Books - काम तत्व का ज्ञान विज्ञान
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Language: HINDI
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काम तत्त्व की विकृति एवं परिष्कृति
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सृष्टा एक कुशल कलाकार और असाधारण शिल्पी है। उसने अपनी कलाकृतियों में युग्म पद्धति का बड़ा ही सुन्दर समन्वय किया है। शरीर संरचना में दो हाथ, दो पैर, दो आंख, दो कान, दो नितम्ब आदि अवयवों को सुन्दरता और पूरक बनाने की दृष्टि से सृजा है। यों काम तो एक से भी चल जाता पर काया इतनी सर्वांग सुन्दर न बन पाती। इसी दृष्टि से नर और नारी को सृजा गया है। वे अपनी-अपनी विशेषताओं से भरे-पूरे हैं। इतना ही नहीं, वे परस्पर एक दूसरे के लिए अनेक दृष्टियों से पूरक हैं। इसमें एक तो सर्व विदित प्रजनन परम्परा और वंशवृद्धि की नैसर्गिक आवश्यकता है ही, पर बात उतने से ही समाप्त नहीं होती। आध्यात्मिक, मानसिक, सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक, शारीरिक क्षेत्रों की अनेकानेक ज्ञात और अविज्ञात आवश्यकतायें ऐसी हैं, जिन्हें मिल-जुलकर पूरा करते हैं। न केवल एक दूसरे को समग्र बनाते हैं वरन् सृष्टि क्रम के सुसंचालन और सौन्दर्य परिकर में भी महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।
अकेला नर अपूर्ण है। अकेली नारी भी। फूल-पत्तियों का युग्म फबता है। नर और नारी का समुदाय भी मिलजुल कर समग्रता उत्पन्न करता है। यही कारण है कि प्रायः सभी देवता और सभी ऋषि युग्म बनकर रहे हैं। आवश्यक नहीं कि इसके साथ वासना जुड़ी ही रहे और सन्तानोत्पादन अनिवार्य रूप से चले। एक-दूसरे को जो भावनात्मक उल्लास एवं उत्साह प्रदान करते हैं, वे अपने आप में इतने समग्र हैं कि सृष्टा की इच्छा और मनुष्य की आवश्यकता दोनों की ही पूर्ति हो जाती है।
परिवार को धरती का स्वर्ग कहा जाता रहा है। दैवी पुष्पोद्यान। उसमें पूर्णता लड़की और लड़के दोनों ही मिलकर उत्पन्न करते हैं। व्यवस्था और बहुलता के साथ-साथ भावना क्षेत्र की उत्कृष्टतायें इस समन्वय से ही उत्पन्न होती हैं।
अनगढ़ मनुष्य एक भोंड़ा पशु है। वह लिंग प्रति पक्ष को पत्नी रूप में ही देखता है और जब अवसर मिलता है, बिना किसी मान मर्यादा का विचार किए यौनाचार के लिए सचेष्ट होता है। इसमें उसे भय, लज्जा, अनौचित्य जैसा कोई अन्तर प्रतीत नहीं होता। माता, भगिनी, पुत्री के साथ पत्नीव्रत व्यवहार करने में उसे किसी नीति या मर्यादा का व्यतिरेक हुआ प्रतीत नहीं होता। किन्तु मनुष्य की मर्यादा इससे सर्वथा भिन्न है। उसके साथ धर्म, कर्तव्य, आदर्श के जो अनेकों अनुबन्ध लगे हुए हैं, वे नर और नारी के बीच उत्कृष्टता के अनेकानेक अनुबन्ध स्थापित करते हैं और उन स्थापनाओं का निर्वाह तथा परिपोषण ऐसे परिवार के बीच रहकर ही सम्भव होता है जिसमें नर और नारी मिलजुल कर रहते हैं। घर में जितने सदस्य रहते हैं, उनमें से नर वर्ग को बाबा, ताऊ, चाचा, भाई, भतीजा आदि के शिष्टाचारों से व्यवहृत किया जाता है। इसी प्रकार महिलाएं दादी, ताई, चाची, बुआ, बहिन, भाभी, भतीजी, बेटी आदि के रिश्तों में संजोया जाता है। हर रिश्ते की अपनी सुषमा, शोभा, भाव सम्वेदना, मिठास अलग-अलग ही हैं। सब मिलकर एक गुलदस्ता बनता है। भोजन में अनेक प्रकार के व्यंजन जिस प्रकार बनते हैं उसी प्रकार परिवार के नर नारी सदस्यों के माध्यम से आध्यात्मिकता, आदर्शवादिता, और मर्यादा के अनेकों महत्वपूर्ण क्षेत्र विकसित होते हैं इसलिए गृहस्थ बना कर रहने की परम्परा है जिसे सामान्य जन ही नहीं, उच्चस्तरीय विभूतियां भी निर्वाह करती हैं।
आत्म मार्ग के पथिकों के लिए तो विवाह करने पर एक प्रकार के तप का अवसर अनायास ही मिलता है। युवावस्था में प्रकृति यौनाचार की उत्तेजना देती है। इसे हठपूर्वक रोकने से हठयोग सधता है और दोनों परिवार देव बुद्धि विकसित करके श्रद्धा सम्वर्धन के निमित्त उसे मोड़ दें तो भावयोग की साधना ठीक वैसी ही सध जाती है जैसी कि प्रतिमा पूजन के माध्यम से देवाराधना की योग की अनेकानेक शाखा-प्रशाखाओं में अति महत्वपूर्ण गृहस्थ योग भी है। परिवार तो समूह साधना—सृष्टि में सुसंस्कारी श्रेष्ठतम नागरिकों के निर्माण का कारखाना-विद्यालय जैसा चलाना है ही। इसके अतिरिक्त दाम्पत्य जीवन में प्रणय परिचर्या को श्रद्धा, भक्ति, आत्मीयता, समर्पण, स्नेह जैसे उत्कृष्ट आधारों की ओर मोड़ देना, एक ऐसा प्रयास है जिसमें ईश्वर भक्ति की प्रक्रिया की पूर्ति होती है। पत्नी के लिए पति को परमेश्वर माना गया है और पति के लिए पत्नी को जगदम्बा सदृश मानने के लिए शास्त्र वचन है। नारी तत्व को ‘‘नमस्तस्यै-नमस्तस्यै-नमस्तस्यै—नमो नमः’’ की मान्यता दी गई है। सीता, पार्वती, सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा आदि के रूप सौन्दर्य आदि को देवी चित्रों में देखकर श्रद्धा सम्वेदना ही बढ़ाई जाती है। किसी कुटिल कलुषता को मन में नहीं आने दिया जाता। ठीक उसी प्रकार अपनी धर्मपत्नी के रूप में भी उसी तत्व की अभ्यर्थना की जानी चाहिए। यही बात पत्नी के सम्बन्ध में पति के निमित्त भी हैं। वे उनमें राम, कृष्ण, शिव, गणेश आदि की झलक, झांकी करती हुई प्रभुभूत होती रह सकती हैं। भावनाओं का परिष्कार ही अध्यात्म है। अध्यात्म साधना के अनेकानेक उपाय उपचार हैं। उनमें एक धर्म पत्नी की मान्यता है। धर्म शब्द इसीलिए जोड़ा गया है कि यदि वह मात्र पत्नी होती तो नर मादा के मध्यवर्ती चलने वाले लोकाचार में कोई सोचने विचारने की आवश्यकता न पड़ती।
विवाहित जीवन में लोकाचार की दृष्टि से काम-कौतुक का कोई प्रतिबन्ध नहीं है पर अध्यात्म जीवन में तो श्रद्धा का परिष्कार ही करना है। गोबर को गणेश बनाना है। खम्भे में से नृसिंह प्रकट करना है। पत्थर को मीरा की तरह गोपाल स्तर तक ले जाना है और रामकृष्ण परमहंस की तरह दक्षिणेश्वर प्रतिमा में से साक्षात काली का रूप प्रकट करना है। दोनों पक्षों को ही एकलव्य द्रोणाचार्य की कथा को चरितार्थ कर दिखाना है। तुलसी का पौधा और शालिग्राम का पत्थर जब भगवान बन सकते हैं तो कोई कारण नहीं कि पति-पत्नी एक दूसरे को जीवन्त देवसत्ता मानकर उसके सहारे प्राकृतिक कुत्साओं का संशोधन न कर सकें। आयुर्वेद में विषों शोधन, जारण, मारण करके अमृत बनाया जाता है तो बदले में सेवा, सद्भावना, स्नेह, सौजन्य का परिचय देने वाले साथी में दिव्यता का आरोपण करते हुए अपना आत्मिक स्तर जमीन से आसमान तक ऊंचा उठाना पति व पत्नी दोनों का कर्त्तव्य है। इसमें दृष्टिकोण को परिवर्तन करने का, आत्म शोधन, तप दोनों को करना पड़ता है।
सभी देवताओं के विवाह हुए हैं पर सन्तान किसी को भी नहीं हुई। अपवाद मात्र शिव का है जिन्होंने देवताओं की विपत्ति निवारण करने के लिए दो पुत्र पैदा किए और जिनका भरण-पोषण कृतिकाओं ने किया। ऋषियों में भी ऐसे अपवाद हो सकते हैं। पर वे आपत्तिकालीन आवश्यकता की पूर्ति के लिए देव प्रयोजनों के लिए ही हुए होंगे। अन्यथा गृहस्थ होते हुए भी उनने निजी सन्तानोत्पादन का झंझट नहीं उठाया। याज्ञवल्क्य की दो पत्नियां थीं, पर सन्तान एक को भी नहीं थी। इसी प्रकार अरुन्धती, अनुसूया आदि ऋषिकाओं के इतिहास हैं। जब सारा संसार सारा गुरुकुल ही अपनी सन्तान है तो निजी प्रजनन का झंझट उठाकर निर्धारित सेवा कार्य में विघ्न विक्षेप क्यों उत्पन्न किया जाय?
बिना पत्नी का—बिना परिवार का ब्रह्मचर्य सरल है क्योंकि उसमें अभावजन्य विवशता है। पर जहां प्रतिबन्ध न होने हुए स्वेच्छा प्रतिबन्ध लगता है वहां वह प्रक्रिया तप बन जाती है। घर में भोजन न हो और भूखा रहना पड़े तो वह विवशता का उपवास है, पर जहां घर में व्यंजनों की कमी न होते हुए भी आहार का परित्याग किया जाता है, उपवास उसी को कहा जायगा।
कुण्डलिनी योग साधना को आध्यात्मिक काम विज्ञान कहा गया है। उसमें नर के लिये नारी और नारी के लिए नर शक्ति केन्द्र एवं शक्ति स्रोत बनते हैं। पत्नी भाव का मातृभाव में बदलते ही यौनाचार अवयव प्राण संचार उद्गम बन जाते हैं। माता की जननेन्द्रिय से अपनी काया उपजती है और धरती के समान पवित्र है। स्तन दूध पिलाते हैं। वे कामधेनु वत हैं। माता का चुम्बन आलिंगन कितना पुनीत कितना उल्लास भरा होता है। उसमें अश्लीलता जैसी अनुभूति कहीं नहीं होती। देवियों के चित्रों प्रतिमाओं में भी सभी नारी अंग होते हैं, पर कोई उपासक उन्हें देखकर अश्लील कल्पना नहीं करता। यही बात नारी आराधिका के सम्बन्ध में नर आकृति के इष्टदेव में है। वास्तविक ब्रह्मचर्य यही है। अविवाहित तो रहा जाय पर कुकल्पनाएं मस्तिष्क पर छाई रहें तो वह प्रकारान्तर से व्यभिचार ही हुआ और पत्नी साथ रखकर राम सीता की तरह-वनवास बिताया जाय तो उसमें प्रणय चर्या की गन्ध भी नहीं सूंघी जाती।
कुण्डलिनी साधना का प्रथम चरण यही है। उसमें दृष्टिकोण को ब्रह्मचारी समान बनाना पड़ता है। रामकृष्ण परमहंस जब आध्यात्मिक साधना की परिपक्वावस्था में थे, तब उनने माता शारदामणि से विवाह किया है। पाण्डुचेरी के अरविन्द घोष जब मौन एकान्त साधना में संलग्न हुए तब उन्हें अकेली माताजी को उनकी आध्यात्मिक सहचरी को उनसे भेंट करते रहने की सहमति मिली। गांधीजी ने 32 वर्ष की आयु में कस्तूरबा को मां कहना आरम्भ किया और आजीवन दोनों के बीच वही मां पुत्र का रिश्ता स्थिर रहा। कुण्डलिनी साधक विवाहित है या अविवाहित इसका झंझट नहीं। अनुबन्ध इस बात का है कि समीपवर्ती अथवा स्मृति में आने वाले प्रतिपक्ष के प्रति देव भाव उत्पन्न हुआ या नहीं। दोनों के सम्बन्ध में वासना का विष घुल रहा है या नहीं। यह विष सामान्य गृहस्थों के जीवन में भी जितना अधिक होगा उनका लौकिक जीवन भी उसी अनुपात में विषाक्त होता चला जायगा। विवाह का तात्पर्य यौनाचार की अमर्यादा नहीं। इस खाई खड्ड में धंस पड़ने पर दोनों पक्ष अपना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य गंवा बैठते हैं। पारिवारिक झंझटों से इतना अधिक दब जाते हैं कि उस बोझ को उठाते उठाते कमर टूट जाती है।
तथाकथित समय और सम्पन्न देशों में इन दिनों विलासिता का उन्माद भूत पिशाच की तरह चढ़ा है। विलासिता में सजधज के समान ही यौनाचार की दुष्प्रवृत्ति बढ़ी है। इसका विषाक्त प्रतिफल सर्वप्रथम नारी को और उससे कुछ ही कम नर को भुगतना पड़ रहा है। नर अपनी जीवनी शक्ति का भण्डार चुकाता जा रहा है। बौद्धिक कुशाग्रता बेतरह घट रही है। उठती आयु में उत्तेजक आहार के कारण शरीर का ढकोसला तो बिगड़ने नहीं पाता। पर भीतर ही भीतर स्थिति घुने हुए गेहूं जैसी हो जाती है। मनुष्य की औसत आयु विगत पचास वर्षों में बढ़ी है। पर बुढ़ापा दस वर्ष पहले आने लगा है। क्रिया शक्ति बेतरह क्षीण हो रही है। मांस के चलते-फिरते लोथड़े की तरह जीना पड़ रहा है। मस्तिष्कीय क्षमता में बेतरह गिरावट आई है। फलस्वरूप सनकी और अर्ध विक्षिप्त की तरह इस स्थिति में रहना पड़ता है। जिसमें न किसी के साथ रहा जा सके न कोई अपने साथ रह सकें। सनकों की दुनिया में तैरने वाला आदमी असंतुष्ट और चिन्तित रहता है। भयभीत या उत्तेजित भी। स्त्रियों की स्थिति और भी अधिक दयनीय है। कामुक पुरुष समुदाय उन्हें छात्रावस्था से ही निचोड़ना शुरू करता है। इसके लिए प्रलोभनों की हाट लगी रहती है। कुशिक्षण के लिए अश्लील साहित्य, ब्ल्यू फिल्में, तथा इसी प्रशिक्षण में पारंगत बनाने वाले दलाल, गली मुहल्लों में खुले फिरते रहते हैं। भेड़ियों की कहीं कमी नहीं। अन्तर सभ्यों और असभ्यों का है, कहीं रुलाकर—कहीं हंसाकर —तरीके अपने-अपने हैं, पर नारी आखिर नारी है। वह वासना की कामधेनु नहीं है कि उसे निरन्तर दुहते रहने पर भी अक्षय बनी रहे। परिणाम सामने है। तथाकथित सभ्य देशों की नारियों में से अस्सी प्रतिशत यौन रोगों से ग्रसित पाई गई हैं। वासना की पूर्ति और जन्म निरोध की दुहरी मार उन्हीं पर पड़ती है। फलतः वे रंग बिरंगी गुड़िया दीखने के अतिरिक्त और कुछ रह नहीं जातीं। इस खोखली स्थिति को वे किसी प्रकार टॉनिकों, नशों और नींद की गोलियों के सहारे घसीटती हैं। आयु बढ़ने के साथ वे हर दृष्टि से खोखली होती जाती हैं। मर्दों से भी अधिक दयनीय स्थिति उनकी होती है।
यह सभ्य और सम्पन्न देशों के नर-नारियों की दुर्दशा है जिससे पीड़ित होकर वे भीतर रोते और बाहर हंसते रहते हैं। भारत जैसे पिछड़े और अशिक्षित देशों की स्थिति और भी गई बीती है। बूढ़े, अन्धेपन, खांसी, विक्षिप्त अशक्त स्थिति में दिन काटते हैं। बाल-विवाह की लानत लड़कियों को सीधे बुढ़ापे में धकेल देती है। उन्हें पता भी नहीं चलता कि यौवन कब आया और कब चला गया। जो दिन इसके होते हैं उनमें से प्रजनन के भार से इस बुरी तरह लदी रहती हैं कि चैन की सांस लेने के दिन ही खाली नहीं मिलते। पच्चीस की आयु होते-होते चार-पांच बच्चों की मां बन जाती हैं। मातृत्व पारिवारिक श्रम, आये दिन के अपमान, बन्दी जीवन साथ में कुछ न कुछ रोग भी समेट लाता है। श्वेत प्रदर, कमर का दर्द, सिर का दर्द, पैरों की फड़कन, अपच, अनिद्रा, थकान आदि अनेकों जंजाल सिर पर लादे हुए वे जिन्दगी की लाश ढोती रहती हैं। वे अपने लिए, परिवार के लिए, बच्चों के लिए, पति के लिए भार बनकर जीती हैं। इसका कारण एक ही है वासना का अत्यधिक और अनगढ़ दबाव।
इसका प्रमाण प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। विधवायें, परित्यक्ताएं, कुमारियां जिनकी गोदी में बच्चे नहीं हैं। अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ और सुखी रहती हैं। यों ऐसे जीवन में उन्हें अनिश्चितता और अर्थाभाव की स्थिति में रहना पड़ता है तो भी वे सुहागिनों की तुलना में शारीरिक और मानसिक दृष्टि से कहीं अधिक निश्चिन्त और संतुष्ट रहती हैं। जिन तक इस दुर्व्यसन की हवा जितनी कम पहुंची है वे नर-नारी उतने ही अधिक सुखी हैं। आदिवासी, वनवासी, किसान, श्रमजीवी जिनको निर्वाह की विभिन्न समस्याओं को सुलझाना भर होता है जिन पर वासना का प्रकोप जितना कम हुआ है, वे निर्धन और अशिक्षित होते हुए भी कम से कम स्वास्थ्य को गंवा बैठने के अभिशाप से तो बचे ही रहते हैं।
इन पंक्तियों में एक झांकी उस स्थिति की कराई गई है जो आज की उद्धत पीढ़ी की वासना विलासिता की बलि वेदी पर चढ़कर सहन करनी पड़ती है। उनके लिए आध्यात्मिक प्रगति का, समाज सेवा का, उत्कृष्ट चिन्तन का, व्यक्तित्व के परिष्कार का तो सुयोग मिलता ही कहां है?
आध्यात्मिक काम-विज्ञान की दिशाधारा और विलासी कुकर्मियों की कुचेष्टा में जहां जमीन आसमान जैसा अन्तर है वहां उसका कर्मफल भी निश्चित है। ब्रह्मचर्य को तप और योगाभ्यास कहा गया है इसका कारण प्रत्यक्ष है। उसे अपनाने पर नर और नारी के बीच जो सहज उमंग होती है और निकट आने पर उल्लास का निर्झर बन कर फूटती है, उसे कभी भी, कहीं भी, कोई भी प्रत्यक्ष देख सकता है।
नारी शक्ति है। नर तेजस्। दोनों एक दूसरे को उत्साह और बल प्रदान करते हैं पर यह होता तभी है जब दोनों के बीच, कुत्सा का प्रवेश न होने पावे। काम का अर्थ क्रीड़ा है। क्रीड़ा-अर्थात् विनोद, हास्य, पर वह होना चाहिए सात्विक। बालकों जैसा निश्छल। ऐसी मनःस्थिति बनाये रहकर, छोटी, बड़ी, समान आयु के नर नारी निकटता रखें। आत्मीयता भरें, सान्निध्य को बनायें, बढ़ायें तो उससे सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियों से दोनों ही पक्षों का लाभ होता है।
वे गलती पर हैं जो नर नारी की समीपता में पाप दृष्टि का ही अनुमान लगाते हैं और एक-दूसरे को सर्वथा दूर रखने की बात सोचते हैं। पर्दे का प्रतिबन्ध लगाते हैं और जब किसी प्रकार के वार्तालाप या सहयोग का अवसर हो तभी जासूसी चौकीदारी करने के लिए मध्यवर्ती की नियुक्ति पुलिस मैन की तरह करना आवश्यक समझते हैं। ऐसे लोगों का मन ही कलुषित समझना चाहिए, जो मनुष्य-मनुष्य के बीच रहने वाली श्रद्धा-सद्भावना पर विश्वास नहीं करते। सर्वत्र पाप ही पाप खोजते हैं। नर और नारी भी दो मनुष्य ही हैं। उनकी बारूद माचिस जैसी बनावट नहीं है जो निकट आते ही विस्फोट या अनर्थ उपस्थित करे।
मानवी मनोविज्ञान को सही अर्थों में समझा जाना चाहिए एवं नर-नारी सम्बन्धी प्रतिपादनों पर खुले मन से विचार कर पूर्वार्न्त-दर्शन की परिधि में बने रहते हुए यह निर्धारण किया जाना चाहिए कि यौन स्वातंत्र्य कहां तक उचित है?
‘सेक्स’ शब्द जिन अर्थों में प्रयुक्त होता है वह काम का स्थूल धरातल है। काम की परिष्कृत धारा प्रेम है। शौर्य, साहस, पराक्रम, जीवट, उत्साह और उमंग उसकी ही विभिन्न भौतिक विशेषतायें हैं। उत्कृष्ट विचारणायें उदात्त भाव सम्वेदनायें काम की आध्यात्मिक विशेषतायें हैं। सेक्स के इन्द्रिय धरातल से उठकर प्रेम और भाव-सम्वेदनाओं के विस्तृत क्षेत्र में पहुंचना ही काम का परम लक्ष्य है। इन्द्रिय सीमा में लिप्त काम अतृप्ति और अशान्ति को ही जन्म देता है। पवित्र प्रेम में परिवर्तित होकर सन्तोष और दिव्य आनन्द का कारण बनता है।
शरीर, मन, और बुद्धि तीनों में ही काम शक्ति क्रियाशील है। संयम और ऊर्ध्वगमन की साधना द्वारा ‘काम’ का रूपान्तरण होता है। रूपान्तरण का अर्थ है सम्पूर्ण व्यक्तित्व में उल्लास का समावेश हो जाना।
काम की इच्छा एक आध्यात्मिक भूख है जिसे निरोध अथवा दमन द्वारा मिटाया नहीं जा सकता। ऐसा करने पर वह और भी उग्र होती है। बहते हुए पानी के प्रवाह को रोकने से वह धक्का मारने की नयी सामर्थ्य उत्पन्न करता है। बन्दूक की उड़ती हुई गोली को रोकने पर गहरा आघात पहुंचता है। कामशक्ति को बलपूर्वक रोकने से अनेकों प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक उपद्रव खड़े होते हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञान के प्रणेता फ्रायड से लेकर आधुनिक मनोविज्ञानियों तक सभी ने इस तथ्य का समर्थन, प्रतिपादन अपने-अपने ढंग से किया है तथा सृजनात्मक प्रयोजनों में उसे नियोजित करने का परामर्श दिया है। दमन की अपेक्षा आकांक्षा एवं अभिरुचि का प्रवाह मोड़ने में विशेष कठिनाई नहीं उत्पन्न होती। ब्रह्मचर्य का वैज्ञानिक स्वरूप यही है कि कामबीज का उन्नयन किया जाय, ज्ञान बीज में परिवर्तित किया जाय।
उल्लास और उत्साह मनःक्षेत्र की अति शक्तिशाली क्षमतायें हैं। उन्हें मृत संजीवनी सुरा कह सकते हैं। सूखे, मुरझाये, टूटे, हारे, निराश व्यक्ति में नव जीवन का संचार करने की इनमें क्षमता है। इसलिए जीवन की जिन चार महती आवश्यकताओं की गणना की जाती है, उनमें इसी को प्राथमिकता दी गई है। जीवन के परम लाभ चार हैं—धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। इनमें काम प्रथम है। काम का सीधा सादा-सा अर्थ है—प्रसन्नता, प्रफुल्लता, उमंग और आशा की झलक-छलक। यह जिन माध्यमों से सम्भव हो सके उन्हें काम कहा जा सकता है। काम अर्थात् क्रीड़ा विनोद। कला की समूची व्याख्या इतने में ही सीमित की जा सकती है।
कई बार दो परस्पर विरोधी तथ्य भी एक जैसे दीख पड़ते हैं। कई बार असली का भ्रम नकली उत्पन्न कर देता है। कई बार छद्म पाखण्ड धर्म जैसा प्रतीत होता है। ऐसा ही एक दुर्दैव काम के साथ भी जुड़ गया है। काम वासना—कामुकता, वासना, अश्लीलता, यौनाचार जैसे प्रसंग जब ‘‘काम’’ शब्द के साथ जुड़ते हैं तो अर्थ का अनर्थ उत्पन्न करते हैं।
कामाचार विशुद्ध रूप से एक प्रजा उत्पादन प्रक्रिया है। इसकी ओर मन ले जाने वाले विचारशील को हजारों बातें सामने रखनी होती हैं। क्या नर मादा दोनों की शारीरिक, मानसिक स्थिति ऐसी है जिसके संकेत से ऐसे नये प्राणी की उत्पत्ति हो सके जो अपने लिए ही नहीं समूचे समाज के लिए वरदान बन सके। जिनके शरीर दुर्बल रुग्ण हैं, जो मन से खिन्न-विपन्न रहते हैं, उनके वे दोष निश्चित रूप से सामने आवेंगे। फिर यह भी देखना है कि जिस वातावरण में उसका भरण पोषण होगा उसमें स्नेह, सहयोग, दुलार एवं सुसंस्कार भरे हैं या नहीं। नवजात शिशु को खेलने-कूदने के लिए जगह है या नहीं। कहीं सारे दिन एकाकी उदास तो नहीं बैठा रहेगा। उसे घृणा, तिरस्कार, अवज्ञा, उपेक्षा का मानसिक त्रास तो नहीं सहना पड़ेगा। बच्चे को सही पोषण बड़े आदमी से सस्ता नहीं महंगा ही पड़ता है। फिर उसे विनोद खेलकूद भी चाहिए। साथी भी, खिलौने भी जो उसके खाली समय में साथ रह सकें। इसके अतिरिक्त आजकल उपयुक्त शिक्षा के लिए स्थान तलाश करना और उसका खर्च वहन करना भी एक आवश्यकता है। जो इतना प्रबन्ध कर सके, वे ही सन्तानोत्पादन की बात सोचें। अन्यथा पिता, माता, परिवार और समूचे समाज को उस मूर्खता का अभिशाप जैसा दण्ड भुगतना पड़ेगा। अनगढ़, सन्तान को जन्म देना प्रत्यक्ष पाप है जिसका दण्ड हाथों हाथ उस प्रसंग से सम्बन्धित हर व्यक्ति को सहन करना पड़ता है।
सृष्टि में कुछ ऐसे प्राणी भी हैं जो घासपात की तरह दूसरों की भूख बुझाने के लिए उत्पन्न होते हैं। कीड़े-मकोड़े इसी श्रेणी में आते हैं। उनके ढेरों अण्डे-बच्चे होते हैं। उनमें से अधिकांश प्रकृति के प्रकोप के शिकार हो जाते हैं। कुछ ही उनसे बचे प्राणी खा पीकर निपटा देते हैं। इस पर भी जो बचे रहते हैं, उनके लिए प्रकृति ठिकाने, लगाने वाले बहाने ढूंढ़ निकालती है। कुछ भूखे मर जाते हैं। कुछ पैरों तले कुचल जाते हैं। कुछ को बीमारियां खा जाती हैं, कुछ आवेशग्रस्त होकर आत्म-हत्या के लिए दौड़ पड़ते हैं। इन उद्भिजों और कीट-पतंगों में अपनी गणना कराना हो और उत्पादन को ऐसी दयनीय दुर्दशा में धकेलना हो तो यौनाचार की छूट है। कोई कुछ भी कर सकता है और अपने कृत्यों का फल भुगतता रह सकता है। किन्तु जिन तक मानवोचित कर्त्तव्य उत्तरदायित्वों की कोई किरण पहुंची हो, उन्हें इस गम्भीर कार्य में हाथ डालने से पूर्व हजार बार सोचना चाहिए। कृत्य के उपरान्त उत्पन्न होने वाली समस्याओं पर विचार करना चाहिए और विवेक स्वीकृति प्रदान करे तो ही कदम बढ़ाना चाहिए।
जिन पशु-पक्षियों की समझदार प्राणियों में गणना होती है, उनकी मादायें अपनी प्रजनन क्षमता के अनुरूप उत्तेजना प्रकट करती हैं। इसी आधार पर नर उनसे संभोग साधते हैं। इसके बिना कोई मादा से छेड़खानी नहीं करता। गाय, भैंस, बकरी, घोड़ा, गधी सभी पशु नर मादाओं के रूप में रहते और चरते हैं। नर कभी किसी मादा को अपनी ओर से नहीं छेड़ता। मादा की प्रजनन क्षमता जब उभरती है तब उसी संकेत पर यौनाचार बनता है। मनुष्य को इतना विवेक तो होना ही चाहिए कि इस सम्बन्ध में विशुद्ध रूप से नारी की स्थिति को समझ अपनी ओर से कोई प्रलोभन या दबाव न डाले। इस आधार पर पांच या कम से कम तीन वर्ष बाद ही इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता पड़ेगी। विवाह का अर्थ यौनाचार की उच्छृंखल छूट मिलना नहीं है वरन् एक परिवार को मिल-जुलकर समुन्नत बनाना, दो जीवनों को पारस्परिक सहयोग हर्षोल्लास से भर देना है।
जो इस विवेक प्रेरणा की अवज्ञा करते हैं और अमर्यादित काम सेवन करते हैं, उन पुरुषों को एक प्रकार से नर भक्षी ही कहा जा सकता है। इससे साथी को धीमी आत्महत्या करने के लिए विवश किया जाता है। नारी जननेन्द्रियों की संरचना इतनी कोमल है कि वे प्रजनन कृत्य आवश्यक हो जाने पर एक दो बार का नर सम्पर्क सहन कर सके। अमर्यादा बरतने पर वे कोमल अंग कई तरह के रोगों के शिकार हो जाते हैं। उनसे पीछा छुड़ाना कठिन होता है। प्रजनन अपने आप में एक बहुत बड़ा आपरेशन है। उसमें ढेरों रक्त जाता है। बच्चे के शरीर जितना मांस जननी की देह में से ही भरता है। इसके बाद भी दूध पिलाने के रूप में उस क्षति का सिलसिला चलता ही रहता है। हजार प्रसवों पीछे 16 प्रसूताओं की जान तो बच्चा जनते समय ही चली जाती है। सब मिला कर अन्त तक अनेकों दबाव जननी को सहने पड़ते हैं। इनके लिए बाधित करना किसी भी प्रकार मित्र धर्म नहीं है। नर भक्षी भेड़िये मनुष्यों या दूसरे जानवरों को खाते हैं। अपनी मण्डली के सदस्यों की चमड़ी नहीं उधेड़ते। पर एक मनुष्य है जो पत्नी पर प्रेम प्रकट करते हुए वस्तुतः उसका जीवन रस ही चूस लेता है। उसे रुग्णता, दुर्बलता का त्रास सहते हुए समय से बहुत पहले मर जाने के लिए बाधित करता है। अपनी स्वार्थ सिद्धि भी इतनी कि क्षण भर की लोलुप उत्तेजना का समाधान हो।
जिस वर्ग के नरों में कामुक लोलुपता की मात्रा अधिक पाई जाती है, वे साथी का अनर्थ करते हुए अपने लिए भी कम संकट खड़ा नहीं करते। शास्त्रकार ने ठीक ही कहा है—‘‘मरणं विन्दुपातेन, जीवनं विन्दु धारणात्’’ अर्थात् वीर्य नाश से मरण और उसके संरक्षण में जीवन है। इसके उदाहरण में हनुमान, भीष्म, शंकराचार्य—दयानन्द आदि अनेकों के नाम गिनाये जा सकते हैं जो शारीरिक और आत्मिक दृष्टि से अपनी बलिष्ठता सिद्ध कर सके। असुरों के उदाहरण इस सम्बन्ध में स्मरण किये जा सकते हैं जिन्होंने कई-कई विवाह किये व बुरी मृत्यु को प्राप्त हुए।
कई थलचरों और जलचरों की बढ़ी हुई कामुकता किस प्रकार उनके लिए प्राण घातक बनती है, उसके उदाहरण प्रत्यक्ष हैं। आश्विन के महीने में कुत्ते आपस में किस प्रकार लड़ते-भिड़ते, घायल होते और सड़ते हैं। यह कौतुक हर साल देखा जा सकता है। हिरनों की भी यही दुर्गति होती है। उनके श्रतुकाल में यही मल्लयुद्ध ठनते हैं। परस्पर सींगों से घायल होकर कितने ही भारी कष्ट सहते हैं। मकड़ी तो खुद ही अपने नर को हाथोंहाथ मजा चखा देती है। मकड़े को प्रसंग के उपरान्त थका हुआ पाती है तो स्वयं ही उसको कतर व्यौंत कर डालती है बिच्छू को भी काम प्रसंग के उपरान्त ऐसा ही त्रास सहन करना पड़ता है। कोई-कोई ही उस संकट से अपनी जान बचा पाता है।
मछलियों में अधिकांश नर सज्जन प्रकृति के होते हैं। मादा की पूरी-पूरी सहायता करते हैं और प्रजनन काल में उन्हें अधिक से अधिक सुविधा पहुंचाने का प्रयत्न करते हैं। पर कुछ ऐसे दुष्ट भी होते हैं, जिन्हें हरम इकट्ठा किए बिना चैन नहीं। फ्राग फिश अपने घेरे में प्रायः एक दर्जन युवा मछलियां समेटे रहता है और उनके साथ क्रीड़ा कल्लोल का मजा लूटता है। साथ ही यह भी होता रहता है कि उसके प्रतिद्वन्दी उसके हरम पर धावा बोल कर कुछ को झपट ले जाय। दूसरी ओर उस मण्डलाधीश को भी चैन नहीं। वह जितनी हैं उनसे संतुष्ट न रहकर नई नवेलियां तलाश करता है और किसी दूसरे के हरम पर छापा मारता है। इस कारण उनमें मल्लयुद्ध ठन जाता है। हर साल उनमें से इसी महाभारत में खेत आते हैं। मछलियां भी नरों से शिक्षा प्राप्त करती हैं और किसी एक के चंगुल में बहुत दिन न रह कर जल्दी-जल्दी ससुराल बदलती और पुनर्विवाह रचती रहती हैं। इस कारण असन्तुष्ट मछलियां भी आपस में लड़ बैठती हैं। इस वर्ग के नर मादा चैन से नहीं बैठते। विशेषतया ऋतुकाल में तो उनमें खून खच्चर मचता ही रहता है। जबकि दूसरी सन्तोषी प्रकृति के जल जीव लम्बे समय तक पतिव्रत निवाहते हैं और सहयोग और आनन्द भरा जीवन जीते हैं।
गरुड़ मादा यह खोजती रहती है कि उससे बलिष्ठ साथी है या नहीं। इस प्रयोजन के लिए ताक-झांक करने वाले से सर्व प्रथम मल्ल-युद्ध की चुनौती देती है। युद्ध में दोनों पक्ष लहू-लुहान हो जाते हैं। नर यदि भाग खड़ा हुआ तो उसे क्षमा कर दिया जाता है। अन्त तक डटा रहा तो अपने पौरुष के आधार पर स्वयंवर का लाभ उठाता है। अध्यात्म विज्ञान के तन्त्र पक्ष में कुण्डलिनी योग की साधना का सुविकसित प्रकरण है। उसमें मूलाधार चक्र और सहस्रार चक्र को शक्ति केन्द्र माना गया है और दोनों को प्रखर प्रचण्ड बनाकर परस्पर सहयोग की स्थिति तक पहुंचा देना परम सिद्धि का आधार माना गया है। मूलाधार चक्र जननेन्द्रिय मूल में है और सहस्रार मस्तिष्क के मध्य ब्रह्मरन्ध्र में। यही दोनों केन्द्र उत्तर ध्रुव और दक्षिण ध्रुव हैं। वे हेय प्रयोजन में अपनी शक्ति गंवाते रहते हैं। इसलिए अपनी ऊर्जा एक-दूसरे तक नहीं पहुंचा पाते। बिजली के दोनों तारों में शक्ति हो और मिलें तो महाकाली जैसा प्रचण्ड प्रवाह उत्पन्न होता है। इसी आधार पर कुण्डलिनी जागृत होकर अनेकानेक चमत्कारी सिद्धियों का परिचय देती है। सहस्रार चक्र को ध्यान योग और मूलाधार चक्र को ब्रह्मचर्य द्वारा जागृत एवं प्रखर बनाया जाता है। यह साधना क्रम सुविस्तृत है, पर उसका सार संक्षेप इतने में ही समझना चाहिए कि आध्यात्मिक काम विज्ञान के सिद्धान्तों का समग्र परिपालन किया जाय। नर नारी साथ-साथ रहें, स्नेह और सहयोग भी करें पर उसमें कामुकता के विष का प्रवेश न होने दें। बांध में नदी का पानी रोक देने पर पानी का इतना एकत्रीकरण हो जाता है कि उसमें से अनेकों नहर निकल सकें और सुविस्तृत भूमि खण्डों को हरा-भरा फूला-फला बनाया जा सके। पानी न रोका जाय तो वह बहता और घटता रहेगा और अन्त में गहरे समुद्र में गिर कर ऐसा खारा पानी बन जायेगा जो पीने के भी काम न आ सके।
नर और मादा का साथ-साथ समीप रहना, प्रकृतिगत स्वाभाविक स्थिति बनाये रहता है। यदि दोनों एक-दूसरे से बचें, भागें, डरें, अथवा आक्रामक नीति अपनायें तो उसमें सृष्टा की उस कलाकारिता का अपमान है जो गंगा, जमुना की तरह मिलकर नयी सरस्वती उत्पन्न करती हैं और सबके लिए सब प्रकार श्रेयष्कर परिणाम ही उत्पन्न करती हैं। खतरा तो रस में विष मिला देने से उत्पन्न होता।
अकेला नर अपूर्ण है। अकेली नारी भी। फूल-पत्तियों का युग्म फबता है। नर और नारी का समुदाय भी मिलजुल कर समग्रता उत्पन्न करता है। यही कारण है कि प्रायः सभी देवता और सभी ऋषि युग्म बनकर रहे हैं। आवश्यक नहीं कि इसके साथ वासना जुड़ी ही रहे और सन्तानोत्पादन अनिवार्य रूप से चले। एक-दूसरे को जो भावनात्मक उल्लास एवं उत्साह प्रदान करते हैं, वे अपने आप में इतने समग्र हैं कि सृष्टा की इच्छा और मनुष्य की आवश्यकता दोनों की ही पूर्ति हो जाती है।
परिवार को धरती का स्वर्ग कहा जाता रहा है। दैवी पुष्पोद्यान। उसमें पूर्णता लड़की और लड़के दोनों ही मिलकर उत्पन्न करते हैं। व्यवस्था और बहुलता के साथ-साथ भावना क्षेत्र की उत्कृष्टतायें इस समन्वय से ही उत्पन्न होती हैं।
अनगढ़ मनुष्य एक भोंड़ा पशु है। वह लिंग प्रति पक्ष को पत्नी रूप में ही देखता है और जब अवसर मिलता है, बिना किसी मान मर्यादा का विचार किए यौनाचार के लिए सचेष्ट होता है। इसमें उसे भय, लज्जा, अनौचित्य जैसा कोई अन्तर प्रतीत नहीं होता। माता, भगिनी, पुत्री के साथ पत्नीव्रत व्यवहार करने में उसे किसी नीति या मर्यादा का व्यतिरेक हुआ प्रतीत नहीं होता। किन्तु मनुष्य की मर्यादा इससे सर्वथा भिन्न है। उसके साथ धर्म, कर्तव्य, आदर्श के जो अनेकों अनुबन्ध लगे हुए हैं, वे नर और नारी के बीच उत्कृष्टता के अनेकानेक अनुबन्ध स्थापित करते हैं और उन स्थापनाओं का निर्वाह तथा परिपोषण ऐसे परिवार के बीच रहकर ही सम्भव होता है जिसमें नर और नारी मिलजुल कर रहते हैं। घर में जितने सदस्य रहते हैं, उनमें से नर वर्ग को बाबा, ताऊ, चाचा, भाई, भतीजा आदि के शिष्टाचारों से व्यवहृत किया जाता है। इसी प्रकार महिलाएं दादी, ताई, चाची, बुआ, बहिन, भाभी, भतीजी, बेटी आदि के रिश्तों में संजोया जाता है। हर रिश्ते की अपनी सुषमा, शोभा, भाव सम्वेदना, मिठास अलग-अलग ही हैं। सब मिलकर एक गुलदस्ता बनता है। भोजन में अनेक प्रकार के व्यंजन जिस प्रकार बनते हैं उसी प्रकार परिवार के नर नारी सदस्यों के माध्यम से आध्यात्मिकता, आदर्शवादिता, और मर्यादा के अनेकों महत्वपूर्ण क्षेत्र विकसित होते हैं इसलिए गृहस्थ बना कर रहने की परम्परा है जिसे सामान्य जन ही नहीं, उच्चस्तरीय विभूतियां भी निर्वाह करती हैं।
आत्म मार्ग के पथिकों के लिए तो विवाह करने पर एक प्रकार के तप का अवसर अनायास ही मिलता है। युवावस्था में प्रकृति यौनाचार की उत्तेजना देती है। इसे हठपूर्वक रोकने से हठयोग सधता है और दोनों परिवार देव बुद्धि विकसित करके श्रद्धा सम्वर्धन के निमित्त उसे मोड़ दें तो भावयोग की साधना ठीक वैसी ही सध जाती है जैसी कि प्रतिमा पूजन के माध्यम से देवाराधना की योग की अनेकानेक शाखा-प्रशाखाओं में अति महत्वपूर्ण गृहस्थ योग भी है। परिवार तो समूह साधना—सृष्टि में सुसंस्कारी श्रेष्ठतम नागरिकों के निर्माण का कारखाना-विद्यालय जैसा चलाना है ही। इसके अतिरिक्त दाम्पत्य जीवन में प्रणय परिचर्या को श्रद्धा, भक्ति, आत्मीयता, समर्पण, स्नेह जैसे उत्कृष्ट आधारों की ओर मोड़ देना, एक ऐसा प्रयास है जिसमें ईश्वर भक्ति की प्रक्रिया की पूर्ति होती है। पत्नी के लिए पति को परमेश्वर माना गया है और पति के लिए पत्नी को जगदम्बा सदृश मानने के लिए शास्त्र वचन है। नारी तत्व को ‘‘नमस्तस्यै-नमस्तस्यै-नमस्तस्यै—नमो नमः’’ की मान्यता दी गई है। सीता, पार्वती, सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा आदि के रूप सौन्दर्य आदि को देवी चित्रों में देखकर श्रद्धा सम्वेदना ही बढ़ाई जाती है। किसी कुटिल कलुषता को मन में नहीं आने दिया जाता। ठीक उसी प्रकार अपनी धर्मपत्नी के रूप में भी उसी तत्व की अभ्यर्थना की जानी चाहिए। यही बात पत्नी के सम्बन्ध में पति के निमित्त भी हैं। वे उनमें राम, कृष्ण, शिव, गणेश आदि की झलक, झांकी करती हुई प्रभुभूत होती रह सकती हैं। भावनाओं का परिष्कार ही अध्यात्म है। अध्यात्म साधना के अनेकानेक उपाय उपचार हैं। उनमें एक धर्म पत्नी की मान्यता है। धर्म शब्द इसीलिए जोड़ा गया है कि यदि वह मात्र पत्नी होती तो नर मादा के मध्यवर्ती चलने वाले लोकाचार में कोई सोचने विचारने की आवश्यकता न पड़ती।
विवाहित जीवन में लोकाचार की दृष्टि से काम-कौतुक का कोई प्रतिबन्ध नहीं है पर अध्यात्म जीवन में तो श्रद्धा का परिष्कार ही करना है। गोबर को गणेश बनाना है। खम्भे में से नृसिंह प्रकट करना है। पत्थर को मीरा की तरह गोपाल स्तर तक ले जाना है और रामकृष्ण परमहंस की तरह दक्षिणेश्वर प्रतिमा में से साक्षात काली का रूप प्रकट करना है। दोनों पक्षों को ही एकलव्य द्रोणाचार्य की कथा को चरितार्थ कर दिखाना है। तुलसी का पौधा और शालिग्राम का पत्थर जब भगवान बन सकते हैं तो कोई कारण नहीं कि पति-पत्नी एक दूसरे को जीवन्त देवसत्ता मानकर उसके सहारे प्राकृतिक कुत्साओं का संशोधन न कर सकें। आयुर्वेद में विषों शोधन, जारण, मारण करके अमृत बनाया जाता है तो बदले में सेवा, सद्भावना, स्नेह, सौजन्य का परिचय देने वाले साथी में दिव्यता का आरोपण करते हुए अपना आत्मिक स्तर जमीन से आसमान तक ऊंचा उठाना पति व पत्नी दोनों का कर्त्तव्य है। इसमें दृष्टिकोण को परिवर्तन करने का, आत्म शोधन, तप दोनों को करना पड़ता है।
सभी देवताओं के विवाह हुए हैं पर सन्तान किसी को भी नहीं हुई। अपवाद मात्र शिव का है जिन्होंने देवताओं की विपत्ति निवारण करने के लिए दो पुत्र पैदा किए और जिनका भरण-पोषण कृतिकाओं ने किया। ऋषियों में भी ऐसे अपवाद हो सकते हैं। पर वे आपत्तिकालीन आवश्यकता की पूर्ति के लिए देव प्रयोजनों के लिए ही हुए होंगे। अन्यथा गृहस्थ होते हुए भी उनने निजी सन्तानोत्पादन का झंझट नहीं उठाया। याज्ञवल्क्य की दो पत्नियां थीं, पर सन्तान एक को भी नहीं थी। इसी प्रकार अरुन्धती, अनुसूया आदि ऋषिकाओं के इतिहास हैं। जब सारा संसार सारा गुरुकुल ही अपनी सन्तान है तो निजी प्रजनन का झंझट उठाकर निर्धारित सेवा कार्य में विघ्न विक्षेप क्यों उत्पन्न किया जाय?
बिना पत्नी का—बिना परिवार का ब्रह्मचर्य सरल है क्योंकि उसमें अभावजन्य विवशता है। पर जहां प्रतिबन्ध न होने हुए स्वेच्छा प्रतिबन्ध लगता है वहां वह प्रक्रिया तप बन जाती है। घर में भोजन न हो और भूखा रहना पड़े तो वह विवशता का उपवास है, पर जहां घर में व्यंजनों की कमी न होते हुए भी आहार का परित्याग किया जाता है, उपवास उसी को कहा जायगा।
कुण्डलिनी योग साधना को आध्यात्मिक काम विज्ञान कहा गया है। उसमें नर के लिये नारी और नारी के लिए नर शक्ति केन्द्र एवं शक्ति स्रोत बनते हैं। पत्नी भाव का मातृभाव में बदलते ही यौनाचार अवयव प्राण संचार उद्गम बन जाते हैं। माता की जननेन्द्रिय से अपनी काया उपजती है और धरती के समान पवित्र है। स्तन दूध पिलाते हैं। वे कामधेनु वत हैं। माता का चुम्बन आलिंगन कितना पुनीत कितना उल्लास भरा होता है। उसमें अश्लीलता जैसी अनुभूति कहीं नहीं होती। देवियों के चित्रों प्रतिमाओं में भी सभी नारी अंग होते हैं, पर कोई उपासक उन्हें देखकर अश्लील कल्पना नहीं करता। यही बात नारी आराधिका के सम्बन्ध में नर आकृति के इष्टदेव में है। वास्तविक ब्रह्मचर्य यही है। अविवाहित तो रहा जाय पर कुकल्पनाएं मस्तिष्क पर छाई रहें तो वह प्रकारान्तर से व्यभिचार ही हुआ और पत्नी साथ रखकर राम सीता की तरह-वनवास बिताया जाय तो उसमें प्रणय चर्या की गन्ध भी नहीं सूंघी जाती।
कुण्डलिनी साधना का प्रथम चरण यही है। उसमें दृष्टिकोण को ब्रह्मचारी समान बनाना पड़ता है। रामकृष्ण परमहंस जब आध्यात्मिक साधना की परिपक्वावस्था में थे, तब उनने माता शारदामणि से विवाह किया है। पाण्डुचेरी के अरविन्द घोष जब मौन एकान्त साधना में संलग्न हुए तब उन्हें अकेली माताजी को उनकी आध्यात्मिक सहचरी को उनसे भेंट करते रहने की सहमति मिली। गांधीजी ने 32 वर्ष की आयु में कस्तूरबा को मां कहना आरम्भ किया और आजीवन दोनों के बीच वही मां पुत्र का रिश्ता स्थिर रहा। कुण्डलिनी साधक विवाहित है या अविवाहित इसका झंझट नहीं। अनुबन्ध इस बात का है कि समीपवर्ती अथवा स्मृति में आने वाले प्रतिपक्ष के प्रति देव भाव उत्पन्न हुआ या नहीं। दोनों के सम्बन्ध में वासना का विष घुल रहा है या नहीं। यह विष सामान्य गृहस्थों के जीवन में भी जितना अधिक होगा उनका लौकिक जीवन भी उसी अनुपात में विषाक्त होता चला जायगा। विवाह का तात्पर्य यौनाचार की अमर्यादा नहीं। इस खाई खड्ड में धंस पड़ने पर दोनों पक्ष अपना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य गंवा बैठते हैं। पारिवारिक झंझटों से इतना अधिक दब जाते हैं कि उस बोझ को उठाते उठाते कमर टूट जाती है।
तथाकथित समय और सम्पन्न देशों में इन दिनों विलासिता का उन्माद भूत पिशाच की तरह चढ़ा है। विलासिता में सजधज के समान ही यौनाचार की दुष्प्रवृत्ति बढ़ी है। इसका विषाक्त प्रतिफल सर्वप्रथम नारी को और उससे कुछ ही कम नर को भुगतना पड़ रहा है। नर अपनी जीवनी शक्ति का भण्डार चुकाता जा रहा है। बौद्धिक कुशाग्रता बेतरह घट रही है। उठती आयु में उत्तेजक आहार के कारण शरीर का ढकोसला तो बिगड़ने नहीं पाता। पर भीतर ही भीतर स्थिति घुने हुए गेहूं जैसी हो जाती है। मनुष्य की औसत आयु विगत पचास वर्षों में बढ़ी है। पर बुढ़ापा दस वर्ष पहले आने लगा है। क्रिया शक्ति बेतरह क्षीण हो रही है। मांस के चलते-फिरते लोथड़े की तरह जीना पड़ रहा है। मस्तिष्कीय क्षमता में बेतरह गिरावट आई है। फलस्वरूप सनकी और अर्ध विक्षिप्त की तरह इस स्थिति में रहना पड़ता है। जिसमें न किसी के साथ रहा जा सके न कोई अपने साथ रह सकें। सनकों की दुनिया में तैरने वाला आदमी असंतुष्ट और चिन्तित रहता है। भयभीत या उत्तेजित भी। स्त्रियों की स्थिति और भी अधिक दयनीय है। कामुक पुरुष समुदाय उन्हें छात्रावस्था से ही निचोड़ना शुरू करता है। इसके लिए प्रलोभनों की हाट लगी रहती है। कुशिक्षण के लिए अश्लील साहित्य, ब्ल्यू फिल्में, तथा इसी प्रशिक्षण में पारंगत बनाने वाले दलाल, गली मुहल्लों में खुले फिरते रहते हैं। भेड़ियों की कहीं कमी नहीं। अन्तर सभ्यों और असभ्यों का है, कहीं रुलाकर—कहीं हंसाकर —तरीके अपने-अपने हैं, पर नारी आखिर नारी है। वह वासना की कामधेनु नहीं है कि उसे निरन्तर दुहते रहने पर भी अक्षय बनी रहे। परिणाम सामने है। तथाकथित सभ्य देशों की नारियों में से अस्सी प्रतिशत यौन रोगों से ग्रसित पाई गई हैं। वासना की पूर्ति और जन्म निरोध की दुहरी मार उन्हीं पर पड़ती है। फलतः वे रंग बिरंगी गुड़िया दीखने के अतिरिक्त और कुछ रह नहीं जातीं। इस खोखली स्थिति को वे किसी प्रकार टॉनिकों, नशों और नींद की गोलियों के सहारे घसीटती हैं। आयु बढ़ने के साथ वे हर दृष्टि से खोखली होती जाती हैं। मर्दों से भी अधिक दयनीय स्थिति उनकी होती है।
यह सभ्य और सम्पन्न देशों के नर-नारियों की दुर्दशा है जिससे पीड़ित होकर वे भीतर रोते और बाहर हंसते रहते हैं। भारत जैसे पिछड़े और अशिक्षित देशों की स्थिति और भी गई बीती है। बूढ़े, अन्धेपन, खांसी, विक्षिप्त अशक्त स्थिति में दिन काटते हैं। बाल-विवाह की लानत लड़कियों को सीधे बुढ़ापे में धकेल देती है। उन्हें पता भी नहीं चलता कि यौवन कब आया और कब चला गया। जो दिन इसके होते हैं उनमें से प्रजनन के भार से इस बुरी तरह लदी रहती हैं कि चैन की सांस लेने के दिन ही खाली नहीं मिलते। पच्चीस की आयु होते-होते चार-पांच बच्चों की मां बन जाती हैं। मातृत्व पारिवारिक श्रम, आये दिन के अपमान, बन्दी जीवन साथ में कुछ न कुछ रोग भी समेट लाता है। श्वेत प्रदर, कमर का दर्द, सिर का दर्द, पैरों की फड़कन, अपच, अनिद्रा, थकान आदि अनेकों जंजाल सिर पर लादे हुए वे जिन्दगी की लाश ढोती रहती हैं। वे अपने लिए, परिवार के लिए, बच्चों के लिए, पति के लिए भार बनकर जीती हैं। इसका कारण एक ही है वासना का अत्यधिक और अनगढ़ दबाव।
इसका प्रमाण प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। विधवायें, परित्यक्ताएं, कुमारियां जिनकी गोदी में बच्चे नहीं हैं। अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ और सुखी रहती हैं। यों ऐसे जीवन में उन्हें अनिश्चितता और अर्थाभाव की स्थिति में रहना पड़ता है तो भी वे सुहागिनों की तुलना में शारीरिक और मानसिक दृष्टि से कहीं अधिक निश्चिन्त और संतुष्ट रहती हैं। जिन तक इस दुर्व्यसन की हवा जितनी कम पहुंची है वे नर-नारी उतने ही अधिक सुखी हैं। आदिवासी, वनवासी, किसान, श्रमजीवी जिनको निर्वाह की विभिन्न समस्याओं को सुलझाना भर होता है जिन पर वासना का प्रकोप जितना कम हुआ है, वे निर्धन और अशिक्षित होते हुए भी कम से कम स्वास्थ्य को गंवा बैठने के अभिशाप से तो बचे ही रहते हैं।
इन पंक्तियों में एक झांकी उस स्थिति की कराई गई है जो आज की उद्धत पीढ़ी की वासना विलासिता की बलि वेदी पर चढ़कर सहन करनी पड़ती है। उनके लिए आध्यात्मिक प्रगति का, समाज सेवा का, उत्कृष्ट चिन्तन का, व्यक्तित्व के परिष्कार का तो सुयोग मिलता ही कहां है?
आध्यात्मिक काम-विज्ञान की दिशाधारा और विलासी कुकर्मियों की कुचेष्टा में जहां जमीन आसमान जैसा अन्तर है वहां उसका कर्मफल भी निश्चित है। ब्रह्मचर्य को तप और योगाभ्यास कहा गया है इसका कारण प्रत्यक्ष है। उसे अपनाने पर नर और नारी के बीच जो सहज उमंग होती है और निकट आने पर उल्लास का निर्झर बन कर फूटती है, उसे कभी भी, कहीं भी, कोई भी प्रत्यक्ष देख सकता है।
नारी शक्ति है। नर तेजस्। दोनों एक दूसरे को उत्साह और बल प्रदान करते हैं पर यह होता तभी है जब दोनों के बीच, कुत्सा का प्रवेश न होने पावे। काम का अर्थ क्रीड़ा है। क्रीड़ा-अर्थात् विनोद, हास्य, पर वह होना चाहिए सात्विक। बालकों जैसा निश्छल। ऐसी मनःस्थिति बनाये रहकर, छोटी, बड़ी, समान आयु के नर नारी निकटता रखें। आत्मीयता भरें, सान्निध्य को बनायें, बढ़ायें तो उससे सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियों से दोनों ही पक्षों का लाभ होता है।
वे गलती पर हैं जो नर नारी की समीपता में पाप दृष्टि का ही अनुमान लगाते हैं और एक-दूसरे को सर्वथा दूर रखने की बात सोचते हैं। पर्दे का प्रतिबन्ध लगाते हैं और जब किसी प्रकार के वार्तालाप या सहयोग का अवसर हो तभी जासूसी चौकीदारी करने के लिए मध्यवर्ती की नियुक्ति पुलिस मैन की तरह करना आवश्यक समझते हैं। ऐसे लोगों का मन ही कलुषित समझना चाहिए, जो मनुष्य-मनुष्य के बीच रहने वाली श्रद्धा-सद्भावना पर विश्वास नहीं करते। सर्वत्र पाप ही पाप खोजते हैं। नर और नारी भी दो मनुष्य ही हैं। उनकी बारूद माचिस जैसी बनावट नहीं है जो निकट आते ही विस्फोट या अनर्थ उपस्थित करे।
मानवी मनोविज्ञान को सही अर्थों में समझा जाना चाहिए एवं नर-नारी सम्बन्धी प्रतिपादनों पर खुले मन से विचार कर पूर्वार्न्त-दर्शन की परिधि में बने रहते हुए यह निर्धारण किया जाना चाहिए कि यौन स्वातंत्र्य कहां तक उचित है?
‘सेक्स’ शब्द जिन अर्थों में प्रयुक्त होता है वह काम का स्थूल धरातल है। काम की परिष्कृत धारा प्रेम है। शौर्य, साहस, पराक्रम, जीवट, उत्साह और उमंग उसकी ही विभिन्न भौतिक विशेषतायें हैं। उत्कृष्ट विचारणायें उदात्त भाव सम्वेदनायें काम की आध्यात्मिक विशेषतायें हैं। सेक्स के इन्द्रिय धरातल से उठकर प्रेम और भाव-सम्वेदनाओं के विस्तृत क्षेत्र में पहुंचना ही काम का परम लक्ष्य है। इन्द्रिय सीमा में लिप्त काम अतृप्ति और अशान्ति को ही जन्म देता है। पवित्र प्रेम में परिवर्तित होकर सन्तोष और दिव्य आनन्द का कारण बनता है।
शरीर, मन, और बुद्धि तीनों में ही काम शक्ति क्रियाशील है। संयम और ऊर्ध्वगमन की साधना द्वारा ‘काम’ का रूपान्तरण होता है। रूपान्तरण का अर्थ है सम्पूर्ण व्यक्तित्व में उल्लास का समावेश हो जाना।
काम की इच्छा एक आध्यात्मिक भूख है जिसे निरोध अथवा दमन द्वारा मिटाया नहीं जा सकता। ऐसा करने पर वह और भी उग्र होती है। बहते हुए पानी के प्रवाह को रोकने से वह धक्का मारने की नयी सामर्थ्य उत्पन्न करता है। बन्दूक की उड़ती हुई गोली को रोकने पर गहरा आघात पहुंचता है। कामशक्ति को बलपूर्वक रोकने से अनेकों प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक उपद्रव खड़े होते हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञान के प्रणेता फ्रायड से लेकर आधुनिक मनोविज्ञानियों तक सभी ने इस तथ्य का समर्थन, प्रतिपादन अपने-अपने ढंग से किया है तथा सृजनात्मक प्रयोजनों में उसे नियोजित करने का परामर्श दिया है। दमन की अपेक्षा आकांक्षा एवं अभिरुचि का प्रवाह मोड़ने में विशेष कठिनाई नहीं उत्पन्न होती। ब्रह्मचर्य का वैज्ञानिक स्वरूप यही है कि कामबीज का उन्नयन किया जाय, ज्ञान बीज में परिवर्तित किया जाय।
उल्लास और उत्साह मनःक्षेत्र की अति शक्तिशाली क्षमतायें हैं। उन्हें मृत संजीवनी सुरा कह सकते हैं। सूखे, मुरझाये, टूटे, हारे, निराश व्यक्ति में नव जीवन का संचार करने की इनमें क्षमता है। इसलिए जीवन की जिन चार महती आवश्यकताओं की गणना की जाती है, उनमें इसी को प्राथमिकता दी गई है। जीवन के परम लाभ चार हैं—धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। इनमें काम प्रथम है। काम का सीधा सादा-सा अर्थ है—प्रसन्नता, प्रफुल्लता, उमंग और आशा की झलक-छलक। यह जिन माध्यमों से सम्भव हो सके उन्हें काम कहा जा सकता है। काम अर्थात् क्रीड़ा विनोद। कला की समूची व्याख्या इतने में ही सीमित की जा सकती है।
कई बार दो परस्पर विरोधी तथ्य भी एक जैसे दीख पड़ते हैं। कई बार असली का भ्रम नकली उत्पन्न कर देता है। कई बार छद्म पाखण्ड धर्म जैसा प्रतीत होता है। ऐसा ही एक दुर्दैव काम के साथ भी जुड़ गया है। काम वासना—कामुकता, वासना, अश्लीलता, यौनाचार जैसे प्रसंग जब ‘‘काम’’ शब्द के साथ जुड़ते हैं तो अर्थ का अनर्थ उत्पन्न करते हैं।
कामाचार विशुद्ध रूप से एक प्रजा उत्पादन प्रक्रिया है। इसकी ओर मन ले जाने वाले विचारशील को हजारों बातें सामने रखनी होती हैं। क्या नर मादा दोनों की शारीरिक, मानसिक स्थिति ऐसी है जिसके संकेत से ऐसे नये प्राणी की उत्पत्ति हो सके जो अपने लिए ही नहीं समूचे समाज के लिए वरदान बन सके। जिनके शरीर दुर्बल रुग्ण हैं, जो मन से खिन्न-विपन्न रहते हैं, उनके वे दोष निश्चित रूप से सामने आवेंगे। फिर यह भी देखना है कि जिस वातावरण में उसका भरण पोषण होगा उसमें स्नेह, सहयोग, दुलार एवं सुसंस्कार भरे हैं या नहीं। नवजात शिशु को खेलने-कूदने के लिए जगह है या नहीं। कहीं सारे दिन एकाकी उदास तो नहीं बैठा रहेगा। उसे घृणा, तिरस्कार, अवज्ञा, उपेक्षा का मानसिक त्रास तो नहीं सहना पड़ेगा। बच्चे को सही पोषण बड़े आदमी से सस्ता नहीं महंगा ही पड़ता है। फिर उसे विनोद खेलकूद भी चाहिए। साथी भी, खिलौने भी जो उसके खाली समय में साथ रह सकें। इसके अतिरिक्त आजकल उपयुक्त शिक्षा के लिए स्थान तलाश करना और उसका खर्च वहन करना भी एक आवश्यकता है। जो इतना प्रबन्ध कर सके, वे ही सन्तानोत्पादन की बात सोचें। अन्यथा पिता, माता, परिवार और समूचे समाज को उस मूर्खता का अभिशाप जैसा दण्ड भुगतना पड़ेगा। अनगढ़, सन्तान को जन्म देना प्रत्यक्ष पाप है जिसका दण्ड हाथों हाथ उस प्रसंग से सम्बन्धित हर व्यक्ति को सहन करना पड़ता है।
सृष्टि में कुछ ऐसे प्राणी भी हैं जो घासपात की तरह दूसरों की भूख बुझाने के लिए उत्पन्न होते हैं। कीड़े-मकोड़े इसी श्रेणी में आते हैं। उनके ढेरों अण्डे-बच्चे होते हैं। उनमें से अधिकांश प्रकृति के प्रकोप के शिकार हो जाते हैं। कुछ ही उनसे बचे प्राणी खा पीकर निपटा देते हैं। इस पर भी जो बचे रहते हैं, उनके लिए प्रकृति ठिकाने, लगाने वाले बहाने ढूंढ़ निकालती है। कुछ भूखे मर जाते हैं। कुछ पैरों तले कुचल जाते हैं। कुछ को बीमारियां खा जाती हैं, कुछ आवेशग्रस्त होकर आत्म-हत्या के लिए दौड़ पड़ते हैं। इन उद्भिजों और कीट-पतंगों में अपनी गणना कराना हो और उत्पादन को ऐसी दयनीय दुर्दशा में धकेलना हो तो यौनाचार की छूट है। कोई कुछ भी कर सकता है और अपने कृत्यों का फल भुगतता रह सकता है। किन्तु जिन तक मानवोचित कर्त्तव्य उत्तरदायित्वों की कोई किरण पहुंची हो, उन्हें इस गम्भीर कार्य में हाथ डालने से पूर्व हजार बार सोचना चाहिए। कृत्य के उपरान्त उत्पन्न होने वाली समस्याओं पर विचार करना चाहिए और विवेक स्वीकृति प्रदान करे तो ही कदम बढ़ाना चाहिए।
जिन पशु-पक्षियों की समझदार प्राणियों में गणना होती है, उनकी मादायें अपनी प्रजनन क्षमता के अनुरूप उत्तेजना प्रकट करती हैं। इसी आधार पर नर उनसे संभोग साधते हैं। इसके बिना कोई मादा से छेड़खानी नहीं करता। गाय, भैंस, बकरी, घोड़ा, गधी सभी पशु नर मादाओं के रूप में रहते और चरते हैं। नर कभी किसी मादा को अपनी ओर से नहीं छेड़ता। मादा की प्रजनन क्षमता जब उभरती है तब उसी संकेत पर यौनाचार बनता है। मनुष्य को इतना विवेक तो होना ही चाहिए कि इस सम्बन्ध में विशुद्ध रूप से नारी की स्थिति को समझ अपनी ओर से कोई प्रलोभन या दबाव न डाले। इस आधार पर पांच या कम से कम तीन वर्ष बाद ही इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता पड़ेगी। विवाह का अर्थ यौनाचार की उच्छृंखल छूट मिलना नहीं है वरन् एक परिवार को मिल-जुलकर समुन्नत बनाना, दो जीवनों को पारस्परिक सहयोग हर्षोल्लास से भर देना है।
जो इस विवेक प्रेरणा की अवज्ञा करते हैं और अमर्यादित काम सेवन करते हैं, उन पुरुषों को एक प्रकार से नर भक्षी ही कहा जा सकता है। इससे साथी को धीमी आत्महत्या करने के लिए विवश किया जाता है। नारी जननेन्द्रियों की संरचना इतनी कोमल है कि वे प्रजनन कृत्य आवश्यक हो जाने पर एक दो बार का नर सम्पर्क सहन कर सके। अमर्यादा बरतने पर वे कोमल अंग कई तरह के रोगों के शिकार हो जाते हैं। उनसे पीछा छुड़ाना कठिन होता है। प्रजनन अपने आप में एक बहुत बड़ा आपरेशन है। उसमें ढेरों रक्त जाता है। बच्चे के शरीर जितना मांस जननी की देह में से ही भरता है। इसके बाद भी दूध पिलाने के रूप में उस क्षति का सिलसिला चलता ही रहता है। हजार प्रसवों पीछे 16 प्रसूताओं की जान तो बच्चा जनते समय ही चली जाती है। सब मिला कर अन्त तक अनेकों दबाव जननी को सहने पड़ते हैं। इनके लिए बाधित करना किसी भी प्रकार मित्र धर्म नहीं है। नर भक्षी भेड़िये मनुष्यों या दूसरे जानवरों को खाते हैं। अपनी मण्डली के सदस्यों की चमड़ी नहीं उधेड़ते। पर एक मनुष्य है जो पत्नी पर प्रेम प्रकट करते हुए वस्तुतः उसका जीवन रस ही चूस लेता है। उसे रुग्णता, दुर्बलता का त्रास सहते हुए समय से बहुत पहले मर जाने के लिए बाधित करता है। अपनी स्वार्थ सिद्धि भी इतनी कि क्षण भर की लोलुप उत्तेजना का समाधान हो।
जिस वर्ग के नरों में कामुक लोलुपता की मात्रा अधिक पाई जाती है, वे साथी का अनर्थ करते हुए अपने लिए भी कम संकट खड़ा नहीं करते। शास्त्रकार ने ठीक ही कहा है—‘‘मरणं विन्दुपातेन, जीवनं विन्दु धारणात्’’ अर्थात् वीर्य नाश से मरण और उसके संरक्षण में जीवन है। इसके उदाहरण में हनुमान, भीष्म, शंकराचार्य—दयानन्द आदि अनेकों के नाम गिनाये जा सकते हैं जो शारीरिक और आत्मिक दृष्टि से अपनी बलिष्ठता सिद्ध कर सके। असुरों के उदाहरण इस सम्बन्ध में स्मरण किये जा सकते हैं जिन्होंने कई-कई विवाह किये व बुरी मृत्यु को प्राप्त हुए।
कई थलचरों और जलचरों की बढ़ी हुई कामुकता किस प्रकार उनके लिए प्राण घातक बनती है, उसके उदाहरण प्रत्यक्ष हैं। आश्विन के महीने में कुत्ते आपस में किस प्रकार लड़ते-भिड़ते, घायल होते और सड़ते हैं। यह कौतुक हर साल देखा जा सकता है। हिरनों की भी यही दुर्गति होती है। उनके श्रतुकाल में यही मल्लयुद्ध ठनते हैं। परस्पर सींगों से घायल होकर कितने ही भारी कष्ट सहते हैं। मकड़ी तो खुद ही अपने नर को हाथोंहाथ मजा चखा देती है। मकड़े को प्रसंग के उपरान्त थका हुआ पाती है तो स्वयं ही उसको कतर व्यौंत कर डालती है बिच्छू को भी काम प्रसंग के उपरान्त ऐसा ही त्रास सहन करना पड़ता है। कोई-कोई ही उस संकट से अपनी जान बचा पाता है।
मछलियों में अधिकांश नर सज्जन प्रकृति के होते हैं। मादा की पूरी-पूरी सहायता करते हैं और प्रजनन काल में उन्हें अधिक से अधिक सुविधा पहुंचाने का प्रयत्न करते हैं। पर कुछ ऐसे दुष्ट भी होते हैं, जिन्हें हरम इकट्ठा किए बिना चैन नहीं। फ्राग फिश अपने घेरे में प्रायः एक दर्जन युवा मछलियां समेटे रहता है और उनके साथ क्रीड़ा कल्लोल का मजा लूटता है। साथ ही यह भी होता रहता है कि उसके प्रतिद्वन्दी उसके हरम पर धावा बोल कर कुछ को झपट ले जाय। दूसरी ओर उस मण्डलाधीश को भी चैन नहीं। वह जितनी हैं उनसे संतुष्ट न रहकर नई नवेलियां तलाश करता है और किसी दूसरे के हरम पर छापा मारता है। इस कारण उनमें मल्लयुद्ध ठन जाता है। हर साल उनमें से इसी महाभारत में खेत आते हैं। मछलियां भी नरों से शिक्षा प्राप्त करती हैं और किसी एक के चंगुल में बहुत दिन न रह कर जल्दी-जल्दी ससुराल बदलती और पुनर्विवाह रचती रहती हैं। इस कारण असन्तुष्ट मछलियां भी आपस में लड़ बैठती हैं। इस वर्ग के नर मादा चैन से नहीं बैठते। विशेषतया ऋतुकाल में तो उनमें खून खच्चर मचता ही रहता है। जबकि दूसरी सन्तोषी प्रकृति के जल जीव लम्बे समय तक पतिव्रत निवाहते हैं और सहयोग और आनन्द भरा जीवन जीते हैं।
गरुड़ मादा यह खोजती रहती है कि उससे बलिष्ठ साथी है या नहीं। इस प्रयोजन के लिए ताक-झांक करने वाले से सर्व प्रथम मल्ल-युद्ध की चुनौती देती है। युद्ध में दोनों पक्ष लहू-लुहान हो जाते हैं। नर यदि भाग खड़ा हुआ तो उसे क्षमा कर दिया जाता है। अन्त तक डटा रहा तो अपने पौरुष के आधार पर स्वयंवर का लाभ उठाता है। अध्यात्म विज्ञान के तन्त्र पक्ष में कुण्डलिनी योग की साधना का सुविकसित प्रकरण है। उसमें मूलाधार चक्र और सहस्रार चक्र को शक्ति केन्द्र माना गया है और दोनों को प्रखर प्रचण्ड बनाकर परस्पर सहयोग की स्थिति तक पहुंचा देना परम सिद्धि का आधार माना गया है। मूलाधार चक्र जननेन्द्रिय मूल में है और सहस्रार मस्तिष्क के मध्य ब्रह्मरन्ध्र में। यही दोनों केन्द्र उत्तर ध्रुव और दक्षिण ध्रुव हैं। वे हेय प्रयोजन में अपनी शक्ति गंवाते रहते हैं। इसलिए अपनी ऊर्जा एक-दूसरे तक नहीं पहुंचा पाते। बिजली के दोनों तारों में शक्ति हो और मिलें तो महाकाली जैसा प्रचण्ड प्रवाह उत्पन्न होता है। इसी आधार पर कुण्डलिनी जागृत होकर अनेकानेक चमत्कारी सिद्धियों का परिचय देती है। सहस्रार चक्र को ध्यान योग और मूलाधार चक्र को ब्रह्मचर्य द्वारा जागृत एवं प्रखर बनाया जाता है। यह साधना क्रम सुविस्तृत है, पर उसका सार संक्षेप इतने में ही समझना चाहिए कि आध्यात्मिक काम विज्ञान के सिद्धान्तों का समग्र परिपालन किया जाय। नर नारी साथ-साथ रहें, स्नेह और सहयोग भी करें पर उसमें कामुकता के विष का प्रवेश न होने दें। बांध में नदी का पानी रोक देने पर पानी का इतना एकत्रीकरण हो जाता है कि उसमें से अनेकों नहर निकल सकें और सुविस्तृत भूमि खण्डों को हरा-भरा फूला-फला बनाया जा सके। पानी न रोका जाय तो वह बहता और घटता रहेगा और अन्त में गहरे समुद्र में गिर कर ऐसा खारा पानी बन जायेगा जो पीने के भी काम न आ सके।
नर और मादा का साथ-साथ समीप रहना, प्रकृतिगत स्वाभाविक स्थिति बनाये रहता है। यदि दोनों एक-दूसरे से बचें, भागें, डरें, अथवा आक्रामक नीति अपनायें तो उसमें सृष्टा की उस कलाकारिता का अपमान है जो गंगा, जमुना की तरह मिलकर नयी सरस्वती उत्पन्न करती हैं और सबके लिए सब प्रकार श्रेयष्कर परिणाम ही उत्पन्न करती हैं। खतरा तो रस में विष मिला देने से उत्पन्न होता।