Books - हर घर बने देव मंदिर और ज्ञान मंदिर
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हर घर बने देव मंदिर और ज्ञान मंदिर
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गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ- ऊँ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्!
शुरुआत अपने घर से कर दें बेटे, इस वसंत पर हमने आपको बुलाया है और एक मंदिर का रूप हमने दिखाया है, जिसका आप उद्घाटन वसंत पंचमी के दिन करेंगे। हम चाहते हैं कि ये मंदिर बिना एक सेकेंड का विलंब लगे, सारे देश भर में फैल जाएँ। नहीं महाराज जी! पैसा इकट्ठा करूँगा, जमीन लूँगा। बेटे, जमीन लेगा और पैसा इकट्ठा करेगा, तब का तब देखा जाएगा। मुझे तो इतना टाइम नहीं है और फुरसत भी नहीं है। मैं तो तुझे इतनी छुट्टी भी नहीं दे सकता कि जब तू पैसा, जमीन इकट्ठी करे, नक्शा पास कराए, बिल्डिंग बनवाएँ तब काम हो। मैं तो चाहता हूँ कि इस हाथ ले और इस हाथ दे। आपके घर में वसंत पंचमी से मंदिर बनने चाहिए। इतनी जल्दी मंदिर कैसे बन सकते हैं? इस तरीके से बनें कि आप एक पूजा की चौकी बना लीजिए। चौकी पर भगवान का चित्र स्थापित कर दीजिए और घर के हरेक सदस्य से कहिए कि न्यूनतम उपासना आप सबको करनी पड़ेगी। उनकी खुशामद कीजिए चापलूसी कीजिए मिन्नतें कीजिए। प्यार से घर में सबसे कहिए कि आप इस भगवान को रोजाना प्रणाम तो कर लिया करें।
मित्रो! चार तरह की पूजा अगर आप कर लें तो काफी है। शुरुआत में हम इस प्रक्रिया को न्यूनतम रखना चाहते हैं। क्या न्यूनतम रखना चाहते हैं? यह रखना चाहते हैं कि घर का प्रत्येक व्यक्ति भोजन करने से पहले वह जो चित्र आपने स्थापित किया है, उसको प्रणाम करे। इतनी नमन- पूजा तो सबसे हो सकती है। नमन क्या होता है? बेटे, मस्तक झुकाइए और हाथ जोड़िए यह हो गया नमन। जप दो मिनट से लेकर पाँच मिनट के भीतर। यदि स्नान आप न कर सकते हों तो कोई आप पर दबाव नहीं है। आप जप दो मिनट से पाँच मिनट तक मन ही मन कर लीजिए। ध्यान सविता का या फिर माता का ध्यान। सविता क्या है? यज्ञ। और सावित्री? गायत्री का नाम है। इनका जप और ध्यान। माँ का अथवा सविता देवता का ध्यान कर लीजिए। इस तरह यह प्रक्रिया एक नमन दो, जप तीन और पूजन चार हो गए।
बेटे, यह भी हो सकता है कि जहाँ आपकी पूजा की चौकी रखी है, उस पर एक कलश रख दीजिए। अगर घर में फूल हैं तो फूल चढ़ा दीजिए। फूल नहीं हैं तो रोली या चंदन घिसा हुआ उस कलश के ऊपर लगा दीजिए। अक्षत चढ़ा दीजिए। यह पूजन हो गया। जप, ध्यान, पूजन और नमन। चार प्रकार की पूजा की न्यूनतम प्रक्रिया दो मिनट से चार मिनट तक में हो सकती है। यह न्यूनतम है, लेकिन भावनाएँ फैलाने के लिए शिक्षण देने के लिए ये सिंबल भी काफी हैं, ताकि जब आपके बच्चे पूछें कि पिताजी, ये हम क्यों करते हैं? तो आप बताइए कि आपने नमन क्यों किया? आप उन्हें बताइए कि पूजन क्यों किया? शुरुआत तो कीजिए सवाल तो पैदा कीजिए जिससे कोई आदमी सवाल पूछे और आप जवाब दें। आप प्रत्येक व्यक्ति इसे अपने घर से शुरू कीजिए। घर में मंदिर बनवाइए।
यज्ञ पिता, गायत्री माता
हमारी भारतीय संस्कृति का पिता है यज्ञ और माँ गायत्री है। गायत्री माता की पूजा करने के लिए श्रवण कुमार के तरीके से अपने घर में स्थापना करनी चाहिए। महाराज जी! हमारे घर में तो बहुत सारे बच्चे हैं और एक दिन तो गायत्री को ही उठा ले गए। एक दिन धूपबत्ती जलाकर घंटरिया ही हिलाते फिरे। अच्छा तो एक बार उन्हें समझा दें। थोड़ी सी ऊँची जगह दीवार पर गायत्री माता का चित्र लगा दें, जहाँ बच्चे न पहुँच सकें। उसके नीचे एक लकडी की पट्टी लगा दें। पट्टी पर छोटा सा कलश रखा रहे और एक धूपबत्ती स्टैंड रखने की जगह हो। घर का हर आदमी जाए प्रणाम करे, वहीं रोली- चंदन कलश पर लगा करके आए। जो फूल चढ़ा सकता हो, वह फूल चढ़ा दे। न चढ़ा सकता हो तो हाथ जोड़े, नमन करे और चला आए। इससे भी काम चल जाएगा? हाँ बेटे, मंदिर ऐसे भी होते हैं। न्यूनतम भले ही हों, लेकिन व्यापक। ऐसे गायत्री माता के मंदिर बनाने का हमारा मन है।
मित्रो! आस्तिकता का विस्तार नए युग की आवश्यकता है। इसे आपको शुरू करना चाहिए। बात छोटी सी है, लेकिन बड़ी महत्त्वपूर्ण है। चिनगारी छोटी है, लेकिन बड़ी महत्त्वपूर्ण है। गांधी जी ने नमक बनाया था, छोटा काम था, लेकिन बड़ा महत्त्वपूर्ण था। गांधी जी ने चरखा चलाया था, बड़ा महत्त्वपूर्ण था। हम आस्तिकता का विस्तार करने के लिए जिस मंदिर में आपको उद्घाटन के लिए बुलाते हैं, वह छोटा है, नगण्य है। आपको जो काम सौंपते हैं, वे छोटे हैं, नगण्य हैं, लेकिन बड़े महत्त्वपूर्ण हैं; क्योंकि हम आस्तिकता का विस्तार जन- जन में करना चाहते हैं।
बेटे, यज्ञ की प्रक्रिया, जिसके बारे में बहस होती है कि हम यज्ञ नहीं कर सकते, पैसा हम नहीं लगा सकते, धन हमारे पास नहीं है तो हमारे घर में कैसे हो सकता है? हम चाहते हैं कि रोज गायत्री माता की पूजा आपके घर का प्रत्येक व्यक्ति करे। उससे घर में वातावरण पैदा हो, ताकि उस वातावरण की हवा पड़ोस के घर में जाए रिश्तेदारी में जाए। आपकी कन्याएँ जहाँ कहीं जाएँ वहाँ आस्तिकता का वातावरण पैदा करें । वातावरण अपने घर से पैदा करें। आप अपने घर से फैलाइए यज्ञ की परंपरा को। मैं चाहता हूँ कि हमारे घरों में से कोई भी घर ऐसा बाकी नहीं रहे, जहाँ कि ये स्थापनाएँ न हों और जहाँ यज्ञ न होता हो। रोज या महीने भर बाद? अरे महीने भर बाद, साल भर बाद नहीं रोज। महाराज जी! शाखा की ओर से करने को कह रहे हैं या अपने घर की ओर से कह रहे हैं। शाखा को रहने दे, मैं तो तेरी बात कह रहा हूँ। शाखा की बात नहीं कह रहा। मैं रोज यज्ञ करूँ? हाँ रोज नियमित रूप से कर। कैसे करूँ?
छोटा सा यज्ञीय प्रयोग
बेटे, यह काम तो महिलाएँ भी रोज कर सकती हैं। चूल्हे में से चिमटे से अग्नि निकाल ली और उस पर जरा सी बूंदें घृत की डाल दीं। मूँग की दाल के बराबर रोटी के छोटे- छोटे पाँच ग्रास तोड़े, जरा सा घी- शक्कर लगाया, एक गायत्री मंत्र बोला और एक ग्रास चढ़ा दिया। दूसरे मंत्र के साथ दूसरा ग्रास चढ़ा दिया, फिर तीसरा चढा दिया। इस प्रकार पाँच बार गायत्री मंत्र बोलें और पाँच ग्रास चढ़ा दिए। फिर एक मंत्र से पूर्णाहुति कर दी, दो बूँद घी और डाल दिया। दो बूँद पहले और दो बूँद घी आखिर में। बेटे, इतने से कुछ बनता- बिगड़ता नहीं है। हाँ महाराज जी! चार- पाँच बूँद घी में तो कुछ भी नहीं है। महीने भर में एक चम्मच होता है। एक अंजलि में जल लिया, चारों ओर घुमाया, हाथ जोड़ दिए। यह क्या है? यज्ञ की परंपरा। परंपरा को हम जिंदा रखना चाहते हैं। यज्ञ को हम इसके लिए नहीं छोड़ना चाहते कि शाखा चंदा इकट्ठा करे, रसीद छपाए मीटिंग हो, तब गाँव वाले, शाखा वाले आएँ और हवन हो। नहीं बेटे, हम तो वह काम बताना चाहते हैं, जो तू अकेले ही कर सकता है।
मित्रो! इस बार हमारा मन है कि आस्तिकता दिल्लगीबाजी की चीज नहीं रहे, शाखा की बात नहीं रहे, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति की निष्ठा का विषय बन जाए। मंदिर, जिसका हम उद्घाटन कराना चाहते हैं, हम नहीं चाहते कि यह मंदिर धनियों, पैसे वालों के हाथ में जाए जमींदारों के हाथ में जाए। हम चाहते हैं कि मंदिर की परंपरा, मंदिर की श्रृँखला प्रत्येक घर में पैदा हो जाए। उसकी परंपरा का मैंने स्वरूप बताया- गायत्री माता, यज्ञ पिता को। हम कैसे शुरुआत कर सकते हैं? महिलाएँ इस मामले में बहुत योगदान दे सकती हैं। गायत्री माता भी मातृशक्ति ही हैं। महिलाओं ने धर्म की रक्षा पहले भी की थी और अब तो हम नए जमाने में इन्हें बढ़ा ही रहे हैं। महिला जाग्रति हमारा मुख्य अभियान हो गया है, सो महिलाएँ ही इस कार्य को बढ़ा सकती हैं। गायत्री माता और यज्ञ की पूजा करने का काम हम महिलाओं को ही सौंप देते हैं। यहाँ हमारी गायत्री माता की स्थापना है, यहाँ की पूजा कन्याएँ करती हैं। हमारा ऊपर वाला मंदिर, जहाँ अखण्ड दीपक है, उसकी पूजा भी कन्याएँ करती हैं। वहाँ वाला जो मंदिर है, उसकी भी पूजा कन्याएँ करेंगी। कन्या और ब्राह्मण की तुलना मैं समान रूप से करता हूँ। आज के समय में, आज के जमाने में यदि सच्ची पूछे तो ब्राह्मण से ज्यादा मैं कन्याओं को महत्त्व देता हूँ। आज के जमाने में महिलाएँ क्या कर सकती हैं? महिलाएँ यज्ञ की परंपरा और गायत्री मंत्र का जप जारी रख सकती हैं। उनको समय भी नहीं मिलता तो भी यदि वे चाहें तो बच्चों को दूध पिलाते समय में जप करती रह सकती हैं। इससे दूध के साथ- साथ में बच्चों में श्रेष्ठ संस्कार बनेंगे। खाना पकाने के साथ- साथ में यदि महिलाएँ जप करती रहेंगी, तो उस घर का खाना खाने वाला आदमी जो भी होगा, उसमें सद्बुद्धि आएगी, श्रेष्ठ विचारणा आएगी। मैं चाहता हूँ कि यह आंदोलन अब फैलना चाहिए।
अपने घर में बनाइए एक मंदिर
हमारे अखण्ड ज्योति कार्यालय में पैंतीस साल से एक ही मंदिर है। एक कोठरी में दो चौकियाँ रखी हैं- एक बड़ी चौकी, एक छोटी चौकी, जिसके ऊपर तसवीर रखी है। हमारे अधिकांश जप- अनुष्ठान वहीं पूरे हुए हैं। अखण्ड दीपक भी वहीं जला। हमारा वह मंदिर अब भी है। आप भी ऐसे मंदिर बना सकते हैं शाखा में, घर में। एक चौकी के ऊपर गायत्री माता का बड़ा वाला चित्र स्थापित हो, उसके पास ही धृत दीप आरती वगैरह रखी हो। तो महाराज जी! एक पुजारी रखना पड़ेगा और प्रसाद बाँटने के लिए तो बहुत खरच करना पड़ता है। इस बारे में भी हमने कुछ सफाइयाँ कुछ नियम तय कर दिए हैं।
मित्रो! इस संबंध में एक नियम यह तय कर दिया है कि जिस तरह से थियोसोफी संस्था ने प्रसाद के नाम पर केवल जल का प्रसाद रखा है। ईसाई मिशन, जो करोड़ों रुपए की कीमत से चलते हैं, उनके यहाँ भी केवल जल का प्रसाद बाँटा जाता है। हमने भी अपने यहाँ प्रसाद के बारे में नई परंपरा स्थापित कर दी है। अब से हमारे मंदिरों में पंचामृत दिया जाएगा। इसमें पाँच चीजें रहा करेंगी। ये पाँच चीजें क्या हैं? जल- एक गंगाजल- दो, शक्कर- तीन, तुलसी का पत्ता- चार, चंदन- पाँच। यह पंचामृत हो गया। कितने पैसे का? छदाम का भी नहीं है, बाँट दे। अरे साहब! सौ आदमी आ जाएँगे तो मैं कहाँ से लाऊँगा प्रसाद? और पानी मिला दे, ये कभी खतम नहीं होने वाला। महाराज जी, थोड़ा- थोड़ा दूँगा तो लोग नाराज होंगे। तो बड़ा- बड़ा चम्मच भरकर दे, हम कब कह रहे हैं कि थोड़ा- थोड़ा प्रसाद दे।
बेटे, हमारी यह मान्यता है कि हम जन- जन को अपना बनाएँगे। हम गरीबों के हैं। यज्ञ की परंपरा को हम गरीबों तक पहुँचाने के लिए इसे श्रमदान और समयदान से चलाना चाहते हैं। इसे हम जन जन का बनाना चाहते हैं। पंडितों और अमीरों के हाथों से हम इसे छीनना चाहते हैं। हम नहीं चाहते कि यज्ञ पंडितों का नौकर होकर रहे (( हम नहीं चाहते कि यज्ञ रईसों और सेठों का नौकर होकर रहे। इसे जनसामान्य का बनाना चाहिए। इसके लिए धन की आवश्यकता न पड़े, केवल श्रम से हम मिल जुलकर अपना काम चला लें। इसीलिए हम प्रत्येक घर में मंदिर की परंपरा वसंत पंचमी से चलाना चाहते हैं और हम चलाकर रहेंगे।
प्रतीक हों घर- घर में
मित्रो! जैसे हमारे गुरु ने हमको आदेश दिया कि आध्यात्मिकता का विस्तार करने के लिए हम छोटे से प्रतीक स्थापित करें तो हमने गायत्री का मंदिर बनाया। हमारा बड़ा मन है कि आप भी एक प्रतीक स्थापित करें। प्रतीक मंदिर से क्या हो जाएगा? मंदिर से सब कुछ हो जाएगा- हवा फैलेगी, वातावरण बनेगा। हम हवा फैलाना चाहते हैं और वातावरण बनाना चाहते हैं; फिर आप देखना कि वातावरण का क्या प्रभाव होता है! गांधी जी ने नमक बनाया था। नमक से क्या हो जाएगा? बेटे, हम क्या बताएँ क्या हो जाएगा बना करके देख जरा, नमक से बगावत? पैदा होगी। नमक से? हाँ बेटे, नमक से। नमक से बगावत की बात न होती तो अँगरेज जरा भी ध्यान नहीं देते। नमक बनाएँगे। बना लीजिए हमारा क्या बिगड़ता है। वे मना नहीं कर सकते थे, पर उन्होंने देखा कि इसमें तो बगावत का माद्दा है। हमारे मंदिरों के पीछे समर्थगुरु रामदास की वृत्ति काम करती है, लोकमान्य तिलक की वृत्ति काम करती है। इसके पीछे हमारे बड़े- बड़े ख्वाब हैं और बड़े- बड़े सपने हैं। आप उँगली तो रखने दीजिए फिर हम कलाई पकड़ लेंगे। आप कलाई भी पकड़ लेंगे? हाँ बेटे, हम कलाई भी पकड़ लेंगे, उँगली रखने की जगह तो दें।
आप अपने घर में गायत्री माता को जगह दें, यज्ञ की परंपरा को स्थान दें, फिर देखना हमारा चमत्कार फिर आपके बच्चे पूछेंगे कि मम्मी क्या बात है, आप रोज आग काहे को जला देती हो? मम्मी को बताना पड़ेगा। उसके बहाने से आप उन्हें शिक्षण देंगे। हम भी बच्चों से कहेंगे कि बेटे, तुम अपनी मम्मी से पूछते हो या नहीं कि यह आग किसलिए जलाती हो? तुम्हारे पिताजी ने यह कहा था कि हाथ जोड़कर नमन किया करो और चंदन चढ़ाया करो। यह क्यों किया करते हैं, आपने पिताजी से पूछा कि नहीं? गुरुजी! हमने तो नहीं पूछा। उन्होंने कह दिया, सो हमने कर दिया। नहीं बेटे, सवाल पूछो कि यह क्या बात है? साहब, काहे को आप दो मिनट खराब कराते हैं। इसलिए कि बच्चे सवाल करेंगे और आप जवाब देंगे। इससे आप जिज्ञासाएँ पैदा करेंगे और हम आस्तिकता का वातावरण घर घर में पैदा करेंगे। इस प्रकार सवाल देने के लिए आप जो पद्धति बनाएँगे, उसके प्रचार की हम शुरुआत कर देंगे।
देवस्थापना करें
मित्रो! उद्घाटन के साथ- साथ में हम आपको प्रेरणा देते हैं कि शाखाओं में और घरों में, हर जगह यह देवस्थापना होनी चाहिए। तो महाराज जी, आपका बड़ा इन्ट्रेस्ट है? हाँ बेटे, हमारा बड़ा इन्ट्रेस्ट है। हमने तो बड़े- बड़े साइज के और छोटे- छोटे साइज के चित्र छपा करके रखे हैं। उनके मूल्य ऐसे रखे हैं कि आपको हँसी आएगी और मजाक लगेगा। इतने बड़े साइज कि जो आठ- आठ रुपए के चित्र बिकते हैं। हमने एक- एक रुपए सवा- सवा रुपए के बना दिए हैं और उनकी प्राण- प्रतिष्ठाएँ कर दी हैं। हमारी देवकन्याओं ने और हमने मिलकर सबके ऊपर स्वस्तिक बना दिए हैं। सबके ऊपर रोली, चंदन लगा दिए हैं, केशर लगा दी है, चित्र की प्राण- प्रतिष्ठा कर दी है। आप उन चित्रों को यहाँ से ले जाइए अपने घर में देवमंदिर बनाइए फिर साधना कीजिए।
वसंत पंचमी के दिन से हम उस आस्तिकता की शुरुआत करते हैं जिसको जन- जन तक पहुँचाने के लिए आज से पचपन वर्ष पहले हमारे गुरु ने हमको बताया था। उसी आध्यात्मिकता के बीज, जो हमारे भीतर बोए गए सारे जीवनभर लाखों आदमियों के भीतर विस्तार करते चले गए। आप भी छोटे में, संक्षेप में अपने घरों पर गायत्री माता की और यज्ञ भगवान की स्थापना करें, उसका विस्तार करें। सवाल- जवाब बताएँ शंका- समाधान करें एवं पूछताछ करें। जब आपका भतीजा कहे कि हम तो झगड़े में नहीं पड़ते, हम तो नमस्कार नहीं करते। आप कहिए अच्छा बेटे, शाम को आना, हम बताएँगे। आपको मार्गदर्शन का मौका तो मिलेगा। हमारा यह आंदोलन नंबर एक इसको आपको चलाना चाहिए।
ज्ञान की मशाल जलाएँ
नंबर दो, दूसरा वाला आंदोलन है- विचार क्रांति। विचार ही हैं जो आदमी को बनाते हैं और आदमी को बिगाड़ते भी हैं। विचार आदमी को घटिया बना देते हैं, चोर बना देते हैं और विचार ही आदमी को संत बना देते हैं, ऋषि बना देते हैं। विचार ही हैं आदमी के पीछे और है क्या? नहीं तो मांस और हड्डियाँ हैं। उसके भीतर जो प्राण- कर्म करता है, विचार कार्य करते हैं। विचारों का विस्तार हम नए युग के अनुरूप करने के इच्छुक हैं। इसीलिए हमारा मन है कि प्रत्येक व्यक्ति तक जन- जन तक अलख निरंजन जगाने के लिए महाकाल की आग, हमारे गुरु की आग, जो हमारे पास आती है, उस आग को फैला देना आपका काम है। लाल मशाल में जो निशान बनाया गया है, उसके पीछे जो बहुत सारे मनुष्यों की भीड़ दिखाई पड़ती है, उसका मतलब यह है कि वह हम सबकी, आप सबकी है और उसके पीछे जो लाल हाथ- लाल मशाल दिखाई पड़ती है, वह ज्ञान की मशाल है।
मित्रो! जो नया युग आएगा, वह किससे आएगा? ज्ञान से आएगा, विचारों से आएगा। बंदूक से नहीं आएगा नया युग। यह बंदूक से भी बडी, सबसे बड़ी तोप है, जिसको हम विचार कहते हैं। यह जो एक मशाल हाथ में ली हुई है, वह किसका हाथ है? हमारे भगवान का हाथ है, महाकाल का हाथ है। उसके पीछे छोटे- छोटे रीछ और वानर, हम और आप खड़े हुए हैं। ज्ञान का विस्तार हमको करना चाहिए। बादलों के तरीके से इसको फैलाना चाहिए। जन- जन के पास जाना चाहिए घर- घर में हमारा प्रवेश होना चाहिए। ये कैसे हो सकता है? इसके लिए छोटा सा तरीका हमने बताया है और वह ज्ञानरथ है। झोला पुस्तकालय पहले वाला था। आप जाइए संपर्क बढ़ाइए और जो भी आपको मिलते हैं, उनको पुस्तक पढ़ाइए। बिना पढ़ो को सुनाइए। हमारा ज्ञानरथ इस जमाने का जगन्नाथ जी का रथ है। हमारे वृन्दावन में रंग जी का रथ निकलता है। भगवान के पास तो सब लोग नहीं जा पाते, लेकिन भगवान को अर्थात ज्ञान को, ऋतम्भरा प्रज्ञा को, गायत्री माता को, युगचेतना को घर- घर में आपको ले करके जाना चाहिए।
दीजिए समय का एक हिस्सा
मित्रो! आपको अपने समय का एक हिस्सा निकालना चाहिए। यदि आप भगवान को अपने जीवन में हिस्सेदार- साझीदार बना सकते हों तो भगवान के लिए कुछ समय निकालिए। नहीं साहब! भगवान के लिए समय तो लगाएँगे, लेकिन चापलूसी में लगाएँगे। नहीं बेटे, चापलूसी के बजाय उनका काम करने में लगा। गुरुजी! हम तो आपको हाथ जोड़कर पैर छूकर प्रणाम करेंगे, आपका नाम जपेंगे और आपकी आरती उतारेंगे। नहीं बेटे, जितनी देर में तू हमारी आरती उतारेगा और पैर छुएगा, पैर दबाएगा, उतनी देर में तू हमारी सड़क को साफ कर दिया कर और देख नालियों में गंदगी हो जाती है, उसको साफ कर दिया कर। नहीं महाराज जी! नाली में तो मैं और कूड़ा डालूँगा, पर आपकी आरती उतारूँगा। बेटे, हमारी आरती मत उतार। हम अपनी आरती अपने आप उतार लेंगे, तेरी आरती की हमें कोई जरूरत नहीं है। तू तो नाली साफ कर दिया कर।
मित्रो! आज समाज की सबसे बड़ी सेवा, देश की सबसे बड़ी सेवा, धर्म और संस्कृति की सबसे बड़ी सेवा, मानवता की और महाकाल की सबसे बड़ी सेवा यह है कि हम जनमानस में युगचेतना का विस्तार करने का प्रयत्न करें। उसमें खाद- पानी पहुँचाएँ। प्राचीनकाल में तीर्थयात्रा का यही उद्देश्य था। बादलों के तरीके से ऋषि और ब्राह्मण घर- घर जाकर अलख निरंजन की जाग्रति जगाया करते थे। आप लोगों को भी वही करना चाहिए। आपको जन- जन के पास जाना चाहिए। झोला पुस्तकालय के रूप में, ज्ञानरथों के रूप में। हमारे सुल्तानपुर के लखपतराय वकील की बात मैं भूलता नहीं। वे पाँच बजे कचहरी से घर आते और आधा घंटे में फ्रेश हो करके, चाय नाश्ता करके निश्चित हो जाते। फिर चल पुस्तकालय लेकर सारे बाजार में, अपने मुवक्किलों के पास, सेठों के पास, स्कूलों में जाते और तीन घंटे तक पुस्तकालय चलाते।
महाकाल की सच्ची सेवा
लोग कहते- अरे वकील साहब! यह क्या धंधा खोल लिया है? अरे यार, यह भगवान का धंधा है तू भी खोल, फिर देख। जरा यह पुस्तक पढ़ तो सही, तब पता चलेगा, क्या? इस जमाने में सारे के सारे सुल्तानपुर को उन्होंने जाग्रत कर दिया। उन्होंने कोई कोना नहीं छोड़ा,कोई स्कूल नहीं छोड़ा, कोई घर नहीं छोड़ा। परिणाम यह हुआ कि जिस सुल्तानपुर में मैं पहले दो बार गया, जब पाँच कुंडीय यज्ञ हुए थे, तब मुश्किल से एक सौ आदमी आते थे। जब बाबू लखपत राय ने सारे के सारे सुल्तानपुर में मिशन की बात फैला दी, तब मुझसे कहा- गुरुजी! आप तो हिमालय जाने वाले हैं? हाँ बेटे, जाने वाला हूँ। तो एक बार सुल्तानपुर और चलिए। दो बार तो हो आया। सौ आदमी तो आते नहीं हैं, मैं क्या करूँगा सुल्तानपुर में? उनने कहा कौन से जमाने की बात कह रहे हैं आप। कुछ वर्ष पहले में और अब में जमीन- आसमान का फर्क पड़ गया है, आप चलिए तो सही। अच्छा चलूँगा। सुलानपुर के गाँव -गाँव, घर- घर में उन्होंने पुस्तकें पढ़ाई और पूछा कि आचार्य जी की किताबें आप पढ़ते हैं, आपको पसंद आती हैं? हाँ साहब, पसंद आती हैं और आँखों में आँसू आ जाते हैं, ऐसा गजब का साहित्य है। यह तो किसी देवता का लिखा हुआ है। लखपत बाबू ने कहा- जिन्होंने ये किताबें लिखी हैं, वे हमारे गुरुजी हैं, उनको बुला दें तो? हाँ साहब, बुला दीजिए। तो आप अपनी दुकानें बंद रखेंगे और आचार्य जी के साथ में रहेंगे? हाँ साहब, रहेंगे। उनके खाने- पीने का, किराये- भाड़े का जो खरचा पड़ेगा, सो आप देंगे? हाँ जिस लायक हमारी हैसियत है, दे देंगे। हर एक से उन्होंने वायदे करा लिए और सौ कुंडीय यज्ञ रखा। मैं गया तो एक लाख जनता थी। उन दिनों एक लाख आबादी सुलानपुर की नहीं होगी शायद। आस- पास के सारे देहातों के लोग आए। बैलगाड़ियाँ ही बैलगाड़ियों। मैंने कहा- भई, गायत्री तपोभूमि को मैं खाली छोड़कर आ रहा हूँ कुछ पैसे- वैसे का थोड़ा- बहुत इंतजाम हो जाए तो कर देना। बोले- गुरुजी! हम करेंगे। यज्ञ समाप्त होने के बाद उनके पास इक्यावन हजार रुपया बचा था, जो उन्होंने गायत्री तपोभूमि में जमा कर दिया। यह किसकी करामात थी? झोला पुस्तकालय की, चल पुस्तकालय की और वकील साहब की। नहीं साहब! नौकर रखेंगे, कोई मिलता ही नहीं और वह फलाना पुस्तकें ले गया, वापस ही नहीं कीं। पहले चलाया था तो चला ही नहीं। बहाने बनाता है दुनिया भर के। गुरुजी! वह चल पुस्तकालय तो ठंढा हो गया, उसमें गरमी आई ही नहीं। गरमी आई नहीं तो दीयासलाई लगा दे उसमें।
करें गुरु से- ईश्वर से साझेदारी
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? मैं चाहता हूँ कि आप में से प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर की साझेदारी शुरू करे। जैसे मैंने अपने गुरु की साझेदारी अपनी जिंदगी में की है। गुरु का असीम धन मुझे मिला है और बेटे, मेरे जीवन का प्रत्येक अंश मेरे गुरु को मिला है। हम दोनों की साझेदारी ईमानदारों की साझेदारी है। चोर और चालाकों की साझेदारी नहीं है। चोर- चालाकों की साझेदारी कैसी होती है? ऐसी होती है बेटे कि दो थे मित्र, बोले हम और आप कुछ कर लें। कुछ आप हमारे लिए करना, कुछ हम आपके लिए करेंगे। हाँ साहब! बताइए क्या करें? यह करें कि हमारे शरीर में कई छेद हैं, हम आपके एक छेद में उँगली कर देंगे और एक छेद में आप हमारे उँगली कर दीजिए। अच्छा भाईसाहब! जैसे आप कहेंगे, सो करेंगे। तो आप ऐसा कीजिए कि आप हमारे मुँह में उँगली कर दीजिए और हम आपकी आँख में उँगली कर देंगे। एक ने उसकी आँख ही फोड़ दी और दूसरे ने उँगली काट खाई। क्या यही साझेदारी है?
बेटे, यह साझेदारी नहीं है। तो गुरुजी आप और हम रिश्तेदार हो जाएँ। हाँ फिर क्या करें? आप अपने तीन साल का तप हमको दे दीजिए। तो फिर क्या करेगा बेटे, तप का? तीन साल के तप में तो हमारे यहाँ संतान नहीं होती है, वह हो जाएगी। अच्छा, दो वर्ष का तप और दे दीजिए। यह हमारा भाई है, इसका लड़का तीन साल से फेल हो रहा है, वह पास हो जाएगा और दो वर्ष का तप और दे दीजिए काहे के लिए? हमारा मकान बनाने को पड़ा है, सो उससे बन जाएगा। सात साल का तप दे दीजिए। अच्छा, फिर तू क्या देगा? महाराज जी मैं क्या दूँगा? नहीं बेटे, तप यों नहीं देंगे। हम तो ईमानदारों की साझेदारी करेंगे, बेईमानों की नहीं। भगवान से तू माँग, भगवान को दे, बैंक से ले और बैंक को दे, यह ईमानदारी की साझेदारी है।
असली भजन यह है
बेटे, अपने समय का एक हिस्सा आपको भजन में लगाना चाहिए लेकिन भजन से भी ज्यादा समाज के क्रिया- कलापों में खरच करना चाहिए। मैं भजन करता हूँ चार घंटे रोज, लेकिन मैं अपने गुरु का काम करता हूँ चौदह घंटे रोज। मैं शाम को सात- आठ बजे सो जाता हूँ और साढे बारह बजे उठ करके बैठ जाता हूँ। साढ़े बारह बजे से लेकर एक बजे तक नहा- धोकर नित्यकर्म से निश्चित हो जाता हूँ। मेरी बत्तियाँ सब जल जाती हैं ठीक एक बजे। एक से पाँच बजे तक चार घंटे में अपना भजन पूरा कर लेता हूँ। फिर उसके बाद पाँच बजे से अपने गुरु का काम शुरू कर देता हूँ और दस घंटे काम करता हूँ। सवेरे जब आप लोग यह काम करते हैं, उस वक्त तक मैं अखण्ड ज्योति का एक लेख लिखकर तैयार कर देता हूँ। बाकी दिन में भी करता हूँ। आजकल तो शिविर में भी लगा रहता हूँ। यह भी अपने गुरु का काम करता हूँ आपका नहीं। भगवान का काम शाम सात बजे तक करता रहता हूँ। क्या मजाल है। मैं गुनहगार हूँ एक रोटी और एक कटोरी साग खाने का, गुनहगार हूँ ये कपड़े पहन लेने का। बाकी न मेरी कोई इच्छा है, न कोई कामना। चौबीसों घंटे अपने गुरु के लिए काम करता हूँ।
मित्रो! मेरे गुरु के पास जो कुछ भी संपदा है, मेरी है। उन्होंने कह रखा है कि जब भी तुझे जरूरत पड़े, तब मुझसे माँग लेना। जब मुझे जरूरत पड़ती है, बस, चैक ही काटता रहता हूँ। कितने चैक काटते रहते हो? बेटे तीन- चार वर्ष पहले यह दस लाख रुपए का चैक काटा, कैश होकर आ गया। देख यह बना हुआ खड़ा है। अभी यह ब्रह्मवर्चस बन रहा है। इसमें कितना खरच हुआ है? लगभग दस लाख इसमें भी लगा है और यह गायत्री नगर, जो अभी बनने वाला है, इसमें गुरुजी, कितना पड़ेगा? बेटे, इसमें तो बहुत ज्यादा लगेगा। दस लाख से काम चल जाएगा? नहीं; दस लाख से काम नहीं चलेगा, क्योंकि इसमें सौ क्वार्टर बनने वाले हैं। कितने भी कार्यकर्ता यहाँ रहेंगे, उनके बच्चों को हाईस्कूल तक पढा़ने के लिए स्कूल बनने वाला है। एक खेलने का ग्राउंड बनने वाला है, एक पार्क बनने वाला है। एक लाइब्रेरी बनने वाली है। एक उद्योग हॉल बनने वाला है, जिसमें हमारे कार्यकर्ताओं की महिलाएँ गृह उद्योग सीखा करेंगी।
महाराज जी! यह तो बड़ी लंबी- चौड़ी स्कीम है। हाँ बेटे, बड़ी लंबी- चौड़ी स्कीम है। तो इतना कहाँ से आता है? यह हमारी बैंक से आता है। कौन सी बैंक? जिस बैंक से हमारा ईमानदारी का एग्रीमेंट है। उसने हमारी शाख बढ़ा दी है। अब आपकी पचास हजार की शाख है और बाकी ग्रेड? अब एक लाख की ग्रेड है। ग्रेड भी बढ़ती हुई चली जाती है क्यों? हमारी बैंक हमको ईमानदार समझती है कि इसको जो पैसा दिया गया है, वह चुका देगा। और आप चुकाना नहीं चाहते, माँगना चाहते हैं। नहीं बेटे, यह तो गलत बात है, ऐसा मत करना। हमारी शाख पर शाख बढ़ती जा रही है। आपको भी अपनी शाख बढ़ानी चाहिए।
विचार- क्रांति की आग फैला दीजिए
मित्रो! लंका में हनुमान जी ने अपनी पूँछ में लगी आग से प्रत्येक घर में आग लगा दी थी। आप हमारे दिल में जलती हुई आग, जो हमारे गुरु की आग है, लाल मशाल की आग है। जो हमारे रोम- रोम में, हमारी नस- नस में जलती है, इसे समाज में फैला दीजिए। जब होली जलती है तो लोग- बाग उसमें से थोड़ी सी आग ले जाते हैं और अपने- अपने घरों पर जाकर होली जलाते हैं। आपके यहाँ रिवाज है या नहीं, मुझे नहीं मालूम, पर हमारे यहाँ यू ०पी० में यह रिवाज है। होली में से आग लाकर अपने घर पर गोबर की बनी बलगुरिया- मालाओं की होली जलाते हैं, फिर उसमें चावल, आलू पकाते हैं, नारियल पकाते हैं। हमारे यहाँ यह रिवाज है। मित्रो! आप भी यहाँ से हमारी जलती हुई होली में से आग ले जाइए और अपने घरों पर जलाइए। ज्ञान मंदिरों के चल पुस्तकालय के रूप में, विचार- क्रांति के रूप में, ज्ञानयज्ञ के रूप में और जन- जन के भीतर वह प्रकाश पैदा कीजिए जिसको हम आध्यात्मिकता का प्रकाश कहते हैं, युगचेतना का प्रकाश कहते हैं और भगवान का प्रकाश कहते हैं। यही अपेक्षा हम आप लोगों से करेंगे।
मित्रो! हमने आपको उद्घाटन कराने, जय बुलवाने के लिए परिक्रमा कराने, आहुतियाँ देने और प्रसाद बाँटने के लिए नहीं बुलाया है। हम आपसे कुछ चाहते हैं। क्यों चाहते हैं आप? इसलिए चाहते हैं कि हम आपको कुछ देना चाहते हैं, अगर आप दे नहीं पाएँगे, तो हम भी नहीं दे सकेंगे। नहीं गुरुजी। आप तो दे दीजिए। नहीं बेटे, हम दे नहीं सकेंगे। अगर नाक में से पुराना श्वास नहीं निकालेगा तो हम नया श्वास नहीं दे सकते। नहीं साहब! नया श्वास दे दीजिए पुराने को तो मैं नहीं निकाल सकता। पुराने को निकाल, तब नया मिलेगा। पेट में गंदगी भरी पड़ी है, पहले उसे निकाल, फिर खाना देंगे। नहीं महाराज जी! पेट की गंदगी को तो साफ नहीं करेंगे, खाना दे दीजिए। उलटी हो जाएगी तुझे, हम खाना नहीं दे सकते। बेटे, हमारा गुरु कुछ देना चाहता था और देने से पहले उसने कहा, निकाल तेरे पास जो कुछ भी है। जो कुछ भी था, हम निकालते हुए चले गए। जितना हमने अपने आप को खाली कर लिया, उससे ज्यादा वह हमको भरता हुआ चला गया। इस शिविर में बुलाकर हम आपको भर देना चाहते हैं। भर देने से पहले यह प्रार्थना करते हैं कि अगर आपके लिए खाली हो सकना संभव हो सके तो आप खाली हो जाइए।
विश्वास पर टिकी है साझेदारी
मित्रो! ये थोड़े से क्रिया- कलाप हैं, जो आज आपको बताए गए हैं। इन कार्यों में थोड़ा- थोड़ा सा समय लगाना है, सो आप लगा सकते हैं। ज्यादा समय लगाना होगा तो हम आपको बुलाएँगे, दावत देते हैं। मित्रो, हमने अपने भगवान पर विश्वास किया और यह कहा कि हम आपके सुपुर्द होते हैं। आप हमको और हमसे जुड़े सबको सँभालना। उन्होंने कहा- हम आपसे जुड़े हर एक को सँभाल देंगे। हमारी बीबी और बच्चों को सँभाल दिया। हमारी बीबी को उन्होंने ऋषि और संत बना दिया, जैसे हमें बनाया था। हमारे बच्चों को भी उन्होंने इस लायक बना दिया कि वे सुखी रह सकें और हमारी ही तरह समाज की सेवा कर सकें। हमारे घर में हम जो स्वयं कर सकते थे, उसकी अपेक्षा हमारे गुरु ने हमारे घर का, हमारे शरीर का, हमारे परिवार का उत्तरदायित्व सँभाला है। हमने भी उन पर विश्वास किया है। आप तो विश्वास ही नहीं करते।
मित्रो! विश्वास करने की बात से मुझे एक कहानी याद आ जाती है। अमेरिका में टामस नाम का एक व्यक्ति था। उसने विश्वास की महत्ता सबको बताई कि आप भगवान पर विश्वास कीजिए। नहीं साहब, हम तो भगवान पर विश्वास नहीं कर सकते। अरे भाई, भगवान के विश्वास में बड़ा चमत्कार है। उसने नियाग्रा फाल के ऊपर एक पेड़ के ऊपर इधर से और एक पेड़ के ऊपर उधर से एक रस्सी बाँध दी। नियाग्रा फाल एक बहुत बड़ा फाल है। रस्सी बाँधकर उसने लाखों लोगों को बुलाया और कहा कि देखिए विश्वास का चमत्कार। विश्वास का चमत्कार दिखाने के लिए टामस आज से लगभग ढाई सौ वर्ष पहले उस रस्सी के ऊपर ऊपर से धीरे- धीरे चलने लगा। उसने कहा, देखिए मैं भगवान पर विश्वास करके इस रस्सी पर होकर के उस पार जाता हूँ और चार सौ फर्लांग चौड़े फासले को वह पार कर गया। लोगों ने तालियाँ बजाई और कहा कि आपका विश्वास तो बड़ा पक्का है। उसने कहा कि अगर मेरा विश्वास पक्का है तो आप सब मानते हैं कि भगवान है। हाँ साहब! मानते हैं; क्योंकि आप बाजीगर भी नहीं हैं, नट भी नहीं हैं, कलाकार भी नहीं हैं। मित्रो! इसे कहते हैं विश्वास। हमने भगवान पर विश्वास किया है और उसकी फलश्रुति आपके सामने है। आप भी विश्वास कीजिए और हमारी तरह धन्य हो जाइए।
आज की बात समाप्त।
।। ऊँ शांति: ।।
शुरुआत अपने घर से कर दें बेटे, इस वसंत पर हमने आपको बुलाया है और एक मंदिर का रूप हमने दिखाया है, जिसका आप उद्घाटन वसंत पंचमी के दिन करेंगे। हम चाहते हैं कि ये मंदिर बिना एक सेकेंड का विलंब लगे, सारे देश भर में फैल जाएँ। नहीं महाराज जी! पैसा इकट्ठा करूँगा, जमीन लूँगा। बेटे, जमीन लेगा और पैसा इकट्ठा करेगा, तब का तब देखा जाएगा। मुझे तो इतना टाइम नहीं है और फुरसत भी नहीं है। मैं तो तुझे इतनी छुट्टी भी नहीं दे सकता कि जब तू पैसा, जमीन इकट्ठी करे, नक्शा पास कराए, बिल्डिंग बनवाएँ तब काम हो। मैं तो चाहता हूँ कि इस हाथ ले और इस हाथ दे। आपके घर में वसंत पंचमी से मंदिर बनने चाहिए। इतनी जल्दी मंदिर कैसे बन सकते हैं? इस तरीके से बनें कि आप एक पूजा की चौकी बना लीजिए। चौकी पर भगवान का चित्र स्थापित कर दीजिए और घर के हरेक सदस्य से कहिए कि न्यूनतम उपासना आप सबको करनी पड़ेगी। उनकी खुशामद कीजिए चापलूसी कीजिए मिन्नतें कीजिए। प्यार से घर में सबसे कहिए कि आप इस भगवान को रोजाना प्रणाम तो कर लिया करें।
मित्रो! चार तरह की पूजा अगर आप कर लें तो काफी है। शुरुआत में हम इस प्रक्रिया को न्यूनतम रखना चाहते हैं। क्या न्यूनतम रखना चाहते हैं? यह रखना चाहते हैं कि घर का प्रत्येक व्यक्ति भोजन करने से पहले वह जो चित्र आपने स्थापित किया है, उसको प्रणाम करे। इतनी नमन- पूजा तो सबसे हो सकती है। नमन क्या होता है? बेटे, मस्तक झुकाइए और हाथ जोड़िए यह हो गया नमन। जप दो मिनट से लेकर पाँच मिनट के भीतर। यदि स्नान आप न कर सकते हों तो कोई आप पर दबाव नहीं है। आप जप दो मिनट से पाँच मिनट तक मन ही मन कर लीजिए। ध्यान सविता का या फिर माता का ध्यान। सविता क्या है? यज्ञ। और सावित्री? गायत्री का नाम है। इनका जप और ध्यान। माँ का अथवा सविता देवता का ध्यान कर लीजिए। इस तरह यह प्रक्रिया एक नमन दो, जप तीन और पूजन चार हो गए।
बेटे, यह भी हो सकता है कि जहाँ आपकी पूजा की चौकी रखी है, उस पर एक कलश रख दीजिए। अगर घर में फूल हैं तो फूल चढ़ा दीजिए। फूल नहीं हैं तो रोली या चंदन घिसा हुआ उस कलश के ऊपर लगा दीजिए। अक्षत चढ़ा दीजिए। यह पूजन हो गया। जप, ध्यान, पूजन और नमन। चार प्रकार की पूजा की न्यूनतम प्रक्रिया दो मिनट से चार मिनट तक में हो सकती है। यह न्यूनतम है, लेकिन भावनाएँ फैलाने के लिए शिक्षण देने के लिए ये सिंबल भी काफी हैं, ताकि जब आपके बच्चे पूछें कि पिताजी, ये हम क्यों करते हैं? तो आप बताइए कि आपने नमन क्यों किया? आप उन्हें बताइए कि पूजन क्यों किया? शुरुआत तो कीजिए सवाल तो पैदा कीजिए जिससे कोई आदमी सवाल पूछे और आप जवाब दें। आप प्रत्येक व्यक्ति इसे अपने घर से शुरू कीजिए। घर में मंदिर बनवाइए।
यज्ञ पिता, गायत्री माता
हमारी भारतीय संस्कृति का पिता है यज्ञ और माँ गायत्री है। गायत्री माता की पूजा करने के लिए श्रवण कुमार के तरीके से अपने घर में स्थापना करनी चाहिए। महाराज जी! हमारे घर में तो बहुत सारे बच्चे हैं और एक दिन तो गायत्री को ही उठा ले गए। एक दिन धूपबत्ती जलाकर घंटरिया ही हिलाते फिरे। अच्छा तो एक बार उन्हें समझा दें। थोड़ी सी ऊँची जगह दीवार पर गायत्री माता का चित्र लगा दें, जहाँ बच्चे न पहुँच सकें। उसके नीचे एक लकडी की पट्टी लगा दें। पट्टी पर छोटा सा कलश रखा रहे और एक धूपबत्ती स्टैंड रखने की जगह हो। घर का हर आदमी जाए प्रणाम करे, वहीं रोली- चंदन कलश पर लगा करके आए। जो फूल चढ़ा सकता हो, वह फूल चढ़ा दे। न चढ़ा सकता हो तो हाथ जोड़े, नमन करे और चला आए। इससे भी काम चल जाएगा? हाँ बेटे, मंदिर ऐसे भी होते हैं। न्यूनतम भले ही हों, लेकिन व्यापक। ऐसे गायत्री माता के मंदिर बनाने का हमारा मन है।
मित्रो! आस्तिकता का विस्तार नए युग की आवश्यकता है। इसे आपको शुरू करना चाहिए। बात छोटी सी है, लेकिन बड़ी महत्त्वपूर्ण है। चिनगारी छोटी है, लेकिन बड़ी महत्त्वपूर्ण है। गांधी जी ने नमक बनाया था, छोटा काम था, लेकिन बड़ा महत्त्वपूर्ण था। गांधी जी ने चरखा चलाया था, बड़ा महत्त्वपूर्ण था। हम आस्तिकता का विस्तार करने के लिए जिस मंदिर में आपको उद्घाटन के लिए बुलाते हैं, वह छोटा है, नगण्य है। आपको जो काम सौंपते हैं, वे छोटे हैं, नगण्य हैं, लेकिन बड़े महत्त्वपूर्ण हैं; क्योंकि हम आस्तिकता का विस्तार जन- जन में करना चाहते हैं।
बेटे, यज्ञ की प्रक्रिया, जिसके बारे में बहस होती है कि हम यज्ञ नहीं कर सकते, पैसा हम नहीं लगा सकते, धन हमारे पास नहीं है तो हमारे घर में कैसे हो सकता है? हम चाहते हैं कि रोज गायत्री माता की पूजा आपके घर का प्रत्येक व्यक्ति करे। उससे घर में वातावरण पैदा हो, ताकि उस वातावरण की हवा पड़ोस के घर में जाए रिश्तेदारी में जाए। आपकी कन्याएँ जहाँ कहीं जाएँ वहाँ आस्तिकता का वातावरण पैदा करें । वातावरण अपने घर से पैदा करें। आप अपने घर से फैलाइए यज्ञ की परंपरा को। मैं चाहता हूँ कि हमारे घरों में से कोई भी घर ऐसा बाकी नहीं रहे, जहाँ कि ये स्थापनाएँ न हों और जहाँ यज्ञ न होता हो। रोज या महीने भर बाद? अरे महीने भर बाद, साल भर बाद नहीं रोज। महाराज जी! शाखा की ओर से करने को कह रहे हैं या अपने घर की ओर से कह रहे हैं। शाखा को रहने दे, मैं तो तेरी बात कह रहा हूँ। शाखा की बात नहीं कह रहा। मैं रोज यज्ञ करूँ? हाँ रोज नियमित रूप से कर। कैसे करूँ?
छोटा सा यज्ञीय प्रयोग
बेटे, यह काम तो महिलाएँ भी रोज कर सकती हैं। चूल्हे में से चिमटे से अग्नि निकाल ली और उस पर जरा सी बूंदें घृत की डाल दीं। मूँग की दाल के बराबर रोटी के छोटे- छोटे पाँच ग्रास तोड़े, जरा सा घी- शक्कर लगाया, एक गायत्री मंत्र बोला और एक ग्रास चढ़ा दिया। दूसरे मंत्र के साथ दूसरा ग्रास चढ़ा दिया, फिर तीसरा चढा दिया। इस प्रकार पाँच बार गायत्री मंत्र बोलें और पाँच ग्रास चढ़ा दिए। फिर एक मंत्र से पूर्णाहुति कर दी, दो बूँद घी और डाल दिया। दो बूँद पहले और दो बूँद घी आखिर में। बेटे, इतने से कुछ बनता- बिगड़ता नहीं है। हाँ महाराज जी! चार- पाँच बूँद घी में तो कुछ भी नहीं है। महीने भर में एक चम्मच होता है। एक अंजलि में जल लिया, चारों ओर घुमाया, हाथ जोड़ दिए। यह क्या है? यज्ञ की परंपरा। परंपरा को हम जिंदा रखना चाहते हैं। यज्ञ को हम इसके लिए नहीं छोड़ना चाहते कि शाखा चंदा इकट्ठा करे, रसीद छपाए मीटिंग हो, तब गाँव वाले, शाखा वाले आएँ और हवन हो। नहीं बेटे, हम तो वह काम बताना चाहते हैं, जो तू अकेले ही कर सकता है।
मित्रो! इस बार हमारा मन है कि आस्तिकता दिल्लगीबाजी की चीज नहीं रहे, शाखा की बात नहीं रहे, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति की निष्ठा का विषय बन जाए। मंदिर, जिसका हम उद्घाटन कराना चाहते हैं, हम नहीं चाहते कि यह मंदिर धनियों, पैसे वालों के हाथ में जाए जमींदारों के हाथ में जाए। हम चाहते हैं कि मंदिर की परंपरा, मंदिर की श्रृँखला प्रत्येक घर में पैदा हो जाए। उसकी परंपरा का मैंने स्वरूप बताया- गायत्री माता, यज्ञ पिता को। हम कैसे शुरुआत कर सकते हैं? महिलाएँ इस मामले में बहुत योगदान दे सकती हैं। गायत्री माता भी मातृशक्ति ही हैं। महिलाओं ने धर्म की रक्षा पहले भी की थी और अब तो हम नए जमाने में इन्हें बढ़ा ही रहे हैं। महिला जाग्रति हमारा मुख्य अभियान हो गया है, सो महिलाएँ ही इस कार्य को बढ़ा सकती हैं। गायत्री माता और यज्ञ की पूजा करने का काम हम महिलाओं को ही सौंप देते हैं। यहाँ हमारी गायत्री माता की स्थापना है, यहाँ की पूजा कन्याएँ करती हैं। हमारा ऊपर वाला मंदिर, जहाँ अखण्ड दीपक है, उसकी पूजा भी कन्याएँ करती हैं। वहाँ वाला जो मंदिर है, उसकी भी पूजा कन्याएँ करेंगी। कन्या और ब्राह्मण की तुलना मैं समान रूप से करता हूँ। आज के समय में, आज के जमाने में यदि सच्ची पूछे तो ब्राह्मण से ज्यादा मैं कन्याओं को महत्त्व देता हूँ। आज के जमाने में महिलाएँ क्या कर सकती हैं? महिलाएँ यज्ञ की परंपरा और गायत्री मंत्र का जप जारी रख सकती हैं। उनको समय भी नहीं मिलता तो भी यदि वे चाहें तो बच्चों को दूध पिलाते समय में जप करती रह सकती हैं। इससे दूध के साथ- साथ में बच्चों में श्रेष्ठ संस्कार बनेंगे। खाना पकाने के साथ- साथ में यदि महिलाएँ जप करती रहेंगी, तो उस घर का खाना खाने वाला आदमी जो भी होगा, उसमें सद्बुद्धि आएगी, श्रेष्ठ विचारणा आएगी। मैं चाहता हूँ कि यह आंदोलन अब फैलना चाहिए।
अपने घर में बनाइए एक मंदिर
हमारे अखण्ड ज्योति कार्यालय में पैंतीस साल से एक ही मंदिर है। एक कोठरी में दो चौकियाँ रखी हैं- एक बड़ी चौकी, एक छोटी चौकी, जिसके ऊपर तसवीर रखी है। हमारे अधिकांश जप- अनुष्ठान वहीं पूरे हुए हैं। अखण्ड दीपक भी वहीं जला। हमारा वह मंदिर अब भी है। आप भी ऐसे मंदिर बना सकते हैं शाखा में, घर में। एक चौकी के ऊपर गायत्री माता का बड़ा वाला चित्र स्थापित हो, उसके पास ही धृत दीप आरती वगैरह रखी हो। तो महाराज जी! एक पुजारी रखना पड़ेगा और प्रसाद बाँटने के लिए तो बहुत खरच करना पड़ता है। इस बारे में भी हमने कुछ सफाइयाँ कुछ नियम तय कर दिए हैं।
मित्रो! इस संबंध में एक नियम यह तय कर दिया है कि जिस तरह से थियोसोफी संस्था ने प्रसाद के नाम पर केवल जल का प्रसाद रखा है। ईसाई मिशन, जो करोड़ों रुपए की कीमत से चलते हैं, उनके यहाँ भी केवल जल का प्रसाद बाँटा जाता है। हमने भी अपने यहाँ प्रसाद के बारे में नई परंपरा स्थापित कर दी है। अब से हमारे मंदिरों में पंचामृत दिया जाएगा। इसमें पाँच चीजें रहा करेंगी। ये पाँच चीजें क्या हैं? जल- एक गंगाजल- दो, शक्कर- तीन, तुलसी का पत्ता- चार, चंदन- पाँच। यह पंचामृत हो गया। कितने पैसे का? छदाम का भी नहीं है, बाँट दे। अरे साहब! सौ आदमी आ जाएँगे तो मैं कहाँ से लाऊँगा प्रसाद? और पानी मिला दे, ये कभी खतम नहीं होने वाला। महाराज जी, थोड़ा- थोड़ा दूँगा तो लोग नाराज होंगे। तो बड़ा- बड़ा चम्मच भरकर दे, हम कब कह रहे हैं कि थोड़ा- थोड़ा प्रसाद दे।
बेटे, हमारी यह मान्यता है कि हम जन- जन को अपना बनाएँगे। हम गरीबों के हैं। यज्ञ की परंपरा को हम गरीबों तक पहुँचाने के लिए इसे श्रमदान और समयदान से चलाना चाहते हैं। इसे हम जन जन का बनाना चाहते हैं। पंडितों और अमीरों के हाथों से हम इसे छीनना चाहते हैं। हम नहीं चाहते कि यज्ञ पंडितों का नौकर होकर रहे (( हम नहीं चाहते कि यज्ञ रईसों और सेठों का नौकर होकर रहे। इसे जनसामान्य का बनाना चाहिए। इसके लिए धन की आवश्यकता न पड़े, केवल श्रम से हम मिल जुलकर अपना काम चला लें। इसीलिए हम प्रत्येक घर में मंदिर की परंपरा वसंत पंचमी से चलाना चाहते हैं और हम चलाकर रहेंगे।
प्रतीक हों घर- घर में
मित्रो! जैसे हमारे गुरु ने हमको आदेश दिया कि आध्यात्मिकता का विस्तार करने के लिए हम छोटे से प्रतीक स्थापित करें तो हमने गायत्री का मंदिर बनाया। हमारा बड़ा मन है कि आप भी एक प्रतीक स्थापित करें। प्रतीक मंदिर से क्या हो जाएगा? मंदिर से सब कुछ हो जाएगा- हवा फैलेगी, वातावरण बनेगा। हम हवा फैलाना चाहते हैं और वातावरण बनाना चाहते हैं; फिर आप देखना कि वातावरण का क्या प्रभाव होता है! गांधी जी ने नमक बनाया था। नमक से क्या हो जाएगा? बेटे, हम क्या बताएँ क्या हो जाएगा बना करके देख जरा, नमक से बगावत? पैदा होगी। नमक से? हाँ बेटे, नमक से। नमक से बगावत की बात न होती तो अँगरेज जरा भी ध्यान नहीं देते। नमक बनाएँगे। बना लीजिए हमारा क्या बिगड़ता है। वे मना नहीं कर सकते थे, पर उन्होंने देखा कि इसमें तो बगावत का माद्दा है। हमारे मंदिरों के पीछे समर्थगुरु रामदास की वृत्ति काम करती है, लोकमान्य तिलक की वृत्ति काम करती है। इसके पीछे हमारे बड़े- बड़े ख्वाब हैं और बड़े- बड़े सपने हैं। आप उँगली तो रखने दीजिए फिर हम कलाई पकड़ लेंगे। आप कलाई भी पकड़ लेंगे? हाँ बेटे, हम कलाई भी पकड़ लेंगे, उँगली रखने की जगह तो दें।
आप अपने घर में गायत्री माता को जगह दें, यज्ञ की परंपरा को स्थान दें, फिर देखना हमारा चमत्कार फिर आपके बच्चे पूछेंगे कि मम्मी क्या बात है, आप रोज आग काहे को जला देती हो? मम्मी को बताना पड़ेगा। उसके बहाने से आप उन्हें शिक्षण देंगे। हम भी बच्चों से कहेंगे कि बेटे, तुम अपनी मम्मी से पूछते हो या नहीं कि यह आग किसलिए जलाती हो? तुम्हारे पिताजी ने यह कहा था कि हाथ जोड़कर नमन किया करो और चंदन चढ़ाया करो। यह क्यों किया करते हैं, आपने पिताजी से पूछा कि नहीं? गुरुजी! हमने तो नहीं पूछा। उन्होंने कह दिया, सो हमने कर दिया। नहीं बेटे, सवाल पूछो कि यह क्या बात है? साहब, काहे को आप दो मिनट खराब कराते हैं। इसलिए कि बच्चे सवाल करेंगे और आप जवाब देंगे। इससे आप जिज्ञासाएँ पैदा करेंगे और हम आस्तिकता का वातावरण घर घर में पैदा करेंगे। इस प्रकार सवाल देने के लिए आप जो पद्धति बनाएँगे, उसके प्रचार की हम शुरुआत कर देंगे।
देवस्थापना करें
मित्रो! उद्घाटन के साथ- साथ में हम आपको प्रेरणा देते हैं कि शाखाओं में और घरों में, हर जगह यह देवस्थापना होनी चाहिए। तो महाराज जी, आपका बड़ा इन्ट्रेस्ट है? हाँ बेटे, हमारा बड़ा इन्ट्रेस्ट है। हमने तो बड़े- बड़े साइज के और छोटे- छोटे साइज के चित्र छपा करके रखे हैं। उनके मूल्य ऐसे रखे हैं कि आपको हँसी आएगी और मजाक लगेगा। इतने बड़े साइज कि जो आठ- आठ रुपए के चित्र बिकते हैं। हमने एक- एक रुपए सवा- सवा रुपए के बना दिए हैं और उनकी प्राण- प्रतिष्ठाएँ कर दी हैं। हमारी देवकन्याओं ने और हमने मिलकर सबके ऊपर स्वस्तिक बना दिए हैं। सबके ऊपर रोली, चंदन लगा दिए हैं, केशर लगा दी है, चित्र की प्राण- प्रतिष्ठा कर दी है। आप उन चित्रों को यहाँ से ले जाइए अपने घर में देवमंदिर बनाइए फिर साधना कीजिए।
वसंत पंचमी के दिन से हम उस आस्तिकता की शुरुआत करते हैं जिसको जन- जन तक पहुँचाने के लिए आज से पचपन वर्ष पहले हमारे गुरु ने हमको बताया था। उसी आध्यात्मिकता के बीज, जो हमारे भीतर बोए गए सारे जीवनभर लाखों आदमियों के भीतर विस्तार करते चले गए। आप भी छोटे में, संक्षेप में अपने घरों पर गायत्री माता की और यज्ञ भगवान की स्थापना करें, उसका विस्तार करें। सवाल- जवाब बताएँ शंका- समाधान करें एवं पूछताछ करें। जब आपका भतीजा कहे कि हम तो झगड़े में नहीं पड़ते, हम तो नमस्कार नहीं करते। आप कहिए अच्छा बेटे, शाम को आना, हम बताएँगे। आपको मार्गदर्शन का मौका तो मिलेगा। हमारा यह आंदोलन नंबर एक इसको आपको चलाना चाहिए।
ज्ञान की मशाल जलाएँ
नंबर दो, दूसरा वाला आंदोलन है- विचार क्रांति। विचार ही हैं जो आदमी को बनाते हैं और आदमी को बिगाड़ते भी हैं। विचार आदमी को घटिया बना देते हैं, चोर बना देते हैं और विचार ही आदमी को संत बना देते हैं, ऋषि बना देते हैं। विचार ही हैं आदमी के पीछे और है क्या? नहीं तो मांस और हड्डियाँ हैं। उसके भीतर जो प्राण- कर्म करता है, विचार कार्य करते हैं। विचारों का विस्तार हम नए युग के अनुरूप करने के इच्छुक हैं। इसीलिए हमारा मन है कि प्रत्येक व्यक्ति तक जन- जन तक अलख निरंजन जगाने के लिए महाकाल की आग, हमारे गुरु की आग, जो हमारे पास आती है, उस आग को फैला देना आपका काम है। लाल मशाल में जो निशान बनाया गया है, उसके पीछे जो बहुत सारे मनुष्यों की भीड़ दिखाई पड़ती है, उसका मतलब यह है कि वह हम सबकी, आप सबकी है और उसके पीछे जो लाल हाथ- लाल मशाल दिखाई पड़ती है, वह ज्ञान की मशाल है।
मित्रो! जो नया युग आएगा, वह किससे आएगा? ज्ञान से आएगा, विचारों से आएगा। बंदूक से नहीं आएगा नया युग। यह बंदूक से भी बडी, सबसे बड़ी तोप है, जिसको हम विचार कहते हैं। यह जो एक मशाल हाथ में ली हुई है, वह किसका हाथ है? हमारे भगवान का हाथ है, महाकाल का हाथ है। उसके पीछे छोटे- छोटे रीछ और वानर, हम और आप खड़े हुए हैं। ज्ञान का विस्तार हमको करना चाहिए। बादलों के तरीके से इसको फैलाना चाहिए। जन- जन के पास जाना चाहिए घर- घर में हमारा प्रवेश होना चाहिए। ये कैसे हो सकता है? इसके लिए छोटा सा तरीका हमने बताया है और वह ज्ञानरथ है। झोला पुस्तकालय पहले वाला था। आप जाइए संपर्क बढ़ाइए और जो भी आपको मिलते हैं, उनको पुस्तक पढ़ाइए। बिना पढ़ो को सुनाइए। हमारा ज्ञानरथ इस जमाने का जगन्नाथ जी का रथ है। हमारे वृन्दावन में रंग जी का रथ निकलता है। भगवान के पास तो सब लोग नहीं जा पाते, लेकिन भगवान को अर्थात ज्ञान को, ऋतम्भरा प्रज्ञा को, गायत्री माता को, युगचेतना को घर- घर में आपको ले करके जाना चाहिए।
दीजिए समय का एक हिस्सा
मित्रो! आपको अपने समय का एक हिस्सा निकालना चाहिए। यदि आप भगवान को अपने जीवन में हिस्सेदार- साझीदार बना सकते हों तो भगवान के लिए कुछ समय निकालिए। नहीं साहब! भगवान के लिए समय तो लगाएँगे, लेकिन चापलूसी में लगाएँगे। नहीं बेटे, चापलूसी के बजाय उनका काम करने में लगा। गुरुजी! हम तो आपको हाथ जोड़कर पैर छूकर प्रणाम करेंगे, आपका नाम जपेंगे और आपकी आरती उतारेंगे। नहीं बेटे, जितनी देर में तू हमारी आरती उतारेगा और पैर छुएगा, पैर दबाएगा, उतनी देर में तू हमारी सड़क को साफ कर दिया कर और देख नालियों में गंदगी हो जाती है, उसको साफ कर दिया कर। नहीं महाराज जी! नाली में तो मैं और कूड़ा डालूँगा, पर आपकी आरती उतारूँगा। बेटे, हमारी आरती मत उतार। हम अपनी आरती अपने आप उतार लेंगे, तेरी आरती की हमें कोई जरूरत नहीं है। तू तो नाली साफ कर दिया कर।
मित्रो! आज समाज की सबसे बड़ी सेवा, देश की सबसे बड़ी सेवा, धर्म और संस्कृति की सबसे बड़ी सेवा, मानवता की और महाकाल की सबसे बड़ी सेवा यह है कि हम जनमानस में युगचेतना का विस्तार करने का प्रयत्न करें। उसमें खाद- पानी पहुँचाएँ। प्राचीनकाल में तीर्थयात्रा का यही उद्देश्य था। बादलों के तरीके से ऋषि और ब्राह्मण घर- घर जाकर अलख निरंजन की जाग्रति जगाया करते थे। आप लोगों को भी वही करना चाहिए। आपको जन- जन के पास जाना चाहिए। झोला पुस्तकालय के रूप में, ज्ञानरथों के रूप में। हमारे सुल्तानपुर के लखपतराय वकील की बात मैं भूलता नहीं। वे पाँच बजे कचहरी से घर आते और आधा घंटे में फ्रेश हो करके, चाय नाश्ता करके निश्चित हो जाते। फिर चल पुस्तकालय लेकर सारे बाजार में, अपने मुवक्किलों के पास, सेठों के पास, स्कूलों में जाते और तीन घंटे तक पुस्तकालय चलाते।
महाकाल की सच्ची सेवा
लोग कहते- अरे वकील साहब! यह क्या धंधा खोल लिया है? अरे यार, यह भगवान का धंधा है तू भी खोल, फिर देख। जरा यह पुस्तक पढ़ तो सही, तब पता चलेगा, क्या? इस जमाने में सारे के सारे सुल्तानपुर को उन्होंने जाग्रत कर दिया। उन्होंने कोई कोना नहीं छोड़ा,कोई स्कूल नहीं छोड़ा, कोई घर नहीं छोड़ा। परिणाम यह हुआ कि जिस सुल्तानपुर में मैं पहले दो बार गया, जब पाँच कुंडीय यज्ञ हुए थे, तब मुश्किल से एक सौ आदमी आते थे। जब बाबू लखपत राय ने सारे के सारे सुल्तानपुर में मिशन की बात फैला दी, तब मुझसे कहा- गुरुजी! आप तो हिमालय जाने वाले हैं? हाँ बेटे, जाने वाला हूँ। तो एक बार सुल्तानपुर और चलिए। दो बार तो हो आया। सौ आदमी तो आते नहीं हैं, मैं क्या करूँगा सुल्तानपुर में? उनने कहा कौन से जमाने की बात कह रहे हैं आप। कुछ वर्ष पहले में और अब में जमीन- आसमान का फर्क पड़ गया है, आप चलिए तो सही। अच्छा चलूँगा। सुलानपुर के गाँव -गाँव, घर- घर में उन्होंने पुस्तकें पढ़ाई और पूछा कि आचार्य जी की किताबें आप पढ़ते हैं, आपको पसंद आती हैं? हाँ साहब, पसंद आती हैं और आँखों में आँसू आ जाते हैं, ऐसा गजब का साहित्य है। यह तो किसी देवता का लिखा हुआ है। लखपत बाबू ने कहा- जिन्होंने ये किताबें लिखी हैं, वे हमारे गुरुजी हैं, उनको बुला दें तो? हाँ साहब, बुला दीजिए। तो आप अपनी दुकानें बंद रखेंगे और आचार्य जी के साथ में रहेंगे? हाँ साहब, रहेंगे। उनके खाने- पीने का, किराये- भाड़े का जो खरचा पड़ेगा, सो आप देंगे? हाँ जिस लायक हमारी हैसियत है, दे देंगे। हर एक से उन्होंने वायदे करा लिए और सौ कुंडीय यज्ञ रखा। मैं गया तो एक लाख जनता थी। उन दिनों एक लाख आबादी सुलानपुर की नहीं होगी शायद। आस- पास के सारे देहातों के लोग आए। बैलगाड़ियाँ ही बैलगाड़ियों। मैंने कहा- भई, गायत्री तपोभूमि को मैं खाली छोड़कर आ रहा हूँ कुछ पैसे- वैसे का थोड़ा- बहुत इंतजाम हो जाए तो कर देना। बोले- गुरुजी! हम करेंगे। यज्ञ समाप्त होने के बाद उनके पास इक्यावन हजार रुपया बचा था, जो उन्होंने गायत्री तपोभूमि में जमा कर दिया। यह किसकी करामात थी? झोला पुस्तकालय की, चल पुस्तकालय की और वकील साहब की। नहीं साहब! नौकर रखेंगे, कोई मिलता ही नहीं और वह फलाना पुस्तकें ले गया, वापस ही नहीं कीं। पहले चलाया था तो चला ही नहीं। बहाने बनाता है दुनिया भर के। गुरुजी! वह चल पुस्तकालय तो ठंढा हो गया, उसमें गरमी आई ही नहीं। गरमी आई नहीं तो दीयासलाई लगा दे उसमें।
करें गुरु से- ईश्वर से साझेदारी
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? मैं चाहता हूँ कि आप में से प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर की साझेदारी शुरू करे। जैसे मैंने अपने गुरु की साझेदारी अपनी जिंदगी में की है। गुरु का असीम धन मुझे मिला है और बेटे, मेरे जीवन का प्रत्येक अंश मेरे गुरु को मिला है। हम दोनों की साझेदारी ईमानदारों की साझेदारी है। चोर और चालाकों की साझेदारी नहीं है। चोर- चालाकों की साझेदारी कैसी होती है? ऐसी होती है बेटे कि दो थे मित्र, बोले हम और आप कुछ कर लें। कुछ आप हमारे लिए करना, कुछ हम आपके लिए करेंगे। हाँ साहब! बताइए क्या करें? यह करें कि हमारे शरीर में कई छेद हैं, हम आपके एक छेद में उँगली कर देंगे और एक छेद में आप हमारे उँगली कर दीजिए। अच्छा भाईसाहब! जैसे आप कहेंगे, सो करेंगे। तो आप ऐसा कीजिए कि आप हमारे मुँह में उँगली कर दीजिए और हम आपकी आँख में उँगली कर देंगे। एक ने उसकी आँख ही फोड़ दी और दूसरे ने उँगली काट खाई। क्या यही साझेदारी है?
बेटे, यह साझेदारी नहीं है। तो गुरुजी आप और हम रिश्तेदार हो जाएँ। हाँ फिर क्या करें? आप अपने तीन साल का तप हमको दे दीजिए। तो फिर क्या करेगा बेटे, तप का? तीन साल के तप में तो हमारे यहाँ संतान नहीं होती है, वह हो जाएगी। अच्छा, दो वर्ष का तप और दे दीजिए। यह हमारा भाई है, इसका लड़का तीन साल से फेल हो रहा है, वह पास हो जाएगा और दो वर्ष का तप और दे दीजिए काहे के लिए? हमारा मकान बनाने को पड़ा है, सो उससे बन जाएगा। सात साल का तप दे दीजिए। अच्छा, फिर तू क्या देगा? महाराज जी मैं क्या दूँगा? नहीं बेटे, तप यों नहीं देंगे। हम तो ईमानदारों की साझेदारी करेंगे, बेईमानों की नहीं। भगवान से तू माँग, भगवान को दे, बैंक से ले और बैंक को दे, यह ईमानदारी की साझेदारी है।
असली भजन यह है
बेटे, अपने समय का एक हिस्सा आपको भजन में लगाना चाहिए लेकिन भजन से भी ज्यादा समाज के क्रिया- कलापों में खरच करना चाहिए। मैं भजन करता हूँ चार घंटे रोज, लेकिन मैं अपने गुरु का काम करता हूँ चौदह घंटे रोज। मैं शाम को सात- आठ बजे सो जाता हूँ और साढे बारह बजे उठ करके बैठ जाता हूँ। साढ़े बारह बजे से लेकर एक बजे तक नहा- धोकर नित्यकर्म से निश्चित हो जाता हूँ। मेरी बत्तियाँ सब जल जाती हैं ठीक एक बजे। एक से पाँच बजे तक चार घंटे में अपना भजन पूरा कर लेता हूँ। फिर उसके बाद पाँच बजे से अपने गुरु का काम शुरू कर देता हूँ और दस घंटे काम करता हूँ। सवेरे जब आप लोग यह काम करते हैं, उस वक्त तक मैं अखण्ड ज्योति का एक लेख लिखकर तैयार कर देता हूँ। बाकी दिन में भी करता हूँ। आजकल तो शिविर में भी लगा रहता हूँ। यह भी अपने गुरु का काम करता हूँ आपका नहीं। भगवान का काम शाम सात बजे तक करता रहता हूँ। क्या मजाल है। मैं गुनहगार हूँ एक रोटी और एक कटोरी साग खाने का, गुनहगार हूँ ये कपड़े पहन लेने का। बाकी न मेरी कोई इच्छा है, न कोई कामना। चौबीसों घंटे अपने गुरु के लिए काम करता हूँ।
मित्रो! मेरे गुरु के पास जो कुछ भी संपदा है, मेरी है। उन्होंने कह रखा है कि जब भी तुझे जरूरत पड़े, तब मुझसे माँग लेना। जब मुझे जरूरत पड़ती है, बस, चैक ही काटता रहता हूँ। कितने चैक काटते रहते हो? बेटे तीन- चार वर्ष पहले यह दस लाख रुपए का चैक काटा, कैश होकर आ गया। देख यह बना हुआ खड़ा है। अभी यह ब्रह्मवर्चस बन रहा है। इसमें कितना खरच हुआ है? लगभग दस लाख इसमें भी लगा है और यह गायत्री नगर, जो अभी बनने वाला है, इसमें गुरुजी, कितना पड़ेगा? बेटे, इसमें तो बहुत ज्यादा लगेगा। दस लाख से काम चल जाएगा? नहीं; दस लाख से काम नहीं चलेगा, क्योंकि इसमें सौ क्वार्टर बनने वाले हैं। कितने भी कार्यकर्ता यहाँ रहेंगे, उनके बच्चों को हाईस्कूल तक पढा़ने के लिए स्कूल बनने वाला है। एक खेलने का ग्राउंड बनने वाला है, एक पार्क बनने वाला है। एक लाइब्रेरी बनने वाली है। एक उद्योग हॉल बनने वाला है, जिसमें हमारे कार्यकर्ताओं की महिलाएँ गृह उद्योग सीखा करेंगी।
महाराज जी! यह तो बड़ी लंबी- चौड़ी स्कीम है। हाँ बेटे, बड़ी लंबी- चौड़ी स्कीम है। तो इतना कहाँ से आता है? यह हमारी बैंक से आता है। कौन सी बैंक? जिस बैंक से हमारा ईमानदारी का एग्रीमेंट है। उसने हमारी शाख बढ़ा दी है। अब आपकी पचास हजार की शाख है और बाकी ग्रेड? अब एक लाख की ग्रेड है। ग्रेड भी बढ़ती हुई चली जाती है क्यों? हमारी बैंक हमको ईमानदार समझती है कि इसको जो पैसा दिया गया है, वह चुका देगा। और आप चुकाना नहीं चाहते, माँगना चाहते हैं। नहीं बेटे, यह तो गलत बात है, ऐसा मत करना। हमारी शाख पर शाख बढ़ती जा रही है। आपको भी अपनी शाख बढ़ानी चाहिए।
विचार- क्रांति की आग फैला दीजिए
मित्रो! लंका में हनुमान जी ने अपनी पूँछ में लगी आग से प्रत्येक घर में आग लगा दी थी। आप हमारे दिल में जलती हुई आग, जो हमारे गुरु की आग है, लाल मशाल की आग है। जो हमारे रोम- रोम में, हमारी नस- नस में जलती है, इसे समाज में फैला दीजिए। जब होली जलती है तो लोग- बाग उसमें से थोड़ी सी आग ले जाते हैं और अपने- अपने घरों पर जाकर होली जलाते हैं। आपके यहाँ रिवाज है या नहीं, मुझे नहीं मालूम, पर हमारे यहाँ यू ०पी० में यह रिवाज है। होली में से आग लाकर अपने घर पर गोबर की बनी बलगुरिया- मालाओं की होली जलाते हैं, फिर उसमें चावल, आलू पकाते हैं, नारियल पकाते हैं। हमारे यहाँ यह रिवाज है। मित्रो! आप भी यहाँ से हमारी जलती हुई होली में से आग ले जाइए और अपने घरों पर जलाइए। ज्ञान मंदिरों के चल पुस्तकालय के रूप में, विचार- क्रांति के रूप में, ज्ञानयज्ञ के रूप में और जन- जन के भीतर वह प्रकाश पैदा कीजिए जिसको हम आध्यात्मिकता का प्रकाश कहते हैं, युगचेतना का प्रकाश कहते हैं और भगवान का प्रकाश कहते हैं। यही अपेक्षा हम आप लोगों से करेंगे।
मित्रो! हमने आपको उद्घाटन कराने, जय बुलवाने के लिए परिक्रमा कराने, आहुतियाँ देने और प्रसाद बाँटने के लिए नहीं बुलाया है। हम आपसे कुछ चाहते हैं। क्यों चाहते हैं आप? इसलिए चाहते हैं कि हम आपको कुछ देना चाहते हैं, अगर आप दे नहीं पाएँगे, तो हम भी नहीं दे सकेंगे। नहीं गुरुजी। आप तो दे दीजिए। नहीं बेटे, हम दे नहीं सकेंगे। अगर नाक में से पुराना श्वास नहीं निकालेगा तो हम नया श्वास नहीं दे सकते। नहीं साहब! नया श्वास दे दीजिए पुराने को तो मैं नहीं निकाल सकता। पुराने को निकाल, तब नया मिलेगा। पेट में गंदगी भरी पड़ी है, पहले उसे निकाल, फिर खाना देंगे। नहीं महाराज जी! पेट की गंदगी को तो साफ नहीं करेंगे, खाना दे दीजिए। उलटी हो जाएगी तुझे, हम खाना नहीं दे सकते। बेटे, हमारा गुरु कुछ देना चाहता था और देने से पहले उसने कहा, निकाल तेरे पास जो कुछ भी है। जो कुछ भी था, हम निकालते हुए चले गए। जितना हमने अपने आप को खाली कर लिया, उससे ज्यादा वह हमको भरता हुआ चला गया। इस शिविर में बुलाकर हम आपको भर देना चाहते हैं। भर देने से पहले यह प्रार्थना करते हैं कि अगर आपके लिए खाली हो सकना संभव हो सके तो आप खाली हो जाइए।
विश्वास पर टिकी है साझेदारी
मित्रो! ये थोड़े से क्रिया- कलाप हैं, जो आज आपको बताए गए हैं। इन कार्यों में थोड़ा- थोड़ा सा समय लगाना है, सो आप लगा सकते हैं। ज्यादा समय लगाना होगा तो हम आपको बुलाएँगे, दावत देते हैं। मित्रो, हमने अपने भगवान पर विश्वास किया और यह कहा कि हम आपके सुपुर्द होते हैं। आप हमको और हमसे जुड़े सबको सँभालना। उन्होंने कहा- हम आपसे जुड़े हर एक को सँभाल देंगे। हमारी बीबी और बच्चों को सँभाल दिया। हमारी बीबी को उन्होंने ऋषि और संत बना दिया, जैसे हमें बनाया था। हमारे बच्चों को भी उन्होंने इस लायक बना दिया कि वे सुखी रह सकें और हमारी ही तरह समाज की सेवा कर सकें। हमारे घर में हम जो स्वयं कर सकते थे, उसकी अपेक्षा हमारे गुरु ने हमारे घर का, हमारे शरीर का, हमारे परिवार का उत्तरदायित्व सँभाला है। हमने भी उन पर विश्वास किया है। आप तो विश्वास ही नहीं करते।
मित्रो! विश्वास करने की बात से मुझे एक कहानी याद आ जाती है। अमेरिका में टामस नाम का एक व्यक्ति था। उसने विश्वास की महत्ता सबको बताई कि आप भगवान पर विश्वास कीजिए। नहीं साहब, हम तो भगवान पर विश्वास नहीं कर सकते। अरे भाई, भगवान के विश्वास में बड़ा चमत्कार है। उसने नियाग्रा फाल के ऊपर एक पेड़ के ऊपर इधर से और एक पेड़ के ऊपर उधर से एक रस्सी बाँध दी। नियाग्रा फाल एक बहुत बड़ा फाल है। रस्सी बाँधकर उसने लाखों लोगों को बुलाया और कहा कि देखिए विश्वास का चमत्कार। विश्वास का चमत्कार दिखाने के लिए टामस आज से लगभग ढाई सौ वर्ष पहले उस रस्सी के ऊपर ऊपर से धीरे- धीरे चलने लगा। उसने कहा, देखिए मैं भगवान पर विश्वास करके इस रस्सी पर होकर के उस पार जाता हूँ और चार सौ फर्लांग चौड़े फासले को वह पार कर गया। लोगों ने तालियाँ बजाई और कहा कि आपका विश्वास तो बड़ा पक्का है। उसने कहा कि अगर मेरा विश्वास पक्का है तो आप सब मानते हैं कि भगवान है। हाँ साहब! मानते हैं; क्योंकि आप बाजीगर भी नहीं हैं, नट भी नहीं हैं, कलाकार भी नहीं हैं। मित्रो! इसे कहते हैं विश्वास। हमने भगवान पर विश्वास किया है और उसकी फलश्रुति आपके सामने है। आप भी विश्वास कीजिए और हमारी तरह धन्य हो जाइए।
आज की बात समाप्त।
।। ऊँ शांति: ।।