Books - शिक्षा ही नहीं विद्या भी
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नवसृजन की अनुपम अध्यात्म-साधना
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दृश्यमान स्थूल शरीर के अतिरिक्त अदृश्य स्तर के दो शरीर और भी हैं, जिन्हें सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर कहते हैं। सूक्ष्म में दूरदर्शिता का और कारण में भाव-संवेदना का निवास है। इन क्षेत्रों को उनकी आवश्यकताएँ उपलब्ध होती रहें, तो आरोग्य संतुलन उनमें भी बना रहेगा। इन पर प्रभाव तो स्वाध्याय सत्संग का भी पड़ता है, पर यदि निर्धारित साधन उपचार भी अपनाए जा सकें तो और भी अच्छा। इनका समावेश रहने से उपरोक्त दोनों केन्द्रों में प्रगति की और भी अधिक संभावना रहती है। सूक्ष्म शरीर के लिए जप और कारण शरीर के लिए ध्यान प्रक्रिया का, अनुभवी साधना विज्ञानियों ने निर्धारण किया है।
जप प्रयोजन के लिए अनेक मत−मतान्तरों के अपने-अपने नियम और निर्धारण है, पर यदि सार्वभौम स्तर पर निरीक्षण-परीक्षण किया जाए, तो गायत्री महामंत्र सार्वजनीन स्तर का बैठता है। उसकी जप-पुनरावृत्ति करने पर व्यक्तियों में संयमित स्तर की प्रतिभा उभरती है, साथ ही अदृश्य वातावरण में भी प्रेरणाप्रद तत्त्वों का बाहुल्य बन पड़ता है। न्यूनतम १०८ मंत्रों की एक माला जप ली जाय, तो अंतराल में ज्ञान जैसी स्फूर्ति का अनुभव होता है। अधिक जिससे जितना बन पड़े, उतना ही अधिक लाभदायक रहेगा। अच्छा तो यही है कि नित्य कर्म से, स्नानादि से निवृत्त होकर शुद्ध स्थान पर बैठकर जल और अग्नि की साक्षी में उसे संपन्न किया जाए। पूजा की चौकी पर छोटा जल कलश और अगरबत्ती जलाकर वातावरण को अधिक अनुकूल बना लिया जाए, पर जिनके लिए ऐसी स्वच्छता अपनाने में कठिनाई पड़ती हो, वे बिना स्नान किए भी मौन मानसिक जप कर सकते हैं। एक माला जपने में प्राय: पाँच मिनट लगते हैं। इतना समय निकालते रहना किन्हीं उत्साही श्रद्धालुओं के लिए कठिन नहीं पड़ना चाहिए। इस प्रयास के आधार पर सूक्ष्म शरीर में पाई जाने वाली चौबीस ग्रंथियाँ जागृत होती है और उस आधार पर गुण, कर्म, स्वभाव का परिष्कार होता है। मेधा निखरती और प्रतिभा उभरती है।
कारण शरीर की गहराई तक पहुँचने के लिए ध्यान-धारणा अपनाने की आवश्यकता पड़ती है। यों कई लोग अपने-अपने इष्ट देवों का भी ध्यान करते हैं। पर आप्त अनुभवी जनों के प्रतिपादन और निजी प्रयोग से यह जाना जा सकता है कि प्रात:कालीन सूर्य का ध्यान सर्वोत्तम है। बन पड़े तो प्रात: के उदीयमान सूर्य के प्रत्यक्ष दर्शन भी किए जा सकते हैं और जल अर्घ्य भी चढ़ाया जा सकता है; पर जिन्हें नियत समय पर किसी बड़ी अड़चन के कारण प्रत्यक्ष दर्शन न बन पड़े, तो वे मानसिक ध्यान भी उसी स्तर का कर सकते हैं।
प्रभात कालीन अरुणाभ सविता का ध्यान-दर्शन करने के साथ-साथ यह धारणा भी करनी चाहिए, कि दिव्य केंद्र से नि:सृत होने वाली किरणें साधक के प्रत्यक्ष शरीर में-सूक्ष्म शरीर मेें और कारण शरीर में प्रवेश क र रही हैं। उन तीनों ही संस्थानों में प्रकाश भर रही है। साथ ही ऊर्जा, उष्णता और आभा स्तर की तेजस्विता का समावेश कर रही है। स्थूल शरीर में ओजस्, सूक्ष्म शरीर में तेजस् और कारण शरीर मेें वर्चस् का उभार आ रहा है। अपने रोम-रोम मेें कण-कण में, सविता की ऊर्जा-आभा ओत-प्रोत हो रही हैं। व्यक्तित्व ओजस्वी, मनस्वी और तपस्वी बन रहा है। सविता और साधक, आग और ईंधन की तरह परस्पर एकीभूत हो रहे हैं। आदान-प्रदान का, समर्पण और अनुग्रह का उपक्रम अनवरत रूप से चल रहा है। यह दैनिक साधना है, यह जिनसे जितनी श्रद्धा और तत्परता के साथ बन पड़े, वे इसे नित्य कर्म के एक अविच्छिन्न अंग के रूप में करते रहेें।
यह युग संधि की वेला है। इक्कीसवीं सदी के आगमन से पूर्व तक बीसवीं सदी चलेगी। यह अंतिम चरण कितनी ही उथल-पुथल से भरा हुआ होगा। इसमें प्रसव पीड़ा जैसी अनुभूति भी हो सकती है और नवजात शिशु के आगमन का उत्साहवर्धक समाचार भी मिल सकता है। जन्म और मरण के आदि और अंत वाले अवसर भी ऐसी ही उथल-पुथल भरे होते है।
रात्रि का समापन और प्रभात का आगमन संध्याकाल कहलाता है। उसमें साधारण क्रिया-प्रक्रिया की अपेक्षा हर किसी को कुछ नये स्तर का क्रिया-कलाप अपनाना पड़ता हैं। युग संधि में भी शान्तिकुञ्ज की एक बारह वर्षीय योजना बनी है। इसमें दस वर्ष बीत चुके। दो वर्ष शेष हैं। इस अवधि में एक आध्यात्मिक सामूहिक महाअनुष्ठान चल रहा है-हर दिन २४ करोड़ गायत्री जप करने का। दूसरों के लिए यह लक्ष्य हिमालय जैसा भारी प्रतीत हो सकता है; पर अपने २४ लाख परिजन यदि एक माला गायत्री जप और सविता के ध्यान में पाँच-दस मिनट लगाते रहेें तो इतने भर से संकल्पित साधना भली प्रकार पूरी होती रहेगी।
प्रचार-विस्तार का क्रम तेजी से चल रहा है। इस साधना की पूर्णाहुतियाँ १९९५ तथा २००० में होंगी, जिनमें न्यूनतम एक करोड़ व्यक्ति सम्मिलित होंगे। इन सबको, इस प्रथम चरण की पूूर्णाहुति करके अगले नये सोपान में और भी अधिक श्रद्धा-संवेदना के , उत्साह एवं साहस के साथ प्रवेश करना होगा। इसलिए दो पूर्णाहुतियों के आयोजन की योजना बनी है। यदि इतने लोगों का एकत्रीकरण एक जगह न बन सका, तो उसे मिशन द्वारा संचालित २४ सौ प्रज्ञा केेंद्रों में विभाजित भी किया जा सकता है। पूर्णाहुति की इस विशालता का लक्ष्य यथावत रहेगा; पर उसे एक या अनेक स्थानों पर संपन्न करने की बात अवसर आने पर परिस्थितियों के अनुरूप ही निश्चित होगी।
सामूहिकता की शक्ति से सभी परिचित हैं। भव्य भवन, असंख्य ईंटों से मिलकर बनते हैं। अनेक धागे मिलकर कपड़ा बनता है। तिनकों को बटकर मजबूत रस्से बनते है। सैनिकों का समुदाय मिलकर समर्थ सेना का रूप धारण करता है। मधुमक्खियाँ मिल-जुलकर ही छत्ता बनाती और शहद जमा करती हैं। देवताओं की संयुक्त शक्ति से देवी दुर्गा का अवतरण संभव हुआ था। ऋषि रक्त से घड़ा भर जाने पर उससे असुर निकंदिनी सीता का उद्भव हुआ था। अणुओं से मिलकर यह दृश्य जगत विनिर्मित हुआ है। नव-युग के अवतरण में भी बुद्ध के परिव्राजकों एवं गाँधी के सत्याग्रहियों जैसा संगठन अभीष्ट होगा।
युग संधि महा पुरश्चरण को, नव युग की ज्ञान गंगा को धरती पर अवतरित करने वाली सम्मिलित स्तर की भगीरथ साधना कहा जा सकता है। उसे लघु से विभु बनाने में मत्स्यावतार जैसी भूमिका भी तो निबाहनी है। इसलिए देव मानवों को एक छत्र-छाया में एकत्रित करना भी अनिवार्य हो गया है। इस संदर्भ में सन् ५८ में एक सहस्र कुंडी गायत्री महायज्ञ का प्रथम प्रयोग गायत्री तपोभूमि, मथुरा में हो चुका है। युग निर्माण योजना की सुविस्तृत रूप-रेखा उसी अवसर पर बनी थी और तब से लेकर अब तक की अवधि में उसने नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्षेत्रों में आश्चर्यजनक समझी जाने वाली क्रिया-प्रक्रिया संपन्न की है। एक जोरदार धक्का भर इंजन देता है, तो डिब्बे उसी ठोकर के कारण दूर तक पटरी पर दौड़ते चले जाते हैं। अभी सन् १९९० से २००० तक प्राय: दस वर्ष में इतनी समर्थता अर्जित कर ली जाएगी कि पूर्णाहुति के रूप में मारी गई जोरदार ठोकर इक्कीसवीं सदी के उज्ज्वल भविष्य का प्रत्यक्ष दर्शन एवं अनुभव करा सके।
जप प्रयोजन के लिए अनेक मत−मतान्तरों के अपने-अपने नियम और निर्धारण है, पर यदि सार्वभौम स्तर पर निरीक्षण-परीक्षण किया जाए, तो गायत्री महामंत्र सार्वजनीन स्तर का बैठता है। उसकी जप-पुनरावृत्ति करने पर व्यक्तियों में संयमित स्तर की प्रतिभा उभरती है, साथ ही अदृश्य वातावरण में भी प्रेरणाप्रद तत्त्वों का बाहुल्य बन पड़ता है। न्यूनतम १०८ मंत्रों की एक माला जप ली जाय, तो अंतराल में ज्ञान जैसी स्फूर्ति का अनुभव होता है। अधिक जिससे जितना बन पड़े, उतना ही अधिक लाभदायक रहेगा। अच्छा तो यही है कि नित्य कर्म से, स्नानादि से निवृत्त होकर शुद्ध स्थान पर बैठकर जल और अग्नि की साक्षी में उसे संपन्न किया जाए। पूजा की चौकी पर छोटा जल कलश और अगरबत्ती जलाकर वातावरण को अधिक अनुकूल बना लिया जाए, पर जिनके लिए ऐसी स्वच्छता अपनाने में कठिनाई पड़ती हो, वे बिना स्नान किए भी मौन मानसिक जप कर सकते हैं। एक माला जपने में प्राय: पाँच मिनट लगते हैं। इतना समय निकालते रहना किन्हीं उत्साही श्रद्धालुओं के लिए कठिन नहीं पड़ना चाहिए। इस प्रयास के आधार पर सूक्ष्म शरीर में पाई जाने वाली चौबीस ग्रंथियाँ जागृत होती है और उस आधार पर गुण, कर्म, स्वभाव का परिष्कार होता है। मेधा निखरती और प्रतिभा उभरती है।
कारण शरीर की गहराई तक पहुँचने के लिए ध्यान-धारणा अपनाने की आवश्यकता पड़ती है। यों कई लोग अपने-अपने इष्ट देवों का भी ध्यान करते हैं। पर आप्त अनुभवी जनों के प्रतिपादन और निजी प्रयोग से यह जाना जा सकता है कि प्रात:कालीन सूर्य का ध्यान सर्वोत्तम है। बन पड़े तो प्रात: के उदीयमान सूर्य के प्रत्यक्ष दर्शन भी किए जा सकते हैं और जल अर्घ्य भी चढ़ाया जा सकता है; पर जिन्हें नियत समय पर किसी बड़ी अड़चन के कारण प्रत्यक्ष दर्शन न बन पड़े, तो वे मानसिक ध्यान भी उसी स्तर का कर सकते हैं।
प्रभात कालीन अरुणाभ सविता का ध्यान-दर्शन करने के साथ-साथ यह धारणा भी करनी चाहिए, कि दिव्य केंद्र से नि:सृत होने वाली किरणें साधक के प्रत्यक्ष शरीर में-सूक्ष्म शरीर मेें और कारण शरीर में प्रवेश क र रही हैं। उन तीनों ही संस्थानों में प्रकाश भर रही है। साथ ही ऊर्जा, उष्णता और आभा स्तर की तेजस्विता का समावेश कर रही है। स्थूल शरीर में ओजस्, सूक्ष्म शरीर में तेजस् और कारण शरीर मेें वर्चस् का उभार आ रहा है। अपने रोम-रोम मेें कण-कण में, सविता की ऊर्जा-आभा ओत-प्रोत हो रही हैं। व्यक्तित्व ओजस्वी, मनस्वी और तपस्वी बन रहा है। सविता और साधक, आग और ईंधन की तरह परस्पर एकीभूत हो रहे हैं। आदान-प्रदान का, समर्पण और अनुग्रह का उपक्रम अनवरत रूप से चल रहा है। यह दैनिक साधना है, यह जिनसे जितनी श्रद्धा और तत्परता के साथ बन पड़े, वे इसे नित्य कर्म के एक अविच्छिन्न अंग के रूप में करते रहेें।
यह युग संधि की वेला है। इक्कीसवीं सदी के आगमन से पूर्व तक बीसवीं सदी चलेगी। यह अंतिम चरण कितनी ही उथल-पुथल से भरा हुआ होगा। इसमें प्रसव पीड़ा जैसी अनुभूति भी हो सकती है और नवजात शिशु के आगमन का उत्साहवर्धक समाचार भी मिल सकता है। जन्म और मरण के आदि और अंत वाले अवसर भी ऐसी ही उथल-पुथल भरे होते है।
रात्रि का समापन और प्रभात का आगमन संध्याकाल कहलाता है। उसमें साधारण क्रिया-प्रक्रिया की अपेक्षा हर किसी को कुछ नये स्तर का क्रिया-कलाप अपनाना पड़ता हैं। युग संधि में भी शान्तिकुञ्ज की एक बारह वर्षीय योजना बनी है। इसमें दस वर्ष बीत चुके। दो वर्ष शेष हैं। इस अवधि में एक आध्यात्मिक सामूहिक महाअनुष्ठान चल रहा है-हर दिन २४ करोड़ गायत्री जप करने का। दूसरों के लिए यह लक्ष्य हिमालय जैसा भारी प्रतीत हो सकता है; पर अपने २४ लाख परिजन यदि एक माला गायत्री जप और सविता के ध्यान में पाँच-दस मिनट लगाते रहेें तो इतने भर से संकल्पित साधना भली प्रकार पूरी होती रहेगी।
प्रचार-विस्तार का क्रम तेजी से चल रहा है। इस साधना की पूर्णाहुतियाँ १९९५ तथा २००० में होंगी, जिनमें न्यूनतम एक करोड़ व्यक्ति सम्मिलित होंगे। इन सबको, इस प्रथम चरण की पूूर्णाहुति करके अगले नये सोपान में और भी अधिक श्रद्धा-संवेदना के , उत्साह एवं साहस के साथ प्रवेश करना होगा। इसलिए दो पूर्णाहुतियों के आयोजन की योजना बनी है। यदि इतने लोगों का एकत्रीकरण एक जगह न बन सका, तो उसे मिशन द्वारा संचालित २४ सौ प्रज्ञा केेंद्रों में विभाजित भी किया जा सकता है। पूर्णाहुति की इस विशालता का लक्ष्य यथावत रहेगा; पर उसे एक या अनेक स्थानों पर संपन्न करने की बात अवसर आने पर परिस्थितियों के अनुरूप ही निश्चित होगी।
सामूहिकता की शक्ति से सभी परिचित हैं। भव्य भवन, असंख्य ईंटों से मिलकर बनते हैं। अनेक धागे मिलकर कपड़ा बनता है। तिनकों को बटकर मजबूत रस्से बनते है। सैनिकों का समुदाय मिलकर समर्थ सेना का रूप धारण करता है। मधुमक्खियाँ मिल-जुलकर ही छत्ता बनाती और शहद जमा करती हैं। देवताओं की संयुक्त शक्ति से देवी दुर्गा का अवतरण संभव हुआ था। ऋषि रक्त से घड़ा भर जाने पर उससे असुर निकंदिनी सीता का उद्भव हुआ था। अणुओं से मिलकर यह दृश्य जगत विनिर्मित हुआ है। नव-युग के अवतरण में भी बुद्ध के परिव्राजकों एवं गाँधी के सत्याग्रहियों जैसा संगठन अभीष्ट होगा।
युग संधि महा पुरश्चरण को, नव युग की ज्ञान गंगा को धरती पर अवतरित करने वाली सम्मिलित स्तर की भगीरथ साधना कहा जा सकता है। उसे लघु से विभु बनाने में मत्स्यावतार जैसी भूमिका भी तो निबाहनी है। इसलिए देव मानवों को एक छत्र-छाया में एकत्रित करना भी अनिवार्य हो गया है। इस संदर्भ में सन् ५८ में एक सहस्र कुंडी गायत्री महायज्ञ का प्रथम प्रयोग गायत्री तपोभूमि, मथुरा में हो चुका है। युग निर्माण योजना की सुविस्तृत रूप-रेखा उसी अवसर पर बनी थी और तब से लेकर अब तक की अवधि में उसने नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्षेत्रों में आश्चर्यजनक समझी जाने वाली क्रिया-प्रक्रिया संपन्न की है। एक जोरदार धक्का भर इंजन देता है, तो डिब्बे उसी ठोकर के कारण दूर तक पटरी पर दौड़ते चले जाते हैं। अभी सन् १९९० से २००० तक प्राय: दस वर्ष में इतनी समर्थता अर्जित कर ली जाएगी कि पूर्णाहुति के रूप में मारी गई जोरदार ठोकर इक्कीसवीं सदी के उज्ज्वल भविष्य का प्रत्यक्ष दर्शन एवं अनुभव करा सके।