Books - शक्ति का सदुपयोग
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Language: HINDI
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शक्ति का ह्रास न होने दीजिए
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शक्ति संचय करने वाले साधनों के साथ ही हमको इस बात पर भी दृष्टि रखनी चाहिए कि हमारी शक्ति निकम्मे कामों में खरच न हो । जैसा कहा गया है शक्ति परमात्मा की अमूल्य देन है, जिसका महत्त्व धन से भी बड़ा है, क्योंकि धन का उपार्जन और रक्षा भी शक्ति के द्वारा ही संभव है । पर वर्तमान समय में हमारा जीवन ऐसा बहुमुखी हो गया है और कृत्रिम साधनों तथा अस्वाभाविक रहन-सहन ने ऐसी अव्यवस्था उत्पन्न कर दी है कि हमारी बहुत सी शक्ति निरर्थक कार्यो में नष्ट हो जाती है ।
यदि जीवनयापन ठीक तरह किया जाय तथा जीवन-तत्त्वों को स से बचाया जाय तो मनुष्य दीर्घकाल तक जीवन का सुख लूट सकता है । प्रत्येक व्यक्ति को उन खतरों से सावधान रहना चाहिए जिनसे जीवनशक्ति का ह्रास होता है । सर्वप्रथम मनुष्य की शक्ति का ह्रास करने वाली बात अधिक भोग विलास है । संसार के समस्त पशु-पक्षियों की प्रजनन शक्ति अत्यंत परिमित है । वे केवल आनंद, क्षणिक वासना के वशीभूत होकर रमण नहीं करते, विशेष ऋतुओं में ही प्रजनन कार्य होता है । प्रकृति उन्हें विवश करती है, तब उनका गर्भाधान होता है । आज के मानव समाज ने नारी को केवल तृप्ति का साधन मात्र समझ लिया है । पति-पत्नी के संयोग की मात्रा अनियमित हो रही है । हम संतानोत्पत्ति का उद्देश्य, आदर्श तथा प्रकृति का आदेश नहीं मान रहे हैं । फलत: समाज में आयुष्यहीन, अकर्मण्य, निकम्मे बच्चे बढ़ रहे हैं । इंद्रियों की चतुरता, कामुकता बढ़ रही है । अधिक भोग विलास से मनुष्य निर्बल होते जा रहे हैं । कामुक और कामुकता में लगे रहने वाले जीव या व्यक्तियों के बच्चे कभी बलवान, आभावान, संयमी, श्रीमान, विचारवान नहीं हो सकते । वीर्य का प्रत्येक बिंदु शक्ति का बिंदु है । एक बिंदु का भी ह्रास नहीं करना चाहते हैं तो भोग विलास से दूर रहिए ।
शक्ति का ह्रास अधिक दौड़धूप से होता है । आधुनिक मनुष्य जल्दी में है । उसे हजारों काम है । प्रात: से सायंकाल तक वह व्यस्त रहता है । उसका काम ही जैसे समाप्त होने में नहीं आता । बड़े नगरों में तो दौड़धूप इतनी बढ़ गई है कि दम मारने को अवकाश नहीं है, घर के लिए सामान लाता है, बाल-बच्चों को मदरसे भेजता है, अस्पताल से दवाई लाता है । यदि आप व्यापारी हैं तो व्यापार के चक्कर में प्रात: से सायंकाल तक दौड़धूप करते हैं । आज के सभ्य व्यक्ति को शांति से बैठकर मन को एकाग्र करने तक का अवसर नहीं मिलता । संसार के कोने-कोने से अशांति और उद्विग्नता की चिल्लाहट सुनाई दे रही है । चित्त की चंचलता इतनी बढ़ती जा रही है कि हम क्षुब्ध एवं संवेगशील बन रहे हैं । इस दौड़धूप में एक क्षण भी शांति नहीं ? यदि हम इसी उद्विग्न एवं उत्तेजित अवस्था में चलते रहें तो मानव जीवन में कैसे आनंद, प्रतिष्ठा एवं शांति पा सकते हैं । हमारे चारों ओर का वायुमंडल जब विक्षुब्ध है तो आत्मा की उच्चतम शक्ति क्योंकर संपादन कर सकते हैं । जो व्यक्ति शक्ति संचय करना चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि अधिक दौड़धूप से बचें, केवल अर्थ उत्पादन को ही जीवन का लक्ष्य न समझें, शांतिदायक विचारों में रमण करें । जिस साधक के हृदय में ब्रह्मनिष्ठा एवं संतोष है, उसकी मुखाकृति दिव्य आलोक से चमकती है । जो ब्रह्म विचार में लगता है, वह अपने आप को निर्बलता, प्रलोभन, पाप से बचाता है ।
शक्ति के ह्रास का तीसरा कारण है अधिक बोलना । जिस प्रकार अधिक चलने से जीवन का क्षय होता है, उसी प्रकार अधिक बोलने, बातें बनाने, अधिक भाषण देने, बड़बड़ाने, गाली-गलोज देने, चिढ़कर काँव-काँव करने से लोग फेफड़ों को कमजोर बना डालते हैं । पुन:-पुन: तेज आवाज निकालने से फेफड़ों का निर्बल हो जाना स्वाभाविक है । यही नहीं गले में खराश तथा खुश्की से खांसी उत्पन्न होना स्वाभाविक है । खाँसी बनी रहने पर क्षय रोग होकर मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है । प्राय: देखा गया है कि व्याख्याता, अध्यापक लेक्चरार पतले दुबले रहते हैं । यह शक्ति के क्षय का प्रत्यक्ष लक्षण है । अधिक बोलने से शारीरिक शक्ति का हास अवश्यंभावी है । यह अपनी शक्ति का अपव्यय है । अधिक बोलने की आदत से मनुष्य बकवासी बनता है, लोग उसका विश्वास नहीं करते, ढपोर शंख कहते हैं । वह प्राय: दूसरों की भली, बुरी, खोटी आलोचना करता है, अनावश्यक बातें बनाता है, निंदा करता है, अपनी गंभीरता खो बैठता है । प्राय: ऐसा करने वालों का आदर कम हो जाता है । शक्ति को अपव्यय से बचाने की इच्छा रखने वालों क्रो चाहिए कि मितभाषी बनें, मृदुभाषी बनें । कम बोलें किंतु जो कुछ बोलें वह मनोहारी और दूसरे तथा अपने हृदय को प्रसन्न करने वाला हो, सारयुक्त हो, शब्द योजना सुंदर हो, प्रेम तथा आनंद का, आदर और स्नेह का परिचायक हो । शक्ति संचय के लिए मितभाषी बनिए । आध्यात्म चिंतन, पठन, अध्ययन, मौन, मितभाषी बनने के सुंदर उपाय हैं ।
यदि जीवनयापन ठीक तरह किया जाय तथा जीवन-तत्त्वों को स से बचाया जाय तो मनुष्य दीर्घकाल तक जीवन का सुख लूट सकता है । प्रत्येक व्यक्ति को उन खतरों से सावधान रहना चाहिए जिनसे जीवनशक्ति का ह्रास होता है । सर्वप्रथम मनुष्य की शक्ति का ह्रास करने वाली बात अधिक भोग विलास है । संसार के समस्त पशु-पक्षियों की प्रजनन शक्ति अत्यंत परिमित है । वे केवल आनंद, क्षणिक वासना के वशीभूत होकर रमण नहीं करते, विशेष ऋतुओं में ही प्रजनन कार्य होता है । प्रकृति उन्हें विवश करती है, तब उनका गर्भाधान होता है । आज के मानव समाज ने नारी को केवल तृप्ति का साधन मात्र समझ लिया है । पति-पत्नी के संयोग की मात्रा अनियमित हो रही है । हम संतानोत्पत्ति का उद्देश्य, आदर्श तथा प्रकृति का आदेश नहीं मान रहे हैं । फलत: समाज में आयुष्यहीन, अकर्मण्य, निकम्मे बच्चे बढ़ रहे हैं । इंद्रियों की चतुरता, कामुकता बढ़ रही है । अधिक भोग विलास से मनुष्य निर्बल होते जा रहे हैं । कामुक और कामुकता में लगे रहने वाले जीव या व्यक्तियों के बच्चे कभी बलवान, आभावान, संयमी, श्रीमान, विचारवान नहीं हो सकते । वीर्य का प्रत्येक बिंदु शक्ति का बिंदु है । एक बिंदु का भी ह्रास नहीं करना चाहते हैं तो भोग विलास से दूर रहिए ।
शक्ति का ह्रास अधिक दौड़धूप से होता है । आधुनिक मनुष्य जल्दी में है । उसे हजारों काम है । प्रात: से सायंकाल तक वह व्यस्त रहता है । उसका काम ही जैसे समाप्त होने में नहीं आता । बड़े नगरों में तो दौड़धूप इतनी बढ़ गई है कि दम मारने को अवकाश नहीं है, घर के लिए सामान लाता है, बाल-बच्चों को मदरसे भेजता है, अस्पताल से दवाई लाता है । यदि आप व्यापारी हैं तो व्यापार के चक्कर में प्रात: से सायंकाल तक दौड़धूप करते हैं । आज के सभ्य व्यक्ति को शांति से बैठकर मन को एकाग्र करने तक का अवसर नहीं मिलता । संसार के कोने-कोने से अशांति और उद्विग्नता की चिल्लाहट सुनाई दे रही है । चित्त की चंचलता इतनी बढ़ती जा रही है कि हम क्षुब्ध एवं संवेगशील बन रहे हैं । इस दौड़धूप में एक क्षण भी शांति नहीं ? यदि हम इसी उद्विग्न एवं उत्तेजित अवस्था में चलते रहें तो मानव जीवन में कैसे आनंद, प्रतिष्ठा एवं शांति पा सकते हैं । हमारे चारों ओर का वायुमंडल जब विक्षुब्ध है तो आत्मा की उच्चतम शक्ति क्योंकर संपादन कर सकते हैं । जो व्यक्ति शक्ति संचय करना चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि अधिक दौड़धूप से बचें, केवल अर्थ उत्पादन को ही जीवन का लक्ष्य न समझें, शांतिदायक विचारों में रमण करें । जिस साधक के हृदय में ब्रह्मनिष्ठा एवं संतोष है, उसकी मुखाकृति दिव्य आलोक से चमकती है । जो ब्रह्म विचार में लगता है, वह अपने आप को निर्बलता, प्रलोभन, पाप से बचाता है ।
शक्ति के ह्रास का तीसरा कारण है अधिक बोलना । जिस प्रकार अधिक चलने से जीवन का क्षय होता है, उसी प्रकार अधिक बोलने, बातें बनाने, अधिक भाषण देने, बड़बड़ाने, गाली-गलोज देने, चिढ़कर काँव-काँव करने से लोग फेफड़ों को कमजोर बना डालते हैं । पुन:-पुन: तेज आवाज निकालने से फेफड़ों का निर्बल हो जाना स्वाभाविक है । यही नहीं गले में खराश तथा खुश्की से खांसी उत्पन्न होना स्वाभाविक है । खाँसी बनी रहने पर क्षय रोग होकर मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है । प्राय: देखा गया है कि व्याख्याता, अध्यापक लेक्चरार पतले दुबले रहते हैं । यह शक्ति के क्षय का प्रत्यक्ष लक्षण है । अधिक बोलने से शारीरिक शक्ति का हास अवश्यंभावी है । यह अपनी शक्ति का अपव्यय है । अधिक बोलने की आदत से मनुष्य बकवासी बनता है, लोग उसका विश्वास नहीं करते, ढपोर शंख कहते हैं । वह प्राय: दूसरों की भली, बुरी, खोटी आलोचना करता है, अनावश्यक बातें बनाता है, निंदा करता है, अपनी गंभीरता खो बैठता है । प्राय: ऐसा करने वालों का आदर कम हो जाता है । शक्ति को अपव्यय से बचाने की इच्छा रखने वालों क्रो चाहिए कि मितभाषी बनें, मृदुभाषी बनें । कम बोलें किंतु जो कुछ बोलें वह मनोहारी और दूसरे तथा अपने हृदय को प्रसन्न करने वाला हो, सारयुक्त हो, शब्द योजना सुंदर हो, प्रेम तथा आनंद का, आदर और स्नेह का परिचायक हो । शक्ति संचय के लिए मितभाषी बनिए । आध्यात्म चिंतन, पठन, अध्ययन, मौन, मितभाषी बनने के सुंदर उपाय हैं ।