Books - कब्ज की सरल चिकित्सा
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Language: HINDI
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कब्ज से मुक्ति पाने की सरल एवं निश्चित चिकित्सा
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असंख्य रोगों का उत्पादक कब्ज— आधुनिक जीवन में सबसे अधिक प्रचारित बीमारी कब्ज या कोष्ठबद्धता है। वृद्ध, युवक, स्त्रियां और बच्चे तक इससे परेशान हैं। अनेक रोगियों को देखकर पहले तो ऐसा ज्ञात होता है कि किसी बड़े रोग से ग्रसित हैं किन्तु बाद में मालूम पड़ता है कि वे जीर्ण कोष्ठबद्धता से परेशान हैं। अनेक व्यक्ति शौचादि निवृत्ति के समय सिगरेट या बीड़ी सुलगाकर इस आशा से बैठते हैं कि टट्टी साफ हो जायगी, किन्तु कांखते हुए उन्हें बहुत देर तक टट्टी में बैठे रहना पड़ता है। किन्हीं-किन्हीं स्थानों का जल इतना भारी होता है कि सभी को स्वभावतः कब्ज रहता है। कुछ अपनी त्रुटिपूर्ण आदतों के कारण कब्ज के शिकार हैं।
आजकल डॉक्टर, हकीम, वैद्यों के पास सबसे अधिक रोगी कब्ज के पहुंचते हैं। दवाइयों में सबसे अधिक ऐसी दवाइयों का आविष्कार हुआ है, जिनसे सरलता से कब्ज दूर हो जाय। गोली, फंकी, आसव, काढ़े, चूरन-चटनी, कास्ट्रोयल, फ्रूट साल्ट, मैकसेल्फ, जमालगोटा, कारमिनेटिव मिक्श्चर—इत्यादि न जाने कितनी चीज आजकल कब्ज दूर करने के लिए चल रही हैं। इतने पर भी कब्ज नागरिक जीवन का प्रमुख अभिशाप बना ही हुआ है। यह धनवानों या तड़क-भड़क के संघर्षशील, घने बसे हुये शहरों में रहने वाले अमीरों, आलसी, तथा विलासप्रिय युवक, निठल्ली औरतों को हुआ करता है।
रोगों की पूर्व स्थिति कब्ज है— कब्ज स्वयं कोई रोग नहीं है, आने वाले बड़े भयंकर रोगों की पूर्व स्थिति है। इससे रोगों का प्रारम्भ होता है। रोग एक प्रकार की प्रवृत्ति है, कूड़ा-करकट एकत्रित होने से, कीड़े उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार शरीर में मल एकत्रित होने से रक्त अधिक विकारमय बनता है। एकत्रित मल पदार्थों से जो जहरीली गैसें उत्पन्न होती हैं, उनसे स्वास्थ्य और प्रसन्नता तो मिट्टी में मिल ही जाते हैं, नये-नये रोग उत्पन्न होते हैं, शरीर के अंग विकारमय हो उठते हैं। यही अपबद्ध मल नाना प्रकार के छोटे बड़े रोगों में उद्भूत होता है। सभी रोग के मूल भाग में इस प्रारम्भिक स्थिति का अंश पाया जाता है।
कब्ज रोग नहीं है। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि यह अच्छा स्वास्थ्य न होने, या रोग उत्पन्न करने के लिये उत्पादक स्थिति है। यह बहु रूप धारण कर शरीर में नाना प्रकार के छोटे मोटे रोगों की उत्पत्ति करने वाला मिथ्याचारी भूत है। यह उस भय की भांति है जो नवीन रूपों में प्रादुर्भूत हो, हमें डरा देता है। कुछ और शक्ति पाकर यही षड्यंत्रकारी शत्रु उदर सम्बन्धी नाना विकारों में प्रस्फुटित होता है। प्रायः अन्य रोगों के साथ मिलकर चलता है। अन्य रोगों के साथ सम्मिलित होकर इसका वेग, शक्ति तथा उस रोग की जटिलता में अनावश्यक अभिवृद्धि हो उठती है। वह रोग तब तक दूर नहीं होता जब तक इस जड़मूल कारण को दूर न किया जाय। कब्ज से शरीर में सुस्ती छाई रहती है, काम में मन नहीं लगता, खुश्की बनी रहती है, निद्रा-प्रगाढ़ नहीं आती, क्षुधा प्रतीत नहीं होती, दिमाग उड़ता-सा रहता है, एकाग्रता नहीं रहती। कब्ज से कौन कौन रोग उत्पन्न होते हैं— कब्ज की मित्रता इन रोगों से विशेष रूप से है—स्वप्नदोष, अग्निमांद्यता, रक्ताभाव, बवासीर, पेचिश, स्मरण शक्ति का ह्रास, श्वेतप्रदर, मासिकधर्म की अनियमितता, सिर दर्द, कमर दर्द, नेत्र रोग, दन्त रोग। कब्ज होने का अभिप्राय मोटे तौर पर यह है कि शरीर से मल निष्कासन के एक महत्वपूर्ण अंग का काम मन्द पड़ गया है। साधारणतः फेफड़े, त्वचा, वृक्क, और आंतें मल बाहर फेंकती हैं, पर बड़ी आंत का कार्य सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।
कब्ज की शिकायत केवल रोगियों को ही नहीं, वरन् बाहर से मोटे, तगड़े और बलवान प्रतीत होने वाले व्यक्तियों को भी होती है। प्रत्येक सभ्य व्यक्ति अपने अप्राकृतिक जीवन, भोजन एवं आदतों के कारण, झूंठे दिखावे, फैशन और दिनचर्या के कारण, इस रोग की पूर्व स्थिति का शिकार है। ज्यों-ज्यों सभ्यता नाम की चीज (जिसमें थोथी शान, मिथ्या प्रदर्शन, अस्वाभाविकता, मसालों के व्यवहार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है) विकसित हो रही है, हम अपने भोजनों तथा आदतों में परिवर्तन कर रहे हैं, त्यों-त्यों कोष्ठबद्धता अभिवृद्धि पर है। बड़े-बड़े होटलों, रेस्टोरेन्टों या भोजनालयों में रसोइया मशीन बना दिये जाते हैं। सद्भाव का तत्व वे मानसिक प्रक्रिया द्वारा भोजन तत्व में मिश्रित नहीं कर पाते, सूखे व्यवहार के कारण वे जो कुछ पकाकर देते हैं, वह रोग उत्पन्न करता है। जिस भोजन में जितनी ही आत्मभाव की मृदुता होती है, वह उतना ही शीघ्रपाची और गुणकारी होता है।
कब्ज का व्यापक कुप्रभाव— कब्ज का प्रभाव शरीर के प्रत्येक अवयव पर पड़ता है। महिलाओं पर इसका बहुत दूषित प्रभाव पड़ता है। जिस सौन्दर्य के लिये वह इतनी लालायित रहती हैं, वह रक्त में मल के विकार फैल जाने से नष्ट होता है। त्वचा का रंग पीत वर्ण का हो जाता है। टमाटर जैसी सुर्खी के स्थान सूखा पीला मुख पड़ जाता है। कपोलों का सौन्दर्य विनष्ट हो जाता है। कभी-कभी आन्तरिक विकार फोड़े-फुन्सी या सफेद रंग के चकत्तों के रूप में बाहर त्वचा पर आ जाता है। नेत्रों की आभा नष्ट होने लगती है, दांतों के मसूड़े फूल उठते हैं। जो मुख पूर्ण स्वस्थ होने से पुष्प की भांति सुरभित रहता था, वह कोष्ठबद्धता के कारण म्लान और कान्तिहीन हो जाता है।
अंदरूनी सफाई हमारे स्वास्थ्य एवं सौन्दर्य का प्रधान कारण है। हम ऊपर से त्वचा को निखारने के लिए भले ही अनेक सौन्दर्य प्रसाधनों का उपयोग करते रहें, किन्तु जब तक आन्तरिक दृष्टि से हम अन्दरूनी मशीनों को साफ न रखेंगे, रक्त का वर्ण लाल न हो सकेगा। कोष्ठबद्धता का विष समग्र शरीर पर दूषित प्रभाव डालता है। जुलाब की त्रुटिपूर्ण आदत— कुछ व्यक्ति कहते हैं कि कब्ज दूर करने के लिये जुलाब लीजिये। कुछ हद तक ठीक हो सकता है किन्तु अधिक व्याधि में जुलाब काम नहीं करता। जुलाब की खोटी आदत पड़ जाने से आंतें स्वाभाविक गति से निज कार्य सम्पन्न नहीं कर पातीं। फिर उन्हें किसी न किसी जुलाब की आवश्यकता रहती है। सोचिये, जो आंतें स्वयं भोजन को पचाकर आपको बल, पौरुष, आयु, सौन्दर्य प्रदान करती हैं, उन्हीं को आप कृत्रिम सहायता देकर निर्बल बना रहे हैं। क्यों उनकी शक्ति नष्ट करते हैं? क्यों उन्हें सौ वर्ष तक पाचन कार्य स्वाभाविक रीति से नहीं करने देते?
जुलाब की आदत त्याग दीजिये। प्रकृति को अपने अंदर कार्य करने दीजिये। आप में इतनी शक्ति है कि सब कुछ स्वयं सम्पन्न हो सके। व्यर्थ ही कृत्रिम सहायताएं देकर क्यों अपने पांव में कुल्हाड़ी मारते हैं?
पाचन क्रिया सम्बन्धी आवश्यक जानकारी— कब्ज क्या है? इसके लिये प्रत्येक रोगी को आन्तरिक अवयवों के विषय में कुछ आवश्यक ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिये। मुख, आमाशय और छोटी आंतें मिलकर भोजन के पाचन अभिशोषण का कार्य करते हैं। मुख में भोजन को बारीक पीसा जाता है और लार व थूक मिश्रित होकर दूध जैसा तरल पदार्थ बन जाता है। इस प्रकार का तरल हिस्सा पच सकता है। जो व्यक्ति भोजन को उचित रीति से नहीं पीसते, दन्त रोगों या नशेबाजी के शौकीन होते हैं, या गर्मागर्म भोजन करने से जल्दी जल्दी टुकड़े निगल जाते हैं वे आमाशय पर बड़ा अत्याचार करते हैं। आमाशय में आने पर उसमें मथन क्रिया प्रारम्भ होती है। यहां इसे तीन-चार घण्टे लग जाते हैं। फिर वह धीरे-धीरे आंतों में आता है। यहां भी पाचन क्रिया चलती रहती है। छोटी आंतों में वह भोजन तरल अवस्था में रहता है और यहां पचे हुए भाग का अभिशोषण पूरी छोटी आंत धीरे-धीरे करती है। अभिशोषण के पश्चात् भोजन का अवशेष भाग, जो अब कुछ कम तरल रह जाता है, साधारणतः बड़ी आंतों में करीब 16 घण्टे में पहुंचता है। बड़ी आंत से गुजरते हुए जलीय भाग का शोषण हो जाता है। बहने का गुण कम हो जाता है। यहां तक कि बड़ी आंत के अन्तिम हिस्से में वह कड़ा-सा बन जाता है। इस हिस्से को मलधारक कहते हैं। जब यह कड़ा अवशेष भाग यहां एकत्रित हो जाता है, तो मलधारक इसकी सूचना नाड़ी केन्द्र के पास भेजता है तथा हमें शौचादि की आवश्यकता प्रतीत होती है।
शरीर शास्त्र के विशेषज्ञों का विचार है कि स्वस्थ मनुष्य के शरीर के भोजन के इस बचे हुए भाग या मल को आने में 24 घण्टे से अधिक नहीं लगने चाहिए। प्रत्येक भोजन के पाचन के बाद के बचे भाग को 24 घण्टे में बाहर निकल जाना चाहिये। यदि मनुष्य दिन में दो-तीन बार भोजन करे, तो यह निष्कर्ष निकलता है, कि बचा हुआ मल भाग भी दो-तीन बार बाहर आना उचित है। डॉक्टर एस.सी. दास के अनुसार निम्न अवस्थाओं में समझना चाहिए कि कब्ज है।
कम बार शौच जाना— यों तो प्रत्येक व्यक्ति की दिनचर्या और पेशों के अनुसार बहुत से भेद प्रभेद हो सकते हैं किन्तु साधारण स्थिति में व्यक्तिगत भेदों अथवा विशिष्टताओं का ध्यान रखते हुये यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि जिसे 24 घण्टों में एक बार भी शौच न हो तो उसे कोष्ठबद्धता समझनी चाहिए।
मल की मात्रा में कमी— हो सकता है कि किसी व्यक्ति को कई बार शौच हो पर मल की मात्रा में न्यूनता हो। मल की मात्रा में कमी होने का अभिप्राय यह है कि अधोगामी आंत और उसके आगे के भाग का सम्पूर्ण मल बाहर नहीं आता। अन्दर चिपकता है या सूख जाता है। सम्भव है मल का कुछ न कुछ भाग आंतों में समय से अधिक देर तक रुका रहे। ऐसी अवस्था में दिन में दो-तीन बार भी हाजत होने पर पूरे कोठे की सफाई नहीं हो पाती। आंतों की मल को फेंकने की शक्ति मारी जाने लगती है। उसमें चिकनाहट की कमी होती है। प्रायः इसी प्रकार के कब्ज से लोग पीड़ित रहते हैं। दो-तीन बार शौच को जाते हैं, केवल दो एक सुद्दे निकल कर रह जाते हैं, हांफते-हांफते निकलते हैं, पेट भारी बना रहता है। अधिकतर लोग इसी प्रकार के कब्ज से पीड़ित पाये जाते हैं। डॉक्टर एस.सी. दास का विचार है कि किसी को दो-तीन या अधिक बार भी शौच हो, तो यह भी समझना चाहिये कि वह कब्ज से निश्चयात्मक रूप से मुक्त है।
नमी की कमी— ऊपर कहा जा चुका है कि छोटी आंतों में भोजन तरल अवस्था में रहता है। बड़ी आंतों में गुजरते हुए इसका केवल जलीय भाग बड़ी आंत सोख लेती है। उस समय मल की तरलता कम हो जाती है। मल सूख कर कड़ा पड़ जाता है। मल धारक उसे निकाल कर बाहर नहीं फेंक पाता। मनुष्य को बहुत जोर लगाना पड़ता है, तब कहीं कुछ मल निकल पाता है। शौच होने पर भी यदि (1) टट्टी सूखी-सी आये, (2) सुद्दे आयें, (3) कठिनता और जोर लगाना पड़े, (4) देर तक टट्टी में बैठना पड़े, (5) या बार-बार जोर लगाने से टट्टी न आये और हाजत बनी रहे, (6) आंतों में मल के रुके रहने से बदबूदार जहरीली गैसें निकलती रहें, तो उसे कब्ज समझना चाहिये।
हाजत की कमी— बड़ी आंत की यह विशेषता है कि यदि आपके भोजन में खुज्झा* यथेष्ट न हुआ, या खुश्की अधिक आ गई, तो फिर मल सरलता से बाहर नहीं आ पाता। प्रायः देखा गया है कि जो लोग कम पानी पीते हैं, या भोजन के साथ जल का बिलकुल भी प्रयोग नहीं करते हैं, उनकी पाचन क्रिया कम हो जाती है। मल अन्दर ही अन्दर बिलकुल सूख जाता है। कुछ दिन पश्चात् हाजत होनी ही बन्द हो जाती है। बड़ी आंत की मल निकालने की शक्ति मारी जाती है। आंत में मल का हिस्सा इधर उधर दीवालों पर चिपटता रहता है। यदि रोग जीर्ण हो जाय, तो यह मल दीवारों पर मोटी तहों के रूप में जम जाता है। संचित मल एकत्रित होकर सड़ता रहता है। श्री आनन्द वर्धन लिखते हैं—कभी-कभी तो मुर्दे चीरने पर उस आंत में दस पांच सेर तक मल इकट्ठा मिला है और कड़ा स्लेट की तरह का भी। जैसे, किसी रुकी हुई नाली के बीच में एक छेद कर दिया जाय, और कुछ पानी जाता रहे। बाकी नाली कड़े से ठस जाय और कूड़ा उसमें सड़ता चला जाय। मैला सड़ने में बदबू हो जाती है। अपावन वायु में अधिक बदबू हो तो जीर्ण कब्ज का रोगी समझना चाहिए।
[ *खुज्झा - गेहूं के आटे के चोकर में, चावल के कण में, फल तरकारियों के छिलकों में अधिक रहता है। हरी तरकारियों अमरूद, नासपाती, सेब इत्यादि में यह पर्याप्त मात्रा में रहता है। ]
कारणों का अध्ययन— संसार में जहां मल है, वहीं रोग है। मल का एक स्थान पर एकत्रित हो जाना भावी आशंका, रोग तथा किसी न किसी प्रकार की खराबी का द्योतक है। मल, मूत्र, थूक, खकार, सांस, छींक, पसीने द्वारा प्रकृति मानव शरीर से निरन्तर मल-निष्कासन कार्य करती रहती है। यदि मनुष्य प्राकृतिक भोजन खाकर प्राकृतिक जीवन व्यतीत करना चाहे, तो शरीर में मल पदार्थों को रुकने के निमित्त स्थान प्राप्त न होगा। हमारा आधुनिक जीवन कुछ ऐसा अप्राकृतिक हो गया है कि हमारे मल फेंकने वाले अवयव निज कार्य सतर्कता पूर्वक सम्पन्न नहीं कर पाते। इसके कारणों पर विस्तारपूर्वक विचार करना चाहिये।
(1) अप्राकृतिक भोजन— कब्ज का प्रमुख कारण अप्राकृतिक भोजन है। यहीं से खराबी प्रारम्भ होती है। हमारा भोजन संतुलित नहीं होता, हम जिह्वा के क्षणिक स्वाद के वशीभूत होकर अनेक वस्तुएं खाते हैं, जिसके कारण पेट में दो प्रकार की खराबियां उत्पन्न हो जाती हैं। 1- परिणाम से अधिक भोजन का बैठना, 2- बासी, मसालेदार, चटपटे, तेज खटाई-मिठाई से परिपूर्ण हानिप्रद मिश्रण। हमारे यहां भोजन कर लेना एक तरह का पाप काट लेना है। लोग जल्दी-जल्दी उसे पूर्ण कर डालना चाहते हैं। आफिस के क्लर्क, वकील, विद्यार्थी, अध्यापक, रेलवे के कर्मचारी, व्यापारी इत्यादि शीघ्रता से भोजन करते हैं। भोजन दांतों के द्वारा न तो पर्याप्त मात्रा में चबाया ही जाता है, तथा न उसमें पाचन करने वाली लार का समुचित मिश्रण ही हो पाता है। पतलून पहनने के कारण पेट पकड़ा रहता है। आन्तरिक अवयव निर्विघ्नता से निज कार्य सम्पन्न नहीं कर पाते। अतः पेट के आन्तरिक कार्य में अड़चनें आती हैं। कुछ व्यक्ति भोजन के पश्चात् यकायक तेजी से चलने लगते हैं। अथवा साईकिल पर सवार होकर भागते हैं। इससे अंदरूनी शारीरिक क्रियाओं में व्यवधान उपस्थित हो जाता हैं। पाचन में रुकावट उपस्थित हो जाती है।
(2) व्यायाम की न्यूनता— कब्ज का एक प्रमुख कारण पर्याप्त व्यायाम या क्रियाशील जीवन की न्यूनता है। कल्पना कीजिये उस सेठजी की जो भोजन करके आये हैं, गद्दी तकिये के सहारे बैठे पान खा रहे हैं, हुक्का मुंह से लगा हुआ है, रेडियो सुन रहे हैं। धीरे-धीरे भोजन की अधिकता के कारण नेत्र मूंदे जाते हैं। सेठजी वहीं लम्बे लेट जाते हैं। खर्राटे लेने लगते हैं। जगाये कौन? देर तक सोते रहते हैं। आंखें खुलती हैं तो देखते हैं चार बजने आये। सुस्ती मिटाने के, लिए भी कुछ चाहिए, नमकीन मिठाई वाला आ निकलता है। वह आकर बैठा, और लगा समोसे, दाल-मोठ, बताशे, सेब इत्यादि चखाने, कुछ मिठाई भी उसके पास हैं। सेठजी पहले नमकीन लेते हैं। जब तेज मिर्च लगती है तो मिठाई चखते हैं। चखने से आनन्द प्रतीत होता है, प्रलोभन में वृद्धि होती है। फिर तो मन का नियन्त्रण जाता रहता है और आवश्यकता से अधिक मिठाई खा चुकते हैं। दो घण्टे पश्चात् पेट भारी-भारी प्रतीत होता है, खट्टी डकारें आती हैं, उलटी भी मालूम होती है। नौकर रोज-रोज हकीम के पास से चूर्ण लाता है। शाम तक थोड़ा-थोड़ा चूर्ण खाकर किसी प्रकार से सायंकाल तक पेट हलका हो जाता है।
(3) आलस्यपूर्ण जीवन— सेठजी के कार्यक्रम में अनेक दोष हैं। वे जिव्हा के वश में हैं रुपया अधिक है। अतः उनका प्रलोभन सरलता से पूर्ण हो जाता है। चाहे जब कुछ खा बैठते हैं। वे भोजन के सम्बन्ध में अनियमित, लापरवाह, बेमेल, अप्राकृतिक हैं। उनके जीवन में क्रियाशीलता-(चलना फिरना, घूमना, दौड़ना या टहलना, घर गृहस्थी के साधारण कार्य, बाजार से वस्तुएं लाना, खेल खेलना, कसरत या तैरना) है ही नहीं। जब शरीर को हरकत करने का अवसर प्राप्त न होगा, उससे कार्य न लिया जायगा, तो निश्चय ही वह निष्क्रिय और निश्चेष्ट, आलसी रोगी हो जायगा। शरीर के अवयवों का एक गुप्त नियम है कि जिस अवयव से पर्याप्त कार्य लिया जाता है, वह पनपता है सुदृढ़ और स्वस्थ रहता है। उसमें नवीन शक्ति का आविर्भाव होता है। इसके विपरीत जिस अवयव को व्यर्थ छोड़ दिया जाता है, वह शिथिल होकर रोगी आलसी बन जाता है। क्रियाशीलता के अभाव में पेट की अन्दरूनी मशीनरी भी शिथिल होने लगती है। पाचन भी निर्बल हो जाता है। अनेक बार शरीर का एक ही स्थान पर टिके रहना, आलसी बैठे रहना, निठल्ले रहना, अधिक सोना, किसी विशेष तरह बैठना, जैसे उकड़ूं बैठना, या पालती मारे रहना, या पतलून-नेकर की पेटी से पेट कस कर कुर्सी पर विराजे रहने से कब्ज उत्पन्न होता है।
(4) जल के प्रयोग में कमी— हमारी आंतें जल के समान बहने वाले पदार्थों को सरलता से पचाती हैं। छोटे बच्चे केवल दूध पीकर ही निर्वाह करते हैं। प्रकृति ने हमें दांत इसलिए दिये हैं कि हम भोजन की महीन पीस कर उसमें लार और पानी मिश्रित कर उसे दूध के समान बहने वाला पदार्थ बना डालें। इस प्रकार का द्रव्य सरलता से आंतें ग्रहण कर सकेंगी।
अनेक बार कम जल पीने या भोजन के साथ पीने वाले पदार्थों की कमी के कारण सख्त भोजन अन्दर पहुंचता है। इसके कारण अंतड़ियां ठीक तरह नहीं चल पातीं। उन्हें जल चाहिये। जो व्यक्ति कम जल पीते हैं, या भोजन के समय जल का प्रयोग ही नहीं करते, वे कब्ज से पीड़ित रहते हैं। यदि भोजन के साथ आप जल पीने के आदी न हों, तो आधे घण्टे पश्चात् तो अवश्य ही जल का प्रयोग होना उचित है। अपर्याप्त चबाया हुआ सूखा भोजन आंतों से नहीं पच पाता। न तो आंतों के पास दांत हैं, न पानी के लिए कोई और आश्रय। इसलिए जब आंतें इन सूखे कणों को पाचक-रसों द्वारा घुलाने में संलग्न हो जाती हैं, तो स्वाभाविक रूप से उनकी गति मन्द पड़ जाती है, और कब्ज उत्पन्न हो जाता है। भोजन के साथ अधिक पानी पीना भी उतना ही हानिकर है, जितना कम पीना। यदि अधिक पानी होगा, तो पाचक रस पानी में इतने घुल जायेंगे कि उनकी स्वाभाविक शक्ति ही विनष्ट हो जायेगी। कुछ व्यक्ति पुनः पुनः आदत के कारण भोजन के साथ अत्यधिक जल का प्रयोग करते हैं, यह भी हानिकर है। थोड़ा घूंट-घूंट कर पूरे स्वाद के साथ मुंह में रोक कर ग्रहण करना चाहिये।
(5) गरिष्ठ पदार्थ तथा नशे— जब भोज्य-पदार्थ छोटी आंतों में जाता है, तब पित्त इसमें मिश्रित होता है। पित्त घी-तेल इत्यादि गरिष्ठ पदार्थों को पचाने का कार्य करता है तथा जो अवशेष बच जाता है, वह रेचक का काम करता है। अतः घी-तेल अधिक खाया जायगा तो फालतू पित्त न बचेगा और कब्ज हो जायगा। यही कारण है कि आजकल जो व्यक्ति मिठाई, पकवान मिष्ठान्न तथा अन्य गरिष्ठ पदार्थ लेते हैं, कब्ज से परेशान रहते हैं। मिठाई, चाट-पकौड़ी घी में तरबतर पदार्थ खाने वाले सेठ, मिठाई बेचने वाले हलवाई और जिव्हा के चटोरे व्यक्ति प्रायः कब्ज के शिकार रहते हैं। मिठाई खाना उनकी आदत का एक अंश बन जाता है, जहां मिठाई देखते हैं, उनका मन फिसल जाता है। अनेक समझदार व्यक्ति अधिक शक्कर के उपयोग की मूर्खता जानकर भी इसे नहीं त्यागते।
(6) नाड़ी बल की कमजोरी— प्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सक श्री. जानकी शरण वर्मा ने कब्ज के एक और विशेष कारण का उल्लेख किया है। वह है नाड़ी या नरवस एनर्जी की कमजोरी। कब्ज वालों का नाड़ी बल नारमल नहीं होता। नाड़ीबल के ह्रास का मुख्य कारण है- त्रुटिमय अस्वाभाविक आहार-विहार। अस्वाभाविक आहार-विहार से अपच, अपच से कब्ज, कब्ज से नाड़ियों की खराबी, नाड़ियों की खराबी से पुनः कब्ज। फिर इन सबों से विचारों की दृढ़ता की कमी और इस कमी से अन्यान्य खराबियां। वर्मा जी लिखते हैं—
‘‘कब्ज का प्रधान कारण और सच्चा कारण नाड़ीबल की कमी है और कब्ज के दूर करने के उपायों में नाड़ियों को स्वस्थ और सक्रिय रखने और बनाने के उपायों को प्रधानता मिलनी चाहिये।’’
(7) जल्दबाजी— आधुनिक सभ्यता ने हमें एक और अभिशाप दिया है- जल्दबाजी। हमारे पास अवकाश की कमी रहती है। अतः हम अपना सब कार्य जल्दी-जल्दी सम्पन्न कर लेना चाहते हैं। हम जल्दी खाना खाकर पतलून या नेकर पहनते हैं। पेट कस जाता है। उदर जो अपना कार्य प्रारम्भ करता था, भिच जाता है। सूक्ष्म नाड़ियां कस जाती हैं तथा पूर्ण फैल कर पाचन-क्रिया उत्तमता से नहीं कर पातीं उनके कार्य में रुकावट उत्पन्न हो जाती है। अतः कब्ज के रूप में हमें वह अभिशाप भुगतना पड़ता है। भोजन के पश्चात् हम जल्दी-जल्दी दफ्तर भागते हैं। खाना खाने के पश्चात् तेज चलने से अधपचा ही भोजन पेट से आंतों में चला जाता है। पेट के आन्तरिक अवयव विक्षुब्ध हो उठते हैं। अन्दर का जल हिलने लगता है और पेट में भारीपन प्रतीत होता है। कुछ दिन इसी प्रकार का क्रम चलने से पाचन बिगड़ जाता है, तथा कब्ज हो जाता है। अव्यवस्था, अत्यधिक चिन्ता, मानसिक दुःख, क्लेश, दफ्तर में किसी विशेष बात का डर, अधिक भाग दौड़, झुककर बैठना, पेट को दबाये रखना, पेटी बांधना या घोड़ों की तरह अंग्रेजी कपड़ों से कसे रहना—ये सब कुछ न कुछ अंशों में कब्ज की स्थिति उत्पन्न करने वाले तत्व हैं। सावधान रहें!
(8) अधिक दवाई लेने की आदत— जीर्ण कब्ज के रोगी हर रोज रात्रि में कुछ न कुछ कब्ज नाशक पदार्थ- कोई चूर्ण, अंग्रेजी दवाई अथवा अन्य कोई औषधि लेकर शय्या ग्रहण करते हैं। उन्हें भय रहता है कि दूसरे दिन किस प्रकार शौच होगा। कब्ज का ध्यान उन्हें लगातार भूत की भांति मारे डालता है। यह चिन्तन स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकर है। इससे उदर के अवयवों तथा आन्तरिक क्रियाओं पर दूषित प्रभाव पड़ता है। यदि हम यह सोचते रहेंगे- ‘‘मुझे कब्ज की पुरानी शिकायत है, मुझे टट्टी साफ नहीं आती है, आज मैंने चूर्ण नहीं लिया है, अतः मुझे पाखाना न होगा, कल कैसे पड़ेगी, सारे दिन सर दर्द रहेगा।’’ इन दूषित भावनाओं के फलस्वरूप गुप्त मानसिक प्रतिक्रिया द्वारा अन्दरूनी अवयव भी निज कार्य छोड़ देते हैं। कब्ज बना रहता है।
रोज-रोज दबाई लेने की आदत घातक है। उस व्यक्ति की कल्पना कीजिए, जो चूर्ण-चटनियों से जेब भरे हुये हैं। प्रति भोजन के पश्चात् कुछ न कुछ दस्तावर दवाई लेता है। हमारे यहां एक ऐसे प्रोफेसर हैं, जो दिन में चार बार हींग फांकते हैं, कुछ क्रूशन साल्ट या वेड पिल लेते हैं। दवाई द्वारा पाचन की सहायता करना पाचन यन्त्रों के स्वाभाविक स्वास्थ्य को नष्ट करना है। जिस अंग को व्यायाम नहीं मिलता, खुद स्वाभाविक रूप से कार्य करने को अवसर प्राप्त नहीं होता, वह स्वभावतः क्षीण हो जाता है। पाचन की दवाइयों के कारण पेट अपनी पूर्ण शक्ति का उपयोग कर भोजन को पचा देने का कार्य नहीं कर पाता। उसे कृत्रिम सहायता प्राप्त होती रहती है। वह उस निर्बल व्यक्ति की तरह है जो बाहरी शक्ति की प्रतीक्षा किया करता है और स्वयं निज शक्ति के प्रति वीतराग रहता है। अधिक सहायता से स्वाभाविक शक्ति का ह्रास होना स्पष्ट है। वे लोग मूर्ख हैं जो मिथ्या भय के कारण पुनः पुनः औषधियों के प्रयोग द्वारा पेट के स्वास्थ्य को नष्ट कर रहे हैं। आंतों को निरन्तर निर्बल बाह्य सहायता पर अवलम्बित रखने वाला निरुपाय निश्चेष्ट, निज शक्ति शून्य, अंग बना लेना- जीर्ण कब्ज को न्यौता देना है।
(9) कब्ज के भेद— प्रायः कब्ज दो प्रकार के होते हैं। 1. छोटी आंतों का कब्ज, (2) बड़ी आंत का कब्ज।
छोटी आंतों का कब्ज- इसका प्रारम्भ छोटी आंतों से ही होता है। आमाशय में तीन-चार घण्टे में पच कर भोजन धीरे-धीरे छोटी आंतों में आता है और यहां भी इसके पचाने की क्रिया चलती है। पचे हुए भाग का अभिशोषण छोटी आंत धीरे-धीरे करती है। यदि इस क्रिया में स्वाभाविकता से अधिक समय लगे, और भोजन करने के 3 घण्टे के पश्चात् पेट में भारीपन मालूम हो, तो इस श्रेणी का कब्ज के पश्चात् पेट में भारीपन मालूम हो, तो इस श्रेणी का कब्ज भानना चाहिये।
बड़ी आंत का कब्ज- छोटी आंत तो अपना कार्य ठीक तरह करती है। 3-4 घण्टे में भोजन को पचा कर बड़ी आंत के पास भेज देती है किन्तु बड़ी आंत से निकलने में मल को आवश्यकता से अधिक समय लग जाता है। साधारणतः यह मल 16 घण्टे में बाहर निकलता है। डॉक्टर एस. सी. दास के अनुसार स्वस्थ मनुष्य के शरीर में भोजन के इस पचे भाग अथवा मल को बाहर आने में 20 घण्टे से अधिक नहीं लगना चाहिए प्रत्येक भोजन के पाचन के पश्चात् बचे भाग को 24 घण्टे के अन्दर बाहर निकल जाना चाहिये। जीर्ण कब्ज- जब आप अपनी चिकित्सा करने निकलें तो सर्व प्रथम यह निर्णय कीजिये कि आपको कैसी कब्ज है? कभी-कभी कब्ज का रोग पुराना पड़ जाता है। स्वाभाविक भूख मारी जाती है। मनुष्य सूखने लगता है, भोजन की ओर रुचि नहीं होती, तबियत गिरी-गिरी सी रहती है, जब तक कोई दस्त की दवाई न ली जाय, शौच नहीं होता। इसका कारण आंतों में पहुंची हुई अत्यधिक खुश्की है। जो व्यक्ति रेचक पदार्थों के उपयोग के आदि होते हैं, उन्हें जीर्ण कब्ज हो जाता है।
कब्ज की पहिचान कैसे करें?- डॉक्टर एस. सी. दास ने कब्ज किस प्रकार का है? यह पहिचानने के लिये निम्न उपाय निर्देश किया है। प्रथम श्रेणी की कोष्ठबद्धता में कोयले की सहायता लेनी चाहिये। कोयला ऐसा पदार्थ है जो पचता नहीं, ज्यों का त्यों मल के साथ बाहर आ जाता है। कुछ कोयला पीस लीजिये जिस रोगी की परीक्षा करनी हो, उसे भोजन के साथ प्रात काल पिसा कोयला भी फंकी दीजिए, कुछ जलपान करा दीजिये। कोयला पचेगा नहीं, मल के साथ उसका निष्कासन अवश्यम्भावी है। अगर रोगी को छोटी आंत का कब्ज होगा तो शौच समय से आते रहने पर भी कोयला मल में बहुत देर से आवेगा।
दूसरे प्रकार का कब्ज होने पर शौच के पश्चात् रोगी को पेट में खालीपन तथा आराम का अनुभव न होगा। उसे ऐसा अनुभव होगा जैसे पेट में अब भी कुछ मल अवशेष रह गया है। जिसे निकालने में वह सफल नहीं हो रहा है। किन्तु इस लक्षण के अभाव का अर्थ यह नहीं कि कब्ज नहीं रहता। यह भी हो सकता है कि मल निष्कासन का भाग क्रमशः इतना चेतनाहीन हो जाय कि मल एकत्रित रहने पर भी इसका ज्ञान मनुष्य को न रहे। जब मल से जल का अंश विलुप्त हो जाय और कड़ापन आने लगे तो स्पष्ट ही है कि बड़ी आंत ने सब जलीय अंश सोख लिया है। कब्ज के रोगी की आंतों को, शौच के पश्चात् डाक्टरी परीक्षा करके देखने पर ज्ञात हुआ है कि शौचादि के पश्चात् भी आंतों में यथेष्ट मल शेष था। अतएव कब्ज की सही पहिचान के लिये चिकित्सक को, या स्वयं हमें शौच बाहर करने की शक्ति, पेट की आन्तरिक अवस्था, मल मार्ग, मल तथा शौच के पश्चात् की स्थिति द्वारा निर्णय करना श्रेयस्कर है।
डॉक्टर एस.सी. दास लिखते हैं- पेट, आंतों, मांस, पेशियों की कमजोरी के कारण अथवा स्नायु शक्ति की न्यूनता के कारण, शक्ति अपर्याप्त हो जाने से कब्ज होते देर नहीं लगती है। इस प्रकार बाहर या भीतर मल मार्ग में किसी गांठ के, या गर्भिणी के गर्भ, या अन्य गांठों के कारण भी कब्ज रहने लगता है। मल के, जिसे आंतों में से होकर आना पड़ता है, कड़े होने पर भी कब्ज होता है।’’
कब्ज के कारणों पर प्रकाश।
‘‘अधिकांश लोगों के कब्ज का कारण केवल शरीर की अक्रियाशीलता है। उन्हें इसलिए कब्ज नहीं रहता कि अन्न प्रणाली में कोई विशेष रोग हो गया है, अथवा शरीर में किसी प्रकार की खराबी उत्पन्न हो गई है। कब्ज का कारण उनकी गलत आदतें हैं और हम उन्हें आसानी से सुधार सकते हैं। कार्याधिक्य के कारण हाजत होने पर भी शौच के लिये न जाना, शर्म की वजह से शौच की हाजत को रोके रहना कब्ज का कारण है। शहरों में जहां ऐसे धन्धे हैं, जिसमें आदमी, को एक स्थान पर बैठ कर काम करना पड़ता है, स्वभावतः कब्ज पैदा होता है।’’
—डॉक्टर एस.सी. दास।
‘‘कोष्ठबद्धता खासकर अनियमित खान पान से ही हुआ करती है। हम सब अन्न की भूसी निकाल देते हैं। सब तरकारियां छील कर खाते हैं। इनसे हमारी आंतों को एक विशेष प्रकार की सहायता मिलती है, पर हम अज्ञानवश इन्हें निकाल डालते हैं। मशीन द्वारा पिसे आटे का असल तत्व नष्ट हो जाता है। दाल के भी छिलके उड़ा दिये जाते हैं। इससे कोष्ठबद्धता होती है। दूसरा कारण आधुनिक रहन सहन भी है जिसमें अधिक बैठे रहना पड़ता है। 3-उदर की मांस तन्तुओं की कमजोरी, 4-ज्ञान तन्तुओं की कमजोरी, 5-उठने बैठने चलने, सोने का गलत तरीका, 6-कम जल पीना, 7-चिन्ता, 8- ताजी हवा की कमी, 9-उचित व्यायाम का अभाव, 10-तंग कपड़े पहनना, 11-अधिक मानसिक परिश्रम तथा बुरे विचार, 12-प्रकृति के विरुद्ध आचरण, 13-दुर्व्यसन, 14-ब्रह्मचर्य का अभाव, 15- भोजन में हरे शाक और फल का अभाव, 16-रेचक दवाइयों का ज्यादा व्यवहार है। इन सबों में चिन्ता प्रधान है।
—श्री दीनेश्वर नारायण शर्मा।
‘‘भोजन सम्बन्धी त्रुटियों और व्यायाम के अभाव से कब्ज होता है। यदि खाद्य पदार्थों में आटे के चोकर या बहुत सी भाजी और फलों के छिलके का फोक या रूखी चीज न हो, अगर बिना चबाये ही खाई हुई वस्तु गले के नीचे उतार दी गई, बिना भूख के कुछ खाया गया, अति भोजन किया गया........शक्ति के अनुसार व्यायाम न किया गया तो अपच के कारण भी कब्ज होगा।’’
—श्री जानकी शरण वर्मा।
‘‘जब हमारा भोजन भली प्रकार चबाया न जाय, तो उसके कण बड़े-बड़े रह जायेंगे। आंतों का पाचन रस इन कणों को घुलाने में लग जाता है और कब्ज हो जाता है। चाय पीने से कब्ज होता है। भोजन के पश्चात् मानसिक परिश्रम करने वाले को भी कब्ज हो जाता है। उस समय रक्त का दौरा पेट में होना चाहिए, मस्तिष्क में नहीं। रात्रि में सोते समय यदि रीढ़ की हड्डी सीधी न रहे तो कब्ज हो जाता है। कुपथ्य भोजन के कारण बहुधा आंतों में खुश्की आ जाती है और कब्ज हो जाता है।’’
—श्री भगवती प्रसाद जी बी.ए.।
‘‘कब्ज के मूल कारण इस प्रकार हैं— 1. बिना भूख के भोजन करना, 2. भूख से अधिक ठूंस-ठूंस कर खाना, 3. प्रायः पूड़ी-कचौड़ी, तेल और घी में भुनी हुई चीजें, जो शरीर में खटाई उत्पन्न करे खाना, 4. भोजन के साथ अधिक पेय चीजों का प्रयोग, 5. खूब चबा-चबाकर भोजन न करना, 6. दिन में कम पानी पीना, 7. दिनभर तकिये के सहारे गद्दी पर बैठे रहना, निष्क्रिय बने रहना, 8. आवश्यक व्यायाम न करना, 9. नित्यप्रति स्वच्छ वायु सेवन न करना, 10. चाय, बिस्कुट, केक, मैदा की बनी चीजें, मिर्च-मसाले, चीनी का अधिक प्रयोग, 11. मशीन में साफ किया हुआ, कण रहित चावल, चोकर निकले हुए आटे की रोटी या छिलके उतार कर पकाई जाने वाली शाक दाल भाजियां कब्ज करती हैं।’’
—स्वामी कृष्णानन्दजी।
‘‘मनुष्यों को ही घण्टों पाखाने में बैठने की जरूरत पड़ती है। इसका कारण है उनका अप्राकृतिक जीवन। गद्दी पर सुबह से शाम तक बैठे रहने वाले दुकानदार अथवा आफिस में झुक कर आठ घण्टे काम करने वाले क्लर्क के पेट की मांस पेशियां शिथिल न होंगी, तो और किसकी होंगी?’’
—डॉक्टर विट्ठलदास मोदी।
‘‘हाजत की परवाह न करना कब्ज का प्रधान कारण है। बार-बार की लापरवाही से मलद्वार के स्नायुओं की चेतना घटने लगती है। पूरा पानी न पीना बहुतों को कब्ज का कारण होता है। इसके अतिरिक्त शारीरिक व्यायाम की अवहेलना भी कब्ज का कारण होता है। बिना किसी औषधि की सहायता के आंतों को अपना काम करने के लिये तैयार किया जा सकता है। आहार के फेर फार और स्वास्थ्य सम्बन्धी कुछ विषयों के पालने से कब्ज पर सहज ही विजय पाई जा सकती है।’’
—डॉक्टर कुलरंजन मुकर्जी।
प्रत्येक बीमार मूर्ख होता है।
रोगी होने के पूर्व की मनोस्थिति को मैं मूर्खता कहता हूं। किसी न किसी रूप में, कभी न कभी, रोगी होने वाला प्रत्येक व्यक्ति मूर्खता करता है, प्रकृति के किसी नियम का उल्लंघन करता है, अपने शरीर अथवा मस्तिष्क की सीमित शक्ति का विचार न कर निरन्तर कार्य में जुटा रहता है। शक्ति का अपव्यय करने वाले को आप मूर्ख के सिवा दूसरी क्या उपाधि देंगे?
आपके अंग प्रत्यंग की शक्तियां अत्यन्त सीमित हैं। प्रायः प्रत्येक मशीन की शक्ति सीमित होती है। उसकी ताकत की जांच करली जाती है। जो तोपें गोलाबारी के लिए तैयार की जाती हैं, सर्व प्रथम उनके अन्दर अच्छी तरह बारूद भर कर जांच कर लेते हैं कि कहीं बारूद के आधिक्य से वे फट तो नहीं जातीं। इन्हीं जंची तोपों को लड़ाई को मैदान में ले जाकर गोलाबारी की जाती है। रेल के इंजन का भी यही हाल है। जहां बीस घोड़ों वाले इंजन की आवश्यकता होगी वहां तीस घोड़ों वाले इंजन का उपयोग किया जाता है। इसी प्रकार कोई भी कार्य करने में असमर्थ हो जाने की दशा में पहुंचने तक यदि हम अपने शरीर की सुध न लें और उससे अधिकाधिक कार्य लेते जायं तो हम प्रथम श्रेणी के मूर्ख हैं। इससे गुरुतर त्रुटि क्या होगी?
अपनी शक्तियों से हद से कम ही काम लेना बुद्धिमानी होगी। शक्तियों को पंगु कर देना और दुःखदायी स्थिति में फंस कर वैद्यों को फीस तथा दवा के दाम चुकाते रहने से यही उत्तम है कि कुछ देर कार्य के स्थगित कर विश्राम-पूर्ण विश्राम ले लिया जाय, और प्रकृति माता को व्यर्थ में नाराज न किया जाय। सीमा से किंचित् मात्र भी अधिक शक्ति व्यय करने से प्रकृति रुष्ट होती है, चेतावनी देती है और यदि हम नहीं मानते हैं तो उग्र रूप धारण कर सजा देती है।
प्रकृति के नियम कठोर भी हैं और मधुर भी। उसके नियमों को तोड़कर आप कदापि सुखी नहीं रह सकते। यदि हम प्रकृति माता को उपासना में दत्तचित्त रहें तो स्वास्थ्य पूर्ण जीवन प्राप्त कर सकते हैं। जैसे आप कार्य के निमित्त भांति-भांति की योजनाएं बताते हैं उसी भांति आनन्दपूर्वक विश्रांत की योजना से जीवन और निरोगता प्राप्त होती है।
हरे-भरे खेत, पशु पक्षी, वृक्ष तथा अन्य जीवों को देखिये। वे प्रकृति के नियमों को तोड़कर रात-रात भर सिनेमा नहीं देखते, चाय, सिगरेट-अफीम, गांजा, चरस, नहीं पीते, पकवान से पेट नहीं भरते, बिजली की रोशनी में आंखों से काम नहीं लेते, धन-दौलत के बदले आरोग्य को लात नहीं मारते। आरोग्य एवं आयु के बदले जो द्रव्य प्राप्त होता है वह कांच के क्षुद्र टुकड़ों के सदृश्य है। ऐसा व्यक्ति बहुमूल्य मणि के बदले कांच लेता है।
क्रिया और तत्पश्चात् विश्रान्ति—प्रकृति के इन दो अकाट्य नियमों का सदैव स्मरण रखिये। दोनों में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। एक के बिना दूसरा पंगु है। जो केवल क्रिया ही क्रिया करते हैं उनका शीघ्र क्षय होता है, उन्हें बुढ़ापा शीघ्र आ दबाता है। इसके विपरीत, जो जीवन में विश्रान्ति की भी अनुकूल योजना करते हैं वे अधिक काल तक स्वास्थ्यमय जीवन भोगते हैं।
दीर्घ जीवन और पूर्ण विश्राम के लिये, बेफिक्र होकर विश्रान्ति से लाभ प्राप्त कीजिये। विश्रान्ति के द्वारा पोषित होकर आपकी शक्तियां नवजीवन प्राप्त कर सकेंगी। जिस प्रकार बैंकों में ‘‘रिजर्व फण्ड’’ रहता है आप भी अपने शक्ति संचय पर ध्यान रखें, उस स्थायी कोष की समय-समय पर अभिवृद्धि करते रहें और नित्यप्रति की आवश्यकताओं से बचाकर आने के निमित्त संचित रखें। जो मनुष्य युवावस्था में आरोग्य और बल का संग्रह करते रहते हैं, योंही प्रलोभन के वशीभूत होकर व्यर्थ व्यय नहीं कर देते, वे वृद्धावस्था में भी यथेष्ट बलवान होते हैं और जल्दी यमराज के अतिथि नहीं बनते। कभी-कभी साधारण वातावरण में भी विभिन्न कारणों से व्याधि फूट पड़ती है। ऐसे कठिन प्रसंगों में यह संचित शक्ति काम आती है। आप जितना कमाते हैं, उससे कम व्यय करते हैं, इसी भांति आवश्यकता से अधिक बल का संग्रह आपके लिये एक अत्यन्त आवश्यक तत्व है।
नशीली वस्तुएं उत्तेजना फैलाकर इतनी तेजी पैदा करती हैं जिससे प्रतीत होता है मानो हम शक्ति के ज्योतिर्मय पिंड हैं। क्षणिक जीवन में आकर व्यसनी व्यक्ति अपेक्षाकृत अधिक शक्ति व्यय कर डालता है, और फिर पछताता है। हम में जितना बल आवे उतना ही नित्य व्यय कर देना कोई बुद्धिमानी नहीं। अतएव जीवन-यात्रा में हमें इस प्रकार अग्रसर होना चाहिए कि थोड़ी थोड़ी शक्ति प्रतिदिन संचित होती चले।
उत्तेजक मनोविकारों से अपनी मनःशक्ति की रक्षा करो। उनसे आयु क्षीण होती है। रोगों का आक्रमण होता है। आवेश और विक्षोभ तुम्हें मूर्ख बनाकर बीमारी का शिकार बनाते हैं। घृणा, कामुकता, क्रोध और द्वेष इत्यादि तीव्र विकारों से अपने को बचाओ। ये तुम्हारे अन्तःकरण में भयंकर तूफान मचाकर क्षण भर में सारे दिन की समता एवं शान्ति को भंग कर देते और जीवन में प्रेम और मृदुता की मात्रा को क्षीण करते हैं। इन विकृत विचारों से मुक्त होकर अन्तःकरण विशुद्ध एवं निर्मल हो जाता है तब मनुष्य स्वयं अनुभव करता है कि बीमारी तमोगुण के गहन अन्धकार से आच्छादित विक्षिप्त बुद्धि का एक क्षुद्र उपहास मात्र है।
आजकल डॉक्टर, हकीम, वैद्यों के पास सबसे अधिक रोगी कब्ज के पहुंचते हैं। दवाइयों में सबसे अधिक ऐसी दवाइयों का आविष्कार हुआ है, जिनसे सरलता से कब्ज दूर हो जाय। गोली, फंकी, आसव, काढ़े, चूरन-चटनी, कास्ट्रोयल, फ्रूट साल्ट, मैकसेल्फ, जमालगोटा, कारमिनेटिव मिक्श्चर—इत्यादि न जाने कितनी चीज आजकल कब्ज दूर करने के लिए चल रही हैं। इतने पर भी कब्ज नागरिक जीवन का प्रमुख अभिशाप बना ही हुआ है। यह धनवानों या तड़क-भड़क के संघर्षशील, घने बसे हुये शहरों में रहने वाले अमीरों, आलसी, तथा विलासप्रिय युवक, निठल्ली औरतों को हुआ करता है।
रोगों की पूर्व स्थिति कब्ज है— कब्ज स्वयं कोई रोग नहीं है, आने वाले बड़े भयंकर रोगों की पूर्व स्थिति है। इससे रोगों का प्रारम्भ होता है। रोग एक प्रकार की प्रवृत्ति है, कूड़ा-करकट एकत्रित होने से, कीड़े उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार शरीर में मल एकत्रित होने से रक्त अधिक विकारमय बनता है। एकत्रित मल पदार्थों से जो जहरीली गैसें उत्पन्न होती हैं, उनसे स्वास्थ्य और प्रसन्नता तो मिट्टी में मिल ही जाते हैं, नये-नये रोग उत्पन्न होते हैं, शरीर के अंग विकारमय हो उठते हैं। यही अपबद्ध मल नाना प्रकार के छोटे बड़े रोगों में उद्भूत होता है। सभी रोग के मूल भाग में इस प्रारम्भिक स्थिति का अंश पाया जाता है।
कब्ज रोग नहीं है। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि यह अच्छा स्वास्थ्य न होने, या रोग उत्पन्न करने के लिये उत्पादक स्थिति है। यह बहु रूप धारण कर शरीर में नाना प्रकार के छोटे मोटे रोगों की उत्पत्ति करने वाला मिथ्याचारी भूत है। यह उस भय की भांति है जो नवीन रूपों में प्रादुर्भूत हो, हमें डरा देता है। कुछ और शक्ति पाकर यही षड्यंत्रकारी शत्रु उदर सम्बन्धी नाना विकारों में प्रस्फुटित होता है। प्रायः अन्य रोगों के साथ मिलकर चलता है। अन्य रोगों के साथ सम्मिलित होकर इसका वेग, शक्ति तथा उस रोग की जटिलता में अनावश्यक अभिवृद्धि हो उठती है। वह रोग तब तक दूर नहीं होता जब तक इस जड़मूल कारण को दूर न किया जाय। कब्ज से शरीर में सुस्ती छाई रहती है, काम में मन नहीं लगता, खुश्की बनी रहती है, निद्रा-प्रगाढ़ नहीं आती, क्षुधा प्रतीत नहीं होती, दिमाग उड़ता-सा रहता है, एकाग्रता नहीं रहती। कब्ज से कौन कौन रोग उत्पन्न होते हैं— कब्ज की मित्रता इन रोगों से विशेष रूप से है—स्वप्नदोष, अग्निमांद्यता, रक्ताभाव, बवासीर, पेचिश, स्मरण शक्ति का ह्रास, श्वेतप्रदर, मासिकधर्म की अनियमितता, सिर दर्द, कमर दर्द, नेत्र रोग, दन्त रोग। कब्ज होने का अभिप्राय मोटे तौर पर यह है कि शरीर से मल निष्कासन के एक महत्वपूर्ण अंग का काम मन्द पड़ गया है। साधारणतः फेफड़े, त्वचा, वृक्क, और आंतें मल बाहर फेंकती हैं, पर बड़ी आंत का कार्य सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।
कब्ज की शिकायत केवल रोगियों को ही नहीं, वरन् बाहर से मोटे, तगड़े और बलवान प्रतीत होने वाले व्यक्तियों को भी होती है। प्रत्येक सभ्य व्यक्ति अपने अप्राकृतिक जीवन, भोजन एवं आदतों के कारण, झूंठे दिखावे, फैशन और दिनचर्या के कारण, इस रोग की पूर्व स्थिति का शिकार है। ज्यों-ज्यों सभ्यता नाम की चीज (जिसमें थोथी शान, मिथ्या प्रदर्शन, अस्वाभाविकता, मसालों के व्यवहार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है) विकसित हो रही है, हम अपने भोजनों तथा आदतों में परिवर्तन कर रहे हैं, त्यों-त्यों कोष्ठबद्धता अभिवृद्धि पर है। बड़े-बड़े होटलों, रेस्टोरेन्टों या भोजनालयों में रसोइया मशीन बना दिये जाते हैं। सद्भाव का तत्व वे मानसिक प्रक्रिया द्वारा भोजन तत्व में मिश्रित नहीं कर पाते, सूखे व्यवहार के कारण वे जो कुछ पकाकर देते हैं, वह रोग उत्पन्न करता है। जिस भोजन में जितनी ही आत्मभाव की मृदुता होती है, वह उतना ही शीघ्रपाची और गुणकारी होता है।
कब्ज का व्यापक कुप्रभाव— कब्ज का प्रभाव शरीर के प्रत्येक अवयव पर पड़ता है। महिलाओं पर इसका बहुत दूषित प्रभाव पड़ता है। जिस सौन्दर्य के लिये वह इतनी लालायित रहती हैं, वह रक्त में मल के विकार फैल जाने से नष्ट होता है। त्वचा का रंग पीत वर्ण का हो जाता है। टमाटर जैसी सुर्खी के स्थान सूखा पीला मुख पड़ जाता है। कपोलों का सौन्दर्य विनष्ट हो जाता है। कभी-कभी आन्तरिक विकार फोड़े-फुन्सी या सफेद रंग के चकत्तों के रूप में बाहर त्वचा पर आ जाता है। नेत्रों की आभा नष्ट होने लगती है, दांतों के मसूड़े फूल उठते हैं। जो मुख पूर्ण स्वस्थ होने से पुष्प की भांति सुरभित रहता था, वह कोष्ठबद्धता के कारण म्लान और कान्तिहीन हो जाता है।
अंदरूनी सफाई हमारे स्वास्थ्य एवं सौन्दर्य का प्रधान कारण है। हम ऊपर से त्वचा को निखारने के लिए भले ही अनेक सौन्दर्य प्रसाधनों का उपयोग करते रहें, किन्तु जब तक आन्तरिक दृष्टि से हम अन्दरूनी मशीनों को साफ न रखेंगे, रक्त का वर्ण लाल न हो सकेगा। कोष्ठबद्धता का विष समग्र शरीर पर दूषित प्रभाव डालता है। जुलाब की त्रुटिपूर्ण आदत— कुछ व्यक्ति कहते हैं कि कब्ज दूर करने के लिये जुलाब लीजिये। कुछ हद तक ठीक हो सकता है किन्तु अधिक व्याधि में जुलाब काम नहीं करता। जुलाब की खोटी आदत पड़ जाने से आंतें स्वाभाविक गति से निज कार्य सम्पन्न नहीं कर पातीं। फिर उन्हें किसी न किसी जुलाब की आवश्यकता रहती है। सोचिये, जो आंतें स्वयं भोजन को पचाकर आपको बल, पौरुष, आयु, सौन्दर्य प्रदान करती हैं, उन्हीं को आप कृत्रिम सहायता देकर निर्बल बना रहे हैं। क्यों उनकी शक्ति नष्ट करते हैं? क्यों उन्हें सौ वर्ष तक पाचन कार्य स्वाभाविक रीति से नहीं करने देते?
जुलाब की आदत त्याग दीजिये। प्रकृति को अपने अंदर कार्य करने दीजिये। आप में इतनी शक्ति है कि सब कुछ स्वयं सम्पन्न हो सके। व्यर्थ ही कृत्रिम सहायताएं देकर क्यों अपने पांव में कुल्हाड़ी मारते हैं?
पाचन क्रिया सम्बन्धी आवश्यक जानकारी— कब्ज क्या है? इसके लिये प्रत्येक रोगी को आन्तरिक अवयवों के विषय में कुछ आवश्यक ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिये। मुख, आमाशय और छोटी आंतें मिलकर भोजन के पाचन अभिशोषण का कार्य करते हैं। मुख में भोजन को बारीक पीसा जाता है और लार व थूक मिश्रित होकर दूध जैसा तरल पदार्थ बन जाता है। इस प्रकार का तरल हिस्सा पच सकता है। जो व्यक्ति भोजन को उचित रीति से नहीं पीसते, दन्त रोगों या नशेबाजी के शौकीन होते हैं, या गर्मागर्म भोजन करने से जल्दी जल्दी टुकड़े निगल जाते हैं वे आमाशय पर बड़ा अत्याचार करते हैं। आमाशय में आने पर उसमें मथन क्रिया प्रारम्भ होती है। यहां इसे तीन-चार घण्टे लग जाते हैं। फिर वह धीरे-धीरे आंतों में आता है। यहां भी पाचन क्रिया चलती रहती है। छोटी आंतों में वह भोजन तरल अवस्था में रहता है और यहां पचे हुए भाग का अभिशोषण पूरी छोटी आंत धीरे-धीरे करती है। अभिशोषण के पश्चात् भोजन का अवशेष भाग, जो अब कुछ कम तरल रह जाता है, साधारणतः बड़ी आंतों में करीब 16 घण्टे में पहुंचता है। बड़ी आंत से गुजरते हुए जलीय भाग का शोषण हो जाता है। बहने का गुण कम हो जाता है। यहां तक कि बड़ी आंत के अन्तिम हिस्से में वह कड़ा-सा बन जाता है। इस हिस्से को मलधारक कहते हैं। जब यह कड़ा अवशेष भाग यहां एकत्रित हो जाता है, तो मलधारक इसकी सूचना नाड़ी केन्द्र के पास भेजता है तथा हमें शौचादि की आवश्यकता प्रतीत होती है।
शरीर शास्त्र के विशेषज्ञों का विचार है कि स्वस्थ मनुष्य के शरीर के भोजन के इस बचे हुए भाग या मल को आने में 24 घण्टे से अधिक नहीं लगने चाहिए। प्रत्येक भोजन के पाचन के बाद के बचे भाग को 24 घण्टे में बाहर निकल जाना चाहिये। यदि मनुष्य दिन में दो-तीन बार भोजन करे, तो यह निष्कर्ष निकलता है, कि बचा हुआ मल भाग भी दो-तीन बार बाहर आना उचित है। डॉक्टर एस.सी. दास के अनुसार निम्न अवस्थाओं में समझना चाहिए कि कब्ज है।
कम बार शौच जाना— यों तो प्रत्येक व्यक्ति की दिनचर्या और पेशों के अनुसार बहुत से भेद प्रभेद हो सकते हैं किन्तु साधारण स्थिति में व्यक्तिगत भेदों अथवा विशिष्टताओं का ध्यान रखते हुये यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि जिसे 24 घण्टों में एक बार भी शौच न हो तो उसे कोष्ठबद्धता समझनी चाहिए।
मल की मात्रा में कमी— हो सकता है कि किसी व्यक्ति को कई बार शौच हो पर मल की मात्रा में न्यूनता हो। मल की मात्रा में कमी होने का अभिप्राय यह है कि अधोगामी आंत और उसके आगे के भाग का सम्पूर्ण मल बाहर नहीं आता। अन्दर चिपकता है या सूख जाता है। सम्भव है मल का कुछ न कुछ भाग आंतों में समय से अधिक देर तक रुका रहे। ऐसी अवस्था में दिन में दो-तीन बार भी हाजत होने पर पूरे कोठे की सफाई नहीं हो पाती। आंतों की मल को फेंकने की शक्ति मारी जाने लगती है। उसमें चिकनाहट की कमी होती है। प्रायः इसी प्रकार के कब्ज से लोग पीड़ित रहते हैं। दो-तीन बार शौच को जाते हैं, केवल दो एक सुद्दे निकल कर रह जाते हैं, हांफते-हांफते निकलते हैं, पेट भारी बना रहता है। अधिकतर लोग इसी प्रकार के कब्ज से पीड़ित पाये जाते हैं। डॉक्टर एस.सी. दास का विचार है कि किसी को दो-तीन या अधिक बार भी शौच हो, तो यह भी समझना चाहिये कि वह कब्ज से निश्चयात्मक रूप से मुक्त है।
नमी की कमी— ऊपर कहा जा चुका है कि छोटी आंतों में भोजन तरल अवस्था में रहता है। बड़ी आंतों में गुजरते हुए इसका केवल जलीय भाग बड़ी आंत सोख लेती है। उस समय मल की तरलता कम हो जाती है। मल सूख कर कड़ा पड़ जाता है। मल धारक उसे निकाल कर बाहर नहीं फेंक पाता। मनुष्य को बहुत जोर लगाना पड़ता है, तब कहीं कुछ मल निकल पाता है। शौच होने पर भी यदि (1) टट्टी सूखी-सी आये, (2) सुद्दे आयें, (3) कठिनता और जोर लगाना पड़े, (4) देर तक टट्टी में बैठना पड़े, (5) या बार-बार जोर लगाने से टट्टी न आये और हाजत बनी रहे, (6) आंतों में मल के रुके रहने से बदबूदार जहरीली गैसें निकलती रहें, तो उसे कब्ज समझना चाहिये।
हाजत की कमी— बड़ी आंत की यह विशेषता है कि यदि आपके भोजन में खुज्झा* यथेष्ट न हुआ, या खुश्की अधिक आ गई, तो फिर मल सरलता से बाहर नहीं आ पाता। प्रायः देखा गया है कि जो लोग कम पानी पीते हैं, या भोजन के साथ जल का बिलकुल भी प्रयोग नहीं करते हैं, उनकी पाचन क्रिया कम हो जाती है। मल अन्दर ही अन्दर बिलकुल सूख जाता है। कुछ दिन पश्चात् हाजत होनी ही बन्द हो जाती है। बड़ी आंत की मल निकालने की शक्ति मारी जाती है। आंत में मल का हिस्सा इधर उधर दीवालों पर चिपटता रहता है। यदि रोग जीर्ण हो जाय, तो यह मल दीवारों पर मोटी तहों के रूप में जम जाता है। संचित मल एकत्रित होकर सड़ता रहता है। श्री आनन्द वर्धन लिखते हैं—कभी-कभी तो मुर्दे चीरने पर उस आंत में दस पांच सेर तक मल इकट्ठा मिला है और कड़ा स्लेट की तरह का भी। जैसे, किसी रुकी हुई नाली के बीच में एक छेद कर दिया जाय, और कुछ पानी जाता रहे। बाकी नाली कड़े से ठस जाय और कूड़ा उसमें सड़ता चला जाय। मैला सड़ने में बदबू हो जाती है। अपावन वायु में अधिक बदबू हो तो जीर्ण कब्ज का रोगी समझना चाहिए।
[ *खुज्झा - गेहूं के आटे के चोकर में, चावल के कण में, फल तरकारियों के छिलकों में अधिक रहता है। हरी तरकारियों अमरूद, नासपाती, सेब इत्यादि में यह पर्याप्त मात्रा में रहता है। ]
कारणों का अध्ययन— संसार में जहां मल है, वहीं रोग है। मल का एक स्थान पर एकत्रित हो जाना भावी आशंका, रोग तथा किसी न किसी प्रकार की खराबी का द्योतक है। मल, मूत्र, थूक, खकार, सांस, छींक, पसीने द्वारा प्रकृति मानव शरीर से निरन्तर मल-निष्कासन कार्य करती रहती है। यदि मनुष्य प्राकृतिक भोजन खाकर प्राकृतिक जीवन व्यतीत करना चाहे, तो शरीर में मल पदार्थों को रुकने के निमित्त स्थान प्राप्त न होगा। हमारा आधुनिक जीवन कुछ ऐसा अप्राकृतिक हो गया है कि हमारे मल फेंकने वाले अवयव निज कार्य सतर्कता पूर्वक सम्पन्न नहीं कर पाते। इसके कारणों पर विस्तारपूर्वक विचार करना चाहिये।
(1) अप्राकृतिक भोजन— कब्ज का प्रमुख कारण अप्राकृतिक भोजन है। यहीं से खराबी प्रारम्भ होती है। हमारा भोजन संतुलित नहीं होता, हम जिह्वा के क्षणिक स्वाद के वशीभूत होकर अनेक वस्तुएं खाते हैं, जिसके कारण पेट में दो प्रकार की खराबियां उत्पन्न हो जाती हैं। 1- परिणाम से अधिक भोजन का बैठना, 2- बासी, मसालेदार, चटपटे, तेज खटाई-मिठाई से परिपूर्ण हानिप्रद मिश्रण। हमारे यहां भोजन कर लेना एक तरह का पाप काट लेना है। लोग जल्दी-जल्दी उसे पूर्ण कर डालना चाहते हैं। आफिस के क्लर्क, वकील, विद्यार्थी, अध्यापक, रेलवे के कर्मचारी, व्यापारी इत्यादि शीघ्रता से भोजन करते हैं। भोजन दांतों के द्वारा न तो पर्याप्त मात्रा में चबाया ही जाता है, तथा न उसमें पाचन करने वाली लार का समुचित मिश्रण ही हो पाता है। पतलून पहनने के कारण पेट पकड़ा रहता है। आन्तरिक अवयव निर्विघ्नता से निज कार्य सम्पन्न नहीं कर पाते। अतः पेट के आन्तरिक कार्य में अड़चनें आती हैं। कुछ व्यक्ति भोजन के पश्चात् यकायक तेजी से चलने लगते हैं। अथवा साईकिल पर सवार होकर भागते हैं। इससे अंदरूनी शारीरिक क्रियाओं में व्यवधान उपस्थित हो जाता हैं। पाचन में रुकावट उपस्थित हो जाती है।
(2) व्यायाम की न्यूनता— कब्ज का एक प्रमुख कारण पर्याप्त व्यायाम या क्रियाशील जीवन की न्यूनता है। कल्पना कीजिये उस सेठजी की जो भोजन करके आये हैं, गद्दी तकिये के सहारे बैठे पान खा रहे हैं, हुक्का मुंह से लगा हुआ है, रेडियो सुन रहे हैं। धीरे-धीरे भोजन की अधिकता के कारण नेत्र मूंदे जाते हैं। सेठजी वहीं लम्बे लेट जाते हैं। खर्राटे लेने लगते हैं। जगाये कौन? देर तक सोते रहते हैं। आंखें खुलती हैं तो देखते हैं चार बजने आये। सुस्ती मिटाने के, लिए भी कुछ चाहिए, नमकीन मिठाई वाला आ निकलता है। वह आकर बैठा, और लगा समोसे, दाल-मोठ, बताशे, सेब इत्यादि चखाने, कुछ मिठाई भी उसके पास हैं। सेठजी पहले नमकीन लेते हैं। जब तेज मिर्च लगती है तो मिठाई चखते हैं। चखने से आनन्द प्रतीत होता है, प्रलोभन में वृद्धि होती है। फिर तो मन का नियन्त्रण जाता रहता है और आवश्यकता से अधिक मिठाई खा चुकते हैं। दो घण्टे पश्चात् पेट भारी-भारी प्रतीत होता है, खट्टी डकारें आती हैं, उलटी भी मालूम होती है। नौकर रोज-रोज हकीम के पास से चूर्ण लाता है। शाम तक थोड़ा-थोड़ा चूर्ण खाकर किसी प्रकार से सायंकाल तक पेट हलका हो जाता है।
(3) आलस्यपूर्ण जीवन— सेठजी के कार्यक्रम में अनेक दोष हैं। वे जिव्हा के वश में हैं रुपया अधिक है। अतः उनका प्रलोभन सरलता से पूर्ण हो जाता है। चाहे जब कुछ खा बैठते हैं। वे भोजन के सम्बन्ध में अनियमित, लापरवाह, बेमेल, अप्राकृतिक हैं। उनके जीवन में क्रियाशीलता-(चलना फिरना, घूमना, दौड़ना या टहलना, घर गृहस्थी के साधारण कार्य, बाजार से वस्तुएं लाना, खेल खेलना, कसरत या तैरना) है ही नहीं। जब शरीर को हरकत करने का अवसर प्राप्त न होगा, उससे कार्य न लिया जायगा, तो निश्चय ही वह निष्क्रिय और निश्चेष्ट, आलसी रोगी हो जायगा। शरीर के अवयवों का एक गुप्त नियम है कि जिस अवयव से पर्याप्त कार्य लिया जाता है, वह पनपता है सुदृढ़ और स्वस्थ रहता है। उसमें नवीन शक्ति का आविर्भाव होता है। इसके विपरीत जिस अवयव को व्यर्थ छोड़ दिया जाता है, वह शिथिल होकर रोगी आलसी बन जाता है। क्रियाशीलता के अभाव में पेट की अन्दरूनी मशीनरी भी शिथिल होने लगती है। पाचन भी निर्बल हो जाता है। अनेक बार शरीर का एक ही स्थान पर टिके रहना, आलसी बैठे रहना, निठल्ले रहना, अधिक सोना, किसी विशेष तरह बैठना, जैसे उकड़ूं बैठना, या पालती मारे रहना, या पतलून-नेकर की पेटी से पेट कस कर कुर्सी पर विराजे रहने से कब्ज उत्पन्न होता है।
(4) जल के प्रयोग में कमी— हमारी आंतें जल के समान बहने वाले पदार्थों को सरलता से पचाती हैं। छोटे बच्चे केवल दूध पीकर ही निर्वाह करते हैं। प्रकृति ने हमें दांत इसलिए दिये हैं कि हम भोजन की महीन पीस कर उसमें लार और पानी मिश्रित कर उसे दूध के समान बहने वाला पदार्थ बना डालें। इस प्रकार का द्रव्य सरलता से आंतें ग्रहण कर सकेंगी।
अनेक बार कम जल पीने या भोजन के साथ पीने वाले पदार्थों की कमी के कारण सख्त भोजन अन्दर पहुंचता है। इसके कारण अंतड़ियां ठीक तरह नहीं चल पातीं। उन्हें जल चाहिये। जो व्यक्ति कम जल पीते हैं, या भोजन के समय जल का प्रयोग ही नहीं करते, वे कब्ज से पीड़ित रहते हैं। यदि भोजन के साथ आप जल पीने के आदी न हों, तो आधे घण्टे पश्चात् तो अवश्य ही जल का प्रयोग होना उचित है। अपर्याप्त चबाया हुआ सूखा भोजन आंतों से नहीं पच पाता। न तो आंतों के पास दांत हैं, न पानी के लिए कोई और आश्रय। इसलिए जब आंतें इन सूखे कणों को पाचक-रसों द्वारा घुलाने में संलग्न हो जाती हैं, तो स्वाभाविक रूप से उनकी गति मन्द पड़ जाती है, और कब्ज उत्पन्न हो जाता है। भोजन के साथ अधिक पानी पीना भी उतना ही हानिकर है, जितना कम पीना। यदि अधिक पानी होगा, तो पाचक रस पानी में इतने घुल जायेंगे कि उनकी स्वाभाविक शक्ति ही विनष्ट हो जायेगी। कुछ व्यक्ति पुनः पुनः आदत के कारण भोजन के साथ अत्यधिक जल का प्रयोग करते हैं, यह भी हानिकर है। थोड़ा घूंट-घूंट कर पूरे स्वाद के साथ मुंह में रोक कर ग्रहण करना चाहिये।
(5) गरिष्ठ पदार्थ तथा नशे— जब भोज्य-पदार्थ छोटी आंतों में जाता है, तब पित्त इसमें मिश्रित होता है। पित्त घी-तेल इत्यादि गरिष्ठ पदार्थों को पचाने का कार्य करता है तथा जो अवशेष बच जाता है, वह रेचक का काम करता है। अतः घी-तेल अधिक खाया जायगा तो फालतू पित्त न बचेगा और कब्ज हो जायगा। यही कारण है कि आजकल जो व्यक्ति मिठाई, पकवान मिष्ठान्न तथा अन्य गरिष्ठ पदार्थ लेते हैं, कब्ज से परेशान रहते हैं। मिठाई, चाट-पकौड़ी घी में तरबतर पदार्थ खाने वाले सेठ, मिठाई बेचने वाले हलवाई और जिव्हा के चटोरे व्यक्ति प्रायः कब्ज के शिकार रहते हैं। मिठाई खाना उनकी आदत का एक अंश बन जाता है, जहां मिठाई देखते हैं, उनका मन फिसल जाता है। अनेक समझदार व्यक्ति अधिक शक्कर के उपयोग की मूर्खता जानकर भी इसे नहीं त्यागते।
(6) नाड़ी बल की कमजोरी— प्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सक श्री. जानकी शरण वर्मा ने कब्ज के एक और विशेष कारण का उल्लेख किया है। वह है नाड़ी या नरवस एनर्जी की कमजोरी। कब्ज वालों का नाड़ी बल नारमल नहीं होता। नाड़ीबल के ह्रास का मुख्य कारण है- त्रुटिमय अस्वाभाविक आहार-विहार। अस्वाभाविक आहार-विहार से अपच, अपच से कब्ज, कब्ज से नाड़ियों की खराबी, नाड़ियों की खराबी से पुनः कब्ज। फिर इन सबों से विचारों की दृढ़ता की कमी और इस कमी से अन्यान्य खराबियां। वर्मा जी लिखते हैं—
‘‘कब्ज का प्रधान कारण और सच्चा कारण नाड़ीबल की कमी है और कब्ज के दूर करने के उपायों में नाड़ियों को स्वस्थ और सक्रिय रखने और बनाने के उपायों को प्रधानता मिलनी चाहिये।’’
(7) जल्दबाजी— आधुनिक सभ्यता ने हमें एक और अभिशाप दिया है- जल्दबाजी। हमारे पास अवकाश की कमी रहती है। अतः हम अपना सब कार्य जल्दी-जल्दी सम्पन्न कर लेना चाहते हैं। हम जल्दी खाना खाकर पतलून या नेकर पहनते हैं। पेट कस जाता है। उदर जो अपना कार्य प्रारम्भ करता था, भिच जाता है। सूक्ष्म नाड़ियां कस जाती हैं तथा पूर्ण फैल कर पाचन-क्रिया उत्तमता से नहीं कर पातीं उनके कार्य में रुकावट उत्पन्न हो जाती है। अतः कब्ज के रूप में हमें वह अभिशाप भुगतना पड़ता है। भोजन के पश्चात् हम जल्दी-जल्दी दफ्तर भागते हैं। खाना खाने के पश्चात् तेज चलने से अधपचा ही भोजन पेट से आंतों में चला जाता है। पेट के आन्तरिक अवयव विक्षुब्ध हो उठते हैं। अन्दर का जल हिलने लगता है और पेट में भारीपन प्रतीत होता है। कुछ दिन इसी प्रकार का क्रम चलने से पाचन बिगड़ जाता है, तथा कब्ज हो जाता है। अव्यवस्था, अत्यधिक चिन्ता, मानसिक दुःख, क्लेश, दफ्तर में किसी विशेष बात का डर, अधिक भाग दौड़, झुककर बैठना, पेट को दबाये रखना, पेटी बांधना या घोड़ों की तरह अंग्रेजी कपड़ों से कसे रहना—ये सब कुछ न कुछ अंशों में कब्ज की स्थिति उत्पन्न करने वाले तत्व हैं। सावधान रहें!
(8) अधिक दवाई लेने की आदत— जीर्ण कब्ज के रोगी हर रोज रात्रि में कुछ न कुछ कब्ज नाशक पदार्थ- कोई चूर्ण, अंग्रेजी दवाई अथवा अन्य कोई औषधि लेकर शय्या ग्रहण करते हैं। उन्हें भय रहता है कि दूसरे दिन किस प्रकार शौच होगा। कब्ज का ध्यान उन्हें लगातार भूत की भांति मारे डालता है। यह चिन्तन स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकर है। इससे उदर के अवयवों तथा आन्तरिक क्रियाओं पर दूषित प्रभाव पड़ता है। यदि हम यह सोचते रहेंगे- ‘‘मुझे कब्ज की पुरानी शिकायत है, मुझे टट्टी साफ नहीं आती है, आज मैंने चूर्ण नहीं लिया है, अतः मुझे पाखाना न होगा, कल कैसे पड़ेगी, सारे दिन सर दर्द रहेगा।’’ इन दूषित भावनाओं के फलस्वरूप गुप्त मानसिक प्रतिक्रिया द्वारा अन्दरूनी अवयव भी निज कार्य छोड़ देते हैं। कब्ज बना रहता है।
रोज-रोज दबाई लेने की आदत घातक है। उस व्यक्ति की कल्पना कीजिए, जो चूर्ण-चटनियों से जेब भरे हुये हैं। प्रति भोजन के पश्चात् कुछ न कुछ दस्तावर दवाई लेता है। हमारे यहां एक ऐसे प्रोफेसर हैं, जो दिन में चार बार हींग फांकते हैं, कुछ क्रूशन साल्ट या वेड पिल लेते हैं। दवाई द्वारा पाचन की सहायता करना पाचन यन्त्रों के स्वाभाविक स्वास्थ्य को नष्ट करना है। जिस अंग को व्यायाम नहीं मिलता, खुद स्वाभाविक रूप से कार्य करने को अवसर प्राप्त नहीं होता, वह स्वभावतः क्षीण हो जाता है। पाचन की दवाइयों के कारण पेट अपनी पूर्ण शक्ति का उपयोग कर भोजन को पचा देने का कार्य नहीं कर पाता। उसे कृत्रिम सहायता प्राप्त होती रहती है। वह उस निर्बल व्यक्ति की तरह है जो बाहरी शक्ति की प्रतीक्षा किया करता है और स्वयं निज शक्ति के प्रति वीतराग रहता है। अधिक सहायता से स्वाभाविक शक्ति का ह्रास होना स्पष्ट है। वे लोग मूर्ख हैं जो मिथ्या भय के कारण पुनः पुनः औषधियों के प्रयोग द्वारा पेट के स्वास्थ्य को नष्ट कर रहे हैं। आंतों को निरन्तर निर्बल बाह्य सहायता पर अवलम्बित रखने वाला निरुपाय निश्चेष्ट, निज शक्ति शून्य, अंग बना लेना- जीर्ण कब्ज को न्यौता देना है।
(9) कब्ज के भेद— प्रायः कब्ज दो प्रकार के होते हैं। 1. छोटी आंतों का कब्ज, (2) बड़ी आंत का कब्ज।
छोटी आंतों का कब्ज- इसका प्रारम्भ छोटी आंतों से ही होता है। आमाशय में तीन-चार घण्टे में पच कर भोजन धीरे-धीरे छोटी आंतों में आता है और यहां भी इसके पचाने की क्रिया चलती है। पचे हुए भाग का अभिशोषण छोटी आंत धीरे-धीरे करती है। यदि इस क्रिया में स्वाभाविकता से अधिक समय लगे, और भोजन करने के 3 घण्टे के पश्चात् पेट में भारीपन मालूम हो, तो इस श्रेणी का कब्ज के पश्चात् पेट में भारीपन मालूम हो, तो इस श्रेणी का कब्ज भानना चाहिये।
बड़ी आंत का कब्ज- छोटी आंत तो अपना कार्य ठीक तरह करती है। 3-4 घण्टे में भोजन को पचा कर बड़ी आंत के पास भेज देती है किन्तु बड़ी आंत से निकलने में मल को आवश्यकता से अधिक समय लग जाता है। साधारणतः यह मल 16 घण्टे में बाहर निकलता है। डॉक्टर एस. सी. दास के अनुसार स्वस्थ मनुष्य के शरीर में भोजन के इस पचे भाग अथवा मल को बाहर आने में 20 घण्टे से अधिक नहीं लगना चाहिए प्रत्येक भोजन के पाचन के पश्चात् बचे भाग को 24 घण्टे के अन्दर बाहर निकल जाना चाहिये। जीर्ण कब्ज- जब आप अपनी चिकित्सा करने निकलें तो सर्व प्रथम यह निर्णय कीजिये कि आपको कैसी कब्ज है? कभी-कभी कब्ज का रोग पुराना पड़ जाता है। स्वाभाविक भूख मारी जाती है। मनुष्य सूखने लगता है, भोजन की ओर रुचि नहीं होती, तबियत गिरी-गिरी सी रहती है, जब तक कोई दस्त की दवाई न ली जाय, शौच नहीं होता। इसका कारण आंतों में पहुंची हुई अत्यधिक खुश्की है। जो व्यक्ति रेचक पदार्थों के उपयोग के आदि होते हैं, उन्हें जीर्ण कब्ज हो जाता है।
कब्ज की पहिचान कैसे करें?- डॉक्टर एस. सी. दास ने कब्ज किस प्रकार का है? यह पहिचानने के लिये निम्न उपाय निर्देश किया है। प्रथम श्रेणी की कोष्ठबद्धता में कोयले की सहायता लेनी चाहिये। कोयला ऐसा पदार्थ है जो पचता नहीं, ज्यों का त्यों मल के साथ बाहर आ जाता है। कुछ कोयला पीस लीजिये जिस रोगी की परीक्षा करनी हो, उसे भोजन के साथ प्रात काल पिसा कोयला भी फंकी दीजिए, कुछ जलपान करा दीजिये। कोयला पचेगा नहीं, मल के साथ उसका निष्कासन अवश्यम्भावी है। अगर रोगी को छोटी आंत का कब्ज होगा तो शौच समय से आते रहने पर भी कोयला मल में बहुत देर से आवेगा।
दूसरे प्रकार का कब्ज होने पर शौच के पश्चात् रोगी को पेट में खालीपन तथा आराम का अनुभव न होगा। उसे ऐसा अनुभव होगा जैसे पेट में अब भी कुछ मल अवशेष रह गया है। जिसे निकालने में वह सफल नहीं हो रहा है। किन्तु इस लक्षण के अभाव का अर्थ यह नहीं कि कब्ज नहीं रहता। यह भी हो सकता है कि मल निष्कासन का भाग क्रमशः इतना चेतनाहीन हो जाय कि मल एकत्रित रहने पर भी इसका ज्ञान मनुष्य को न रहे। जब मल से जल का अंश विलुप्त हो जाय और कड़ापन आने लगे तो स्पष्ट ही है कि बड़ी आंत ने सब जलीय अंश सोख लिया है। कब्ज के रोगी की आंतों को, शौच के पश्चात् डाक्टरी परीक्षा करके देखने पर ज्ञात हुआ है कि शौचादि के पश्चात् भी आंतों में यथेष्ट मल शेष था। अतएव कब्ज की सही पहिचान के लिये चिकित्सक को, या स्वयं हमें शौच बाहर करने की शक्ति, पेट की आन्तरिक अवस्था, मल मार्ग, मल तथा शौच के पश्चात् की स्थिति द्वारा निर्णय करना श्रेयस्कर है।
डॉक्टर एस.सी. दास लिखते हैं- पेट, आंतों, मांस, पेशियों की कमजोरी के कारण अथवा स्नायु शक्ति की न्यूनता के कारण, शक्ति अपर्याप्त हो जाने से कब्ज होते देर नहीं लगती है। इस प्रकार बाहर या भीतर मल मार्ग में किसी गांठ के, या गर्भिणी के गर्भ, या अन्य गांठों के कारण भी कब्ज रहने लगता है। मल के, जिसे आंतों में से होकर आना पड़ता है, कड़े होने पर भी कब्ज होता है।’’
कब्ज के कारणों पर प्रकाश।
‘‘अधिकांश लोगों के कब्ज का कारण केवल शरीर की अक्रियाशीलता है। उन्हें इसलिए कब्ज नहीं रहता कि अन्न प्रणाली में कोई विशेष रोग हो गया है, अथवा शरीर में किसी प्रकार की खराबी उत्पन्न हो गई है। कब्ज का कारण उनकी गलत आदतें हैं और हम उन्हें आसानी से सुधार सकते हैं। कार्याधिक्य के कारण हाजत होने पर भी शौच के लिये न जाना, शर्म की वजह से शौच की हाजत को रोके रहना कब्ज का कारण है। शहरों में जहां ऐसे धन्धे हैं, जिसमें आदमी, को एक स्थान पर बैठ कर काम करना पड़ता है, स्वभावतः कब्ज पैदा होता है।’’
—डॉक्टर एस.सी. दास।
‘‘कोष्ठबद्धता खासकर अनियमित खान पान से ही हुआ करती है। हम सब अन्न की भूसी निकाल देते हैं। सब तरकारियां छील कर खाते हैं। इनसे हमारी आंतों को एक विशेष प्रकार की सहायता मिलती है, पर हम अज्ञानवश इन्हें निकाल डालते हैं। मशीन द्वारा पिसे आटे का असल तत्व नष्ट हो जाता है। दाल के भी छिलके उड़ा दिये जाते हैं। इससे कोष्ठबद्धता होती है। दूसरा कारण आधुनिक रहन सहन भी है जिसमें अधिक बैठे रहना पड़ता है। 3-उदर की मांस तन्तुओं की कमजोरी, 4-ज्ञान तन्तुओं की कमजोरी, 5-उठने बैठने चलने, सोने का गलत तरीका, 6-कम जल पीना, 7-चिन्ता, 8- ताजी हवा की कमी, 9-उचित व्यायाम का अभाव, 10-तंग कपड़े पहनना, 11-अधिक मानसिक परिश्रम तथा बुरे विचार, 12-प्रकृति के विरुद्ध आचरण, 13-दुर्व्यसन, 14-ब्रह्मचर्य का अभाव, 15- भोजन में हरे शाक और फल का अभाव, 16-रेचक दवाइयों का ज्यादा व्यवहार है। इन सबों में चिन्ता प्रधान है।
—श्री दीनेश्वर नारायण शर्मा।
‘‘भोजन सम्बन्धी त्रुटियों और व्यायाम के अभाव से कब्ज होता है। यदि खाद्य पदार्थों में आटे के चोकर या बहुत सी भाजी और फलों के छिलके का फोक या रूखी चीज न हो, अगर बिना चबाये ही खाई हुई वस्तु गले के नीचे उतार दी गई, बिना भूख के कुछ खाया गया, अति भोजन किया गया........शक्ति के अनुसार व्यायाम न किया गया तो अपच के कारण भी कब्ज होगा।’’
—श्री जानकी शरण वर्मा।
‘‘जब हमारा भोजन भली प्रकार चबाया न जाय, तो उसके कण बड़े-बड़े रह जायेंगे। आंतों का पाचन रस इन कणों को घुलाने में लग जाता है और कब्ज हो जाता है। चाय पीने से कब्ज होता है। भोजन के पश्चात् मानसिक परिश्रम करने वाले को भी कब्ज हो जाता है। उस समय रक्त का दौरा पेट में होना चाहिए, मस्तिष्क में नहीं। रात्रि में सोते समय यदि रीढ़ की हड्डी सीधी न रहे तो कब्ज हो जाता है। कुपथ्य भोजन के कारण बहुधा आंतों में खुश्की आ जाती है और कब्ज हो जाता है।’’
—श्री भगवती प्रसाद जी बी.ए.।
‘‘कब्ज के मूल कारण इस प्रकार हैं— 1. बिना भूख के भोजन करना, 2. भूख से अधिक ठूंस-ठूंस कर खाना, 3. प्रायः पूड़ी-कचौड़ी, तेल और घी में भुनी हुई चीजें, जो शरीर में खटाई उत्पन्न करे खाना, 4. भोजन के साथ अधिक पेय चीजों का प्रयोग, 5. खूब चबा-चबाकर भोजन न करना, 6. दिन में कम पानी पीना, 7. दिनभर तकिये के सहारे गद्दी पर बैठे रहना, निष्क्रिय बने रहना, 8. आवश्यक व्यायाम न करना, 9. नित्यप्रति स्वच्छ वायु सेवन न करना, 10. चाय, बिस्कुट, केक, मैदा की बनी चीजें, मिर्च-मसाले, चीनी का अधिक प्रयोग, 11. मशीन में साफ किया हुआ, कण रहित चावल, चोकर निकले हुए आटे की रोटी या छिलके उतार कर पकाई जाने वाली शाक दाल भाजियां कब्ज करती हैं।’’
—स्वामी कृष्णानन्दजी।
‘‘मनुष्यों को ही घण्टों पाखाने में बैठने की जरूरत पड़ती है। इसका कारण है उनका अप्राकृतिक जीवन। गद्दी पर सुबह से शाम तक बैठे रहने वाले दुकानदार अथवा आफिस में झुक कर आठ घण्टे काम करने वाले क्लर्क के पेट की मांस पेशियां शिथिल न होंगी, तो और किसकी होंगी?’’
—डॉक्टर विट्ठलदास मोदी।
‘‘हाजत की परवाह न करना कब्ज का प्रधान कारण है। बार-बार की लापरवाही से मलद्वार के स्नायुओं की चेतना घटने लगती है। पूरा पानी न पीना बहुतों को कब्ज का कारण होता है। इसके अतिरिक्त शारीरिक व्यायाम की अवहेलना भी कब्ज का कारण होता है। बिना किसी औषधि की सहायता के आंतों को अपना काम करने के लिये तैयार किया जा सकता है। आहार के फेर फार और स्वास्थ्य सम्बन्धी कुछ विषयों के पालने से कब्ज पर सहज ही विजय पाई जा सकती है।’’
—डॉक्टर कुलरंजन मुकर्जी।
प्रत्येक बीमार मूर्ख होता है।
रोगी होने के पूर्व की मनोस्थिति को मैं मूर्खता कहता हूं। किसी न किसी रूप में, कभी न कभी, रोगी होने वाला प्रत्येक व्यक्ति मूर्खता करता है, प्रकृति के किसी नियम का उल्लंघन करता है, अपने शरीर अथवा मस्तिष्क की सीमित शक्ति का विचार न कर निरन्तर कार्य में जुटा रहता है। शक्ति का अपव्यय करने वाले को आप मूर्ख के सिवा दूसरी क्या उपाधि देंगे?
आपके अंग प्रत्यंग की शक्तियां अत्यन्त सीमित हैं। प्रायः प्रत्येक मशीन की शक्ति सीमित होती है। उसकी ताकत की जांच करली जाती है। जो तोपें गोलाबारी के लिए तैयार की जाती हैं, सर्व प्रथम उनके अन्दर अच्छी तरह बारूद भर कर जांच कर लेते हैं कि कहीं बारूद के आधिक्य से वे फट तो नहीं जातीं। इन्हीं जंची तोपों को लड़ाई को मैदान में ले जाकर गोलाबारी की जाती है। रेल के इंजन का भी यही हाल है। जहां बीस घोड़ों वाले इंजन की आवश्यकता होगी वहां तीस घोड़ों वाले इंजन का उपयोग किया जाता है। इसी प्रकार कोई भी कार्य करने में असमर्थ हो जाने की दशा में पहुंचने तक यदि हम अपने शरीर की सुध न लें और उससे अधिकाधिक कार्य लेते जायं तो हम प्रथम श्रेणी के मूर्ख हैं। इससे गुरुतर त्रुटि क्या होगी?
अपनी शक्तियों से हद से कम ही काम लेना बुद्धिमानी होगी। शक्तियों को पंगु कर देना और दुःखदायी स्थिति में फंस कर वैद्यों को फीस तथा दवा के दाम चुकाते रहने से यही उत्तम है कि कुछ देर कार्य के स्थगित कर विश्राम-पूर्ण विश्राम ले लिया जाय, और प्रकृति माता को व्यर्थ में नाराज न किया जाय। सीमा से किंचित् मात्र भी अधिक शक्ति व्यय करने से प्रकृति रुष्ट होती है, चेतावनी देती है और यदि हम नहीं मानते हैं तो उग्र रूप धारण कर सजा देती है।
प्रकृति के नियम कठोर भी हैं और मधुर भी। उसके नियमों को तोड़कर आप कदापि सुखी नहीं रह सकते। यदि हम प्रकृति माता को उपासना में दत्तचित्त रहें तो स्वास्थ्य पूर्ण जीवन प्राप्त कर सकते हैं। जैसे आप कार्य के निमित्त भांति-भांति की योजनाएं बताते हैं उसी भांति आनन्दपूर्वक विश्रांत की योजना से जीवन और निरोगता प्राप्त होती है।
हरे-भरे खेत, पशु पक्षी, वृक्ष तथा अन्य जीवों को देखिये। वे प्रकृति के नियमों को तोड़कर रात-रात भर सिनेमा नहीं देखते, चाय, सिगरेट-अफीम, गांजा, चरस, नहीं पीते, पकवान से पेट नहीं भरते, बिजली की रोशनी में आंखों से काम नहीं लेते, धन-दौलत के बदले आरोग्य को लात नहीं मारते। आरोग्य एवं आयु के बदले जो द्रव्य प्राप्त होता है वह कांच के क्षुद्र टुकड़ों के सदृश्य है। ऐसा व्यक्ति बहुमूल्य मणि के बदले कांच लेता है।
क्रिया और तत्पश्चात् विश्रान्ति—प्रकृति के इन दो अकाट्य नियमों का सदैव स्मरण रखिये। दोनों में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। एक के बिना दूसरा पंगु है। जो केवल क्रिया ही क्रिया करते हैं उनका शीघ्र क्षय होता है, उन्हें बुढ़ापा शीघ्र आ दबाता है। इसके विपरीत, जो जीवन में विश्रान्ति की भी अनुकूल योजना करते हैं वे अधिक काल तक स्वास्थ्यमय जीवन भोगते हैं।
दीर्घ जीवन और पूर्ण विश्राम के लिये, बेफिक्र होकर विश्रान्ति से लाभ प्राप्त कीजिये। विश्रान्ति के द्वारा पोषित होकर आपकी शक्तियां नवजीवन प्राप्त कर सकेंगी। जिस प्रकार बैंकों में ‘‘रिजर्व फण्ड’’ रहता है आप भी अपने शक्ति संचय पर ध्यान रखें, उस स्थायी कोष की समय-समय पर अभिवृद्धि करते रहें और नित्यप्रति की आवश्यकताओं से बचाकर आने के निमित्त संचित रखें। जो मनुष्य युवावस्था में आरोग्य और बल का संग्रह करते रहते हैं, योंही प्रलोभन के वशीभूत होकर व्यर्थ व्यय नहीं कर देते, वे वृद्धावस्था में भी यथेष्ट बलवान होते हैं और जल्दी यमराज के अतिथि नहीं बनते। कभी-कभी साधारण वातावरण में भी विभिन्न कारणों से व्याधि फूट पड़ती है। ऐसे कठिन प्रसंगों में यह संचित शक्ति काम आती है। आप जितना कमाते हैं, उससे कम व्यय करते हैं, इसी भांति आवश्यकता से अधिक बल का संग्रह आपके लिये एक अत्यन्त आवश्यक तत्व है।
नशीली वस्तुएं उत्तेजना फैलाकर इतनी तेजी पैदा करती हैं जिससे प्रतीत होता है मानो हम शक्ति के ज्योतिर्मय पिंड हैं। क्षणिक जीवन में आकर व्यसनी व्यक्ति अपेक्षाकृत अधिक शक्ति व्यय कर डालता है, और फिर पछताता है। हम में जितना बल आवे उतना ही नित्य व्यय कर देना कोई बुद्धिमानी नहीं। अतएव जीवन-यात्रा में हमें इस प्रकार अग्रसर होना चाहिए कि थोड़ी थोड़ी शक्ति प्रतिदिन संचित होती चले।
उत्तेजक मनोविकारों से अपनी मनःशक्ति की रक्षा करो। उनसे आयु क्षीण होती है। रोगों का आक्रमण होता है। आवेश और विक्षोभ तुम्हें मूर्ख बनाकर बीमारी का शिकार बनाते हैं। घृणा, कामुकता, क्रोध और द्वेष इत्यादि तीव्र विकारों से अपने को बचाओ। ये तुम्हारे अन्तःकरण में भयंकर तूफान मचाकर क्षण भर में सारे दिन की समता एवं शान्ति को भंग कर देते और जीवन में प्रेम और मृदुता की मात्रा को क्षीण करते हैं। इन विकृत विचारों से मुक्त होकर अन्तःकरण विशुद्ध एवं निर्मल हो जाता है तब मनुष्य स्वयं अनुभव करता है कि बीमारी तमोगुण के गहन अन्धकार से आच्छादित विक्षिप्त बुद्धि का एक क्षुद्र उपहास मात्र है।