Books - उनसे जो पचास के हो चले
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
उनसे—जो पचास के हो चले
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
मानव-जीवन को सुविधा की दृष्टि से दो भागों में बांटा जा सकता है—पूर्वार्द्ध दूसरा उत्तरार्द्ध। यदि सौ वर्ष की आयु मानी जाय तो प्रथम पचास वर्षों को पूर्वार्द्ध और इक्यावन से सौ वर्ष की आयु को उत्तरार्द्ध कहा जा सकता है।
मनीषियों ने इन दो खण्डों को दो कार्यक्रमों में विभक्त किया है। प्रथम पचास वर्ष का समय समाज के सहयोग एवं अनुदान के आधार पर वह अपनी व्यक्तिगत शक्तियों और सुविधाओं को बढ़ाते हुए सुखोपभोग करता है। धन, मान, विनोद, परिवार आदि वैभव प्राप्त करते हुए विभिन्न प्रकार के लाभ एवं आनन्द लेता है। उत्तरार्द्ध में इस ऋण-अनुदान को चुकाता है ताकि उसे इस संसार से ऋणी होकर विदा न होना पड़े। इस जगत में ईश्वर की विधि-व्यवस्था पूर्ण तथा नियमबद्ध है। जो व्यक्ति ऋणी बनकर मरते हैं, वे उस ऋण भार को अगले जन्मों में चुकाते हैं। 84 लाख योनियों में से एक मनुष्य योनि को छोड़कर शेष सभी भोग योनियां हैं। उनमें नया विचारपूर्ण कर्तृत्व सम्भव नहीं। बुद्धि के अभाव में जो विधान उनके साथ जुड़ा हुआ है, उसके अनुसार वे अपनी जिन्दगी के दिन पूरे करते हैं।
मनुष्य जीवन इसलिए नहीं मिला—मनुष्य जीवन सुख-चैन के लिए मौज-मजा करने के लिए नहीं है। इसके साथ अगणित वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, उत्तरदायित्व एवं कर्तव्य जुड़े हुए हैं। प्रधानमन्त्री को ऊंचा वेतन, कोठी, सवारी, नौकर आदि कितनी ही तरह की ऐसी सुविधायें मिलती हैं, जो अन्य सरकारी कर्मचारियों को नहीं मिलतीं, पर विशेष सुविधाओं के साथ-साथ प्रधानमन्त्री पर अनेक उत्तरदायित्व भी होते हैं। यदि वह उन्हें पूरा नहीं करता तो तत्काल पदच्युत कर दिया जाता है और सारे राष्ट्र की घृणा एवं भर्त्सना का भागी बनता है। फौज के ऊंचे अफसर यदि अपना कर्तव्य पालन नहीं करते तो उन्हें कोर्टमार्शल करके मौत के घाट उतार दिया जाता है। मनुष्य को अन्य सभी प्राणियों से अधिक सुविधायें प्राप्त हैं, पर साथ ही उतने ही अधिक कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व भी उसके कन्धे पर हैं। सामाजिक व्यवस्था को सन्तुलित बनाये रखना सभी जीवों की सुख-सुविधा के उपयुक्त वातावरण बनाना, आस-पास की गन्दगी को साफ करना, पिछड़े हुओं को ऊंचा उठाने में सहायता करना, दुःखियों की सहायता करना जैसे अनेक कर्तव्य भी उसके ऊपर हैं। जो बुद्धि, प्रतिभा एवं महत्ता उपलब्ध हुई है, वह खाने, पीने, मौज उड़ाने और अपनी ही संकीर्ण स्वार्थपरता में समाप्त कर देने के लिए नहीं है। यदि प्राप्त उपलब्धियों को आहार, निद्रा, भय, मैथुन में, तृष्णा-वासनाओं में ही खर्च कर दिया जाय तो जो सृष्टि-सन्तुलन के कर्तव्य इसे सौंपे गये थे, वे पूरे नहीं होते और इस उपेक्षा के दण्ड स्वरूप फौजी अफसर के कोर्ट मार्शल जैसी सजा चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने को मिलती है। हर योनि में विविध प्रकार के कष्ट एवं अभाव सहने पड़ते हैं।
कुछ प्राणी ऐसे हैं जो मनुष्य प्राणी से सम्बद्ध हैं और उसी के लिए आजीवन श्रम एवं त्याग करते रहते हैं। गाय, बैल, भैंस, बकरी, घोड़ा, गधा, ऊंट, कुत्ता आदि ऐसे ही जीव हैं, जिन्हें मनुष्य के लिए आजीवन कठोर श्रम करना पड़ता है। यह वही लोग हैं जिन्होंने पिछले जन्मों में मनुष्य होने पर ऋण तो अनेकों का लिया, किन्तु चुकाया नहीं। कर्ज मारकर भाग जाने की इस सृष्टि में कोई सुविधा नहीं। मरने के बाद भी वह वसूल कर लिया जाता है। गधे, घोड़े, बैल, ऊंट आदि को अपना कर्ज चुकाते हुए सारी जिन्दगी व्यतीत करनी पड़ती है। यदि मनुष्य जन्म से ही उनने यह ध्यान रखा होता कि जो ऋण हम ले रहे हैं, उसे चुकाने का भी ध्यान रखें तो उन्हें इन योनियों में जन्मने और इस प्रकार का ऋण चुकाने का कष्ट सहन न करना पड़ता।
ऋण से उऋण हों-ऋण केवल पैसे का ही नहीं होता। श्रम, सहयोग एवं भावनाओं का भी होता है। अन्य प्राणी तो जन्म से कुछ ही समय बाद स्वावलम्बी हो जाते हैं और अपने आप अपनी शारीरिक, मानसिक आवश्यकताएं पूरी करने लगते हैं, पर मनुष्य का बालक बहुत समय तक स्वावलम्बी तो क्या बन सकेगा, दूसरों की सहायता के बिना जीवित भी नहीं रह सकता। माता उसे दूध न पिलाये, मल-मूत्र न धोये, स्नान न कराये, कपड़े न पहिनाये तो उसका जीवित रह सकना संभव नहीं।आरम्भ में तो वह करवट तक नहीं बदल पाता वह भी माता को ही बदलवानी पड़ती है। बड़ा होने पर जब तक अपनी कमाई न करने लगे तब तक उसे पिता की कमाई और माता की पाकशाला पर निर्भर रहना पड़ता है। भोजन, वस्त्र, निवास, मनोरंजन, जेवर, खर्च, फीस, पुस्तकें, दवा-दारू सभी खर्च तो अभिभावक उठाते हैं। क्या बच्चा इसका मूल्य चुकाया करता है? नहीं, यह सब कुछ बिना मूल्य सेवा एवं सहृदयता के उपहार रूप में उसे प्राप्त हुआ। अध्यापकों ने शिक्षा दी, उसकी फीस जरूर देनी पड़ी, पर वह ज्ञान जो मिला, फीस से हजारों गुने अधिक मूल्य का था। शब्दों में उच्चारण से लेकर अक्षरों के लिखने तक को जो परिष्कृत स्वरूप सामने आया, उसमें हजारों वर्षों की, लाखों व्यक्तियों की सूझ-बूझ और श्रम-साधना सम्मिलित है, फिर स्कूल में अक्षर और शब्द ही तो नहीं पढ़ाये जाते, इतिहास, भूगोल, गणित, विज्ञान अनेक विषय सम्मिलित होते हैं, उस ज्ञान की शोध करके वर्तमान स्वरूप तक पहुंचने में सहस्रों लोगों का अनवरत श्रम सम्मिलित है। उसकी कीमत दो-चार रुपया स्कूली फीस के रूप से नहीं चुकाई जा सकती। बेशक पुस्तकें पैसे के बदले में खरीदी गई हैं, पर वह कीमत कागज, छपाई तथा मुद्रक, प्रकाशक एवं विक्रेता के श्रम की है। जो कुछ पुस्तकों में लिखा गया है, उस जानकारी के लिए अपना जीवन खपाने वालों का तो अपने ऊपर अनन्त उपकार का बोझ बना ही रहा।
विवाह हुआ, धर्मपत्नी आई। उसकी सेवा, सहायता, सद्भावना, आत्म–समर्पण का मूल्य क्या रोटी-कपड़े के रूप में ही चुक जायगा? शरीर निर्वाह की व्यवस्था तो केवल ब्याज मात्र है, पत्नी का आत्मदान तो ऋण रूप में अपने ऊपर लदा ही रहा। व्यापार किया, लाभ हुआ, पर वह लाभ तो ग्राहकों के सहयोग से ही सम्भव हुआ। यदि वे असहयोग करते, आपकी दुकान पर खरीद करने न आते तो लाभ कहां से होता? नौकरी में तरक्की हुई, वेतन बढ़ा तो इसमें अफसरों, साथियों एवं जिनने अपने से सन्तोष पूर्वक सेवा स्वीकार की उन सबका भी तो सहयोग है। यदि वे सभी रुष्ट हो गये होते, तो वेतन बढ़ना तो दूर, नौकरी बनी रहना भी कठिन हो जाता। बीमारी के समय जिन चिकित्सकों ने उपचार किया और मृत्यु तक के खतरे को टाल दिया, उनके उपकार का मूल्य दवा की कीमत आदि के रूप में नहीं चुकाया जा सकता। वह तो औषधियों में पड़े सामान तथा बनाने वाले, बेचने वाले के परिश्रम का मूल्य है। जिस प्रयत्न और अध्यवसाय द्वारा चिकित्सा शास्त्र का निर्माण हुआ, औषधियों में पड़ने वाले पदार्थों में वनस्पतियों के गुण-दोष की खोज हुई और सांगोपांग चिकित्सा पद्धति का ढांचा बनकर खड़ा हुआ, उसमें लगे हुए अगणित अन्वेषकों के अध्यवसाय का मूल्य कौन चुकायेगा?
यह सब उपकार ही उपकार हैं, जितने भी सुख-सुविधा के साधन हमें उपलब्ध हैं उनमें से एक-एक को बताने में चिर अतीत से अगणित लोगों का श्रम लगता रहा है और अब भी लाखों-करोड़ों व्यक्तियों का श्रम लग रहा है। यदि ऐसा न हुआ तो एकाकी मनुष्य समस्त साधन सुविधाओं से वंचित रहकर आजन्म वन्य पशुओं की तरह किसी प्रकार जिन्दगी के दिन पूरे कर रहा होता।
अगणित व्यक्तियों के अगणित उपकार — अपने उपयोग में आने वाली एक छोटी-सी वस्तु को लीजिए और देखिए कि उसे वर्तमान रूप में पहुंचने में कितने लोगों का श्रम लगा है। एक छोटे से रूमाल को लीजिए, वह कहां से आया, कैसे बना, इस प्रकार गम्भीरतापूर्वक विचार कीजिए। किसान ने खेत में कपास बोई, उससे रुई बनी, सूत कता, कपड़ा बुना, दुकान पर आया, आपने खरीदा, मोटी दृष्टि से उतने ही लोगों का श्रम-सहयोग उसमें लगा है, पर बारीकी से देखा जाय तो इस छोटी-सी प्रक्रिया में ही अगणित लोगों का ज्ञान, श्रम-सहयोग, अध्यवसाय एवं सद्भाव सम्मिलित मिलेगा। किसान ने जिस हल से खेत जोता उसे बनाने में लुहार और बढ़ई का श्रम लगा, जो लोहा उसमें लगा वह लोहे की खान में से निकलने के बाद गला, ढला एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाया गया। खान से लोहा निकालने और उसे साफ करने में बड़ी मशीनों के बनाने में अनेकों कारीगरों, इंजीनियरों का सहयोग मिला। इंजीनियरों ने यह चन्द पुस्तकों से पढ़ा। वे पुस्तकें प्रेस में छपीं, प्रेस और कागज बनाने में फिर अनेकों का श्रम एवं ज्ञान लगा। पुस्तकें, मशीनें आदि इधर से उधर लाने ले जाने में रेल, मोटर आदि वाहनों का उपयोग हुआ। इन वाहनों में छोटी-बड़ी असंख्यों वस्तुएं लगीं और उनके बनाने, उपयोग करने से कितनों को ही बहुत कुछ करना पड़ा। इतनी लम्बी बेल तो अकेले हल की फेल रही है। उस रूमाल के बनाने में हल के अतिरिक्त रुई उत्पन्न होने से लेकर कपड़ा बुने जाने और खरीदे जाने तक जो-जो काम हुए हैं, उन सबकी यदि ऐसी ही बेल फैलाई जाय तो पता चलेगा कि प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से करोड़ों व्यक्तियों का सहयोग किसी न किसी रूप से रूमाल में लग चुका है। रूमाल जैसी ढेरों चीजें हमारे दैनिक उपयोग में आती हैं। साबुन, शीशा, कंघी, तेल, मंजन, रुई, दियासलाई जैसी छोटी-छोटी चीजों के बनाने में समाज के कितने लोग सहयोगी रहे हैं। फिर जीवन की पूरी गतिविधियों और आवश्यकताओं से सम्बन्धित वस्तुओं एवं व्यक्ति के सहयोग सम्बन्धी विचार किया जाय तब तो स्पष्टतः संसार के अधिकांश मनुष्यों का ही नहीं पशु-पक्षियों एवं वृक्षों का भी असाधारण उपकार जुड़ा हुआ मिलेगा।
तात्पर्य है कि मनुष्य की बुद्धिमत्ता एवं प्रगति इस बात पर निर्भर है कि उसे दूसरों का कितना अधिक सहयोग मिला। भेड़िये ने आगरा जिले के खन्दोली गांव के पास एक मनुष्य के बच्चे को उठा लिया और खाने के स्थान पर उसे पाल लिया। शिकारियों द्वारा उस भेड़िये को मारकर यह मनुष्य का आठ वर्षीय बालक पकड़ा गया तो उसकी बोलने, खाने, चलने आदि की सारी चेष्टायें भेड़ियों जैसी ही थी, बच्चे को लखनऊ मेडिकल कॉलेज में रखा गया, उसका नाम राजू था। उसे मनुष्य की तरह रहने, खाने की शिक्षा 8 वर्षों से दी जाती रही, पर वह अपने जंगली संस्कार नहीं छोड़ पाया। उससे प्रकट होता है कि यदि मनुष्य को दूसरों के सहयोग से वंचित रहना पड़े तो वह वन्य पशुओं से भी गया-गुजरा अशक्त-असमर्थ ही बना रहे। उसकी बुद्धिमत्ता का विकास तो सहयोग प्रवृत्ति के कारण हुआ है। परस्पर मिल-जुलकर रहने और एक-दूसरे की सेवा-सहायता करने से ही मनुष्य की अब तक की सारी प्रगति सम्भव हुई।
सहयोग से ही प्रगति सम्भव — मनुष्य पग-पग पर दूसरों से उपकृत होता है। जो जितना सुखी, समृद्ध एवं प्रसन्न है, समझना चाहिए कि उसे दूसरों के उपकार का उतना ही अधिक लाभ मिला है। यह सहयोग जिसे जितना कम मिलता है, वह उतना ही निराश चिन्तित, दुखी, असफल एवं अस्वस्थ पाया जाता है। जिसके परिवारी असहयोग रखे रहे होंगे, स्त्री का विरोध, पुत्रों की अवज्ञा, भाइयों का द्वेष चल रहा हो तो उस घर में रहते हुए क्या सुख मिलेगा? जिसके स्वजन सम्बन्धी स्नेह की वर्षा करते हैं, उसे आर्थिक या शारीरिक कठिनाई रहते हुए भी जीवन-यापन करना भार नहीं लगता। प्रेम के आनन्द का बखान करते-करते कभी थकते नहीं, शास्त्रों में प्रेम को परमेश्वर का रूप बताया गया है। यह प्रेम पारस्परिक सहयोग का शारीरिक एवं मानसिक समीपता का ही दूसरा नाम है। जो जिसे प्रेम करता है, उसे उसके उपकार एवं सहयोग की ही बात निरन्तर सोचते रहना पड़ता है और यह भाव जहां प्रेमी को लाभ पहुंचाता है, वहां प्रेम करने वाले को भी कोई दोष प्रदान नहीं करता।
जिसने इस संसार में जितना सुख पाया है, समझना चाहिए कि उसे दूसरों का उतना ही सहयोग मिला है। यह ठीक है कि उस सहयोग की अपने में पात्रता होनी चाहिए अन्यथा कुपात्रता से खिन्न होकर उदार व्यक्ति भी अनुदार और सहयोगी भी द्वेषी बन जायेंगे। फिर भी पात्रता अपने आप में अपूर्ण है। सामने वालों का सद्भाव भी उसमें समन्वित होना चाहिए। हम जितनी प्रगति कर पाते हैं, उसके मूल में किसका कितना सहयोग रहा है इस पर उदार दृष्टि से विचार करें तो यही प्रतीत होगा कि अगणित व्यक्तियों की विभिन्न प्रकार की सज्जनता, सद्भावना एवं उदारता के फलस्वरूप ही अधिक सुखी एवं सन्तुष्ट रहने का अवसर मिला।
उत्तरार्द्ध का श्रेष्ठता में सदुपयोग — जीवन का पूर्वार्द्ध प्रायः इसी प्रकार व्यतीत होता है, जिसमें व्यक्तिगत सफलताओं एवं सुखोपभोग का बाहुल्य रहता है। विद्या पढ़ने से लेकर विवाह होने और धन कमाने से लेकर सन्तान सुख तक जितने प्रकार की उपलब्धियां हैं, वे प्रायः इस पूर्वार्द्ध में अधिकाधिक मात्रा में मिल लेती हैं। अस्तु सहयोगियों का ऋण भी अधिकाधिक चढ़ जाता है। इन उपकारों का ऋण चुकाने के लिए जीवन का उत्तरार्द्ध निर्धारित किया गया है। अब तक लोगों का उपकार अधिक मिला और उसका बदला कम चुकाया गया था। अब उत्तरार्द्ध में यह क्रम बनाना है कि उपकार किया अधिक जाय, लिया कम जाय। हिसाब तभी तो बराबर होगा अन्यथा जीवन के अन्त तक यदि दूसरों की उदारता का लाभ ही अधिकाधिक मात्रा में लेते रहा गया, बदला न चुका तो ऋण इतना अधिक चढ़ जायगा कि शरीर त्यागने का अवसर आने तक उसका भार असहनीय दिखाई देने लगेगा।
सृष्टि के समस्त प्राणियों की अपेक्षा अधिक उत्कृष्ट मानव-जीवन हमें ईश्वर ने इसलिए प्रदान किया है कि उसमें सन्निहित अगणित श्रेष्ठ सामर्थ्यों को इस प्रकार खर्च किया जाय कि इस संसार को अधिकाधिक सुख, शान्तिमय श्रेष्ठ एवं सुन्दर बनाने के ईश्वरीय प्रयोजन में सहायता मिल सके। यदि ऐसा न होता तो मनुष्य को ही ऐसे दिव्य-जीवन का लाभ क्यों देता? अन्य प्राणियों को इन विशेषताओं से वंचित क्यों रखता? किसी की अच्छी किसी की बुरी परिस्थितियों वाला शरीर देने में यों ईश्वर का पक्षपात दीखता है, पर वस्तुस्थिति यह है कि ऐसा उसने विशेष प्रयोजन के लिए ही किया है। उसने आशा रखी है और कामना की है कि मानव-प्राणी इन अतिरिक्त उपलब्धियों का सृष्टि-सन्तुलन की व्यवस्था में सहयोगी बनकर सदुपयोग करेगा, पर जब मनुष्य उस निर्धारित कर्तव्य की ओर से मुंह मोड़कर खड़ा हो जाता है और दूसरों से अधिकाधिक सहयोग बटोरता हुआ अपने व्यक्तिगत लाभ का उपार्जन करता रहता है, तो ईश्वर को निराशा ही होती है। उसकी दृष्टि में मनुष्य कर्तव्य त्यागने के पाप का अपराधी ही ठहरता है।
स्वार्थी जीवन बिताना आध्यात्मिक दृष्टि से एक अपराध है। सामाजिक दृष्टि से ऋण बटोरने और कर्जदार बनने जैसा अनैतिक है। दोनों ही दृष्टि से जो पापी-अपराधी बनता चला जाता है, वह आगे फिर मनुष्य-जन्म न पा सकेगा। उसे निकृष्ट कष्टदायक योनियों में भ्रमण करना पड़ेगा। कानून तोड़ने वाले और दूसरों के साथ अन्याय बरतने वाले अपराधी न्यायालय से दण्ड पाते हैं और जेलखाने की कठोर यातनायें भुगतते हैं। इसी प्रकार वे व्यक्ति, जिनने सारा जीवन स्वार्थपरता में गंवा दिया, मनुष्य-शरीर त्यागते ही कीट-पतंगों जैसी योनियों में चले जाते हैं और अभावग्रस्त कष्ट साध्य जीवन व्यतीत करते हैं गधा, घोड़ा, ऊंट, बैल, कुत्ता आदि बनकर उनका ऋण चुकाते हैं जिनका सहयोग लिया तो बहुत कुछ था, पर बदला चुकाने से कतराते रहे थे। मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र होने से ऋण समेटने की चतुरता करने और बदला चुकाने में आनाकानी कर जाने को स्वतंत्र हैं, पर उस कुटिलता के दण्ड से बच नहीं सकता। ईश्वर की इस सुव्यवस्थित सृष्टि में न्याय की, कर्मफल की समुचित व्यवस्था विद्यमान है। यहां कोई चालाक धूर्तता के आधार पर मनमानी नहीं कर सकता। आज के दुष्कर्मों का फल, कल तो उसे भोगना ही होता है। आज अपनी बारी है तो स्वार्थपरता बुद्धिमानी जैसी लगती है, पर कल जब न्याय का पलड़ा ऊपर होगा और अपने को नारकीय यन्त्रणायें सहने को विवश होना पड़ेगा तो आज जिसे चतुरता समझकर गर्व किया जाता है, कल वही परले सिरे की मूर्खता प्रतीत होगी।
श्रेष्ठ परम्परा का पालन करें — इस दुखद स्थिति से मानव-प्राणी को बचाये रहने के लिए शास्त्रकारों ने मानव-जीवन का क्रम-विभाजन इस सुन्दर-ढंग से किया है कि मनुष्य जन्म का आनन्द भी परिपूर्ण मात्रा में मिलता रहे और ईश्वरीय प्रयोजन की उपेक्षा करने एवं ऋण भार से लदकर भविष्य को अन्धकारमय बनाने का अवसर भी न आये। यह व्यवस्था पूर्वार्द्ध-उत्तरार्द्ध के विशेष कार्यक्रमों के रूप में हमारे सामने है। चार आश्रमों में ब्रह्मचर्याश्रम और गृहस्थाश्रम जन सहयोग का लाभ लेकर अधिक सशक्त बनने और उपलब्धियों का भौतिक आनन्द लेने के लिए हैं। यद्यपि इनमें भी साथ-साथ प्रत्युपकार करते रहने का विधान है, पर उत्तरार्द्ध को तो ऋण चुकाने के परमार्थ में लगाना ही आवश्यक माना जाता है। यदि सौ वर्ष की आयु मानी जाती है तो पचास वर्ष बाद उत्तरार्द्ध प्रारम्भ हो जाता है। यद्यपि आजकल सौ वर्ष कोई विरला ही जीता है, बहुधा सत्तर-अस्सी तक भी कम ही पहुंच पाते हैं। इस दृष्टि से तो उत्तरार्द्ध और भी जल्दी, चालीस से ही आरंभ हो जाना चाहिए, पर चूंकि पूर्वकालीन व्यवस्था को भी अपने लाभ की दृष्टि से ठीक माना जाय तो भी पचास वर्ष के बाद आरम्भ होने वाला जीवन काल ऋण चुकाने की दृष्टि से किए जाने के लिए है। इसी अवधि में वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम आते हैं। उनकी उपयोगिता एवं आवश्यकता भी वैसी ही है, जैसे जीवन के पूर्वार्द्ध में विद्या पढ़ने, विवाह करने और पैसा कमाने की।
देखा जाता है कि जो विद्या नहीं पढ़ते, गृहस्थ नहीं जमा पाते या रोटी नहीं कमा पाते उनसे लोग घृणा करते हैं और उसे असफल मानते हैं किन्तु आश्चर्य यह है कि उत्तरार्द्ध के लिए जो जीवन-क्रम निर्धारित है उसकी उपेक्षा करने वालों को घृणा एवं तिरस्कार की दृष्टि से नहीं देखा जाता। होना यही चाहिए कि जिस प्रकार स्कूल जाने से कतराने वाले किशोर को हर कोई धमकाता है और रोटी न कमाने वाले प्रौढ़ की आवारागर्दी की भर्त्सना करता है, उसी प्रकार पचास वर्ष का हो जाने पर भी वानप्रस्थ ग्रहण न करने और समाज का ऋण चुकाने में तत्पर न होने का प्रमाद बरतता है उसकी भी सर्वत्र निन्दा एवं भर्त्सना की जाय। यह अवसर होते हुए भी जो ऋण नहीं चुकाता कर्ज मारकर भागने की नीयत रखता है वह अनैतिकता अपनाने वाला व्यक्ति लोगों की दृष्टि में गिरा हुआ रहता है, उसी प्रकार पचास वर्ष का होने पर भी सेवा-धर्म को अपनाने के वानप्रस्थ कर्तव्य को जो शिरोधार्य नहीं करता, वह लोक-निन्दा, सामूहिक घृणा एवं सामाजिक तिरस्कार का भागी होना चाहिए। अच्छा हो ऐसे लोगों को एक सामाजिक अपराधी घोषित कर उनका तिरस्कारपूर्ण बहिष्कार आरम्भ कर दिया जाय। बिरादरियों की पंचायतें किसी जातीय नियम तोड़ने वाले को जाति बाहर कराने आदि के दण्ड दिया करती हैं। क्या यह अच्छा होता उन लोगों को भी ऐसा ही दण्ड मिलता जो गृहस्थ के संचालन भार से मुक्त होने पर भी वासना, तृष्णा की सड़ी हुई कीचड़ में कुल-बुलाने वाले कीड़े बने रहना चाहते हैं।
जीवन का समुचित विभाजन — भारतीय धर्म में आश्रम व्यवस्था का महत्वपूर्ण स्थान है। जीवन को चार भागों में बहुत सोच-समझकर दूरदर्शितापूर्ण सूझबूझ के साथ विभाजित किया गया। प्रथम चौथाई जीवन यदि विद्या प्राप्ति, स्वास्थ्य संवर्धन, अनुभव, संचय, सद्गुणों के अनुशीलन में न लगाया जाय तो जीवन की इमारत किस पर खड़ी होगी? नींव ही मजबूत न होगी तो दीवार का अस्तित्व कब तक रहेगा? चौथाई आयु जीवन की नींव भरने में, अध्ययन आदि में लगाने के बाद एक चौथाई आयु परिवार संस्था के संचालन में व्यतीत की जानी चाहिए ताकि संसार की भौतिक प्रगति एवं समृद्धि का व्यवस्था क्रम यथावत् चलता रहे। उपयोगी परिवार संस्था का तारतम्य न टूटे। भावी पीढ़ियों का निर्माण होता विधिवत् रहे और इन्द्रियजन्य तथा कामना जन्य भौतिक आकांक्षाएं भी तृप्त होती रहें। यह प्रयोजन गृहस्थ से ही पूरे होते हैं। अब दान-पुण्य का नम्बर आया, जैसे ही बड़ी संतान गृहस्थ का बोझ सम्भालने लायक हो जाय, वैसे ही उसके ऊपर पारिवारिक उत्तरदायित्वों को धीरे-धीरे सौंपते रहना चाहिए और अपनी उंगली पत्थर के नीचे से निकालते चलना चाहिए। विश्वास हो जाय कि बड़े बच्चे ने घर संभाल लिया तो फिर प्रायः सारा ही समय सामाजिक ऋण चुकाने में लग जाना चाहिए। यही वानप्रस्थ का प्रयोजन है।
मनुष्य जाति की नैतिक, मानसिक, सामाजिक प्रगति की पूरी सम्भावना वानप्रस्थ आश्रम पर निर्भर है। समाज का आध्यात्मिक एवं धार्मिक विकास इसी आश्रम की सफलता एवं सुव्यवस्था पर टिका हुआ है। लोक शिक्षण के लिए अनुभवी, चरित्रवान एवं निःस्वार्थ कार्यकर्त्ता चाहिए। वे कहां से मिलें? अल्प आयु के नव-युवकों में उत्साह एवं शारीरिक चेतना तो होती है, पर अन्य कई त्रुटियां उनमें रहती हैं। अतृप्त इच्छाएं उन्हें काम और लोभ की ओर खींच ले जाती हैं, फलतः कितने ही लोकसेवी नवयुवक इस फिसलन में अपना चरित्र खोते देखे गये हैं। यह कमी राजनीति के नेतृत्व में तो किसी प्रकार खप सकती है, पर सामाजिक एवं नैतिक क्षेत्र में सेवा-कार्य, नेतृत्व कराने वाले के लिए उसकी मौत का कारण बन जाती हैं। फिर नई उम्र के कार्यकर्त्ता पर यदि गृहस्थ की जिम्मेदारियां लदी होंगी तो उसे वेतन लेना पड़ेगा। वेतन-भोगी कार्यकर्त्ता अपना सम्मान खो बैठते हैं, जिसका सम्मान नहीं उसका प्रभाव भी कहां पड़ता है? इसलिए नई आयु के सामाजिक कार्यकर्त्ता अपने दैनिक जीवन में थोड़ा समय निकाल कर सामाजिक कार्यों में थोड़ा योगदान तो दे सकते हैं, पर पूरा समय लगा सकना उन्हीं के लिए सम्भव होता है, जो आर्थिक दृष्टि से आत्म-निर्भर हैं और पारिवारिक जिम्मेदारियां बड़े लड़के के कन्धों पर चले जाने से अवकाश भी जिनके पास है। ऐसे लोग ही पूरे मन और पूरे श्रम के साथ सार्वजनिक प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में जुट सकते हैं। वानप्रस्थ इसी आवश्यकता को पूर्ण करता है।
धार्मिक नेतृत्व का उत्तरदायित्व — जन समाज की सद्भावना एवं सत्प्रवृत्तियों को जागृत रखने के लिए जिन उज्ज्वल व्यक्तियों का नेतृत्व एवं कर्तृत्व आवश्यक है, वे प्रायः वानप्रस्थ आश्रम में से ही मिलते हैं। वे न मिलें तो सार्वजनिक एवं सामूहिक रचनात्मक प्रयत्नों का गतिशील रहना कठिन हो जाय। अवकाश, अनुभव, सद्भाव और सत्प्रयोजनों के सम्मिश्रण से वानप्रस्थ जन जागरण की महती आवश्यकता को पूर्ण करता है और प्राचीन काल में समस्त शिक्षण संस्थाओं को वानप्रस्थ लोग ही चलाते थे, कथा-प्रवचनों के माध्यम से लोक मानस को सुसन्तुलित रखते थे, रचनात्मक प्रवृत्तियों का संचालन करते थे। सम्मेलन-सत्र, धर्मानुष्ठान एवं विचार गोष्ठियों की व्यवस्था करते एवं घर-घर जाकर सन्मार्ग का पथ-प्रदर्शन करते थे। जहां भी अनीति व्यवस्था एवं अविद्या को पनपते देखते वहां उसका विरोध करने डट जाते थे। इस प्रकार साधु-ब्राह्मणों की एक बड़ी आवश्यकता यही आश्रम पूरी करता था। समाज को तपे हुए अनुभवी और निस्वार्थ पथ-प्रदर्शक प्रदान करते थे। इस प्रकार साधु-ब्राह्मणों की एक बड़ी आवश्यकता यही आश्रम पूरी करता था। समाज को तपे हुए, अनुभवी और निस्वार्थ पथ-प्रदर्शक प्रचुर मात्रा में मिलते रहते थे। उसी दशा में उसका सबल, समृद्ध, सुसंस्कृत एवं सुविकसित रहना स्वाभाविक ही था। भारतीय समाज की संसार भर में जो श्रेष्ठता मानी जाती रही है, उसमें वानप्रस्थों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। ब्राह्मणों के दो वर्ग हैं—एक जन्मजन्य दूसरे कर्मजन्य। जन्मजन्य ब्राह्मणों में समुचित संस्कार के अभाव में दोष रह सकते हैं, पर जिसने ढलती आयु में, संसार के अनुभवों से तृप्त होकर लोक-मंगल के लिए अपना जीवन समर्पित किया है, उसके फिसलने की संभावना कम ही रहती है। अनुभवी और क्रमबद्ध वानप्रस्थ, फिर वे किसी भी वर्ण में क्यों न जन्मे हों, एक सच्चे ब्राह्मण, एक सच्चे साधु की ही आवश्यकता पूर्ण करते हैं। कर्मजन्य ब्राह्मणों की उपयोगिता और भी अधिक असंदिग्ध रहती है। ऐसे देवपुरुष जिस देश में बढ़ेंगे उसका सब प्रकार कल्याण ही कल्याण होगा।
आज की परिस्थितियों में ऐसे लोक-नेताओं की अत्यधिक आवश्यकता है। गन्दगी ज्यादा फैली हो तो सफाई करने वाले भी अधिक ही चाहिए। संक्रामक बीमारियों का प्रकोप हो रहा हो, तो चिकित्सक एवं परिचर्याकर्त्ताओं की भी आवश्यकता बहुत होगी। भयंकर अग्निकाण्ड का दावानल धधक रहा हो तो उसे बुझाने वाले स्वयं सेवक भी अधिक चाहिए। शत्रुओं की प्रबल सेना का मुकाबला करने के लिए रक्षाबल की संख्या भी अधिक ही होनी चाहिए। इन दिनों ऐसी ही परिस्थितियां हैं। नैतिक-सामाजिक, आर्थिक-बौद्धिक, शारीरिक-मानसिक हर दृष्टि से अपना देश पिछड़ गया है। उसे संभालने, सुधारने एवं उठाने के लिए सबल, समर्थ एवं प्रतिभा सम्पन्न वानप्रस्थों की जितनी अधिक आवश्यकता है उतनी और किसी की नहीं। समाज को खोखला करने में लगी हुई कुरीतियों, अन्ध-परम्पराओं, मूढ़-मान्यताओं एवं अनैतिक आकांक्षाओं से तेजस्वी वानप्रस्थों के अतिरिक्त और कौन लड़ेगा? असंगठित, अवसादग्रस्त, गुण-कर्म-स्वभाव की मलीनता से आक्रान्त जनता का उद्धार कौन करेगा? अकर्मण्यता, विलासिता और भौतिकता की मूर्छा में पड़े हुए इस राष्ट्र-लक्ष्मण को संजीवन बूटी लाकर वानप्रस्थ हनुमान के बिना और कौन पुनर्जीवित करेगा। आज आड़े समय में मातृभूमि की पुकार योगी एवं वानप्रस्थों के लिए है, आगे बढ़कर आयें और अपनी जिम्मेदारियां संभालें तो कायाकल्प होते देर न लगे। आज के दुर्दिन कल ही स्वर्णिम सौभाग्य के रूप में परिणत होते हुए दृष्टिगोचर होने लगें।
सम्मिलित परिवार का स्वर्णिम सूत्र — सम्मिलित परिवारों की सुन्दर सुव्यवस्थित परम्परा तब चले जब वानप्रस्थ ग्रहण करने के लिए जन-साधारण में उत्साह पैदा हो। बड़े लड़के अपनी बहिन-भाइयों को भी अपने कर्तव्य, उत्तरदायित्व में सम्मिलित रखें तो आज जो आपापूती की संकीर्णता घर करती जा रही है, वह न पनपे। आज तो परिवार में जो भी कमाऊ होता जाता है, अपनी पत्नी को लेकर अलग ही बैठता है, जो कमाता है अपने और अपनी पत्नी के शौक-मौज में ही लगाता है। बहिन-भाइयों, माता-पिता आदि की चिन्ता ही नहीं करता। वह जानता है कि बूढ़ा बाप किसी तरह घर की गाड़ी धकेलता रहेगा। हम क्यों इस झंझट में पड़ें, पर जब उसे यह विदित होगा कि पिताजी अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिए वानप्रस्थ लेंगे और उसे परिवार का उत्तरदायित्व संभावना होगा, तो वह दूसरी बात सोचेगा और लोक निन्दा से बचने के लिए उदार दृष्टिकोण अपनावेगा। यही वृत्ति अन्य लड़कों में भी पनपेगी। दूसरा लड़का बड़ा होगा तो वह भी बड़े भाई का अनुकरण करेगा और छोटे भाई-बहिनों के विकास-निर्माण में हाथ बंटायेगा। इस प्रकार परिवारों में उदार-परम्परा बनी रहेगी। उन बच्चों के बच्चे भी इसी प्रकार सोचेंगे और करेंगे। आज तो बाप को भी जब बुढ़ापे तक तृष्णा-वासना से छुटकारा नहीं तो बेटे भी उसका अनुकरण क्यों न करेंगे? वर्तमान परम्परा के अनुसार छोटे बच्चों की व्यवस्था पूरी करने तक पिता को गृहस्थ ही संभालते रहना पड़ता है। जब वानप्रस्थ की बात ध्यान में होगी तो कम बच्चे पैदा करने और उनकी जिम्मेदारियों से जल्दी निवृत्त होने की बात भी सोचेगा। बुढ़ापे में सन्तान पैदा न करेगा। यह बात मन में रहे तो समाज का अनेक दृष्टियों में हित-साधन ही होगा। परिवारों में उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता का वातावरण रहने लगेगा। बुढ़ापे तक सन्तानोत्पादन की प्रक्रिया जारी रहने पर बच्चे अशक्त उत्पन्न होते हैं और ढलती आयु के लोगों का शरीर भी ब्रह्मचर्य के अभाव से जर्जर एवं अनेक रोगों से ग्रसित बना रहता है। यदि ब्रह्मचर्य मिश्रित वानप्रस्थ का उपक्रम फिर पूर्ववत् चल पड़े तो ब्रह्मचर्य से होने वाले लाभों का प्रतिफल स्त्रियों, पुरुषों, बच्चों सभी को मिले और दुर्बलता एवं रुग्णता का वातावरण सबलता एवं सार्थकता में परिणत होने लगे।
आज की परिस्थिति का आदर्श-संन्यास-वानप्रस्थ परम्परा पहले घर छोड़कर वन में रहने की भले ही रही हो, पर आज की परिस्थितियों में वैसी ही आवश्यकता नहीं रही। न तो अब प्राचीनकाल जैसे वन रहे न उनमें ऐसे कन्द-मूल फल होते हैं, जिनसे हर ऋतु में आनन्दपूर्वक गुजारा हो सके। जंगलों में रहने वाले साधु लोग भी अन्नाहार ही करते हैं और वह भी उन्हें गृहस्थों से ही जुटाना पड़ता है। आज लोगों की कमाई शुद्ध नहीं रही। अनीतिपूर्वक कमाया हुआ अन्न खाकर कोई व्यक्ति अपनी प्रवृत्तियां सावधान नहीं रख सकता। भिक्षा जीवी सन्त-महात्माओं को आलस्य एवं अवसाद घेरे रहता है, मन में कुमार्ग दौड़ता है, भजन में मन नहीं लगता क्योंकि जिस दान से उनका रक्त और मन बनता है, वह सात्विक नहीं होता। अन्यायोपार्जित धन जहां जाता है, वहीं गड़बड़ी फैलाता है। इसलिए अब न साधु को, न वानप्रस्थ को, किसी को भी जहां तक संभव हो भिक्षा-जीवी नहीं होना चाहिए। जिन्हें आजीविका की हानि से पूर्ण स्वावलम्बन प्राप्त नहीं है, आधा समय उपार्जन के लिए और आधा समय लोक सेवा के लिए लगाकर भी इस व्रत का पालन कर सकते हैं। रोटी, कपड़े का प्रबन्ध घर में रखना चाहिए। इसके बदले दोपहर तक आधा दिन परिवार की देखभाल की व्यवस्था में लगाना चाहिए। वैसे भी जिस घर में रहना होता है, उसकी व्यवस्था की देखभाल करना, मार्ग-दर्शन करना, परामर्श देना और संभालना-सुधारना मानवोचित कर्तव्य है। जब दूसरों के सुधारने एवं सेवा करने का कार्यक्रम बनाया है तो अपने घर वालों को उस सेवा-लाभ से विमुख क्यों रखा जाय? घर छोड़ने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है। इसी घर में रहना चाहिए, हां मोह-ममता, के बन्धन तोड़ देने चाहिए। अपने घर वालों को भी जनता मात्र मानकर इसकी यथोचित सेवा करते रहना चाहिए।
यह मोह-बन्ध शिथिल करने इसलिए आवश्यक है कि आत्मीय की छोटी सीमा का बन्धन तोड़कर व्यापक क्षेत्र में विस्तृत हो सके और सेवा धर्म पूरे मनोयोग के साथ पालन किया जाता रहे। अगले जन्मों की उत्तम गति भी मोह बन्धन तोड़ने से ही होती है, अन्यथा जीव लौटकर फिर घर के ही समीप अपनी वासना के द्वारा खिंचा चला आता है। मोहग्रस्त की मुक्ति नहीं हो सकती। सीमित दायरे में अपने को बांधे रखने वाला असीमितता का, आध्यात्मिकता का आनन्द नहीं ले सकता। अतएव वानप्रस्थ को ममता-त्याग के लिए कहा गया है। घर की एक कोठरी अलग से अपने लिए ले लेनी चाहिए या खेत, बगीचे में एक झोंपड़ी बनाकर रहने लगना चाहिए। अकेला रहना, अपनी कोठरी को ही अपना एकान्त तपोवन मान लेना वानप्रस्थ आश्रम के उपयुक्त है। पत्नी का यदि बच्चों में लगाव हो तो उसका इन्हीं के साथ रहना उचित है, पर यदि वह भी आत्म-कल्याण के लिए लोकसेवा का व्रत धारण करे तो दो साथी साधुओं की तरह वह भी पति के साथ रह सकती है। पत्नी को त्यागने की आवश्यकता नहीं है, पर शरीर-आसक्ति को त्याग देना चाहिए। उसे स्वामी नहीं वरन् छोटा भाई मानना चाहिए।
***
मनीषियों ने इन दो खण्डों को दो कार्यक्रमों में विभक्त किया है। प्रथम पचास वर्ष का समय समाज के सहयोग एवं अनुदान के आधार पर वह अपनी व्यक्तिगत शक्तियों और सुविधाओं को बढ़ाते हुए सुखोपभोग करता है। धन, मान, विनोद, परिवार आदि वैभव प्राप्त करते हुए विभिन्न प्रकार के लाभ एवं आनन्द लेता है। उत्तरार्द्ध में इस ऋण-अनुदान को चुकाता है ताकि उसे इस संसार से ऋणी होकर विदा न होना पड़े। इस जगत में ईश्वर की विधि-व्यवस्था पूर्ण तथा नियमबद्ध है। जो व्यक्ति ऋणी बनकर मरते हैं, वे उस ऋण भार को अगले जन्मों में चुकाते हैं। 84 लाख योनियों में से एक मनुष्य योनि को छोड़कर शेष सभी भोग योनियां हैं। उनमें नया विचारपूर्ण कर्तृत्व सम्भव नहीं। बुद्धि के अभाव में जो विधान उनके साथ जुड़ा हुआ है, उसके अनुसार वे अपनी जिन्दगी के दिन पूरे करते हैं।
मनुष्य जीवन इसलिए नहीं मिला—मनुष्य जीवन सुख-चैन के लिए मौज-मजा करने के लिए नहीं है। इसके साथ अगणित वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, उत्तरदायित्व एवं कर्तव्य जुड़े हुए हैं। प्रधानमन्त्री को ऊंचा वेतन, कोठी, सवारी, नौकर आदि कितनी ही तरह की ऐसी सुविधायें मिलती हैं, जो अन्य सरकारी कर्मचारियों को नहीं मिलतीं, पर विशेष सुविधाओं के साथ-साथ प्रधानमन्त्री पर अनेक उत्तरदायित्व भी होते हैं। यदि वह उन्हें पूरा नहीं करता तो तत्काल पदच्युत कर दिया जाता है और सारे राष्ट्र की घृणा एवं भर्त्सना का भागी बनता है। फौज के ऊंचे अफसर यदि अपना कर्तव्य पालन नहीं करते तो उन्हें कोर्टमार्शल करके मौत के घाट उतार दिया जाता है। मनुष्य को अन्य सभी प्राणियों से अधिक सुविधायें प्राप्त हैं, पर साथ ही उतने ही अधिक कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व भी उसके कन्धे पर हैं। सामाजिक व्यवस्था को सन्तुलित बनाये रखना सभी जीवों की सुख-सुविधा के उपयुक्त वातावरण बनाना, आस-पास की गन्दगी को साफ करना, पिछड़े हुओं को ऊंचा उठाने में सहायता करना, दुःखियों की सहायता करना जैसे अनेक कर्तव्य भी उसके ऊपर हैं। जो बुद्धि, प्रतिभा एवं महत्ता उपलब्ध हुई है, वह खाने, पीने, मौज उड़ाने और अपनी ही संकीर्ण स्वार्थपरता में समाप्त कर देने के लिए नहीं है। यदि प्राप्त उपलब्धियों को आहार, निद्रा, भय, मैथुन में, तृष्णा-वासनाओं में ही खर्च कर दिया जाय तो जो सृष्टि-सन्तुलन के कर्तव्य इसे सौंपे गये थे, वे पूरे नहीं होते और इस उपेक्षा के दण्ड स्वरूप फौजी अफसर के कोर्ट मार्शल जैसी सजा चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने को मिलती है। हर योनि में विविध प्रकार के कष्ट एवं अभाव सहने पड़ते हैं।
कुछ प्राणी ऐसे हैं जो मनुष्य प्राणी से सम्बद्ध हैं और उसी के लिए आजीवन श्रम एवं त्याग करते रहते हैं। गाय, बैल, भैंस, बकरी, घोड़ा, गधा, ऊंट, कुत्ता आदि ऐसे ही जीव हैं, जिन्हें मनुष्य के लिए आजीवन कठोर श्रम करना पड़ता है। यह वही लोग हैं जिन्होंने पिछले जन्मों में मनुष्य होने पर ऋण तो अनेकों का लिया, किन्तु चुकाया नहीं। कर्ज मारकर भाग जाने की इस सृष्टि में कोई सुविधा नहीं। मरने के बाद भी वह वसूल कर लिया जाता है। गधे, घोड़े, बैल, ऊंट आदि को अपना कर्ज चुकाते हुए सारी जिन्दगी व्यतीत करनी पड़ती है। यदि मनुष्य जन्म से ही उनने यह ध्यान रखा होता कि जो ऋण हम ले रहे हैं, उसे चुकाने का भी ध्यान रखें तो उन्हें इन योनियों में जन्मने और इस प्रकार का ऋण चुकाने का कष्ट सहन न करना पड़ता।
ऋण से उऋण हों-ऋण केवल पैसे का ही नहीं होता। श्रम, सहयोग एवं भावनाओं का भी होता है। अन्य प्राणी तो जन्म से कुछ ही समय बाद स्वावलम्बी हो जाते हैं और अपने आप अपनी शारीरिक, मानसिक आवश्यकताएं पूरी करने लगते हैं, पर मनुष्य का बालक बहुत समय तक स्वावलम्बी तो क्या बन सकेगा, दूसरों की सहायता के बिना जीवित भी नहीं रह सकता। माता उसे दूध न पिलाये, मल-मूत्र न धोये, स्नान न कराये, कपड़े न पहिनाये तो उसका जीवित रह सकना संभव नहीं।आरम्भ में तो वह करवट तक नहीं बदल पाता वह भी माता को ही बदलवानी पड़ती है। बड़ा होने पर जब तक अपनी कमाई न करने लगे तब तक उसे पिता की कमाई और माता की पाकशाला पर निर्भर रहना पड़ता है। भोजन, वस्त्र, निवास, मनोरंजन, जेवर, खर्च, फीस, पुस्तकें, दवा-दारू सभी खर्च तो अभिभावक उठाते हैं। क्या बच्चा इसका मूल्य चुकाया करता है? नहीं, यह सब कुछ बिना मूल्य सेवा एवं सहृदयता के उपहार रूप में उसे प्राप्त हुआ। अध्यापकों ने शिक्षा दी, उसकी फीस जरूर देनी पड़ी, पर वह ज्ञान जो मिला, फीस से हजारों गुने अधिक मूल्य का था। शब्दों में उच्चारण से लेकर अक्षरों के लिखने तक को जो परिष्कृत स्वरूप सामने आया, उसमें हजारों वर्षों की, लाखों व्यक्तियों की सूझ-बूझ और श्रम-साधना सम्मिलित है, फिर स्कूल में अक्षर और शब्द ही तो नहीं पढ़ाये जाते, इतिहास, भूगोल, गणित, विज्ञान अनेक विषय सम्मिलित होते हैं, उस ज्ञान की शोध करके वर्तमान स्वरूप तक पहुंचने में सहस्रों लोगों का अनवरत श्रम सम्मिलित है। उसकी कीमत दो-चार रुपया स्कूली फीस के रूप से नहीं चुकाई जा सकती। बेशक पुस्तकें पैसे के बदले में खरीदी गई हैं, पर वह कीमत कागज, छपाई तथा मुद्रक, प्रकाशक एवं विक्रेता के श्रम की है। जो कुछ पुस्तकों में लिखा गया है, उस जानकारी के लिए अपना जीवन खपाने वालों का तो अपने ऊपर अनन्त उपकार का बोझ बना ही रहा।
विवाह हुआ, धर्मपत्नी आई। उसकी सेवा, सहायता, सद्भावना, आत्म–समर्पण का मूल्य क्या रोटी-कपड़े के रूप में ही चुक जायगा? शरीर निर्वाह की व्यवस्था तो केवल ब्याज मात्र है, पत्नी का आत्मदान तो ऋण रूप में अपने ऊपर लदा ही रहा। व्यापार किया, लाभ हुआ, पर वह लाभ तो ग्राहकों के सहयोग से ही सम्भव हुआ। यदि वे असहयोग करते, आपकी दुकान पर खरीद करने न आते तो लाभ कहां से होता? नौकरी में तरक्की हुई, वेतन बढ़ा तो इसमें अफसरों, साथियों एवं जिनने अपने से सन्तोष पूर्वक सेवा स्वीकार की उन सबका भी तो सहयोग है। यदि वे सभी रुष्ट हो गये होते, तो वेतन बढ़ना तो दूर, नौकरी बनी रहना भी कठिन हो जाता। बीमारी के समय जिन चिकित्सकों ने उपचार किया और मृत्यु तक के खतरे को टाल दिया, उनके उपकार का मूल्य दवा की कीमत आदि के रूप में नहीं चुकाया जा सकता। वह तो औषधियों में पड़े सामान तथा बनाने वाले, बेचने वाले के परिश्रम का मूल्य है। जिस प्रयत्न और अध्यवसाय द्वारा चिकित्सा शास्त्र का निर्माण हुआ, औषधियों में पड़ने वाले पदार्थों में वनस्पतियों के गुण-दोष की खोज हुई और सांगोपांग चिकित्सा पद्धति का ढांचा बनकर खड़ा हुआ, उसमें लगे हुए अगणित अन्वेषकों के अध्यवसाय का मूल्य कौन चुकायेगा?
यह सब उपकार ही उपकार हैं, जितने भी सुख-सुविधा के साधन हमें उपलब्ध हैं उनमें से एक-एक को बताने में चिर अतीत से अगणित लोगों का श्रम लगता रहा है और अब भी लाखों-करोड़ों व्यक्तियों का श्रम लग रहा है। यदि ऐसा न हुआ तो एकाकी मनुष्य समस्त साधन सुविधाओं से वंचित रहकर आजन्म वन्य पशुओं की तरह किसी प्रकार जिन्दगी के दिन पूरे कर रहा होता।
अगणित व्यक्तियों के अगणित उपकार — अपने उपयोग में आने वाली एक छोटी-सी वस्तु को लीजिए और देखिए कि उसे वर्तमान रूप में पहुंचने में कितने लोगों का श्रम लगा है। एक छोटे से रूमाल को लीजिए, वह कहां से आया, कैसे बना, इस प्रकार गम्भीरतापूर्वक विचार कीजिए। किसान ने खेत में कपास बोई, उससे रुई बनी, सूत कता, कपड़ा बुना, दुकान पर आया, आपने खरीदा, मोटी दृष्टि से उतने ही लोगों का श्रम-सहयोग उसमें लगा है, पर बारीकी से देखा जाय तो इस छोटी-सी प्रक्रिया में ही अगणित लोगों का ज्ञान, श्रम-सहयोग, अध्यवसाय एवं सद्भाव सम्मिलित मिलेगा। किसान ने जिस हल से खेत जोता उसे बनाने में लुहार और बढ़ई का श्रम लगा, जो लोहा उसमें लगा वह लोहे की खान में से निकलने के बाद गला, ढला एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाया गया। खान से लोहा निकालने और उसे साफ करने में बड़ी मशीनों के बनाने में अनेकों कारीगरों, इंजीनियरों का सहयोग मिला। इंजीनियरों ने यह चन्द पुस्तकों से पढ़ा। वे पुस्तकें प्रेस में छपीं, प्रेस और कागज बनाने में फिर अनेकों का श्रम एवं ज्ञान लगा। पुस्तकें, मशीनें आदि इधर से उधर लाने ले जाने में रेल, मोटर आदि वाहनों का उपयोग हुआ। इन वाहनों में छोटी-बड़ी असंख्यों वस्तुएं लगीं और उनके बनाने, उपयोग करने से कितनों को ही बहुत कुछ करना पड़ा। इतनी लम्बी बेल तो अकेले हल की फेल रही है। उस रूमाल के बनाने में हल के अतिरिक्त रुई उत्पन्न होने से लेकर कपड़ा बुने जाने और खरीदे जाने तक जो-जो काम हुए हैं, उन सबकी यदि ऐसी ही बेल फैलाई जाय तो पता चलेगा कि प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से करोड़ों व्यक्तियों का सहयोग किसी न किसी रूप से रूमाल में लग चुका है। रूमाल जैसी ढेरों चीजें हमारे दैनिक उपयोग में आती हैं। साबुन, शीशा, कंघी, तेल, मंजन, रुई, दियासलाई जैसी छोटी-छोटी चीजों के बनाने में समाज के कितने लोग सहयोगी रहे हैं। फिर जीवन की पूरी गतिविधियों और आवश्यकताओं से सम्बन्धित वस्तुओं एवं व्यक्ति के सहयोग सम्बन्धी विचार किया जाय तब तो स्पष्टतः संसार के अधिकांश मनुष्यों का ही नहीं पशु-पक्षियों एवं वृक्षों का भी असाधारण उपकार जुड़ा हुआ मिलेगा।
तात्पर्य है कि मनुष्य की बुद्धिमत्ता एवं प्रगति इस बात पर निर्भर है कि उसे दूसरों का कितना अधिक सहयोग मिला। भेड़िये ने आगरा जिले के खन्दोली गांव के पास एक मनुष्य के बच्चे को उठा लिया और खाने के स्थान पर उसे पाल लिया। शिकारियों द्वारा उस भेड़िये को मारकर यह मनुष्य का आठ वर्षीय बालक पकड़ा गया तो उसकी बोलने, खाने, चलने आदि की सारी चेष्टायें भेड़ियों जैसी ही थी, बच्चे को लखनऊ मेडिकल कॉलेज में रखा गया, उसका नाम राजू था। उसे मनुष्य की तरह रहने, खाने की शिक्षा 8 वर्षों से दी जाती रही, पर वह अपने जंगली संस्कार नहीं छोड़ पाया। उससे प्रकट होता है कि यदि मनुष्य को दूसरों के सहयोग से वंचित रहना पड़े तो वह वन्य पशुओं से भी गया-गुजरा अशक्त-असमर्थ ही बना रहे। उसकी बुद्धिमत्ता का विकास तो सहयोग प्रवृत्ति के कारण हुआ है। परस्पर मिल-जुलकर रहने और एक-दूसरे की सेवा-सहायता करने से ही मनुष्य की अब तक की सारी प्रगति सम्भव हुई।
सहयोग से ही प्रगति सम्भव — मनुष्य पग-पग पर दूसरों से उपकृत होता है। जो जितना सुखी, समृद्ध एवं प्रसन्न है, समझना चाहिए कि उसे दूसरों के उपकार का उतना ही अधिक लाभ मिला है। यह सहयोग जिसे जितना कम मिलता है, वह उतना ही निराश चिन्तित, दुखी, असफल एवं अस्वस्थ पाया जाता है। जिसके परिवारी असहयोग रखे रहे होंगे, स्त्री का विरोध, पुत्रों की अवज्ञा, भाइयों का द्वेष चल रहा हो तो उस घर में रहते हुए क्या सुख मिलेगा? जिसके स्वजन सम्बन्धी स्नेह की वर्षा करते हैं, उसे आर्थिक या शारीरिक कठिनाई रहते हुए भी जीवन-यापन करना भार नहीं लगता। प्रेम के आनन्द का बखान करते-करते कभी थकते नहीं, शास्त्रों में प्रेम को परमेश्वर का रूप बताया गया है। यह प्रेम पारस्परिक सहयोग का शारीरिक एवं मानसिक समीपता का ही दूसरा नाम है। जो जिसे प्रेम करता है, उसे उसके उपकार एवं सहयोग की ही बात निरन्तर सोचते रहना पड़ता है और यह भाव जहां प्रेमी को लाभ पहुंचाता है, वहां प्रेम करने वाले को भी कोई दोष प्रदान नहीं करता।
जिसने इस संसार में जितना सुख पाया है, समझना चाहिए कि उसे दूसरों का उतना ही सहयोग मिला है। यह ठीक है कि उस सहयोग की अपने में पात्रता होनी चाहिए अन्यथा कुपात्रता से खिन्न होकर उदार व्यक्ति भी अनुदार और सहयोगी भी द्वेषी बन जायेंगे। फिर भी पात्रता अपने आप में अपूर्ण है। सामने वालों का सद्भाव भी उसमें समन्वित होना चाहिए। हम जितनी प्रगति कर पाते हैं, उसके मूल में किसका कितना सहयोग रहा है इस पर उदार दृष्टि से विचार करें तो यही प्रतीत होगा कि अगणित व्यक्तियों की विभिन्न प्रकार की सज्जनता, सद्भावना एवं उदारता के फलस्वरूप ही अधिक सुखी एवं सन्तुष्ट रहने का अवसर मिला।
उत्तरार्द्ध का श्रेष्ठता में सदुपयोग — जीवन का पूर्वार्द्ध प्रायः इसी प्रकार व्यतीत होता है, जिसमें व्यक्तिगत सफलताओं एवं सुखोपभोग का बाहुल्य रहता है। विद्या पढ़ने से लेकर विवाह होने और धन कमाने से लेकर सन्तान सुख तक जितने प्रकार की उपलब्धियां हैं, वे प्रायः इस पूर्वार्द्ध में अधिकाधिक मात्रा में मिल लेती हैं। अस्तु सहयोगियों का ऋण भी अधिकाधिक चढ़ जाता है। इन उपकारों का ऋण चुकाने के लिए जीवन का उत्तरार्द्ध निर्धारित किया गया है। अब तक लोगों का उपकार अधिक मिला और उसका बदला कम चुकाया गया था। अब उत्तरार्द्ध में यह क्रम बनाना है कि उपकार किया अधिक जाय, लिया कम जाय। हिसाब तभी तो बराबर होगा अन्यथा जीवन के अन्त तक यदि दूसरों की उदारता का लाभ ही अधिकाधिक मात्रा में लेते रहा गया, बदला न चुका तो ऋण इतना अधिक चढ़ जायगा कि शरीर त्यागने का अवसर आने तक उसका भार असहनीय दिखाई देने लगेगा।
सृष्टि के समस्त प्राणियों की अपेक्षा अधिक उत्कृष्ट मानव-जीवन हमें ईश्वर ने इसलिए प्रदान किया है कि उसमें सन्निहित अगणित श्रेष्ठ सामर्थ्यों को इस प्रकार खर्च किया जाय कि इस संसार को अधिकाधिक सुख, शान्तिमय श्रेष्ठ एवं सुन्दर बनाने के ईश्वरीय प्रयोजन में सहायता मिल सके। यदि ऐसा न होता तो मनुष्य को ही ऐसे दिव्य-जीवन का लाभ क्यों देता? अन्य प्राणियों को इन विशेषताओं से वंचित क्यों रखता? किसी की अच्छी किसी की बुरी परिस्थितियों वाला शरीर देने में यों ईश्वर का पक्षपात दीखता है, पर वस्तुस्थिति यह है कि ऐसा उसने विशेष प्रयोजन के लिए ही किया है। उसने आशा रखी है और कामना की है कि मानव-प्राणी इन अतिरिक्त उपलब्धियों का सृष्टि-सन्तुलन की व्यवस्था में सहयोगी बनकर सदुपयोग करेगा, पर जब मनुष्य उस निर्धारित कर्तव्य की ओर से मुंह मोड़कर खड़ा हो जाता है और दूसरों से अधिकाधिक सहयोग बटोरता हुआ अपने व्यक्तिगत लाभ का उपार्जन करता रहता है, तो ईश्वर को निराशा ही होती है। उसकी दृष्टि में मनुष्य कर्तव्य त्यागने के पाप का अपराधी ही ठहरता है।
स्वार्थी जीवन बिताना आध्यात्मिक दृष्टि से एक अपराध है। सामाजिक दृष्टि से ऋण बटोरने और कर्जदार बनने जैसा अनैतिक है। दोनों ही दृष्टि से जो पापी-अपराधी बनता चला जाता है, वह आगे फिर मनुष्य-जन्म न पा सकेगा। उसे निकृष्ट कष्टदायक योनियों में भ्रमण करना पड़ेगा। कानून तोड़ने वाले और दूसरों के साथ अन्याय बरतने वाले अपराधी न्यायालय से दण्ड पाते हैं और जेलखाने की कठोर यातनायें भुगतते हैं। इसी प्रकार वे व्यक्ति, जिनने सारा जीवन स्वार्थपरता में गंवा दिया, मनुष्य-शरीर त्यागते ही कीट-पतंगों जैसी योनियों में चले जाते हैं और अभावग्रस्त कष्ट साध्य जीवन व्यतीत करते हैं गधा, घोड़ा, ऊंट, बैल, कुत्ता आदि बनकर उनका ऋण चुकाते हैं जिनका सहयोग लिया तो बहुत कुछ था, पर बदला चुकाने से कतराते रहे थे। मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र होने से ऋण समेटने की चतुरता करने और बदला चुकाने में आनाकानी कर जाने को स्वतंत्र हैं, पर उस कुटिलता के दण्ड से बच नहीं सकता। ईश्वर की इस सुव्यवस्थित सृष्टि में न्याय की, कर्मफल की समुचित व्यवस्था विद्यमान है। यहां कोई चालाक धूर्तता के आधार पर मनमानी नहीं कर सकता। आज के दुष्कर्मों का फल, कल तो उसे भोगना ही होता है। आज अपनी बारी है तो स्वार्थपरता बुद्धिमानी जैसी लगती है, पर कल जब न्याय का पलड़ा ऊपर होगा और अपने को नारकीय यन्त्रणायें सहने को विवश होना पड़ेगा तो आज जिसे चतुरता समझकर गर्व किया जाता है, कल वही परले सिरे की मूर्खता प्रतीत होगी।
श्रेष्ठ परम्परा का पालन करें — इस दुखद स्थिति से मानव-प्राणी को बचाये रहने के लिए शास्त्रकारों ने मानव-जीवन का क्रम-विभाजन इस सुन्दर-ढंग से किया है कि मनुष्य जन्म का आनन्द भी परिपूर्ण मात्रा में मिलता रहे और ईश्वरीय प्रयोजन की उपेक्षा करने एवं ऋण भार से लदकर भविष्य को अन्धकारमय बनाने का अवसर भी न आये। यह व्यवस्था पूर्वार्द्ध-उत्तरार्द्ध के विशेष कार्यक्रमों के रूप में हमारे सामने है। चार आश्रमों में ब्रह्मचर्याश्रम और गृहस्थाश्रम जन सहयोग का लाभ लेकर अधिक सशक्त बनने और उपलब्धियों का भौतिक आनन्द लेने के लिए हैं। यद्यपि इनमें भी साथ-साथ प्रत्युपकार करते रहने का विधान है, पर उत्तरार्द्ध को तो ऋण चुकाने के परमार्थ में लगाना ही आवश्यक माना जाता है। यदि सौ वर्ष की आयु मानी जाती है तो पचास वर्ष बाद उत्तरार्द्ध प्रारम्भ हो जाता है। यद्यपि आजकल सौ वर्ष कोई विरला ही जीता है, बहुधा सत्तर-अस्सी तक भी कम ही पहुंच पाते हैं। इस दृष्टि से तो उत्तरार्द्ध और भी जल्दी, चालीस से ही आरंभ हो जाना चाहिए, पर चूंकि पूर्वकालीन व्यवस्था को भी अपने लाभ की दृष्टि से ठीक माना जाय तो भी पचास वर्ष के बाद आरम्भ होने वाला जीवन काल ऋण चुकाने की दृष्टि से किए जाने के लिए है। इसी अवधि में वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम आते हैं। उनकी उपयोगिता एवं आवश्यकता भी वैसी ही है, जैसे जीवन के पूर्वार्द्ध में विद्या पढ़ने, विवाह करने और पैसा कमाने की।
देखा जाता है कि जो विद्या नहीं पढ़ते, गृहस्थ नहीं जमा पाते या रोटी नहीं कमा पाते उनसे लोग घृणा करते हैं और उसे असफल मानते हैं किन्तु आश्चर्य यह है कि उत्तरार्द्ध के लिए जो जीवन-क्रम निर्धारित है उसकी उपेक्षा करने वालों को घृणा एवं तिरस्कार की दृष्टि से नहीं देखा जाता। होना यही चाहिए कि जिस प्रकार स्कूल जाने से कतराने वाले किशोर को हर कोई धमकाता है और रोटी न कमाने वाले प्रौढ़ की आवारागर्दी की भर्त्सना करता है, उसी प्रकार पचास वर्ष का हो जाने पर भी वानप्रस्थ ग्रहण न करने और समाज का ऋण चुकाने में तत्पर न होने का प्रमाद बरतता है उसकी भी सर्वत्र निन्दा एवं भर्त्सना की जाय। यह अवसर होते हुए भी जो ऋण नहीं चुकाता कर्ज मारकर भागने की नीयत रखता है वह अनैतिकता अपनाने वाला व्यक्ति लोगों की दृष्टि में गिरा हुआ रहता है, उसी प्रकार पचास वर्ष का होने पर भी सेवा-धर्म को अपनाने के वानप्रस्थ कर्तव्य को जो शिरोधार्य नहीं करता, वह लोक-निन्दा, सामूहिक घृणा एवं सामाजिक तिरस्कार का भागी होना चाहिए। अच्छा हो ऐसे लोगों को एक सामाजिक अपराधी घोषित कर उनका तिरस्कारपूर्ण बहिष्कार आरम्भ कर दिया जाय। बिरादरियों की पंचायतें किसी जातीय नियम तोड़ने वाले को जाति बाहर कराने आदि के दण्ड दिया करती हैं। क्या यह अच्छा होता उन लोगों को भी ऐसा ही दण्ड मिलता जो गृहस्थ के संचालन भार से मुक्त होने पर भी वासना, तृष्णा की सड़ी हुई कीचड़ में कुल-बुलाने वाले कीड़े बने रहना चाहते हैं।
जीवन का समुचित विभाजन — भारतीय धर्म में आश्रम व्यवस्था का महत्वपूर्ण स्थान है। जीवन को चार भागों में बहुत सोच-समझकर दूरदर्शितापूर्ण सूझबूझ के साथ विभाजित किया गया। प्रथम चौथाई जीवन यदि विद्या प्राप्ति, स्वास्थ्य संवर्धन, अनुभव, संचय, सद्गुणों के अनुशीलन में न लगाया जाय तो जीवन की इमारत किस पर खड़ी होगी? नींव ही मजबूत न होगी तो दीवार का अस्तित्व कब तक रहेगा? चौथाई आयु जीवन की नींव भरने में, अध्ययन आदि में लगाने के बाद एक चौथाई आयु परिवार संस्था के संचालन में व्यतीत की जानी चाहिए ताकि संसार की भौतिक प्रगति एवं समृद्धि का व्यवस्था क्रम यथावत् चलता रहे। उपयोगी परिवार संस्था का तारतम्य न टूटे। भावी पीढ़ियों का निर्माण होता विधिवत् रहे और इन्द्रियजन्य तथा कामना जन्य भौतिक आकांक्षाएं भी तृप्त होती रहें। यह प्रयोजन गृहस्थ से ही पूरे होते हैं। अब दान-पुण्य का नम्बर आया, जैसे ही बड़ी संतान गृहस्थ का बोझ सम्भालने लायक हो जाय, वैसे ही उसके ऊपर पारिवारिक उत्तरदायित्वों को धीरे-धीरे सौंपते रहना चाहिए और अपनी उंगली पत्थर के नीचे से निकालते चलना चाहिए। विश्वास हो जाय कि बड़े बच्चे ने घर संभाल लिया तो फिर प्रायः सारा ही समय सामाजिक ऋण चुकाने में लग जाना चाहिए। यही वानप्रस्थ का प्रयोजन है।
मनुष्य जाति की नैतिक, मानसिक, सामाजिक प्रगति की पूरी सम्भावना वानप्रस्थ आश्रम पर निर्भर है। समाज का आध्यात्मिक एवं धार्मिक विकास इसी आश्रम की सफलता एवं सुव्यवस्था पर टिका हुआ है। लोक शिक्षण के लिए अनुभवी, चरित्रवान एवं निःस्वार्थ कार्यकर्त्ता चाहिए। वे कहां से मिलें? अल्प आयु के नव-युवकों में उत्साह एवं शारीरिक चेतना तो होती है, पर अन्य कई त्रुटियां उनमें रहती हैं। अतृप्त इच्छाएं उन्हें काम और लोभ की ओर खींच ले जाती हैं, फलतः कितने ही लोकसेवी नवयुवक इस फिसलन में अपना चरित्र खोते देखे गये हैं। यह कमी राजनीति के नेतृत्व में तो किसी प्रकार खप सकती है, पर सामाजिक एवं नैतिक क्षेत्र में सेवा-कार्य, नेतृत्व कराने वाले के लिए उसकी मौत का कारण बन जाती हैं। फिर नई उम्र के कार्यकर्त्ता पर यदि गृहस्थ की जिम्मेदारियां लदी होंगी तो उसे वेतन लेना पड़ेगा। वेतन-भोगी कार्यकर्त्ता अपना सम्मान खो बैठते हैं, जिसका सम्मान नहीं उसका प्रभाव भी कहां पड़ता है? इसलिए नई आयु के सामाजिक कार्यकर्त्ता अपने दैनिक जीवन में थोड़ा समय निकाल कर सामाजिक कार्यों में थोड़ा योगदान तो दे सकते हैं, पर पूरा समय लगा सकना उन्हीं के लिए सम्भव होता है, जो आर्थिक दृष्टि से आत्म-निर्भर हैं और पारिवारिक जिम्मेदारियां बड़े लड़के के कन्धों पर चले जाने से अवकाश भी जिनके पास है। ऐसे लोग ही पूरे मन और पूरे श्रम के साथ सार्वजनिक प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में जुट सकते हैं। वानप्रस्थ इसी आवश्यकता को पूर्ण करता है।
धार्मिक नेतृत्व का उत्तरदायित्व — जन समाज की सद्भावना एवं सत्प्रवृत्तियों को जागृत रखने के लिए जिन उज्ज्वल व्यक्तियों का नेतृत्व एवं कर्तृत्व आवश्यक है, वे प्रायः वानप्रस्थ आश्रम में से ही मिलते हैं। वे न मिलें तो सार्वजनिक एवं सामूहिक रचनात्मक प्रयत्नों का गतिशील रहना कठिन हो जाय। अवकाश, अनुभव, सद्भाव और सत्प्रयोजनों के सम्मिश्रण से वानप्रस्थ जन जागरण की महती आवश्यकता को पूर्ण करता है और प्राचीन काल में समस्त शिक्षण संस्थाओं को वानप्रस्थ लोग ही चलाते थे, कथा-प्रवचनों के माध्यम से लोक मानस को सुसन्तुलित रखते थे, रचनात्मक प्रवृत्तियों का संचालन करते थे। सम्मेलन-सत्र, धर्मानुष्ठान एवं विचार गोष्ठियों की व्यवस्था करते एवं घर-घर जाकर सन्मार्ग का पथ-प्रदर्शन करते थे। जहां भी अनीति व्यवस्था एवं अविद्या को पनपते देखते वहां उसका विरोध करने डट जाते थे। इस प्रकार साधु-ब्राह्मणों की एक बड़ी आवश्यकता यही आश्रम पूरी करता था। समाज को तपे हुए अनुभवी और निस्वार्थ पथ-प्रदर्शक प्रदान करते थे। इस प्रकार साधु-ब्राह्मणों की एक बड़ी आवश्यकता यही आश्रम पूरी करता था। समाज को तपे हुए, अनुभवी और निस्वार्थ पथ-प्रदर्शक प्रचुर मात्रा में मिलते रहते थे। उसी दशा में उसका सबल, समृद्ध, सुसंस्कृत एवं सुविकसित रहना स्वाभाविक ही था। भारतीय समाज की संसार भर में जो श्रेष्ठता मानी जाती रही है, उसमें वानप्रस्थों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। ब्राह्मणों के दो वर्ग हैं—एक जन्मजन्य दूसरे कर्मजन्य। जन्मजन्य ब्राह्मणों में समुचित संस्कार के अभाव में दोष रह सकते हैं, पर जिसने ढलती आयु में, संसार के अनुभवों से तृप्त होकर लोक-मंगल के लिए अपना जीवन समर्पित किया है, उसके फिसलने की संभावना कम ही रहती है। अनुभवी और क्रमबद्ध वानप्रस्थ, फिर वे किसी भी वर्ण में क्यों न जन्मे हों, एक सच्चे ब्राह्मण, एक सच्चे साधु की ही आवश्यकता पूर्ण करते हैं। कर्मजन्य ब्राह्मणों की उपयोगिता और भी अधिक असंदिग्ध रहती है। ऐसे देवपुरुष जिस देश में बढ़ेंगे उसका सब प्रकार कल्याण ही कल्याण होगा।
आज की परिस्थितियों में ऐसे लोक-नेताओं की अत्यधिक आवश्यकता है। गन्दगी ज्यादा फैली हो तो सफाई करने वाले भी अधिक ही चाहिए। संक्रामक बीमारियों का प्रकोप हो रहा हो, तो चिकित्सक एवं परिचर्याकर्त्ताओं की भी आवश्यकता बहुत होगी। भयंकर अग्निकाण्ड का दावानल धधक रहा हो तो उसे बुझाने वाले स्वयं सेवक भी अधिक चाहिए। शत्रुओं की प्रबल सेना का मुकाबला करने के लिए रक्षाबल की संख्या भी अधिक ही होनी चाहिए। इन दिनों ऐसी ही परिस्थितियां हैं। नैतिक-सामाजिक, आर्थिक-बौद्धिक, शारीरिक-मानसिक हर दृष्टि से अपना देश पिछड़ गया है। उसे संभालने, सुधारने एवं उठाने के लिए सबल, समर्थ एवं प्रतिभा सम्पन्न वानप्रस्थों की जितनी अधिक आवश्यकता है उतनी और किसी की नहीं। समाज को खोखला करने में लगी हुई कुरीतियों, अन्ध-परम्पराओं, मूढ़-मान्यताओं एवं अनैतिक आकांक्षाओं से तेजस्वी वानप्रस्थों के अतिरिक्त और कौन लड़ेगा? असंगठित, अवसादग्रस्त, गुण-कर्म-स्वभाव की मलीनता से आक्रान्त जनता का उद्धार कौन करेगा? अकर्मण्यता, विलासिता और भौतिकता की मूर्छा में पड़े हुए इस राष्ट्र-लक्ष्मण को संजीवन बूटी लाकर वानप्रस्थ हनुमान के बिना और कौन पुनर्जीवित करेगा। आज आड़े समय में मातृभूमि की पुकार योगी एवं वानप्रस्थों के लिए है, आगे बढ़कर आयें और अपनी जिम्मेदारियां संभालें तो कायाकल्प होते देर न लगे। आज के दुर्दिन कल ही स्वर्णिम सौभाग्य के रूप में परिणत होते हुए दृष्टिगोचर होने लगें।
सम्मिलित परिवार का स्वर्णिम सूत्र — सम्मिलित परिवारों की सुन्दर सुव्यवस्थित परम्परा तब चले जब वानप्रस्थ ग्रहण करने के लिए जन-साधारण में उत्साह पैदा हो। बड़े लड़के अपनी बहिन-भाइयों को भी अपने कर्तव्य, उत्तरदायित्व में सम्मिलित रखें तो आज जो आपापूती की संकीर्णता घर करती जा रही है, वह न पनपे। आज तो परिवार में जो भी कमाऊ होता जाता है, अपनी पत्नी को लेकर अलग ही बैठता है, जो कमाता है अपने और अपनी पत्नी के शौक-मौज में ही लगाता है। बहिन-भाइयों, माता-पिता आदि की चिन्ता ही नहीं करता। वह जानता है कि बूढ़ा बाप किसी तरह घर की गाड़ी धकेलता रहेगा। हम क्यों इस झंझट में पड़ें, पर जब उसे यह विदित होगा कि पिताजी अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिए वानप्रस्थ लेंगे और उसे परिवार का उत्तरदायित्व संभावना होगा, तो वह दूसरी बात सोचेगा और लोक निन्दा से बचने के लिए उदार दृष्टिकोण अपनावेगा। यही वृत्ति अन्य लड़कों में भी पनपेगी। दूसरा लड़का बड़ा होगा तो वह भी बड़े भाई का अनुकरण करेगा और छोटे भाई-बहिनों के विकास-निर्माण में हाथ बंटायेगा। इस प्रकार परिवारों में उदार-परम्परा बनी रहेगी। उन बच्चों के बच्चे भी इसी प्रकार सोचेंगे और करेंगे। आज तो बाप को भी जब बुढ़ापे तक तृष्णा-वासना से छुटकारा नहीं तो बेटे भी उसका अनुकरण क्यों न करेंगे? वर्तमान परम्परा के अनुसार छोटे बच्चों की व्यवस्था पूरी करने तक पिता को गृहस्थ ही संभालते रहना पड़ता है। जब वानप्रस्थ की बात ध्यान में होगी तो कम बच्चे पैदा करने और उनकी जिम्मेदारियों से जल्दी निवृत्त होने की बात भी सोचेगा। बुढ़ापे में सन्तान पैदा न करेगा। यह बात मन में रहे तो समाज का अनेक दृष्टियों में हित-साधन ही होगा। परिवारों में उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता का वातावरण रहने लगेगा। बुढ़ापे तक सन्तानोत्पादन की प्रक्रिया जारी रहने पर बच्चे अशक्त उत्पन्न होते हैं और ढलती आयु के लोगों का शरीर भी ब्रह्मचर्य के अभाव से जर्जर एवं अनेक रोगों से ग्रसित बना रहता है। यदि ब्रह्मचर्य मिश्रित वानप्रस्थ का उपक्रम फिर पूर्ववत् चल पड़े तो ब्रह्मचर्य से होने वाले लाभों का प्रतिफल स्त्रियों, पुरुषों, बच्चों सभी को मिले और दुर्बलता एवं रुग्णता का वातावरण सबलता एवं सार्थकता में परिणत होने लगे।
आज की परिस्थिति का आदर्श-संन्यास-वानप्रस्थ परम्परा पहले घर छोड़कर वन में रहने की भले ही रही हो, पर आज की परिस्थितियों में वैसी ही आवश्यकता नहीं रही। न तो अब प्राचीनकाल जैसे वन रहे न उनमें ऐसे कन्द-मूल फल होते हैं, जिनसे हर ऋतु में आनन्दपूर्वक गुजारा हो सके। जंगलों में रहने वाले साधु लोग भी अन्नाहार ही करते हैं और वह भी उन्हें गृहस्थों से ही जुटाना पड़ता है। आज लोगों की कमाई शुद्ध नहीं रही। अनीतिपूर्वक कमाया हुआ अन्न खाकर कोई व्यक्ति अपनी प्रवृत्तियां सावधान नहीं रख सकता। भिक्षा जीवी सन्त-महात्माओं को आलस्य एवं अवसाद घेरे रहता है, मन में कुमार्ग दौड़ता है, भजन में मन नहीं लगता क्योंकि जिस दान से उनका रक्त और मन बनता है, वह सात्विक नहीं होता। अन्यायोपार्जित धन जहां जाता है, वहीं गड़बड़ी फैलाता है। इसलिए अब न साधु को, न वानप्रस्थ को, किसी को भी जहां तक संभव हो भिक्षा-जीवी नहीं होना चाहिए। जिन्हें आजीविका की हानि से पूर्ण स्वावलम्बन प्राप्त नहीं है, आधा समय उपार्जन के लिए और आधा समय लोक सेवा के लिए लगाकर भी इस व्रत का पालन कर सकते हैं। रोटी, कपड़े का प्रबन्ध घर में रखना चाहिए। इसके बदले दोपहर तक आधा दिन परिवार की देखभाल की व्यवस्था में लगाना चाहिए। वैसे भी जिस घर में रहना होता है, उसकी व्यवस्था की देखभाल करना, मार्ग-दर्शन करना, परामर्श देना और संभालना-सुधारना मानवोचित कर्तव्य है। जब दूसरों के सुधारने एवं सेवा करने का कार्यक्रम बनाया है तो अपने घर वालों को उस सेवा-लाभ से विमुख क्यों रखा जाय? घर छोड़ने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है। इसी घर में रहना चाहिए, हां मोह-ममता, के बन्धन तोड़ देने चाहिए। अपने घर वालों को भी जनता मात्र मानकर इसकी यथोचित सेवा करते रहना चाहिए।
यह मोह-बन्ध शिथिल करने इसलिए आवश्यक है कि आत्मीय की छोटी सीमा का बन्धन तोड़कर व्यापक क्षेत्र में विस्तृत हो सके और सेवा धर्म पूरे मनोयोग के साथ पालन किया जाता रहे। अगले जन्मों की उत्तम गति भी मोह बन्धन तोड़ने से ही होती है, अन्यथा जीव लौटकर फिर घर के ही समीप अपनी वासना के द्वारा खिंचा चला आता है। मोहग्रस्त की मुक्ति नहीं हो सकती। सीमित दायरे में अपने को बांधे रखने वाला असीमितता का, आध्यात्मिकता का आनन्द नहीं ले सकता। अतएव वानप्रस्थ को ममता-त्याग के लिए कहा गया है। घर की एक कोठरी अलग से अपने लिए ले लेनी चाहिए या खेत, बगीचे में एक झोंपड़ी बनाकर रहने लगना चाहिए। अकेला रहना, अपनी कोठरी को ही अपना एकान्त तपोवन मान लेना वानप्रस्थ आश्रम के उपयुक्त है। पत्नी का यदि बच्चों में लगाव हो तो उसका इन्हीं के साथ रहना उचित है, पर यदि वह भी आत्म-कल्याण के लिए लोकसेवा का व्रत धारण करे तो दो साथी साधुओं की तरह वह भी पति के साथ रह सकती है। पत्नी को त्यागने की आवश्यकता नहीं है, पर शरीर-आसक्ति को त्याग देना चाहिए। उसे स्वामी नहीं वरन् छोटा भाई मानना चाहिए।
***