एक ही अर्थ के बोधक रहे हों। कर्मों की रेखाएँ एक प्रकार के गुप्त चित्र ही हैं, इसलिए उन छोटे अंकनों में गुप्त रूप से, सूक्ष्म रूप से, बड़े-बड़े घटना चित्र छिपे होते हैं, इस क्रिया प्रणाली को चित्रगुप्त मान लेने से प्राचीन शोध का समन्वय हो जाता है।
यह चित्रगुप्त निःसंदेह हर प्राणी के हर कार्य को, हर समय बिना विश्राम किए अपनी बही में लिखता रहता है। सबका अलग-अलग चित्रगुप्त है। जितने प्राणी हैं, उतने ही चित्रगुप्त हैं, इसलिए यह संदेह नहीं रह जाता कि इतना लेखन कार्य किस प्रकार पूरा हो पाता होगा। स्थूल शरीर के कार्यों की सुव्यवस्थित जानकारी सूक्ष्म चेतना में अंकित होती रहे, तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। ‘पौराणिक चित्र गुप्त एक है और यहाँ अनेक हुए’ यह शंका भी कुछ गहरी नहीं है। घटाकाश, मठाकाश का ऐसा ही भेद है। इंद्र, वरुण, अग्नि, शिव, यम, आदि देवता बोधक सूक्ष्मत्व व्यापक समझे जाते हैं। जैसे बगीचे की वायु गंदे नाले की वायु आदि स्थान भेद से अनेक नाम वाली होते हुए भी मूलतः विश्व व्यापक वायु तत्व एक ही है, वैसे ही अलग-अलग शरीरों में रहकर अलग-अलग काम करने वाला चित्रगुप्त देवता भी एक ही तत्त्व है।
यह हर व्यक्ति के कर्मों लेखाकिस आधार पर कैसा, किस प्रकार, कितना, क्यों लिखता है? यह अगली पंक्तियों में बताया जाएगा एवं चित्रगुप्त द्वारा लिखी हुई कर्म रेखाओं के आधार पर स्वर्ग-नरक का विवरण और उनके प्राप्त होने की व्यवस्था पर प्रकाश डाला जाएगा।
पिछली पंक्तियों में पाठक पढ़ चुके हैं कि हमारा गुप्त चित्र अंतर्मन ही निरंतर चित्रगुप्त देवता का काम करता रहता है। जो कुछ भले या बुरे काम हम करते हैं, उनका सूक्ष्म चित्र उतार-उतार कर अपने भीतर जमा करता रहता है। सिनेमा की पर्दे पर मनुष्य की बराबर लम्बी-चौड़ी तस्वीर दिखाई देती है, पर उसका फिल्म केवल एक इंच ही चौड़ा होता है। इसी प्रकार पाप-पुण्य का घटनाक्रम तो विस्मृत होता है, पर उसका सूक्ष्म चित्र एक पतली रेखा मात्र के भीतर खिंच जाता है और वह रेखा गुप्त मन के किसी परमाणु पर अदृश्य रूप से जमकर बैठ जाती है। शार्टहैंड लिखने वाले बड़ी बात को थोड़ी सी उल्टी-सीधी लकीरों के इशारे पर जरा से कागज पर लिख देते हैं। कर्मरेखा को ऐसी ही दैवी शार्टहैंड समझा जा सकता है।
पाठकों को इतनी जानकारी तो बहुत पहले हो चुकी होगी कि मन के दो भाग हैं-एक बहिर्मन, दूसरा अंतर्मन। बाहरी मन तो तर्क-वितर्क करता है, सोचता है, काट-छाँट करता है, निर्णय करता है और अपने इरादों को बदलता रहता है, पर अंर्तमन भोले-भाले किंतु दृढ़ निश्चयी बालक के समान है, वह काट-छाँट नहीं करता वरन् श्रद्धा और विश्वास के आधार पर काम करता है। बाहरी मन तो यह सोच सकता है कि पाप कर्मों की रेखाएँ अपने ऊपर अंकित होने न दूँ और पुण्य कर्मों को बढ़ा-चढ़ाकर अंकित करूँ। जिससे पाप फल न भोगना पड़े और पुण्य फल का भरपूर आनंद प्राप्त हो, परंतु भीतरी मन ऐसा नहीं है। यह सत्यनिष्ठ जज की तरह फैसला करता है, कोई लोभ, लालच, भय, स्वार्थ उसे प्रभावित नहीं करता। कहा जाता है कि मनुष्य के अंदर एक ईश्वरीय शक्ति रहती है, दूसरी शैतानी। आप गुप्त मन को ईश्वरीय शक्ति और तर्क, मन, छल-कपट, स्वार्थ, लोभ में रत रहने वाले बाह्य मन को शैतानी शक्ति कह सकते हैं। बाहरी मन धोखेबाजी कर सकता है, परंतु भीतरी मन तो सत्य रूपी आत्मा का तेज है, वह न तो मायावी आचरण करता है, न छल-कपट। निष्पक्ष रहना उसका स्वभाव है। इसलिए ईश्वर ने उसे इतना महत्वपूर्ण कार्य सौंपा है। दुनिया उसे चित्रगुप्त देवता कहती है। यदि वह भी पक्षपात करता, तो भला इतनी ऊँची जज की पदवी कैसे पा सकता था? हमारा गुप्त मन खुफिया जासूस की तरह हर घड़ी साथ-साथ रहता है और जो-जो भले-बुरे काम किए जाते हैं, उनका ऐमालनामा अपनी खुफिया डायरी में दर्ज करता रहता है।
बाहरी दुनियाँ में मुलजिम को सजा दिलाने का काम दो महकमों के आधीन है, एक पुलिस, दूसरा अदालत। पुलिस तो मुलजिम को पकड़ ले जाती है और उसके कामों का सबूत एकत्रित करके अदालत के सामने पेश करती है, फिर अदालत का महकमा अपना काम करता है। जज महाशय अपराध और अपराधी की स्थिति के बारे में बहुत दृष्टियों से विचार करते हैं, तब जैसा उचित होता है वैसा फैसला करते हैं। एक ही जुर्म में आए हुए अपराधियों को अलग-अलग तरह की सजा देते हैं। तीन खूनी पकड़ कर लाए गए, इनमें से एक को बिल्कुल बरी कर दिया, दूसरे को पाँच साल की सजा मिली, तीसरे को फाँसी। हत्या तीनों ने की थी, पर सजा देते वक्त मजिस्ट्रेट ने बहुत बातों पर विचार किया। जिसे बरी कर दिया गया था, वह मकान बनाने वाला मजदूर था, छत पर काम करते वक्त पत्थर का टुकड़ा उसके हाथ से अचानक छूट गया और वह नीचे सड़क पर चलते एक मुसाफिर के सिर में लगा, सिर फट गया, मुसाफिर की मृत्यु हो गई। जज ने देखा की हत्या तो अवश्य हुई, मजदूर निर्दोष है, उसने जान-बूझकर बुरे इरादे से पत्थर नहीं फेंका था, इसलिए उसे बरी कर दिया गया। दूसरा मुलजिम एक किसान था। खेत काटते हुए चोर को ऐसी लाठी मारी कि वह मर गया। मजिस्ट्रेट ने सोचा-चोरी होते देखकर गुस्सा आना स्वाभाविक है, पर किसान की इतनी गलती है कि मामूली अपराध पर इतना नहीं मारना चाहिए था, इसलिए उसे पाँच साल की सजा मिली। तीसरा मुलजिम एक मशहूर डाकू था। एक धनी पुरुष के घर में रात को घुस गया और उसका कत्ल करके धन-माल चुरा लाया। इसका अपराध जघन्य था इसलिए फाँसी की सजा दी गई। तीनों ही अपराधियों ने खून किया था, जुर्म का बाहरी रूप एक-सा था, पर मजिस्ट्रेट सूक्ष्मदर्शी होता है, वह बाहरी बातों को देखकर ही सजा नहीं दे डालता वरन् भीतरी बारीकियों पर भली प्रकार विचार करके तब कुछ फैसला करता है।
भीतरी दुनियाँ में गुप्त-चित्र या चित्रगुप्त पुलिस और अदालत दोनों महकमों का काम स्वयं करता है। यदि पुलिस झूठा सबूत दे दे तो अदालत का फैसला भी अनुचित हो सकता है, परंतु भीतरी दुनियाँ में ऐसी गड़बड़ी की सम्भावना नहीं। अंतःकरण सब कुछ जानता है कि यह कर्म किस विचार से, किस इच्छा से, किस परिस्थिति में, क्यों कर किया गया था। वहाँ बाहरी मन को सफाई या बयान देने की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि गुप्त मन उस बात के सम्बन्ध में स्वयं ही पूरी-पूरी जानकारी रखता है। हम जिस इच्छा से, जिस भावना से जो काम करते हैं, उस इच्छा या भावना से ही पाप-पुण्य का नाप होता है। भौतिक वस्तुओं की तौल-नाप बाहरी दुनियाँ में होती है। एक गरीब आदमी दो पैसा दान करता है और एक धनी आदमी दस हजार रुपया दान करता है, बाहरी दुनियाँ तो पुण्य की तौल रुपए-पैसों की गिनती के अनुसार करेगी। दो पैसे दान करने वाले की ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देखेगा, पर दस हजार रुपया देने वाले की प्रशंसा चारों ओर फैल जाएगी। भीतरी दुनियाँ में यह तोल-नाप नहीं चलती। अनाज के दाने अँगोछे में बाँधकर गाँव के बनिये की दुकान पर चले जाएँ, तो वह बदले में गुड़ देगा, पर उसी अनाज को इंग्लैड की राजधानी लन्दन में जाकर किसी दुकानदार को दिया जाय, तो वह कहेगा-महाशय! इस शहर में अनाज के बदले सौदा नहीं मिलता, यहाँ तो पौड, शिलिंग, पेंस का सिक्का चलता है। ठीक इसी तरह बाहरी दुनियाँ में रुपयों की गिनती से, काम के बाहरी फैलाव से, कथा-वार्ता से, तीर्थयात्रा आदि भौतिक चीजों से यश खरीदा जाता है, पर चित्रगुप्त देवता के देश में यह सिक्का नहीं चलता, वहाँ तो इच्छा और भावना की नाप-तौल है। उसी के मुताबिक पाप-पुण्य का जमा-खर्च किया जाता है।
भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को उकसा कर लाखों आदमियों को महाभारत के युद्ध में मरवा डाला। लाश से भूमि पट गई, खून की नदियाँ बह गईं, फिर भी अर्जुन को कुछ पाप न लगा, क्योंकि हाड़-माँस से बने हुए कितने खिलौने टूट-फूट गए, इसका लेखा चित्रगुप्त के दरबार में नहीं रखा गया। भला कोई राजा यह हिसाब रखता है कि मेरे भण्डार में से कितने चावल फैल गए। पाँच तत्व से बनी हुई नाशवान् चीजों की कोई पूछ आत्मा के दरबार में नहीं है। अर्जुन का उद्देश्य पवित्र था, वह पाप को नष्ट करके धर्म की स्थापना करना चाहता था। बस वही इच्छा खुफिया रजिस्टर में दर्ज हो गई, आदमीयों के मारे जाने की संख्या का कोई हिसाब नहीं लिखा गया। दुनियाँ में करोड़पति की बड़ी प्रतिष्ठा है, पर यदि उसका दिल छोटा है, तो चित्रगुप्त के दरबार में भिखमंगा शुमार किया जाएगा। दुनियाँ का भिखमंगा यदि दिल का धनी है, तो उसे हजार बादशाहों का बादशाह गिना जाएगा। इस प्रकार मनुष्य जो भी काम कर रहा है, वह किस नीयत से कर रहा है, वह नीयत, भलाई या बुराई जिस दर्जे में जाती होगी, उसी में दर्ज कर दी जाएगी। सद्भाव से फाँसी लगाने वाला एक जल्लाद भी एक पुण्यात्मा गिना जा सकता है और एक धर्मध्वजी तिलकधारी पंडित भी गुप्त रूप से दुराचार करने पर पापी माना जा सकता है। बाहरी आडम्बर का कुछ मूल्य नहीं है, कीमत भीतरी चीज की है। बाहर से कोई काम भला या बुरा दिखाई दे, तो उससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। असली तत्त्व तो उस इच्छा और भावना में है, जिससे प्रेरित होकर वह काम किया गया है। पाप-पुण्य की जड़ कार्य और प्रर्दशन में नहीं, वरन् निश्चित रूप से इच्छा और भावना में है।
उपरोक्त पंक्तियों में बताया गया है कि हमारे प्राणों के साथ घुलमिल कर रहने वाला चित्रगुप्त देवता, बिना किसी पक्षपात के बुरे-भले कर्मों का लेखा अंतःचेतना के परमाणुओं पर लिखा करता है, उस अदृश्य लिपि को बोलचाल की भाषा में कर्म रेखा कहते हैं। साथ ही यह भी बताया चुका है कि पाप-पुण्य का निर्णय काम के बाहरी रूप से नहीं वरन् कर्ता की इच्छा और भावना के अनुरूप होता है। यह इच्छा जितनी तीव्र होगी, उतना ही पाप-पुण्य भी अधिक एवं बलवान होगा। जैसे एक व्यक्ति उदास मन से किसी रोगी की सेवा करता है और दूसरा व्यक्ति दूसरे रोगी की सेवा अत्यन्त दया, सहानुभूति, उदारता एवं प्रेमपूर्वक करता है, तो बाहर से देखने में दोनों के काम समान भले ही हों, पर उस पुण्य का परिणाम भावना की उदासीनता एवं प्रेम की तत्परता के अनुसार न्यूनाधिक होगा। इसी प्रकार एक भूखा व्यक्ति लाचार होकर चोरी करता है, दूसरा व्यक्ति मद्यपान के लिए चोरी करता है, तो दोनों के पाप में निस्संदेह न्यूनाधिकता होगी। चोरी दोनों ने की है, पर दुष्टता में न्यूनाधिकता के कारण पाप भी उसी अनुपात से होगा।
इस सम्बन्ध में एक और महत्त्वपूर्ण बात जान लेने की है कि हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग कानून व्यवस्था है। रिश्वत के मामले में एक चपरासी, एक क्लर्क, एक मजिस्ट्रेट तीन आदमी पकड़े जाएँ, तो तीनों को अलग-अलग तरह की सजा मिलेगी। सम्भव है चपरासी को डाँट-डपट सुना कर ही छुटकारा मिल जाय, पर मजिस्ट्रेट बर्खास्त हुए बिना नहीं रह सकता, क्योंकि उसकी बड़ी जिम्मेदारी है। एक असभ्य भील शिकार मारकर पेट पालता है, अपराध उसका भी है, परंतु अहिंसा का उपदेश करने वाला पंडित यदि चुपचाप बूचर दुकान में जाता है, तो पंडित को उस भील की अपेक्षा अनेक गुणा पाप लगेगा। कारण यह है कि ज्ञान वृद्धि करता हुआ जीव जैसे-जैसे आगे बढ़ता चलता है, वैसे ही वैसे उसकी अंतःचेतना अधिक स्वच्छ हो जाती है। मैले कपड़े पर थोड़ी-सी धूल पड़ जाय, तो उसका कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता, परंतु दूध के समान स्वच्छ धुले हुए कपड़े पर जरा सा धब्बा लग जाए, तो वह दूर से ही चमकता है और बहुत बुरा मालूम पड़ता है। छोटा बच्चा कपड़ों पर टट्टी फिर देता है, पर उसे कोई बुरा नहीं कहता और न बच्चे को कुछ शर्म आती है, किंतु यदि कोई जवान आदमी ऐसा कर डाले, तो उसे बुरा कहा जाएगा और वह खुद भी लज्जित होगा।
बच्चे और बड़े ने आचरण एक-सा किया, पर उसके मानसिक विकास में अंतर होने के कारण बुराई की गिनती कम-ज्यादा की गई। इसी प्रकार अशिक्षित, अज्ञानी, असभ्य व्यक्ति को कम पाप लगता है। ज्ञान वृद्धि के साथ-साथ भला-बुरा समझने की योग्यता बढ़ती जाती है, सत्-असत् का कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक प्रबल होता जाता है, अंतःकरण की पुकार जोरदार भी बनती है, इस प्रकार आत्मोन्नति के साथ-साथ सदाचरण की जिम्मेदारी भी बढ़ती जाती है। हुकुम-उदली करने पर मामूली चपरासी को सौ रुपया जुर्माना हो जाता है, परंतु फौजी अफसर हुक्म-अदूली करे, तो कोर्ट मार्शल द्वारा गोली से शूट कर दिया जाएगा। ज्ञानवान, विचारवान और भावनाशील हृदय वाले व्यक्ति जब दुष्कर्म करते हैं, तो उनका चित्रगुप्त उस करतूत को बहुत भारी पाप की श्रेणी में दर्ज कर देता है। गौदान से लोग वैतरणी पार कर जाते हैं। पर राजा नृप जैसा विवेकवान थोड़ी गलती करने पर ही नरक में जा पहुँचा। अज्ञानी व्यक्ति अपराध करे तो यह उतना महत्त्व नहीं रखता, किंतु कर्तव्यच्युत ब्राह्मण तो घोर दण्ड का भागी बनता है। राजा बनना सब दृष्टियों में अच्छा है, पर राजा की जिम्मेदारी भी सबसे ऊँची है। ज्ञानवानों का यह कठोर उत्तरदायित्व है कि सदाचार पर दृढ़ रहें, अन्यथा सात मंजिल ऊँची छत पर से गिरने वाले को जो कष्ट होता है, उन्हें भी वही दुःख होगा।
कर्मों का फल किस प्रकार मिलता है? पाठकों को यह रहस्य भी आगे के लेखों में समझाया जाएगा।
दिवं लोकं च ते तुष्टा इत्यूचुर्मन्त्र वेदिनः।। -पंचाध्यायी
(नूनं) निश्चय से (हताः) हनन की हुई (आत्मनः) आत्माएँ (मानवान्) मनुष्यों को (नरकं) नरक को (नयन्ति) ले जाती हैं (च) और (तुष्टा) संतुष्ट हुई (ते) वे आत्माएँ (दिव्य लोकं) दिव्य लोक को ले जाती हैं (इति) ऐसा (मंत्र वेदिनः) रहस्य को समझाने वालों ने (प्रोचुः) कहा है।
उपरोक्त श्लोक में कहा गया है कि हनन की हुई आत्मा नरक को ले जाती है और संतुष्ट की हुई आत्मा दिव्य लोक प्रदान करती है। श्लोक में इस गुत्थी को सुलझा दिया है कि स्वर्ग-नरक किस प्रकार मिलता है? गरुड़ पुराण में इस सम्बन्ध में एक अलंकारिक विवरण दिया गया है, जिसमें कहा गया है कि यमलोक में ‘चित्रगुप्त’ नामक देवता हर एक जीव के भले-बुरे कर्मों का विवरण प्रत्येक समय लिखते रहते हैं। जब प्राणी मरकर यमलोक में जाता है, तो वह लेखा पेस किया जाता है और उसी के आधार पर शुभ कर्मों के लिए स्वर्ग और दुष्कर्मों के लिए नरक प्रदान किया जाता है। साधारण दृष्टि से चित्रगुप्त का अस्तित्व काल्पनिक प्रतीत होता है, क्योंकि पृथ्वी पर अरबों तो मनुष्य ही रहते है, फिर ऐसा ही तथाकथित चौरासी लाख योनियों, जिनमें से अनेक तो मनुष्य जाति से अनेक गुनी अधिक हैं, इन सब की संख्या गिनी जाए, तो इतनी अधिक हो जाएगी कि हमारे अंकगणित की वहाँ तक पहुँच भी न होगी। फिर इतने असंख्य प्राणियों द्वारा पल-पल पर किए जाने वाले कार्यों का लेखा दिन-रात बिना विश्राम के कल्प-कल्पांतों तक लिखते रहना एक देवता के लिए कठिन है। इस प्रकार चित्रगुप्त का कार्य असम्भव प्रतीत होता है, इस कथानक को एक कल्पना मान लेने पर चित्रगुप्त का अस्तित्व भी संदिग्ध हो जाता है।
आधुनिक शोधों ने उपरोक्त अलंकारिक कथानक में से बड़ी ही महत्वपूर्ण सच्चाई को खोज निकाला है, डॉक्टर फ्राइड ने मनुष्य की मानसिक रचना का वर्णन करते हुए बताया है कि जो भी भले या बुरे काम ज्ञानवान प्राणियों द्वारा किए जाते हैं, उनका सूक्ष्म चित्रण अंतः चेतना में होता रहता है। ग्रामोफोन के रिकार्डों में रेखा रूप में गाने भर दिए जाते हैं। संगीतशाला में नाच-गाना हो रहा है और साथ ही अनेक बाजे बज रहे हैं, इन अनेक प्रकार की ध्वनियों का विद्युत शक्ति से एक प्रकार का संक्षिप्त एवं सूक्ष्म एकीकरण होता है और वह रिकार्ड में जरा-सी जगह में रेखाओं की तरह अंकित होता जाता है। तैयार किया हुआ रिकार्ड रखा रहता है वह तुरंत ही अपने आप या चाहे जब नहीं बजने लगता वरन तभी उन संग्रहीत ध्वनियों को प्रकट करता है, जब ग्रामोफोन की मशीन पर उसे घुमाया जाता है और सुई की रगड़ उन रेखाओं से होती है। ठीक इसी प्रकार भले और बुरे जो भी काम किए जाते है, उनकी सूक्ष्म रेखाएँ अंतः चेतना के ऊपर अंकित होती रहती हैं और मन के भीतरी कोने में धीरे-धीरे जमा होती जाती हैं। जब रिकार्ड पर सुई का आघात लगता है, तो उसमें भरे हुए गाने प्रकट होते हैं। इसी प्रकार गुप्त मन में जमा हुई रेखाएँ किसी उपयुक्त अवसर का आघात लगने पर ही प्रकट होती हैं।
भारतीय विद्वान् ‘कर्म रेखा’ के बारे में बहुत प्राचीनकाल से जानकारी रखते आ रहे हैं। ‘कर्म रेख नहिं मिटे, करे कोई लाखन चतुराई’ आदि अनेक युक्तियाँ हिंदी और संस्कृत साहित्य में मौजूद हैं, जिनसे प्रकट होता है कि कर्मों की कई रेखाएँ होती हैं,जो अपना फल दिए बिना मिटती नहीं। भाग्य के बारे में मोटे तौर से ऐसा समझा जाता है कि सिर की अगली मस्तक वाली हड्डी पर कुछ रेखाएँ ब्रह्मा लिख देता है और विधि के लेख को मेंटनहारा अर्थात् उन्हें मिटाने वाला कोई नहीं है। डॉक्टर वीबेन्स ने मस्तिष्क में भरे हुए ग्रे मैटर (भूरा चर्बी जैसा पदार्थ) का सूक्ष्म दर्शक यंत्रों की सहायता से खोज करने पर वहाँ के एक-एक परमाणु में अगणित रेखाएँ पाई हैं, यह रेखाएँ किस प्रकार बनती हैं, इसका कोई शारीरिक प्रत्यक्ष कारण उन्हें नहीं मिला, तब उन्होंने अनेक मस्तिष्कों के परमाणुओं का परीक्षण करके यह निष्कर्ष निकाला की अक्रिय, आलसी एवं विचार शून्य प्राणियों में यह रेखाएँ बहुत ही कम बनती हैं, किंतु कर्मनिष्ठ एवं विचारवानों में इनकी संख्या बहुत बड़ी होती है। अतएव यह रेखाएँ शारीरिक और मानसिक कार्यों को संक्षिप्त और सूक्ष्म रुप से लिपिबद्ध करने वाली प्रमाणित हुईं।
भले-बुरे कर्मों का ग्रे मैटर के परमाणुओं पर यह रेखांकन (जिसे प्रकट के शब्दों में अंतःचेतना का संस्कार कहा जा सकता है) पौराणिक चित्रगुप्त की वास्तविकता को सिद्ध कर देता है। चित्रगुप्त शब्द के अर्थों से भी इसी प्रकार की ध्वनि निकलती है। गुप्त चित्र, गुप्त मन, अंतःचेतना, सूक्ष्म मन, पिछला दिमाग, भीतर चित्र इन शब्दों के भावार्थ को ही चित्रगुप्त शब्द प्रकट करता हुआ दीखता है। ‘चित्त’ शब्द को जल्दी में लिख देने से ‘चित्र’ जैसा ही बन जाता है। सम्भव है कि चित्त का बिगाड़ कर चित्र बन गया हो या प्राचीनकाल में चित्र को चित्त और चित्र एक ही अर्थ के बोधक रहे हों। कर्मों की रेखाएँ एक प्रकार के गुप्त चित्र ही हैं, इसलिए उन छोटे अंकनों में गुप्त रूप से, सूक्ष्म रूप से, बड़े-बड़े घटना चित्र छिपे होते हैं, इस क्रिया प्रणाली को चित्रगुप्त मान लेने से प्राचीन शोध का समन्वय हो जाता है।
यह चित्रगुप्त निःसंदेह हर प्राणी के हर कार्य को, हर समय बिना विश्राम किए अपनी बही में लिखता रहता है। सबका अलग-अलग चित्रगुप्त है। जितने प्राणी हैं, उतने ही चित्रगुप्त हैं, इसलिए यह संदेह नहीं रह जाता कि इतना लेखन कार्य किस प्रकार पूरा हो पाता होगा। स्थूल शरीर के कार्यों की सुव्यवस्थित जानकारी सूक्ष्म चेतना में अंकित होती रहे, तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। ‘पौराणिक चित्र गुप्त एक है और यहाँ अनेक हुए’ यह शंका भी कुछ गहरी नहीं है। घटाकाश, मठाकाश का ऐसा ही भेद है। इंद्र, वरुण, अग्नि, शिव, यम, आदि देवता बोधक सूक्ष्मत्व व्यापक समझे जाते हैं। जैसे बगीचे की वायु गंदे नाले की वायु आदि स्थान भेद से अनेक नाम वाली होते हुए भी मूलतः विश्व व्यापक वायु तत्व एक ही है, वैसे ही अलग-अलग शरीरों में रहकर अलग-अलग काम करने वाला चित्रगुप्त देवता भी एक ही तत्त्व है।
यह हर व्यक्ति के कर्मों लेखाकिस आधार पर कैसा, किस प्रकार, कितना, क्यों लिखता है? यह अगली पंक्तियों में बताया जाएगा एवं चित्रगुप्त द्वारा लिखी हुई कर्म रेखाओं के आधार पर स्वर्ग-नरक का विवरण और उनके प्राप्त होने की व्यवस्था पर प्रकाश डाला जाएगा।
पिछली पंक्तियों में पाठक पढ़ चुके हैं कि हमारा गुप्त चित्र अंतर्मन ही निरंतर चित्रगुप्त देवता का काम करता रहता है। जो कुछ भले या बुरे काम हम करते हैं, उनका सूक्ष्म चित्र उतार-उतार कर अपने भीतर जमा करता रहता है। सिनेमा की पर्दे पर मनुष्य की बराबर लम्बी-चौड़ी तस्वीर दिखाई देती है, पर उसका फिल्म केवल एक इंच ही चौड़ा होता है। इसी प्रकार पाप-पुण्य का घटनाक्रम तो विस्मृत होता है, पर उसका सूक्ष्म चित्र एक पतली रेखा मात्र के भीतर खिंच जाता है और वह रेखा गुप्त मन के किसी परमाणु पर अदृश्य रूप से जमकर बैठ जाती है। शार्टहैंड लिखने वाले बड़ी बात को थोड़ी सी उल्टी-सीधी लकीरों के इशारे पर जरा से कागज पर लिख देते हैं। कर्मरेखा को ऐसी ही दैवी शार्टहैंड समझा जा सकता है।
पाठकों को इतनी जानकारी तो बहुत पहले हो चुकी होगी कि मन के दो भाग हैं-एक बहिर्मन, दूसरा अंतर्मन। बाहरी मन तो तर्क-वितर्क करता है, सोचता है, काट-छाँट करता है, निर्णय करता है और अपने इरादों को बदलता रहता है, पर अंर्तमन भोले-भाले किंतु दृढ़ निश्चयी बालक के समान है, वह काट-छाँट नहीं करता वरन् श्रद्धा और विश्वास के आधार पर काम करता है। बाहरी मन तो यह सोच सकता है कि पाप कर्मों की रेखाएँ अपने ऊपर अंकित होने न दूँ और पुण्य कर्मों को बढ़ा-चढ़ाकर अंकित करूँ। जिससे पाप फल न भोगना पड़े और पुण्य फल का भरपूर आनंद प्राप्त हो, परंतु भीतरी मन ऐसा नहीं है। यह सत्यनिष्ठ जज की तरह फैसला करता है, कोई लोभ, लालच, भय, स्वार्थ उसे प्रभावित नहीं करता। कहा जाता है कि मनुष्य के अंदर एक ईश्वरीय शक्ति रहती है, दूसरी शैतानी। आप गुप्त मन को ईश्वरीय शक्ति और तर्क, मन, छल-कपट, स्वार्थ, लोभ में रत रहने वाले बाह्य मन को शैतानी शक्ति कह सकते हैं। बाहरी मन धोखेबाजी कर सकता है, परंतु भीतरी मन तो सत्य रूपी आत्मा का तेज है, वह न तो मायावी आचरण करता है, न छल-कपट। निष्पक्ष रहना उसका स्वभाव है। इसलिए ईश्वर ने उसे इतना महत्वपूर्ण कार्य सौंपा है। दुनिया उसे चित्रगुप्त देवता कहती है। यदि वह भी पक्षपात करता, तो भला इतनी ऊँची जज की पदवी कैसे पा सकता था? हमारा गुप्त मन खुफिया जासूस की तरह हर घड़ी साथ-साथ रहता है और जो-जो भले-बुरे काम किए जाते हैं, उनका ऐमालनामा अपनी खुफिया डायरी में दर्ज करता रहता है।
बाहरी दुनियाँ में मुलजिम को सजा दिलाने का काम दो महकमों के आधीन है, एक पुलिस, दूसरा अदालत। पुलिस तो मुलजिम को पकड़ ले जाती है और उसके कामों का सबूत एकत्रित करके अदालत के सामने पेश करती है, फिर अदालत का महकमा अपना काम करता है। जज महाशय अपराध और अपराधी की स्थिति के बारे में बहुत दृष्टियों से विचार करते हैं, तब जैसा उचित होता है वैसा फैसला करते हैं। एक ही जुर्म में आए हुए अपराधियों को अलग-अलग तरह की सजा देते हैं। तीन खूनी पकड़ कर लाए गए, इनमें से एक को बिल्कुल बरी कर दिया, दूसरे को पाँच साल की सजा मिली, तीसरे को फाँसी। हत्या तीनों ने की थी, पर सजा देते वक्त मजिस्ट्रेट ने बहुत बातों पर विचार किया। जिसे बरी कर दिया गया था, वह मकान बनाने वाला मजदूर था, छत पर काम करते वक्त पत्थर का टुकड़ा उसके हाथ से अचानक छूट गया और वह नीचे सड़क पर चलते एक मुसाफिर के सिर में लगा, सिर फट गया, मुसाफिर की मृत्यु हो गई। जज ने देखा की हत्या तो अवश्य हुई, मजदूर निर्दोष है, उसने जान-बूझकर बुरे इरादे से पत्थर नहीं फेंका था, इसलिए उसे बरी कर दिया गया। दूसरा मुलजिम एक किसान था। खेत काटते हुए चोर को ऐसी लाठी मारी कि वह मर गया। मजिस्ट्रेट ने सोचा-चोरी होते देखकर गुस्सा आना स्वाभाविक है, पर किसान की इतनी गलती है कि मामूली अपराध पर इतना नहीं मारना चाहिए था, इसलिए उसे पाँच साल की सजा मिली। तीसरा मुलजिम एक मशहूर डाकू था। एक धनी पुरुष के घर में रात को घुस गया और उसका कत्ल करके धन-माल चुरा लाया। इसका अपराध जघन्य था इसलिए फाँसी की सजा दी गई। तीनों ही अपराधियों ने खून किया था, जुर्म का बाहरी रूप एक-सा था, पर मजिस्ट्रेट सूक्ष्मदर्शी होता है, वह बाहरी बातों को देखकर ही सजा नहीं दे डालता वरन् भीतरी बारीकियों पर भली प्रकार विचार करके तब कुछ फैसला करता है।
भीतरी दुनियाँ में गुप्त-चित्र या चित्रगुप्त पुलिस और अदालत दोनों महकमों का काम स्वयं करता है। यदि पुलिस झूठा सबूत दे दे तो अदालत का फैसला भी अनुचित हो सकता है, परंतु भीतरी दुनियाँ में ऐसी गड़बड़ी की सम्भावना नहीं। अंतःकरण सब कुछ जानता है कि यह कर्म किस विचार से, किस इच्छा से, किस परिस्थिति में, क्यों कर किया गया था। वहाँ बाहरी मन को सफाई या बयान देने की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि गुप्त मन उस बात के सम्बन्ध में स्वयं ही पूरी-पूरी जानकारी रखता है। हम जिस इच्छा से, जिस भावना से जो काम करते हैं, उस इच्छा या भावना से ही पाप-पुण्य का नाप होता है। भौतिक वस्तुओं की तौल-नाप बाहरी दुनियाँ में होती है। एक गरीब आदमी दो पैसा दान करता है और एक धनी आदमी दस हजार रुपया दान करता है, बाहरी दुनियाँ तो पुण्य की तौल रुपए-पैसों की गिनती के अनुसार करेगी। दो पैसे दान करने वाले की ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देखेगा, पर दस हजार रुपया देने वाले की प्रशंसा चारों ओर फैल जाएगी। भीतरी दुनियाँ में यह तोल-नाप नहीं चलती। अनाज के दाने अँगोछे में बाँधकर गाँव के बनिये की दुकान पर चले जाएँ, तो वह बदले में गुड़ देगा, पर उसी अनाज को इंग्लैड की राजधानी लन्दन में जाकर किसी दुकानदार को दिया जाय, तो वह कहेगा-महाशय! इस शहर में अनाज के बदले सौदा नहीं मिलता, यहाँ तो पौड, शिलिंग, पेंस का सिक्का चलता है। ठीक इसी तरह बाहरी दुनियाँ में रुपयों की गिनती से, काम के बाहरी फैलाव से, कथा-वार्ता से, तीर्थयात्रा आदि भौतिक चीजों से यश खरीदा जाता है, पर चित्रगुप्त देवता के देश में यह सिक्का नहीं चलता, वहाँ तो इच्छा और भावना की नाप-तौल है। उसी के मुताबिक पाप-पुण्य का जमा-खर्च किया जाता है।
भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को उकसा कर लाखों आदमियों को महाभारत के युद्ध में मरवा डाला। लाश से भूमि पट गई, खून की नदियाँ बह गईं, फिर भी अर्जुन को कुछ पाप न लगा, क्योंकि हाड़-माँस से बने हुए कितने खिलौने टूट-फूट गए, इसका लेखा चित्रगुप्त के दरबार में नहीं रखा गया। भला कोई राजा यह हिसाब रखता है कि मेरे भण्डार में से कितने चावल फैल गए। पाँच तत्व से बनी हुई नाशवान् चीजों की कोई पूछ आत्मा के दरबार में नहीं है। अर्जुन का उद्देश्य पवित्र था, वह पाप को नष्ट करके धर्म की स्थापना करना चाहता था। बस वही इच्छा खुफिया रजिस्टर में दर्ज हो गई, आदमीयों के मारे जाने की संख्या का कोई हिसाब नहीं लिखा गया। दुनियाँ में करोड़पति की बड़ी प्रतिष्ठा है, पर यदि उसका दिल छोटा है, तो चित्रगुप्त के दरबार में भिखमंगा शुमार किया जाएगा। दुनियाँ का भिखमंगा यदि दिल का धनी है, तो उसे हजार बादशाहों का बादशाह गिना जाएगा। इस प्रकार मनुष्य जो भी काम कर रहा है, वह किस नीयत से कर रहा है, वह नीयत, भलाई या बुराई जिस दर्जे में जाती होगी, उसी में दर्ज कर दी जाएगी। सद्भाव से फाँसी लगाने वाला एक जल्लाद भी एक पुण्यात्मा गिना जा सकता है और एक धर्मध्वजी तिलकधारी पंडित भी गुप्त रूप से दुराचार करने पर पापी माना जा सकता है। बाहरी आडम्बर का कुछ मूल्य नहीं है, कीमत भीतरी चीज की है। बाहर से कोई काम भला या बुरा दिखाई दे, तो उससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। असली तत्त्व तो उस इच्छा और भावना में है, जिससे प्रेरित होकर वह काम किया गया है। पाप-पुण्य की जड़ कार्य और प्रर्दशन में नहीं, वरन् निश्चित रूप से इच्छा और भावना में है।
उपरोक्त पंक्तियों में बताया गया है कि हमारे प्राणों के साथ घुलमिल कर रहने वाला चित्रगुप्त देवता, बिना किसी पक्षपात के बुरे-भले कर्मों का लेखा अंतःचेतना के परमाणुओं पर लिखा करता है, उस अदृश्य लिपि को बोलचाल की भाषा में कर्म रेखा कहते हैं। साथ ही यह भी बताया चुका है कि पाप-पुण्य का निर्णय काम के बाहरी रूप से नहीं वरन् कर्ता की इच्छा और भावना के अनुरूप होता है। यह इच्छा जितनी तीव्र होगी, उतना ही पाप-पुण्य भी अधिक एवं बलवान होगा। जैसे एक व्यक्ति उदास मन से किसी रोगी की सेवा करता है और दूसरा व्यक्ति दूसरे रोगी की सेवा अत्यन्त दया, सहानुभूति, उदारता एवं प्रेमपूर्वक करता है, तो बाहर से देखने में दोनों के काम समान भले ही हों, पर उस पुण्य का परिणाम भावना की उदासीनता एवं प्रेम की तत्परता के अनुसार न्यूनाधिक होगा। इसी प्रकार एक भूखा व्यक्ति लाचार होकर चोरी करता है, दूसरा व्यक्ति मद्यपान के लिए चोरी करता है, तो दोनों के पाप में निस्संदेह न्यूनाधिकता होगी। चोरी दोनों ने की है, पर दुष्टता में न्यूनाधिकता के कारण पाप भी उसी अनुपात से होगा।
इस सम्बन्ध में एक और महत्त्वपूर्ण बात जान लेने की है कि हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग कानून व्यवस्था है। रिश्वत के मामले में एक चपरासी, एक क्लर्क, एक मजिस्ट्रेट तीन आदमी पकड़े जाएँ, तो तीनों को अलग-अलग तरह की सजा मिलेगी। सम्भव है चपरासी को डाँट-डपट सुना कर ही छुटकारा मिल जाय, पर मजिस्ट्रेट बर्खास्त हुए बिना नहीं रह सकता, क्योंकि उसकी बड़ी जिम्मेदारी है। एक असभ्य भील शिकार मारकर पेट पालता है, अपराध उसका भी है, परंतु अहिंसा का उपदेश करने वाला पंडित यदि चुपचाप बूचर दुकान में जाता है, तो पंडित को उस भील की अपेक्षा अनेक गुणा पाप लगेगा। कारण यह है कि ज्ञान वृद्धि करता हुआ जीव जैसे-जैसे आगे बढ़ता चलता है, वैसे ही वैसे उसकी अंतःचेतना अधिक स्वच्छ हो जाती है। मैले कपड़े पर थोड़ी-सी धूल पड़ जाय, तो उसका कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता, परंतु दूध के समान स्वच्छ धुले हुए कपड़े पर जरा सा धब्बा लग जाए, तो वह दूर से ही चमकता है और बहुत बुरा मालूम पड़ता है। छोटा बच्चा कपड़ों पर टट्टी फिर देता है, पर उसे कोई बुरा नहीं कहता और न बच्चे को कुछ शर्म आती है, किंतु यदि कोई जवान आदमी ऐसा कर डाले, तो उसे बुरा कहा जाएगा और वह खुद भी लज्जित होगा।
बच्चे और बड़े ने आचरण एक-सा किया, पर उसके मानसिक विकास में अंतर होने के कारण बुराई की गिनती कम-ज्यादा की गई। इसी प्रकार अशिक्षित, अज्ञानी, असभ्य व्यक्ति को कम पाप लगता है। ज्ञान वृद्धि के साथ-साथ भला-बुरा समझने की योग्यता बढ़ती जाती है, सत्-असत् का कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक प्रबल होता जाता है, अंतःकरण की पुकार जोरदार भी बनती है, इस प्रकार आत्मोन्नति के साथ-साथ सदाचरण की जिम्मेदारी भी बढ़ती जाती है। हुकुम-उदली करने पर मामूली चपरासी को सौ रुपया जुर्माना हो जाता है, परंतु फौजी अफसर हुक्म-अदूली करे, तो कोर्ट मार्शल द्वारा गोली से शूट कर दिया जाएगा। ज्ञानवान, विचारवान और भावनाशील हृदय वाले व्यक्ति जब दुष्कर्म करते हैं, तो उनका चित्रगुप्त उस करतूत को बहुत भारी पाप की श्रेणी में दर्ज कर देता है। गौदान से लोग वैतरणी पार कर जाते हैं। पर राजा नृप जैसा विवेकवान थोड़ी गलती करने पर ही नरक में जा पहुँचा। अज्ञानी व्यक्ति अपराध करे तो यह उतना महत्त्व नहीं रखता, किंतु कर्तव्यच्युत ब्राह्मण तो घोर दण्ड का भागी बनता है। राजा बनना सब दृष्टियों में अच्छा है, पर राजा की जिम्मेदारी भी सबसे ऊँची है। ज्ञानवानों का यह कठोर उत्तरदायित्व है कि सदाचार पर दृढ़ रहें, अन्यथा सात मंजिल ऊँची छत पर से गिरने वाले को जो कष्ट होता है, उन्हें भी वही दुःख होगा।
कर्मों का फल किस प्रकार मिलता है? पाठकों को यह रहस्य भी आगे के लेखों में समझाया जाएगा।