Books - जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्र
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सुधरें-सँभलें तो काम चले
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प्रकृति अलमस्त बच्चे की तरह निरन्तर अपने खेल- खिलवाड़ में लगी रहती है।
पंचतत्त्वों के रेत- बालू को बटोरना, सँजोना, बढ़ाना- घटाना बिगाड़ना बस
यही उसके क्रिया- कलाप का केन्द्र बिन्दु है। बाजीगर का तमाशा देखने में
अपनी सुध- बुध खो बैठने वाले मनचले दर्शकों की तरह लोग उस कौतुक- कौतूहल को
देखने के लिए एकत्रित हो जाते हैं। हाथ की सफाई का कमाल उन्हें ऐसा सुहाता
है कि कहाँ जाना था, क्या करना था, जैसे तथ्यों को भूल बैठते और बेतुकी
कल्पनाओं में उड़ने- तैरने लगते हैं। इन प्रपंच- कौतुकों में मन भी सहायता
देता है, रोने- हँसने तक लगता है।
यही है प्रकृति का प्रपंच, जिसमें आम आदमी बेतरह उलझा, उद्विग्न, खिन्न, विपन्न होते देखा जाता है। कभी- कभी तो इसे सिनेमा के पर्दे से प्रभावित होकर चित्र- विचित्र अनुभूतियों में तन्मय होते तक देखा जाता है। यद्यपि यह पूरा कमाल कैमरों का, प्रोजेक्टर का, ऐक्टर- डायरेक्टर का रचा हुआ जाल- जंजाल भर होता है, पर दर्शक तो दर्शक जो ठहरे, उन्हें पर्दे में रेंगती छाया भी वास्तविक दीखती है और इतने भर से आँसू बहाते, मुस्कराते, आक्रोश व्यक्त करते और आवेश में आते तक देखे गये हैं। ऐसा विचित्र है यह कौतुक- कौतूहल जिसने समझदार कहे जाने वाले मनुष्यों को भी अपने साथ बेतरह जकड़- पकड़ रखा है।
इस दिवास्वप्न की प्रवञ्चना का पता तब चलता है, जब आँख खुलती है, नशे की खुमारी उतरती है और भगवान् के दरबार में पहुँच कर सौंपे गए कार्य के सम्बन्ध में पूछ- ताछ की बारी आती है। इससे पूर्व यह पता ही नहीं चलता कि कितना गहरा भटकाव सिर पर हावी रहा और वह करता रहा, जिसे करने के लिए उन्माद- ग्रस्तों के अतिरिक्त और कोई कदाचित् ही तैयार हो सकता है।
उलझने का नहीं, सुलझने का प्रयास करें
यही वह भूल- भुलैयों का भटकाव है, जिसे तत्त्वदर्शी प्राय: मायाजाल कहते और उससे बच निकलने की चेतावनी देते रहते हैं, पर उस दुर्भाग्य को क्या कहा जाये, जो मूर्खता छोड़ने और बुद्धिमत्ता अपनाने की समझ को उगने- उठने ही नहीं देता? सुर दुर्लभ मनुष्य- जीवन की दुःख भरी बर्बादी की यह पृष्ठभूमि है। आश्चर्य यह है कि शिक्षित, अशिक्षित, समझदार, बेअकल सभी अन्धी भेड़ों की तरह एक के पीछे एक चलते हुए गहरे गर्त में गिरते और दुर्घटनाग्रस्त स्थिति में कराहते- कलपते अपना दम तोड़ते हैं।
अब आइए, जरा समझदारी अपनाएँ और समझदारों की तरह सोचना आरम्भ करें। मनुष्य जीवन स्रष्टा की बहुमूल्य धरोहर है, जो स्वयं को सुसंस्कृत और दूसरों को समुन्नत करने के दो प्रयोजनों के लिए सौंपा गया है। इसके लिए अपनी योजना अलग बनानी और अपनी दुनिया अलग बसानी पड़ेगी। मकड़ी अपने लिए अपना जाल स्वयं बुनती है। उसे कभी- कभी बन्धन समझती है, तो रोती- कलपती भी है, किन्तु जब भी वस्तुस्थिति की अनुभूति होती है, तो समूचा मकड़जाल समेट कर उसे गोली बना लेती है और पेट में निगल लेती है। अनुभव करती है कि सारे बन्धन कट गये और जिस स्थिति में अनेकों व्यथा- वेदनाएँ सहनी पड़ रही थीं, उसकी सदा- सर्वदा के लिए समाप्ति हो गई।
ठीक इसी से मिलता- जुलता दूसरा तथ्य यह है कि हर मनुष्य अपने लिए अपने स्तर की दुनिया अपने हाथों आप रचता है। उसी घोंसले में वह अपनी जिन्दगी बिताता है। उसमें किसी दूसरे का हस्तक्षेप नहीं है। दुनिया की अड़चनें और सुविधाएँ तो धूप- छाँव की तरह आती- जाती रहती हैं। उनकी उपेक्षा करते हुए कोई भी राहगीर, अपने अभीष्ट पथ पर निरन्तर चलता रह सकता है। किसी के भी बस में इतनी हिम्मत नहीं, जो बढ़ने वालों के पैर में बेड़ी डाल सके। भले या बुरे स्तर के आश्चर्यजनक काम कर गुजरने वालों में से प्रत्येक की कथा- गाथा इसी प्रकार की है, जिसमें प्रतिकूल परिस्थितियों का झीना पर्दा उनने हटाया और वही कर गुजरे, जो उन्हें अभीष्ट था। मनुष्य बना ही उस धातु का है, जिसकी सङ्कल्प भरी साहसिकता के आगे कभी भी कोई अवरोध टिक नहीं सका है और न कभी टिक ही सकेगा। इस युक्ति में परिपूर्ण सार्थकता है कि ‘‘मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है।’’ वही अपने हाथों गिरने के लिए खाई खोदता है और चाहे तो उठने के लिए समतल सीढ़ियों वाली मीनार भी चुन सकता है।
अपने को दीन- हीन दयनीय, दरिद्र, अनगढ़, अभागा, बाधित समझने वालों को वस्तुत: यही अनुभव होता है कि वे दुरूह परिस्थितियों से जकड़े हुए हैं, किन्तु जिनकी मान्यता यह है कि उनमें उठने और महानता की मञ्जिल तक जा पहुँचने की शक्ति है, वे प्रतिकूलताओं को अनुकूलता में बदल सकने में भी समर्थ होते हैं। उठने में सहायता करने का श्रेय किसी को भी दिया जा सकता है और गिरने- गिराने का दोषारोपण भी किसी पर भी किया जा सकता है, पर वस्तुस्थिति ऐसी है कि यदि अपने को ही व्यक्तित्व और कृतित्व को ऊँचा उठाने और गिराने के लिए उत्तरदायी ठहराया जाये, तो यह मान्यता सबसे अधिक सही होगी।
गई- गुजरी स्थिति में रहने वालों की स्थिति पर आँसू बहाये जा सकें, तो अनुचित नहीं, उनकी सहायता करना भी मानवोचित कर्तव्य है, पर यह भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि जब तक तथाकथित असहाय कहाने वालों का मनोबल न उठाया जायेगा, उनमें पुरुषार्थपूर्वक आगे बढ़ने का सङ्कल्प न उभारा जायेगा, तब तक ऊपर से थोपी गई सहायता कोई चिरस्थाई परिणाम उत्पन्न न कर सकेगी। उत्कण्ठा का चुम्बकत्व अपने आप में इतना शक्तिशाली है कि उसके सहारे निश्चित रूप से प्रगति का पथ- प्रशस्त किया जा सकता है। इस उक्ति को भी ध्यान में रखे रहना चाहिए कि ‘‘ईश्वर मात्र उन्हीं की सहायता करता है, जो अपनी सहायता आप करते हैं।’’ दीन- दुर्बलों को तो प्रकृति भी अपनी मौत अपने आप मरने के लिए उपेक्षापूर्वक छोड़ती और मुँह मोड़कर अपनी राह चल पड़ती देखी गई है। शास्त्रकारों और आप्तजनों ने इस तथ्य का पग- पग पर प्रतिपादन किया है।
वेदान्त विज्ञान के चार महत्त्वपूर्ण सूत्र हैं- तत्त्वमसि ‘‘अयमात्मा ब्रह्म’’, ‘‘प्रज्ञानं ब्रह्म’’, ‘‘सोऽहम् ’’। इन चारों का एक ही अर्थ है कि परिष्कृत जीवात्मा ही परब्रह्म है। हीरा और कुछ नहीं, कोयले का ही परिष्कृत स्वरूप है। भाप से उड़ाया हुआ पानी ही वह स्रवित जल (डिस्ट्रिल्ड वाटर) है, जिसकी शुद्धता पर विश्वास करते हुए उसे इञ्जेक्शन जैसे जोखिम भरे कार्य में प्रयुक्त किया जाता है। मनुष्य और कुछ नहीं, मात्र भटका हुआ देवता है। यदि वह अपने ऊपर चढ़े मल- आवरण और विक्षेप को, कषाय- कल्मषों को उतार फेंके, तो उसका मनोमुग्धकारी अतुलित सौंदर्य देखते ही बनता है। गाँधी और अष्टावक्र की दृश्यमान कुरूपता उनकी आकर्षकता, प्रतिभा, प्रामाणिकता और प्रभाव गरिमा में राई- रत्ती भी अन्तर न डाल सकी। जब मनुष्य के अन्तःकरण का सौंदर्य खुलता है, तो बाहरी सौन्दर्य की कमी का कोई महत्त्व नहीं रह जाता।
गीताकार ने इस तथ्य की अनेक स्थानों पर पुष्टि की है, वे कहते हैं- मनुष्य स्वयं ही अपना शत्रु है और स्वयं अपना मित्र है’’, ‘‘मन ही बन्धन और मोक्ष का एक मात्र कारण’’। ‘‘अपने आप को ऊँचा उठाओ, उसे गिराओ मत।’’ इन अभिवचनों में अलंकार जैसा कुछ नहीं है। प्रतिपादन में आदि से अन्त तक सत्य ही सत्य भरा पड़ा है। एक आप्तपुरुष का कथन है- मनुष्य की एक मुट्ठी में स्वर्ग और दूसरी मुट्ठी में नरक है। वह अपने लिए इन दोनों में से किसी को भी खोल सकने में पूर्णतया स्वतन्त्र है।’’
यही है प्रकृति का प्रपंच, जिसमें आम आदमी बेतरह उलझा, उद्विग्न, खिन्न, विपन्न होते देखा जाता है। कभी- कभी तो इसे सिनेमा के पर्दे से प्रभावित होकर चित्र- विचित्र अनुभूतियों में तन्मय होते तक देखा जाता है। यद्यपि यह पूरा कमाल कैमरों का, प्रोजेक्टर का, ऐक्टर- डायरेक्टर का रचा हुआ जाल- जंजाल भर होता है, पर दर्शक तो दर्शक जो ठहरे, उन्हें पर्दे में रेंगती छाया भी वास्तविक दीखती है और इतने भर से आँसू बहाते, मुस्कराते, आक्रोश व्यक्त करते और आवेश में आते तक देखे गये हैं। ऐसा विचित्र है यह कौतुक- कौतूहल जिसने समझदार कहे जाने वाले मनुष्यों को भी अपने साथ बेतरह जकड़- पकड़ रखा है।
इस दिवास्वप्न की प्रवञ्चना का पता तब चलता है, जब आँख खुलती है, नशे की खुमारी उतरती है और भगवान् के दरबार में पहुँच कर सौंपे गए कार्य के सम्बन्ध में पूछ- ताछ की बारी आती है। इससे पूर्व यह पता ही नहीं चलता कि कितना गहरा भटकाव सिर पर हावी रहा और वह करता रहा, जिसे करने के लिए उन्माद- ग्रस्तों के अतिरिक्त और कोई कदाचित् ही तैयार हो सकता है।
उलझने का नहीं, सुलझने का प्रयास करें
यही वह भूल- भुलैयों का भटकाव है, जिसे तत्त्वदर्शी प्राय: मायाजाल कहते और उससे बच निकलने की चेतावनी देते रहते हैं, पर उस दुर्भाग्य को क्या कहा जाये, जो मूर्खता छोड़ने और बुद्धिमत्ता अपनाने की समझ को उगने- उठने ही नहीं देता? सुर दुर्लभ मनुष्य- जीवन की दुःख भरी बर्बादी की यह पृष्ठभूमि है। आश्चर्य यह है कि शिक्षित, अशिक्षित, समझदार, बेअकल सभी अन्धी भेड़ों की तरह एक के पीछे एक चलते हुए गहरे गर्त में गिरते और दुर्घटनाग्रस्त स्थिति में कराहते- कलपते अपना दम तोड़ते हैं।
अब आइए, जरा समझदारी अपनाएँ और समझदारों की तरह सोचना आरम्भ करें। मनुष्य जीवन स्रष्टा की बहुमूल्य धरोहर है, जो स्वयं को सुसंस्कृत और दूसरों को समुन्नत करने के दो प्रयोजनों के लिए सौंपा गया है। इसके लिए अपनी योजना अलग बनानी और अपनी दुनिया अलग बसानी पड़ेगी। मकड़ी अपने लिए अपना जाल स्वयं बुनती है। उसे कभी- कभी बन्धन समझती है, तो रोती- कलपती भी है, किन्तु जब भी वस्तुस्थिति की अनुभूति होती है, तो समूचा मकड़जाल समेट कर उसे गोली बना लेती है और पेट में निगल लेती है। अनुभव करती है कि सारे बन्धन कट गये और जिस स्थिति में अनेकों व्यथा- वेदनाएँ सहनी पड़ रही थीं, उसकी सदा- सर्वदा के लिए समाप्ति हो गई।
ठीक इसी से मिलता- जुलता दूसरा तथ्य यह है कि हर मनुष्य अपने लिए अपने स्तर की दुनिया अपने हाथों आप रचता है। उसी घोंसले में वह अपनी जिन्दगी बिताता है। उसमें किसी दूसरे का हस्तक्षेप नहीं है। दुनिया की अड़चनें और सुविधाएँ तो धूप- छाँव की तरह आती- जाती रहती हैं। उनकी उपेक्षा करते हुए कोई भी राहगीर, अपने अभीष्ट पथ पर निरन्तर चलता रह सकता है। किसी के भी बस में इतनी हिम्मत नहीं, जो बढ़ने वालों के पैर में बेड़ी डाल सके। भले या बुरे स्तर के आश्चर्यजनक काम कर गुजरने वालों में से प्रत्येक की कथा- गाथा इसी प्रकार की है, जिसमें प्रतिकूल परिस्थितियों का झीना पर्दा उनने हटाया और वही कर गुजरे, जो उन्हें अभीष्ट था। मनुष्य बना ही उस धातु का है, जिसकी सङ्कल्प भरी साहसिकता के आगे कभी भी कोई अवरोध टिक नहीं सका है और न कभी टिक ही सकेगा। इस युक्ति में परिपूर्ण सार्थकता है कि ‘‘मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है।’’ वही अपने हाथों गिरने के लिए खाई खोदता है और चाहे तो उठने के लिए समतल सीढ़ियों वाली मीनार भी चुन सकता है।
अपने को दीन- हीन दयनीय, दरिद्र, अनगढ़, अभागा, बाधित समझने वालों को वस्तुत: यही अनुभव होता है कि वे दुरूह परिस्थितियों से जकड़े हुए हैं, किन्तु जिनकी मान्यता यह है कि उनमें उठने और महानता की मञ्जिल तक जा पहुँचने की शक्ति है, वे प्रतिकूलताओं को अनुकूलता में बदल सकने में भी समर्थ होते हैं। उठने में सहायता करने का श्रेय किसी को भी दिया जा सकता है और गिरने- गिराने का दोषारोपण भी किसी पर भी किया जा सकता है, पर वस्तुस्थिति ऐसी है कि यदि अपने को ही व्यक्तित्व और कृतित्व को ऊँचा उठाने और गिराने के लिए उत्तरदायी ठहराया जाये, तो यह मान्यता सबसे अधिक सही होगी।
गई- गुजरी स्थिति में रहने वालों की स्थिति पर आँसू बहाये जा सकें, तो अनुचित नहीं, उनकी सहायता करना भी मानवोचित कर्तव्य है, पर यह भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि जब तक तथाकथित असहाय कहाने वालों का मनोबल न उठाया जायेगा, उनमें पुरुषार्थपूर्वक आगे बढ़ने का सङ्कल्प न उभारा जायेगा, तब तक ऊपर से थोपी गई सहायता कोई चिरस्थाई परिणाम उत्पन्न न कर सकेगी। उत्कण्ठा का चुम्बकत्व अपने आप में इतना शक्तिशाली है कि उसके सहारे निश्चित रूप से प्रगति का पथ- प्रशस्त किया जा सकता है। इस उक्ति को भी ध्यान में रखे रहना चाहिए कि ‘‘ईश्वर मात्र उन्हीं की सहायता करता है, जो अपनी सहायता आप करते हैं।’’ दीन- दुर्बलों को तो प्रकृति भी अपनी मौत अपने आप मरने के लिए उपेक्षापूर्वक छोड़ती और मुँह मोड़कर अपनी राह चल पड़ती देखी गई है। शास्त्रकारों और आप्तजनों ने इस तथ्य का पग- पग पर प्रतिपादन किया है।
वेदान्त विज्ञान के चार महत्त्वपूर्ण सूत्र हैं- तत्त्वमसि ‘‘अयमात्मा ब्रह्म’’, ‘‘प्रज्ञानं ब्रह्म’’, ‘‘सोऽहम् ’’। इन चारों का एक ही अर्थ है कि परिष्कृत जीवात्मा ही परब्रह्म है। हीरा और कुछ नहीं, कोयले का ही परिष्कृत स्वरूप है। भाप से उड़ाया हुआ पानी ही वह स्रवित जल (डिस्ट्रिल्ड वाटर) है, जिसकी शुद्धता पर विश्वास करते हुए उसे इञ्जेक्शन जैसे जोखिम भरे कार्य में प्रयुक्त किया जाता है। मनुष्य और कुछ नहीं, मात्र भटका हुआ देवता है। यदि वह अपने ऊपर चढ़े मल- आवरण और विक्षेप को, कषाय- कल्मषों को उतार फेंके, तो उसका मनोमुग्धकारी अतुलित सौंदर्य देखते ही बनता है। गाँधी और अष्टावक्र की दृश्यमान कुरूपता उनकी आकर्षकता, प्रतिभा, प्रामाणिकता और प्रभाव गरिमा में राई- रत्ती भी अन्तर न डाल सकी। जब मनुष्य के अन्तःकरण का सौंदर्य खुलता है, तो बाहरी सौन्दर्य की कमी का कोई महत्त्व नहीं रह जाता।
गीताकार ने इस तथ्य की अनेक स्थानों पर पुष्टि की है, वे कहते हैं- मनुष्य स्वयं ही अपना शत्रु है और स्वयं अपना मित्र है’’, ‘‘मन ही बन्धन और मोक्ष का एक मात्र कारण’’। ‘‘अपने आप को ऊँचा उठाओ, उसे गिराओ मत।’’ इन अभिवचनों में अलंकार जैसा कुछ नहीं है। प्रतिपादन में आदि से अन्त तक सत्य ही सत्य भरा पड़ा है। एक आप्तपुरुष का कथन है- मनुष्य की एक मुट्ठी में स्वर्ग और दूसरी मुट्ठी में नरक है। वह अपने लिए इन दोनों में से किसी को भी खोल सकने में पूर्णतया स्वतन्त्र है।’’