Books - दुर्गति और सदगति का कारण हम स्वयं
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Language: HINDI
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दुर्गति और सद्गति का कारण हम स्वयं
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गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो और भाइयो! स्रष्टा ने मनुष्य जीवन विशेष उद्देश्य के लिए बनाया है और विशेष उपहार के रूप में दिया है। भगवान ने अपने कार्य में, अपने विश्व उद्यान में सहायता करने के लिए इसको सुरम्य और समुन्नत बनाने के लिए मनुष्य को अपने सहायक के रूप में पैदा किया। उसको जो अनेक विशेषताएँ दी हैं, वह एक अमानत के रूप में, एक धरोहर के रूप में दी हैं, ताकि इसका ठीक तरीके से उपयोग करके वह अपने व्यक्तिगत जीवन में सरलतापूर्वक सारा काम चला सके और निर्वाह कर सके। उसके पास जो समय बचे, शक्तियाँ बचें, उससे विश्व उद्यान को समुन्नत बनाने के लिए प्रयत्न करना उसके लिए संभव बन सके। इस दृष्टि से मनुष्य शरीर बनाया, शौक- मौज के लिए नहीं बनाया। शौक- मौज के लिए अगर मनुष्य शरीर बनाया होता तो फिर यह बहुत भारी पक्षपात गिना जाता। अन्य प्राणियों को जो सुविधाएँ नहीं मिली, वह मनुष्य को ही क्यों दी गईं? इसका एकमात्र उत्तर यही है कि जिस तरह विशेष तरीके से एक खजांची के पास खजाना जमा कर दिया जाता है, मिनिस्टर के पास विशेष अधिकार केंद्रित कर दिए जाते हैं, उसी प्रकार भगवान ने मनुष्य को विशेष अधिकार दिए हैं, ताकि वह इस विश्व उद्यान को सुंदर, समुन्नत, सुविकसित बनाने के लिए भगवान के कार्य में मदद करे। हममें से प्रत्येक का कर्तव्य है कि उस परम पुनीत उत्तरदायित्व को समझें जो भगवान ने हमारे ऊपर सौंपा है।
यह हमारा बड़ा सौभाग्य है कि भगवान की इच्छा पूरी करने के साथ- साथ में उपहार के रूप में अपने जीवन का लक्ष्य भी प्राप्त कर सकते हैं। पूर्णता का लक्ष्य इस तरीके से प्राप्त कर सकते हैं कि हम भगवान की इच्छाओं को पूरा करें और अपने गुण- कर्म का विकास करें। इनका विकास करने से ही यह संभव है कि हमारी आत्मा विकसित हो और आत्मा विकसित होते हुए परमात्मा के स्तर तक पहुँचने में समर्थ हो सके। इसलिए हमको स्रष्टा की इच्छा पूरी करने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। ऐसा यदि हम कर सकें तो हमें अध्यात्मवादी कहा जाएगा। अध्यात्म का सारे का मारा शिक्षण इसी उद्देश्य के लिए है कि व्यक्ति अपने कर्तव्यों को समझे और उत्तरदायित्वों को समझे। कर्तव्य और उत्तरदायित्वों को समझते हुए अपनी गतिविधियों का निर्धारण इस तरीके से करे, दृष्टिकोण का निर्माण इस तरीके से करे जिसमें व्यक्ति चरित्रनिष्ठ बनता हो, शालीन बनता हो और समाज में सुव्यवस्था पैदा करने में सहायक बनता हो। यही है जीवन का उद्देश्य।
आश्चर्य इस बात का है कि मनुष्य के पास जहाँ इतनी बुद्धि और सुविधा- साधन दिए गए, वहाँ उसको हँसी खुशी का जीवन जीना चाहिए था, हलका- फुलका जीवन जीना चाहिए था। इतनी सुविधा उसके पास रहनी चाहिए थी कि अपना गुजारा बहुत कम में करने के बाद सुख- सुविधा प्राप्त करने के बाद में सारा समय हँसी खुशी के साथ भगवान के कामों में लगा सकने में समर्थ रहा होता। ऐसा ही जीवन निर्माण हमारे लिए हुआ है, लेकिन अचंभा इस बात का है कि हममें से अधिकांश आदमी कठिनाइयों में फँसे हुए हैं। अधिकार आदमी आपत्तियों में रोते और खीझते हुए देखे जाते हैं तो वे आगे कैसे बढ़ेंगे? जब आपत्तियाँ ही रास्ता रोके खड़ी है, कठिनाइयाँ ही पग- पग पर हैरान कर रही हैं, तो आगे वाली बात कैसे बन सकती है? अब यह देखना चाहिए कि आखिर हुआ क्या? कैसे ऐसी स्थिति आ गई? जब भगवान ने हमको इतने साधन दिए थे कि उन साधनों से हम अपना उद्देश्य पूरा कर सकते थे, पर उन्हें पूरा करना तो दूर उलटे कठिनाइयों में ही जकड़े रह गए, मुसीबतों में ही फँसे रह गए। बात कैसे बनेगी? आइए हम लोग इस पर विचार करें।
जब हम विचार करते हैं, तब मालूम पड़ता है कि हमारे भीतर, हमारे चिंतन में और हमारे क्रिया- कलापों में कहीं भूल पड़ जाती है। इस भूल का ही परिणाम है कि हमारी मनःस्थिति दुर्बल होने से, विकृत होने से हमारे बहिरंग जीवन में सारी की सारी परिस्थितियाँ विकृत होती चली जाती हैं और हम अभावों, कष्टों और संकटों से ग्रसित होते चले जाते हैं। अगर हम अपने दृष्टिकोण को परिष्कृत कर सके, अपनी गतिविधियों को सही कर सकें, अपने क्रिया- कलापों में हेर- फेर कर लें, तब वे सारी समस्याएँ जो मनुष्य जाति को खाए जा रही हैं, जिनसे आदमी को हर वक्त बेचैन रहना पड़ता है, हर समय कष्ट से घिरा रहना पड़ता है, जिससे पार पाने के लिए वह हर किसी के सामने पल्ला पसारता और नाक रगड़ता है कि आप हमारी सहायता कीजिए तब किसी की भी सहायता प्राप्त न करनी पड़े। अध्यात्म की शिक्षा यही है कि अपने भीतर हम देखें, अपने आप को समझें, अपने आप को जानें। अपनी गलतियों के बारे में गौर करें और अपनी गतिविधियों को ठीक करने के लिए प्रयत्न करें। अगर हमने ऐसा प्रयत्न प्रारंभ कर दिया तो समझना चाहिए कि सच्चे अर्थों में हम अध्यात्मवादी हुए।
कीचड़ जहाँ कहीं भी सड़ती है, वहाँ दुर्गंध फैल जाती है, रेंगने वाले कीड़े जहाँ- तहाँ घूमना शुरू हो जाते हैं, मक्खी- मच्छर पैदा हो जाते हैं। इनमें से प्रत्येक विकृति को हम दूर करना चाहें तो कठिन है, लेकिन यदि कीचड़ की गंदगी को साफ कर दिया जाए तो वह सब विकृतियों दूर हो जाएँगी जिनसे हम परेशान थे। यही बात हमारे जीवन में भी लागू होती है। हँसता- हँसाता, खिलता- खिलाता जीवन हमारा होना चाहिए था। हमको प्रसन्न और प्रफुल्लित रहना चाहिए था। हमारी शक्ति ऐसी होनी चाहिए थी कि अपनी हलकी जिन्दगी को स्वयं पार कर लें और अपने कंधे पर बिठाकर दूसरों को पार लगा दें, लेकिन ऐसा बन नहीं पड़ता। इसका कारण यह है कि हमारे जीवन में जो अशुद्धियाँ छाईं हुईं हैं, उनसे हमारा मानसिक रक्त दूषित हो गया। जिस प्रकार रक्त के दूषित हो जाने पर फोड़े- फुन्सियों का निकलना स्वाभाविक है, उसी प्रकार जीवन में असंख्य विकृतियों के आ जाने से असंख्य चिताओं, हैरानियों, परेशानियों का निकलना संभव है। इसको दूर करने के लिए उन स्रोतों को बंद करना पड़ेगा जहाँ से ये फूटती हैं। शरीर को बीमारियों को ही लें, तो शरीर की मशीन इतनी अच्छे तरीके से बनाई गई है कि इसको प्राकृतिक नियमों के अनुरूप अगर ठीक तरीके से चलाया जा सके तो न इसमें कमजोरी आने की कोई गुंजाइश है और न बीमार पड़ने की।
प्रकृति में हम दृष्टि डालकर देखते हैं तो सृष्टि का कोई प्राणी बीमार नहीं पड़ता। बुढ़ापा तो सबको आता है, मरना भी सबको पड़ता है, पर बीमारी नाम की कोई चीज किसी भी योनि में दिखाई नहीं पड़ती। कहीं भी किसी को रोता- कराहता बीमारी से नहीं पाया जाता, केवल एक अभागा प्राणी मनुष्य ही है, जो बार- बार बीमार पड़ता रहता है। इसका कारण क्या है? इसका एक ही कारण है कि हमने आहार−विहार के सम्बन्ध में असंयम बरतना शुरू कर दिया। जीभ हमारी बेकाबू रही। जो चीज नहीं खानी चाहिए थी, वह हम खाते रहे। जितनी तादाद में नहीं खाना चाहिए उससे ज्यादा तादाद में खाई। फलस्वरूप हमारा पेट खराब हुआ। पेट खराब होने, उसमें सड़न होने की वजह से असंख्य बीमारियाँ खड़ी हो गई। अगर हम इसको ठीक करना चाहते हों तो दवाइयों से न तो रोग ठीक हो सकते हैं और न टॉनिक खाने से, औषधियों से हमारी कमजोरी दूर हो सकती है। कमजोरी दूर करने के लिए, बीमारियों को दूर करने के लिए चाहे अब, चाहे अब से एक हजार वर्ष बाद अंततः एक ही उपाय काम में लाना पड़ेगा कि हम संयम बरतना सीखें। इंद्रियों का निग्रह करना सीखें। समय का नियंत्रण करना सीखें। आलस्य और प्रमाद से अपनी शक्तियों का जो क्षरण होता रहता है, उसकी रोकथाम करना सीखे। अगर हमने यह सब सीख लिया तो हमारे स्वास्थ्य की गारण्टी, फिर हम दीर्घजीवी बनेंगे और नीरोग रह सकेंगे, भले ही हमें सस्ते मूल्य का भोजन ही क्यों न मिलता हो। गरीबी में ही निवास क्यों न करना पड़ता हो। फिर हमें किसी चिकित्सक के पास जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी, अगर हम संयमरूपी चिकित्सक की सहायता लेनी शुरू करें तब। यह आध्यात्मिकता की शिक्षा है कि हम भीतर देखें और बीमारियों की जड़ काटकर दूर करें। असंयम को हटाएँ और सुंदर स्वास्थ्य पाएँ।
मानवीय मस्तिष्क की ओर हम देखते हैं तो मालूम पड़ता है कि इतनी बढ़िया मशीन, इतना सुंदर कंप्यूटर कदाचित ही दुनिया में कहीं पाया जाता हो। मानवीय मस्तिष्क में स्वर्ग के सारे के सारे तत्त्व भरे पड़े हैं। दृष्टिकोण आदमी का अच्छा हो तो हर जगह सौंदर्य, हर जगह प्रसन्नता, हर जगह सद्गुण, सहयोग बिखरा हुआ दिखाई पड़ेगा। सृष्टि में जहाँ कहीं भी मनुष्य अपनी दृष्टि पसारकर देखेगा तो मालूम पड़ेगा कि इसमें सर्वत्र सद्भावनाएँ भरी पड़ी हैं। लेकिन हम देखते हैं कि इस मस्तिष्क के द्वारा जिस तरह का चिंतन करना चाहिए था, जो काम करना चाहिए था, उसको तोड़−मरोड़ करके ऐसा बना दिया गया है कि शुद्ध चिंतन करने की अपेक्षा अशुद्ध चिंतन में ही सदा उलझा रहता है। ईर्ष्याएँ, डाह, चिंताएँ, निराशाएँ, भय, आशंकाएँ आदि जिनके कोई वास्तविक कारण नहीं होते हमारे ऊपर छाई रहती हैं और जीवन को नरक रूप में बनाए रखती हैं। अगर वास्तविक कारण हों भी तो आदमी उसको स्वाभाविक एवं सामान्य समझकर के हँसी- खेल में भी टाल सकता है, लेकिन प्राय: वह राई भर की बात को पहाड़ के बराबर बनाकर के रात दिन उद्विग्न बना रहता है। अगर मस्तिष्क को ठीक रखा जा सके तो हम इसी मस्तिष्क के द्वारा भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए न जाने कितने द्वार खोल सकते हैं। यदि यह न बन पड़े तो कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि चारों और जो भय, आशंकाएँ, निराशाएँ दिखाई पड़ती हैं, उनसे तो दूर बचे की रह सकते हैं।
दरिद्रता पैसे की कमी का नाम नहीं है, वरन मनुष्य की आंतरिक कृपणता का नाम दरिद्रता है। रंगीन चश्मा पहन रखा है हमने और उसी से देखते हैं जिससे हर जगह वहीं रंग दिखाई पड़ता है। पीलिया के मरीज को हर चीज पीली दिखाई पड़ती है। ठीक इसी तरीके से विकृत दृष्टिकोण होने पर हमें हर जगह नरक दिखाई पड़ता है। द्वेष दिखाई पड़ता है, दुश्मन दिखाई पड़ते हैं। आशंकाएँ और भय दिखाई पड़ते हैं। झाड़ी में से भूत और रस्सी में से साँप निकलने वाली बात आप सबने सुनी होगी। ये आशंकाएँ केवल हमारे विकृत मस्तिष्क के चिह्न हैं जो अगर ठीक न हुए तो दिक्कत पड़ेगी। इन्हें हमें दूर करना होगा। जहाँ मन की इच्छानुकूल परिस्थितियों के होने की बात है, वहाँ उससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हम अपने मस्तिष्क के चिंतन करने के तरीके को सुधार लें। चिंतन करने का तरीका अगर सँभाला- सुधारा जा सके तो सामान्य परिस्थितियों में भी हँसी- खुशी से भरी हम जिंदगी काट सकते हैं। संत इमरसन कहते थे कि हमें नरक में भेज दीजिए, हम वहीं अपने लिए स्वर्ग बना लेंगे। बात सही है। शालीनता का दृष्टिकोण रखने वाले, ऊँचे दृष्टिकोण रखने वाले, वास्तविकता को समझने वाले इस दुनिया में हर समय हँसते- हँसाते हुए पाए जा सकते हैं।
तीसरा क्षेत्र परिवार संस्था का है जो कितना अस्त−व्यस्त दिखाई पड़ता है। जिस परिवार में हम रहते है भगवान ने उसका गठन स्वर्गीय आनंद के लिए किया है, लेकिन उसके लाभों से हम वंचित रह जाते हैं। एक बाड़े में जिस तरीके से बहुत सी भेड़ें रहती है, एक जेलखाने में जैसे बहुत से कैदी रहते हैं, उसी तरीके से हम अपने कुटुंबियों के बीच में निर्वाह करते रहते हैं। कहने को तो संबंधी कहे जाते हैं रिश्तेदार भी कहे जाते हैं, पर जैसा स्नेह, सौजन्य, सद्भाव, सेवा, सहकारिता इत्यादि का वातावरण होना चाहिए था, कुटुम्बों में कहीं दिखाई नहीं पड़ता। इसका कारण यह है कि कुटुम्बों को बनाने और उनकी देख−भाल करने वाले यह भूल जाते हैं कि उनके पारिवारिक उत्तरदायित्व क्या हैं? पारिवारिक उत्तरदायित्वों को लोगों ने यह समझ रखा है कि हम अपने कुटुम्बियों को प्रसन्न बनाने के लिए उनकी इच्छानुकूल चलें। उनके लिए धन- दौलत, सामान इकट्ठा करें जिससे कि वे प्रसन्न रह सकें। यह सब करने से कुछ लाभ नहीं होता, वरन इससे मनुष्यों की आदतें खराब होती चली जाती हैं। घर के वातावरण में विलासिता की, हरामखोरी की दुष्प्रवृत्तियाँ पैदा होती हैं और उसके दुष्परिणाम दुर्व्यसनों के रूप में और दूसरी बुराइयों के रूप में देखने को मिलते हैं।
जरूरत इस बात की है कि हम अपने पारिवारिक उत्तरदायित्वों को समझें और उनको भावनात्मक तथा मानसिक संपदाएँ दें। हम उनको श्रमशील बनने की आदत सिखाएँ, स्वच्छता की, व्यवस्था की आदत सिखाएँ। नियमितता का, समय का पालन करना सिखाएँ। भाषण में मधुरता और शिष्टाचार का समावेश करना सिखाएँ। ये बातें तभी सिखाई जा सकती हैं, जब हम स्वयं अपने आप को उस ढाँचे में ढाल लें। अपने आप को अच्छे ढाँचे में ढालकर के हम अपने समीपवर्ती लोगों को अपेक्षाकृत अच्छा शिक्षण दे सकते है। परिवारों में अगर हम अपने आप को उदाहरण रूप में प्रस्तुत कर सकें तो यही हमारे घर और कुटुंब नर- रत्नों की खदान बन सकते हैं और उनमें से एक से एक बढ़िया हीरक- एक से एक बढ़िया आदमी निकल सकते हैं। भूत- पलीतों के रहने लायक खंडहर जिस तरीके से होते हैं, प्रायः, हमारे परिवारों की स्थितियाँ वही हैं। न उनमें शांति है और न चैन। घर में जाते तो हैं पर भाग खड़े होने का मन करता है। यह पारिवारिक जीवन में आनंद के अभाव के कारण है और उस अभाव का कारण है- हमारा विकृत दृष्टिकोण। दृष्टिकोण को अगर हम सुधार पाएँ तो घर का रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति बड़ा आनन्ददायक मिले। उनके साथ सहकारिता का जीवन जीते हुए सद्भावना के आधार पर हम अपने घरों में स्वर्गीय आनंद लेने में समर्थ हो सकते हैं।
जहाँ कहीं भी हम देखते हैं, प्रत्येक क्षेत्र में मुसीबतें ही दिखाई पड़ती हैं। आर्थिक कठिनाइयों से आज हर आदमी दुखी पाया जाता है। सोचा जाता है कि यदि कुछ बाहरी आमदनी हो जाए तो शायद आर्थिक कठिनाइयाँ दूर हो जाएँ। लेकिन यह बात एक सीमा तक ही सही है, सौ फीसदी नहीं। अगर हम ज्यादा आमदनी नहीं भी बढ़ा सकते हों तो भी ऐसे उपाय हैं कि हम आर्थिक तंगी से बच सकते हैं। जितनी अपनी आमदनी है उसके हिसाब से बजट बनाकर चलें तो यह पूरी तरह से संभव है कि हम ठीक तरीके से जीवनयापन कर लें। जीवन तो बहुत तरीके से जिया जा सकता है। कोई जरूरी नहीं कि कोई बहुत खर्चीला जीवन ही जिएँ। दुनिया में ऐसे बहुत से आदमी है जो कम से कम में गुजारा कर लेते हैं। क्या हमारे लिए यह संभव नहीं है? अगर हम खरच से कम आमदनी करते हैं तो कम खरच में गुजारा करें और आर्थिक कठिनाई जैसी मुसीबतों से सहज ही छुटकारा पाएँ। हम अपनी योग्यता बढ़ाएँ, श्रम करने की सामर्थ्य बढ़ाएँ। योग्यता बढ़ाने से, श्रम ज्यादा करने से पैसा ज्यादा मिलता है। आलस्य और प्रमाद जिन लोगों पर छाया रहता है, दरिद्रता स्थायी रूप से उनके पास बनी रहेगी। शारीरिक दरिद्रता आलस्य के रूप में और मानसिक दरिद्रता प्रमाद के रूप में जिन लोगों के पास है कितना ही धन होने पर भी वे गरीबों जैसा, दरिद्रों जैसा जीवन ही जिएँगे।
सामाजिक जीवन में हम देखते हैं कि किस तरीके से चारों और विकृतियाँ फैली हुई है, आपा- धापी और खींच- तान मची हुई है। समाज में रहकर मनुष्य को कितना उन्नतिशील और प्रदान रहना चाहिए था पर यही समाज विकृतियों−विषमताओं के कारण नरक बना हुआ है। जाति- पाँति के नाम पर किस तरीके से आदमी एक−दूसरे से अलग होते जाते हैं। लिंगभेद के नाम पर, स्त्री- पुरुषों के नाम पर एक को ऊँचा और एक को नीचा बनाकर किस तरीके से विषमता पैदा की जाती है। परदा प्रथा के नाम पर पचास फीसदी जनता को अपने मानवोचित अधिकारों से किस तरीके से वंचित किया जाता है? विवाह- शादियों पर खरच होने वाली धनराशि किस तरीके से हमें गरीब और बेईमान बनाती है? दहेज एवं मृत्युभोज के नाम पर कितना पैसा खरच होता है? भिक्षा व्यवसाय में लाखों की तादाद में आदमी कैसे अपने समय को खराब करते और अपनी दीनता का परिचय देते हैं? कुरीतियाँ, बेईमानियाँ, उद्दंडताएँ, धूर्तताएँ चारों और फैली पड़ी हैं। किस तरह से इनका उन्मूलन संभव है? इनको कानून बनाकर पुलिस के द्वारा भी दूर नहीं किया जा सकता। यदि इनको कभी दूर किया जा सकेगा तो आध्यात्मिकता के सिद्धांतों को आदमी के भीतर जमा करके ही दूर किया जा सकेगा। आदमी की धर्मधारणा यदि जीवंत की जा सके, तो समाज में असंख्य प्रकार की विकृतियाँ जो संघर्ष पैदा करती है, विग्रह पैदा करती हैं, द्वेष, कलह और मनोमालिन्य पैदा करती हैं, इन सबसे पिंड छुड़ाया जा सकता है। अगर आदमी अध्यात्मवादी दृष्टिकोण लेकर चले और समाज में आध्यात्मिकता की मान्यताओं की स्थापना की जा सके, तो इन समस्त विकृतियों का उन्मूलन सहज सम्भव है।
हम देखते हैं कि व्यक्तिगत जीवन के जितने भी पहलू, पक्ष हैं वे सभी असंगत एवं विकृत हैं। इसका कारण आध्यात्मिक दृष्टि की कमी है। उसी से परिस्थितियाँ विकृत होती हैं। सामूहिक रूप से सामाजिक जीवन में भी यही बातें ज्यों की त्यों घूमा- फिराकर दिखाई पड़ती हैं। हम राष्ट्रीय- अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्रों पर निगाह डालते हैं तो दिखाई पड़ता है कि युद्धों की विभीषिकाएँ अपना मुँह बाए खड़ी हैं। अगर हम युद्धों के द्वारा एक−दूसरे को परास्त करके विजय प्राप्त करने की बात को दिमाग में से निकाल दें और इस बात को स्वीकार लें कि न्याय के आधार पर जो कुछ उचित होगा, हम उसी को स्वीकार करेंगे। तब फिर निश्चित है कि युद्धों की समाप्ति हो जाएगी और इस मद के लिए संसार भर में जो पैसा लग चुका है या लग रहा है या लगने जा रहा है उसे रोका जा सकेगा और बचे हुए धन एवं जन- शक्ति को जनकल्याण में लगाया जा सकेगा। युद्धों में लगने वाली विपुल संपदा को यदि सिंचाई, स्वास्थ्य एवं शिक्षा व्यवस्था जैसे कामों में लगाया जा सके तो दुनिया में कितनी खुशहाली आ जाए कितनी निश्चितता हो जाए? अगर युद्ध के सिद्धांत को मन में से निकाल दिया जाए और न्याय के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया जाए तो आदमी भय और आशंका से सहज ही छुटकारा पा सकता है।
किसी भी क्षेत्र में हम विचार करते हैं तो एक ही बात मालूम पड़ती है कि मनुष्य की भौतिक अथवा आध्यात्मिक समस्याओं के समाधान और किसी तरीके से नहीं हो सकते। ईश्वरप्राप्ति के लिए बहुत सारे जप, अनुष्ठान, दान, पुण्य किए जाते हैं किंतु यह भुला दिया जाता है कि अपने दृष्टिकोण एवं चरित्र को उच्चस्तरीय बना लेने पर ही अपने मन के स्वच्छ दर्पण में भगवान दिखाई पड़ेंगे। लोग अपने को साफ नहीं करते, मन को धोने की कोशिश नहीं करते और भगवान को, देवी- देवताओं को प्रसन्न करने और बुलाने की कोशिश करते हैं। अपने भीतर का आकर्षण और चुंबकत्व न हुआ तो हम भगवान को कैसे पा सकेंगे? स्वर्ग- मुक्ति कैसे पा सकेंगे? सद्गति और शांति कैसे पा सकेंगे?
व्यक्तिगत जीवन की तरह ही हम यह देखते हैं कि इस दुनिया को सुंदर और समुन्नत बनाने के लिए क्या किया जाए? इसके लिए यों तो असंख्य योजनाएँ बनती हैं, जिसमें भौतिक सुविधाओं के संवर्द्धन का ध्यान रखा जाता है। यदि इन अनेक योजनाओं को बनाने के साथ−साथ इस बात का भी ध्यान रखा जा सके कि व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की परंपराओं में समता के सिद्धांत, एकता के सिद्धांत, शुचिता के सिद्धांतों को समाविष्ट करें, तब फिर दुनिया में कोई कमी नहीं रह सकेगी। फिर जितने साधन आज हैं, उसी से बड़े मजे में हम गुजारा कर सकेंगे। संसार में अगर एकता की दिशा में हम चलने लगें तो न जाने कितनी प्रसन्नतादायक परिस्थितियाँ पैदा हो जाएँ। अगर दुनिया की भाषा एक हो जाए, अपनी- अपनी अलग- अलग भाषाओं के लिए लड़ाई- झगड़ा करना हम लोग बंद कर दें, तब फिर एक भाषा से ज्ञान की वृद्धि में कितनी सहायता मिल सकती है। संस्कृति अगर हम सबकी एक हो तो आदमी अलग- अलग धर्म के नाम पर आपस में टक्कर क्यों मारे? अगर दुनिया में एक राष्ट्र हो और सारे के सारे देश उसी के प्रांत मान लिए जाएँ तो राष्ट्रों के बीच कलह कैसे पैदा हो? समता के सिद्धांत को यदि सभी मान लें तो जाति के नाम पर, लिंग के नाम पर, अर्थ विषमता के नाम पर जो चारों ओर हाहाकार मचा हुआ है, उसका ठहरना कैसे संभव हो सकेगा? नरक हमारे भीतर है और स्वर्ग हमारे भीतर है, दानव हमारे भीतर है और देव हमारे भीतर है। देव को जगाया, उभारा जा सके तो इसी धरती पर हम स्वर्ग के दर्शन कर सकते हैं। यही है वह अध्यात्म जिसके द्वारा मनुष्य के सामने उपस्थित असंख्य समस्याओं का समाधान सन्निहित है।
।। ॐ शांतिः ।।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो और भाइयो! स्रष्टा ने मनुष्य जीवन विशेष उद्देश्य के लिए बनाया है और विशेष उपहार के रूप में दिया है। भगवान ने अपने कार्य में, अपने विश्व उद्यान में सहायता करने के लिए इसको सुरम्य और समुन्नत बनाने के लिए मनुष्य को अपने सहायक के रूप में पैदा किया। उसको जो अनेक विशेषताएँ दी हैं, वह एक अमानत के रूप में, एक धरोहर के रूप में दी हैं, ताकि इसका ठीक तरीके से उपयोग करके वह अपने व्यक्तिगत जीवन में सरलतापूर्वक सारा काम चला सके और निर्वाह कर सके। उसके पास जो समय बचे, शक्तियाँ बचें, उससे विश्व उद्यान को समुन्नत बनाने के लिए प्रयत्न करना उसके लिए संभव बन सके। इस दृष्टि से मनुष्य शरीर बनाया, शौक- मौज के लिए नहीं बनाया। शौक- मौज के लिए अगर मनुष्य शरीर बनाया होता तो फिर यह बहुत भारी पक्षपात गिना जाता। अन्य प्राणियों को जो सुविधाएँ नहीं मिली, वह मनुष्य को ही क्यों दी गईं? इसका एकमात्र उत्तर यही है कि जिस तरह विशेष तरीके से एक खजांची के पास खजाना जमा कर दिया जाता है, मिनिस्टर के पास विशेष अधिकार केंद्रित कर दिए जाते हैं, उसी प्रकार भगवान ने मनुष्य को विशेष अधिकार दिए हैं, ताकि वह इस विश्व उद्यान को सुंदर, समुन्नत, सुविकसित बनाने के लिए भगवान के कार्य में मदद करे। हममें से प्रत्येक का कर्तव्य है कि उस परम पुनीत उत्तरदायित्व को समझें जो भगवान ने हमारे ऊपर सौंपा है।
यह हमारा बड़ा सौभाग्य है कि भगवान की इच्छा पूरी करने के साथ- साथ में उपहार के रूप में अपने जीवन का लक्ष्य भी प्राप्त कर सकते हैं। पूर्णता का लक्ष्य इस तरीके से प्राप्त कर सकते हैं कि हम भगवान की इच्छाओं को पूरा करें और अपने गुण- कर्म का विकास करें। इनका विकास करने से ही यह संभव है कि हमारी आत्मा विकसित हो और आत्मा विकसित होते हुए परमात्मा के स्तर तक पहुँचने में समर्थ हो सके। इसलिए हमको स्रष्टा की इच्छा पूरी करने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। ऐसा यदि हम कर सकें तो हमें अध्यात्मवादी कहा जाएगा। अध्यात्म का सारे का मारा शिक्षण इसी उद्देश्य के लिए है कि व्यक्ति अपने कर्तव्यों को समझे और उत्तरदायित्वों को समझे। कर्तव्य और उत्तरदायित्वों को समझते हुए अपनी गतिविधियों का निर्धारण इस तरीके से करे, दृष्टिकोण का निर्माण इस तरीके से करे जिसमें व्यक्ति चरित्रनिष्ठ बनता हो, शालीन बनता हो और समाज में सुव्यवस्था पैदा करने में सहायक बनता हो। यही है जीवन का उद्देश्य।
आश्चर्य इस बात का है कि मनुष्य के पास जहाँ इतनी बुद्धि और सुविधा- साधन दिए गए, वहाँ उसको हँसी खुशी का जीवन जीना चाहिए था, हलका- फुलका जीवन जीना चाहिए था। इतनी सुविधा उसके पास रहनी चाहिए थी कि अपना गुजारा बहुत कम में करने के बाद सुख- सुविधा प्राप्त करने के बाद में सारा समय हँसी खुशी के साथ भगवान के कामों में लगा सकने में समर्थ रहा होता। ऐसा ही जीवन निर्माण हमारे लिए हुआ है, लेकिन अचंभा इस बात का है कि हममें से अधिकांश आदमी कठिनाइयों में फँसे हुए हैं। अधिकार आदमी आपत्तियों में रोते और खीझते हुए देखे जाते हैं तो वे आगे कैसे बढ़ेंगे? जब आपत्तियाँ ही रास्ता रोके खड़ी है, कठिनाइयाँ ही पग- पग पर हैरान कर रही हैं, तो आगे वाली बात कैसे बन सकती है? अब यह देखना चाहिए कि आखिर हुआ क्या? कैसे ऐसी स्थिति आ गई? जब भगवान ने हमको इतने साधन दिए थे कि उन साधनों से हम अपना उद्देश्य पूरा कर सकते थे, पर उन्हें पूरा करना तो दूर उलटे कठिनाइयों में ही जकड़े रह गए, मुसीबतों में ही फँसे रह गए। बात कैसे बनेगी? आइए हम लोग इस पर विचार करें।
जब हम विचार करते हैं, तब मालूम पड़ता है कि हमारे भीतर, हमारे चिंतन में और हमारे क्रिया- कलापों में कहीं भूल पड़ जाती है। इस भूल का ही परिणाम है कि हमारी मनःस्थिति दुर्बल होने से, विकृत होने से हमारे बहिरंग जीवन में सारी की सारी परिस्थितियाँ विकृत होती चली जाती हैं और हम अभावों, कष्टों और संकटों से ग्रसित होते चले जाते हैं। अगर हम अपने दृष्टिकोण को परिष्कृत कर सके, अपनी गतिविधियों को सही कर सकें, अपने क्रिया- कलापों में हेर- फेर कर लें, तब वे सारी समस्याएँ जो मनुष्य जाति को खाए जा रही हैं, जिनसे आदमी को हर वक्त बेचैन रहना पड़ता है, हर समय कष्ट से घिरा रहना पड़ता है, जिससे पार पाने के लिए वह हर किसी के सामने पल्ला पसारता और नाक रगड़ता है कि आप हमारी सहायता कीजिए तब किसी की भी सहायता प्राप्त न करनी पड़े। अध्यात्म की शिक्षा यही है कि अपने भीतर हम देखें, अपने आप को समझें, अपने आप को जानें। अपनी गलतियों के बारे में गौर करें और अपनी गतिविधियों को ठीक करने के लिए प्रयत्न करें। अगर हमने ऐसा प्रयत्न प्रारंभ कर दिया तो समझना चाहिए कि सच्चे अर्थों में हम अध्यात्मवादी हुए।
कीचड़ जहाँ कहीं भी सड़ती है, वहाँ दुर्गंध फैल जाती है, रेंगने वाले कीड़े जहाँ- तहाँ घूमना शुरू हो जाते हैं, मक्खी- मच्छर पैदा हो जाते हैं। इनमें से प्रत्येक विकृति को हम दूर करना चाहें तो कठिन है, लेकिन यदि कीचड़ की गंदगी को साफ कर दिया जाए तो वह सब विकृतियों दूर हो जाएँगी जिनसे हम परेशान थे। यही बात हमारे जीवन में भी लागू होती है। हँसता- हँसाता, खिलता- खिलाता जीवन हमारा होना चाहिए था। हमको प्रसन्न और प्रफुल्लित रहना चाहिए था। हमारी शक्ति ऐसी होनी चाहिए थी कि अपनी हलकी जिन्दगी को स्वयं पार कर लें और अपने कंधे पर बिठाकर दूसरों को पार लगा दें, लेकिन ऐसा बन नहीं पड़ता। इसका कारण यह है कि हमारे जीवन में जो अशुद्धियाँ छाईं हुईं हैं, उनसे हमारा मानसिक रक्त दूषित हो गया। जिस प्रकार रक्त के दूषित हो जाने पर फोड़े- फुन्सियों का निकलना स्वाभाविक है, उसी प्रकार जीवन में असंख्य विकृतियों के आ जाने से असंख्य चिताओं, हैरानियों, परेशानियों का निकलना संभव है। इसको दूर करने के लिए उन स्रोतों को बंद करना पड़ेगा जहाँ से ये फूटती हैं। शरीर को बीमारियों को ही लें, तो शरीर की मशीन इतनी अच्छे तरीके से बनाई गई है कि इसको प्राकृतिक नियमों के अनुरूप अगर ठीक तरीके से चलाया जा सके तो न इसमें कमजोरी आने की कोई गुंजाइश है और न बीमार पड़ने की।
प्रकृति में हम दृष्टि डालकर देखते हैं तो सृष्टि का कोई प्राणी बीमार नहीं पड़ता। बुढ़ापा तो सबको आता है, मरना भी सबको पड़ता है, पर बीमारी नाम की कोई चीज किसी भी योनि में दिखाई नहीं पड़ती। कहीं भी किसी को रोता- कराहता बीमारी से नहीं पाया जाता, केवल एक अभागा प्राणी मनुष्य ही है, जो बार- बार बीमार पड़ता रहता है। इसका कारण क्या है? इसका एक ही कारण है कि हमने आहार−विहार के सम्बन्ध में असंयम बरतना शुरू कर दिया। जीभ हमारी बेकाबू रही। जो चीज नहीं खानी चाहिए थी, वह हम खाते रहे। जितनी तादाद में नहीं खाना चाहिए उससे ज्यादा तादाद में खाई। फलस्वरूप हमारा पेट खराब हुआ। पेट खराब होने, उसमें सड़न होने की वजह से असंख्य बीमारियाँ खड़ी हो गई। अगर हम इसको ठीक करना चाहते हों तो दवाइयों से न तो रोग ठीक हो सकते हैं और न टॉनिक खाने से, औषधियों से हमारी कमजोरी दूर हो सकती है। कमजोरी दूर करने के लिए, बीमारियों को दूर करने के लिए चाहे अब, चाहे अब से एक हजार वर्ष बाद अंततः एक ही उपाय काम में लाना पड़ेगा कि हम संयम बरतना सीखें। इंद्रियों का निग्रह करना सीखें। समय का नियंत्रण करना सीखें। आलस्य और प्रमाद से अपनी शक्तियों का जो क्षरण होता रहता है, उसकी रोकथाम करना सीखे। अगर हमने यह सब सीख लिया तो हमारे स्वास्थ्य की गारण्टी, फिर हम दीर्घजीवी बनेंगे और नीरोग रह सकेंगे, भले ही हमें सस्ते मूल्य का भोजन ही क्यों न मिलता हो। गरीबी में ही निवास क्यों न करना पड़ता हो। फिर हमें किसी चिकित्सक के पास जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी, अगर हम संयमरूपी चिकित्सक की सहायता लेनी शुरू करें तब। यह आध्यात्मिकता की शिक्षा है कि हम भीतर देखें और बीमारियों की जड़ काटकर दूर करें। असंयम को हटाएँ और सुंदर स्वास्थ्य पाएँ।
मानवीय मस्तिष्क की ओर हम देखते हैं तो मालूम पड़ता है कि इतनी बढ़िया मशीन, इतना सुंदर कंप्यूटर कदाचित ही दुनिया में कहीं पाया जाता हो। मानवीय मस्तिष्क में स्वर्ग के सारे के सारे तत्त्व भरे पड़े हैं। दृष्टिकोण आदमी का अच्छा हो तो हर जगह सौंदर्य, हर जगह प्रसन्नता, हर जगह सद्गुण, सहयोग बिखरा हुआ दिखाई पड़ेगा। सृष्टि में जहाँ कहीं भी मनुष्य अपनी दृष्टि पसारकर देखेगा तो मालूम पड़ेगा कि इसमें सर्वत्र सद्भावनाएँ भरी पड़ी हैं। लेकिन हम देखते हैं कि इस मस्तिष्क के द्वारा जिस तरह का चिंतन करना चाहिए था, जो काम करना चाहिए था, उसको तोड़−मरोड़ करके ऐसा बना दिया गया है कि शुद्ध चिंतन करने की अपेक्षा अशुद्ध चिंतन में ही सदा उलझा रहता है। ईर्ष्याएँ, डाह, चिंताएँ, निराशाएँ, भय, आशंकाएँ आदि जिनके कोई वास्तविक कारण नहीं होते हमारे ऊपर छाई रहती हैं और जीवन को नरक रूप में बनाए रखती हैं। अगर वास्तविक कारण हों भी तो आदमी उसको स्वाभाविक एवं सामान्य समझकर के हँसी- खेल में भी टाल सकता है, लेकिन प्राय: वह राई भर की बात को पहाड़ के बराबर बनाकर के रात दिन उद्विग्न बना रहता है। अगर मस्तिष्क को ठीक रखा जा सके तो हम इसी मस्तिष्क के द्वारा भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए न जाने कितने द्वार खोल सकते हैं। यदि यह न बन पड़े तो कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि चारों और जो भय, आशंकाएँ, निराशाएँ दिखाई पड़ती हैं, उनसे तो दूर बचे की रह सकते हैं।
दरिद्रता पैसे की कमी का नाम नहीं है, वरन मनुष्य की आंतरिक कृपणता का नाम दरिद्रता है। रंगीन चश्मा पहन रखा है हमने और उसी से देखते हैं जिससे हर जगह वहीं रंग दिखाई पड़ता है। पीलिया के मरीज को हर चीज पीली दिखाई पड़ती है। ठीक इसी तरीके से विकृत दृष्टिकोण होने पर हमें हर जगह नरक दिखाई पड़ता है। द्वेष दिखाई पड़ता है, दुश्मन दिखाई पड़ते हैं। आशंकाएँ और भय दिखाई पड़ते हैं। झाड़ी में से भूत और रस्सी में से साँप निकलने वाली बात आप सबने सुनी होगी। ये आशंकाएँ केवल हमारे विकृत मस्तिष्क के चिह्न हैं जो अगर ठीक न हुए तो दिक्कत पड़ेगी। इन्हें हमें दूर करना होगा। जहाँ मन की इच्छानुकूल परिस्थितियों के होने की बात है, वहाँ उससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हम अपने मस्तिष्क के चिंतन करने के तरीके को सुधार लें। चिंतन करने का तरीका अगर सँभाला- सुधारा जा सके तो सामान्य परिस्थितियों में भी हँसी- खुशी से भरी हम जिंदगी काट सकते हैं। संत इमरसन कहते थे कि हमें नरक में भेज दीजिए, हम वहीं अपने लिए स्वर्ग बना लेंगे। बात सही है। शालीनता का दृष्टिकोण रखने वाले, ऊँचे दृष्टिकोण रखने वाले, वास्तविकता को समझने वाले इस दुनिया में हर समय हँसते- हँसाते हुए पाए जा सकते हैं।
तीसरा क्षेत्र परिवार संस्था का है जो कितना अस्त−व्यस्त दिखाई पड़ता है। जिस परिवार में हम रहते है भगवान ने उसका गठन स्वर्गीय आनंद के लिए किया है, लेकिन उसके लाभों से हम वंचित रह जाते हैं। एक बाड़े में जिस तरीके से बहुत सी भेड़ें रहती है, एक जेलखाने में जैसे बहुत से कैदी रहते हैं, उसी तरीके से हम अपने कुटुंबियों के बीच में निर्वाह करते रहते हैं। कहने को तो संबंधी कहे जाते हैं रिश्तेदार भी कहे जाते हैं, पर जैसा स्नेह, सौजन्य, सद्भाव, सेवा, सहकारिता इत्यादि का वातावरण होना चाहिए था, कुटुम्बों में कहीं दिखाई नहीं पड़ता। इसका कारण यह है कि कुटुम्बों को बनाने और उनकी देख−भाल करने वाले यह भूल जाते हैं कि उनके पारिवारिक उत्तरदायित्व क्या हैं? पारिवारिक उत्तरदायित्वों को लोगों ने यह समझ रखा है कि हम अपने कुटुम्बियों को प्रसन्न बनाने के लिए उनकी इच्छानुकूल चलें। उनके लिए धन- दौलत, सामान इकट्ठा करें जिससे कि वे प्रसन्न रह सकें। यह सब करने से कुछ लाभ नहीं होता, वरन इससे मनुष्यों की आदतें खराब होती चली जाती हैं। घर के वातावरण में विलासिता की, हरामखोरी की दुष्प्रवृत्तियाँ पैदा होती हैं और उसके दुष्परिणाम दुर्व्यसनों के रूप में और दूसरी बुराइयों के रूप में देखने को मिलते हैं।
जरूरत इस बात की है कि हम अपने पारिवारिक उत्तरदायित्वों को समझें और उनको भावनात्मक तथा मानसिक संपदाएँ दें। हम उनको श्रमशील बनने की आदत सिखाएँ, स्वच्छता की, व्यवस्था की आदत सिखाएँ। नियमितता का, समय का पालन करना सिखाएँ। भाषण में मधुरता और शिष्टाचार का समावेश करना सिखाएँ। ये बातें तभी सिखाई जा सकती हैं, जब हम स्वयं अपने आप को उस ढाँचे में ढाल लें। अपने आप को अच्छे ढाँचे में ढालकर के हम अपने समीपवर्ती लोगों को अपेक्षाकृत अच्छा शिक्षण दे सकते है। परिवारों में अगर हम अपने आप को उदाहरण रूप में प्रस्तुत कर सकें तो यही हमारे घर और कुटुंब नर- रत्नों की खदान बन सकते हैं और उनमें से एक से एक बढ़िया हीरक- एक से एक बढ़िया आदमी निकल सकते हैं। भूत- पलीतों के रहने लायक खंडहर जिस तरीके से होते हैं, प्रायः, हमारे परिवारों की स्थितियाँ वही हैं। न उनमें शांति है और न चैन। घर में जाते तो हैं पर भाग खड़े होने का मन करता है। यह पारिवारिक जीवन में आनंद के अभाव के कारण है और उस अभाव का कारण है- हमारा विकृत दृष्टिकोण। दृष्टिकोण को अगर हम सुधार पाएँ तो घर का रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति बड़ा आनन्ददायक मिले। उनके साथ सहकारिता का जीवन जीते हुए सद्भावना के आधार पर हम अपने घरों में स्वर्गीय आनंद लेने में समर्थ हो सकते हैं।
जहाँ कहीं भी हम देखते हैं, प्रत्येक क्षेत्र में मुसीबतें ही दिखाई पड़ती हैं। आर्थिक कठिनाइयों से आज हर आदमी दुखी पाया जाता है। सोचा जाता है कि यदि कुछ बाहरी आमदनी हो जाए तो शायद आर्थिक कठिनाइयाँ दूर हो जाएँ। लेकिन यह बात एक सीमा तक ही सही है, सौ फीसदी नहीं। अगर हम ज्यादा आमदनी नहीं भी बढ़ा सकते हों तो भी ऐसे उपाय हैं कि हम आर्थिक तंगी से बच सकते हैं। जितनी अपनी आमदनी है उसके हिसाब से बजट बनाकर चलें तो यह पूरी तरह से संभव है कि हम ठीक तरीके से जीवनयापन कर लें। जीवन तो बहुत तरीके से जिया जा सकता है। कोई जरूरी नहीं कि कोई बहुत खर्चीला जीवन ही जिएँ। दुनिया में ऐसे बहुत से आदमी है जो कम से कम में गुजारा कर लेते हैं। क्या हमारे लिए यह संभव नहीं है? अगर हम खरच से कम आमदनी करते हैं तो कम खरच में गुजारा करें और आर्थिक कठिनाई जैसी मुसीबतों से सहज ही छुटकारा पाएँ। हम अपनी योग्यता बढ़ाएँ, श्रम करने की सामर्थ्य बढ़ाएँ। योग्यता बढ़ाने से, श्रम ज्यादा करने से पैसा ज्यादा मिलता है। आलस्य और प्रमाद जिन लोगों पर छाया रहता है, दरिद्रता स्थायी रूप से उनके पास बनी रहेगी। शारीरिक दरिद्रता आलस्य के रूप में और मानसिक दरिद्रता प्रमाद के रूप में जिन लोगों के पास है कितना ही धन होने पर भी वे गरीबों जैसा, दरिद्रों जैसा जीवन ही जिएँगे।
सामाजिक जीवन में हम देखते हैं कि किस तरीके से चारों और विकृतियाँ फैली हुई है, आपा- धापी और खींच- तान मची हुई है। समाज में रहकर मनुष्य को कितना उन्नतिशील और प्रदान रहना चाहिए था पर यही समाज विकृतियों−विषमताओं के कारण नरक बना हुआ है। जाति- पाँति के नाम पर किस तरीके से आदमी एक−दूसरे से अलग होते जाते हैं। लिंगभेद के नाम पर, स्त्री- पुरुषों के नाम पर एक को ऊँचा और एक को नीचा बनाकर किस तरीके से विषमता पैदा की जाती है। परदा प्रथा के नाम पर पचास फीसदी जनता को अपने मानवोचित अधिकारों से किस तरीके से वंचित किया जाता है? विवाह- शादियों पर खरच होने वाली धनराशि किस तरीके से हमें गरीब और बेईमान बनाती है? दहेज एवं मृत्युभोज के नाम पर कितना पैसा खरच होता है? भिक्षा व्यवसाय में लाखों की तादाद में आदमी कैसे अपने समय को खराब करते और अपनी दीनता का परिचय देते हैं? कुरीतियाँ, बेईमानियाँ, उद्दंडताएँ, धूर्तताएँ चारों और फैली पड़ी हैं। किस तरह से इनका उन्मूलन संभव है? इनको कानून बनाकर पुलिस के द्वारा भी दूर नहीं किया जा सकता। यदि इनको कभी दूर किया जा सकेगा तो आध्यात्मिकता के सिद्धांतों को आदमी के भीतर जमा करके ही दूर किया जा सकेगा। आदमी की धर्मधारणा यदि जीवंत की जा सके, तो समाज में असंख्य प्रकार की विकृतियाँ जो संघर्ष पैदा करती है, विग्रह पैदा करती हैं, द्वेष, कलह और मनोमालिन्य पैदा करती हैं, इन सबसे पिंड छुड़ाया जा सकता है। अगर आदमी अध्यात्मवादी दृष्टिकोण लेकर चले और समाज में आध्यात्मिकता की मान्यताओं की स्थापना की जा सके, तो इन समस्त विकृतियों का उन्मूलन सहज सम्भव है।
हम देखते हैं कि व्यक्तिगत जीवन के जितने भी पहलू, पक्ष हैं वे सभी असंगत एवं विकृत हैं। इसका कारण आध्यात्मिक दृष्टि की कमी है। उसी से परिस्थितियाँ विकृत होती हैं। सामूहिक रूप से सामाजिक जीवन में भी यही बातें ज्यों की त्यों घूमा- फिराकर दिखाई पड़ती हैं। हम राष्ट्रीय- अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्रों पर निगाह डालते हैं तो दिखाई पड़ता है कि युद्धों की विभीषिकाएँ अपना मुँह बाए खड़ी हैं। अगर हम युद्धों के द्वारा एक−दूसरे को परास्त करके विजय प्राप्त करने की बात को दिमाग में से निकाल दें और इस बात को स्वीकार लें कि न्याय के आधार पर जो कुछ उचित होगा, हम उसी को स्वीकार करेंगे। तब फिर निश्चित है कि युद्धों की समाप्ति हो जाएगी और इस मद के लिए संसार भर में जो पैसा लग चुका है या लग रहा है या लगने जा रहा है उसे रोका जा सकेगा और बचे हुए धन एवं जन- शक्ति को जनकल्याण में लगाया जा सकेगा। युद्धों में लगने वाली विपुल संपदा को यदि सिंचाई, स्वास्थ्य एवं शिक्षा व्यवस्था जैसे कामों में लगाया जा सके तो दुनिया में कितनी खुशहाली आ जाए कितनी निश्चितता हो जाए? अगर युद्ध के सिद्धांत को मन में से निकाल दिया जाए और न्याय के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया जाए तो आदमी भय और आशंका से सहज ही छुटकारा पा सकता है।
किसी भी क्षेत्र में हम विचार करते हैं तो एक ही बात मालूम पड़ती है कि मनुष्य की भौतिक अथवा आध्यात्मिक समस्याओं के समाधान और किसी तरीके से नहीं हो सकते। ईश्वरप्राप्ति के लिए बहुत सारे जप, अनुष्ठान, दान, पुण्य किए जाते हैं किंतु यह भुला दिया जाता है कि अपने दृष्टिकोण एवं चरित्र को उच्चस्तरीय बना लेने पर ही अपने मन के स्वच्छ दर्पण में भगवान दिखाई पड़ेंगे। लोग अपने को साफ नहीं करते, मन को धोने की कोशिश नहीं करते और भगवान को, देवी- देवताओं को प्रसन्न करने और बुलाने की कोशिश करते हैं। अपने भीतर का आकर्षण और चुंबकत्व न हुआ तो हम भगवान को कैसे पा सकेंगे? स्वर्ग- मुक्ति कैसे पा सकेंगे? सद्गति और शांति कैसे पा सकेंगे?
व्यक्तिगत जीवन की तरह ही हम यह देखते हैं कि इस दुनिया को सुंदर और समुन्नत बनाने के लिए क्या किया जाए? इसके लिए यों तो असंख्य योजनाएँ बनती हैं, जिसमें भौतिक सुविधाओं के संवर्द्धन का ध्यान रखा जाता है। यदि इन अनेक योजनाओं को बनाने के साथ−साथ इस बात का भी ध्यान रखा जा सके कि व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की परंपराओं में समता के सिद्धांत, एकता के सिद्धांत, शुचिता के सिद्धांतों को समाविष्ट करें, तब फिर दुनिया में कोई कमी नहीं रह सकेगी। फिर जितने साधन आज हैं, उसी से बड़े मजे में हम गुजारा कर सकेंगे। संसार में अगर एकता की दिशा में हम चलने लगें तो न जाने कितनी प्रसन्नतादायक परिस्थितियाँ पैदा हो जाएँ। अगर दुनिया की भाषा एक हो जाए, अपनी- अपनी अलग- अलग भाषाओं के लिए लड़ाई- झगड़ा करना हम लोग बंद कर दें, तब फिर एक भाषा से ज्ञान की वृद्धि में कितनी सहायता मिल सकती है। संस्कृति अगर हम सबकी एक हो तो आदमी अलग- अलग धर्म के नाम पर आपस में टक्कर क्यों मारे? अगर दुनिया में एक राष्ट्र हो और सारे के सारे देश उसी के प्रांत मान लिए जाएँ तो राष्ट्रों के बीच कलह कैसे पैदा हो? समता के सिद्धांत को यदि सभी मान लें तो जाति के नाम पर, लिंग के नाम पर, अर्थ विषमता के नाम पर जो चारों ओर हाहाकार मचा हुआ है, उसका ठहरना कैसे संभव हो सकेगा? नरक हमारे भीतर है और स्वर्ग हमारे भीतर है, दानव हमारे भीतर है और देव हमारे भीतर है। देव को जगाया, उभारा जा सके तो इसी धरती पर हम स्वर्ग के दर्शन कर सकते हैं। यही है वह अध्यात्म जिसके द्वारा मनुष्य के सामने उपस्थित असंख्य समस्याओं का समाधान सन्निहित है।
।। ॐ शांतिः ।।