Books - बच्चों की शिक्षा ही नहीं दीक्षा भी आवश्यक
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Language: HINDI
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सुसंस्कृत बच्चे सभ्य समाज की नींव
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मनुष्य का बचपन वह दर्पण है जिसमें उसके भावी व्यक्तित्व की झलक देखने को मिलती है। विश्व के महापुरुषों की जीवनी से यह स्पष्ट होता है कि उनका बाल्यकाल किस तरह अनुशासित, सुसंस्कृत, आत्म-सम्मानपूर्ण था। उनमें साहस, आत्म-विश्वास, धैर्य, सम्वेदना की ऐसी उदात्त भावनायें थीं, जिसने उन्हें महापुरुष के स्थान तक पहुंचा दिया। इसके विपरीत अपराधी प्रकृति के मनुष्यों की जीवनी से पता चलता है कि उनका बाल्यकाल किस प्रकार कुंठाओं से ग्रस्त था, अव्यवस्थित था। बच्चे भावी समाज की नींव होते हैं। जिस प्रकार की नींव होगी, उसी के अनुरूप महल या भवन का निर्माण किया जा सकता है। यदि नींव ही कमजोर होगी तो कैसे उस पर भव्य भवन निर्मित किया जा सकेगा।
परिवार एक प्रयोगशाला होती है, और माता उसकी प्रधान वैज्ञानिक। इस प्रयोगशाला में विभिन्न प्रयोगों से नये-नये आविष्कार किये जा सकते हैं। यदि इस प्रयोगशाला में सुसंस्कृत एवं आत्म-सम्मानी बच्चों का निर्माण करना हो तो उन्हीं के अनुरूप प्रयत्न एवं प्रयोग किये जाने चाहिए। अपने प्रयोगों की उत्कृष्टता की श्रेणी तक पहुंचाने के लिए यथा सम्भव प्रयत्न करने पड़ेंगे, जिससे देश व समाज भी लाभान्वित हो सकें।
कौन माता पिता नहीं चाहेंगे कि उनके बच्चे सभ्य समाज की एक कड़ी बनें, महान बनें, उनकी आकांक्षाओं के अनुरूप बनकर उनका तथा स्वयं का नाम उज्ज्वल करें। फिर यह सब कैसे होगा? कैसे उनके बच्चे महान बन सकेंगे? इसके लिए माता-पिता को त्याग, परिश्रम तथा अथक प्रयास व लगन के साथ बच्चों की नींव मजबूत बनानी होगी। परिवार एक पाठशाला है, बच्चा यहां जो भी सीखता है वही उसके संस्कार बन जाते हैं। बच्चा उस कोमल डाल के समान है, जिसे जिस ओर चाहो मोड़ा जा सकता है, या कुम्हार की उस कच्ची मिट्टी के समान होता है, जिससे कुम्हार अपने इच्छानुरूप पात्र बना सकता है। इस कच्ची मिट्टी में जिस प्रकार के संस्कार भरे जायेंगे, उसी के अनुरूप पात्र निर्मित हो जायेंगे। अब यह मां या परिवार के अन्य सदस्यों पर निर्भर करता है कि वे किस प्रकार के संस्कार भरना चाहेंगे।
परिवार में मां ही एक मात्र ऐसी सदस्या होती है, जिसके सम्पर्क में बच्चा सबसे अधिक रहता है। पालने से लेकर ठीक से होश सम्भालने तक वह माता के ही पास रहता है। यदि शिशुपन से ही उसकी ठीक से देख-भाल की जा सके तो कोई कारण नहीं कि मां उसे शिवा, विनोबा, भगतसिंह आदि जैसे महामानवों की प्रति मूर्ति न बना सके। प्रारम्भ में जब बच्चा शिशु होता है उसी समय से माता को चाहिए कि वह उसमें उचित संस्कार ठीक ढंग से लालन-पालन करके डाले। इस काल में मां को चाहिए कि वह स्वयं नियन्त्रित रहकर शिशु का पालन-पोषण करें। स्वच्छता का ध्यान रखना एकान्त में शान्त भाव से दुग्धपान कराना उनमें प्रमुख हैं। मां का दुग्ध विभिन्न नाड़ियों से गुजर कर आता है तथा उसमें भावना भी संयुक्त होती है। इसलिये यदि मां के मन में खिंचाव, तनाव तथा हीन भावनाएं होंगी तो उन भावनाओं का प्रभाव दुग्ध द्वारा शिशु पर भी पड़ने की पूरी-पूरी सम्भावना होती है। इसी प्रकार वातावरण में भी इस प्रकार की व्यवस्था हो कि शिशु को हर दशा में आराम का अनुभव होता रहे। जब शिशु बड़ा होता है और धीरे-धीरे बातों को समझने लायक हो जाता है, यहीं से उसका वास्तविक शिक्षण प्रारम्भ होता है। इस अवस्था में परिवार ही उसकी प्रवेशिका होती है, जिससे वह सब कुछ सीखता है। इसलिए परिवार का वातावरण उचित होना चाहिए। परिवार की व्यवस्था इस प्रकार की हो कि बच्चा हर प्रकार की अच्छी आदतों का अनुकरण कर सके, जो उसके निर्माण में सहायक हों। इस अवस्था में मां को बहुत बड़ी भूमिका निभानी पड़ती है।
प्रगति का घोंसला छोटी-छोटी आदतों के तिनकों से बुनकर तैयार होता है। देखने में ऐसी आदतें छोटी भले ही हों परन्तु इनका प्रभाव बच्चों के कोमल मन पर बहुत अधिक पड़ता है। इन छोटी-छोटी आदतों में सर्वप्रथम है नियमित दिनचर्या। प्रतिदिन समय पर उठना, शौच, स्नान, मंजन, सफाई आदि की नियमित आदत बच्चों में तथा दूसरे परिवार में डालनी चाहिए। इसके साथ ही समय का विभाजन से कई तरह के अन्य कार्य करने का यहां तक कि मनोरंजन, विश्राम का भी पर्याप्त समय मिल जाता है। बच्चों को समझाया जाय कि नियमित दिनचर्या से क्या लाभ हैं और अनियमित से क्या हानियां होती हैं। इन बातों को बच्चों के मन पर अच्छी प्रकार बैठा देना चाहिए ताकि ये छोटी-छोटी आदतें उनके जीवन में नियमित दिनचर्या बन जाय।
बच्चों में ऐसी भावना भरनी चाहिए कि वह अपने से बड़ों का सम्मान करें। उनसे शिष्टाचार के साथ बातें कर सकें। इसके लिए यह नितान्त आवश्यक है कि परिवार में भी इसी के अनुकूल वातावरण बनाया जाये। क्योंकि बच्चा बन्दर की तरह नकलची होता है, जैसा स्वयं हम व्यवहार करते हैं—उसी का अनुकरण बच्चा भी करता है। इसलिए उसकी भावनाओं को उभारने के लिए उसी प्रकार के वातावरण का निर्माण करना चाहिए, जिसकी हम बच्चे से उपेक्षा करते हैं। हमारी भारतीय परम्परा अपने से बड़ों का चरण स्पर्श द्वारा अभिवादन करने की रही है। यह भावना बच्चों में भी भरनी चाहिए।
इसके लिए यह आवश्यक है कि बड़े लोग भी बच्चों या अपने से छोटे-बड़ों से वैसा ही व्यवहार करें जैसे वे बच्चों से अपेक्षा करते हैं। बड़ों को भी बच्चों के साथ शिष्टाचार के साथ पेश आना चाहिए। व्यवहार में नम्रता शीलता, सज्जनता का पुट रहना आवश्यक है। बच्चों का अपमान न किया जाय, उनके स्वाभिमान को ठेस न पहुंचाई जाय। अबोध बालक से भी ‘आप’ का सम्बोधन किया जाय, यदि ‘आप’ नहीं तो कम से कम ‘तुम’ तो कहा ही जाय। ‘तू’ के शब्द को असभ्य माना जाय। कन्या या पुत्र में कोई अन्तर न समझा जाय। दोनों के साथ एक सा व्यवहार किया जाय।
बच्चों में धार्मिक भावनाओं का समावेश किया जाना चाहिए, ताकि वे धर्म के मूल्यों को समझ सकें, उनमें ईश्वर के प्रति श्रद्धा व विश्वास बढ़ सके। इससे वे बड़े होकर अनीतिगामी न हो सकेंगे। इसके लिए प्रारम्भ से ही उन्हें सामूहिक प्रार्थना का अभ्यास, गायत्री-मंत्रोच्चारण या कोई भावनापूर्ण प्रार्थना करने की आदत प्रायः एवं सायं डालनी चाहिए। साथ ही साथ उन्हें प्रार्थना के तथा गायत्री मन्त्र के लाभों के बारे में भी बताया जाय।
मिल-जुलकर खेलने तथा रहने की बच्चों में तीव्र भावना होती है। यह भावना बनी रहे, इसके लिये उचित वातावरण का होना आवश्यक है। मिल-बांटकर खाने, एक ही खिलौने से मिल-जुलकर खेलने की आदतों को बढ़ावा देना, परस्पर मिलकर काम करने की परम्परा डालने से उनमें विश्व मैत्री की भावना का विकास हो सकता है। कभी-कभी माता-पिता बच्चों की छोटी-छोटी बातों से तंग आकर अकारण ही उन्हें झिड़क देते हैं। इससे बच्चों के मन में हीन भावना घर कर जाती है, जो उनके विकास में बड़ी बाधा पहुंचाती है। अतः बच्चे बेकार के कामों में न उलझे रहें, इसके लिए उनमें रचनात्मक कार्यों के प्रति आकर्षण पैदा किया जा सकता है, जिससे वे क्रियाशील रहें। उन्हें ऐसी प्रेरणा दी जाय ताकि वे अपना काम स्वयं कर सकें। समय का उपयोग समझ सकें।
घर में हर किसी को मितव्ययिता तथा सादगी का पाठ पढ़ाया जाय। चटोरापन, फिजूलखर्ची, उद्धत श्रृंगार, गाली-गलौच जैसी बुरी आदतें बच्चों में न पनपने पाये इसका विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए। लाड़-चाव से किसी में भी फिजूल खर्ची की आदत नहीं डालनी चाहिए।
सादगी अपने आप में एक बहुत बड़ा गुण है। बच्चों को इसकी शिक्षा दी जानी चाहिए। बच्चों के पहनावे का ध्यान रखना चाहिए। बच्चों का स्वच्छ तथा स्वस्थ तो रखा ही जाय, उन्हें आकर्षक भी बनाया जा, परन्तु किसी भी दशा में ‘फैशनेबल’ न बनाया जाय। उन्हें सादगी व सज्जनता का गौरव सीखने दिया जाय। इससे वे सादगी में हीनता का अनुभव नहीं करेंगे। अपनी प्रामाणिकता पर स्वयं सन्तुष्ट होंगे तथा दूसरों की दृष्टि से वजनदार सिद्ध होंगे।
सादगी के साथ ही उन्हें अपने स्वास्थ्य के प्रति भी सजग रहने की शिक्षा दी जाये। छोटे-मोटे खेल व विनोद घर में ही किये जा सकते हैं। जिसमें संगीत का अभ्यास भी सम्मिलित है। इससे पूरे परिवार में सरसता की लहर दौड़ पड़ेगी तथा बच्चे की प्रतिभा का विकास होगा। बच्चों के स्वस्थ मनोरंजन की भी व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे आज कल चल रहे बेढंगे मनोरंजनों के प्रति उनका आकर्षण न हो। बच्चों को साथ लेकर स्वास्थ्य वर्द्धक स्थानों में, पार्क, दर्शनीय स्थानों में जाना चाहिये तथा कभी अवकाश के दिन या त्योहार के दिन पिकनिक पर निकल पड़ना चाहिए, इससे बच्चे को प्राकृतिक दृश्यों के प्रति प्रेम भावना का विकास होगा।
प्रायः बच्चों में बड़प्पन की भावना देखने को मिलती है। बड़े बच्चे अपने से छोटों पर अपना बड़प्पन लादना चाहते हैं। समय-समय पर बच्चों के खेलों में यह भावना देखने को मिलती है। कभी-कभी जब खेल-खेल में छोटे बच्चे जीत जाते हैं तो बड़ों के मन में उनके प्रति प्रतिस्पर्धा जाग जाती है। प्रतिस्पर्धा की वह भावना बड़ी खराब है। इसलिये बच्चों को इसके प्रति सजग रहने की शिक्षा दी जानी चाहिए कि वे खेलों में छोटों को उत्साहित किया करें, जिससे उनमें हीन भावना उत्पन्न नहीं होने पावे। बच्चों को राम और भरत के उदाहरण के द्वारा समझाया जा सकता है कि बचपन में राम खेल में जीतने पर भी अपने छोटे भाइयों को जिता देते थे और स्वयं हार जाते थे। चित्रकूट में भरत ने स्वयं ही कहा है।
मो पर कृपा सनेहु विसेवी। खेलत खुनिस कबहु ना देखी॥
मैं प्रभु कृपा रीति जिम जोही। हारेहु खेल जितावहु मोही॥
यदि यही भावना बच्चों में भरी जाय तो उनमें बड़प्पन के अहंकार का भूत नहीं बढ़ पायेगा। वे घर में ही नहीं बाहर भी अपने से छोटों के प्रति वही स्नेही रखने में सफल होंगे। प्रायः बच्चों में संकोचशीलता मिश्रित भय, झिझक, संकोच आदि की भावना घर कर जाती है। कुछ बच्चे घर में तो बड़े मुखर होते हैं परन्तु बाहर जाने पर कुछ भी नहीं बोल सकते, शर्म मिश्रित भय से ग्रसित हो जाते हैं। कभी-कभी ऐसे बच्चे इन कुण्ठाओं से ग्रस्त होकर अपने को बड़ा दिखाने के लिये क्रूरता का सहारा भी ले बैठते हैं। अतः माता पिता तथा परिवार, सदस्य, इस पर ध्यान दें। ऐसी स्थिति में उन्हें व्यवहार कुशल तथा मिलनसार बनाने की चेष्टा करनी चाहिए। इसके लिए सांस्कृतिक कार्यक्रम, बच्चों की सामूहिक गोष्ठी, छोटे-छोटे नाटक, खेल आदि की व्यवस्था की जानी चाहिए, इससे बच्चों में धीरे-धीरे आत्म-विश्वास की भावना भरने लगेगी तथा मिलनसारिता आयेगी।
माता-पिता को चाहिये कि बच्चों में स्वयं निर्णय लेने की क्षमता का विकास करें। इसके लिए माता-पिता को भी किसी समस्या के प्रति ठोस निर्णय लेने चाहिए। प्रायः माता-पिता बच्चे को गलत निर्णय लेने पर उन्हें डाट-फटकार लगाते हैं या प्रताड़ित करते हैं, यह गलत है। गलत निर्णय लेने पर भी बच्चों के प्रति सहानुभूति रखनी चाहिए तथा उनको प्रोत्साहित करना चाहिए कि वे सही निर्णय लेने की क्षमता का विकास करें। इससे बच्चे का आत्म-विश्वास जागेगा एवं उसे सही निर्णय लेने में सहायता मिलेगी।
अतः यदि परिवार तथा माता-पिता आरम्भ से ही बच्चे की क्रिया-कलापों की ओर ध्यान दें, बच्चों की चहुंमुखी प्रतिभा को विकसित करने में अपना पूरा योगदान दें, तो कोई कारण नहीं कि बच्चे सुसंस्कृत, सभ्य आत्म-स्वाभिमानी, निडर, आत्म-निर्भर न बनें, और नये समाज के आधार स्तम्भ न सिद्ध हों। भावी समाज का महल इन्हीं बच्चों द्वारा बनना है। ये बच्चे ही कल के राष्ट्र की तकदीर होंगे, या यों कहा जाय, सुसंस्कृत, सभ्य तथा स्वाभिमान बच्चे ही सभ्य तथा उन्नत समाज की नींव है।
जिम्मेदारी—अभिभावकों पर!
बच्चों में आलस्य, उच्छृंखलता, अनुशासनहीनता, स्वेच्छाचार आदि की जिम्मेदारी अधिकांश माता-पिता या तो बच्चे के साथियों पर डाल देते हैं, या फिर पड़ोसियों और वातावरण पर। किन्तु तथ्य यह है कि इनमें से अधिकांश बुराइयों के लिए माता-पिता और अभिभावक ही उत्तरदायी होते हैं।
बच्चों में अनुशासन और आज्ञा-पालन की प्रवृत्ति के विकास को उत्सुक माता-पिता जब अनुशासन सम्बन्धी आदेश-निर्देश रौब दिखाकर या दबाव डालते हुए देते हैं, उस समय उन्हें स्मरण करना चाहिए कि यह व्यवहार बच्चे में विरोध-विद्रोह की भावना जगायेगा या द्वेष-बुद्धि उभारेगा। यदि प्रारम्भिक उपेक्षा के क्रम में बच्चे से अनसुनी करदी, तब तो उत्तेजित माता-पिता मारपीट या चीख-चिल्लाहट पर ही उतर आते हैं। उसकी प्रतिक्रिया बच्चे में बहुत तीव्र होती है और उनमें अनुशासनहीनता के बीज अंकुरित हो उठते हैं।
बच्चे की सुकुमारता और संवेदनशीलता को मात्र तीव्रता से प्यार करते समय ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण व्यवहार के साथ याद रखना चाहिए। कोई भी आदेश देते समय यह जरूर देखा जाना चाहिए कि उस समय बच्चा क्या कर रहा है और उसकी मनः स्थिति क्या है? उदाहरणार्थ बच्चा किसी रुचिकर खेल में लगा है या एकाग्रता के साथ पढ़ रहा है या किसी हानि-रहित चेष्टा में मस्त है, किसी अभिनय या अनुकरण की गतिविधि में विभोर है, तो उस समय उसे कोई आज्ञा नहीं देनी चाहिए। छोटे बच्चों को खेल आदि से विरत कराने के लिए उसे कभी सीधी निषेधात्मक आज्ञा नहीं देनी चाहिए। उनके साथ खेल में कुछ देर स्वयं भी लगकर फिर प्रस्ताव या सुझाव रूप में अपनी बात रखनी चाहिए।
बच्चे को आदेश देन का सर्वोत्तम समय वह होता है, जब वह मां के पास स्वस्थ मनःस्थिति में होता है। आदेश मुख्यतः विधेयात्मक होने चाहिए, निषेधात्मक नहीं। ‘यह मत करो’, ’वहां मत जाना’ जैसे आदेशों के स्थान पर उन्हें आकर्षक और प्रशंसापूर्ण भाव से आदेश देना चाहिए—‘हमारा मुन्ना या मुन्नी अमुक काम करेगा या करेगी’, ‘अमुक वस्तु लायेगा या लायेगी’ आदि। आज्ञा देने से पूर्व बच्चे से यह पूछे कि ‘क्या तुम यह काम करोगे या करोगी’ क्योंकि ऐसा पूछने पर ना की ही अधिक सम्भावना है और ना कर देने पर फिर उससे जोर-जबर्दस्ती से काम लेने पर प्रतिकूल प्रभाव ही पड़ेगा। आकर्षक, रचनात्मक शैली में दिये गये आदेश बच्चे की कौतूहल और मनोरंजन की भावना को प्रेरित तथा तृप्त करते हैं।
बच्चे को आवश्यक रूप से बार-बार टोकना अच्छा नहीं। क्योंकि एक तो बच्चे स्वभावतः चंचल होते हैं, किसी काम पर अधिक नहीं टिकते, फिर टोका टाकी से तो उनकी उस थोड़ी-बहुत एकाग्रता, तन्मयता में भी विक्षेप पड़ता है। फिर बच्चे के मन पर यदि इस टोकने से उखड़ जाने वाले संस्कार अंकित हो गये, तो उनकी एकाग्रता की शक्ति पर इसका प्रभाव पड़ता है और आगे चलकर वे किसी भी काम पर तन्मय-एकाग्र नहीं हो पाते। अपने सामने उपस्थित काम पर न जम पाने की प्रवृत्ति असफलताओं की ओर ही ले जाती है।
बच्चों की सहज अनुकरण-बुद्धि को सदा ध्यान में रखना चाहिए। माता-पिता को बच्चों के सामने परस्पर प्रेम-प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। अबोध बच्चों के अन्तर्मन पर भी इसका सूक्ष्म प्रभाव पड़ जाता है। बोध रखने वाले बच्चों की तो कौतूहल-भावना तीव्र हो उठती है और वे फिर परस्पर वैसा ही करने का प्रयास करते हैं। बच्चों में असमय विकसित यौन-भावना तथा यौन-अपराधों के विस्तार के लिए मां-बाप की यही भूल मुख्यतः जिम्मेदार होती है। बच्चे को नंगे ही घूमने-फिरने देना भी अच्छा नहीं। इससे भी उसकी यौन-भावना समय से पूर्व ही जग जाती है। असमय में उत्पन्न यौन-भावना को बच्चे गलत तरीके से व्यक्त करते हैं। अभिभावकों को इस बात का भी सदा ध्यान रखना चाहिए की उनकी कोई भी काम-सम्बन्धी दुर्बलता या चारित्रिक कमजोरी बच्चों के सामने न प्रकट हो जाये।
बच्चों के समझदार होने पर उन्हें हमेशा अलग-अलग बिस्तरों पर सुलाना चाहिए।
बच्चों को महत्वहीन समझकर उनसे व्यवहार करने से वह स्वयं को अनुपयोगी-उपेक्षणीय मान बैठते हैं। इससे आगे चलकर उनमें आत्म-विश्वास की कमी हो जाती है। अतः किसी कार्य को न कर पाने अथवा काम बिगड़ जाने पर उनकी खिल्ली नहीं उड़ानी चाहिए। ऐसा करने पर वे चिड़चिड़े और उद्दण्ड होने लगते हैं।
किसी मामले पर बच्चे द्वारा राय देने पर उसे झिड़के नहीं, भले ही उस राय को कोई अर्थ और महत्व न हो। झिड़कने से उनकी हिम्मत टूटने लगती है और वे सही बात कहने में भी हिचकने लगते हैं। ‘‘अजी तुम चुप रहो, अभी बच्चे हो।’’ बात-बात पर दुहराने से भी बच्चे में कुंठा उत्पन्न हो जाती है।
यह सदैव ध्यान में रखा जाय कि बच्चा आखिर मनुष्य ही है और उसकी कुछ अपनी अक्ल भी है। गिरने के डर से किसी बच्चे को चलने से नहीं रोका जा सकता। इसी प्रकार बौद्धिक गलतियां करके बच्चा अपनी बुद्धि को विकसित ही करता है।
बच्चे को डांटने और सजा देने की भी जरूरत पड़ सकती है, पर इस बात पर ध्यान रखना आवश्यक होता है कि बच्चा जब कसूर करे, उसी समय उसे डांटा जाना चाहिए। गलती के दो-तीन दिन बाद डांटने-सजा देने पर बच्चे पर वैसा कसूर न करने का प्रभाव नहीं अंकित हो पाता। अपितु वह ऐसी असमय की डांट या सजा से चिढ़-सा जाता है। साथ ही, बच्चे की गलती पर ऐसी परेशानी का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए, जिससे उसे यह आभास हो जाय कि अच्छा, इन्हें ऐसा करके परेशान किया जा सकता है। क्योंकि तब वह ऐसा करने में ही अपना महत्व बढ़ने का अनुभव करने लगता है। यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि बच्चे की जिस हरकत को शरारत समझा जा रहा है, वह उसके अनजान होने के परिणाम-स्वरूप हो रही हो। आखिर उन्हें हर बात में सही-गलत की जानकारी तो होती नहीं। अतः अनजाने में की गई भूलों को सुधार कर ठीक बात समझाने की आवश्यकता होती है, डांट-डपट की नहीं।
जिस घर में समान्तर सरकारें चल रही होंगी, वहां बच्चों में अराजकता का ही विकास होगा, अर्थात् जहां बाप कुछ हुक्म दे, मां उसकी बात को काटकर दूसरा, अथवा मां का आदेश काटकर बाप दूसरा आदेश दे, वहां उच्छृंखलता की प्रवृत्ति ही पनपेगी और बच्चों में चुगलखोरी, चापलूसी तथा फुसलाने ही आदत नहीं बढ़ेगी। वे जान जायेंगे मां को खुश करने के लिए बाप का अमुक कहना न मानने की बात बताना लाभकारी है और आज्ञाकारिता की सौदेबाजी कर मां-बाप से मन-पसन्द वस्तुएं ऐंठी जा सकती हैं। जो मां-बाप अमुक काम कर डालने पर अमुक मांग पूरी कर देने की लत बच्चों को लगा देते हैं, वे निश्चय ही उनमें इन दुर्गुणों के विकास के दोषी हैं।
बच्चे में यदि आलस्य की वृत्ति बढ़ती दिखे, तो उसे उस हेतु डांटना नहीं चाहिए। क्योंकि बच्चे स्वभाव से उत्साही, चपल और क्रियाशील होते हैं। अतः आलस्य किसी शारीरिक-विकार का परिणाम हो सकता है। उसकी जांच कराई जानी चाहिए।
यदि बालक खेल-कूद में उत्साह रखता हो, किन्तु पढ़ने या कार्य करने से जी चुराता हो, तब यही मानना चाहिए कि इसका कारण शारीरिक दोष न होकर पढ़ाई या कार्य में अभिरुचि न होना है। ऐसे बच्चों की रचनात्मक क्षमता उनके अनुकूल कार्यक्षेत्र मिलते ही प्रकट हो जाती है। अतः जरूरत इस बात की होती है कि बच्चे में व्यवहार का सूक्ष्म निरीक्षण कर उसकी स्वाभाविक अभिरुचियों का पता लगाया जाये। यहां वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन का प्रसंग स्मरणीय है। डार्विन बाल्यावस्था में पाठशाला से बहुत जी चुराता था। उसे कक्षा में कैद होने से चिढ़ थी। इसके स्थान पर जंगलों पहाड़ों में घूमने निकल जाना उसे भाता। पिता परेशान थे। वे अपने लड़के को डॉक्टर बनाना चाहते थे। जब लड़का सुधरता न दिखा तो उन्होंने उसे एक दूसरी पाठशाला में डाल दिया। वह एक मनोवैज्ञानिक प्राध्यापक थे। उन्होंने डार्विन की रुचि का पता लगा लिया और उसके पिता से भी बतला दिया कि तुम्हारा लड़का डॉक्टर तो नहीं बन सकता, पर बहुत बड़ा प्रकृति-विशेषज्ञ अवश्य बन सकता है। पिता ने अनुमति देदी और डार्विन अपनी रुचि का विषय पाकर तेजी से आगे बढ़ने लगा तथा विश्व-विख्यात वैज्ञानिक बना, विकासवाद का सिद्धान्त दुनियां के सामने प्रस्तुत किया।
वस्तुतः बच्चे की आदर्शों की पूरी जिम्मेदारी मां-बाप की है। माता ही बच्चे की प्रथम गुरु है। पांच वर्ष की उम्र तक ही बच्चा योग्य मां से इतना ही सीख सकता है, जितना आगे चार वर्ष तक भी स्कूल में न सीख सकेगा। कहानी-किस्से के रूप में बच्चे में डाले गये संस्कार उसके व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। माता जीजाबाई ने अपने पुत्र शिवाजी को बचपन से ही रामायण और महाभारत की वीर-गाथायें सुनाकर उनमें शौर्य, साहस, संकल्प और आदर्शवादिता के बीज बो दिये थे। यदि बच्चे को श्रेष्ठ संस्कार डाल सकने वाली कहानियां सुनायी जायें, तो उन पर उन कहानियों का निश्चित प्रभाव पड़ता है। बच्चों में कहानियां सुनने की तीव्र ललक होती है। उसे मां-बाप नहीं पूरा करें तो वह इधर-उधर पास-पड़ोस में सुनेंगे। अतः बच्चों को कहानियां सुनाने के लिए समय, हर मां-बाप को निकालना चाहिए तथा भय या निराशा उत्पन्न करने वाली, भूत-चुड़ैल की या किसी राजकुमारी की हत्या आदि की कहानियां उन्हें नहीं सुनानी चाहिए। भयावनी कहानियां बच्चे की विचार-धारा और कल्पना प्रभाव को भय की ही दिशा में मोड़ देती हैं और भयप्रद विचारों तथा कल्पनाओं में उलझा बच्चा अकारण ही भयभीत होने लगता है। भय का ही दूसरा रूप है—अतिशय झिझक। जो मां-बाप बच्चों को बात-बात पर झिड़कते रहते हैं, वे अपने बच्चों में ऐसी झिझक की भावना पैदा कर देते हैं। उनके बच्चे दूसरों से भी बात करने में झिझकते हैं। यह झिझक गहरी आत्महीनता का कारण बनती है और इस आत्महीनता की प्रक्रिया को कई बार बच्चे आगे चलकर उद्दण्ड या अपराधी भी हो जाते हैं। अधिकांश उद्दण्ड किशोर भीतर से बहुत डरपोक होते हैं। अतः बच्चों में भय और झिझक की भावनायें पैदा ही नहीं होने देना चाहिए और यदि किसी कारण पैदा हो भी जायें तो मनोवैज्ञानिक ढंग से उसके भय को दूर करने के उपाय तत्काल किये जाने चाहिए। वस्तुतः बच्चे के प्रति मां-बाप को निरन्तर सतर्क रहना ही होता है। बच्चे के पालन-पोषण का यह अर्थ नहीं है कि उसे रोटी खिला दी जाये, कपड़े बनवा दिये जायें, पुस्तकें-खिलौने आदि ला दिये जायें और पैसे दे दिये जायें। बच्चों के व्यक्तित्व-निर्माण की जिम्मेदारी भी उन्हीं की है। स्कूल खदेड़ कर वहां किसी मशीन में बच्चे के व्यक्तित्व के ढल कर सुघड़ हो जाने की आशा भी हास्यास्पद है। व्यक्तित्व-निर्माण का प्राथमिक दायित्व माता-पिता का ही है, अतः उस हेतु उन्हें की प्रयास करने होंगे।
बच्चों की कोमलता को ध्यान में रखने का यह अर्थ है कि उनकी अनुचित मांगों को स्वीकार किया जाये। ऐसा करने से बालक का ही अहित होगा। बच्चे की उचित-अनुचित सभी मांगों को स्वीकार करते जाने का अर्थ है उसे हठी-दुराग्रही बनाना। साथ ही ऐसे बच्चे ही अनुचित इच्छायें भी बढ़ती जाती हैं और उनकी पूर्ति के लिए उनमें निगाह बचाकर चोरी करने जैसी बुरी आदतें पैदा हो जाती है। अतः बच्चे की अनुचित मांगें कदापि पूरी नहीं करनी चाहिए। इस विषय में पर्याप्त दृढ़ता बरती जानी चाहिए। विशेष कर माताओं को इस दिशा में अधिक सजग रहने की आवश्यकता है। उनका कोमल हृदय बच्चे के रोने-मचलने से विचलित हो उठता है। किन्तु उन्हें बच्चे के हित की दूरगामी दृष्टि रखकर अपनी इस कोमलता को कमजोरी नहीं बनने देना चाहिए।
बच्चे के हठी, आलसी, चिड़चिड़े, उच्छृंखल, स्वेच्छाचारी, अनुशासनहीन, डरपोक और विपथ गामी होने की प्रमुख जवाबदारी माता-पिता पर होती है। दूसरों पर दोष डालकर वे इससे बच नहीं सकते। बच्चे के पालन-पोषण का अर्थ उसके व्यक्तित्व-विकास की ओर सदा ध्यान दिये रहना भी होता है। जो माता-पिता ऐसा नहीं कर पाते, वे बच्चे के प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं पूरी करते।
एक अनुभवी शिक्षक का कथन है कि हम लोग अपने बालकों की शिक्षा के सम्बन्ध में भी उदासीन हो गये हैं। माता-पिता को समय नहीं मिलता कि बालकों की ओर समुचित ध्यान दें। वे चाहते हैं कि बालक को पाठशाला में भर्ती करा दें और आगे का सब काम अध्यापक ही कर लेंगे, पर आज के अध्यापक को कोई परवाह नहीं। यह एक कारण है जिससे बालकों की शिक्षा दूषित होती है।
मान लीजिए कि जब आप कहीं आमोद-प्रमोद के लिए जाते हैं तो वहां पड़ाव डालकर अपना सारा काम स्वयं करते हैं। झाड़ू देकर जमीन साफ करते हैं लड़कियां बीन आग जलाते, बर्तन साफ करते, चाय बनाते, पत्तों पर भोजन करते हैं। यह सब काम बड़ी रुचि से करते हैं जिसमें एक प्रकार का आनन्द आता है। वही काम यदि घर पर करना पड़ जाय तो सम्भवतः आप यह कर इन्कार कर देंगे कि ‘यह हमारा काम थोड़े ही है।’ बच्चे को सभ्य व सुसंस्कृत बनाना माता-पिता की जिम्मेदारी है उस जिम्मेदारी के पालन से ही बच्चे समाज के लिए उपयोगी बन जाते हैं।
जिस प्रकार इमारत का ख्याल रख कर हम नींव डालते हैं, उसी प्रकार बच्चे की समझ तथा पढ़ने की कठिनाई को समझकर हमें पहले उस ओर बच्चों की दिलचस्पी पैदा करनी आवश्यक है। बहुतेरे माता-पिता की यह शिकायत होती है कि बच्चा स्वयं नहीं पढ़ता, उसको एक साल स्कूल जाते हो गया परन्तु उसने कुछ नहीं सीखा है। घर पर भी मार मार कर पढ़ाना पड़ता है। अब भला बताइए जिस काम के कारण शुरू में ही बच्चे का खेलना बन्द हो जाय, तीन घंटे कक्षा में कैदी के समान बंध कर बैठना पड़े, न हंस सके, न बोल सके, न कहीं इधर-उधर जा सके, पढ़ाई कुछ समय में न आने पर मास्टर से तथा घर पर मारपीट अलग सहनी पड़े, उस काम में बच्चे की दिलचस्पी कैसे हो सकती है? वह तो मास्टर को एक हलुआ तथा पढ़ाई को मुसीबत समझने लगते हैं। लड़का जब घर पर कुछ शरारत करता है तो मां-बाप धमका कर कहते हैं ‘यह मेरा कहना नहीं मानता, दिन भर घर में ऊधम मचाये रहता है अगले महीने से इसे स्कूल भेजूंगी। तब इसकी तबियत ठीक होगी, सारी बदमाशी भूल जायेगा।’ जहां भी पढ़ाई के विषय में बच्चे का आरम्भिक अनुभव बुरा हुआ, बड़ा होने तक दूर नहीं होता। यही कारण है कि मेधावी बच्चों में दिलचस्पी की कमी बनी रहने से वह उतना अच्छा नतीजा नहीं दिखा पाते।
इससे यह सिद्ध होता है कि एक ही काम भिन्न-भिन्न तरीकों से दिलचस्प भी हो सकता है और अरुचिकर भी। बच्चों के विषय में भी यही बात है कि उनको जब आप कोई काम सिखायें तो उसके प्रति बच्चों की उत्सुकता तथा शौक बनाये रखें, फिर आप देखें कि बच्चे अपना खाना-पीना भूलकर किस प्रकार ध्यान से आपकी बात सुनते हैं। वास्तविक बात तो यह है कि माता ही बच्चे की सर्वप्रथम गुरु है। पांच वर्ष की उम्र में बच्चा योग्य मां में इतना कुछ सीख सकता है, जितना चार साल आगे स्कूल में नहीं सीख सकेगा। कहानी किस्से के रूप में ही बच्चा इतिहास, भूगोल, धर्म विज्ञान, स्वास्थ्य रक्षा, सफाई, कविता, कहानियां, चुटकुले आदि की शिक्षा प्राप्त कर लेता है। बच्चे कहानी सुनने के बड़े शौकीन होते हैं। कहानियों के द्वारा ही बच्चों का चरित्र निर्माण हो सकता है। अब यह तो मां की योग्यता और चरित्र पर निर्भर करता है कि बच्चे को किस प्रकार की कहानी सुनावें। परियों की कहानी जानने वाली मातायें बच्चों को वह सब सुनाती रहती हैं परन्तु माता जीजाबाई बच्चे शिवाजी को रामायण और महाभारत की वीर कहानियां सुनाती रहती थीं। तभी तो आगे चलकर उनका बच्चा प्रतिपालक आज्ञाकारी और साहसी बना। घर में जब बच्चों की स्मरण शक्ति का इन कहानियों के द्वारा विकास हो जायेगा वह बड़ा होकर उन्हीं बातों की चर्चा इतिहास, भूगोल विज्ञान आदि की पुस्तकों में पढ़ेगा, तब उस विषय के अपने बाल्यकाल के ज्ञान को वह उसी कड़ी में जोड़ देगा। इस प्रकार अवस्था में शिक्षण की जो पहली कड़ी तैयार हुई होगी, आगे का ज्ञान उसी के साथ श्रृंखला बद्ध हो जायेगा। पहली मजबूत नींव पर ही आगे ही इमारत खड़ी कर दी जायेगी।
संस्कारों को समुचित दिशा भी तो मिले
यह ठीक है कि जन्म लेने वाला प्रत्येक बालक अपनी तरह के संस्कार लेकर आता है और अपनी अधिकांश जीवन यात्रा उन्हीं के सहारे प्रारम्भ करता है। पर इन संस्कारों को भाग्य निर्माण की कुंजी बताना बच्चों के साथ—भावी पीढ़ी के साथ विश्वासघात करने के बराबर है। संस्कारों को ‘‘कच्चा पदार्थ’’ तो मान सकते हैं, पर उन्हें नई दिशा देकर उपयोगी और परिपक्व बनाने का उत्तरदायित्व उस बालक का नहीं, माता पिता, परिवार और समाज का होता है। बच्चे तभी भटकते हैं जब उन्हें समुचित दिशा नहीं मिलती।
स्नेह, प्यार, दुलार बच्चे के विकास के अनिवार्य तत्व हैं। इनके सहारे ही उसमें नैतिक आचरण और सद्गुणों का विकास होता है, पर वह अभिभावक जो लाड़ और प्यार के मध्य बच्चे के अध्ययन और सुधार की बुद्धि नहीं रखते और कोई हो या न हो, पर वह तो उनके शत्रु के समान ही हैं। अनियन्त्रित लाड़ का एक ही अर्थ है बच्चे को कंटकाकीर्ण बियावान जंगल में अनाश्रित छोड़ देना। उस स्थिति में उसका भटकना ही निश्चित है।
बालक का हृदय कोरी स्लेट और स्वच्छ वस्त्र के समान होता है। कोरी स्लेट में जो चाहे लिखा और धवल वस्त्र में कैसा भी रंग चढ़ाया जा सकता है। संस्कारों के अतिरिक्त कुछ और भी आवश्यक गुण होते हैं जिनसे बालक की पहचान होती है। वह हैं—(1) अनवरत सक्रियता या चंचलता (2) तीव्र जिज्ञासा अर्थात् हर नई वस्तु के अन्तरंग ज्ञान और मेल-मिलाप की आकांक्षा (3) सरलता और निश्चिन्तता। इन जन्म-जात गुणों को, संस्कारों को शक्ति प्रदान करने वाला तत्व कह सकते हैं इन्हीं के सहारे जो भी दिशा मिलती है बालक के संस्कार तेजी से गतिशील हो जाते हैं और उसे अच्छी या बुरी किसी भी दिशा में ले जाते हैं।
कच्चे लोहे को पिघला कर इस्पात ढालने की अपनी विद्या होती है। पेट्रोलियम से कीमती मोबीआइल निकालते हैं। बच्चे के संस्कार वे चाहे कितने ही जन्मों से जड़ पकड़े हुए हों उन्हें सुधारा और संवारा जाना बिल्कुल आसान बात है यदि हम बच्चे को वैसी दिशा और वातावरण दे सकें।
बच्चे में गीत गाने के संस्कार हैं तो उसे प्रेरणाप्रद गीत सिखाने की, कहानियां, नाटक और प्रेरणाप्रद दृष्टान्त सिखाने की जिम्मेदारी आपकी— बच्चे के माता-पिता और सम्बन्धियों की होती है। चाहने भर से काम नहीं चलता—इच्छा और प्रयत्नों का चोली दामन का साथ है यदि माता-पिता न सिखायें और बच्चा सिनेमा के गीत गाने लगे तो उसका क्या दोष।
उसके तोड़-फोड़ के स्वभाव को कोई रोकना भी चाहे तो रोका जाना सम्भव नहीं, उससे हानि तो होती ही है खीझ और लड़ाई-झगड़े भी होते रहते हैं; यदि प्रारम्भ में बच्चे को कागज की नाव बनाना, कागज की टोपी और गुब्बारा बनाना, खिलौने बनाना, फूल-पौधे लगाने जैसे बिना खर्च के काम सिखा दिये जायें तो निरर्थक दिखाई देने वाली यह आदतें उसमें विलक्षण सृजनात्मक प्रतिभा जागृत कर सकती हैं बच्चों में झगड़े की प्रवृत्ति इस बात की द्योतक है कि उसकी उभरती शक्ति को समुचित दिशा नहीं दी जा रही— उसकी उमंगों को दबाया जा रहा है उसकी सक्रियता, जिज्ञासा और सरलता को भटकने के लिए छोड़ दिया गया है इसीलिए वह अपना भी सर तोड़ता है औरों का भी। किन्तु यदि उस शक्ति को साहित्य, कला, रचना, गणित, विज्ञान आदि किसी दिशा में लगा दिया जाये तो ऐसा बालक कभी भी पराश्रित नहीं मिलेगा वह कभी जीवन में हताश, निराश या उद्विग्न भी नहीं होगा।
अधिकांश माता, पिता को समय न मिलने की शिकायत रहती है। यदि ऐसा है तो फिर यह जिम्मेदारी ही क्यों ली जाये? यह जानने योग्य बात है—बल्कि यह कहना चाहिए कि विवाह से पूर्व उम्मीदवारों को इस बात का पूरी तरह बोध करा दिया जाना चाहिए कि एक बालक दस हाथियों से कम की देखभाल नहीं चाहता। खुराक भले ही कम हो; पर देखरेख के लिए समय, श्रम सावधानियां इतनी अधिक उपेक्षित हैं जितनी किसी फैक्ट्री का खड़ा करना। तभी फैक्ट्री उपयोगी हो सकती है, तभी बालक सुसंस्कृत हो सकते हैं।
मार्कट्वेन ने इस सम्बन्ध में गम्भीर अध्ययन और चिन्तन के जो निष्कर्ष दिये हैं, वह इसी तथ्य को प्रतिपादन करते हैं। उन्होंने अपराधी बालकों के एक गिरोह के चार बच्चों के पारिवारिक जीवन का अध्ययन किया। यह सभी बालक सम्पन्न घरों के थे। एक दिन उन्होंने किसी की नील गाय पकड़ ली। उसे मारा और उसकी खाल एक दुकान पर बेच दी। दुकानदार ने खाल भीतर रख दी और बाहर आकर फिर काम करने में लग गया। लड़कों ने इतने ही क्षणों में पिछवाड़े की खिड़की तोड़ ली। वे पीछे गये और एक के ऊपर एक चढ़कर भीतर घुस गये और फिर वही खाल निकाल कर उसी दुकानदार को बेच दिया। दुकानदार सस्ती खालें मिलने से प्रसन्न था और बच्चों की आमद बढ़ रही थी। एक ही खाल इन लड़कों ने चार बार बेची। इस बार दुकानदार अन्दर गया तो हिसाब लगाने के लिए जब खालें गिनने को उद्यत हुआ तो एक ही खाल देखकर सन्न रह गया। मार्कट्वेन ने इन बच्चों की घरेलू परिस्थितियां इनके स्कूली जीवन की आज से तुलना की तो पाया कि यह बच्चे स्कूल में तीक्ष्ण बुद्धि माने गये हैं, पर घर में उनके माता, पिता में से किसी ने उन्हें शायद ही किसी दिन 10-15 मिनट देकर परिस्थितियां पूछी हों। संरक्षण और मार्ग-दर्शन के इस अभाव ने इन बच्चों के साहस और बुद्धिमत्ता को यहां तक ला दिया जब कि उनकी परिस्थितियां ऐसी थीं कि वे इंजीनियर और डॉक्टर बन सकते थे। इन वारिसों ने मार्कट्वेन के परामर्श को स्वीकार कर अपने किशोरों को प्रतिदिन नियमित समय देना प्रारम्भ किया और एक दिन वह बालक हवाई सर्विस का कुशल डिजाइन इंजीनियर बना।
कई लोग कठिन नियन्त्रण और बच्चों को भयभीत रखकर उनके सुधार की अपेक्षाएं किया करते हैं, वे दोहरी भूल करते हैं दोपहर की रेत से अधिक से अधिक पैर जल सकते हैं, पर ज्वालामुखी तो सर्वस्व नाश करता है ऐसे बालक तो और भी भयंकर अपराधी और दुष्ट प्रकृति के हो जाते हैं अतएव दबाव डालने की नीति तो बिलकुल अव्यावहारिक है। कुशल माता-पिता बच्चे के सम्वेदनशील हृदय और मस्तिष्क के साथ अपनी बौद्धिक उर्वरता जोड़ दें उनके जन्म-जात संस्कार यदि वह खराब भी हैं तो भी उन्हें चोर की वीरता को सिपाही के शौर्य में बदल देने की तरह सुधारा और सजाया जा सकता है। यह रचनात्मक दृष्टिकोण हर माता-पिता में विकसित हों तभी भावी पीढ़ी की सुसंस्कृत रचना साकार हो सकती है।
बच्चों को सुसंस्कृत बनाने वाली रचनात्मक प्रेरणा ही उनकी दीक्षा कही जाती है। शिक्षा के साथ दीक्षा की भी आवश्यकता है। बिना दीक्षा के शिक्षा भटकाव का कारण बन सकती है और बिना शिक्षा के दीक्षा हो ही नहीं सकती। इसलिए बच्चों को शिक्षा एवं दीक्षा दोनों ही दी जानी चाहिए। दोनों ही आवश्यक हैं।
परिवार एक प्रयोगशाला होती है, और माता उसकी प्रधान वैज्ञानिक। इस प्रयोगशाला में विभिन्न प्रयोगों से नये-नये आविष्कार किये जा सकते हैं। यदि इस प्रयोगशाला में सुसंस्कृत एवं आत्म-सम्मानी बच्चों का निर्माण करना हो तो उन्हीं के अनुरूप प्रयत्न एवं प्रयोग किये जाने चाहिए। अपने प्रयोगों की उत्कृष्टता की श्रेणी तक पहुंचाने के लिए यथा सम्भव प्रयत्न करने पड़ेंगे, जिससे देश व समाज भी लाभान्वित हो सकें।
कौन माता पिता नहीं चाहेंगे कि उनके बच्चे सभ्य समाज की एक कड़ी बनें, महान बनें, उनकी आकांक्षाओं के अनुरूप बनकर उनका तथा स्वयं का नाम उज्ज्वल करें। फिर यह सब कैसे होगा? कैसे उनके बच्चे महान बन सकेंगे? इसके लिए माता-पिता को त्याग, परिश्रम तथा अथक प्रयास व लगन के साथ बच्चों की नींव मजबूत बनानी होगी। परिवार एक पाठशाला है, बच्चा यहां जो भी सीखता है वही उसके संस्कार बन जाते हैं। बच्चा उस कोमल डाल के समान है, जिसे जिस ओर चाहो मोड़ा जा सकता है, या कुम्हार की उस कच्ची मिट्टी के समान होता है, जिससे कुम्हार अपने इच्छानुरूप पात्र बना सकता है। इस कच्ची मिट्टी में जिस प्रकार के संस्कार भरे जायेंगे, उसी के अनुरूप पात्र निर्मित हो जायेंगे। अब यह मां या परिवार के अन्य सदस्यों पर निर्भर करता है कि वे किस प्रकार के संस्कार भरना चाहेंगे।
परिवार में मां ही एक मात्र ऐसी सदस्या होती है, जिसके सम्पर्क में बच्चा सबसे अधिक रहता है। पालने से लेकर ठीक से होश सम्भालने तक वह माता के ही पास रहता है। यदि शिशुपन से ही उसकी ठीक से देख-भाल की जा सके तो कोई कारण नहीं कि मां उसे शिवा, विनोबा, भगतसिंह आदि जैसे महामानवों की प्रति मूर्ति न बना सके। प्रारम्भ में जब बच्चा शिशु होता है उसी समय से माता को चाहिए कि वह उसमें उचित संस्कार ठीक ढंग से लालन-पालन करके डाले। इस काल में मां को चाहिए कि वह स्वयं नियन्त्रित रहकर शिशु का पालन-पोषण करें। स्वच्छता का ध्यान रखना एकान्त में शान्त भाव से दुग्धपान कराना उनमें प्रमुख हैं। मां का दुग्ध विभिन्न नाड़ियों से गुजर कर आता है तथा उसमें भावना भी संयुक्त होती है। इसलिये यदि मां के मन में खिंचाव, तनाव तथा हीन भावनाएं होंगी तो उन भावनाओं का प्रभाव दुग्ध द्वारा शिशु पर भी पड़ने की पूरी-पूरी सम्भावना होती है। इसी प्रकार वातावरण में भी इस प्रकार की व्यवस्था हो कि शिशु को हर दशा में आराम का अनुभव होता रहे। जब शिशु बड़ा होता है और धीरे-धीरे बातों को समझने लायक हो जाता है, यहीं से उसका वास्तविक शिक्षण प्रारम्भ होता है। इस अवस्था में परिवार ही उसकी प्रवेशिका होती है, जिससे वह सब कुछ सीखता है। इसलिए परिवार का वातावरण उचित होना चाहिए। परिवार की व्यवस्था इस प्रकार की हो कि बच्चा हर प्रकार की अच्छी आदतों का अनुकरण कर सके, जो उसके निर्माण में सहायक हों। इस अवस्था में मां को बहुत बड़ी भूमिका निभानी पड़ती है।
प्रगति का घोंसला छोटी-छोटी आदतों के तिनकों से बुनकर तैयार होता है। देखने में ऐसी आदतें छोटी भले ही हों परन्तु इनका प्रभाव बच्चों के कोमल मन पर बहुत अधिक पड़ता है। इन छोटी-छोटी आदतों में सर्वप्रथम है नियमित दिनचर्या। प्रतिदिन समय पर उठना, शौच, स्नान, मंजन, सफाई आदि की नियमित आदत बच्चों में तथा दूसरे परिवार में डालनी चाहिए। इसके साथ ही समय का विभाजन से कई तरह के अन्य कार्य करने का यहां तक कि मनोरंजन, विश्राम का भी पर्याप्त समय मिल जाता है। बच्चों को समझाया जाय कि नियमित दिनचर्या से क्या लाभ हैं और अनियमित से क्या हानियां होती हैं। इन बातों को बच्चों के मन पर अच्छी प्रकार बैठा देना चाहिए ताकि ये छोटी-छोटी आदतें उनके जीवन में नियमित दिनचर्या बन जाय।
बच्चों में ऐसी भावना भरनी चाहिए कि वह अपने से बड़ों का सम्मान करें। उनसे शिष्टाचार के साथ बातें कर सकें। इसके लिए यह नितान्त आवश्यक है कि परिवार में भी इसी के अनुकूल वातावरण बनाया जाये। क्योंकि बच्चा बन्दर की तरह नकलची होता है, जैसा स्वयं हम व्यवहार करते हैं—उसी का अनुकरण बच्चा भी करता है। इसलिए उसकी भावनाओं को उभारने के लिए उसी प्रकार के वातावरण का निर्माण करना चाहिए, जिसकी हम बच्चे से उपेक्षा करते हैं। हमारी भारतीय परम्परा अपने से बड़ों का चरण स्पर्श द्वारा अभिवादन करने की रही है। यह भावना बच्चों में भी भरनी चाहिए।
इसके लिए यह आवश्यक है कि बड़े लोग भी बच्चों या अपने से छोटे-बड़ों से वैसा ही व्यवहार करें जैसे वे बच्चों से अपेक्षा करते हैं। बड़ों को भी बच्चों के साथ शिष्टाचार के साथ पेश आना चाहिए। व्यवहार में नम्रता शीलता, सज्जनता का पुट रहना आवश्यक है। बच्चों का अपमान न किया जाय, उनके स्वाभिमान को ठेस न पहुंचाई जाय। अबोध बालक से भी ‘आप’ का सम्बोधन किया जाय, यदि ‘आप’ नहीं तो कम से कम ‘तुम’ तो कहा ही जाय। ‘तू’ के शब्द को असभ्य माना जाय। कन्या या पुत्र में कोई अन्तर न समझा जाय। दोनों के साथ एक सा व्यवहार किया जाय।
बच्चों में धार्मिक भावनाओं का समावेश किया जाना चाहिए, ताकि वे धर्म के मूल्यों को समझ सकें, उनमें ईश्वर के प्रति श्रद्धा व विश्वास बढ़ सके। इससे वे बड़े होकर अनीतिगामी न हो सकेंगे। इसके लिए प्रारम्भ से ही उन्हें सामूहिक प्रार्थना का अभ्यास, गायत्री-मंत्रोच्चारण या कोई भावनापूर्ण प्रार्थना करने की आदत प्रायः एवं सायं डालनी चाहिए। साथ ही साथ उन्हें प्रार्थना के तथा गायत्री मन्त्र के लाभों के बारे में भी बताया जाय।
मिल-जुलकर खेलने तथा रहने की बच्चों में तीव्र भावना होती है। यह भावना बनी रहे, इसके लिये उचित वातावरण का होना आवश्यक है। मिल-बांटकर खाने, एक ही खिलौने से मिल-जुलकर खेलने की आदतों को बढ़ावा देना, परस्पर मिलकर काम करने की परम्परा डालने से उनमें विश्व मैत्री की भावना का विकास हो सकता है। कभी-कभी माता-पिता बच्चों की छोटी-छोटी बातों से तंग आकर अकारण ही उन्हें झिड़क देते हैं। इससे बच्चों के मन में हीन भावना घर कर जाती है, जो उनके विकास में बड़ी बाधा पहुंचाती है। अतः बच्चे बेकार के कामों में न उलझे रहें, इसके लिए उनमें रचनात्मक कार्यों के प्रति आकर्षण पैदा किया जा सकता है, जिससे वे क्रियाशील रहें। उन्हें ऐसी प्रेरणा दी जाय ताकि वे अपना काम स्वयं कर सकें। समय का उपयोग समझ सकें।
घर में हर किसी को मितव्ययिता तथा सादगी का पाठ पढ़ाया जाय। चटोरापन, फिजूलखर्ची, उद्धत श्रृंगार, गाली-गलौच जैसी बुरी आदतें बच्चों में न पनपने पाये इसका विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए। लाड़-चाव से किसी में भी फिजूल खर्ची की आदत नहीं डालनी चाहिए।
सादगी अपने आप में एक बहुत बड़ा गुण है। बच्चों को इसकी शिक्षा दी जानी चाहिए। बच्चों के पहनावे का ध्यान रखना चाहिए। बच्चों का स्वच्छ तथा स्वस्थ तो रखा ही जाय, उन्हें आकर्षक भी बनाया जा, परन्तु किसी भी दशा में ‘फैशनेबल’ न बनाया जाय। उन्हें सादगी व सज्जनता का गौरव सीखने दिया जाय। इससे वे सादगी में हीनता का अनुभव नहीं करेंगे। अपनी प्रामाणिकता पर स्वयं सन्तुष्ट होंगे तथा दूसरों की दृष्टि से वजनदार सिद्ध होंगे।
सादगी के साथ ही उन्हें अपने स्वास्थ्य के प्रति भी सजग रहने की शिक्षा दी जाये। छोटे-मोटे खेल व विनोद घर में ही किये जा सकते हैं। जिसमें संगीत का अभ्यास भी सम्मिलित है। इससे पूरे परिवार में सरसता की लहर दौड़ पड़ेगी तथा बच्चे की प्रतिभा का विकास होगा। बच्चों के स्वस्थ मनोरंजन की भी व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे आज कल चल रहे बेढंगे मनोरंजनों के प्रति उनका आकर्षण न हो। बच्चों को साथ लेकर स्वास्थ्य वर्द्धक स्थानों में, पार्क, दर्शनीय स्थानों में जाना चाहिये तथा कभी अवकाश के दिन या त्योहार के दिन पिकनिक पर निकल पड़ना चाहिए, इससे बच्चे को प्राकृतिक दृश्यों के प्रति प्रेम भावना का विकास होगा।
प्रायः बच्चों में बड़प्पन की भावना देखने को मिलती है। बड़े बच्चे अपने से छोटों पर अपना बड़प्पन लादना चाहते हैं। समय-समय पर बच्चों के खेलों में यह भावना देखने को मिलती है। कभी-कभी जब खेल-खेल में छोटे बच्चे जीत जाते हैं तो बड़ों के मन में उनके प्रति प्रतिस्पर्धा जाग जाती है। प्रतिस्पर्धा की वह भावना बड़ी खराब है। इसलिये बच्चों को इसके प्रति सजग रहने की शिक्षा दी जानी चाहिए कि वे खेलों में छोटों को उत्साहित किया करें, जिससे उनमें हीन भावना उत्पन्न नहीं होने पावे। बच्चों को राम और भरत के उदाहरण के द्वारा समझाया जा सकता है कि बचपन में राम खेल में जीतने पर भी अपने छोटे भाइयों को जिता देते थे और स्वयं हार जाते थे। चित्रकूट में भरत ने स्वयं ही कहा है।
मो पर कृपा सनेहु विसेवी। खेलत खुनिस कबहु ना देखी॥
मैं प्रभु कृपा रीति जिम जोही। हारेहु खेल जितावहु मोही॥
यदि यही भावना बच्चों में भरी जाय तो उनमें बड़प्पन के अहंकार का भूत नहीं बढ़ पायेगा। वे घर में ही नहीं बाहर भी अपने से छोटों के प्रति वही स्नेही रखने में सफल होंगे। प्रायः बच्चों में संकोचशीलता मिश्रित भय, झिझक, संकोच आदि की भावना घर कर जाती है। कुछ बच्चे घर में तो बड़े मुखर होते हैं परन्तु बाहर जाने पर कुछ भी नहीं बोल सकते, शर्म मिश्रित भय से ग्रसित हो जाते हैं। कभी-कभी ऐसे बच्चे इन कुण्ठाओं से ग्रस्त होकर अपने को बड़ा दिखाने के लिये क्रूरता का सहारा भी ले बैठते हैं। अतः माता पिता तथा परिवार, सदस्य, इस पर ध्यान दें। ऐसी स्थिति में उन्हें व्यवहार कुशल तथा मिलनसार बनाने की चेष्टा करनी चाहिए। इसके लिए सांस्कृतिक कार्यक्रम, बच्चों की सामूहिक गोष्ठी, छोटे-छोटे नाटक, खेल आदि की व्यवस्था की जानी चाहिए, इससे बच्चों में धीरे-धीरे आत्म-विश्वास की भावना भरने लगेगी तथा मिलनसारिता आयेगी।
माता-पिता को चाहिये कि बच्चों में स्वयं निर्णय लेने की क्षमता का विकास करें। इसके लिए माता-पिता को भी किसी समस्या के प्रति ठोस निर्णय लेने चाहिए। प्रायः माता-पिता बच्चे को गलत निर्णय लेने पर उन्हें डाट-फटकार लगाते हैं या प्रताड़ित करते हैं, यह गलत है। गलत निर्णय लेने पर भी बच्चों के प्रति सहानुभूति रखनी चाहिए तथा उनको प्रोत्साहित करना चाहिए कि वे सही निर्णय लेने की क्षमता का विकास करें। इससे बच्चे का आत्म-विश्वास जागेगा एवं उसे सही निर्णय लेने में सहायता मिलेगी।
अतः यदि परिवार तथा माता-पिता आरम्भ से ही बच्चे की क्रिया-कलापों की ओर ध्यान दें, बच्चों की चहुंमुखी प्रतिभा को विकसित करने में अपना पूरा योगदान दें, तो कोई कारण नहीं कि बच्चे सुसंस्कृत, सभ्य आत्म-स्वाभिमानी, निडर, आत्म-निर्भर न बनें, और नये समाज के आधार स्तम्भ न सिद्ध हों। भावी समाज का महल इन्हीं बच्चों द्वारा बनना है। ये बच्चे ही कल के राष्ट्र की तकदीर होंगे, या यों कहा जाय, सुसंस्कृत, सभ्य तथा स्वाभिमान बच्चे ही सभ्य तथा उन्नत समाज की नींव है।
जिम्मेदारी—अभिभावकों पर!
बच्चों में आलस्य, उच्छृंखलता, अनुशासनहीनता, स्वेच्छाचार आदि की जिम्मेदारी अधिकांश माता-पिता या तो बच्चे के साथियों पर डाल देते हैं, या फिर पड़ोसियों और वातावरण पर। किन्तु तथ्य यह है कि इनमें से अधिकांश बुराइयों के लिए माता-पिता और अभिभावक ही उत्तरदायी होते हैं।
बच्चों में अनुशासन और आज्ञा-पालन की प्रवृत्ति के विकास को उत्सुक माता-पिता जब अनुशासन सम्बन्धी आदेश-निर्देश रौब दिखाकर या दबाव डालते हुए देते हैं, उस समय उन्हें स्मरण करना चाहिए कि यह व्यवहार बच्चे में विरोध-विद्रोह की भावना जगायेगा या द्वेष-बुद्धि उभारेगा। यदि प्रारम्भिक उपेक्षा के क्रम में बच्चे से अनसुनी करदी, तब तो उत्तेजित माता-पिता मारपीट या चीख-चिल्लाहट पर ही उतर आते हैं। उसकी प्रतिक्रिया बच्चे में बहुत तीव्र होती है और उनमें अनुशासनहीनता के बीज अंकुरित हो उठते हैं।
बच्चे की सुकुमारता और संवेदनशीलता को मात्र तीव्रता से प्यार करते समय ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण व्यवहार के साथ याद रखना चाहिए। कोई भी आदेश देते समय यह जरूर देखा जाना चाहिए कि उस समय बच्चा क्या कर रहा है और उसकी मनः स्थिति क्या है? उदाहरणार्थ बच्चा किसी रुचिकर खेल में लगा है या एकाग्रता के साथ पढ़ रहा है या किसी हानि-रहित चेष्टा में मस्त है, किसी अभिनय या अनुकरण की गतिविधि में विभोर है, तो उस समय उसे कोई आज्ञा नहीं देनी चाहिए। छोटे बच्चों को खेल आदि से विरत कराने के लिए उसे कभी सीधी निषेधात्मक आज्ञा नहीं देनी चाहिए। उनके साथ खेल में कुछ देर स्वयं भी लगकर फिर प्रस्ताव या सुझाव रूप में अपनी बात रखनी चाहिए।
बच्चे को आदेश देन का सर्वोत्तम समय वह होता है, जब वह मां के पास स्वस्थ मनःस्थिति में होता है। आदेश मुख्यतः विधेयात्मक होने चाहिए, निषेधात्मक नहीं। ‘यह मत करो’, ’वहां मत जाना’ जैसे आदेशों के स्थान पर उन्हें आकर्षक और प्रशंसापूर्ण भाव से आदेश देना चाहिए—‘हमारा मुन्ना या मुन्नी अमुक काम करेगा या करेगी’, ‘अमुक वस्तु लायेगा या लायेगी’ आदि। आज्ञा देने से पूर्व बच्चे से यह पूछे कि ‘क्या तुम यह काम करोगे या करोगी’ क्योंकि ऐसा पूछने पर ना की ही अधिक सम्भावना है और ना कर देने पर फिर उससे जोर-जबर्दस्ती से काम लेने पर प्रतिकूल प्रभाव ही पड़ेगा। आकर्षक, रचनात्मक शैली में दिये गये आदेश बच्चे की कौतूहल और मनोरंजन की भावना को प्रेरित तथा तृप्त करते हैं।
बच्चे को आवश्यक रूप से बार-बार टोकना अच्छा नहीं। क्योंकि एक तो बच्चे स्वभावतः चंचल होते हैं, किसी काम पर अधिक नहीं टिकते, फिर टोका टाकी से तो उनकी उस थोड़ी-बहुत एकाग्रता, तन्मयता में भी विक्षेप पड़ता है। फिर बच्चे के मन पर यदि इस टोकने से उखड़ जाने वाले संस्कार अंकित हो गये, तो उनकी एकाग्रता की शक्ति पर इसका प्रभाव पड़ता है और आगे चलकर वे किसी भी काम पर तन्मय-एकाग्र नहीं हो पाते। अपने सामने उपस्थित काम पर न जम पाने की प्रवृत्ति असफलताओं की ओर ही ले जाती है।
बच्चों की सहज अनुकरण-बुद्धि को सदा ध्यान में रखना चाहिए। माता-पिता को बच्चों के सामने परस्पर प्रेम-प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। अबोध बच्चों के अन्तर्मन पर भी इसका सूक्ष्म प्रभाव पड़ जाता है। बोध रखने वाले बच्चों की तो कौतूहल-भावना तीव्र हो उठती है और वे फिर परस्पर वैसा ही करने का प्रयास करते हैं। बच्चों में असमय विकसित यौन-भावना तथा यौन-अपराधों के विस्तार के लिए मां-बाप की यही भूल मुख्यतः जिम्मेदार होती है। बच्चे को नंगे ही घूमने-फिरने देना भी अच्छा नहीं। इससे भी उसकी यौन-भावना समय से पूर्व ही जग जाती है। असमय में उत्पन्न यौन-भावना को बच्चे गलत तरीके से व्यक्त करते हैं। अभिभावकों को इस बात का भी सदा ध्यान रखना चाहिए की उनकी कोई भी काम-सम्बन्धी दुर्बलता या चारित्रिक कमजोरी बच्चों के सामने न प्रकट हो जाये।
बच्चों के समझदार होने पर उन्हें हमेशा अलग-अलग बिस्तरों पर सुलाना चाहिए।
बच्चों को महत्वहीन समझकर उनसे व्यवहार करने से वह स्वयं को अनुपयोगी-उपेक्षणीय मान बैठते हैं। इससे आगे चलकर उनमें आत्म-विश्वास की कमी हो जाती है। अतः किसी कार्य को न कर पाने अथवा काम बिगड़ जाने पर उनकी खिल्ली नहीं उड़ानी चाहिए। ऐसा करने पर वे चिड़चिड़े और उद्दण्ड होने लगते हैं।
किसी मामले पर बच्चे द्वारा राय देने पर उसे झिड़के नहीं, भले ही उस राय को कोई अर्थ और महत्व न हो। झिड़कने से उनकी हिम्मत टूटने लगती है और वे सही बात कहने में भी हिचकने लगते हैं। ‘‘अजी तुम चुप रहो, अभी बच्चे हो।’’ बात-बात पर दुहराने से भी बच्चे में कुंठा उत्पन्न हो जाती है।
यह सदैव ध्यान में रखा जाय कि बच्चा आखिर मनुष्य ही है और उसकी कुछ अपनी अक्ल भी है। गिरने के डर से किसी बच्चे को चलने से नहीं रोका जा सकता। इसी प्रकार बौद्धिक गलतियां करके बच्चा अपनी बुद्धि को विकसित ही करता है।
बच्चे को डांटने और सजा देने की भी जरूरत पड़ सकती है, पर इस बात पर ध्यान रखना आवश्यक होता है कि बच्चा जब कसूर करे, उसी समय उसे डांटा जाना चाहिए। गलती के दो-तीन दिन बाद डांटने-सजा देने पर बच्चे पर वैसा कसूर न करने का प्रभाव नहीं अंकित हो पाता। अपितु वह ऐसी असमय की डांट या सजा से चिढ़-सा जाता है। साथ ही, बच्चे की गलती पर ऐसी परेशानी का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए, जिससे उसे यह आभास हो जाय कि अच्छा, इन्हें ऐसा करके परेशान किया जा सकता है। क्योंकि तब वह ऐसा करने में ही अपना महत्व बढ़ने का अनुभव करने लगता है। यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि बच्चे की जिस हरकत को शरारत समझा जा रहा है, वह उसके अनजान होने के परिणाम-स्वरूप हो रही हो। आखिर उन्हें हर बात में सही-गलत की जानकारी तो होती नहीं। अतः अनजाने में की गई भूलों को सुधार कर ठीक बात समझाने की आवश्यकता होती है, डांट-डपट की नहीं।
जिस घर में समान्तर सरकारें चल रही होंगी, वहां बच्चों में अराजकता का ही विकास होगा, अर्थात् जहां बाप कुछ हुक्म दे, मां उसकी बात को काटकर दूसरा, अथवा मां का आदेश काटकर बाप दूसरा आदेश दे, वहां उच्छृंखलता की प्रवृत्ति ही पनपेगी और बच्चों में चुगलखोरी, चापलूसी तथा फुसलाने ही आदत नहीं बढ़ेगी। वे जान जायेंगे मां को खुश करने के लिए बाप का अमुक कहना न मानने की बात बताना लाभकारी है और आज्ञाकारिता की सौदेबाजी कर मां-बाप से मन-पसन्द वस्तुएं ऐंठी जा सकती हैं। जो मां-बाप अमुक काम कर डालने पर अमुक मांग पूरी कर देने की लत बच्चों को लगा देते हैं, वे निश्चय ही उनमें इन दुर्गुणों के विकास के दोषी हैं।
बच्चे में यदि आलस्य की वृत्ति बढ़ती दिखे, तो उसे उस हेतु डांटना नहीं चाहिए। क्योंकि बच्चे स्वभाव से उत्साही, चपल और क्रियाशील होते हैं। अतः आलस्य किसी शारीरिक-विकार का परिणाम हो सकता है। उसकी जांच कराई जानी चाहिए।
यदि बालक खेल-कूद में उत्साह रखता हो, किन्तु पढ़ने या कार्य करने से जी चुराता हो, तब यही मानना चाहिए कि इसका कारण शारीरिक दोष न होकर पढ़ाई या कार्य में अभिरुचि न होना है। ऐसे बच्चों की रचनात्मक क्षमता उनके अनुकूल कार्यक्षेत्र मिलते ही प्रकट हो जाती है। अतः जरूरत इस बात की होती है कि बच्चे में व्यवहार का सूक्ष्म निरीक्षण कर उसकी स्वाभाविक अभिरुचियों का पता लगाया जाये। यहां वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन का प्रसंग स्मरणीय है। डार्विन बाल्यावस्था में पाठशाला से बहुत जी चुराता था। उसे कक्षा में कैद होने से चिढ़ थी। इसके स्थान पर जंगलों पहाड़ों में घूमने निकल जाना उसे भाता। पिता परेशान थे। वे अपने लड़के को डॉक्टर बनाना चाहते थे। जब लड़का सुधरता न दिखा तो उन्होंने उसे एक दूसरी पाठशाला में डाल दिया। वह एक मनोवैज्ञानिक प्राध्यापक थे। उन्होंने डार्विन की रुचि का पता लगा लिया और उसके पिता से भी बतला दिया कि तुम्हारा लड़का डॉक्टर तो नहीं बन सकता, पर बहुत बड़ा प्रकृति-विशेषज्ञ अवश्य बन सकता है। पिता ने अनुमति देदी और डार्विन अपनी रुचि का विषय पाकर तेजी से आगे बढ़ने लगा तथा विश्व-विख्यात वैज्ञानिक बना, विकासवाद का सिद्धान्त दुनियां के सामने प्रस्तुत किया।
वस्तुतः बच्चे की आदर्शों की पूरी जिम्मेदारी मां-बाप की है। माता ही बच्चे की प्रथम गुरु है। पांच वर्ष की उम्र तक ही बच्चा योग्य मां से इतना ही सीख सकता है, जितना आगे चार वर्ष तक भी स्कूल में न सीख सकेगा। कहानी-किस्से के रूप में बच्चे में डाले गये संस्कार उसके व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। माता जीजाबाई ने अपने पुत्र शिवाजी को बचपन से ही रामायण और महाभारत की वीर-गाथायें सुनाकर उनमें शौर्य, साहस, संकल्प और आदर्शवादिता के बीज बो दिये थे। यदि बच्चे को श्रेष्ठ संस्कार डाल सकने वाली कहानियां सुनायी जायें, तो उन पर उन कहानियों का निश्चित प्रभाव पड़ता है। बच्चों में कहानियां सुनने की तीव्र ललक होती है। उसे मां-बाप नहीं पूरा करें तो वह इधर-उधर पास-पड़ोस में सुनेंगे। अतः बच्चों को कहानियां सुनाने के लिए समय, हर मां-बाप को निकालना चाहिए तथा भय या निराशा उत्पन्न करने वाली, भूत-चुड़ैल की या किसी राजकुमारी की हत्या आदि की कहानियां उन्हें नहीं सुनानी चाहिए। भयावनी कहानियां बच्चे की विचार-धारा और कल्पना प्रभाव को भय की ही दिशा में मोड़ देती हैं और भयप्रद विचारों तथा कल्पनाओं में उलझा बच्चा अकारण ही भयभीत होने लगता है। भय का ही दूसरा रूप है—अतिशय झिझक। जो मां-बाप बच्चों को बात-बात पर झिड़कते रहते हैं, वे अपने बच्चों में ऐसी झिझक की भावना पैदा कर देते हैं। उनके बच्चे दूसरों से भी बात करने में झिझकते हैं। यह झिझक गहरी आत्महीनता का कारण बनती है और इस आत्महीनता की प्रक्रिया को कई बार बच्चे आगे चलकर उद्दण्ड या अपराधी भी हो जाते हैं। अधिकांश उद्दण्ड किशोर भीतर से बहुत डरपोक होते हैं। अतः बच्चों में भय और झिझक की भावनायें पैदा ही नहीं होने देना चाहिए और यदि किसी कारण पैदा हो भी जायें तो मनोवैज्ञानिक ढंग से उसके भय को दूर करने के उपाय तत्काल किये जाने चाहिए। वस्तुतः बच्चे के प्रति मां-बाप को निरन्तर सतर्क रहना ही होता है। बच्चे के पालन-पोषण का यह अर्थ नहीं है कि उसे रोटी खिला दी जाये, कपड़े बनवा दिये जायें, पुस्तकें-खिलौने आदि ला दिये जायें और पैसे दे दिये जायें। बच्चों के व्यक्तित्व-निर्माण की जिम्मेदारी भी उन्हीं की है। स्कूल खदेड़ कर वहां किसी मशीन में बच्चे के व्यक्तित्व के ढल कर सुघड़ हो जाने की आशा भी हास्यास्पद है। व्यक्तित्व-निर्माण का प्राथमिक दायित्व माता-पिता का ही है, अतः उस हेतु उन्हें की प्रयास करने होंगे।
बच्चों की कोमलता को ध्यान में रखने का यह अर्थ है कि उनकी अनुचित मांगों को स्वीकार किया जाये। ऐसा करने से बालक का ही अहित होगा। बच्चे की उचित-अनुचित सभी मांगों को स्वीकार करते जाने का अर्थ है उसे हठी-दुराग्रही बनाना। साथ ही ऐसे बच्चे ही अनुचित इच्छायें भी बढ़ती जाती हैं और उनकी पूर्ति के लिए उनमें निगाह बचाकर चोरी करने जैसी बुरी आदतें पैदा हो जाती है। अतः बच्चे की अनुचित मांगें कदापि पूरी नहीं करनी चाहिए। इस विषय में पर्याप्त दृढ़ता बरती जानी चाहिए। विशेष कर माताओं को इस दिशा में अधिक सजग रहने की आवश्यकता है। उनका कोमल हृदय बच्चे के रोने-मचलने से विचलित हो उठता है। किन्तु उन्हें बच्चे के हित की दूरगामी दृष्टि रखकर अपनी इस कोमलता को कमजोरी नहीं बनने देना चाहिए।
बच्चे के हठी, आलसी, चिड़चिड़े, उच्छृंखल, स्वेच्छाचारी, अनुशासनहीन, डरपोक और विपथ गामी होने की प्रमुख जवाबदारी माता-पिता पर होती है। दूसरों पर दोष डालकर वे इससे बच नहीं सकते। बच्चे के पालन-पोषण का अर्थ उसके व्यक्तित्व-विकास की ओर सदा ध्यान दिये रहना भी होता है। जो माता-पिता ऐसा नहीं कर पाते, वे बच्चे के प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं पूरी करते।
एक अनुभवी शिक्षक का कथन है कि हम लोग अपने बालकों की शिक्षा के सम्बन्ध में भी उदासीन हो गये हैं। माता-पिता को समय नहीं मिलता कि बालकों की ओर समुचित ध्यान दें। वे चाहते हैं कि बालक को पाठशाला में भर्ती करा दें और आगे का सब काम अध्यापक ही कर लेंगे, पर आज के अध्यापक को कोई परवाह नहीं। यह एक कारण है जिससे बालकों की शिक्षा दूषित होती है।
मान लीजिए कि जब आप कहीं आमोद-प्रमोद के लिए जाते हैं तो वहां पड़ाव डालकर अपना सारा काम स्वयं करते हैं। झाड़ू देकर जमीन साफ करते हैं लड़कियां बीन आग जलाते, बर्तन साफ करते, चाय बनाते, पत्तों पर भोजन करते हैं। यह सब काम बड़ी रुचि से करते हैं जिसमें एक प्रकार का आनन्द आता है। वही काम यदि घर पर करना पड़ जाय तो सम्भवतः आप यह कर इन्कार कर देंगे कि ‘यह हमारा काम थोड़े ही है।’ बच्चे को सभ्य व सुसंस्कृत बनाना माता-पिता की जिम्मेदारी है उस जिम्मेदारी के पालन से ही बच्चे समाज के लिए उपयोगी बन जाते हैं।
जिस प्रकार इमारत का ख्याल रख कर हम नींव डालते हैं, उसी प्रकार बच्चे की समझ तथा पढ़ने की कठिनाई को समझकर हमें पहले उस ओर बच्चों की दिलचस्पी पैदा करनी आवश्यक है। बहुतेरे माता-पिता की यह शिकायत होती है कि बच्चा स्वयं नहीं पढ़ता, उसको एक साल स्कूल जाते हो गया परन्तु उसने कुछ नहीं सीखा है। घर पर भी मार मार कर पढ़ाना पड़ता है। अब भला बताइए जिस काम के कारण शुरू में ही बच्चे का खेलना बन्द हो जाय, तीन घंटे कक्षा में कैदी के समान बंध कर बैठना पड़े, न हंस सके, न बोल सके, न कहीं इधर-उधर जा सके, पढ़ाई कुछ समय में न आने पर मास्टर से तथा घर पर मारपीट अलग सहनी पड़े, उस काम में बच्चे की दिलचस्पी कैसे हो सकती है? वह तो मास्टर को एक हलुआ तथा पढ़ाई को मुसीबत समझने लगते हैं। लड़का जब घर पर कुछ शरारत करता है तो मां-बाप धमका कर कहते हैं ‘यह मेरा कहना नहीं मानता, दिन भर घर में ऊधम मचाये रहता है अगले महीने से इसे स्कूल भेजूंगी। तब इसकी तबियत ठीक होगी, सारी बदमाशी भूल जायेगा।’ जहां भी पढ़ाई के विषय में बच्चे का आरम्भिक अनुभव बुरा हुआ, बड़ा होने तक दूर नहीं होता। यही कारण है कि मेधावी बच्चों में दिलचस्पी की कमी बनी रहने से वह उतना अच्छा नतीजा नहीं दिखा पाते।
इससे यह सिद्ध होता है कि एक ही काम भिन्न-भिन्न तरीकों से दिलचस्प भी हो सकता है और अरुचिकर भी। बच्चों के विषय में भी यही बात है कि उनको जब आप कोई काम सिखायें तो उसके प्रति बच्चों की उत्सुकता तथा शौक बनाये रखें, फिर आप देखें कि बच्चे अपना खाना-पीना भूलकर किस प्रकार ध्यान से आपकी बात सुनते हैं। वास्तविक बात तो यह है कि माता ही बच्चे की सर्वप्रथम गुरु है। पांच वर्ष की उम्र में बच्चा योग्य मां में इतना कुछ सीख सकता है, जितना चार साल आगे स्कूल में नहीं सीख सकेगा। कहानी किस्से के रूप में ही बच्चा इतिहास, भूगोल, धर्म विज्ञान, स्वास्थ्य रक्षा, सफाई, कविता, कहानियां, चुटकुले आदि की शिक्षा प्राप्त कर लेता है। बच्चे कहानी सुनने के बड़े शौकीन होते हैं। कहानियों के द्वारा ही बच्चों का चरित्र निर्माण हो सकता है। अब यह तो मां की योग्यता और चरित्र पर निर्भर करता है कि बच्चे को किस प्रकार की कहानी सुनावें। परियों की कहानी जानने वाली मातायें बच्चों को वह सब सुनाती रहती हैं परन्तु माता जीजाबाई बच्चे शिवाजी को रामायण और महाभारत की वीर कहानियां सुनाती रहती थीं। तभी तो आगे चलकर उनका बच्चा प्रतिपालक आज्ञाकारी और साहसी बना। घर में जब बच्चों की स्मरण शक्ति का इन कहानियों के द्वारा विकास हो जायेगा वह बड़ा होकर उन्हीं बातों की चर्चा इतिहास, भूगोल विज्ञान आदि की पुस्तकों में पढ़ेगा, तब उस विषय के अपने बाल्यकाल के ज्ञान को वह उसी कड़ी में जोड़ देगा। इस प्रकार अवस्था में शिक्षण की जो पहली कड़ी तैयार हुई होगी, आगे का ज्ञान उसी के साथ श्रृंखला बद्ध हो जायेगा। पहली मजबूत नींव पर ही आगे ही इमारत खड़ी कर दी जायेगी।
संस्कारों को समुचित दिशा भी तो मिले
यह ठीक है कि जन्म लेने वाला प्रत्येक बालक अपनी तरह के संस्कार लेकर आता है और अपनी अधिकांश जीवन यात्रा उन्हीं के सहारे प्रारम्भ करता है। पर इन संस्कारों को भाग्य निर्माण की कुंजी बताना बच्चों के साथ—भावी पीढ़ी के साथ विश्वासघात करने के बराबर है। संस्कारों को ‘‘कच्चा पदार्थ’’ तो मान सकते हैं, पर उन्हें नई दिशा देकर उपयोगी और परिपक्व बनाने का उत्तरदायित्व उस बालक का नहीं, माता पिता, परिवार और समाज का होता है। बच्चे तभी भटकते हैं जब उन्हें समुचित दिशा नहीं मिलती।
स्नेह, प्यार, दुलार बच्चे के विकास के अनिवार्य तत्व हैं। इनके सहारे ही उसमें नैतिक आचरण और सद्गुणों का विकास होता है, पर वह अभिभावक जो लाड़ और प्यार के मध्य बच्चे के अध्ययन और सुधार की बुद्धि नहीं रखते और कोई हो या न हो, पर वह तो उनके शत्रु के समान ही हैं। अनियन्त्रित लाड़ का एक ही अर्थ है बच्चे को कंटकाकीर्ण बियावान जंगल में अनाश्रित छोड़ देना। उस स्थिति में उसका भटकना ही निश्चित है।
बालक का हृदय कोरी स्लेट और स्वच्छ वस्त्र के समान होता है। कोरी स्लेट में जो चाहे लिखा और धवल वस्त्र में कैसा भी रंग चढ़ाया जा सकता है। संस्कारों के अतिरिक्त कुछ और भी आवश्यक गुण होते हैं जिनसे बालक की पहचान होती है। वह हैं—(1) अनवरत सक्रियता या चंचलता (2) तीव्र जिज्ञासा अर्थात् हर नई वस्तु के अन्तरंग ज्ञान और मेल-मिलाप की आकांक्षा (3) सरलता और निश्चिन्तता। इन जन्म-जात गुणों को, संस्कारों को शक्ति प्रदान करने वाला तत्व कह सकते हैं इन्हीं के सहारे जो भी दिशा मिलती है बालक के संस्कार तेजी से गतिशील हो जाते हैं और उसे अच्छी या बुरी किसी भी दिशा में ले जाते हैं।
कच्चे लोहे को पिघला कर इस्पात ढालने की अपनी विद्या होती है। पेट्रोलियम से कीमती मोबीआइल निकालते हैं। बच्चे के संस्कार वे चाहे कितने ही जन्मों से जड़ पकड़े हुए हों उन्हें सुधारा और संवारा जाना बिल्कुल आसान बात है यदि हम बच्चे को वैसी दिशा और वातावरण दे सकें।
बच्चे में गीत गाने के संस्कार हैं तो उसे प्रेरणाप्रद गीत सिखाने की, कहानियां, नाटक और प्रेरणाप्रद दृष्टान्त सिखाने की जिम्मेदारी आपकी— बच्चे के माता-पिता और सम्बन्धियों की होती है। चाहने भर से काम नहीं चलता—इच्छा और प्रयत्नों का चोली दामन का साथ है यदि माता-पिता न सिखायें और बच्चा सिनेमा के गीत गाने लगे तो उसका क्या दोष।
उसके तोड़-फोड़ के स्वभाव को कोई रोकना भी चाहे तो रोका जाना सम्भव नहीं, उससे हानि तो होती ही है खीझ और लड़ाई-झगड़े भी होते रहते हैं; यदि प्रारम्भ में बच्चे को कागज की नाव बनाना, कागज की टोपी और गुब्बारा बनाना, खिलौने बनाना, फूल-पौधे लगाने जैसे बिना खर्च के काम सिखा दिये जायें तो निरर्थक दिखाई देने वाली यह आदतें उसमें विलक्षण सृजनात्मक प्रतिभा जागृत कर सकती हैं बच्चों में झगड़े की प्रवृत्ति इस बात की द्योतक है कि उसकी उभरती शक्ति को समुचित दिशा नहीं दी जा रही— उसकी उमंगों को दबाया जा रहा है उसकी सक्रियता, जिज्ञासा और सरलता को भटकने के लिए छोड़ दिया गया है इसीलिए वह अपना भी सर तोड़ता है औरों का भी। किन्तु यदि उस शक्ति को साहित्य, कला, रचना, गणित, विज्ञान आदि किसी दिशा में लगा दिया जाये तो ऐसा बालक कभी भी पराश्रित नहीं मिलेगा वह कभी जीवन में हताश, निराश या उद्विग्न भी नहीं होगा।
अधिकांश माता, पिता को समय न मिलने की शिकायत रहती है। यदि ऐसा है तो फिर यह जिम्मेदारी ही क्यों ली जाये? यह जानने योग्य बात है—बल्कि यह कहना चाहिए कि विवाह से पूर्व उम्मीदवारों को इस बात का पूरी तरह बोध करा दिया जाना चाहिए कि एक बालक दस हाथियों से कम की देखभाल नहीं चाहता। खुराक भले ही कम हो; पर देखरेख के लिए समय, श्रम सावधानियां इतनी अधिक उपेक्षित हैं जितनी किसी फैक्ट्री का खड़ा करना। तभी फैक्ट्री उपयोगी हो सकती है, तभी बालक सुसंस्कृत हो सकते हैं।
मार्कट्वेन ने इस सम्बन्ध में गम्भीर अध्ययन और चिन्तन के जो निष्कर्ष दिये हैं, वह इसी तथ्य को प्रतिपादन करते हैं। उन्होंने अपराधी बालकों के एक गिरोह के चार बच्चों के पारिवारिक जीवन का अध्ययन किया। यह सभी बालक सम्पन्न घरों के थे। एक दिन उन्होंने किसी की नील गाय पकड़ ली। उसे मारा और उसकी खाल एक दुकान पर बेच दी। दुकानदार ने खाल भीतर रख दी और बाहर आकर फिर काम करने में लग गया। लड़कों ने इतने ही क्षणों में पिछवाड़े की खिड़की तोड़ ली। वे पीछे गये और एक के ऊपर एक चढ़कर भीतर घुस गये और फिर वही खाल निकाल कर उसी दुकानदार को बेच दिया। दुकानदार सस्ती खालें मिलने से प्रसन्न था और बच्चों की आमद बढ़ रही थी। एक ही खाल इन लड़कों ने चार बार बेची। इस बार दुकानदार अन्दर गया तो हिसाब लगाने के लिए जब खालें गिनने को उद्यत हुआ तो एक ही खाल देखकर सन्न रह गया। मार्कट्वेन ने इन बच्चों की घरेलू परिस्थितियां इनके स्कूली जीवन की आज से तुलना की तो पाया कि यह बच्चे स्कूल में तीक्ष्ण बुद्धि माने गये हैं, पर घर में उनके माता, पिता में से किसी ने उन्हें शायद ही किसी दिन 10-15 मिनट देकर परिस्थितियां पूछी हों। संरक्षण और मार्ग-दर्शन के इस अभाव ने इन बच्चों के साहस और बुद्धिमत्ता को यहां तक ला दिया जब कि उनकी परिस्थितियां ऐसी थीं कि वे इंजीनियर और डॉक्टर बन सकते थे। इन वारिसों ने मार्कट्वेन के परामर्श को स्वीकार कर अपने किशोरों को प्रतिदिन नियमित समय देना प्रारम्भ किया और एक दिन वह बालक हवाई सर्विस का कुशल डिजाइन इंजीनियर बना।
कई लोग कठिन नियन्त्रण और बच्चों को भयभीत रखकर उनके सुधार की अपेक्षाएं किया करते हैं, वे दोहरी भूल करते हैं दोपहर की रेत से अधिक से अधिक पैर जल सकते हैं, पर ज्वालामुखी तो सर्वस्व नाश करता है ऐसे बालक तो और भी भयंकर अपराधी और दुष्ट प्रकृति के हो जाते हैं अतएव दबाव डालने की नीति तो बिलकुल अव्यावहारिक है। कुशल माता-पिता बच्चे के सम्वेदनशील हृदय और मस्तिष्क के साथ अपनी बौद्धिक उर्वरता जोड़ दें उनके जन्म-जात संस्कार यदि वह खराब भी हैं तो भी उन्हें चोर की वीरता को सिपाही के शौर्य में बदल देने की तरह सुधारा और सजाया जा सकता है। यह रचनात्मक दृष्टिकोण हर माता-पिता में विकसित हों तभी भावी पीढ़ी की सुसंस्कृत रचना साकार हो सकती है।
बच्चों को सुसंस्कृत बनाने वाली रचनात्मक प्रेरणा ही उनकी दीक्षा कही जाती है। शिक्षा के साथ दीक्षा की भी आवश्यकता है। बिना दीक्षा के शिक्षा भटकाव का कारण बन सकती है और बिना शिक्षा के दीक्षा हो ही नहीं सकती। इसलिए बच्चों को शिक्षा एवं दीक्षा दोनों ही दी जानी चाहिए। दोनों ही आवश्यक हैं।