Books - देवताओं, अवतारों और ऋषियों की उपास्य गायत्री
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Language: HINDI
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त्रिदेवों की परम उपास गायत्री महाशक्ति
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ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन तीनों देवों की अपनी निज की क्षमता नहीं वरन् वह आद्यशक्ति भगवती से ही उधार ली गई है। चन्द्रमा की चमक अपनी नहीं, वह सूर्य की आभा से चमकता है और उस आभा का प्रतिबिम्ब हमें चन्द्रमा की चन्द्रिका के रूप में परिलक्षित होता है।
इस तथ्य का स्कंद पुराण में कतिपय कथा उपाख्यानों द्वारा इस प्रकार प्रतिपादन किया गया है— इस सन्दर्भ में कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं—
सर्वशक्तिः पराविष्णो र्ऋग्यजुः साम सञ्चिता । सैषा त्रयीतपत्यंहो जगतश्च हिनस्ति या ।। सैष विष्णुः स्थितिः स्थित्यां जगतः पालनोद्यतः । ऋग्यजुः सामभूतोऽन्तः सवितुर्द्विज! तिष्ठति ।।
‘‘सम्पूर्ण संसार को सृजन, पालन एवं संहारात्मक रूप से प्रकट करने वाली भगवती अपरा स्वयं सर्वतन्त्र, स्वतन्त्र शक्ति एवं ऋग्यजुः और साम संज्ञा वाली है। यही त्रयी रूप में संसार में प्रकाशित होकर सृष्टि, स्थिति और संहार करती है।’’
मासि मासि खेर्या यस्तत्र तत्रहि सा परा । त्रयी मयी विष्णु शक्तिरनस्थानं करोतिवै ।। ऋतः स्तुवन्ति पूर्वाह्वे मध्याह्ने च यजूंषि वैः । वृहद्रथन्तरादीनि सामान्यंगक्षये रविम् ।। अंग सैषा त्रयी विष्णो ऋग्यजुः साम संज्ञिताः । विष्णु शक्ति खथानं सदादित्ये करोति सा ।।
‘‘ब्रह्मा द्वारा रजोगुण धारण करने से सृजन, विष्णु द्वारा सत्त्व गुण के धारण करने से जगत् का पालन तथा सर्ग के अन्त में इस सम्पूर्ण विश्वाण्ड को अपने में लीन करने यह त्रिमूर्ति स्वरूप वाली है और सविता में ऋग्यजुः और सामभूत होकर यह निवास किया करती है। पूर्वाह्न में झक्, मध्याह्न में यजुः और सायंकाल में वृहद्रथन्तरादि सामभूत होकर यह निवास किया करती है। पूर्वाह्न में ऋक्, मध्याह्न में यजुः और सायंकाल में वृहद्रथन्तरादि साम श्रुतियां सूर्य की स्तुति किया करती है। यही आदित्य में निवास करने वाली वेदत्रयी है।’’
न केवलं रवेः शक्तिवैष्णवी सा त्रयीमयी । ब्रह्माऽथ पुरुषो रुद्रस्त्रयमेतत्त्रयी मयम् ।। एवं सा सात्विकी शक्तिर्वैष्णवी या त्रयीमयी । आम सप्तगणस्थं तं भास्वस्तमधितिष्ठति ।।
यह केवल रवि की शक्ति विष्णु स्वरूपिका ही नहीं है प्रत्युत ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र इन तीनों से युक्त एवं त्रयीमयी है। इस प्रकार से यह त्रयी-आद्या शक्ति अपने सातों गणों में अवस्थित सूर्यदेव में समाविष्ट हैं।
देवी भागवत पुराण में भगवती गायत्री महाशक्ति की महत्ता का सविस्तार वर्णन है। उसे समस्त देवताओं का उपास्य और समस्त मन्त्रों का शिरोमणि बताया गया है। अनादि काल से उसी की सर्वत्र महिमा गाई जाती है और उपासना को प्रधानता दी जाती रही है। शास्त्र-इतिहासों में ऐसा ही विवरण मिलता है और देवताओं द्वारा अपनी उपासना का रहस्योद्घाटन करते हुए, इसी महाशक्ति को अपना इष्टदेव प्रतिपादित किया जाता रहा है। शक्तियों का केन्द्र वस्तुतः यही महामन्त्र है। इसी उपासना से मनुष्यों से लेकर देवताओं तक का कल्याण होना सिद्ध होता रहा है।
तस्मान्नाहं स्वतन्त्रोऽस्मि शक्त्यधीनोऽस्मि सर्वथा । तामेव शक्तिं सततं ध्यायामि च निरन्तरम् ।। नातः परतरं किञ्चिज्जानामि कमलोद्भव ।
अर्थात्—भगवान विष्णु ने शक्ति स्वरूपा देवी की प्रशंसा करते हुए एक बार पद्मयोनि ब्रह्मा जी से कहा था कि मैं भी स्वाधीन नहीं हूं और देवी की शक्ति की अधीनता में रहता हूं। उसी के बलबूते पर सब कुछ करने की सामर्थ्य मुझ में है। अतएव मैं निरन्तर उसी का सर्वदा ध्यान किया करता हूं क्योंकि इससे परे हे कमलोद्भव! मैं किसी को नहीं जानता हूं।
तेन चाप्यहमुक्तोऽस्मि तथैव मुनिपुंगव । तस्मात्त्वमपि कल्याण पुरुषार्थाप्तिहेतवे ।। असंशयं हृदाम्भोजे भज देवो पदाम्बुजम् । सर्व दास्यति सा देवी यद्यदिष्टं भवेत्तव ।।
अर्थात्—‘‘देवर्षि नारद जी ने व्यास महर्षि से कहा कि ब्रह्मा जी ने फिर मुझसे भी, हे मुनियों में परम श्रेष्ठ! इस देवी की प्रबल-शक्ति के विषय में कहा था। इसलिये हे कल्याण! आप भी पूर्ण पुरुषार्थ प्राप्ति के लिये बिना किसी सन्देह के अपने हृदय कमल में उसी देवी का भजन करो। उसके चरण कमल की भक्ति से वह भगवती आपको जो-जो भी अभीष्ट होगा, वह सभी कुछ प्रदान करेगी।’’
चिन्तयन्तु महामायां विद्यां देवीं सनातनीम् । सा विधास्यति नः कार्य निर्गुणा प्रकृतिः परा ।। ब्रह्म विद्यां जगद्धात्रीं सर्वेषां जननीं तथा । मया सर्वमिहं व्याप्तं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।।
अर्थात्—‘‘एक बार परम दुःखित देवों से ब्रह्मा जी ने कहा कि महामाया सनातनी भगवती का ध्यान करो। वही परा निर्गुण स्वरूपा हमारा सम्पूर्ण काय कर देगी। वह ब्रह्म-विद्या, जगत् की धात्री और सबकी माता है, जिसके द्वारा यह सम्पूर्ण चराचर त्रैलोक्य व्याप्त हो रहा है।’’ गायत्री का ही दूसरा नाम सावित्री है। शस्त्रों में कहीं उसे गायत्री, कहीं सावित्री कहा गया है। आत्मकल्याण के क्षेत्र में जब उसे प्रयुक्त किया जाता है, तब गायत्री नाम से और लौकिक सुख-सुविधाओं की आम वृद्धि में जब उसका प्रयोग होता है, तब सावित्री कहते हैं। यह प्रयोग भेद से नामों में अन्तर आता है। मूलतः वह उसी एक महातत्त्व का वर्णन है। दिव्य-भाव सम्पन्न होने से उसे देवी कहते हैं और समस्त ऐश्वर्यों का उद्गम केन्द्र होने से उसे भगवती कहा जाता है। बार-बार एक ही शब्द का उच्चारण अटपटा लगता है, इसलिये साहित्यिक सुविधा एवं सौन्दर्य की दृष्टि से गायत्री, सावित्री देवी, भगवती आदि नामों का उल्लेख है। उसी महाशक्ति का आधार लेकर समस्त देव, सत्तायें अपने कार्य संचालन में समर्थ हो रही हैं—
मन्त्राणां चैव सावित्री पापनाशे हरिस्मृतिः । अष्टादश पुराणेषु देवी भगवतं यथा ।।
समस्त मन्त्रों में सावित्री का मन्त्र सर्वोपरि एवं श्रेष्ठ होता है, जिस तरह हरि के स्मरण से पापों का नाश होता है और अठारह पुरणों में देवी भगवती सर्वोत्तम पुराण है, वैसे ही सावित्री मन्त्र होता है।
न गायत्र्याः परो धर्मो न गायत्र्याः परन्तपः । न गायत्र्याः समो देवो न गायत्र्यः पाते मनुः ।। गातारं त्रायते यस्माद् गायत्री तेज सोच्यते ।
गायत्री से परे कोई भी नहीं है—गायत्री से परम अन्य कोई भी तपश्चर्या नहीं है। गायत्री के समान अन्य कोई भी देवता नहीं है। गायत्री का मन्त्र सब मन्त्रों में श्रेष्ठ है। जो कोई इस गायत्री गायन अर्थात् जाप किया करता है, उसकी यह सावित्री त्राण किया करती है। इसीलिये इसका गायत्री—यह नाम कहा जाता है।
यस्याः प्रवावमखिलं नहिं वेदधाता तो वा हरिर्नगि रिशोनहिं चाप्यनन्तः । अंशांशका अपिचते किमुतान्य देवा स्तस्थै नमोऽस्तु सततं जगदम्बि कायाः । जिस देवी का पूर्व प्रभाव ब्रह्मा, हरि, शिव और शेष कोई भी नहीं जानता है, इसके अंशांश भी नहीं जानते हैं। अन्य देवों की तो बात ही क्या? उस जगत् की माता को सर्वदा नमस्कार है।
समय-समय पर ब्रह्मा, विष्णु रुद्र ने माता गायत्री का स्तवन करते हुए अपनी क्षमता का मूल आधार इसी महाशक्ति को स्वीकार किया है। ऐसे उपाख्यानों तथा स्तवनों से इतिहास, पुराणों के अगणित पृष्ठ भरे पड़े हैं—
देवि त्वमस्य जगतः किल कारणं हि ज्ञातं मया सकल वेद वचोभिरम्व। सांख्या वदन्ति पुरुषं प्रकृतिं च मां तां, चैतन्य भावरहितां जगतश्च कर्त्रीम् । किं तादृशासि कथमत्र जगन्निवासश्चैतन्यता विरहितो विहितस्त्वयाऽद्य ।। नाट्यं तनोषि सगुणा विविध प्रकारं नो वेत्तिकोऽपि तन कृत्य विधान योगम् । ध्यायन्ति यां मुनिगणाः नियतं त्रिकालं सन्ध्येति नाम परिकल्प्य गुणा सुरेशि ।। बुद्धिर्हि बोध करणा जगतां सदा त्वं श्रीश्चासि देवि । सततं सुखदा सुण्णाम् । कीर्त्तिस्तथा मतिधृनी किल कान्ति रेव, श्रद्धा रतिश्च सकलेषु जनेषु मातः ।
ब्रह्मा जी भगवती सावित्री का स्तवन करते हुए कहते हैं—‘‘हे देवि! आप इस सम्पूर्ण जगत् की कारण स्वरूप हैं। इसका ज्ञान मैंने समस्त वेदों के वचनों से प्राप्त किया है। जनता और सांख्यवादी जिसको प्रकृति पुरुष कहते हैं और उसको चैतन्य भास से रहित जगत् की करने वाली बताते हैं। क्या आप ऐसे ही है? यदि ऐसा ही हैं तो यह चैतन्य रहित जगत् का निवास कैसे किया है। आप सगुण होकर विविध बाह्य क्रिया करती हैं। आपके विधान के योग को कोई भी नहीं जान पाता। मुनिगण आपको तीनों कालों में ध्यान किया करते हैं। हे सुरेशि! इसीलिये आपका नाम सन्ध्या, यह परिकल्पित किया है। जगतों में बोध करने वाली, आप बुद्धि सहा सुरों को सुख श्रीं हैं। हे मां! आप समस्त जनों में कीर्ति-मति, धृति-श्रद्धा और रति रूप वाली हैं।
नातः पर किल वितर्द्धशतैः प्रमाणं प्राप्तं मया यदिह दुःखगति गतेन । त्वं चैत्र सर्व जगतां जननीति सत्यं निहालुतां वितरता हरिणात्र दृष्टम् । त्वं देविं विदुषामयि दुर्विभाव्या वेदोऽपि नूनमखिलार्थ तया न वेद । यस्मात्वमुद्भवमसौ श्रुतिराप्नुवाना प्रत्यक्षमेवसकलं तव कार्यमेतत् । कस्तै चरित्रम खिलम्भुवि वेद धीमान् नाहं हरिर्नच भवो न सुरास्तथान्ये । ज्ञातुं क्षमाश्च मुत्योः न ममात्मजाश्च दुर्वाच्य एव महिमा तव सर्वलोके । यज्ञेषुदेवि ! यदि नाम न ते वदन्ति स्वाहेति वेद विदुषो हवने कृतेऽपि । न प्राप्नुवन्ति सततं मखभागधे देवास्त्वमेव । विवधेष्वपि वृत्तिहपासि ।
अत्यन्त दुःखित दशा को प्राप्त होने वाले मैंने सैकड़ा ही वितर्क करके भी इससे अधिक अन्य कोई भी प्रमाण प्राप्त नहीं किया है। निद्रित अवस्था में पहुंचने वाले स्वयं हरि ने यही देखा है कि आप सम्पूर्ण जगतों की जननी हैं। हे देवि! बड़े-बड़े वेदों के तत्त्व ज्ञाता, विद्वानों की भी समझ में आपका स्वरूप नहीं आता है। साक्षात् स्वयं वेद भी सम्पूर्णतया आपको नहीं जानता है। इस श्रुति का उद्भव भी आपसे ही हुआ है, आपका यह समस्त कार्य प्रत्यक्ष ही है। कौन-सा ऐसा बुद्धिमान् है, जो इन भूमण्डल में आपका पूर्ण चरित्र जानता है? मैं स्वयं नहीं जानता हूं, न विष्णु और न शिव ही जानते हैं। तथा अन्य सुरगण भी कोई आपके चरित्र को नहीं जानते हैं। मुनिगण और मेरे पुत्र कोई भी स्वार्थ नहीं है। आपकी महिमा समस्त लोक में अनिर्वचनीय ही हैं। हे देवि! यज्ञो में वेद ज्ञाता लोग स्वाहा, इस आपके नाम को नहीं कहते हैं तो हवन करने पर भी देवगण मख का भाग प्राप्त नहीं करते हैं। देवों की वृत्ति आप ही देवी हैं।
जानन्ति ये न तव देवि! परं प्रभावं ध्यायन्ति ते हरिहरावयि मन्द चिन्तां । ज्ञातं मयाऽद्य जननि ! प्रकटं प्रमाणं यद्विष्णुरप्यतितरां विवशोऽद्यशैतं । धन्यास्त एव भुवि भक्तिपररास्तवांघ्रौ त्यक्त्वान्य देव भजनं त्वयि लीन भावाः । कुर्वन्ति देवि ! भजनं सकलं निकामं ज्ञात्वा समस्त जननीं किल कामधेनुम् । त्वं शक्तिरेव जगतामखिल प्रभावा त्वन्निर्मितं च सकलं खलुभाव मात्रम् । त्वं क्रीड़से निजविनिर्मित मोह जाले नाट्ये यथा विहरते क्वकुते वहोवै ।। विष्णु स्वयं प्रकटितः प्रथमं युगादौदत्ता च शक्तिरमलाखलुणनाय नात च सर्वमखिलं विवशीकृतोऽद्य यद्रोचते तव तथाम्ब करोषि नूनम् ।
सावित्री देवि की महिमा का वर्णन करते हुए ब्रह्मा जी कहते हैं, हे देवि! जो आपका अतुल प्रभाव नहीं जानते हैं, वे ही लोग आपको त्यागकर मन्द-बुद्धिता के कारण हरि और हर का ध्यान, भजन किया करते हैं। इस महीमण्डल में वे पुरुष परम भाग्यशाली एवं धन्य हैं, जो अन्य देवों को छोड़कर आपके चरणों में भक्तिभाव से लीन रहते हैं। हे देवि! आपको सबकी माता और कामनाओं की पूर्ति करने वाली समझकर समस्त जगत् आपका निष्काम भजन किया करता है। यह सम्पूर्ण जगत् आपका ही बनाया हुआ है। आप ही की शक्ति इसमें विद्यमान् है। एक नर की भांति इसमें आप ही विहार किया करती हैं। विष्णु को आपने ही पालन के लिए प्रकट किया है और उसे शक्ति प्रदान की है, आपकी रुचि के अनुरूप ही वह सब करते हैं।
भगवान् विष्णु को अपने कार्य संचालन की शक्ति कहां से प्राप्त हुई? इसका वर्णन इस प्रकार आता है कि एक बार उन्हें अन्तःप्रेरणा यज्ञ करने की हुई। उस समय यज्ञ से गायत्री तेज प्रादुर्भूत हुआ और उसने आकाशवाणी के माध्यम से वरदान देकर विष्णु को सामर्थ्य सम्पन्न बनाया। यह प्रकट ही है कि भगवान् राम और भगवान् कृष्ण जिनकी उपासना इन दिनों बहु प्रचलित है, विष्णु देव के ही अवतार हैं।
एकस्मिन्समये विष्णु बैकुण्ठे संस्थितः पुरा । सुधासिन्धु स्थितं द्वीपं संस्मार मणिमणितम् ।। यत्र दृष्ट्वा महामाया मनजश्चासादितः शुभः । यज्ञं कर्तु मनश्चक्रे आम्बिकाया रमापतिः ।। जुहुवुस्ते हविः कामं विधिवत्परिकल्पिते । कृतेतु वितते होमे वागुवस्वाहा शरीरिणी ।। विष्णुं तदा समाभाष्य सुस्वरा मधुराक्षरा । विष्णो त्वं भव देवानां हरेः श्रेष्ठतमः सदा ।। त्वो जनाः पूजयिष्यन्ति वरहस्त्वं भविष्यसि । अवतारेषु सर्वेषु शक्तिस्ते सहचारिणी ।। भविष्येति ममाशेन सर्व कार्य प्रसाधिनी । साधयिष्यसि तत्सर्वं महत्त वरदानतः ।। तास्त्वया नावमन्तव्या सर्वदा गर्वलेशतः । पूजनीयाः प्रयत्नेन माननीयाश्च सर्वथा ।।
अर्थ—एक समय विष्णु बैकुण्ठ में विराजमान थे। उस समय उन्होंने सुधोदधि में मणियों से मडित एक मण्डप का दर्शन किया था और वहां से ही महादेवी के मन्त्र को प्राप्त किया था। फिर रमा के स्वामी के हृदय में देवी का यज्ञ करने की प्रेरणा हुई। सविधि परिकल्पित हवि से होम किया। विस्तृत होम होने के बाद आकाशवाणी के द्वारा देवी ने कहा था, जिसको सुस्वर मधुराक्षरों में विष्णु ने सुना था। आकाशवाणी में कहा—‘‘हे विष्णु! मैं परम प्रसन्न होकर तुमको वरदान देती हूं कि तुम हरि से भी श्रेष्ठ देवों में प्रमुख बन जाओगे। लोग तुम्हारी पूजा करेंगे और तुम मेरी कृपा से वरदान दे सकोगे। तुम जो भूभार हरणार्थ अवतार धारण करोगे, उनमें मेरी शक्ति तुम्हारे साथ रहेगी। मेरे ही अंश से वह समस्त कार्य सिद्ध करेगी। ये मेरा वरदान होगा कि वह सभी कुछ करेगी। अतः तुम उसका अपमान गर्व में आकर मत करना और उसका सदा अर्चन एवं समादर करना। देवी की महिमा का वर्णन भगवान् विष्णु अपने मुख से इस प्रकार से करते हैं—
ज्ञातं मयाऽखिलमिदं त्वयि सन्निविष्टं त्वत्तोऽस्थ सम्भ वलयावपि मातरद्य । शस्तिश्च तेऽस्य करणे विनत प्रभा वा ज्ञाताधुना सकल लोकमयीति नूनम् ।। विस्तीर्य्य सर्वमखिलं संदसद्विकारं संदर्शयस्य विकलं पुरुषाय काले । तत्वैश्च षोडशभिरेव च सप्तभिश्च भासीन्द्रजालमिव नः किल रञ्जनाय ।।
हे माता! मैंने भली भांति समझ लिया है कि यह सम्पूर्ण विश्व आपके ही अन्दर सन्निविष्ट हो रहा है और आप ही से इसका सम्भव और लय भी होता है। इसकी रचना करने में आपकी शक्ति विस्तृत प्रभाव वाली है और अब यह जान लिया है कि आप निश्चय ही समस्त लोकों से परिपूर्ण हैं। सद् और असद् विकारों से युक्त इस विश्व का विस्तार करके समय पर पुरुष को आप इनका विकल स्वरूप दिखा देती हैं। सोलह और सात तत्त्वों से यह हमारे रंजन के लिए एक इन्द्रजाल की भांति प्रतीत होता है। विद्या त्वमेव ननु बुद्धिमतां नराणां शक्तिस्त्वमेव किल शक्तिमतां सदैव । त्वं कीर्त्ति कान्ति कमलामल तुष्टिरूपा मुक्तिप्रदा विरतिरेव मनुष्यलोके । गायत्र्यसि प्रथम वेदकला त्वमेव स्वाहा स्वधा गभवती सगुणार्धमात्रा । आम्नाय एव विहितो निगमो भवत्या संजीवनायं सततं सुर पूर्वजान्तम् ।।
भगवान् विष्णु सावित्री देवी से कहते हैं कि जो बुद्धिमान् पुरुष हैं, उनकी विद्या आप ही हैं और जो शक्तिशाली हैं, उनकी शक्ति भी आपका ही स्वरूप है। इस मनुष्य लोक में आप ही कीर्ति-कांति और अमल, तुष्टि स्वरूपिणी मुक्तिप्रदा विभूति भी हैं। वेद की प्रथम कला गायत्री आप ही हैं। स्वाहा-स्वधा और सगुणा, अर्धमात्रा भगवती आप ही हैं। आपने देवों और पूर्वजों के रंजनार्थ आम्नाय और निगम का विधान किया है।
भगवान् शिव भी सावित्री का स्तवन करते हुए कहते हैं—
भुविं विहाय तवान्तक सेवनं क इहवाञ्छति राज्यमकणकम् । त्रटिरसौ किल याति युगात्मतां न निकटं यदि तेऽङ्कि सरोरुहम् । तयसि ये निरता मुनयोऽमला स्तव विहाय पदाम्बुज पूजनम् । जननि ते! विधिना किल वञ्चिताः परिभवो विभवे परिकल्पितः ।। न तपसा न हमेन समाधिना न च तथा विहितैः क्रतुभिर्यथा । तब पदाब्ज पराग निषेवणाद्भवति मुक्ति रजेभव सागरान् ।।
हे माता! कौन ऐसा मूर्ख है, जो इस भूमण्डल में आपकी सान्निध्य सेवा का परित्याग करके निष्कण्टक राज्य की इच्छा किया करता है, अर्थात् आपके समीप में स्थित रहकर सेवा के महत्त्व के सामने राज्य की प्राप्ति भी तुच्छ है। ऐसी त्रुटि फिर युगों तक दुःखद होती है, यदि कोई आपके चरण-कमल के समीप में नहीं पहुंचता है। जो मुनिगण आपके चरण-कमल का त्यागकर निरन्तर तपस्या करने में ही निरत रहा करते हैं। हे जननि! वास्तव में विधाता ने उन्हें वंचित ही कर दिया है, और विभव में भी उनका परिभव कर दिया है। तप, समाधि, दम तथा ऋतुओं के करने पर भी इस भवसागर से छुटकारा उस प्रकार का नहीं हो सकता है, जैसा केवल आपके चरण-कमलों का समाश्रय लेने से होता है।
एवं सत्ययुगे सव गायत्री जप तत्पराः । तार हृल्लेखयो चापि जपे निष्णात मानसाः ।। न विष्णूपासना नित्या वेदेनोक्ता तु कुत्रचित् । न विष्णु दीक्षा नित्यास्ति शिवस्योपि तथैवच ।। गायत्र्युपासना नित्या सवैवेदैः समीरिता । यया बिना त्वधः पातो ब्राह्मणस्यास्ति सर्वथा ।। तावता कृत्कृत्यत्नं नान्यापेक्षा द्विजस्य हि । गायत्री मात्र निष्णातो द्विजो मोक्षमदाप्नुयात् ।। युयदिन्यन्न वा कुर्यादिति प्राह मनुः स्वयम् । विहाय तां तु गायत्रीं विष्णूपास्ति परायणः ।। शिवोवास्ति रतो विप्रो नरकं याति सर्वंथा । तस्मादाद्य युगे राजन् गायत्री जप तत्पराः ।। देवी पदाम्बुजरता आसन्सर्वे द्विजोसमाः ।
अर्थ—सत्युग में सभी लोग गायत्री के जाप करने में तत्पर थे। अन्य युगों में भी जाप में सब निष्णात मन वाले थे। भगवान् विष्णु की उपासना नित्य है ऐसा वेद में कहीं पर भी नहीं कहा गया है। विष्णु और शिव की दीक्षा भी नित्य नहीं है। केवल एक गायत्री की उपासना ही नित्य है—ऐसा सभी वेदों ने स्पष्टतया बतलाया है, जिसके बिना ब्राह्मण का तो सर्वथा अधःपतन हो जाता है। ब्राह्मण के लिए उतना ही अर्थात् गायत्री मन्त्र का जप करना सफलता प्राप्त करने के लिए पर्याप्त होता है। उसे फिर अन्य किसी की अपेक्षा नहीं रहती है। केवल एकमात्र गायत्री की उपासना में निष्णात द्विज मानव-जीवन के परम पुरुषार्थ स्वरूप मोक्ष को प्राप्त कर लिया करता है। महर्षि मनु ने कहा है कि गायत्री के जपाराधना करने वाला द्विज अन्य कुछ करे या कुछ भी न करे अर्थात् अन्य किसी के भी करने की उसे संगति प्राप्त करने के लिए आवश्यकता नहीं होती है। गायत्री का त्याग करके जो केवल विष्णु की उपासना करने में निरत रहता है अथवा शिवोपासना में प्रेम करता है, ऐसा विप्र सर्वथा नरकगामी होता है। इसलिये हे राजन्! आप अर्थात् कृतयुग में सभी गायत्री के जप करने में परायण रहा करते थे। सभी द्विज भगवती के चरण-कमल में रति करने वाले हुए थे। इस प्रकार गायत्री को ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि सभी देवताओं की उपास्य बताया गया है। इतना ही नहीं गायत्री को समस्त ज्ञान-विज्ञान, विद्या और शक्ति का स्रोत भी बताया गया है—
सर्ववेदोद्धतः सारो मंत्रो अन्यं समुदोहृतः । ब्रह्मादिदेवादि गायत्री परमात्मा समीरितः ।। ‘‘यहां गायत्री मन्त्र समस्त वेदों का सार कहा गया है। गायत्री ही परमात्मा कही गयी है।’’
गायत्री मंजरी में उल्लेख आता है कि एक बार पार्वती ने शंकर जी से उनकी उपास्य शक्ति के सम्बन्ध में पूछा। तो शंकर जी ने अपने द्वारा गायत्री की ही नित्य उपासना किये जाने की बात कही। गायत्री मंजरी में कहा गया है—
गायत्री यो विजानाति सर्व जानाति स ननु । जानत्ययां न यतस्य सर्वाः विद्यास्तु निष्फला ।।43
जो गायत्री को जानता है वह सब कुछ जानता है। जो इसको नहीं जानता उसकी सब विद्या निष्फल है।
गायत्र्यैव तपो योगः साधन ध्यानामुच्यते । सिद्धि जनानां सा माता, नातः किंचित् वृहत्तरम् ।।44
गायत्री ही तप है, योग है, साधन है, ध्यान है और सिद्धियों की माता मानी गई है। इस गायत्री से बढ़कर कोई दूसरी वस्तु नहीं है।
गायत्री साधना लोके न कस्यापि कदापि हि । याति निष्फलतामेतत् ध्रुवं सत्यं हि भूतले ।।45
कभी भी किसी की गायत्री साधना संसार में निष्फल नहीं जाती, यह पृथ्वी पर ध्रुव सत्य है।
प्राप्स्यन्ति परमां सिद्धिं ज्ञास्यन्त्येतत् तु ये जनः । गुप्त मनुं रहस्यं यत् पार्वती त्वां पतिव्रताम् ।।46
हे पार्वती! जो इस पवित्र रहस्य को जानेंगे वे परम सिद्धि को प्राप्त करेंगे।
सभी शास्त्रों ने गायत्री को समस्त देवशक्तियों का उपास्य बताया है। अनादिकाल से प्रचलित और सर्वश्रेष्ठ मानी गयी। गायत्री उपासना का आश्रय लेकर कोई भी व्यक्ति आत्मिक और भौतिक समृद्धियों से पूरी तरह लाभान्वित हो सकते हैं।
इस तथ्य का स्कंद पुराण में कतिपय कथा उपाख्यानों द्वारा इस प्रकार प्रतिपादन किया गया है— इस सन्दर्भ में कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं—
सर्वशक्तिः पराविष्णो र्ऋग्यजुः साम सञ्चिता । सैषा त्रयीतपत्यंहो जगतश्च हिनस्ति या ।। सैष विष्णुः स्थितिः स्थित्यां जगतः पालनोद्यतः । ऋग्यजुः सामभूतोऽन्तः सवितुर्द्विज! तिष्ठति ।।
‘‘सम्पूर्ण संसार को सृजन, पालन एवं संहारात्मक रूप से प्रकट करने वाली भगवती अपरा स्वयं सर्वतन्त्र, स्वतन्त्र शक्ति एवं ऋग्यजुः और साम संज्ञा वाली है। यही त्रयी रूप में संसार में प्रकाशित होकर सृष्टि, स्थिति और संहार करती है।’’
मासि मासि खेर्या यस्तत्र तत्रहि सा परा । त्रयी मयी विष्णु शक्तिरनस्थानं करोतिवै ।। ऋतः स्तुवन्ति पूर्वाह्वे मध्याह्ने च यजूंषि वैः । वृहद्रथन्तरादीनि सामान्यंगक्षये रविम् ।। अंग सैषा त्रयी विष्णो ऋग्यजुः साम संज्ञिताः । विष्णु शक्ति खथानं सदादित्ये करोति सा ।।
‘‘ब्रह्मा द्वारा रजोगुण धारण करने से सृजन, विष्णु द्वारा सत्त्व गुण के धारण करने से जगत् का पालन तथा सर्ग के अन्त में इस सम्पूर्ण विश्वाण्ड को अपने में लीन करने यह त्रिमूर्ति स्वरूप वाली है और सविता में ऋग्यजुः और सामभूत होकर यह निवास किया करती है। पूर्वाह्न में झक्, मध्याह्न में यजुः और सायंकाल में वृहद्रथन्तरादि सामभूत होकर यह निवास किया करती है। पूर्वाह्न में ऋक्, मध्याह्न में यजुः और सायंकाल में वृहद्रथन्तरादि साम श्रुतियां सूर्य की स्तुति किया करती है। यही आदित्य में निवास करने वाली वेदत्रयी है।’’
न केवलं रवेः शक्तिवैष्णवी सा त्रयीमयी । ब्रह्माऽथ पुरुषो रुद्रस्त्रयमेतत्त्रयी मयम् ।। एवं सा सात्विकी शक्तिर्वैष्णवी या त्रयीमयी । आम सप्तगणस्थं तं भास्वस्तमधितिष्ठति ।।
यह केवल रवि की शक्ति विष्णु स्वरूपिका ही नहीं है प्रत्युत ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र इन तीनों से युक्त एवं त्रयीमयी है। इस प्रकार से यह त्रयी-आद्या शक्ति अपने सातों गणों में अवस्थित सूर्यदेव में समाविष्ट हैं।
देवी भागवत पुराण में भगवती गायत्री महाशक्ति की महत्ता का सविस्तार वर्णन है। उसे समस्त देवताओं का उपास्य और समस्त मन्त्रों का शिरोमणि बताया गया है। अनादि काल से उसी की सर्वत्र महिमा गाई जाती है और उपासना को प्रधानता दी जाती रही है। शास्त्र-इतिहासों में ऐसा ही विवरण मिलता है और देवताओं द्वारा अपनी उपासना का रहस्योद्घाटन करते हुए, इसी महाशक्ति को अपना इष्टदेव प्रतिपादित किया जाता रहा है। शक्तियों का केन्द्र वस्तुतः यही महामन्त्र है। इसी उपासना से मनुष्यों से लेकर देवताओं तक का कल्याण होना सिद्ध होता रहा है।
तस्मान्नाहं स्वतन्त्रोऽस्मि शक्त्यधीनोऽस्मि सर्वथा । तामेव शक्तिं सततं ध्यायामि च निरन्तरम् ।। नातः परतरं किञ्चिज्जानामि कमलोद्भव ।
अर्थात्—भगवान विष्णु ने शक्ति स्वरूपा देवी की प्रशंसा करते हुए एक बार पद्मयोनि ब्रह्मा जी से कहा था कि मैं भी स्वाधीन नहीं हूं और देवी की शक्ति की अधीनता में रहता हूं। उसी के बलबूते पर सब कुछ करने की सामर्थ्य मुझ में है। अतएव मैं निरन्तर उसी का सर्वदा ध्यान किया करता हूं क्योंकि इससे परे हे कमलोद्भव! मैं किसी को नहीं जानता हूं।
तेन चाप्यहमुक्तोऽस्मि तथैव मुनिपुंगव । तस्मात्त्वमपि कल्याण पुरुषार्थाप्तिहेतवे ।। असंशयं हृदाम्भोजे भज देवो पदाम्बुजम् । सर्व दास्यति सा देवी यद्यदिष्टं भवेत्तव ।।
अर्थात्—‘‘देवर्षि नारद जी ने व्यास महर्षि से कहा कि ब्रह्मा जी ने फिर मुझसे भी, हे मुनियों में परम श्रेष्ठ! इस देवी की प्रबल-शक्ति के विषय में कहा था। इसलिये हे कल्याण! आप भी पूर्ण पुरुषार्थ प्राप्ति के लिये बिना किसी सन्देह के अपने हृदय कमल में उसी देवी का भजन करो। उसके चरण कमल की भक्ति से वह भगवती आपको जो-जो भी अभीष्ट होगा, वह सभी कुछ प्रदान करेगी।’’
चिन्तयन्तु महामायां विद्यां देवीं सनातनीम् । सा विधास्यति नः कार्य निर्गुणा प्रकृतिः परा ।। ब्रह्म विद्यां जगद्धात्रीं सर्वेषां जननीं तथा । मया सर्वमिहं व्याप्तं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।।
अर्थात्—‘‘एक बार परम दुःखित देवों से ब्रह्मा जी ने कहा कि महामाया सनातनी भगवती का ध्यान करो। वही परा निर्गुण स्वरूपा हमारा सम्पूर्ण काय कर देगी। वह ब्रह्म-विद्या, जगत् की धात्री और सबकी माता है, जिसके द्वारा यह सम्पूर्ण चराचर त्रैलोक्य व्याप्त हो रहा है।’’ गायत्री का ही दूसरा नाम सावित्री है। शस्त्रों में कहीं उसे गायत्री, कहीं सावित्री कहा गया है। आत्मकल्याण के क्षेत्र में जब उसे प्रयुक्त किया जाता है, तब गायत्री नाम से और लौकिक सुख-सुविधाओं की आम वृद्धि में जब उसका प्रयोग होता है, तब सावित्री कहते हैं। यह प्रयोग भेद से नामों में अन्तर आता है। मूलतः वह उसी एक महातत्त्व का वर्णन है। दिव्य-भाव सम्पन्न होने से उसे देवी कहते हैं और समस्त ऐश्वर्यों का उद्गम केन्द्र होने से उसे भगवती कहा जाता है। बार-बार एक ही शब्द का उच्चारण अटपटा लगता है, इसलिये साहित्यिक सुविधा एवं सौन्दर्य की दृष्टि से गायत्री, सावित्री देवी, भगवती आदि नामों का उल्लेख है। उसी महाशक्ति का आधार लेकर समस्त देव, सत्तायें अपने कार्य संचालन में समर्थ हो रही हैं—
मन्त्राणां चैव सावित्री पापनाशे हरिस्मृतिः । अष्टादश पुराणेषु देवी भगवतं यथा ।।
समस्त मन्त्रों में सावित्री का मन्त्र सर्वोपरि एवं श्रेष्ठ होता है, जिस तरह हरि के स्मरण से पापों का नाश होता है और अठारह पुरणों में देवी भगवती सर्वोत्तम पुराण है, वैसे ही सावित्री मन्त्र होता है।
न गायत्र्याः परो धर्मो न गायत्र्याः परन्तपः । न गायत्र्याः समो देवो न गायत्र्यः पाते मनुः ।। गातारं त्रायते यस्माद् गायत्री तेज सोच्यते ।
गायत्री से परे कोई भी नहीं है—गायत्री से परम अन्य कोई भी तपश्चर्या नहीं है। गायत्री के समान अन्य कोई भी देवता नहीं है। गायत्री का मन्त्र सब मन्त्रों में श्रेष्ठ है। जो कोई इस गायत्री गायन अर्थात् जाप किया करता है, उसकी यह सावित्री त्राण किया करती है। इसीलिये इसका गायत्री—यह नाम कहा जाता है।
यस्याः प्रवावमखिलं नहिं वेदधाता तो वा हरिर्नगि रिशोनहिं चाप्यनन्तः । अंशांशका अपिचते किमुतान्य देवा स्तस्थै नमोऽस्तु सततं जगदम्बि कायाः । जिस देवी का पूर्व प्रभाव ब्रह्मा, हरि, शिव और शेष कोई भी नहीं जानता है, इसके अंशांश भी नहीं जानते हैं। अन्य देवों की तो बात ही क्या? उस जगत् की माता को सर्वदा नमस्कार है।
समय-समय पर ब्रह्मा, विष्णु रुद्र ने माता गायत्री का स्तवन करते हुए अपनी क्षमता का मूल आधार इसी महाशक्ति को स्वीकार किया है। ऐसे उपाख्यानों तथा स्तवनों से इतिहास, पुराणों के अगणित पृष्ठ भरे पड़े हैं—
देवि त्वमस्य जगतः किल कारणं हि ज्ञातं मया सकल वेद वचोभिरम्व। सांख्या वदन्ति पुरुषं प्रकृतिं च मां तां, चैतन्य भावरहितां जगतश्च कर्त्रीम् । किं तादृशासि कथमत्र जगन्निवासश्चैतन्यता विरहितो विहितस्त्वयाऽद्य ।। नाट्यं तनोषि सगुणा विविध प्रकारं नो वेत्तिकोऽपि तन कृत्य विधान योगम् । ध्यायन्ति यां मुनिगणाः नियतं त्रिकालं सन्ध्येति नाम परिकल्प्य गुणा सुरेशि ।। बुद्धिर्हि बोध करणा जगतां सदा त्वं श्रीश्चासि देवि । सततं सुखदा सुण्णाम् । कीर्त्तिस्तथा मतिधृनी किल कान्ति रेव, श्रद्धा रतिश्च सकलेषु जनेषु मातः ।
ब्रह्मा जी भगवती सावित्री का स्तवन करते हुए कहते हैं—‘‘हे देवि! आप इस सम्पूर्ण जगत् की कारण स्वरूप हैं। इसका ज्ञान मैंने समस्त वेदों के वचनों से प्राप्त किया है। जनता और सांख्यवादी जिसको प्रकृति पुरुष कहते हैं और उसको चैतन्य भास से रहित जगत् की करने वाली बताते हैं। क्या आप ऐसे ही है? यदि ऐसा ही हैं तो यह चैतन्य रहित जगत् का निवास कैसे किया है। आप सगुण होकर विविध बाह्य क्रिया करती हैं। आपके विधान के योग को कोई भी नहीं जान पाता। मुनिगण आपको तीनों कालों में ध्यान किया करते हैं। हे सुरेशि! इसीलिये आपका नाम सन्ध्या, यह परिकल्पित किया है। जगतों में बोध करने वाली, आप बुद्धि सहा सुरों को सुख श्रीं हैं। हे मां! आप समस्त जनों में कीर्ति-मति, धृति-श्रद्धा और रति रूप वाली हैं।
नातः पर किल वितर्द्धशतैः प्रमाणं प्राप्तं मया यदिह दुःखगति गतेन । त्वं चैत्र सर्व जगतां जननीति सत्यं निहालुतां वितरता हरिणात्र दृष्टम् । त्वं देविं विदुषामयि दुर्विभाव्या वेदोऽपि नूनमखिलार्थ तया न वेद । यस्मात्वमुद्भवमसौ श्रुतिराप्नुवाना प्रत्यक्षमेवसकलं तव कार्यमेतत् । कस्तै चरित्रम खिलम्भुवि वेद धीमान् नाहं हरिर्नच भवो न सुरास्तथान्ये । ज्ञातुं क्षमाश्च मुत्योः न ममात्मजाश्च दुर्वाच्य एव महिमा तव सर्वलोके । यज्ञेषुदेवि ! यदि नाम न ते वदन्ति स्वाहेति वेद विदुषो हवने कृतेऽपि । न प्राप्नुवन्ति सततं मखभागधे देवास्त्वमेव । विवधेष्वपि वृत्तिहपासि ।
अत्यन्त दुःखित दशा को प्राप्त होने वाले मैंने सैकड़ा ही वितर्क करके भी इससे अधिक अन्य कोई भी प्रमाण प्राप्त नहीं किया है। निद्रित अवस्था में पहुंचने वाले स्वयं हरि ने यही देखा है कि आप सम्पूर्ण जगतों की जननी हैं। हे देवि! बड़े-बड़े वेदों के तत्त्व ज्ञाता, विद्वानों की भी समझ में आपका स्वरूप नहीं आता है। साक्षात् स्वयं वेद भी सम्पूर्णतया आपको नहीं जानता है। इस श्रुति का उद्भव भी आपसे ही हुआ है, आपका यह समस्त कार्य प्रत्यक्ष ही है। कौन-सा ऐसा बुद्धिमान् है, जो इन भूमण्डल में आपका पूर्ण चरित्र जानता है? मैं स्वयं नहीं जानता हूं, न विष्णु और न शिव ही जानते हैं। तथा अन्य सुरगण भी कोई आपके चरित्र को नहीं जानते हैं। मुनिगण और मेरे पुत्र कोई भी स्वार्थ नहीं है। आपकी महिमा समस्त लोक में अनिर्वचनीय ही हैं। हे देवि! यज्ञो में वेद ज्ञाता लोग स्वाहा, इस आपके नाम को नहीं कहते हैं तो हवन करने पर भी देवगण मख का भाग प्राप्त नहीं करते हैं। देवों की वृत्ति आप ही देवी हैं।
जानन्ति ये न तव देवि! परं प्रभावं ध्यायन्ति ते हरिहरावयि मन्द चिन्तां । ज्ञातं मयाऽद्य जननि ! प्रकटं प्रमाणं यद्विष्णुरप्यतितरां विवशोऽद्यशैतं । धन्यास्त एव भुवि भक्तिपररास्तवांघ्रौ त्यक्त्वान्य देव भजनं त्वयि लीन भावाः । कुर्वन्ति देवि ! भजनं सकलं निकामं ज्ञात्वा समस्त जननीं किल कामधेनुम् । त्वं शक्तिरेव जगतामखिल प्रभावा त्वन्निर्मितं च सकलं खलुभाव मात्रम् । त्वं क्रीड़से निजविनिर्मित मोह जाले नाट्ये यथा विहरते क्वकुते वहोवै ।। विष्णु स्वयं प्रकटितः प्रथमं युगादौदत्ता च शक्तिरमलाखलुणनाय नात च सर्वमखिलं विवशीकृतोऽद्य यद्रोचते तव तथाम्ब करोषि नूनम् ।
सावित्री देवि की महिमा का वर्णन करते हुए ब्रह्मा जी कहते हैं, हे देवि! जो आपका अतुल प्रभाव नहीं जानते हैं, वे ही लोग आपको त्यागकर मन्द-बुद्धिता के कारण हरि और हर का ध्यान, भजन किया करते हैं। इस महीमण्डल में वे पुरुष परम भाग्यशाली एवं धन्य हैं, जो अन्य देवों को छोड़कर आपके चरणों में भक्तिभाव से लीन रहते हैं। हे देवि! आपको सबकी माता और कामनाओं की पूर्ति करने वाली समझकर समस्त जगत् आपका निष्काम भजन किया करता है। यह सम्पूर्ण जगत् आपका ही बनाया हुआ है। आप ही की शक्ति इसमें विद्यमान् है। एक नर की भांति इसमें आप ही विहार किया करती हैं। विष्णु को आपने ही पालन के लिए प्रकट किया है और उसे शक्ति प्रदान की है, आपकी रुचि के अनुरूप ही वह सब करते हैं।
भगवान् विष्णु को अपने कार्य संचालन की शक्ति कहां से प्राप्त हुई? इसका वर्णन इस प्रकार आता है कि एक बार उन्हें अन्तःप्रेरणा यज्ञ करने की हुई। उस समय यज्ञ से गायत्री तेज प्रादुर्भूत हुआ और उसने आकाशवाणी के माध्यम से वरदान देकर विष्णु को सामर्थ्य सम्पन्न बनाया। यह प्रकट ही है कि भगवान् राम और भगवान् कृष्ण जिनकी उपासना इन दिनों बहु प्रचलित है, विष्णु देव के ही अवतार हैं।
एकस्मिन्समये विष्णु बैकुण्ठे संस्थितः पुरा । सुधासिन्धु स्थितं द्वीपं संस्मार मणिमणितम् ।। यत्र दृष्ट्वा महामाया मनजश्चासादितः शुभः । यज्ञं कर्तु मनश्चक्रे आम्बिकाया रमापतिः ।। जुहुवुस्ते हविः कामं विधिवत्परिकल्पिते । कृतेतु वितते होमे वागुवस्वाहा शरीरिणी ।। विष्णुं तदा समाभाष्य सुस्वरा मधुराक्षरा । विष्णो त्वं भव देवानां हरेः श्रेष्ठतमः सदा ।। त्वो जनाः पूजयिष्यन्ति वरहस्त्वं भविष्यसि । अवतारेषु सर्वेषु शक्तिस्ते सहचारिणी ।। भविष्येति ममाशेन सर्व कार्य प्रसाधिनी । साधयिष्यसि तत्सर्वं महत्त वरदानतः ।। तास्त्वया नावमन्तव्या सर्वदा गर्वलेशतः । पूजनीयाः प्रयत्नेन माननीयाश्च सर्वथा ।।
अर्थ—एक समय विष्णु बैकुण्ठ में विराजमान थे। उस समय उन्होंने सुधोदधि में मणियों से मडित एक मण्डप का दर्शन किया था और वहां से ही महादेवी के मन्त्र को प्राप्त किया था। फिर रमा के स्वामी के हृदय में देवी का यज्ञ करने की प्रेरणा हुई। सविधि परिकल्पित हवि से होम किया। विस्तृत होम होने के बाद आकाशवाणी के द्वारा देवी ने कहा था, जिसको सुस्वर मधुराक्षरों में विष्णु ने सुना था। आकाशवाणी में कहा—‘‘हे विष्णु! मैं परम प्रसन्न होकर तुमको वरदान देती हूं कि तुम हरि से भी श्रेष्ठ देवों में प्रमुख बन जाओगे। लोग तुम्हारी पूजा करेंगे और तुम मेरी कृपा से वरदान दे सकोगे। तुम जो भूभार हरणार्थ अवतार धारण करोगे, उनमें मेरी शक्ति तुम्हारे साथ रहेगी। मेरे ही अंश से वह समस्त कार्य सिद्ध करेगी। ये मेरा वरदान होगा कि वह सभी कुछ करेगी। अतः तुम उसका अपमान गर्व में आकर मत करना और उसका सदा अर्चन एवं समादर करना। देवी की महिमा का वर्णन भगवान् विष्णु अपने मुख से इस प्रकार से करते हैं—
ज्ञातं मयाऽखिलमिदं त्वयि सन्निविष्टं त्वत्तोऽस्थ सम्भ वलयावपि मातरद्य । शस्तिश्च तेऽस्य करणे विनत प्रभा वा ज्ञाताधुना सकल लोकमयीति नूनम् ।। विस्तीर्य्य सर्वमखिलं संदसद्विकारं संदर्शयस्य विकलं पुरुषाय काले । तत्वैश्च षोडशभिरेव च सप्तभिश्च भासीन्द्रजालमिव नः किल रञ्जनाय ।।
हे माता! मैंने भली भांति समझ लिया है कि यह सम्पूर्ण विश्व आपके ही अन्दर सन्निविष्ट हो रहा है और आप ही से इसका सम्भव और लय भी होता है। इसकी रचना करने में आपकी शक्ति विस्तृत प्रभाव वाली है और अब यह जान लिया है कि आप निश्चय ही समस्त लोकों से परिपूर्ण हैं। सद् और असद् विकारों से युक्त इस विश्व का विस्तार करके समय पर पुरुष को आप इनका विकल स्वरूप दिखा देती हैं। सोलह और सात तत्त्वों से यह हमारे रंजन के लिए एक इन्द्रजाल की भांति प्रतीत होता है। विद्या त्वमेव ननु बुद्धिमतां नराणां शक्तिस्त्वमेव किल शक्तिमतां सदैव । त्वं कीर्त्ति कान्ति कमलामल तुष्टिरूपा मुक्तिप्रदा विरतिरेव मनुष्यलोके । गायत्र्यसि प्रथम वेदकला त्वमेव स्वाहा स्वधा गभवती सगुणार्धमात्रा । आम्नाय एव विहितो निगमो भवत्या संजीवनायं सततं सुर पूर्वजान्तम् ।।
भगवान् विष्णु सावित्री देवी से कहते हैं कि जो बुद्धिमान् पुरुष हैं, उनकी विद्या आप ही हैं और जो शक्तिशाली हैं, उनकी शक्ति भी आपका ही स्वरूप है। इस मनुष्य लोक में आप ही कीर्ति-कांति और अमल, तुष्टि स्वरूपिणी मुक्तिप्रदा विभूति भी हैं। वेद की प्रथम कला गायत्री आप ही हैं। स्वाहा-स्वधा और सगुणा, अर्धमात्रा भगवती आप ही हैं। आपने देवों और पूर्वजों के रंजनार्थ आम्नाय और निगम का विधान किया है।
भगवान् शिव भी सावित्री का स्तवन करते हुए कहते हैं—
भुविं विहाय तवान्तक सेवनं क इहवाञ्छति राज्यमकणकम् । त्रटिरसौ किल याति युगात्मतां न निकटं यदि तेऽङ्कि सरोरुहम् । तयसि ये निरता मुनयोऽमला स्तव विहाय पदाम्बुज पूजनम् । जननि ते! विधिना किल वञ्चिताः परिभवो विभवे परिकल्पितः ।। न तपसा न हमेन समाधिना न च तथा विहितैः क्रतुभिर्यथा । तब पदाब्ज पराग निषेवणाद्भवति मुक्ति रजेभव सागरान् ।।
हे माता! कौन ऐसा मूर्ख है, जो इस भूमण्डल में आपकी सान्निध्य सेवा का परित्याग करके निष्कण्टक राज्य की इच्छा किया करता है, अर्थात् आपके समीप में स्थित रहकर सेवा के महत्त्व के सामने राज्य की प्राप्ति भी तुच्छ है। ऐसी त्रुटि फिर युगों तक दुःखद होती है, यदि कोई आपके चरण-कमल के समीप में नहीं पहुंचता है। जो मुनिगण आपके चरण-कमल का त्यागकर निरन्तर तपस्या करने में ही निरत रहा करते हैं। हे जननि! वास्तव में विधाता ने उन्हें वंचित ही कर दिया है, और विभव में भी उनका परिभव कर दिया है। तप, समाधि, दम तथा ऋतुओं के करने पर भी इस भवसागर से छुटकारा उस प्रकार का नहीं हो सकता है, जैसा केवल आपके चरण-कमलों का समाश्रय लेने से होता है।
एवं सत्ययुगे सव गायत्री जप तत्पराः । तार हृल्लेखयो चापि जपे निष्णात मानसाः ।। न विष्णूपासना नित्या वेदेनोक्ता तु कुत्रचित् । न विष्णु दीक्षा नित्यास्ति शिवस्योपि तथैवच ।। गायत्र्युपासना नित्या सवैवेदैः समीरिता । यया बिना त्वधः पातो ब्राह्मणस्यास्ति सर्वथा ।। तावता कृत्कृत्यत्नं नान्यापेक्षा द्विजस्य हि । गायत्री मात्र निष्णातो द्विजो मोक्षमदाप्नुयात् ।। युयदिन्यन्न वा कुर्यादिति प्राह मनुः स्वयम् । विहाय तां तु गायत्रीं विष्णूपास्ति परायणः ।। शिवोवास्ति रतो विप्रो नरकं याति सर्वंथा । तस्मादाद्य युगे राजन् गायत्री जप तत्पराः ।। देवी पदाम्बुजरता आसन्सर्वे द्विजोसमाः ।
अर्थ—सत्युग में सभी लोग गायत्री के जाप करने में तत्पर थे। अन्य युगों में भी जाप में सब निष्णात मन वाले थे। भगवान् विष्णु की उपासना नित्य है ऐसा वेद में कहीं पर भी नहीं कहा गया है। विष्णु और शिव की दीक्षा भी नित्य नहीं है। केवल एक गायत्री की उपासना ही नित्य है—ऐसा सभी वेदों ने स्पष्टतया बतलाया है, जिसके बिना ब्राह्मण का तो सर्वथा अधःपतन हो जाता है। ब्राह्मण के लिए उतना ही अर्थात् गायत्री मन्त्र का जप करना सफलता प्राप्त करने के लिए पर्याप्त होता है। उसे फिर अन्य किसी की अपेक्षा नहीं रहती है। केवल एकमात्र गायत्री की उपासना में निष्णात द्विज मानव-जीवन के परम पुरुषार्थ स्वरूप मोक्ष को प्राप्त कर लिया करता है। महर्षि मनु ने कहा है कि गायत्री के जपाराधना करने वाला द्विज अन्य कुछ करे या कुछ भी न करे अर्थात् अन्य किसी के भी करने की उसे संगति प्राप्त करने के लिए आवश्यकता नहीं होती है। गायत्री का त्याग करके जो केवल विष्णु की उपासना करने में निरत रहता है अथवा शिवोपासना में प्रेम करता है, ऐसा विप्र सर्वथा नरकगामी होता है। इसलिये हे राजन्! आप अर्थात् कृतयुग में सभी गायत्री के जप करने में परायण रहा करते थे। सभी द्विज भगवती के चरण-कमल में रति करने वाले हुए थे। इस प्रकार गायत्री को ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि सभी देवताओं की उपास्य बताया गया है। इतना ही नहीं गायत्री को समस्त ज्ञान-विज्ञान, विद्या और शक्ति का स्रोत भी बताया गया है—
सर्ववेदोद्धतः सारो मंत्रो अन्यं समुदोहृतः । ब्रह्मादिदेवादि गायत्री परमात्मा समीरितः ।। ‘‘यहां गायत्री मन्त्र समस्त वेदों का सार कहा गया है। गायत्री ही परमात्मा कही गयी है।’’
गायत्री मंजरी में उल्लेख आता है कि एक बार पार्वती ने शंकर जी से उनकी उपास्य शक्ति के सम्बन्ध में पूछा। तो शंकर जी ने अपने द्वारा गायत्री की ही नित्य उपासना किये जाने की बात कही। गायत्री मंजरी में कहा गया है—
गायत्री यो विजानाति सर्व जानाति स ननु । जानत्ययां न यतस्य सर्वाः विद्यास्तु निष्फला ।।43
जो गायत्री को जानता है वह सब कुछ जानता है। जो इसको नहीं जानता उसकी सब विद्या निष्फल है।
गायत्र्यैव तपो योगः साधन ध्यानामुच्यते । सिद्धि जनानां सा माता, नातः किंचित् वृहत्तरम् ।।44
गायत्री ही तप है, योग है, साधन है, ध्यान है और सिद्धियों की माता मानी गई है। इस गायत्री से बढ़कर कोई दूसरी वस्तु नहीं है।
गायत्री साधना लोके न कस्यापि कदापि हि । याति निष्फलतामेतत् ध्रुवं सत्यं हि भूतले ।।45
कभी भी किसी की गायत्री साधना संसार में निष्फल नहीं जाती, यह पृथ्वी पर ध्रुव सत्य है।
प्राप्स्यन्ति परमां सिद्धिं ज्ञास्यन्त्येतत् तु ये जनः । गुप्त मनुं रहस्यं यत् पार्वती त्वां पतिव्रताम् ।।46
हे पार्वती! जो इस पवित्र रहस्य को जानेंगे वे परम सिद्धि को प्राप्त करेंगे।
सभी शास्त्रों ने गायत्री को समस्त देवशक्तियों का उपास्य बताया है। अनादिकाल से प्रचलित और सर्वश्रेष्ठ मानी गयी। गायत्री उपासना का आश्रय लेकर कोई भी व्यक्ति आत्मिक और भौतिक समृद्धियों से पूरी तरह लाभान्वित हो सकते हैं।